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१३० : पप्रचरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
केवलज्ञान-महोत्सव (केवलज्ञानकल्याणक)-शुक्लध्यान के प्रमाव से मोहनीय कर्म का क्षय हो तीर्थक्कर को लोक और अलोक को प्रकट करने वाला केवलनान उत्पन्न हो जाता है ।१७ केवल शाम के साथ ही बहुत भारी भा-मण्डल उत्पन्न होता है, उसके प्रकाश के कारण दिन-रात का भेद नहीं रह जाता । १८ जहा तीसरा जमा होता ही एक अशोकवृक्ष प्रकट हो जाता है :११५ तत्पश्चात् देव नाना प्रकार के फूलों की वर्षा करते हैं।२० क्षोम को प्राप्त हुए समुद्र के समान भारी शब्दों से युक्त देवों द्वारा बनाये दुन्दुभि बाजे बजने लगते हैं। भगवान के दोनों ओर दो यक्ष चमर ढुलाते हैं। मेरु के शिस्त्रर के समान तथा मूर्य की किरणों को तिरस्कृत करने वाला एक सिंहासन उत्पन्न होता है। इसके अतिरिक्त मोतियों की लड़ियों से विभूषित छत्र-त्रय उत्पन्न होता है। इस प्रकार समवसरण के बीच सिंहासन पर विराजमान भगवान् की शोभा अवर्णनीय हो जाती है ।१२१ इन्द्र भी इस अवसर पर अपनेअपने परिवारों के साथ वन्दना के लिए वही पाते है। १२२
निर्वाण महोत्सव (निर्वाणकल्याणक)-सीर्थकर की निर्वाणप्राप्ति के समय भी इन्द्रादिक देव आकर उत्सव करते है। पधचरित में सामान्य रूप से निर्देश होते हुए भी इस समय देवों के कार्यकलापों का विशेष कथन नहीं है ।
वसन्तोत्सव वसन्तोत्सव के विधानों में कामार्चन का स्थान महत्त्वपूर्ण रहा है । साधारण स्त्रियां आनमेजरी को तोड़कर धनुर्धर कामदेव के लिए समर्पित कर देती पी । यह उत्सव वो-चार क्षणों में समाप्त हो जाता था ।१२३ जन-परम्परा में इस प्रकार के कामार्चन को कोई स्थान नहीं था। फलतः सीता के दोहद के बहाने जिनेन्द्र भगवान् को अर्चना-हेतु राम द्वारा सीता तथा नगरवासियों सहित बसन्त ऋतु में उत्सब मनाने के लिए उद्यान-गमन की कल्पना कर ही ली गई। पनचरित के ९५खें पर्व में वसन्त के मनोहारी रूप के चित्रण के साथ इस उत्सव के मनाये जाने का विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है। राम ने प्रतिहारी से कहा कि बिना विलम्ब किये मन्त्रियों से कहो कि जिनालयों में अच्छी तरह पूजा
११७. पद्म० ४।२२ ।
११८. पप० ४।२३ । ११९. बही, ४॥२४, २५ । १२०. वही, ४॥२५ 1 १२१. वही, ४।२६-३० ।
१२२. वहीं, ४॥३१ । १२३. राम जी उपाध्याय : प्राचीन भारतीय साहित्य को सांस्कृतिक भूमिका,
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