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१३२ : पचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
विलपन, पायन, आसन, निवास, गन्ध तथा माला आदि से उत्पन्न होनेवाले शन्द, रस, रूप, गम्छ और स्पर्शसम्बन्धी उत्तम सुख प्राप्त किये । १२७
___ आष्टालिक महोत्सव यह पर्व कार्तिक, फाल्गुन और आषाढ़ मास के अन्त के आठ दिनों में मनाया जाता है। अन-मान्यतानुसार इस पृथ्वी पर आठओं नन्दीश्वर द्वीप है। उस द्वीप में ५२ जिनालय बने हुए हैं। उनकी पूजा करम के लिए स्वर्ग से देवगण उक्त दिनों में जाते हैं। चूंकि मनुष्य वहाँ नहीं जा सकते, इसलिए वे उक्त दिनों में पर्व मनाकर यहीं पूजा कर लेते है। २१ पपचरित में इस पर्व का प्राचीन रूप संपलब्ध होता है। इन दिनों मन्दिरों को पताकाओं से अलंकृत किया जाता था ।१२९ एक से एक बढ़कर समामें, प्याऊ, मंच, पट्टशालामें, मनोहर नाटमशालायें तथा बड़ी-बड़ी वापिकायें बनाई जाती थीं। १° जिनालय स्वर्गादि की पराग से निर्मित नाना प्रकार के मण्डलादि से निर्मित एवं पस्न तथा कदली आदि से सुशोभित उत्तम द्वारों से शोभा पाते थे । ३१ जो पूध, घी से भरे रहते थे, जिनके मुख पर कमल ढंके जाले थे, जिनके कण्ठ में मोतियों की मालायें लटकती थी, जो रत्नों की किरणों से मुशोभित होते थे, जिनपर विभिन्न प्रकार के बेल-बूटे देदीप्यमान होते थे तथा जो जिन-प्रतिमाओं के अभिषेक के लिा इकट्ठे किये जाते थे, ऐसे हजारों कलश गृहस्थों के घरों में दिखाई देते थे । मन्दिरों में कणिकार, अतिमुक्तक, कदम्ब, सहकार, चम्पक, पारिजातक तथा मन्दार आदि फूलों से निर्मित अत्यन्त उज्वल मालायें सुशोभित होती थीं । भौंरे सुगम्धि के कारण उनपर मड़राया करते थे । १३३ उस समय के कार्यों को शोभा देखते ही बनती थी। कोई मण्डल बनाने के लिए बड़े आदर से पांच रंग के चूर्ण पीयने का कार्य करता तो नाना प्रकार की रचना करने में निपुण कोई मालायें गूंथता । १४ कोई जल को सुगन्धित करता, कोई पृथ्वी को सोंचता,
१२७, पप० ९५१५६ 1 १२८. पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री : जैनधर्म, प. ६८।१, ५, ९, २९1१, १। १२९. पद्म० ६८।१०। १३०. प. ६८।११ । १३१. वहीं, ६८।१३। १३२. वही, ६८।१४, १५ । १३३. वही, ६८।१६, १७ ।। १३४ पिनष्टि पञ्चवर्णानि कश्चिच्चूर्णानि मादरः ।
कश्चिद् अध्नाति माल्यानि लब्धवर्णः सुभक्तिषु ।। पन० २९।३ ।