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पद्मचरित का परिचय : २७ निर्दोष रचना को भी दोषयुक्त देखते हैं। जिस प्रकार किसी सरोवर में जल आने के द्वार पर लगी हुई जाली जल को तो नहीं रोकती किन्तु कूड़ा कर्कट को रोक लेती है उसी प्रकार दुष्ट मनुष्य गुणों को तो रोक नहीं पाते किन्तु कूड़ा कर्कट के समान दोषों को ही रोककर धारण करते हैं । १३०
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पद्मचरित में १२३ पर्व ( सगं ) हैं । प्रत्येक पर्व में अनुष्टुप छंद का प्रयोग किया गया है, किन्तु पर्थ के अन्त में अनुष्टुप से भिन्न अन्य छन्दों का प्रयोग किया गया है। प्रकरणानुसार इस काव्य में रात्रि विवाह, १३२ नदी, १५० युद्ध, नगर, १४५ संयो १४२
173
૧૪૭
१३४
१३५
१३३
१३७
यात्रा,
१४४
प्रातःकाल, तथा
यज्ञ
ऋतु, वन, पर्वत, १३८ वियोग, १४५ मुनि, स्वर्ग, १४४ १४६ आदि का सांगोपांग वर्णन मिलता है। इसके अतिरिक्त जल क्रीडा १४७ तथा मधुपानादिक' का भी इस काव्य में सांगोपांग निरूपण किया गया है ।
१४८
१३०. गुणदोषसमाहारे गुणान् गृह णन्ति साधवः ।
अभ्युदय, पुत्र,
१४५
क्षीरवारिसमाहारे हंसः क्षीरमिवाखिलम् ॥ पद्म० ११३५ । गुणदोषसमाहारे दोषान् गृह्णन्त्यसाधवः |
मुक्ताफलानि सन्त्यज्य काका मन द्विपात् ।। ० १३६ । अदोषामपि दोषावतां पश्यन्ति रचनां खलाः । रत्रिमूर्तिमिवोलुकास्तमालदल कालिकाम् ।। पदुम ० १ ३७ । सरो जलागमद्वारजालकानीव दुर्जनाः ।
धारयन्ति सदा दोषान् गुणवम्धनयजिताः । पद्म० ११३८ । १३१. पम० २/२००-२१८ । १३२. पद्म० अष्टम पर्व ।
१३३. वही १०५९-६४, ४२१६१-७४ । १३४, वही, १२१८१-२१९, ५०११४-३३ । १३५. बहो, ३५।४५-६५ ।
१३६. वही, ३५/३५-३८, ४३।१-१५ ।
१३७, वही, ४१।३-४, ४२/१-५१ ।
१३९. वहीं, ७ १९-३२ ।
१४१, वही पर्व २३, २४, दशरथ और जनक की यात्रा ।
९१४२. दही, १६।१०७-२१३ ।
१३८. पद्म० ४२।६० ।
१४०. वही, २०९ ३८५ ।
१४३. वही, १२३ प ८७९-१४ । १४४. पद्म० १०९।२०-२५ ।
१४५. वही, ३।१४२-१४८ ।
१४६. वही, ११।१०६-११० ।
१४७, वही ४० १९-२३, ८ ९०-१०० ।
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१४८. वही, ७३ १३९, १३६-१४५ ।