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पदमचरित का परिचय : २९ लधुत्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित को गमकमा भी रविषेण से मिलती है। इन रचनाओं के अतिरिक्त जिनरत्नकोध में धर्मकीति चन्द्रकीति, चन्द्रसागर, श्रीचन्द्र, पमनाथ आदि द्वारा रचित विभिन्न पदमपुराण अथवा रामचरित नामक ग्रन्थों का उल्लेख है। सीता चरित्र के सीन रचयिताओं के नाम मिलते है-ब्रह्म नेमिदत, शांतिसूरि तथा अमरदास । अधिकांश सामग्री अप्रकाशित है। दसवीं शताब्दी के हरिषेणकृत कथाकोष में रामायण कथानकम तथा सीवा कथानकम् पाया जाता है। इस अन्तिम रचना में विमालसरि तथा रविषेण के अनुसार सीता की अग्नि परीक्षा वर्णित है, लेकिन रामायणकथानकम् अधिकांश में वाल्मीकीय कथा पर निर्भर है । पृण्याश्रब कयाकोष में लव कुश की जो कचा मिलती है वह भी विमलसूरि की परम्परा पर निर्भर है । हरिभद्रकृत धूख्यिाम (८वीं सदी ई०) तथा अमितगति कृत धर्मपरीक्षा (११वीं सदी ई.) में वाल्मीकि रामायण में घणित हनुमान के समुद्रलंघन जैसी घटनाओं को हास्यास्पद बताया गया है । शत्रुजय माहात्म्य (१२वीं सदी ई०) के न सर्ग में रामकथा विमलसूरि तथा रविषेण के अनुसार है, किन्तु कैकयी, राम और लक्ष्मण दोनों के वनवास का वर मांग लेती है। __ अपभ्रंश साहित्य में सर्वप्रथम स्वयंभूदेव ने पचमचरित की रचना की। इसकी रचना पूरी तरह से रविषेण के पद्मचरित के आधार पर की गई । अपने ग्रन्थ की पक्कमो संघि (प्रथम संधि) में स्वयम्भू देव ने रविषेषाचार्य द्वारा दी गई आचार्य परम्परा के अन्त में रविषेण का नाम जोड़कर उनका नाम स्मरण करने के साथ-साथ उनके अन्य के आधार पर अपनी ग्रन्थ रचना करने की बात कही है। स्वयम्भू को महापण्डित राहुल सांकृत्यायम ने विश्व का महाकवि माना है। उनके मतानुसार तुलसी रामायण स्वयम्भू रामायण से बहुत प्रभावित रही है। स्वयम्भू और उनकी रामायण के विषय में एक जगह वे लिखते हैं- स्वयम्भू कविराज कहे गये है किन्तु इतने से स्वयम्भू की महत्ता को नहीं समझा जा सकता । मैं समझता हूँ ८वीं शताम्दी से लेकर २०नौं शताब्दी तक की १३ शताब्दियों में जितने कवियों की अपनी अमर कृतियों से हिन्दी कविता साहित्य को पूरा किया है, उनमें स्वयम्भू सबसे बड़े कवि है । १५४ राहुल जी ने यह भी अनुमान लगाया कि तुलसी बाबा ने स्वयम्भू रामायण को जरूर देखा होगा । तुलसीदास जी के 'ते प्राकृत कधि परम सयाने । जिन भाषा हरिचरित बखाने' उक्ति से यह प्रमाणित होता है । राहुल जी की समझ में तुलसी बाबा ने
१५३. पदमचरित-पढमो संधि ६-११ । १५४. महावीर जयन्ती स्मारिका, पृ० २१ (अप्रैल, १९६४) ।