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धर्म और दर्शन : २६७
हो रहा आता है, क्योंकि मनुष्य का अपना चरित्र हो उसे वात्मकार्य में प्रेरित करता है ।२५३ यह मनुष्यक्षेत्र भयंकर संसार सागर में मानौ रत्नदीप है । इसकी प्राप्ति बड़े दुःख से होती है । इस रत्नष्टोप में आकर बुद्धिमान् मनुष्य को अवश्य हो नियम रूपी रत्न ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि वर्तमान शरीर को छोड़कर पर्यायान्तर में अवश्य जाना होगा। इस संसार में जो विषयों के लिए धर्मरूपी रत्नों का चूर्ण करता है यह वैसा ही है जैसा कि कोई सूत प्राप्त करने के लिए, मणियों का पूर्ण करता है ।२१४ गुण और वत से समझ तथा नियमों का पालन करने वाले प्राणी को यदि यह संसार से पार होने की इच्छा करता है तो उसे प्रमाद रहित होना चाहिए । जो बुद्धि के दरिन मनुष्य खोटें कार्य नहीं छोड़ते हैं वे जन्माध मनुष्य के समान संसार में भटकते रहते हैं।९५ अनेक प्रकार के व्यापारों से जिनका हुदय आकुल हो रहा है तथा इसी के कारण जो प्रतिदिन दुःख का अनुभव करता रहता है ऐसे प्राणो को आयु हथेली पर रखे न के समान नष्ट हो जाती है । २१६ ___मैं यह कर चुका, यह करता हूँ और यह आगे करूंगा, इस प्रकार मनुष्य मिश्चय कर लेता है पर कभी मरूँगा भी इस बात का कोई विचार नहीं करता है । मृत्यु इस बात की प्रतीक्षा नहों करती कि प्राणो कौन काम कर चूत और कौन काम नहीं कर पाये । वह तो जिस प्रकार सिंह मग पर आक्रमण करता है उसी प्रकार असमय में आक्रमण कर बैठती है । २९७ सखे इंधन में अग्नि की तुप्ति जिस प्रकार महीं हो सकती, नदियों के जल से समुष्ट तृप्त नहीं होता उसी प्रकार विषयों के आस्वाद से प्राणी तृप्त नहीं हो सकता २९८ जल में डूबते हुए खिन्न मनुष्य के समान विषय रूपी आमिष से मोहित हुआ चतुर मनुष्य भी मोहाम्धीकृत होकर मन्दता को प्राप्त हो जाता है ।२९५ जिस प्रकार निर्धन मनुष्य किसी तरह दुर्लभ खजाना पाकर यदि प्रमाद करता है तो उसका खजाना व्यर्थ चला जाता है । इसी प्रकार यह प्राणी किसी तरह दुर्लभ मनुष्य भव पाकर विषय स्वाद के लोभ में पड़ यदि प्रमाद करता है तो उसकी मनुष्य पर्याय व्यर्थ चली जाती है ।२०° तात्पर्य यह कि मनुष्य गति पाकर धर्म में प्रमाद नहीं करना पाहिए।
चारों गतियों में परिभ्रमण-जीवों के जीवन को नष्ट कर प्राणी कों
२९३. पद्म ५६:३६ । २९५. वही, १४।३५१-३५२ । २९७. बही, १०५।२५३-२५४ । २९९. वही, १०६।१०० ।
२९४, वहो, १४।२३४, २३५, २३६ । २९६. पय ११११२१ । २९८. वही, १०६।९९ । ३००. वही, १०६।१८ ।