________________
२६६ : पयपरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
सौधर्मादि स्वर्ग के घेवों के अणिमा आदि पाठ सिद्धियों को प्राप्ति का संकेत किया गया है ।२८१
आहारक-प्रमत्तसंयत मुनि के द्वारा सूक्ष्म तत्वज्ञान और असंयम के परिहार के लिए जिसकी रचना की जाती है वह आहारक है । २८२
तेजस-जो दीप्ति का कारण होता है, वह तैजस है । कार्मण-कर्मों के समूह को या कार्य को कार्मण कहते है।८४
ये पांचों शरीर आगे-आगे सूक्ष्म-सूक्ष्म है ।२८५ औदारिक, वैक्रियिक आहारक ये तीन शरीर प्रदेशों की अपेक्षा उत्तरोत्तर असंख्यात गुणित है ।२८६ तंजस और कार्मण पे दो शरीर उत्तरोत्तर अनन्त गुणित है ।२८७ तेजस और फार्मण ये दो शरीर अनादि सम्बन्ध से युक्त है अर्थात जोव के साथ अनादि काल से लगे है ।२०८ उपयुक्त पांचों शरीरों में से एक साथ चार शरीर तक हो सकते हैं ।२८९
___ मनुष्य गति और उसकी सार्थकता जीवों को मनुष्य पद प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है, २९° इससे भी अधिक दुर्लभ सुन्दर रूप का पाना है, इससे अधिक दुर्लभ धन समृद्धि का पाना है, उससे अधिक दुर्लभ आर्यकुल में उत्पन्न होना है, उससे अधिक दुर्लभ विधा का समागम है, उससे अधिक दुर्लभ हेयोपादेय पदार्थ को जानना है और उससे अधिक दुर्लभ धर्म का समागम होना है।२९१ जो मनुष्य भय पाकर भी धर्म नहीं करते है मानो उनकी हथेली पर आया अमृत नष्ट हो जाता है १२१५ जो मनुष्य संयम उत्पत्ति के योग्य समय में भी उनका मनोमार्ग वास्तव में वैसा
२८१. पप १४।२८६ । २८२. तत्त्वाथषार्तिक २३६ की व्याख्या वार्तिक ७ । २८३. तत्वार्थचार्तिक ८। २८४. पही, वार्तिक ९ । २८५. पनः १०५।१५२ । परं परं सूक्ष्मम्-तस्वार्थसूत्र २।३७ । २८६. वही, १०५।१५३ । प्रदेशतोऽसंख्येमगुणं प्राक्तजसात-तत्त्वार्थसूत्र २।३८ । २८७. वही, १०५।१५३ । अनन्तगुणे परे-तत्त्वार्थसूत्र २।३९ । २८८. वही, १०५।१५३ । अनादिसम्बन्ध य २१४१ तत्त्वार्यसूत्र, २८९. बही, १०५।१५३ । तदादीनिभाज्यानि मुगपदेकस्याचतुर्म्यः ।
तत्त्वार्थ सूत्र ४३ । २९०. वही, १४१५९, ६।२१६ । २९१. वही, ५/३३३-३३४ । २९२. वहीं, २११६७ ।