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२८ : पमवरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
इन सब विशेषताओं के कारण पद्मर्धारित की गणना संस्कृत के उत्कृष्ट महाकाव्यों में की जा सकती है। सातवीं शती ई० के आचार्य दण्डो ने अपने काव्यादर्श में महाकाव्य के जो लक्षण निर्धारित किये हैं। पद्मचरित उन लक्षणों के आधार पर भी महाकाव्य सिद्ध होता है ।
जैन कथा साहित्य और पद्मचरित
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जेनकथा साहित्य बहुत विशाल हैं। प्राकृत संस्कृत, अपभ्रंश और बाधुनिक भारतीय भाषाओं में इस प्रकार का साहित्य प्रचुर मात्रा में रचा गया । इनमें पद्मचरित का स्थान अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है । संस्कृत जैन कथा साहित्य का यह आद्यग्रंथ है । १५० सं० १८१८ में दौलतराम ने इसका भाषा ( पुरानी हिन्दी) में अनुवाद किया जा हिन्दी अनुवाद उपलब्ध होने से यह के घर-घर में पढ़ा जाता है। उपलब्ध ग्रंथों के आधार पर पद्मचरित विमलसूरि की प्राकृत रचना पउमचरिय के आधार पर लिखा गया सिद्ध होता है, लेकिन रविषेण ने अपनी नैसर्गिक काव्यात्मक प्रतिभा के द्वारा इसको खूब पस्लवित किया है, इस कारण इसका आकार प्राकृत पउमचरिय से ड्योढ़ा हो गया। बाद में इसके आधार पर अनेक ग्रन्थों की रचना हुई । ४० रेवरेंड फादर कामिल बुल्के ने अपने शोध प्रबन्ध 'रामकथा' (उत्पत्ति और विकास) में 'पउमचरिय के आधार पर रचे गये ग्रंथों की सूची ' प्रस्तुत की है। चूंकि पद्मचरित भी इसी परम्परा का है अतः इसका भी इन सब पर अमिट प्रभाव है । बारहवीं सदी ईस्वी में हेमचन्द्र ने त्रिशष्टिशलाका पुरुष चरित ग्रंथ लिखा ! इसके अन्तर्गत दी गई रामकथा का रूप रविषेण के पद्मचरित से मिलताजुलता है। हेमचन्द्र द्वारा की गई योगशास्त्र की टीका के अन्तर्गत दिया गया 'सीता रावण कथानकम् मी पद्मचरित के आधार पर लिखा गया । १५वीं सदी ई० में इसके आधार पर जिनवास ने रामायण अथवा रामदेव पुराण की रचना की । सोलहवीं सदी ई० में पद्मवेव विजयमणि ने रामचरित लिखा । इसी समय सोमसेन ने रामचरित नामक ग्रन्थ की रचना की । आचार्य सोमप्रभ लघुत्रिका पुरुष चरित में तथा विजयगणिवर (१७वीं सदी ई०) कृत
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१४९. इस प्रकार के ग्रन्थों को बहुत कुछ जानकारी डॉ० हीरालाल जैन ने अपने भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान नामक ग्रंथ में दी है । विशेष जिज्ञासु को वहीं से देख लेना चाहिए ।
१५०. वाचस्पति गैहरोला संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, ५० २७१ । १५१. रामकथा (बुल्के), पू० ६८ ।
१५२. बही, पृ० ६८, ६९ ।