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३० : पदमवरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
'क्वचिदन्यतोऽपि' से स्वयम्भ रामायण की ओर संकेत किया है । ५५ राहुल जी के कथन का इतना प्रभाव अवश्य हुआ कि तुलसीदास के मानस का अध्ययन करने वाले विद्वान् सीधे वाल्मीकि की ओर न देखकर स्वयम्भ के 'परामचरिउ' की ओर देखने लगे। मानस के अध्ययन के लिए पण्डितों को संस्कृत रामायण की अपेक्षा अपभ्रंश को इस रचना में भाषा, भाव, काम्य, रूप कथानक, रूदि और अभिप्राय (मोटिफ्स) आदि की दृष्टि से अधिक निकटता का अनुभव हुआ । १५. रामचरित मानस पर स्वयम्भू के इस प्रभाव को देखते हुए अप्रत्यक्ष रूप से 'पद्मचरित' का भी प्रभाव पड़ा कहा जा सकता है, क्योंकि स्वमम्मू ने पदमचरित के आधार पर ही पउमरिउ की रचना की घो। १५वीं सदी में महाकवि राधू ने पद्मपुराण अथवा बलभद पुराण की रचना की । रहधू की इस रचना पर स्वरभू का प्रभाव नहीं । पद्मचरित में संकेतित ब्राह्मण धर्म
पद्मचरित के अध्ययन से पता चलता है कि रविषेण को ब्राह्मण धर्म का गम्भीर ज्ञान था। पद्मचरित में समय-समय पर संकेतित पौराणिक आख्यानों, वृत्तों, घटनाओं तथा पूर्व पक्ष के रूप में उपस्थापित दार्शनिक सिद्धान्तों से रविपण का ब्राह्मण धर्म तथा दर्शन सम्बन्धी गम्भीरतम ज्ञान प्रकट होता है। पद्मचरित की रचना ही इसलिए हुई कि ब्राह्मण धर्म के ग्रन्थों (रामायण आदि) में राक्षस आदि का जो स्वरूप तथा कार्यकलाप आदि निर्धारित किया गया था वह रविषेण को अपनी पार्मिक और पौराणिक मान्यता के अनुसार अभीष्ट नहीं पा ।'५ अभीष्ट म होने का कारण रविषेण के अनुसार इस कथानक का युक्तिपूर्ण न होना ही था।५८ रामायण की इस मान्यता की ओर ध्यान बाषित करते हुए लोगों ने कान तक खींचकर छोड़े हुए बाणों से देव के अधिपति इन्द्र को पराजित किया था, रविषेण आलोचना करते हुए कहते है कि कहाँ तो देव का स्वामी इन्द्र और कहाँ यह तुच्छ मनुष्य जो कि इन्द्र को चिन्तामात्र से भस्म की राशि हो सकता था । १५९ जिस के ऐरावत हाथी था और वन जैसा महान् पास्य पा एवं जो सुमेरु पर्वत और समुद्रों से सुशोभित पृथ्वी को अनायास ही उठा सकता था ऐसा इन्द्र अल्पशक्ति के धारक विद्याधर के द्वारा, जोकि एक साधारण मनुष्य ही था कैसे पराजित हो सकता था ।१५० रामायण में यह भी १५५. काव्यधारा अवतरणिका, पृ० ५२ । १५६. महावीर जयन्ती स्मारिका, प. ४७ (अप्रैल, सन् १९६२) । १५७. पद्म० २।२३०-२४९ । १५८, पद्म, २२४९ । १५९. वही, २।२४१-२४३ ।
१६०. वहीं, २२४४-२४५ ।