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६० : पपचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
अग्रभाग से वह पृथ्वी को साबित कर रहा था, उससे ऐसा जान पड़ता था, मानों मृदंग ही बजा रहा हो। साधारण व्यक्ति उस पर धढ़ने में असमर्थ थे तथा उसका नथना कम्पित हो रहा था ।
उपर्युक्त वर्णन से श्रेष्ठ घोड़े के लक्षणों पर बहुत प्रकाश पड़ता है। इससे इस बात की भी पुष्टि होती है कि उस समय के अश्वपरीक्षक कतिपय लक्षणों को देखकर अश्व की श्रेष्ठता वा श्रेष्ठता का ज्ञान करते थे । इसका अर्थ यह हूँ कि उस समय अश्वविद्या विकसित अवस्था में थी ।
लोकज्ञता - इसी लोक में जीव की नाना पर्यायों ( अवस्थाओं) की उत्पत्ति हुई हैं, उसी में यह (जीव) स्थित है और उसी में इसका नाया होता है यह सब जानना लोकज्ञता है । यह लोकजता प्राप्त होना कठिन है । २७५ लोक की अयस्थिति के विषय में कहा गया है कि पूर्वापर, पर्वत, पृथ्वी, द्वीप देश वादि भेदों में यह लोक स्वभाव में ही अवस्थित हैं ।'
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लोक के प्रकार - आश्रित और आश्रय के भेद से । इनमें से जीव और अजीब तो आश्रित हैं तथा आश्रय हैं । २७३
वृद्धि के लिए मन्त्र
इनमें से अनेक युद्ध
मन्त्र शक्ति से प्राप्त विद्यायें -- लक्ष्मी और बल की शक्ति से भी अनेक विद्याओं को सिद्ध किया जाता था। कार्य में सहायक होती थीं । मन्त्र जपने के बाद या दृढ़ निश्चय के कारण उससे पहले ही ये विद्यायें शरीरधारिणी के रूप में हाथ जोड़ कर उपस्थित हो जाया करतो थीं। पश्चात् समय पड़ने पर स्वामी के स्मरण मात्र से अपनी शक्ति के अनुसार यथेष्ट कार्य करती थीं। पद्मचरित में इस प्रकार की निम्नलिखित विद्याओं के नाम आये हैं
.२.७४
लोक दो प्रकार का पृथ्वी आदि उनके
सर्वकामान्नदा ७।२६४
नभः संचारिणी ७।३२५
कामदायिनी (कामदामिनी ) ७३२५ दुर्निवारा ७।३२५
जगत्कम्पा ७।३२५
प्रज्ञप्ति ७ । ३२५
अणिमा ७।३२६
मानुमालिनो ७।३२५ लघिमा ७।३२६
सीम्या ७।३२६
२७१. तत्र नानाभवोत्पत्तिः स्थितिर्नश्वरता तथा ।
शायते यदिदं प्रोक्तं लोकज्ञत्वं
२७२. पद्म० २४७२ । २७४. वहीं, ७३१५ ।
सुदुर्गमम् । पद्म० २४।७१ । २७३. पद्म० २४।७० ।