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अध्याय ६
धर्म और दर्शन धर्म का लक्षण-जो धारण करे सो धर्म है । 'धरतीति धर्मः' यह उसका निरुक्त्यर्थ है ।' अच्छी तरह से आचरण किमा हुधा धर्म दुर्गति में पड़ते हुए जीवों को धारण कर लेता है, बचा लेता है, इसलिए वह धर्म कहलाता है। क्रोष, मान, माया और लोम ये चार कषाय (कषाय-.--जो आत्मा को दुःख दे) महाशत्र है, इन्हीं के द्वारा जोव संसार में परिभ्रमण करता है। समा से क्रोध का, मृदुता से मान का, सरलता से माया का और सन्तोष से लोम का निग्रह करना चाहिए ।' स्पर्शन, रसना (जीभ), नाण (नासिका), चक्षु और कर्ण ये पांच इन्ट्रियाँ प्रसिद्ध है, इनका जीतना घमं कहलाता है ।" त्याग भी विशेष धर्म कहा गया है।
धर्म का माहात्म्य-धर्म के माहात्म्य का वर्णन पदमचरित में विस्तार से किया गया है । इन सबके अध्ययन से ऐसा विदित होता है कि धर्म के फलस्वरूप अत्यधिक सांसारिक भोगों की प्राप्ति को बहुत अधिक विस्तार से प्रस्तुत किया गया है। जैसे-धर्म से यम्स जीव को अत्यधिक गाय मंस आदि पशु, हाची, घोड़े, रथ, पयादे, देश, ग्राम, महल, नौकरों के समूह, विशाल लक्ष्मी और सिंहासन प्राप्त होते है। जो जीव धर्मपूर्वक मरण करते हैं वे ज्योतिश्चन को उल्लंघन कर गुणों के निवासभूत सोधर्मादिक स्वर्गों में उत्पन्न होते हैं, धर्म का अर्जन कर कितने ही सामानिक देव होते हैं । कितने ही इन्न होते हैं, कितने ही अहमिन्द्र बनते हैं। धर्म के प्रभाव से उन महलों में उत्पन्न होते हैं जो कि स्वर्ण, स्फटिफ और बैडूर्य मणिमय, खम्भे के समूह से निर्मित होते है, जिसकी सुवर्णनिर्मित दीवाले सदा देदीप्यमान रहती है, जो अत्यन्त ऊँचे और अनेक
१. धारणार्थो धृतो धर्मशब्दो याचि परिस्थितः-पा० १४११०३ । २. पप० १४११०४।
३. पद्य १४|११० । ४. वही, १४।१११ ।
५. बहो, १४।११३ । ६. वही, १४॥३१३, १४।३११, ३१२, ८५।२२, ७४।५६-५८, १४।३२७,
१४:३१५-३१८, १४।१२६-१२८, १४.१२३-१२४, १४।१२०-१२२,
६०४१४२-१४३, ३५।८७-८९, ३०।१७०-१७१ मादि । ७. बहो, १४।३१५ ।
८. वही, १४॥३१६।