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३२ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति 'ईश्वरमार्गणः' अर्थात् धनिकवर्ग की याचना से प्राप्त सन्ताप को प्राप्त नहीं थे--११५ सभी सुखी थे।"
राजा ग्रेणिक का वर्णन करते हुए रविर्षेण विष्णु, महादेव, इन्द्र और यमराज की चेष्टाओं का सल्लेख करते हैं
'हरि अर्थात् विष्णु की चेष्टायें तो वृषघाती अर्थात् वृषासुर को नष्ट करने बाली थीं, पर (राजा श्रेणिक की) पेष्टायें वृषघाती अर्थात् धर्म का घात करने बाली नहीं थीं। महादेव जी का वैभव दक्षवतापि अर्थात् राजा दक्ष के परिवार को सान हुंचा पाला या परन्तु उसका संभव दक्षधर्मतापि अर्थात् चार मनुष्यों के समूह को सन्ताप पहुँचाने वाला नहीं था ।
"जिस प्रकार इन्द्र की चेष्टा गोत्रनाशकारी अर्थात् पर्वतों का नाश करने वाली थी उसी प्रकार उसकी चेष्टा गोत्रनाशकारी अति वंश का नाश करने वाली नहीं थी और जिस प्रकार दक्षिण दिशा के अधिपति यमगज के अतिदण्डग्रहप्रीति अर्थात् दण्च धारण करने में अधिक प्रीति रहती है उसी प्रकार उसके अतिदण्डग्रहप्रीति अर्थात् बहुत भारी सजा देने में प्रोति नहीं रहती थी ।१५७
अज्ञ का जैन परम्परा में निषेच किया गया है। इसी की पुष्टि करते हुए रविषेण कहते हैं--या की कल्पना से कोई प्रयोजन नहीं है (यज्ञ की कल्पना करना ही व्यर्थ है) अदि कल्पना करना ही है तो हिसायज्ञ की कल्पना नहीं करना चाहिए. 1१५८ बस्कि धर्मवज्ञ की कल्पना करनी चाहिए। इस धर्मयज्ञ का जो स्वरूप रविषेण ने निर्धारित किया उसे वास्तव में वैदिक यज्ञ का जैनीकरण ही किया जाना कहना चाहिए। तदनुसार आत्मा यजमान है, शरीर वंदी है, सन्तोष साकल्य है, स्पाम होम है, मस्तक के बाल कुशा है, प्राणियों की रक्षा दक्षिणा है, शुक्लध्यान (उत्कृष्टध्यान) प्राणायाम है, सिद्धपद की प्राप्ति होना फल है, सत्य बोलना स्तम्न है, ता अग्नि है, चंचल मन पशु है और इन्द्रियों समिधायें हैं। इन सबसे यज्ञ करना चाहिए, यही धर्मयज्ञ कहलाता
--- - ---- १६५. सन्तापमपरिप्राप्तः कृतमीश्वरमार्गणः ।
मनुजैर्यत्करोतीव त्रिपुरस्य जिगीषुताम् ।। पदम० २।३६ । १६६. वृषघातीनि नो यस्य चरितानि हरेरिव ।
नैश्चर्य चेष्टितं दशवर्गतापि पिनाकिवत् ।। पद्म० २०६१ । १६७. गोत्रनाशकरी चेष्टा नामराधिपतेरिष ।।
नाति दण्डग्रहप्रीतिर्दक्षिणाशा विभोरिघ ।। पद्म० २।६२ । १६८. वही, ११।२४१ ।