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अध्याय २
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सामाजिक व्यवस्था सर्वप्रथम भरत क्षेत्र में भोगभूमि यो 1 स्त्री पुरुष का जोड़ा साथ ही साथ उत्पन्न होता था . ही न म मी की -3 पले-बड़े बाग-बगीचे और विस्तृत भूभाग से सहित महल, शयन, आसन, मद्य, इण्ट और मधुर पेय, भोजन, वस्त्र, अनुलेपन, तुरही के मनोहर शब्द, दूर-दूर तक फैलने वाली सुन्दर गन्ध तथा अन्य अनेक प्रकार की सामग्री कल्पवृक्षों से प्राप्त होती थी। इस प्रकार वहां के दम्पती दस प्रकार के सुन्दर कल्पवृक्षों के नीचे देव दम्पती के समान दिन-रात क्रीडा किया करते थे । स्त्री पुरुषों के परस्पर निकट रहने के साथ ही सामाजिक जीवन का प्रारम्भ माना जा सकता है । तृतीय काल का अन्त होने के कारण जब कल्पवृक्षों का समूह नष्ट होने लगा तब चौदह कुलकर उत्पन्न हुए । कुलकरों के कार्य के सम्बन्ध में इन्हें 'व्यवस्थानां प्रदेशकः४ अर्थात् व्यवस्थाओं का निर्देश करने वाले कहा गया है । अतः सामाजिक यवस्था का विशेष आरम्भ यहाँ मानना चाहिए । प्रजाओं के कुलों की वृद्धि करने के कारण (या वृद्धि का निर्देश देने के कारण) ये पिता के समान कहे गये है।" इस समय इसुरस जो कि लोगों का प्रमुख आहार था अपने आप निकलना बन्द हो गया । लोग यन्त्रों के द्वारा ईख पेलने तथा उसके संस्कार करने की विधि नहीं जानते थे इसलिए भूख से पीड़ित होकर भ्याकुल होने लगे तब ऋषभदेव ने प्रजा को सैकड़ों प्रकार की शिल्पकलाओं का उपदेश दिया। उन्होंने नगरों का विभाग, ग्राम आदि का बसाना और मकान आदि बनाने की कला प्रजा को सिखाई। इन सबके सहयोग से सामाजिक जीवन का विकास होता गया। परिवार
परिवार सामाजिक जीवन की रीढ़ है । परिवार में पति और पत्नी के अतिरिक्त माता-पिता, भ्राता-भगिनी, पुत्र-पुत्री आदि रहते हैं। साधारणतया
१. पड्मचरित ३५१ । ३. वही, ३।७४ । ५. वही, ३८८ ! ७. वही, १२३५ ।
२. पद्म ३०६१-६३ । ४. वहीं, ३१७६। ६. वही, ३।२३४ ।