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१६२ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति प्रकार के हाथी और सिंहों को सचमुच का हाथो और सिंह समझ पैदल सैनिक भयभीत और अत्यन्त विह्वलो साप्त डो भागने लने थे ."
बास्तु-कला मानसार के अनुसार भूमि, हर्म्य (भवन आदि), मान एवं पयंक इन चारों का ही वास्तु-शब्द से घोष होता है। वास्तु की इस चतुर्मुखी व्यापकता की सोदाहरण व्याख्या करते हुए डा० प्रसन्नकुमार आचार्य वास्तु विश्वकोश (पू. ४५६) में लिखते हैं-'हर्म्य में प्रासाद, मण्डप, सभा, शाला, प्रपा तथा रंग ये सभी सम्मिलित है । यान आदिक स्पन्दन, शिविका एवं रथ का बोधक है। पर्यक में पंजर, मंचली, मंच, फलकासन तथा बाल-पर्यक सम्मिलित है। वास्तुशब्द ग्रामों, पुरों, दुर्गा पत्तनों, पुटभेदनों, आवासभवनों एवं निवेश्यभूमि का भी वाचक है । साथ ही मूर्तिकला अथवा पाषाणकला वास्तुकला की सहचरी कही जा सकती है । ७४
नगर वास्तु नगरप्रभेद-नगरप्रभेद के अन्तर्गत खेट, कपट, द्रोणमख आदि आते हैं। इन सबका विवरण राजनैतिक जीवनवाले अध्याय में दिया जा चुका है ।
मट ३५- मठ या विहार उस स्थान को कहते हैं जहाँ छात्रों के आवास एवं अध्ययन के स्थान हों। परन्तु कालान्तर पाकर ये ही छोटे-छोटे गुरुगृह, कुलपति-कुटीर, छात्रावास तथा भिक्षु-खटज बड़े-बड़े नगरों के आकार में परिणत हो गए ।१७५ पनचरित के ३३वें पर्व के उल्लेख से इन मठों के वातावरण की बहुत कुछ जानकारी प्राप्त होती है ।
एक बार भ्रमण करते हुए राम जटिल (जटाघारो) तापसियों के प्राथम में पहुँचे । उस आश्रम में अनेक मट बने थे । मठों पर विशाल पसे छाए थे। सबके आगे बैठने के लिए चबूतरे बने हुए थे। इन चबूतरों पर एक ओर पलाश तथा ऊपर की लकड़ियों को गहिहयाँ यों। बिना जोते-चोए अपने आप उत्पन्न होने वाले धान उनके आश्रम में सूरन रहे थे । निश्चिन्तता से हरिण वहाँ रोमम्य कर रहे थे । जटाधारी बालक उन मठों में जोर-जोर से रटा करते थे । गायों के
१७३. दृष्ट्वा पादचरास्त्रस्ताः सत्यव्यालाभिशखिताः ।
पलायितुं समारब्बाः प्राप्ता विह्वलतां पराम् ।। पद्म० ७१।२१ । १७४. द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल : भारतीय स्थापत्य, पृ० १७ । १७५. पद्म० ३३।३। १७६. द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल : भारतीय स्थापत्य, पृ० ५८ ।