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पद्मचरित का परिचय : ३३ है।११ ज्ञानाग्नि दर्शनाग्नि और जठराग्नि शरीर में सदा विद्यमान रहती है, विद्वानों को उन्हीं में दक्षिणाग्नि, गार्हपत्याग्नि और माहवनीयाग्नि इन तीन अग्नियों की स्थापना करनी चाहिए । १७०
७६ पर्व में लक्ष्मण के द्वारा छोड़े गये चक्र को रोकने में उद्यत रावण की उपमा हिरण्यकशिपु से की गई है___ "जिस तरह पूर्व में नारायण के द्वारा चलाए हुए धक्र को रोकने के लिए हिरण्यकशिपु उद्यत हुआ था, उसी प्रकार कोष से भरा रावण बाणों के द्वारा चक्र को रोकने के लिए उद्यत हुआ ।"१७१
८२वें पर्व में साहसगति विद्याधर को वुत्र का नाती कहा गया है । १७१
९७३ पत्र में सीता के रथ का वर्णन करते हुए कहा गया है कि जिस पर राम रूपी इन्द्र की प्रिया-इन्द्राणी मारूद थी, जिसका वेग मनोरथ के समान तीन था और जिसके बोड़े कृतान्तवका रूपी मातलि के द्वारा प्रेरित थे ऐसा वह रण अत्यधिक सुमित हो रहा था ।१७३
(सब कुछ ब्रह्म ही ब्रह्मा है इस प्रकार) ब्रह्मतावाद में मूढ़ तथा पशुओं की हिसा में आसक्त रहने वाले दो बाह्मणों की (१०९वा पर्व में) हंसी उड़ाते हए कहा गया है कि इन दोनों ब्राह्मणों ने सुख की इच्छुक समस्त प्रजा को लूट डाला है । १७४ प्राह्मणों का जैन दृष्टि से लक्षण देते हुए कहा गया है कि यथार्थ में वे ही ब्राह्मण कहलाते हैं जो अहिंसावत को धारण करते हैं । ७५ पो महावत रूपी लम्बी चोटी धारण करते हैं, जो श्रमा रूपी यज्ञोपवीत से सहित है, जो ध्यान रूपी अग्नि में होम करने वाले हैं, शान्त है तथा मुक्ति के सिम करने में तत्पर
१६९. यजमानो भवेदात्मा शरीरं तु वितदिका ।
पुरोडाशस्तु संतोषः परित्यागस्तथा हविः ।। मूर्धजा एव दर्भाणि दक्षिणा प्राणिरक्षणम् । प्राणायामः सितं ध्यानं यस्य सिद्धपदं फलम् ।। सत्यं यूपस्तपो वह्निमनिसंसपलं पशुः ।
समिधाच हषीफाणि धर्मयज्ञोऽयमभ्यते । पदमः ११०२४२-२४४ । १७०. पद्म० ११५२४८ । १७१. हिरण्यकशिक्षिप्तं हरिणेव तदायुधम् ।
निवारयितुमुद्युक्तः संरधो रावणः शारः ॥ पद्म ७६।३० । १७२. १०० ८२।४५ । १७३. पम० ९७४८० । १७४, वही, १०९/७९ ।
१७५. वही, १०९५८० ।