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२० : पद्मवरित और उसमें प्रतिपादित संस्कृति
सामने जा रहा था ।" जो ओठ जाम रहा था तथा जिसके नेत्रों की पूर्ण पुतलियt दिख रहीं थी ऐसा कोई योद्धा अपनी ही आंतों से कमर को मजबूत कसकर शत्रु की ओर जा रहा था ।९६
शृङ्गार की वियोग और संयोग दोनों अवस्थाओं का चित्रण करने में रवि श्रेणको फललाई है। पद्मचरित का १६व पर्व है। पति द्वारा परित्यक्त अंजना की अवस्था का वर्णन करते हुए रविषेण कहते हैं
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"उसने एक ही बार तो पति का रूप देखा था, इसलिए बड़ी कठिनाई से यह उनका चित्र खींच पाती थी उतने पर मो हाथ बीच-बीच में काँपने लगता था, जिससे तुलिका छूटकर नीचे गिर जाती थी । वह इतनी निर्बल हो चुकी श्री कि मुख को एक हाथ से दूसरे हाथ पर बड़ी कठिनाई से ले जा पाती थी । उसके अंग इतने कुरा हो गये थे कि उनसे आभूषण ढीले हो-हो कर शब्द करते हुए नीचे गिरने लगे थे । १८ उसकी लम्बी और गरम सांस से हाय तथा कपोल दोनों ही जल गए थे। उसके शरीर पर जो महीन वस्त्र था उसी के भार से वह वेद का अनुभव करने लगी थी । १
इसी पर्व (१६) के अंत में अंजना - पवनंजय के समागम का कवि ने सांगोपोग वर्णन प्रस्तुत किया है। इसमें आलिंगन-पोडन, १०० १०१ चुम्बन, नीवीविमोचन, १०२ नितम्ब आस्फालन, १०३ सीत्कार, १०४
१०५
नखक्षत,
'दन्ताघात १०३
९५. कश्चित् करेण संरुष्य वामेनान्त्राणि सद्भटः ।
तरसा खड्गमुद्यम्य ययौ प्रत्वरि भीषणः । पद्म० १२१२८५ ९६. कश्चिन्निजैः पुरीतद्भिर्बद्ध्वा परिकरं दृढम् ।
वष्टष्ठोऽमिययो शत्रु दृष्टाशेषकर्नीनिकः । पद्म० १२२८६ |
९७. सदस्पष्टदृष्टस्याच्चित्रकर्माणि कृच्छ्रतः । लिखन्ती वेपथुग्रस्तहस्तप्रच्युतवर्तिका
९८, संचारमन्त्री कृष्ण वदनं करतः करम् ।
कृशीभूतसमस्ताङ्गस्लथरचनभूषणा
|| पद्म० १६।६ ।
।। पद्म० १६।७ ।
९९. दीर्घतरनिश्वा सदग्धपाणिकपोलिका
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अंशुकस्यापि भारेण वेदमङ्गेषु विभ्रती । पद्म० १६४८ १
१०० पद्म० १६।१८३ ।
१०२. वही, १६।१८९ । १०४. वही, १६।१९६ । १०६. वही, १६।२०२
१०१. पद्म० १६ १८७ । १०३. वही, १६ १९४ १०५. वही, १६।१९७ ।