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१२४: पप्रचरित और उसमें प्रतिपाणि:
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संवेजनी-संसार से मप उत्पन्न करनेवाली कथा संवैजनो है । निवेदनी-भोगो से वैराम्म उत्पन्न करनेवाली पुण्यवर्दक कथा निदनी
मनोरंजन के लिए अलौफिक साघमों से अलौकिक सिद्धियों का प्रदर्शन इन्द्रबाल है। एपचरित के पंचम पर्व में श्रुतसागर मुनि महारक्ष विद्याघर को वैराग्य का उपदेश देते हुए कहते हैं कि जो करोड़ों कल्प तक प्राप्त होने वाले देशों के भौगों से सथा विद्याघरों के मनचाहे भोग-विलास से सम्तुष्ट नहीं हो सका, वह तभाउ दिन तक प्राप्त होने वाले स्वप्न अथवा जाल (इन्द्रजाल) सदा भोगों से कैसे तप्त होगा। प्राचीनकाल में इन्द्रजाल के अनेक उल्लेख प्राप्त होते है। इन उल्लेखों से इन्द्रजाल के विकास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।
७०. प. १०६।१३ ।
७१. १५० १०६।९३। ७२. वहीं, २८।१६५। ७३. अष्टभिर्दिवस : स त्वं कथं प्राप्स्यसि तर्पणम् ।
स्वप्नजालोपमैमोगरधुना भज्यतां शमः ॥ प. ५।३५९ । ७४, प्रारम्भ में इन्द्रजाल शब्द का प्रयोग इन्द्र के जाल (माया) के अर्थ में हमा (अथर्व ८1८1८)। इन देवसेना का नेता था।बह मसुरों को जब साधारण अस्त्र-पास्त्रों से पराजित न कर सका तो सम्भवतः उसने कुछ अलौकिक
और अद्भुत प्रयोगों के द्वारा विजय प्राप्त की थी ! ऐसे प्रयोगों को इन्द्र जाल कहा गपा । पातपथ ब्राह्मण में असुविद्या (माया) का माम मिलता है। यह इन्द्रजाल है और यश के अवसर पर निष्पन्न होता या (शतपथ ग्राहाण १३।४।३।११) । बौद्ध साहित्य के अनुसार इन्द्रजाल के निम्नलिखित रूप प्रचलित थे--मन्त्रवल से जीभ बाँधना, ठुड्डी को बाँध देना, किमी के हाथ को उलट देना, किसी के कान को बहरा बना देना, दर्पण पर देवता बुलाकर प्रश्न करना, मुंह से अग्नि निकालना मादि । इसके अतिरिक्त गान्धारी विधा में बौक्षभिक्षु एक से अनेक और अनेक से एक हो जाते थे। मिम्तामणि विद्या के द्वारा दूसरों की बात मान लेते थे (दोघ. निकाय १।१ महासील ११११) 1
सूत्र-कृतांग में इन्मजाल के द्वारा मनोरंजन करते हुए अपनी जीविका कमाने वाले मदारियों के उल्लेख मिलते हैं। उनके प्रदर्शन निम्नलिखित प्रकार के होते थे--पुच्छलतारा गिराना, चन्द्र, सूर्य आदि के मार्ग