________________
समालिक मास्या : ५१
काव्य पद वाक्यादि रूप होने से किसी के द्वारा बनाया गया है । ७४ यहाँ वेद शास्त्र है इसी बात को असिद्ध ठहराया गया है क्योंकि शास्त्र वह कहलाता है जो माता के समान समस्त संसार के लिए हितकर उपदेश दे । जो कार्य निर्दोष होता है उसमें प्रायश्चित्त का निरूपण करना उचित नहीं। परन्तु याज्ञिक हिसा में प्रायश्चित्त कहा गया है इसलिए वह सदोष है। १७५ प्रायश्चित्त के भी यहां कुछ उदाहरण दिये गये है । १७६
वेदान्तः—पद्मपरित में अग्निभूत तथा वायुभूत नामक दो ब्राह्मणों की हंसी उड़ाते हुए लोगों के मुख से यह कहलाया गया है कि ब्राह्मतावाद में मूढ एवं पशुओं की हिंसा में मासक्त रहने वाले इन दोनों ब्राह्मणों ने सुख की इच्छुक प्रषा को लूट डाला है ।
बौद्धदर्शन-पद्मचरित के दूसरे पर्व में राजा श्रेणिक का वर्णन करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार बुद्ध का दर्शन अर्थवाद (वास्तविकतावाद) से रहित होता है उसी प्रकार उसका दर्शन (साक्षात्कार) अर्थवाद (वनप्राप्ति) से रहित नहीं होता था । १७९
निमित्त विद्या--निमित्त विद्या के अन्तर्गत पचरित में अष्टांगनिमित्त के शाता मुनिराज१७५ और क्षुल्लक १८० का उल्लेख हुआ है। लोगों ने उनसे अपने मनोनुकूल प्रश्न पूछे ।
शकुन विधा-ऐसी आकस्मिक घटना को, जिसे भावी शुभाशुभ का
१७४. पप० ११११९० । १७५. बेदागमस्य शास्त्रत्वमसि शास्त्रमुच्यते ।
तदि यन्मातबच्छास्ति सर्वस्मै जगते हितम् ।। पद्य० ११।२०९ । प्रायश्चित्तं च निर्दोषे वक्तुं कर्मणि नोचितम् ।।
अन तूक्तं ततो दुष्टं वच्चेदमभिधीयते । पप० ११९२१७ । १७६. पद्म ११।२११-२१५ ।। १७७. एताम्यां ब्रह्मतावादे विमूढाम्म सुखार्थिनी ।
प्रजेयं मुषिता सर्वा सम्ताम्यां पशुहिंसने । पम १०९।७९ । १७८. बुद्धस्येव न निमुंमतमर्थवादेन दर्शनम् ।
न श्री हलदोषोपधातिनी शीतगोरिव ॥ पन० २०६४ । १७९. पद्म ५१।२९ । १८०. वही० १००१४४ ।