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८२ : पचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति इस विकसित अवस्था के स्पष्ट वर्शन होते है, जैसा कि निम्नलिखित विवरण से स्पष्ट है-..
वाणिज्य-कृषि तथा औद्योगिक शिल्पों से उत्पन्न वस्तुओं का क्रय-विक्रय हुआ करता था। १४३ पर्व में बेर आदि को बेचने वाले भद्र नामक पुरुष को कथा आती है। उसने यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं एक दीनार का ही परिग्रह रतूंगा । ४२८ इसमे ज्ञात होता है कि क्रय-विक्रय का माध्यम दीनारें थों । ४५९ काम्पित्य नगर में बाईस करोड़ दीनारों का धनो एक वैश्य रहता था ।५०° इससे स्पष्ट है कि संचित धन के रूप में लोग दीनारों को रखते थे। धनोपार्जन के लिए लोग विदेशों में भी जाया करते थे। एक स्थान पर कहा गया है कि धन का उपार्जन करना, विद्याग्रहण करना और धर्म संचय करना पे तीनों कार्य यद्यपि मनुष्य के आधीन है फिर भी प्रायः इनकी सिद्धि विदेशों में होती है ।५०५ व्यापार करने के लिए व्यापारियों के बड़े-बड़े संघ विदेशों में जाया करते थे। द्वितीय पर्व में वर्द्धमान जिनेन्द्र की स्तुति में इन्द्र कहता है कि आप सार्थवह ०२ हो, भव्य जीव रूपी व्यापारी आपके साथ गिर्वाण धाम को प्राप्त करेंगे तथा दोष रूपी चोर उन्हें नहीं लूट सकेंगे। समुद्री मार्गों की दूरी तय करने के लिए नौकाओं (नौ)१०३ से लेकर बड़े-बड़े जहाज तक प्रयुक्त किए जाते थे । जहाज के लिए पोत०४ तथा पानपत्र शब्द प्रयुक्त किए जाते थे। ब्यापार करने वाले को वणिज्"", वणिक, तथा वैश्य कहते थे। इनकी क्रिमा वाणिज्य कहलाती थी । वाणिज्य विद्या की विधिवत् शिक्षा दी आती थी। संतीस पर्व में विद्युदग का व्यापार की विद्या से युक्त हो (युक्तो वाणिज्यविद्यया) उज्जयिनी नगरी जाने का उल्लेख हुआ है ।५०८ स्थल व्यापार में मार्ग की दूरी तय करने के लिए५०५ शकट (गाड़ो) का उपयोग किया जाता था । आवश्यकता पड़ने पर ४९८. पद्म १४।१९५। ४९९. पद्म० ७११६४३ ५००. वहीं, ८५।८५ ।
५०१. वही, २५।४४ । ५०२. समान या सयुक्त अर्थ (पूजी) वाले व्यापारी जो बाहरी मण्डियों के
साथ व्यापार करने के लिए टौडा लादकर चलते थे वे साथ कहलाते पे । उनका नेता ज्येष्ठ व्यापारी सार्थवाह कहलाता था। डॉ. मोतीचन्द्र :
सार्थवाह (भूमिका), पृ० १०२।। ५०३. पद्म० ११०५६ । ५०४. पद्म. १०।१७४, ८३८०, ४५।६९ । ५०५. वही, ११८।९९, ५५.६१ । ५०१. वहीं, ५।४१, ६।१५४ । ५०७. वही, ५५।६।
५०८. वही, १३३।१४५ । ५०९. वही, ३३।४६ ।