________________
१९८ : पद्मचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
योनिद्रव्य-जिनसे सुगन्धित पदार्थ का निर्माण होता है ऐसे तगर आदि योनिद्रव्य है ।४९९
अधिष्ठान-जो धूप, बत्ती आदि का आश्रय है उसे अधिष्ठान कहते
है।५००
रस-कषायला, मधुर, परपरा, कडुआ और खट्टा मह पांच प्रकार का रस होता है, जिसका सुगन्धित प्रश्य में विशेषकर निश्चय करना पड़ता
है।५०१
वीर्य-पदापों की जो शीतता अथवा उष्णता है वह दो प्रकार का वीर्य
है ।५०२
कल्पना-अनुकूल-प्रतिकूल पदार्थों का मिलाना कल्पना है । १०३
परिकर्म-सेल आदि पदार्थों का शोधन करमा तथा धोना आदि परिकर्म कहलाता है ।५०४
गुणदोषविज्ञान-गुण अथवा दोष का जानना गूगदोषविज्ञान है ।१०५ कौशल--परकीय तथा स्वकीय वस्तु की विशेषता जानना कौशल है ।
गंधयोजना कला के भेद-गन्धयोजना कला के स्वतन्त्र और अनुगत दो भेद है ।५०७
संवाहन-कका बौद्धग्रन्थ ललितविस्तर में संवाहनकला (शरीर पर मालिश करने की कला) को 'संवाहितम्' कहकर कलाओं को गणना में उसे स्थान दिया है ।५०६ संवाइनकला दो प्रकार की है.--१. कर्मसंश्या, २. शव्योपचारिका।
__ कर्मसंश्रया के भेद स्वचा, मांस, अस्थि और मन इन चार को सुख पहुँचाने के कारण कर्मसंश्रया के चार भेद है ।१०
मृदु अथवा सुकुमार जिस संवाहन से केवल त्वचा को सुख होता है वह मृदु अथवा सुकुमार कहलाता है।११
४९९. पत्र. २४१४८ ।
५००. पप० २४।४८ 1 ५०१. षष्ठी, २४०४१ ।
५०२. वही, २४१५० । ५०३. वही, २४१५० ।
५०४. वही, २४१५१ । ५०५. वही, २४१५१ ।
५०६. दही, २४/५० । ५०५. वहीं, २४.५१ । ५.०८. हजारीप्रसाद द्विवेदी : प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद, प.० १५६ । ५०९. पा. २४/७३ ।
५१०. पा. २४१७४ । ५११. वहीं, २४१७६ ।