Book Title: Mastishk aur Gyantantu ki Bimariya
Author(s): Sudhir V Shah
Publisher: Chetna Sudhir Shah
Catalog link: https://jainqq.org/explore/001801/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ - डो. सुधीर वी. शाह स्वास्थ्य प्रशिक्षण मार्गदर्शिका) Dendrite. Axon Synaptic terminal Neurons in younger brain sensorimotor area frontal eye field lobe frontal lobe prefront visual Broca's area (in left hemisphere) temporal bon Visual association auditory association (including Wernicke's area, o left hemisphere) OMGa wajurminwww For PrivateaPersonalise only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ __ (स्वास्थ्य प्रशिक्षण मार्गदर्शिका) DISEASES OF THE BRAIN & NERVOUS SYSTEM (A Health Education Guide) डॉ. सुधीर वी. शाह एम.डी., डी.एम. (न्यूरोलोजी) कन्सल्टन्ट न्यूरोफिजिशियन * ऑनररी प्रॉफेसर एण्ड हेड ओफ डिपार्टमेन्ट ओफ न्यूरोलोजी • के. अम. स्कूल ऑफ पोस्टग्रेज्युओट मेडिसिन एन्ड रिसर्च, अहमदाबाद • अन. अच. एल. म्यु. मेडिकल कॉलेज, अहमदाबाद * डायरेक्टर ऑफ न्यूरोसायन्सीज • स्टलिंग हॉस्पिटल, अहमदाबाद * ऑनररी न्यूरोफिजिशियन : • हिझ एक्सेलन्सी, ध गवर्नर ऑफ गुजरात • वी. एस. जनरल हॉस्पिटल, अहमदाबाद • डॉ. जीवराज महेता हेल्थ फाउन्डेशन, अहमदाबाद क्लिनिक : न्यूरोलोजी सेन्टर 206/7/8, संगिनी कॉम्प्लेक्स, परिमल रेलवे क्रॉसिंग के पास, एलिसब्रिज, अहमदाबाद - 380 006 फोन : (079) 26467052, 26467467 Website : www.sudhirneuro.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • MASTISHK AUR GYANTANTU KI BIMARIYAAN DISEASES OF BRAIN - NERVOUS SYSTEM (A Health Education Guide) by Dr. Sudhir v. Shah • प्रथम संस्करण : ई.स. सितंबर 2008 • प्रत : 4000 • कोपीराईट All rights reserved. No part of this book, including design, cover design, and icons may be reproduced or transmitted in any form, by any means (Electronic, photocopying, recording or otherwise) without the prior written permission of the publisher / author. • मूल्य : 200*/रुपये (*इस आय की समग्र राशि गरीब एवं जरूरतमंद दर्दीओं की सहाय के लिये खर्च की जाती है ।) प्रकाशक : सौ. चेतना सुधीर शाह न्यूरोलोजी सेन्टर, 206/7/8, संगिनी कॉम्प्लेक्स, परिमल रेलवे क्रॉसिंग के पास, एलिसब्रिज, अहमदावाद - 380006 फोन : 079-26467052, 079-26467467. • विक्रेता गुर्जर प्रकाशन 202, तिलकराज, पंचवटी पहली लेन, आंबावाडी, अहमदाबाद - 380 006 e-mail : goorjar@yahoo.com मुदण संस्कार : मुद्रेश पुरोहित, सूर्या ऑफसेट, आंबली गाम, सेटेलाईट- बोपल रोड, अहमदाबाद - 380058 फोन : 02717-230112 e-mail : suryapress@gmail.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्पण जिन्हें सचमुच मदद की जरूरत है और जो दूसरों की मदद के लिए सदैव ___ तत्पर है उन सबको... आभार मेरे वरिष्ठ, गुरुजन, कुटुंबीजन _और शुभेच्छकों तथा मित्रों....का डॉ. सुधीर वी. शाह Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + : खास सूचना : - यह पुस्तक मस्तिष्क के विविध रोगों के बारे में जानने के लिए है । यह तबीबी पाठ्य पुस्तक (Medical textbook) नहीं है। पाठकों को विनंती के इसे पढकर कोई भी दवाई स्वउपचार की गलती न करें। अपने तबीब की सलाह के अनुसार ही दवाई ले, उपचार करें। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GODDESS OF CURE C कृति : डॉ. वी. जे. शाह प. पू. पिताश्री स्व. डॉ. वी. जे. शाह Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FOREWORD DR. B. S. SINGHAL M.D. (BOM.), F.R.C.P. (LONDON), F.R.C.P. (EDIN), F.A.M.S. PROFESSOR & HEAD DEPARTMENT OF NEUROLOGY Bombay Hospital Institute of Medical Science Neurologist - Bombay Hospital ENGLISH EDITION, 2002 Bombay Hospital MEDICAL RESEARCH CENTRE 12, Marine Lines, MUMBAI 400 020 Clinic (9122) 206 4747, 206 7676 Res. (9122) 363 0639, 363 7788 Diseases of the Brain and Nervous System (A Health Education Guide) Neurological illnesses account for nearly 20% of the burden of illnesses in the community. Sadly, there is not much awareness about the neurological illnesses and the patient and the family members are suddenly overcome with anxiety and apprehension, and do not know how to cope with neurological problems. Dr. Sudhir Shah's book serves to give the necessary information required. The original book was in Gujarati language, but he has taken pains to bring out this English edition. It is a fairly comprehensive book, dealing with all practical problems faced in neurology. It gives the description of the illness along with the management. I am confident that the reader will find it extremely useful and it will help the patients and relatives to cope with various neurological problems. He has also emphasized on preventive aspects of the illness and side effects of the commonly used drugs and in particular care to be taken for drugs used for prolonged periods. This book should be useful not only for the patient and the caretakers but also for the medical students and the physicians and those involved in the management of neurological illnesses. I enjoyed reading the book and I am confident that it will have a wide reception. I should compliment Dr. Sudhir Shah for having spared his time from his busy practice and academic work to write this book. 33 блоке B. S. Singhal Professor & Head Department of Neurology Bombay Hospital Institute of Medical Sciences Mumbai. April 10, 2002. E Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आमुख बाहर से अखरोट के आकार जैसा दिखनेवाला मस्तिष्क असंख्य चेतातंतुओं से बना हुआ होता है। एक सेकन्ड के १६ वे भाग में त्वरित निर्णय लेने वाला मस्तिष्क समग्र शरीर का संचालन केन्द्र है । सुपर कम्प्यूटर से भी उच्च कोटि के हमारे मस्तिष्क और चेतातंत्र के बारे में बहुत सारे संशोधन हए है। पूरे शरीर में मस्तिष्क-चेतातंत्र एक अति संवेदनशील तंत्र है और उसमें कहीं पर भी क्षति हो तो पूरे शरीर को उसकी असर हो सकती है। अठारह सालसे अहमदाबाद में मेरे क्लिनिक "न्यूरोलोजी सेन्टर" में, प्रख्यात वी. एस. जनरल हॉस्पिटल और स्टर्लिंग हॉस्पिटल, जीवराज महेता हॉस्पिटल में गुजरात और अन्य प्रांत के विविध मुकाम से आने वाले मेरे मरीजों के इलाज के दौरान ज्ञात हुआ कि मरीजों और उनके स्वजनों को मस्तिष्क की बीमारी के बारे में जानने की उत्सुकता होती है। हिन्दी या अन्य भाषा में इस बारें में एक ही स्थल पर जानकारी मिल सके ऐसा कोई पुस्तक नहीं था, इसलिए मन में ऐसी स्फुरणा हुई कि मस्तिष्क और चेतातंत्र से संबंधित बीमारियों के बारे में कुछ लिखुं । समय के अभाव की वजह से यह बात आगे नहीं बढ़ पाई, पर बाद में आकाशवाणी पर से सितम्बर 1999 में सुबह का 'पहेलुं सुख' कार्यक्रम तथा दूरदर्शन पर 'स्वास्थ्य सुधा' कार्यक्रम में मस्तिष्क की कुछ बीमारियों के बारे में मेरे प्रवचन हुए। उनमें से मुझे मस्तिष्क की मुख्य बीमारियों के बारे में लिखने की प्रेरणा हुई । और इस पुस्तक का सर्जन हुआ । प्रथम ये पुस्तक सन 2000 में मेरी मातृभाषा गुजराती में मैंने लिखा, बाद में अंग्रेजी संस्करण सन 2002 में किया और फिर पुस्तक की खूब प्रसिद्धि की वजह से दो और संस्करण किए और अब ये हिन्दी संस्करण कर रहा हूँ। __ यह हिन्दी पुस्तक सिर्फ अनुवाद नहीं है, बल्कि इसमें पिछले पाँच साल में आई हुई काफी नई जानकारी, नया संशोधन समाविष्ट किया है; Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिससे कि यह एकदम नया पुस्तक है। वैसे तो गुजराती मेरी मातृभाषा है, फिर भी हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है; इसलिए यह पुस्तक सरल हिन्दी में लिखने का विनम्र प्रयास किया है । इस पुस्तक के हिन्दी संस्करण के लिए मेरे मित्र श्री महेश दवे ने मुझे प्रेरित किया । आशा है कि, ईस पुस्तक में मेरी कोई भाषाकीय गलतियाँ हो तो उनको बड़े प्यार से आप नजर अंदाज करेंगे । इस पुस्तक के माध्यम से सामान्य जनता में स्वास्थ्य ज्ञान की वृद्धि और रोगों के बारे में जानकारी देने का मेरा विनम्र प्रयास है । स्वाभाविक है कि, इसमें चिकित्साशास्त्र के द्रष्टिकोण से गहराईपूर्वक और तजज्ञतायुक्त जानकारी नहीं है, फिर भी मुझे आशा है कि इसमें सामान्य व्यक्ति को जरूरी तमाम जानकारी मिलेगी। हालांकि वर्तमान नए संशोधन और दवाई के बारे में उचित और संपूर्ण जानकारी इस पुस्तक में समाविष्ट करने का प्रयास किया गया है । लेकिन नई दवाई का संशोधन रोजबरोज होता रहता है इस बारें में हमारे वाचक जानते है । विशेष में स्वयं कोई उपचार करने का जोखिम नहीं लेना चाहिए । सिर्फ डॉक्टरों के मार्गदर्शन में ही दवा लेना उचित रहेगा। खास तो - एकाद सामान्य चिह्न पर से पढनेवाले को कोई न्युरोलोजिकल बीमारी हो गई है ऐसा भ्रम नहीं करना चाहिए। खास बात तो ये है कि, यह पुस्तक (गुजराती) जब पहले लिखा था तो मरीज़ और उनके परिवारजनों को रोग की जानकारी मिले वही आशय था। किन्तु जैसे जैसे उसकी सेकड़ों कोपियाँ समाज में पहुँची तो सबने मुझे सहर्ष बताया कि फेमिली डॉक्टर्स, मेडिकल स्टुडन्टस, फिजियोथेरपीस्ट, नर्सीस और जनसामान्य में हरएक के लिए इस पुस्तक में कुछ न कुछ महत्वपूर्ण बातें है। यह जानकर मुझे बहुत खुशी हुई । इस हिंदी पुस्तक को तैयार करने में मेरे गुरुवर्य डॉ. श्री गुणवंतराय जी. ओझा और डी.एन.बी. न्यूरोलोजीकी मेरी छात्रा डॉ. रईसा वोरा ने काफी मदद की है । साथ में मेरे क्लिनिक के सहायक फिजिशियन डॉ. अमित भट्ट और मेरी सुपुत्री हेली शाह (मेडिकल स्टुडन्ट) ने विशेष Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान दिया है इसलिए मैं ईन सभी का कृतज्ञी हूँ । डॉ. अतुल पटेल (एम.डी.)ने प्रकरण १३में एईड्स के बारे में अच्छे सलाह-सूचन दिये है। उसके उपरांत मेरी अर्धांगिनी श्रीमती चेतना शाह ने भी पूरे पुस्तक में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। साथमें समय के अभाव के बावजूद उनके सुंदर समय के आयोजन की वजह से ही इन बीमारियों के बारे में व्यवस्थित लिखा गया है। इस पुस्तक के माध्यम से काफी जनजागृति आई है, काफी लोगों को नई जिंदगी मिली है । कुछ ओर लोग बीमारियों के रोकथाम के बारे में जागृत होते है अथवा समयसर बीमारी के उपचार से थोड़े से ओर भी मरीजों की जिन्दगी बचती है तो मेरे जीवन में आनंद की अनुभूति बढेगी और मुझे संतोष मिलेगा। साथ ही, दर्दी के रोगों के बारे में पर्याप्त जानकारी मिलने से और तबीबी क्षेत्र की मर्यादा की जानकारी मिलने से डॉक्टर-पेशन्ट संबंध में यह पुस्तक प्रेम-विश्वास बढायेगा, ऐसी मुझे श्रद्धा है। इस प्रकाशन में प्रेरणा और मार्गदर्शन देनेवाले सभी लोगों का दिल से भावपूर्वक स्मरण करते हुए मुझे कृतार्थता का एहसास हो रहा है । खासकर मेरे गुरुवर्य डॉ. हर्षदभाई जोषी, डॉ. पी.एम. दलाल, डॉ. अरुण शाह, डॉ. भीम सिंघल, डॉ. प्रविणा शाह, डॉ. फेन्क यात्सु (ह्युस्टन), डॉ. नायल क्वीन (लंडन), डॉ. शिमोन शोरवोन (लंडन) जिन्होंने मुझे न्युरालोजी की शिक्षा दी है, उन सबको नत मस्तक प्रणाम करता हूँ। अंत में परमकृपालु परमात्मा सभी का कल्याण करे ऐसी शुभेच्छा सह... १४ सितम्बर, २००८ डो. सुधीर वी. शाह राष्ट्रीय हिन्दी दिन एम. डी., डी. एम. (न्यूरोलोजी) अहमदाबाद Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती दूसरे संस्करण के अवसर पर..... __ 20 अगस्त, 2000 के दिन गुजरात के माननीय गवर्नरश्री के करकमलों द्वारा इस पुस्तक का विमोचन किया गया था और सिर्फ 6 महिनों में यह दूसरा संस्करण आपके सामने पेश कर रहा हूँ। मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारी के बारे में मरीजों ओर उनके परिवार के लोगों तथा जिज्ञासु व्यक्तिओं को गुजराती में योग्य मूलभूत जानकारी देने के हेतुसर लिखा गया यह पुस्तक अपने उद्देश्य में अधिकतर सफल भी हुआ है । इस पुस्तक का मुख्य हार्द बीमारियों के समयसर और योग्य उपचार के साथ साथ समझदारीपूर्वक के प्रयत्नों से बीमारी को रोकना है । इसके उपरांत डॉक्टर और मरीज के संबंधों में ज्यादा उष्मा लाने का प्रयास भी इस पुस्तक के माध्यम से सफल हुआ है। विशेषकर यह पुस्तक समाज तथा समाज के प्रत्येक व्यक्ति के दैनिक व्यवहार, अभिगम (attitude) और दिनचर्या (lifestyle) में योग्य सुधार लाने में पथदर्शक साबित होगा तो मुझे संपूर्ण तृप्ति का एहसास होगा । मुझे पाठकों का सुंदर प्रतिसाद मिला है इसलिए मैं उनका आभार व्यक्त करता हूँ। कुछ सलाह-सूचन और टिप्पणियाँ भी मिली है। जनरल प्रेक्टिस करने वाले मेरे चिकित्सक मित्रों की ओर से भी पूछताछ होती रही है । इसके बाद सोचा कि कुछ संशोधन के साथ दूसरा संस्करण प्रकाशित किया जाए । मेरे गुरुवर श्री डॉ. गुणवंतभाई ओझा साहब ने पुस्तक संपूर्णतया पढ़कर कुछ आवश्यक सलाह-सूचन दिए और उसके अनुसार मैंने नये संस्करण के बारे में द्रढ निर्धार किया। यह पुस्तक लिखने का समय कैसे मिला इस बारे में लोग सवाल करते है। प्रथम संस्करण के विमोचन के समय मैंने अपने प्रवचन में स्पष्ट बताया था कि सिर्फ प्रभु की प्रेरणा और अंतर की करुणा से यह सफलता मुझे मिली है। कभी-कभी रात्रि के 12.30 बजे तक बैठकर तैयारी की है । मेरी सौजन्यशील धर्मपत्नी चेतना के सुंदर टाइम-मेनेजमेन्ट और स्नेही श्री उपेन्द्रभाई दिव्येश्वर के फोलो-अप का यह परिणाम है । यह सब परिबल इस समय भी काम कर गए। सतत होती रहती पूछताछ को ध्यान में रखकर इस संशोधित संस्करण में एक्स-रे आदि से मस्तिष्क की जाँच - न्यूरो रेडियोलोजी, ब्रेन हेमरेज Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं मूवमेन्ट डिसोर्डर्स और मस्तिष्क की शस्त्रक्रिया - न्यूरोसर्जरी संबंधित प्रकरण का समावेश किया गया है । इसके उपरांत लकवा और न्यूरोपथी एवं मस्तिष्क के संक्रमण के प्रकरणों को नयेसर से विस्तारपूर्वक निरुपित किया गया है। और जहाँ आवश्यकता लगी, वहाँ नई दवा और उपचार की पद्धतियाँ का भी समावेश किया गया है । लोगों को पर्याप्त जानकारी मिले इसका खास ध्यान रखा गया है । इस संस्करण में गुरुवर्य श्री डॉ. गुणवंतभाई ओझा साहब ने सलाहसूचन के साथ मार्गदर्शन दिया है । और पुस्तक संबंधित अपना प्रतिभाव व्यक्त किया है। इसलिए मैं उनका भी अंतःकरण से आभार व्यक्त करता हँ । न्यरो-रेडियोलोजी प्रकरण की मदद से डॉ. हेमंत पटेल (एम.डी. रेडियोलोजी)ने सी.टी. स्केन, एम.आर.आई. के बारे में सुंदर जानकारी दी है । इसलिए मैं उनका भी आभारी हूँ । इसके उपरांत न्यूरोसर्जरी प्रकरण में विशेष जानकारी देने वाले डॉ. परिमल त्रिपाठी का भी आभार व्यक्त करता हूँ। प्रथम संस्करण के जैसे ही इसमें भी मेरी धर्मपत्नी चेतना शाह ने सुंदर टाइम मेनेजमेन्ट किया और उसमें विशेष रस लेकर सलाह-सूचन भी दिये है । स्नेही श्री उपेन्द्र दिव्येश्वर ने सतत अनुसरण कर इस संस्करण के प्रकाशन में सक्रिय रस लिया है जिसे मैं सहर्ष स्वीकार करता हूँ। इसके उपरांत सीनियर डॉक्टरों, शुभेच्छकों, मित्रों और विवेचको ने इस संस्करण में सलाह-सूचन देकर मुझे सतत प्रोत्साहन और प्रेरणाबल दिया है, इसलिए वे भी आभार के पात्र हैं । श्री मुद्रेश पुरोहित (सूर्या ऑफसेट) ने भी इसमें रस लेकर सुंदर मावजत और सहकार से इस पुस्तक का द्वितीय संस्करण तैयार किया है । मैं उनका भी आभारी हूँ । साथ ही साथ इस पुस्तक के प्रेरकबल मेरे मरीज़ भी कैसे भुलायें जा सकते है ? अंत में इक्कीसवीं शताब्दि में सभी का स्वास्थ्य उत्तम रहे ऐसी परमकृपालु परमात्मा से प्रार्थना करता हूँ। डो. सुधीर वी. शाह एम. डी., डी. एम. (न्यूरोलोजी) 'महाशिवरात्रि' संवत 2057, महावद तेरस ता. 21 फरवरी, 2001 अहमदाबाद. Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती दूसरे संस्करण स्तावना भोजन के पूर्व ओपेटाइजर का जो महत्व है ऐसा ही महत्व पुस्तक पढ़ने से पहले प्रस्तावना का होता है। दोनों का काम भूख को उदीप्त करना, उत्सुकता जगाना और सबल पूर्वभूमिका रचित करना है । इस संदर्भ में समझदारी पैदा करने के लिए प्रस्तावना पढ़ना जरूरी है । बीमारी आए तब स्वाभाविक है कि मरीज़ और उसके संबंधी बड़ी मुसीबत और दुविधा में पड़ जाते है । अब क्या होगा? कुछ अनचाहा तो नहीं बनेगा? जीवनभर की परतंत्रता तो नहीं आ जाएगी? ऐसे कितने ही प्रश्न मरीज़ और उनके संबंधीओं को उलझाए रहते है । बीमारी की असर क्रमशः दिखाई देती है, तब की बात अलग है; परंतु लकवा जैसी बीमारी हमले के रूप में अचानक आक्रमण करें तब मरीज़ और कुटुंबीजनों के जीवन में अस्थिरता आ जाती है और कितने ही विचलित कर देने वाले प्रश्नार्थ चिह्न उभर कर सामने आ जाते है । बीमारी के बारे में अज्ञानता और मुख्यतः उसके बारे में गलत और भ्रामक मान्यतायें और 'मुझे कुछ होगा तो नहीं ?,' 'मैं कभी बीमार तो नहीं पढूंगा?' ऐसे आंतरिक भय परिस्थिति को ज्यादा खराब कर देते है। उसमें मरीज़ और उनके कुटुंबीजनों का कोई दोष नहि होता क्योंकि अपनी शिक्षणपद्धति और सामाजिक संरचना में आरोग्य की देखरेख किस प्रकार करनी चाहिए और उसका रक्षण कैसे करना और बीमारी के बारे में समग्र जानकारी, गंभीर बीमारियों का प्रारंभिक लक्षण-चिह्न कैसे होते है और उसे ध्यान में न ले तो कैसा दुःखद परिणाम आ सकता है व बीमारी लागू पड़ जाए तब उसके लिए आवश्यक मानसिक-आर्थिक आयोजन के बारे में स्कूल-महाविद्यालयों में या अन्य किसी माध्यम द्वारा सीखने का कोई संगठित, बुद्धिगम्य और परिणामलक्षी प्रयत्न हुआ नहीं है और इसके बारें में कुछ भी समझाया - सिखाया नहीं जाता । (वर्तमान समय में अपने राष्ट्र के कुल बजट का एक प्रतिशत हिस्सा ही स्वास्थ्य रक्षण के लिए दिया जाता है ।) gain Education International Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीमारी लागू पडे तब डॉक्टर के पास दौड़ने से अच्छा है कि बीमारी ही न हो और हो जाय तो प्रारंभिक स्तर पर ही समझकर योग्य उपचार से उसे दूर करने की सूझ सामान्य मनुष्य और कथित पढ़े-लिखे व्यक्तिओं में क्यों नहीं होती है ? उसके बारे में अपनी देखरेख संस्था, समाज जागति संस्था अपनी जिम्मेदारी निभाती है या नहीं ? समाचारपत्र और सामयिक बीमारियों के बारे में वाचकों को माहितगार करने के प्रयत्न करते रहते हैं परंतु कितनी बार उसके उल्टे परिणाम देखने को भी मिलते है । किसी वर्तमानपत्र या सामयिक में आरोग्यलक्षी लेख के लिए निष्णात चिकित्सक को कायमी संपादक या सलाहकार नियुक्त किया गया हो ऐसा आपने सुना या देखा है ?! ऐसी परिस्थिति में विविध रोगों के बारे में माहिती-पुस्तिका उपलब्ध करवाई जाएं तो एक बड़ी समाज सेवा मानी जाएगी । इसलिए ही मशहूर न्यूरोफिजिशियन डॉ. सुधीरभाई वी. शाह का लिखा हुआ 'मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ' नाम का यह पुस्तक एक आशीर्वाद समान है ऐसा कहें तो उसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । जब पुरानी बीमारी फिर से उभरे और नई बीमारी फैल चूकी हो तो ऐसे वक्त पर जो चिकित्सक को मरीज़ और उसके कुटुंबीजनों की चिंता हो और जिनके हृदय में मरीजों और सामान्य जनता का हित बसा हो वही चिकित्सक ही अपनी व्यस्त दिनचर्या में से पुस्तक लिखने के लिए समय निकाल सकता है और रात्रि को जाग कर भी अपना काम पूरा करता है । इससे भी विशेष वह अपने जेब से आर्थिक खर्च करके उसे प्रकाशित करता है । 'मैं अकेला क्या कर सकता हूँ?' ऐसे नकारात्मक, निराशावादी विचार के विरुद्ध 'चल अकेला' के सिद्धांत को अपनाते डॉ. सुधीरभाई ने इस दिशा में प्रथम कदम रखा है। इस पूर्वभूमिका को समझने के बाद अब पुस्तक की बात करते है । इतना तो नि:संकोच कहना ही पड़ेगा कि मरीज़ों, उनके परिवारजनों और समग्र जनसमुदाय को मस्तिष्क-ज्ञानतंत्र की विविध बीमारियों के बारे में Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक ज्ञान परोसने में विशेषज्ञ डॉ. सुधीरभाई को संतोषजनक सफलता मिली है। भोजन की विविध वानगी पौष्टिक होने के साथ साथ सुपाच्य और स्वादिष्ट भी होनी चाहिए। इस प्रकार लेखक को भी इस बात का ध्यान रखना पड़ता है । डॉ. सुधीरभाई की यह पुस्तक को पढ़ने के बाद लगता है कि इस बात का पूरा ध्यान रखा गया है । प्रस्तुतीकरण की सरलता, जानकारी की प्रचुरता, लिखने की लोकभोग्य शैली और भाषा पर पकड़ के कारण पुस्तक अद्भुत और सुंदर बन पाया है । अनावश्यक पांडित्य का बोझ नहीं होने के कारण सामान्य मानवी को समझ न आनेवाली जटिल बीमारियों को सहजता से निरुपित किया गया है, जो एक बड़ी सिद्धि मानी जाएगी । ऐसे तो लगभग सभी प्रकरण कुशलता और सक्षमता से लिखे गये हैं फिर भी मूर्छा, लकवा, स्मृतिभ्रंश, वाई और तनाव के प्रकरण सर्वोपरि है। इसके साथ साथ यह भी खास बताना चाहूँगा कि यह कोई सामान्य पुस्तक नहीं हैं। परंतु लेखक का विविध बीमारी के बारे में अनुभव और उनके ज्ञान का परिपाक है । इसके उपरांत सामान्य जनता के लिए लेखक की असामान्य अनुकंपा, बोध, चिंता और शुभ भावना का प्रतिबिंब है । गुजरात में, शायद भारतभर में, इस विषय से संबंधित सामान्य प्रजा को स्पर्श करनेवाली यह प्रथम पुस्तक है । यह पुस्तक जितने प्रेम से लिखी गई है उतने ही प्रेम से मरीजों, उनके परिवारजनों, चिकित्सक तथा नसिंग व्यवसाय के सदस्यों तथा गुजरात व अन्य प्रांतों में तथा परदेश में बसने वाली जागृत, बुद्धिजीवी प्रजा को उसे सहर्ष स्वीकार कर लेना चाहिए। डॉक्टर सिर्फ पैसा कमाना जानते है, इस प्रकार की टीका-टिप्पणी करनेवाले महानुभावों को उनका अभिप्राय बदलना पड़ेगा ऐसा मेरा मानना है। मरीज़ों के आरोग्य की विविध प्रकार से सलामती और श्रेय की चिंता नहीं होती तो इस पुस्तक को लिखने के लिए डॉ. सुधीरभाई पर किसीने दबाव नहीं डाला था फिर भी उन्होंने स्वयं ही इसकी जवाबदारी उठाकर शुभ भावना से प्रेरित होकर सुंदर, सफल और उपयोगी पुस्तक प्रसिद्ध किया Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके लिए मैं उन्हें हार्दिक अभिनंदन देते हुए आनंद का अनुभव करता हूँ। फिर भी भोजन की एकपक्षीय प्रशंसा करने का कोई अर्थ नहीं है। अन्ततः तो भोजन की इस वानगी के स्वाद को चखने के बाद ही वाचक को उसकी गुणवत्ता सुनिश्चित करनी है। मैं तो अपनी तरफ से इतना ही कह सकता हूँ कि आप निराश नहीं होंगें बल्कि आपको कुछ मिलने की परितृप्ति जरूर होगी। मकरसंक्रांति दि. 14-1-2001 अहमदाबाद - 380 007 ___ डॉ. गुणवंतराय जी. ओझा एम. डी. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका .......... .......... .. ... . . . चेतातंत्र संबंधित प्रारंभिक माहिती (Information about Nervous System) ... 2 मस्तिष्क की रेडियोलोजी की जाँच (Neuroradiology). मूर्छा (Coma)................ मिर्गी के दौरे (Epilepsy) ... पक्षाघात-लकवा ( पेरेलिसिस) (Stroke) मस्तिष्क में रक्तस्त्राव (Brain Hemorrhage) .. आधाशीशी और अन्य सिरदर्द एवम् वर्टिगो (Migraine, other headaches & vertigo)............ मूवमेन्ट डिस्ओर्डर्स एवम् डिस्टोनिया (Movement disorders & dystonia) ... कंपवात (Parkinsonism).... स्मृतिभ्रंश-मतिभ्रंश; और याददास्त बढ़ाने के उपाय (Dementia & tips to improve memory)................ 11 निदा-विकार और उपचार (Sleep Disorders).. ........................ 129 12 मस्तिष्क की संक्रमित बीमारियाँ (CNS Infections) .................................... 143 13 एईड्स (चेतातंत्र पर उसकी असर) (AIDS-its effects on Nervous system)................ 163 105 ... .. .. . . ..... .. ... .. .. ... ... 10 115 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... 171 ....211 .44 14 मस्तिष्क में होनेवाली गांठ (Brain Tumour)... 15 सेरिब्रल पाल्सी (Cerebral Palsy).... .... 179 16 करोड़रज्जु के रोग (Myelopathy).... .. 187 17 मल्टिपल स्क्लेरोसिस (Multiple Sclerosis) ... ...197 18 मोटर न्यूरोन डिसीज (Motor Neuron Diseases)... 205 19 न्यूरोपथी (Neuropathy). 20 मायस्थेनिया ग्रेविस (Myasthenia Gravis) 225 स्नायु की बीमारियाँ (Myopathies) ... ....... ............. 231 22 तनाव-टेन्शन (Stress) ................. 243 मस्तिष्क की शस्त्रक्रिया (Neurosurgery)......... 253 दीर्घ समय तक उपयोग की जाने वाली न्यूरोलोजी की दवाई संबंधित माहिती (Neurological Medicines to be used for longer duration).............. ................. 263 25 अस्पताल में भर्ती किए हुए मरीज़ संबंधित जरूरी सूचनाएं । (Tips for a hospitalised patient) ... मरीज़ के लिए माहिती मार्गदर्शिका Patient Information Guide..... 283 1 23 .. 271 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चेतातंत्र संबंधित पार (Informatio माहिती ystem) मस्तिष्क, करोडरज्जु और उसमें से निकलने वाली चेताएँ और स्नायुओं तथा अन्य अवयवों के साथ उनका संकलन - इस संपूर्ण कार्यरचना को चेतातंत्र यानी कि "नर्वस सिस्टम' (Nervous System) कहा जाता है। मनुष्य अन्य प्राणियों से विशिष्ट और उत्कृष्ट है, उसका एकमात्र कारण मनुष्य की चेतातंत्र की रचना और उसकी पद्धति है । मुख्यतः मस्तिष्क का कोर्टेक्स (मस्तिष्क की बाहर का हल्के भूरे (Grey) रंग का पड) अतिविकसित और जटिल होता है। हालाँकि मनुष्य के अन्य अंग अन्य प्राणियों जैसे या उनसे निम्नस्तर के होते है, परंतु कोर्टेक्स की वजह से उन्हें अनन्य बुद्धिचातुर्य, तर्कशक्ति, शब्दशक्ति और स्मरणशक्ति प्राप्त हुई है। इस कोर्टेक्स में लगभग १०० अरब न्यूरोन्स (चेतकोषिका) होते हैं । एक अंदाज अनुसार सामान्य मनुष्य अपने मस्तिष्क का सिर्फ ३ से ५ प्रतिशत उपयोग करता है। मध्यम मनुष्य मस्तिष्क का लगभग ५ से १० प्रतिशत उपयोग करता है, परंतु जीनियस यानि विलक्षण मनुष्य मस्तिष्क का विशेष उपयोग करता है। इस पर से जान सकते है कि मनुष्य अपने मस्तिष्क का जितना अधिक सद्उपयोग करें, वह उतना अधिक सर्वोपरि बन सकता है । वयस्क मनुष्य के मस्तिष्क का वजन लगभग १२०० से १४०० ग्राम जितना होता है । इस तरह हमारा मस्तिष्क शरीर के कुल वजन का मात्र एक से दो प्रतिशत हिस्सा ही होता है । लेकिन शरीर को मिलनेवाली प्राणवायु की लगभग २५ प्रतिशत आपूर्ति और ग्लूकोज़ की ७० प्रतिशत आपूर्ति मस्तिष्क को आवश्यक होती है । निम्नस्तर के करोडरज्जुवाले प्राणियों के पास मस्तिष्क जैसा विकसित अंग नहि होने की वजह से उनके कार्य प्रेरणा आधारित होते है। इसलिए उनमें संवेदना नहीं होती है, जैसे कि मक्खी आदि । बड़े मस्तक वाले अधिक Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ बुद्धिशाली होते है ऐसा नहीं है, कद के प्रमाण से ज्यादा मस्तिष्क की रचना अधिक महत्वपूर्ण होती है। मस्तिष्क की बाहर की सपाटी हल्के भूरे (Grey) रंग की है जिसे कोर्टेक्स (Cortex) कहा जाता है । और अंदर का भाग - हिस्सा सफेद रंग का होता है उसे व्हाइट मेटर (White matter) कहा जाता है। मस्तिष्क खोपड़ी में सुरक्षित ढंग से संभाला हुआ है और घर्षण न हो और कुछ अंश तक रक्षण हो इसलिए उस पर तीन प्रकार के आवरण होते हैं । जिसे 'मेनेन्जिझ' कहा जाता है, वह है - AG SA Cerebrum' Pituitary Gland पिट्युईटरी ग्रंथि Cerebrum - बड़ा मस्तिष्क D - ड्यूरा मेटर A - एरेकनोइड मेटर SA - सब एरेकनोइड स्पेस AG - एरेकनोइड ग्रेन्युलेशन c - छोटा मस्तिष्क cc - कोर्पस केलोझम Lv - लेटरल वेन्ट्रिकल V3 - थर्ड ( तीसरा) वेन्ट्रिकल v4 - फोर्थ (चौथा) वेन्ट्रिकल AS-एक्विडक्टओफ सिल्वियन Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 - चेतातंत्र संबंधित प्रारंभिक माहिती (Information about Nervous System) 3 dura mater (बाहर), arachnoid mater (बीच में) और pia mater (अंदर) । इसके संक्रमण (इन्फेक्शन-चेप) को मेनिन्जाइटिस कहा जाता है, जैसे कि टी.बी. मेनिन्जाइटिस । मस्तिष्क के अंदर की थैलियों को ventricles कहा जाता है । दो lateral ventricles, एक third ventricle और एक fourth ventricle, इस प्रकार कुल चार थैली होती हैं । इन थैलियों में रहनेवाले पानी जैसे प्रवाही को C.S.F. (सेरीब्रो स्पाईनल फ्लुईड) कहा जाता है। वह मस्तिष्क से करोड़रज्जु के अंदर बीचोबीच एक सिरे से दूसरे सिरे तक होता है । उसके अलावा वह मस्तिष्क और करोड़रज्जु के बाहर के आवरण में भी होता है । उस वजह से मस्तिष्क में होनेवाला संक्रमण या ब्रेन हेमरेज वगैरह के बारे में करोड़रज्जु में से पानी निकालकर Lumbar Puncture द्वारा आसानी से जाना जा सकता है। इस C.S.F. का कार्य मस्तिष्क में चयापचय (metabolism) में मदद करने से लेकर मस्तिष्क में घर्षण घटाने तक का है। मस्तिष्क के कोष के अत्याधिक महत्वपूर्ण और जटिल कार्य की वजह से उसे अधिक पोषण और प्राणवायु की जरूरत पड़ती है। इसलिए उसे रक्त की तेज और अधिक आपूर्ति मिलनी चाहिए। यदि रक्त और प्राणवायु का भ्रमण कोर्टेक्स में पांच मिनट से ज्यादा समय तक रुक जाए या बंध हो जाय तो उसका कार्य हमेशा के लिये बंद हो जाता है; और मनुष्य की जीवनलीला समाप्त हो सकती है । • मस्तिष्क को तीन हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है: (१) खोपड़ी के बड़े भाग को रोकने वाला बड़ा मस्तिष्क (cerebrum) । जिसके दो हिस्से हैं, दायाँ और बायाँ । इन दोनों के बीच संकलन करता हुआ कॉर्पस केलोझम होता है। (२) छोटा मस्तिष्क (Cerebellum) जो खोपड़ी के पिछले हिस्से में होता है, वह भी दायें और बायें दो हिस्सों में होता है। उसका मुख्य कार्य शरीर का संतुलन बनाये रखने का है। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (३) दोनों मस्तिष्क के बीच को जोड़ती पट्टी या कड़ी को ब्रेनस्टेम कहा जाता है । जिसमें mid brain, pons (मज्जासेतु) और medulla oblongata (लंबमज्जा) होते है । यह करोड़रज्जु में सीधे तौर में परिवर्तित हो जाता है । Cerebellum Cerebrum - C.v. Cerebrum - बड़ा मस्तिष्क C - छोटा मस्तिष्क CC - कोर्पस केलोझम GP - ग्लोबस पेलिड्स Put पुटामेन LN - लेन्टिफोर्म न्यूक्लियस H- हिपोकेम्पस IC - इन्टर्नल केप्स्यूल c.c. L.N. S.P. I.C. 1 - इन्स्यूला - पोन्स P M- मेड्यूला PL - पेराइटल लोब TL - टेम्पोरल लोब LV - लेटरल वेन्ट्रिकल 3V - थर्ड वेन्ट्रिकल SP- सेप्टम पेलुसिडम कार्यरचना की दृष्टि से बड़ा मस्तिष्क चार हिस्सों में होता हैं : (१) फ्रन्टल (आगे का हिस्सा) लोब (Frontal) (२) पेराइटल ( बगल का उपर का ) लोब (Parietal) (३) टेम्पोरल (बगल का नीचे का ) लोब (Temporal) (४) ओक्सिपिटल ( पीछे का) लोब (Occipital) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 - चेतातंत्र संबंधित प्रारंभिक माहिती (Information about Nervous System) 5 दाहिना मस्तिष्क शरीर के बायें अंगों की कार्यशीलता के लिए जिम्मेदार होता है। इस प्रकार बायाँ मस्तिष्क दाहिने अंगों और विशेषतः भाषा द्वारा अभिव्यक्ति की क्षमता के लिए जिम्मेदार होता है । फ्रन्टल लोब अधिकांशतः विरुद्ध दिशा के हाथ-पैर के हलन-चलन और मनुष्य के व्यक्तित्व और व्यवहार के लिए जिम्मेदार होता है। पेराईटल लोब शरीर की विरुद्ध दिशा की संवेदना का विश्लेषण करता है तथा गणित आदि शक्तिओं के साथ जुड़ा होता है । टेम्पोरल लोब और लिम्बिक सिस्टम मानव की याददास्त और स्वाभाविक मूलभूत वृत्तियाँ (instincts), संवेदना (emotions) और कुछ व्यक्तिओं के मतानुसार sixth sense जैसी गूढ़ (पेराईटल लोब) (फन्टल लोब) । (मस्तिष्क का वाणी केन्द्र भाग-२) मस्तिष्क का वाणी केन्द्र भाग-१). (ओक्सिपिटल लोब) (टेम्पोरल लोब) ___(मज्जासेतु) (लंबमज्जा) (छोटा मस्तिष्क) मस्तिष्क (करोडरज्जु) शक्ति का स्थान हो सकता है । श्रवणशक्ति का सर्वोपरि केन्द्र भी वहाँ है। ओक्सिपिटल लोब द्रष्टि और मस्तिष्क का विश्लेषण केन्द्र है । दाहिने हाथ से काम करनेवाले (लिखना, खाना और फेंकना आदि) व्यक्ति का बायाँ मस्तिष्क प्रभावी होता है और उसमें मुख्यतः भाषा और दूसरे अन्य महत्व के केन्द्र होते हैं । इस कारण इस (बायाँ) मस्तिष्क को टेक्निकल ब्रेईन (तांत्रिक मस्तिष्क) कह सकते है । दाहिना मस्तिष्क संवेदनशीलता, सर्जनात्मकता आदि के साथ जुड़ा हुआ होता है। यह समझने की बात है कि विचक्षण लोग दाहिने मस्तिष्क का विशेष उपयोग करते हैं। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ मस्तिष्क में मन कहाँ होता है उस बारे में कोई एकमत नहीं है । एक मतानुसार प्रत्येक कोष में मन है । अन्य मतानुसार टेम्पोरल लोब, लिम्बिक सरकिट में या पिनिअल ग्रंथि में मन का प्रस्थापन किया गया है । वास्तव में तो मन का कोई एनेटोमिकल - भौतिक प्रस्थापन नहीं है । लेकिन वह एक बायोकेमिकल - जैविक - रासायणिक और इलेकट्रोमेग्नेटिक जटिल प्रक्रिया है । उसके बारे में यथायोग्य ज्ञान मनुष्य को उपलब्ध नहि हुआ है, यह तबीबी विज्ञान की एक मर्यादा है । जो बात मन के बारे में कही जाती है वह आत्मा के बारे में भी कह सकते है । 6 इसके उपरांत मस्तिष्क में thalamus और basal ganglia नामक महत्वपूर्ण कोष केन्द्र होते है जिसे एकस्ट्रापिरामिडल सिस्टम कहते है, और उसमें होनेवाले रासायनिक असंतुलन की वजह से पार्किन्सोनिझम (Parkinsonism) (कंपवा) या उसके विपरीत कोरिआ (Chorea), डिस्टोनिआ (Dystonia) जैसे रोग होते है। इसकी विस्तृत जानकारी चेप्टर ८ और ९ में दी गई है । उसी प्रकार हाइपोथेलेमस एक महत्वपूर्ण अंग है जो सिम्पेथेटिक (sympathetic) और पेरासिम्पेथेटिक चेतातंत्र का महत्तम अंकुश रखनेवाला स्थान है । यह तंत्र अनैच्छिक स्नायुओं और स्ट्रेस आदि भौतिक क्रियाओं के साथ जुड़ा है । हृदय की धबकार, आंख की पुतली, ब्लडप्रेशर, श्वासोच्छवास आदि अनेक अत्याधिक महत्वपूर्ण क्रियाओं का नियमन इस प्रकार की नर्वस सिस्टम करती हैं, जो स्वयंसंचालित है । अंतःस्रावी ग्रंथिओं का मास्टर कंट्रोल उच्चतम नियमन स्थान पिट्युटरी ग्रंथि है और वह मस्तिष्क में है । वह शरीर की तमाम होर्मोनसिस्टम का अद्भुत नियमन करती है । इसके उपरांत मस्तिष्क और चेतातंत्र में संदेश का आदान-प्रदान करने के लिए डोपामिन, नोरएड्रिनालिन, गाबा, सिरोटोनिन, एसिटाइल कोलिन, एन्डोर्फिन, एन्सेफेलिन जैसे महत्वपूर्ण न्यूरोट्रान्समीटर और उनके रिसेप्टर का अद्भुत नेटवर्क प्रस्थापित हुआ है । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 1 - चेतातंत्र संबंधित प्रारंभिक माहिती (Information about Nervous System) 7 मस्तिष्क में से प्रत्येक बाजु से बारह (यानि की बारह जोड़) चेता-रग (Nerves) निकलती है । उसे क्रेनीअल नर्स (Cranial Nerves) कहा जाता है । वह अत्यंत महत्वपूर्ण काम करती है । जैसे की गंध, द्रष्टि, चहेरे के स्नायु और जिव्हा का हलनचलन इत्यादि । प्रथम चेता को olfactory nerve कहते है, जो गंध संबंधित जानकारी मस्तिष्क को देती है । दूसरी चेता को optic nerve कहा जाता है, जो द्रष्टि संबंधी ज्ञान मस्तिष्क को पहुँचाती है । और उसका उद्भव स्थान आँख की रेटिना (परदा) है । उसे नुकसान हो तो द्रष्टि की बीमारी होती है, अंधत्व भी आ सकता है। तीन, चार और छह: नंबर की चेता को क्रमशः ओक्युलोमोटर (Oculomotor), ट्रोकलीअर (Trochlear) और एब्डयुसन्स (Abducens) कहा जाता है । यह तीन चेताएँ आँख की गोटीओं को घुमानेवाले स्नायुओं को चेतान्वित करती है । जिनमें से एक भी नस को असर हो तो आँख तिरछी टेढी हो जाती है और एक के बदले दो-दो (डबल) द्रश्य दिखाई दे ऐसा भी हो सकता हैं । पांच नंबर की चेता को ट्राइजेमिनल (Trigeminal ) कहा जाता है, उसके काम में तकलीफ हो तो मुँह - जबड़े के स्नायु कमजोर हो जाते है अथवा मस्तिष्क पर की संवेदना का योग्य पृथक्करण नहीं होता है या अत्यंत वेदना होती है । उसे ट्राइजेमिनल न्यूराल्जिआ कहा जाता है, (देखें प्रकरण ७) । जिह्वा पर से स्वाद की जानकारी इस नस के तहत मस्तिष्क को पहुँचती है । सात नंबर की चेता को फेसियल (Facial) नर्व कहा जाता है । उसका लकवा हो तो मुँह टेढा हो जाता है । उस तरफ की आँख बंद नहीं हो सकती है । इस प्रचलित बीमारी को 'बेल्स पाल्सी' (Bell's Palsy) के नामसे जाना जाता है । - Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ आठ नंबर की रग (vestibulocochlear) वेस्टीब्युलो कोकलीअर है । उसे क्षति पहुँचे तो बहरापन अथवा शरीर के असंतुलन की बीमारी होती है। वर्टिगो (चक्कर आना) सामान्यत: उस चेता में होनेवाली गडबड से होता है । नव और दस नंबर की रग को क्रमशः (Glossopharyngeal) ग्लोसोफेरिन्जीअल और वेगस (Vagus) कहा जाता है, जिसका मुख्य काम खुराक को निगलना और स्वरपेटी के स्नायुओं को योग्य ढंग से कार्यरत करना है। मुख्यतः वेगस नस शरीर की अनेक अनैच्छिक क्रियाओं पर नियंत्रण करती है, उस वजह से वह Autonomic nervous system का महत्वपूर्ण अंग है । ग्यारह नंबर की रग गले के स्वैच्छिक स्नायुओं पर नियंत्रण करती है, जब की बारह नंबर की Hypoglossal (हायपोग्लोसल) Nerve जिह्वा के स्नायुओं का योग्य हलनचलन करती है ।। यह बारह रगें मस्तिष्क में योग्य और निश्चित स्थान से निकलती है और नियत मुकाम पर पहुँचती है। जो रग संवेदना वहन करती है, उसे Sensory nerve कहते है और वह निश्चित अंग (जैसे कि कान - आँख) में से निकलकर मस्तिष्क में पहुँचती है । जबकि मस्तिष्क में से जो आज्ञा स्नायुओं पर ले जाती है (जैसे कि आँख के स्नायु, मुँह के स्नायु) उसे motor nerve कहा जाता है । ___शरीर के हलन-चलन की गतिविधियाँ तीन चेतासमूह (Systems) से होती है । जो चेप्टर ८ में विस्तृत तरीके से बताई गई है । मस्तिष्क को एनेटोमी (शारीरिक रचना) की दृष्टि से समझने के बाद उसकी विशेषताओं के बारे में जाने । यह विशेषता ही मानव को सभी प्राणियों में सर्वोपरि बनाती है। मस्तिष्क के कोषो में एक प्रकार का सूक्ष्म विद्युतप्रवाह निकलता रहता है जिसमें एक सातत्य होता है, लय होती है । यह एक विद्युतकीय प्रक्रिया है । ___ यह प्रवाह रासायनिक ढंग से एक कोष में से दूसरे कोष में पहुँचता है और संपूर्ण नर्वस सिस्टम में न्यूरोट्रान्समीटर और रिसेप्टर का Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 - Fancier waifera orifete Haferit (Information about Nervous System) 9 अजीब सा नेटवर्क है, जो सेकंड के १००० वे भाग में एक जानकारी को एक भाग से दूसरे भाग तक पहुँचा सकता है । यह एक रासायनिक प्रक्रिया है । मस्तिष्क के कोष अन्य कोषों के जैसे ही अपने चयापचय को संभालते है । यह एक जैविक (बायोलोजिकल) प्रक्रिया है । विचार, बुद्धि, विवेकशीलता, याददास्त और सर्जनात्मकता जैसे अतिविकसित उपकरण - अवधान मस्तिष्क को मिले हुए है और उसके साथ साथ हमदर्दी, क्रोध, पसंद-नापसंद और प्रेम जैसी संवेदनशीलता अपने मस्तिष्क को मिली है । मुख्यतः आहार, निद्रा, भय जैसी मूलभूत स्वाभाविक वृत्तियां (instincts) मस्तिष्क को उपलब्ध है । दृष्टि, स्वाद, गंध, स्पर्श और श्रवण जैसी ज्ञानेन्द्रिय मस्तिष्क में तैनात है। भाषा के द्वारा हम एक दूसरे के साथ सरलता से विचारों का आदानप्रदान कर सकते है । हम जिसे 'मन' कहते है वह भी मस्तिष्क का ही भाग नहीं है क्या? हालांकि भौतिक रूप से हृदय (दिल) छाती में होता है । परंतु कवि जिस संवेदनात्मक हृदय की बात करते हैं उसके बारे में सोचने से ऐसा लगता है कि वह सचमुच तो मस्तिष्क की ही बात करते है। मानवसर्जित किसी भी सुपर कम्प्यूटर में कभी भी हम ऐसी उम्मीद रख सकते है ? आश्चर्य इस बात का है कि अपने मस्तिष्क के बारे में अपना मस्तिष्क ही सोच सकता है, विश्लेषण कर सकता है, हालाँकि हमें किसने बनाया है, इसकी कल्पना भलीभाँति हम कभी कर नहीं पाते हैं । मस्तिष्क में पैदा होने वाले विद्युत-तरंगों को ई.ई.जी. (E.E.G.) द्वारा जाना जा सकता है। मस्तिष्क के पिछले हिस्से में से जागृत अवस्था में आँख बंद कर के जिस विद्युतकीय प्रक्रिया को महसूस किया जा सकता है उसे आल्फातरंग कहा जाता है । उसकी तरंग संख्या ८ से १३ Hz होती है । एक दम आगे के फ्रन्टल कोर्टेक्स पर से सामान्यतः बीटा तरंग १४ से ४० Hz जितनी होती है । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ थीटा तरंग ४ से ७ Hz कभी-कभी टेम्पोरल भाग में मिलती है, और बच्चों में वह अधिक विकसित होती है । डेल्टा एक्टिविटी - यह वयस्क व्यक्ति में जागृत अवस्था में हमेशा एबनोर्मल होता है और कभी-कभी निद्रा में वह बच्चों में देखा जाता है । ऐसे तो सामान्यतः डेल्टा प्रक्रिया मस्तिष्क की किसी बीमारी की निशानी होती है। जिनको विवरण पसंद है, उनके लिए निम्न गद्यांश काफी रसप्रद रहेगा। प्राथमिक घटक - चेताकोष और चेताओं का संयोजन जैसे कि बताया गया है, चेतातंत्र में मस्तिष्क, करोड़रज्जु, उसमें से निकलने वाली चेताएँ और स्नायुओं को संदेशा पहुंचाने वाली नसों का समावेश होता है (Central and Peripheral Nervous System)। मनुष्य के मस्तिष्क का वजन लगभग १२०० से १४०० ग्राम है, परंतु उसमें लगभग १०० अरब चेतकोषिकाएँ होती है। चेतकोषिकाओं की संख्या भले ही आकाशगंगा में रहे तारों जितनी हो, लेकिन सिर्फ वोही मस्तिष्क की जटिलता को दर्शाती नहीं है । इस जटिलता में चेताकोषों की विविधता का भी महत्वपूर्ण योगदान है, जिसके बारे में प्रसिद्ध न्यूराएनेटोमिस्ट रेमन वाय. केजल ने सही ही कहा है कि “the mysterious butterflies" | चेतकोषिका मस्तिष्क का प्राथमिक घटक है । चेतकोषिका के तीन मुख्य भाग है - कोष और कोषकेन्द्र, डेन्ड्राईट्स - जो अन्य चेताकोषिकाओं से संदेशा लाते हैं और एक्झोन - जो अन्य चेताकोषिकाओं को संदेश पहुँचाते है। न्यूरोन उत्तेजित होकर विद्युतीय तरंगों द्वारा दूसरे न्यूरोन्स Cell Body | को संदेश पहुँचाते है, जिसे एक्शन पोटेन्शियल कहते है। यह संदेश तरंगो की तरह एक्झोन पर आगे बढते है और दो कोषों के बीच के जोड़ - सायनेप्स Dendrites Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 - Etancia Fafera urifah Hiletit (Information about Nervous System) 11 पर रासायणिक संदेश के रूप में परिवर्तित होते है । जब तरंगें प्रिसायनेप्टिक न्यूरोन के एक्झोन पर पहुँचती है, वहाँ न्यूरोट्रान्समिटर (रासायणिक पदार्थ) का स्राव होता है, जो आगे प्रसारित होता है और वह पोस्टसायनेप्टिक मेम्ब्रेन में रिसेप्टर से जुड़ता है। जिसकी वजह से आयन चेनलें खुलती है और पोस्टसायनेप्टिक चेताकोषिका में एक्शन पोटेन्शियल उत्पन्न होता है । संक्षिप्त में, इस तरह से चेताकोषिकाएँ संदेश का आदान प्रदान करती है। Chemical synapse dendrite neuro V detstrite 1660 Hansmitorg G synapik THA vesicle prasteynoptics Teceptor cell - - Homethin ax.an cell body .... ... Resi mayesi sheath मस्तिष्क में विविध प्रकार के न्यूरोट्रान्समिटर पाए गए है । और इस विविधता का मस्तिष्क के कार्य में काफी योगदान है । इस स्तर का सायनेप्टिक लेवल का पृथक्करण मुख्यतः मानसिक और मस्तिष्क रोगों में काफी उपयोगी है, जो दिमाग के कार्यों पर प्रकाश डालता है। सोचने और किसी विशेष प्रकार के वर्तन के रासायणिक आधार का विस्तृत अध्ययन, चेताओं के संगठन के विविध स्तरों की विस्तृत जानकारी प्राप्त करने से हो सकता है, जो की मस्तिष्क से लेकर विविध स्तरों से होती हुई अणुओं तक पहुंचती है। इससे हम ये भी समझ पाते हैं कि हम जो भी सोचते हैं, जो भी शब्द बोलते हैं, जो भी वर्तन करते हैं, वो हर एक बात दिमाग से पैदा होती है, और हर एक का सारे शरीर के सभी तंत्रो और Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ कोषों पर कुछ न कुछ असर-प्रभाव होता ही है । इसीलिए अच्छे से अच्छा सोचना चाहिए, अच्छा बोलना चाहिए और श्रेष्ठ कल्याणकारी वर्तन हमें करना चाहिए । चेता संगठन के विविध स्तर : | वर्तन Behaviour | तंत्र Systems जालाकार विन्यास Networks चेता Neurons सायनेप्स Synapses | रासायणिक पदार्थ Molecules जनीन Genes इन सभी संशोधनों के स्तर पर मुख्य आविष्कारों की वजह से जो अनुसंधान हुए है, उस से चेता विज्ञान द्रुत गति से ऊपरी स्तर पर उभरा है, जो कि एक तरफ - मनोचिकित्सा से लेकर आण्विक चेता विज्ञान (molecular neurobiology) और चेता जनीन विद्या (neuro-genetics) तक विस्तृत है। यह सब संशोधन मानसिक और न्यूरोलोजिकल रोगों की सारवार में बहुत उपयोगी हो रहे हैं। इतना समझने के बाद मस्तिष्क और चेतातंत्र के रोगों के वर्गीकरण के बारे में देखते है । (१) मस्तिष्क की चेतना में विक्षेप-बदलाव आना : (Altered Consciousness) कोमा (बेहोशी) इत्यादि Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1- चेतातंत्र संबंधित प्रारंभिक माहिती (Information about Nervous System) 13 (२) मस्तिष्क में अधिकतर वीज प्रवाह पैदा होना : एपिलेप्सी (३) मस्तिष्क में रक्त की पूर्ति बंद होना : स्ट्रोक - पेरेलिसिस मस्तिष्क में रक्त की नली का फटना : हेमरेज (रक्तस्राव) (४) मस्तिष्क जख्म : इन्जरी, ट्रोमा (जख्म) जैसे कि कंकशन और कन्ट्यू झन (५) मस्तिष्क में गांठ होना : ब्रेइन ट्युमर (६) मस्तिष्क के संक्रमित रोग : मेनिन्जाइटिस, परू की गांठ (७) मस्तिष्क के वाइरस के रोग : एन्सेफेलाइटिस, एईड्स (AIDS) (८) मस्तिष्क के व्हाइट मेटर के रोग : डिमाईलिनेटिंग डिसीज, उदाहरण - मल्टिपल स्क्ले रोसिस (M.S.) (९) मस्तिष्क में पोषण से संबंधित तथा अंत:स्राव या चयापचय के रोग : मेटाबोलिक एन्सेफेलोपथी (१०) जन्म से ही विकलांगता के कारण मस्तिष्क की बीमारियाँ जनीनों से वहन होते वारसाई रोग (११) मस्तिष्क कोषों की विकृति-विनाश से होने वाले रोग : पार्किन्सोनिझम, आल्झेमर डिमेन्शिया तथा अन्य ऐसी बिमारियाँ (१२) करोड़रज्जु के रोग (१३) न्यूरोपथी अर्थात् ज्ञानतंतुओं के रोग (१४) स्नायु के रोग (१५) मायेस्थेनिआ ग्रेविस आदि Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ मस्तिष्क के उपर्युक्त रोगों को न्यूरोलोजिकल डिसओर्डर्स कहे जाते हैं । इसका उपचार न्यूरोलोजिस्ट या कोई भी सक्षम फिजिशियन कर सकता है । मन की बीमारियाँ या रोग को साइकियाट्रिक डिसओर्डर्स कहते हैं । जिसमें मुख्यतः डिप्रेशन, एन्कझाइटी, साइकोसिस, न्यूरोसिस, पर्सनालिटी प्रोब्लेम और मनोजातीय रोग इत्यादि शामिल है। इन सभी बीमारियों का निदान निष्णात सायकियाट्रिस्ट के पास करवाना चाहिए। सामान्यतः साइकियाट्रिक बीमारियों में सी.टी. स्कन, ई.ई.जी. और लम्बर पंक्चर इत्यादि जाँच का परिणाम नोर्मल होता है। कई बार दोनों अलग अलग रोग में एकसमान चिह्न आ सकते हैं, जैसे कि मनुष्य की प्रकृति में बदलाव आया हो तो हम मान लेते है कि डिप्रेशन हुआ है, लेकिन यह ब्रेइन ट्युमर (फन्टल या कोर्पस केलोझल ट्युमर) भी हो सकता है । ऐसा हो तो निदान में गंभीर भूल हो सकती है । इसलिए मरीज का विस्तृत तबीबी इतिहास पूछकर विगतपूर्ण शारीरिक जाँच करना प्रत्येक मानसिक केस में जरूरी होता है । कभी शंका हो तो दो जाँच - सी.टी. स्केन, ई.ई.जी करवाना अधिक लाभदायी है । लेकिन जल्दबाजी में मानसिक बीमारियों का लेबल लगाना गलत है ऐसा कह सकते है । सौभाग्य से ऐसी विडंबना शायद ही पैदा होती है। इस प्रकार सिर में होने वाला हर प्रकार का घाव; जैसे कि सड़क दुर्घटना, ऊँचाई से गिरने पर चोट लगना, सिर में किसी शस्त्र से हुआ घाव - इन सबमें अधिकतर तात्कालिक उपचार की जरूरत पड़ती है। जिसमें समय व्यय न करते हुए मरीज को तुरंत ही सार्वजनिक या निजि अस्पताल में ले जाकर तात्कालिक न्यूरोसर्जन द्वारा ट्रीटमेन्ट की व्यवस्था करनी चाहिए । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1- चेतातंत्र संबंधित प्रारंभिक माहिती (Information about Nervous System) 15 मस्तिष्क के विषय में इतनी सामान्य जानकारी प्राप्त करने के बाद अब अन्य प्रकरण में मस्तिष्क की इन सभी प्रकार की बीमारियों के संदर्भ में सविशेष समझाने की कोशिश करेंगे । अन्ततः एक सबसे महत्वपूर्ण बात : अनुभव से एक बात तो निश्चितरूप में उभर आती है कि मरीजों को ठीक करने के लिए डॉक्टर का सही निदान और समयसर का इलाज और योग्य दवाई का संयोजन अनिवार्य है ही, लेकिन उनमें और भी कई महत्वपूर्ण बातें है जिन्हें दुर्भाग्यवश वर्तमान उपचारपद्धति में महत्व नहीं दिया जाता ___मरीज को शीघ्रता से और संपूर्णतः स्वस्थ होने के लिए उसकी डोक्टर के प्रति श्रद्धा, विश्वास, हकारात्मक अभिगम और नियमित व सादगीयुक्त जीवनशैली अति महत्वपूर्ण है । इसके अलावा डोक्टर की मरीज के प्रति हमदर्दी, डॉक्टर की अपने व्यवसाय के प्रति प्रतिबद्धता - निष्ठा तथा वोर्ड में नर्सिंग स्टाफ द्वारा व्यवस्थित देखरेख और अस्पताल का वातावरण इत्यादि भी उतने ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उपरांत, परिवारजनों की मरीज के प्रति उष्मा और देखरेख, प्रार्थना-दुआ, घर का सामाजिक माहोल और बीमारी संदर्भ योग्य जानकारी भी मरीज के आरोग्य में सुधार लाने के लिए महत्वपूर्ण है। इन सब पर ध्यान देना आवश्यक है । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (सुर्खियाँ) • वयस्क मनुष्य के मस्तिष्क में १०० अरब कोषिकाएं (Neurons) है और मस्तिष्क का वजन १२०० से १४०० ग्राम होता है और...... सामान्यतः आम आदमी मस्तिष्क का ३ से १० प्रतिशत उपयोग करता है ऐसा माना जाता है । मस्तिष्क के बडा मस्तिष्क (Cerebrum), छोटा मस्तिष्क (Cerebellum) और बेईन स्टेम (Brain Stem) ऐसे तीन मुख्य भाग होते हैं । और १२ चेता मस्तिष्क के दोनों बाजु से निकलती हैं । बायें बाजु का मस्तिष्क शरीर के दायें बाजु का संचालन करता है और दायें बाजु का मस्तिष्क बायें बाजु का संचालन करता है । • यदि रक्त और प्राणवायु का भ्रमण मस्तिष्क में ५ मिनट से ज्यादा समय तक रुक जाए या संपूर्ण बंद हो जाए तो मनुष्य की मृत्यु हो सकती है । • मस्तिष्क के नीचे स्थित पीट्युईटरी ग्रंथि शरीर के सब होर्मोन्स सिस्टम का नियमन करती है । मस्तिष्क के कोषों में एक प्रकार का लयबद्ध विद्युत प्रवाह निकलता है जिसका अभ्यास इइजी (EEG) नाम के टेस्ट से किया जा सकता है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तिष्क की रेडियोलोजी की जाँच (Neuroradiology) सामान्यतः मस्तिष्क या अन्य रोगों का इलाज डॉक्टर मरीज के बाहरी अवलोकन, रोग के चिह्न और पूछताछ आदि द्वारा करते हैं । कभी रोग के कारणों को जानने के लिए शरीर के अंदर कैसी, कहाँ और कितनी तकलीफ है यह समझना जरूरी हो जाता है । उस वक्त रेडियोलोजी-न्यूरोरेडियोलोजी का उपयोग किया जाता है, जिसमें स्क्रीनिंग, एक्स-रे, सोनोग्राफी, सी.टी.स्केन और एम.आर.आई. आदि का उपयोग होता है। • एक्स-रे (क्ष-किरणे) : शरीर के अंदर झांकने वाली इन एक्स-रे (क्ष-किरणें) "चमत्कारी किरणों' का संशोधन १८९५ में जर्मनी के मि. रोन्टजन ने किया था। उसके बाद चिकित्साक्षेत्र में इन किरणों का अधिक से अधिक कल्पनाशील तरीके से उपयोग होता रहा है, जो मानवजीवन के लिए एक महान आशीर्वाद सिद्ध हुआ है ।। सूर्यप्रकाश, क्ष-किरणें, माईक्रोवेव और रेडियोतरंग ये सभी वैज्ञानिक दृष्टि से विद्युतचुम्बकीय तरंग हैं । उसमें फर्क मात्र इन तरंगों में रहने वाली शक्ति का है । रेडियो और टेलिविजन की तरंगों में अधिक शक्ति नहीं होती, इसलिए अपने चारों ओर असंख्य तरंग प्रसारित होने के बावजूद भी हम जीवन जी सकते हैं । क्ष-किरणों की ऊर्जा प्रकाश से १०-१५ हजार गुना अधिक है। अत: वह वस्तु के आरपार जा सकती है। प्रकृति का ये करिश्मा है कि हमारी आँखों को केवल सूर्यप्रकाश ही दिखता है। सामान्य एक्स-रे की मदद से मस्तिष्क के बाह्य आवरण का एक परिमाणिय चित्र प्राप्त होता है, जिससे किसी चीज की गहराई कितनी है यह नहीं जान सकते । उदाहरण, मस्तिष्क के अंदर गांठ हो तो वह निश्चित किस जगह है और कितनी गहराई में है, यह कहा नहीं जा सकता। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ • सी.टी. स्केन (C. T. Scan) : एक्स-रे का उपयोग शरीर के विभिन्न अवयवों का चित्र प्राप्त करने हेतु किया जाता है । लेकिन हमारी चर्चा मस्तिष्क के रोगों में एक्स-रे आदि के उपयोग संदर्भ में है । हमने पिछले प्रकरण में देखा कि मस्तिष्क खोपडी में सुरक्षित रूप से है । जिससे सामान्य एक्स-रे द्वारा हमारी खोपडी के बाहरी आवरण की जानकारी मिल सकती है। मगर मस्तिष्क के अंदर के भाग और संरचना आदि की स्पष्ट जानकारी नहीं मिल सकती। इस समस्या का हल ब्रिटिश वैज्ञानिक होंसफिल्ड द्वारा बनाई गई सी. टी. स्केन मशीन से हुआ। सी.टी.स्केन (C.T. Scan) या केट स्केन अर्थात् कोम्प्यूटेड एक्षिअल टोमोग्राफी (Computed Axial Tomography). सी.टी.स्केन में भी एक्स-रे का ही उपयोग होता है, परंतु यहाँ कम्प्यूटर की मदद से त्रिपरिमाणिय गिनती द्वारा शरीर के प्रत्येक अंग और उसके घटक का चित्र (छबी) लिया जा सकता है। मस्तिष्क के अंदर गांठ कहाँ है, यह जानने के लिए मस्तिष्क का ब्रेड की स्लाईस जैसे काल्पनिक हिस्से करके हर एक हिस्से का विविध कोने से एक्सरे लिया जाता है । उसके बाद कम्प्यूटर की मदद से गिनती करके मस्तिष्क का त्रिपरिमाणिय (थ्री-डाइमेन्शनल) चित्र तैयार किया जा सकता है, जिससे गाँठ की गहराई और कद आदि निश्चित तरीके से जाने जा सकते है । इस प्रकार सी. टी. स्केन द्वारा मस्तिष्क के भीतर हो रही सूक्ष्म क्षति-खराबी का भी पता चल सकता है । सी. टी. स्केन की मदद से छबी किस प्रकार ली जाती है, वह निर्दिष्ट चित्र द्वारा समझा जा सकता है । • सी. टी. स्केन मशीन सी. टी. स्केन की मशीन घनाकार (Cubical) बक्से की तरह होती है, जिसे गेन्ट्री (Gantry) कहा जाता है। इस घनाकार के बीच में वर्तुलाकार टनल जैसा करीबन-२ फिट जितना हिस्सा होता है । मरीज को उपर-नीचे, दायें-बायें, आगे-पीछे हो सके वैसे स्ट्रेचर जैसे Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 - मस्तिष्क की रेडियोलोजी की जाँच (Neuroradiology) Working of CT Scan ( सीटी स्केन की कार्यप्रणालि ) X-ray Tube (एक्स-रे ट्युब ) 'डिटेक्टर) TV Monitor Detector 19 ( टी.वी. 1 मोनीटर) Computer ( कम्प्यूटर ) टेबल पर लेटाया जाता है । शरीर के जिस हिस्से की जाँच करनी है उस भाग को इस टनल के मध्य भाग में लाया जाता है । एक्स-रे ट्युब वर्तुलाकार टनल के मध्य भाग में घूमती है, जिस के तहत मस्तिष्क या दूसरे अवयवों के विविध कोने से छबी ली जा सकती है । यह छबी डिटेक्टर पर प्रतिबिंबित होती है और कम्प्यूटर की सहाय से निश्चित गिनती करके आगे निर्देश किया है वैसे ब्रेड की स्लाइस की तरह अवयवों को कम्प्यूटर के मोनिटर पर देखा जा सकता है और लेसर कैमरे की सहाय से उसकी छबी ली जा सकती है । यह प्रक्रिया में लगभग १५ - ३० मिनिट का समय लगता है । इस दौरान मरीज को स्थिर अवस्था में लेटे रहना चाहिए । नये अद्यतन मशीन से तो केवल दो मिनट लगते है । सामान्यतः एक्स-रे की १४ " x १७" की फिल्म में २० छबी ली जाती है, जिसका तजज्ञ रेडियोलोजिस्ट द्वारा अर्थघटन किया जाता है और उसकी रिपोर्ट तैयार होती है । सी. टी. स्केन से मस्तिष्क, करोडरज्जु, फेफर्डे से पेट तक के अवयवों की संपूर्ण जानकारी मिल सकती है । इसलिए जिस हिस्से का स्केन चाहिए उसके अनुसार सूचना लिखनी पडती है | सी. टी. स्केन से किसी प्रकार का दर्द नहीं होता, केवल कुछ समय के लिए मरीज को स्थिर अवस्था में लेटना पडता है । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ Gantry Generator 125 Table सी. टी. स्केन मशीन मस्तिष्क के रोग, जैसे कि गांठ और संक्रमण में खास तरह की दवाई (Contrast Agent) रक्तवाहिनी में सुई से दी जाती है । इससे बीमारी के दौरान रक्त के परिभ्रमण का पता भी चल सकता है। यह आयोडीनयुक्त (lodinised Contrast) दवाई जब रक्तवाहिनी द्वारा दी जाती है तब अधिकतर शरीर में गरमी लगने का या उल्टी होने का एहसास होता है । परंतु एक या दो मिनट में अपने आप सब ठीक हो जाता है । इसलिये Contrast C.T. Scan के लिये सामान्यतः ३ घंटे तक खाली पेट रहने की सलाह दी जाती है। मरीज को एलर्जी, अस्थमा, किडनी या थाइरोईड की तकलीफ हो उसे रिएक्शन होने की सम्भावना रहती है। ऐसे केस में नोन-आयोनिक डाई के उपयोग से रिएक्शन रोका जा सकता है। गर्भवती महिला को अपनी स्थिति डॉक्टर को पहले से बताना जरूरी है। सी. टी. स्केन का रेडियेशन के सिवाय कोई खास दुष्प्रभाव नहीं होता, इसलिए मरीजों के मित्रों या संबंधियों को सी. टी. रूम में उपस्थित नहीं रहने देते है.और मरीज के शरीर के अन्य अंगों को पूरी तरह से ढाँका जाता हैं । सी.टी. स्केन अब मस्तिष्क का प्राथमिक जांच का माध्यम बन गया है । भारत के जिले स्तर के लगभग हर शहर में यह सुविधा उपलब्ध है । सामान्यतः एक बार सी.टी. स्केन करवाने पर लगभग रू. १५०० से २००० तक खर्च आता है । Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 - मस्तिष्क की रेडियोलोजी की जाँच (Neuroradiology) एम. आर. आई. (M.R.I. ) सी.टी. स्केन द्वारा चेतातंतु, मस्तिष्क के अंदर का भाग (व्हाइट मेटर) और करोडरज्जु जैसे अंगों की महत्वपूर्ण जानकारी मर्यादित मात्रा में मिल सकती है । सन् १९७२ में डामाडियन नामक वैज्ञानिक ने संशोधन किया कि चुंबकीय प्रवाह मानवशरीर की जांच के लिये उपयोग में लिये जा सकते हैं। कम्प्यूटर के आधुनिकरण से शक्तिशाली चुंबकीय प्रवाह द्वारा मस्तिष्क की छबी ली जाती है, जिसे मेग्नेटिक रेझोनन्स इमेजिंग (Magnetic Resonance Imaging) (एम.आर.आई.) के नाम से जाना जाता है । मस्तिष्क की गांठ, लकवा, व्हाईट मेटर का रोग और जन्मजात विकलांगता, चेतातंत्र के मल्टिपल स्क्लेरोसिस जैसे रोग, आंख और कान के अंदर के अत्यंत सूक्ष्म भाग आदि की जांच और निदान के लिये एम. आर. आई. अत्यंत महत्वपूर्ण साबित हुआ है 1 1 एम.आर.आई. की मशीन एक नलाकार मेग्नेट होती है । जिसके मध्य में मरीज को सुलाने के लिये टनल होती है । इस मेग्नेट की चुंबकीय क्षमता पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र से एक हजार गुना अधिक होती है । इस मशीन की क्षमता उसके टेस्ला (Tesla ) द्वारा तय होती है । सामान्यतः ०.२T, ०.३T, ०.५T, १.०८, १.५T के मशीन होते हैं । टेस्ला अधिक हो उस मशीन की कार्यक्षमता, बारीकी और रफ्तार अधिक होती है । अब ३.०T के पावरफूल मशीन आ जाने के बाद बारीक और स्पष्ट निदान बहुत जल्दी से (कुछ ही मिनटों में) हो जाता है । उच्चस्तर एम. आर. आई. मशीन 21 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ के मशीनों में मेग्नेटिक फिल्ड बनाए रखने के लिये हेलियम (Helium) गेस का उपयोग होता है, यह वजह से एम.आर.आई. मशीन को वातानुकूलित रखना पडता है।। एम.आर.आई. भी सी. टी. स्केन की तरह मस्तिष्क, करोडरज्जु, पेट के अवयव, किड़नी, फेफडें, हृदय और स्नायु जैसे विविध अंगों की ध्यानपूर्वक विस्तृत जानकारी के लिये उपयोग में लिया जा सकता है । मरीझ के जिस हिस्से की जांच करनी है उसे मशीन के मध्यभाग में रखकर मरीज को सुलाया जाता है । यहां एक्स-रे का उपयोग नहीं किया जाता है लेकिन रेडियोतरंग और तीव्र चुंबकीय क्षेत्र का उपयोग होता है, जिससे रेडिएशन का डर नहीं रहता। शरीर में अधिक मात्रा में पानी के हाइड्रोजन प्रोटोन्स होते है ("H" of H2O)। एम.आर.आई. के सिद्धांत अनुसार रेडियोतरंग और चुंबकीय क्षेत्र की सहाय से यह प्रोटोन्स उत्तेजित होते है और ग्रेडियन्ट्स (Gradients) की सहाय से उसे प्रस्थापित स्थिति में लाया जाता है। प्रत्येक कोषिका में रहे विभिन्न प्रोटोन की संख्या और रेडियो सिग्नल के आधार पर कम्प्यूटर की आधुनिक गिनती की सहाय से उसे अत्यंत चीवटपूर्वक अलग किया जाता है । उसे लेसर के मेरा की सहाय से १४” x १७” की फोटो फिल्म पर प्रत्येक कोने से छबी खींची जा सकती है। यह वजह से मस्तिष्क के व्हाइट मेटर और ग्रे-मेटर सरलता से अलग कर सकते है । एक फोटो प्लेट में लगभग १६ से २० छबी आती है और पूरे एम.आर.आई. दौरान ऐसे ४ से ५ सिक्वन्स लिये जाते है । प्रत्येक सिक्वन्स ५ से ८ मिनट तक चलता है । इस प्रकार ३० से ४५ मिनट में मस्तिष्क के विभिन्न कोने से (x,y,z आधार) ८० से १०० छबी खींची जाती है, जिसके आधार पर तजज्ञ रेडियोलोजिस्ट अर्थघटन करके रिपोर्ट देते है । आधुनिक चिकित्साशास्त्र में मरीजों के लिए यह एक अद्भुत भेंट कही जा सकती है। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2- मस्तिष्क की रेडियोलोजी की जाँच (Neuroradiology) एम.आर.आई. जांच दौरान मशीन के ग्रेडियन्ट्स की आवाज आती रहती है; लेकिन कान में रूई, इयर प्लग या इयर फोन के उपयोग से वह कम लगती है । कई बार इस कमरे में संगीत भी रखा जाता है । कुछ मरीज बंद नलाकार में सोने से गभराते है, जिसे क्लोस्ट्रोफोबिया (Claustrophobia ) कहते हैं । ऐसे मरीज को नींद की दवाई दी जाती है । नये संशोधन अनुसार एम. आर. आई. मशीन के मेग्नेट की डिजाइन खुली होती है ( ओपन मेग्नेट) जिससे घबड़ाहट कम होती है । एम.आर.आई. में भी कुछ रोगों के लक्षण जानने के लिए खास दवाई (Contrast) दी जाती है, जिसका दुष्प्रभाव बहुत कम होता है । 1 एम.आर.आई. की जाँच सी. टी. स्केन की तुलना में उच्च स्तर कि होती है । पहली बात यह है कि यहां एक्स-रे का उपयोग होता नहीं है। गर्भावस्था दौरान की यह जाँच सी.टी. स्केन से बहुत कम नुकसान कारक होती है । सी.टी. स्केन के संदर्भ में हमने आगे देखा कि उसमें केवल तिरछे (Axial), ब्रेड की स्लाइस जैसे कट्स मिलते हैं, जबकि एम. आर. आई. में त्रिपरिमाणिय (x, y और z) अर्थात् संपूर्ण घनत्व की जानकारी मिलती है । एम. आर. आई. से करोडरज्जुस्पाईनलकोर्ड अति बारीकी से देखी जा सकती है । अत्यंत करोडरज्जु की एम. आर. आई. 23 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र के कारण एम.आर.आई. कमरे में घडी, क्रेडिट कार्ड, पेन, मोबाईल और अंगूठी जैसी धातु की चीजों के साथ प्रवेश करना निषेध है । जिनके हृदय में पेसमेकर लगा हो या शरीर में ऐसा कोई इलेक्ट्रोनिक उपकरण लगा हो, उनका एम.आर.आई. नहीं किया जा सकता है । नये संशोधन के परिणामस्वरूप Diffusion और Perfusion एम.आर.आई. सहज बना है । यह वजह से मस्तिष्क के जिस हिस्से में रक्त का परिभ्रमण कम हो, उसका मिनटों में ही शीघ्रता से निदान हो सकता है और तात्कालिक उपचार से पक्षाघात जैसी बीमारी से बचा जा सकता है। फंक्शनल एम.आर.आई. (f.M.R...) एक ऐसा नया संशोधन है कि जिससे मस्तिष्क में होती हल-चल, याददास्त, वाणीशक्ति और संवेदनाएँ आदि के उत्पत्तिस्थान को हम वर्गीकृत कर सकते है । इसका महत्वपूर्ण लाभ सर्जरी और रेडियोथेरेपी के प्लानिंग में होता है । इस उत्त्पतिस्थानों को बचा कर सर्जरी करने से मरीज को कायमी विकलांगता से बचाया जा सकता है। एम.आर.आई. का खर्च सामान्यतः रु. ५००० से ७००० तक होता है और अब भारत के बड़े शहरों में एम.आर.आई. की सुविधा उपलब्ध है। • एन्जियोग्राफी ( Angiography) एन्जियोग्राफी अर्थात् रक्त ले जाने वाली शिरा और धमनीओं की जाँच । हृदय की एन्जियोग्राफी से सामान्यतः प्रत्येक व्यक्ति परिचित होता है । मस्तिष्क की नलियों की भी इस प्रकार से जाँच की जाती मस्तिष्क के अनेक रोग, जिनमें रक्त की नली कठिन (Thick) हो जाना, या इसकी दिवाल में क्षार जमा होना, नली का बलून हो Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 - मस्तिष्क की रेडियोलोजी की जाँच (Neuroradiology) I जाना (Aneurysm ), नलियों का उलझना (A.V. Malformation) आदि के निदान के लिए डिजिटल सबस्ट्रेक्शन एन्जियोग्राफी (DSA) तकनिक से मस्तिष्क की एन्जियोग्राफी होती है । सबसे पहले जांघ में रही रक्त धमनी में नली (के थेटर) रखी जाती है, जिसे रक्त के प्रवाह के साथ आगे बढाया जाता है। एक्स-रे और कम्प्यूटर मोनिटर की सहाय से उसे मस्तिष्क की नली तक पहुंचाया जाता है । उसके पश्चात उसमें विशेष प्रकार की दवाई (कोन्ट्रास्ट मीडियम Contrast dye) इंजेक्शन द्वारा दी जाती है। यह दवाई जैसे जैसे आगे बढ़ती है, वैसे जीवंत प्रसारण की तरह उसकी जांच होती है । जरूरत पड़ने पर अलगअलग कोने से एक्स-रे द्वारा धमनियों को सरलता से देखा जा सकता है । डिजिटल सबस्ट्रेक्शन एन्जियोग्राफी में प्रथम मस्तिष्क की छबी, एक्स-रे लेते है । उसके पश्चात दवाई (Contrast) देने के बाद एक्स-रे लिया जाता है । इस प्रकार मस्तक और मस्तिष्क के विविध भाग की छबी ली जाती है, तथा उसके पश्चात नलिकाओं की तुलनापूर्वक बारीकी से जांच करके निदान किया जाता है। — मस्तिष्क को रक्त पहुंचानेवाली गले में से पसार होती धमनी (केरोटिड आर्टरी) कठिन (Thick ) होती हो या उसमें क्षार जमा हो जाए तो उसे बलून की सहाय से फुला कर यह क्षार तोडा जा सकता है, जिसे केरोटिड अन्जियोप्लास्टी कहते है । 25 हृदय की एन्जियोग्राफी की तरह मस्तिष्क की एन्जियोग्राफी में भी कुछ सामान्य मगर अनिवार्य खतरा होता है, परंतु इस खतरे का भी उपचार हो सकता है । किसी खतरे के बिना भी नलियों की जांच की जा सकती है । जैसे कि कलर डोपलर, सी. टी. एन्जियोग्राफी, एम.आर.आई. एन्जियोग्राफी, इनसे उपलब्ध जानकारी DSA की तुलना Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ - [ (A S RT CCAVBALT CCA एम.आर.आई. एन्जियोग्राफी - - में ५ से १० प्रतिशत कम होती है । कलर डोपलर की मदद से गले की केरोटिड आर्टरी संदर्भ खूब सरलता से सरल सोनोग्राफी तहत जानकारी मिल सकती है, जिसके द्वारा धमनी का परीघ, रक्त चाप, रक्त क्षार की मात्रा देखी जा सकती है । एम.आर.आई. अन्जियोग्राफी में, केथेटर की सहाय बिना धमनी और शिराओं की बहुत ही बारीकी से जांच हो सकती है, और वह बहुत ही शीघ्रता से नलियों की प्राथमिक जांच का स्थान ले रही है । इस जांच के लिये भी मरीजों को अम.आर.आई. की तरह टेबल पर लेटना होता है । सीटी अन्जियोग्राफी और भी अच्छा परिणाम देती है । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 - मस्तिष्क की रेडियोलोजी की जाँच (Neuroradiology) 1 विज्ञान, टेक्नोलोजी और कम्प्यूटर के आधुनिकीकरण की सहाय से रेडियोलोजी में बहुत ही जल्द नये संशोधन आ रहे है । पेट स्केन (PET Scan Positron Emission Tomography) की सहाय से कुछ रोगों की विशेष जानकारी आज मिल सकती है, जिससे मरीज का अत्यंत अच्छे तरीके से उपचार हो सकता है, लेकिन यह सरलता से उपलब्ध नहीं है । SPECT Scan तहत मस्तिष्क की चयापचय की जानकारी और मस्तिष्क की कार्यदक्षता की जानकारी मिल सकती है, जिसकी पहुँच खूब बढ़ती जा रही है । मस्तिष्क की गांठ, संक्रमित बीमारियाँ और अन्य विशिष्ट रोगों में स्पष्ट निदान के लिए MR SPECTROSCOPY नामक विशेष जाँच का व्याप आजकल बढ़ता जा रहा है । - एक्स-रे और वि-किरणें (Radiation) की खोज मानव स्वास्थ्य के उपरांत अन्य क्षेत्र में भी अधिक महत्व की है । अब तक एक्सरे का उपयोग करती विभिन्न खोजों को १५ जितने नोबेल प्राईज मिले हैं । मानव जीवन में एक्स-रे के प्रदान का यह मापदंड माना जाता है । नई खोज और संशोधन आज भी हो रहे है । हम उम्मीद करते हैं कि नई टेक्नोलोजी का अधिक लाभ मानव शरीर, स्वास्थ्य और सुख के लिए अधिक से अधिक उपलब्ध हो । 27 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (सुर्खियाँ) • सीटी स्कैन मस्तिष्क के रोगों के निदान में प्राथमिक जांच बन गया है। एम.आर.आइ. स्केन विशिष्ट जानकारी एवं सूक्ष्म जानकारी के लिए है। • मस्तिष्क के पीछेवाले हिस्से की जाँच में, एवं मस्तिष्क के अंदर के भाग की तपास में तथा करोडरज्जु में हुए रोगों को पहचान ने में एम.आर.आई. की तपास सीटी स्केन से ज्यादा उपयोगी है। • मस्तिष्क में रक्त ले जानेवाली शिरा और धमनीओं की जांच को एन्जियोग्राफी कहते हैं । यह सीटी स्केन एवं एम.आर.आइ. और डी.एस.ए. से की जाती है । इससे भी बहुत सारे रोगों का निदान हो सकता है । • कलर डोपलर की मदद से गले की सोनोग्राफी द्वारा मस्तिष्क को खून पहुँचाने वाली केरोटिड आर्टरी की सरलता से जानकारी मिल सकती है । । पेट-सीटी स्कैन रेडियोलोजी में सबसे आधुनिक टेस्ट है। लेकिन यह सरलता से उपलब्ध नहि है । जैविकरासायणिक प्रक्रिया जानने के लिए पेट और स्पेक्ट बहुत उपयोगी है। • आनेवाले दिनों में नई टेक्नोलोजी के विकास के कारण न्यूरोलोजिकल रोगों के निदान में ज्यादा सुविधा होगी। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ O मुर्छ (coma) मूर्छा के कुछ महत्वपूर्ण कारण (गांठ) (वास्क्यू लर रोग) ( रक्त की नलिका में झुरमुट) (मस्तिष्क की की ईजा) (संक्रमित रोग) (जन्मजात और आनुवंशिक रोग) कोमा (बेहोशी), मूलतः ग्रीक भाषा से लिया गया शब्द है । बेहोशी, अर्धबेहोशी, मूर्छा, तंद्रा, प्रलंब अति निद्रा-यह सभी मस्तिष्क और शरीर के अलग-अलग स्तर की संवेदनात्मक अवस्था दर्शाने के लिए उपयोग किये जानेवाले शब्द है । चिकित्सा विज्ञान की भाषा में कोमा की व्याख्या देनी हो तो यह कहा जा सकता है कि मस्तिष्क इस स्थिति में आ जाता है कि जहां उसकी सतर्कता नष्ट हो जाती है। शरीर के अंदर या बाहर की कोई भी संवेदना का प्रतिभाव नहीं देना या आंतरिक आवश्यकता का अनुभव बंद हो जाना उसे कोमा कहते है । यह स्थिति थोडी, अधिक या मृत्युपर्यंत चले तो मरीज को कोमा पेशन्ट कहा जा सकता है । कोमा शब्दने जितना डर पैदा किया है, वह ईतना खतरनाक नहीं है । साथ ही साथ इस बीमारी को सहजता Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ से नहीं लेने की खास सलाह है । आधुनिक जीवन की व्यस्तता और तनाव के कारण बढ़ता हुआ ब्लडप्रेशर, डायाबिटीस तथा सड़क दुर्घटना की वजह से, संक्रमण होने से, गांठ तथा अन्य अनेक कारणों से कोमा कभी भी, किसी को भी हो सकता है । • कारण - सूचि : (१) सड़क दुर्घटना : ब्रेइन ट्रोमा (मस्तिष्क का) : कन्कशन, कन्ट्यूझन, हेमरेज (सबड्यूरल, एक्स्ट्राड्यूरल) (२) मस्तिष्क में रक्त के परिभ्रमण के रोग : थ्रोम्बोसिस (धमनी या शिरा में रक्त जम जाना) एम्बोलिझम, हेमरेज, सब-एरेकनोईड हेमरेज । (३) मस्तिष्क के संक्रमित रोग या इन्फेक्शन : जहरी (विषम) मलेरीया, मेनिन्जाइटिस, टी.बी., वायरस एन्सेफेलाइटिस, एईड्स एवम् अन्य ओपोर्युनिस्टिक (तक मिलते होनेवाले) रोग, फन्गस, पेरेसाइट इन्फेक्शन, सिफिलिस आदि । । ब्रेईन ट्यूमर : केन्सर की (प्राईमरी या सेकन्डरी) गांठ जैसे कि ग्लायोमा या मेटास्टेसिस; साधारण गांठ जैसे कि मेनिन्जिओमा; इन सब में सिर दर्द, चक्कर आना, मिर्गीके दौरे, उल्टी होना, एक या दोनों तरफ के अंगो में पक्षाघात का असर होना जैसे चिह्न होते हैं । डोक्टरी जाँच और सी.टी. स्केनएम.आर.आई. द्वारा पूर्ण निदान हो सकता है । मेटाबोलिक रोग : जिसमें डायाबिटिक कोमा आदि मुख्य है। इसमें मरीज की जीवनशैली, मानसिक तनाव और व्यस्तता आदि प्रमुख भूमिका निभाते हैं । ऑक्सिजन की कमी, शरीर में शर्करा का अनियंत्रित प्रमाण (बढना-घटना), लिवर, किडनी और श्वास के रोग आदि से विभिन्न अंगो की कार्यक्षमता को विपरीत असर होने से मस्तिष्क की कार्यक्षमता कम हो जाती है और मरीज कोमा में चला जाता है । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31 3 - मूर्छा (Coma) (६) पोषण की कमी या डिहाईड्रेशन होने से भी कोमा हो सकता है । शरीर के उपयोगी तत्व जैसे कि विटामिन बी-१, बी-१२ आदि द्रव्य बहुत कम होने से भी कोमा हो सकता है । सोडियम घटने से होनेवाले कोमा को हाइपोनेट्रीमिक कोमा कहा जाता है । (७) होर्मोन्स असंतुलन : थाईरोइड, पेराथाईरोइड, अड्रिनल, पिट्यूईटरी ग्रंथियों में से होर्मोनस्राव बढ़ने घटने से कोमा हो सकता है I ( ८ ) मिर्गी : एपिलेप्सी (वाई) के एक से अधिक हमले के बाद । (९) अल्जाईमर डिसीझ : अंतिम स्टेज में रोग प्रवेश करने के दौरान । (१०) जहर ( पोईझन ) : आत्महत्या या हत्या के लिये उपयोग होनेवाला ओ. पी. पोइझनींग या भारी धातुएँ (हेवी मेटल्स) जैसे कि आर्सेनिक, लेड, पारा, नींद की गोलियों का ओवरडोझ । ( ११ ) नशीलें द्रव्य : मदिरा, हेरोईन, तंबाकु आदि । (१२) साइकोजेनिक कोमा: इसमें मरीज हकीकत में कोमा में नहीं होता Glassgow Coma Scale : सन् १९७४ में डॉ. टेसड़ेल और डॉ. जेनेट ने ग्लासगो नामक शहर में मरीज की जागृकता ( बेहोशी) का मापदंड नक्की करने के लिए ग्लासगो कोमा स्केल नामक सर्व स्वीकृत पद्धति का आविष्कार किया । जिसमें मूलभूत तीन संज्ञाओं का विश्लेषण किया गया है । जो इस प्रकार है : १. आँखों का प्रतिभाव २. ३. हलनचलन का प्रतिभाव वाचा का प्रतिभाव Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ इसका न्यूनतम स्कॉर ३ और महत्तम स्कॉर १५ है । यह स्कॉर अगर ८ से नीचे हो तो दर्दी की हालत गंभीर मानी जाती है । ___कोमा (बेहोशी) के दर्दी की परिस्थिति को जानने के लिए और उसकी स्थिति में सुधार या बिगाड़ हुआ, वो समझने के लिए यह बहुत ही सरल और असरकारक पद्धति है । उसमें मामूली असंदिग्धता जरुर है, फिर भी यह सर्वमान्य है । कोमा के मरीज का उपचार संपूर्ण ध्यान से, पद्धतिपूर्वक (सिस्टेमेटिक) किया जाता है । यह वजह से मरीज की हिस्ट्री, पल्स, टेम्परेचर, श्वास, आंख की जाँच और चेतातंत्र की जाँच करके उसके शरीर तथा मस्तिष्क के कई खास टेस्ट किये जाते है । इस लिए रक्त की विविध प्रकार की जाँच, एम.आर.आई., सी. टी. स्कैन, ई.ई.जी. और जरूरत पड़ने पर कमर में से पानी भी खिंचा जाता है, जो निदान पश्चात के उपचार में अति महत्वपूर्ण साबित हो सकता है । मरीज कोमा में से जब कभी ब्रेइनडेथ (ग्लासगो कोमा स्केल ३) की परिस्थिति में आ जाता है, तब यह घोषित करने से पहले सावधानी रखनी पडती है । यह संजोग में निश्चित मापदंड के आधार पर ही ब्रेईनडेथ जाहिर किया जाता है । यूँ कि मरीज की असली मृत्यु तो हृदय बंद पड़ने के बाद ही घोषित होती है, परंतु, बेईनडेथ के बाद मस्तिष्क की सतर्कता कदापि वापस नहीं आती हैं । इस लिये ऐसे मरीज का हृदय बंद पडने से (मृत्यु से) पहले किड़नी आदि अंगो का दान करने से किसी अन्य व्यक्ति की जिंदगी बचाई जा सकती • उपचार : कोमा के उपचार के मुख्य मुद्दे निम्न निर्दिष्ट है : (१) परिस्थिति की गंभीरता के अनुसार मरीज को I.C.U. में दाखिल करके घनिष्ठ उपचार शुरु करवा दें । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 - मूर्छा (Coma) 33 (२) ऑक्सिजन, श्वासोच्छ्वास, रक्त परिभ्रमण, ब्लडप्रेशर जैसे महत्वपूर्ण कार्यों को जल्दी से नियंत्रित करना चाहिए । (३) कारण तत्काल पता नहीं चले ऐसे कोमा में तुरंत ही ग्लूकोज, B, विटामिन और Nalorphine Injection पहले दिये जाते है। (४) रक्त के विविध रिपोर्ट के बाद भी आवश्यकता रहे तो ई.ई.जी., सी.टी.स्कैन, लम्बर पंक्चर द्वारा कोमा के कारण । कारणों को जानकर उसका उपचार जल्द ही शुरु किया जाता है, जैसे कि मस्तिष्क का संक्रमण हो तो एन्टीबायोटिक, टी.बी. (क्षय) की दवा, थ्रोम्बोसिस हो तो रक्त पतला करने की दवा आदि का उपयोग होता है। (५) शरीर में डिहाईड्रेशन हुआ हो तो रक्तवाहिनी में (I.V.) प्रवाही दिया जाता है, या फिर एसिड-बेईझ संतुलन बिगडा हो तो उसका उपचार श्रेष्ठ तरीके से किया जाता है । पूर्ण केलरीवाला आहार देकर पोषण संतुलित किया जाता है। यकृत, किडनी आदि अंगो के खराब होने से कोमा हुआ हो या डायाबिटिस और थाईरोइड आदि की समस्या हो तो उसका तत्काल उपचार किया जाता है । जैसे कि वायरस से यकृत अचानक बिगड़ गया हो (Acute liver failure) तो अन्य उपचार के साथ एन-एसिटाइल सिस्टिन और मेनिटोल दिया जा सकता है । अगर यकृत शराब के सेवन से धीरे धीरे बिगड़ गया हो (Chronic liver failure) तो एल-ओनिथिन एल-एस्पार्टेट (Heparnerz) दिया जाता है और दोनों ही प्रकार में लेक्युलोझ एनिमा दिया जाता है । जब मरीज की परिस्थिति सुधरती है तब लिवर ट्रान्सप्लान्ट के लिए भी सुयोग्य केस में सोचा जा सकता है । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 (८) मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (७) मिर्गी आती हो या सोडियम आदि द्रव्य का स्तर कम हो गया हो तो उसकी दवा देकर तात्कालिक उपचार शुरु किया जाता है। कई बार कोई नशीली दवाई का सेवन या नींद की दवाई का ज्यादा डोज़ या जहरी केमीकल का दुष्प्रभाव कोमा का कारण हो सकता है । इसलिए खून और पिशाब में इन दवाईयों का प्रमाण (Toxic Drug screening) जानना कोमा के अनिर्णित केसो में बहुत जरुरी है। मरीज को कोमा में ले जानेवाली स्ट्रक्चरल और मेटाबोलिक कंडिशन के बीच भी अंतर है । ब्रेईन ट्यूमर, लकवा और अचानक दुर्घटना के कारण हुए ब्रेईन हेमरेज का स्ट्रक्चरल कारणों में समावेश होता है । जिसमें मरीज के मस्तिष्क पर शारीरिक प्रतिकूलता का सीधा असर होता है । उसके विरुद्ध मेटाबोलिक कोमा में मस्तिष्क को छोडकर शरीर के अन्य भाग पर प्रथम असामान्यता दिखती है । यहाँ रोग पहले शरीर में अन्य अंग में होता है । जिसका असर बाद में मस्तिष्क पर होता है। हालाँकि कोमा के २ से ८ प्रतिशत केस ऐसे भी होते है जिसमें मरीज का कोमा में जाने का कारण पता नहीं चलता। अनपेक्षित या असहनीय सिर दर्द होता है तो उसे लापरवाही से न लेते हुए जाँच करा लेना हितकारक है । लकवे के मरीज को तत्काल अस्पताल में भर्ती करवाना चाहिये, जिससे समय बच सकें और सी.टी. स्कैन कर के अन्य ट्रीटमेन्ट की जा सके । लकवा और उसके कारण से कोमा पेशन्ट की बढ़ती संख्या तब घटेगी जब बी. पी., डायाबिटीस का उपचार योग्य तरीके से किया जाए और जीवनशैली में सुधार हो, वजन कम हो । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35 3 - मूm (Coma) पिछले कुछ समय में कोमा पेशन्ट की संख्या बढ़ने का कारण बी.पी., डायाबीटीस, तम्बाकु , शराब, सडक दुर्घटना, नशीले पदार्थ, पोईझनिंग और एईड्स की बढती मात्रा है । कुछ दवाईयों के दुष्प्रभाव से भी कोमा हो सकता है, जैसे कि इन्स्युलिन की मात्रा ज्यादा हो जाए तो रक्त में शर्करा-शुगर कम हो जाती है और मरीज बेहोश हो जाता है। कोमा में जानेवाले मरीजों का ठीक हो जाने का कोई नियत समय नहीं होता, प्रत्येक मरीज के केस में वह अलग-अलग हो सकता है। कुछ मरीजों में एकसमान अगोचर अद्रश्य प्रकार के किस्से उनकी तंद्रावस्था में पाये गये हैं, जिसे Near-Death Experience कहते है। कोमा से मुक्त होनेवाला मरीज फिरसे कोमा में जा सकता है । कोमा पेशन्ट की देख-भाल और उसे दुरस्त करने में दवाइयों के साथ मरीज की देखभाल, खुराक, प्रार्थना और प्रेम-भरी सारवार भी चमत्कारिक असर कर सकती है । मरीज के उपचार के साथ डोक्टर की सात्विकता तथा मरीज की अचेतन अवस्था में भी प्रदीप्त रहा उसका मनोबल अच्छे होने में महत्त्वपूर्ण रहता है ।। दो दिन, सप्ताह, महीनों या लंबे समय तक कोमा में जाने के बाद ठीक हुए मरीज संजोगवश दुष्प्रभाव के रूपमें कभी कभी गूंगे भी हो सकते है, कोई याददास्त भी खो बेठते है और कुछ ब्रेइनडेथ की ओर भी चले जाते हैं। कोमा के केस में मृत्यु का प्रमाण औसतन १० से २० प्रतिशत है। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ -(सुखियाँ) • शरीर के अंदर या बाहर की कोई भी संवेदना का प्रतिभाव नहि देनेकी अवस्था या आंतरिक आवश्यकता के अनुभव बंद हो जानेकी अवस्थाको कोमा (प्रलंब बेहोशी) कहते है। मस्तिष्क के रोग के अलावा बेहोशी के विविध कारण होते है, जैसे कि किडनी-लिवर की गड़बड़ से हुए मेटाबोलिक रोग, पोईझनींग, डीहाइड्रेशन, होर्मोन्स असंतुलन, सोल्ट (सोडियम) की गड़बड़ ।। यह मरीज़ो को सामान्यतः आइ.सी.यु. में भर्ती किया जाता है। बेहोशी का कारण ढूँढने में तबीब की क्षमता की कसौटी होती है । आयोजनबद्ध और तात्कालिक सारवार से कई जानें बच सकती है और नुकसान भी काफी कम हो सकता है । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिर्गी के दौरे (Epilepsy) यह एक तरह एपिलेप्सी अर्थात् बारबार पड़नेवाले मिर्गी के दौरे अथवा चक्कर खा कर गिर जाना अथवा फिट का आ जाना। एक ही बार पड़ने वाले मिर्गी के दौरे को एपिलेप्सी नहीं कहा जाता का मस्तिष्क का रोग है, जिसमें मस्तिष्क में कुछ ही देर के लिए विद्युतीय तरंगें अधिक उत्पन्न होने से शरीर में कम्पन और झटके महसूस होते हैं । लगभग १०० में से एक व्यक्ति को एपिलेप्सी की बीमारी हो सकती है । इस हिसाब से हमारे देश में लगभग एक करोड़ लोग इस बीमारी से पीडित है, लेकिन एक निष्कर्ष के अनुसार १०० में ४ व्यक्तियों को उनके जीवन में एक बार तो मिर्गी आई ही होती है, जैसे कि बुखार में मिर्गी आना । एपिलेप्सी के ७० से ७५ प्रतिशत मामलों में यह बीमारी बचपन से ही होने की जानकारी मिली है । उस समय इसके उचित उपचार के अभाव में मरीज को भविष्य में शारीरिक व मानसिक क्षति भी पहुंच सकती है एपिलेप्सी के मरीज उचित उपचार लें, तो स्वस्थ - सामान्य जीवन जी सकते हैं । ५० प्रतिशत मरीजों को तो दवा लेने के बाद दो से तीन वर्षों में इस बीमारी से हंमेशा के लिए मुक्ति मिल जाती है । एपिलेप्सी के मुख्य कारण : (१) बच्चे के जन्म समय का घाव अथवा ऑक्सिजन की कमी | (२) सड़क दुर्घटना या अन्य प्रकार का मस्तिष्क घाव | (३) मस्तिष्क की गांठें यानी ब्रेईन ट्यूमर । (४) मस्तिष्क में रक्त का कम परिभ्रमण (५) मस्तिष्क का बुखार, मस्तिष्क में संक्रामक रोग होना (जैसे कि टी. बी. या न्यूरोसिस्टिसरकोसिस ) (६) वंशानुगत कारण (Genetic) Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (७) रासायणिक तत्त्व का असंतुलन (Nat, K+, Ca+2, Mg+2 इत्यादि) (८) चयापचय की गड़बड़ (९) रक्त में चीनी की मात्रा में कमी आना । (१०) ऊपर दर्शाए कारणों में कोई एक भी लागू न हो, ऐसे मामले में भी एपिलेप्सी पाई जाती है । (Idiopathic) मिर्गी के मुख्य तीन प्रकार हैं : (१) विस्तृत - विस्तृत प्रकार की मिर्गी (जनरलाइज्ड सीझर) जनरलाइज्ड सीझर पार्शियल सीझर (२) सीमित - आंशिक प्रकार की मिर्गी (पार्शियल सीझर) (३) अनिर्णित (Unclassified) (४) स्टेटस एपीलेप्टीकस इन तीनों प्रकार की मिर्गी के उप प्रकार : (१) जनरलाइज्ड सीझर : (अ) ग्रान्डमाल एपिलेप्सी अर्थात् पूरे शरीर की मिर्गी (Tonic-clonic Seizures) : इस प्रकार में व्यक्ति बेहोश हो जाये, कभी चीखे, मुंह से झाग निकले, शरीर में झटके लगें, कई बार जीभ कुचले, तो कभी कपड़ों में मल-मूत्र भी हो जाता है । इस प्रकार की मिर्गी को बड़ी मिर्गी कहते हैं । होश में आने के बाद सामान्यतः मरीज कुछ देर अर्धचेतन अवस्था या तंद्रा में रहता है अथवा सो जाता है। कुछ समय के लिए पक्षाघात हो सकता है। कई बार मिर्गी आने के पहले मरीज को संकेत-चेतावणी मिल जाती है, जिसे औरा ( Aura) कहते हैं। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39 4. मिर्गी के दौरे (Epilepsy) (ब) पेटिटमाल (एबसन्स) : इस प्रकार की मिर्गी में मरीज कुछ पलों के लिए क्षुब्ध, स्तब्ध, अवाचक, शून्यमनस्क और विक्षिप्त हो जाता है, जैसे कि ब्लैकआउट हो गया हो । इसके दो प्रकार है (1) Typical (2) Atypical (क) मायोक्लोनिक सीझर : इस प्रकार की मिर्गी में मरीज को हाथ-पैर में क्षणिक झटके लगते हैं और हाथ की वस्तु गिर जाती है, मरीज होश में रहता है । (ड) इसके अलावा टोनिक, क्लोनिक और एटोनिक ऐसे कुछ प्रकार जनरलाईज्ड सीझर में आते हैं । (२) पार्सियल सीझर के दो उप प्रकार : (अ) सिम्पल पार्शियल सीझर : इस प्रकार में मरीज चेतन अवस्था में होता है और शरीर का एक तरफ का अंग खिंचता है अथवा झनझनाहट होती है, आदि । | __ (ब) कोम्प्लेक्स पार्शियल सीझर : जब सिम्पल पार्शियल सीजर जैसे लक्षणों के साथ मरीज क्षणिक होश भी खो दे, तो उसे कोम्प्लेक्स पार्सियल सीझर कहते हैं । इस प्रकार में मरीज क्षण भर के लिए होश गंवा देता है, तो कभी विचित्र व्यवहार करता है और फिर तुरंत होश में आ जाता है । इस परिस्थिति को छोटी मिर्गी भी कहते है। (३) अनिर्णित (Unclassified) (४) स्टेटस एपीलेप्टीकस (Status epilepticus - continuous seizures) जब मरीज़ को मिर्गी के दौरे लगातार आधे घंटे से भी ज्यादा समय तक चालू रहे या बारबार आते मिर्गी के दौरे के बीच दर्दी बेहोश रहे, उस गंभीर परिस्थिति को स्टेट्स एपीलेप्टीकस कहते है। ये मेडिकल इमरजन्सी है । दर्दी को तत्काल नजदीक Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ के अस्पताल में I.C.U. में भरती करके सारवार शुरू कर देनी बावजूद भी १५ - २० प्रतिशत दर्दी चाहिए । सघन सारवार के की मौत हो सकती है । साइकोजनिक सीझर : हिस्टीरिया : मिर्गी जैसे ही लक्षणों वाला अन्य एक रोग हीस्टीरिया है । यह एक मानसिक रोग है और इसमें मस्तिष्क में तकलीफ नहीं होती । यह रोग विशेषकर महिलाओं में पाया जाता है । मानसिक रोग के चिकित्सक के उपचार से इस रोग से मुक्त हुआ जा सकता है । फेबाइल कन्वल्जन अर्थात् बुखारप्रेरित मिर्गी : कभी-कभी छोटे बच्चों को बुखार में सामान्य मिर्गी आ जाती है। सामान्यतः बच्चा पांच वर्ष का होने के बाद ऐसी मिर्गी स्वयं खत्म हो जाती है । इसमें मस्तिष्क में किसी तरह की हानि नहीं पहुंची है, इसकी पुष्टि कर लेनी चाहिए । जिन्हें बुखार में मिर्गी आती हो, ऐसे बच्चों को बुखार ही न आए, इसके प्रति पूरी सावधानी बरतनी चाहिए। तुरंत ही पेरासीटामोल जैसी दवाएं तथा क्लोबाजाम नामक दवा दे देनी चाहिए। गुदा में रखी जाने वाली Dir - २, Juniz या अन्य कोई दवा ऐसी मिर्गी रोकने का सटीक उपाय है और मिर्गी शुरु होगी भी, तो इससे तुरंत रुक भी जाती है । ये दवा बारह घण्टे बाद पुनः दी जा सकती है। या फिर दाँत या जीभ के ऊपर Midazolam नामक दवाई, ड्रोपर या सिरिंज से तुरंत डालने से मिर्गी के दोरे को रोका जा सकता है । ऐसी मिर्गी रोकना जरूरी है; क्योंकि बारबार मिर्गी आए तो भविष्य में कोम्प्लेक्स पार्शियल अथवा जनरलाइज्ड सीझर के दौरे शुरु हो सकते है । ( १% दर्दी में) Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 4 . मिर्गी के दौरे (Epilepsy) एपिलेप्सी का दौरा अर्थात् मिर्गी आए, तब इन बातों को अवश्य ध्यान में रखें : १. मरीज को एक करवट सुला कर कपड़े ढीलें कर दें । जीभ दांतो के बीच न आ जाए, इसके लिए मुंह में धीरे से रुमाल या गोज़पीस रखें, परंतु इसके लिए भी बहुत जोर न लगाएं । तुरंत तबीबी सलाह का इन्तेजाम करें । मरीज को घाव लगे अथवा बारबार मिर्गी आए, तो चिकित्सकीय सलाह लेनी चाहिए । जरूरत पड़ने पर नस में Lorazepam या Diazepam के इंजेक्शन की व्यवस्था करें, अथवा मरीज को तत्काल अस्पताल में दाखिल करें। • एपिलेप्सी के मरीज स्वस्थ-सामान्य जीवन जी सकते हैं, विवाह कर सकते हैं और महिला मरीज गर्भ भी धारण कर सकती हैं। गर्भावस्था के दौरान मिर्गी की कुछ दवाओं के उपयोग से, होने वाले बच्चे को अधिकांशतः कोई हानि नहीं पहुंचती, जैसे कि कार्बामेजेपिन, लेमोट्रिजिन और लीवाटीरासिटाम । परंतु यदि दवा बंद कर देने से मिर्गी आए, तो इसमें ऑक्सिजन नहीं मिलने से बच्चे को होने वाला नुकसान अधिक खराब साबित होता है। अत: गर्भवती को दवा अवश्य लेनी चाहिए । एपिलेप्सी की जाँच : जाँच के लिए मिर्गी की विस्तृत रिपोर्ट तैयार करनी चाहिए । जिसने मिर्गी देखी हो, उस व्यक्ति से सभी जानकारियां एकत्र करनी चाहिए । फिर मिर्गी का प्रकार, उपचार की पद्धति व रोग के बारे में अधिक जानकारी के लिए मस्तिष्क का ग्राफ (ई.ई.जी.), मस्तिष्क का फोटो (अर्थात् सी.टी.स्कैन) और आवश्यक हो तो एम.आर.आई. नामक स्कैन भी होना चाहिए। इसके अलावा रक्त की जांच, मस्तिष्क व सीने के एक्स-रे जैसी अन्य जांच को भी यथोचित शामिल करना चाहिए । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ एपिलेप्सी का उपचार : एपिलेप्सी का कारण जान कर उसका योग्य उपचार होना जरूरी है। इसके अलावा इस रोग को अनियंत्रित होने जैसी परिस्थिति से दूर रहना चाहिए । अतः जागरण, तनाव, भूखे रहने या अधिक मानसिक अथवा शारीरिक श्रम को टालना चाहिए । इसके अलावा उचित दवा लम्बे समय तक लेने से यह रोग निश्चित ही काबू में किया जा सकता है। दवाई अचानक बंध नहि करनी चाहिए । नियमित फॉलो-अप बहुत जरूरी है, जब जरुर पडे तो तुरंत संपर्क करना चाहिए । मिर्गी की मुख्य दवाएं : (१) फिनोबार्बिटोन : उदा. गार्डिनाल, बिटाल (२) फेनीटोइन : उदा. एप्टोइन, डाइलेंटिन, एप्सोलिन (३) कार्बोमेजेपिन : उदा. जेन, जेप्टोल, टेग्रीटाल, मेझेटोल कार्बाटोल, (४) वालप्रोयेट : उदा. वालपेरिन, एंकोरेट, एपिलेक्स, टोरवेट कार्बोमेजेपिन और वालप्रोयेट में अब नई टेक्नोलोजी के अनुसार स्ला-रिलीज (धीरे व लम्बे समय तक प्रभावी रहने वाला) फोर्मूला भी मिलता है, जैसे कि टेग्रेटाल-सी.आर., वाल्प्रोलसी. आर. आदि । इससे दिन भर दवा का रक्त में प्रमाण समान बना रहता है और दिन में दो ही बार दवा लेनी पड़ती है । वाल्प्रोयेट का नया क्षार डायवालप्रोयेट (e.g. वेलेन्स) अब ज्यादा प्रचलित है। मिर्गी की मुख्य दवाओं के दुष्प्रभावों के बारे में प्रकरण २४ में विस्तृत जानकारी दी गई है । रोग के लक्षण व प्रकार के आधार पर चिकित्सक उचित दवा तय करते है। पिछले कुछ वर्षों में इस रोग को लेकर कई नए संशोधन हुए हैं, रोग निवारक नई दवाईयाँ भी खोजी गई हैं । नई शोधों को Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 - मिर्गी के दौरे (Epilepsy) दवाईयों तथा सर्जरी इन मुख्य दो भागों में विभाजित किया जा सकता है, जिसमें : नई दवाओं ( सेंकन्ड जनरेशन) में गाबापेंटीन, लेमोट्रिजिन, विगाबेट्रीन, टीआगाबीन, फेल्बेमेट, टोपीरामाइड उल्लेखनीय हैं । ये दवाईयाँ अमरीका के एफ.डी.ए. (फेडरल ड्रग्स ओथोरिटी) द्वारा कड़े परीक्षण से गुजरी होने के कारण बाजार में मिर्गी की दवा के रुप में स्वीकृत हुई हैं। सामान्यतः ये दवाईयाँ अपेक्षाकृत महंगी हैं । पहले बताई गई मुख्य दवाईयों का परिणाम न मिले तो प्रभाव सम्बद्ध ही इन दवाओं का उपयोग किया जाता है । अधिकांशतः इन दवाओं का दुष्प्रभाव कम होता है । फिर भी कुछ मामलों में विचित्र दुष्प्रभाव पाए जाते हैं । जैसे कि टोपीरामाइड से करीब २ प्रतिशत मरीजों को गुर्दे में पथरी होती है। इन दवाईयों के बहुत लम्बे समय के दुष्प्रभावों के लिए अभी कम अनुभव है, लेकिन गर्भावस्था में ये दवाईयाँ कदाचित सुरक्षित (Safe) हैं अर्थात् जन्म लेने वाले बच्चे पर इन दवाईयों का बुरा असर नहीं के बराबर पड़ता होगा, ऐसा पाया गया है । इस तरह सुयोग्य मामले में जब मुख्य दवा सफल न हो अथवा उससे दुष्प्रभाव होता हो तो नई दवाईयों का उपयोग अवश्य करना चाहिए। बिल्कुल नई दवाईयों में मुख्यतः ओक्सकाइँजेपिन (झेनोकसा, सेल्जिक), लीवाटीरासिटाम (टोरलीवा) तथा झोनीसेमाईड (झोनीसेप, झोनीग्रान) है । ये दवाईयाँ अभी काफी नई है । इन्हें थर्ड जनरेशन दवाईयाँ भी कहा जा सकता है । स्वाभाविक तौर पर इन दवाईयों का अनुभव कम है, परंतु अब तक ये प्रभावी पाई गई है। इनके दुष्प्रभाव बिल्कुल मामूली हैं, और कुछ पुरानी दवाईयों की जगह ये आराम से ले लेगी, ऐसा लगता है । जैसे कि कार्बोमेजेपिन के स्थान पर ओक्सकाइँजेपिन । जब मुख्य दवाईयाँ योग्य वैज्ञानिक मार्गदर्शन (Guidelineprotocol) के अनुसार उपयोग कर चुके हों और दवाईयों का योग्य संयोजन (Polytherapy), योग्य मात्रा में, योग्य समय तक उपयोग Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 (२) मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ करने के बावजूद भी मिर्गी का जरूरी नियमन न हो, तो उसे अनियंत्रित मिर्गी (Refractory Epilepsy-Intractable Epilepsy) कहते हैं । यह तय करने से पहले निम्न बातों की जांच कर लेनी चाहिये : (१) यह रोग मिर्गी का ही है न ? (Diagnostic Error) मिलता जुलता कोई रोग जैसे सिन्कोप, हिस्टीरीया या शक्कर कम होना आदि तो नहीं है न ? मिर्गी का प्रकार ठीक से तय हुआ है न? मिर्गी का कोई कारण खोजने में तो भूल नही हुई है न ? इन बातों का पुनः विश्लेषण कर के तय करना चाहिये। इससे सम्बन्ध योग्य दवा, योग्य मात्रा में दी तो गई है न ? जिस प्रकार की मिर्गी हो उस प्रकार की दवा दी जाती है । गलत दवा (Inappropriate drug) से मिर्गी अनियंत्रित भी हो सकती है। जैसे कि कार्बोमेजेपिन देने से मायोक्लोनिक प्रकार की मिर्गी अनियंत्रित हो सकती है । अयोग्य डोज-मात्रा या अयोग्य संयोजन तो नहीं है न ? रक्त में दवा का प्रमाण सम्बद्ध व्यक्ति में ठीक से बना हुआ तो है न? इसके अलावा मरीज की योग्य जांच हो चुकी है या नहीं? जैसे कि ई.ई.जी., सी.टी. स्कैन और एम.आर.आई. आदि द्वारा जांच कर योग्य कारण का पता तो लगाया गया है न ? (४) इसी प्रकार मरीज तरफ से कोई परेशानी तो नहीं है न? मरीज वास्तव में योग्य दवा नियमित लेता है या नहीं ? कोई अन्य ही मानसिक या शारीरिक बीमारी तो नहीं है न ? अन्य कोई दवा अन्य रोग के लिये चलती हो, तो उसके किसी विपरित प्रभाव से मिर्गी बढती तो नहीं है न ? मस्तिष्क में किसी तरह की गांठ, जन्मजात खामी या ऐसी कोई गड़बडी तो नहीं है न ? जरूरत पडने पर विशिष्ट प्रकार की ई.ई.जी., वीडियो ई.ई.जी., डेप्थ इलेक्ट्रोड से ई.ई.जी., स्पेक्टस्टडी और एम.आर.आई. कराना पडता है। (३) Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 - मिर्गी के दौरे (Epilepsy) उपरोक्त कारणों का योग्य ध्यान रखा गया हो और इन कारणों के नहीं होने की पुष्टी हो जाना, इस चरण के लिये अति महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि ये कारण अधिकतर टाले जा सकते है और इससे मिर्गी का सुयोग्य नियमन हो सकता है । इसके बावजूद और वैज्ञानिक मार्गदर्शन में दो अलग-अलग मुख्य दवाईयों (मोनोथेरापी) का प्रत्येक छह माह का योग्य डोज का कोर्स तथा कम से कम एक संयोजनयुक्त दवा (पोलीथेरापी) का ६ माह का कोर्स ( जरूरत पड़ने पर ऐसे दो कोर्स) आजमाने के बावजूद यदि हर महीने एक से दो बार दौरे दो वर्ष तक पडते रहें, तो उसे " अनियंत्रित मिर्गी" कहना चाहिए, ऐसा एक सामान्य मत है । हालाँकि यह लेबल प्रत्येक मरीज के लिए अलग होना चाहिये । मरीज के सामाजिक, आर्थिक व रोजगार के परिबल तथा मरीज की उम्र, उसके मानसिक व शारीरिक लक्षण अथवा खामियों को ध्यान में रख कर ही मरीज का अनियंत्रित मिर्गी (Refractory Epilepsy) से पीड़ित होने का निदान करना चाहिये । मिर्गी के तमाम मरीजों में करीब १५ से २२ प्रतिशत मरीज ऐसे होते हैं । ऐसे मरीजों के लिए निर्दिष्ट कदम (steps) उठाए जा सकते हैं : 1 45 (A) नई दवाईयाँ आजमाई जा सकती है । सामान्यतः मुख्य दवाइयों के अलावा विशेष दवा के रूप में (Add-on drug) सेकन्ड अथवा थर्ड जनरेशन की दवा चिकित्सा विशेषज्ञ योग्य प्रकार की मिर्गी में उपयोग करते है । कभी-कभी नई दवा को मुख्य दवा (First line drug) के रूप में उपयोग किया जा सकता है । (B) ऑपरेशन : जब दवाईयों के तहत परिणाम नहीं मिले और मिर्गी के कारण के रूप में कोई इलेक्ट्रिकल या स्ट्रक्चरल फोकस ( केन्द्र बिन्दु) मिल जाए, तो योग्य सर्जरी द्वारा मिर्गी समस्या को हल किया जा सकता है । मिर्गी की सर्जरी के क्षेत्र में पिछले दशक में अत्यंत संतोषजनक प्रगति हुई है और इसके फलस्वरूप जिन मामलों में मिर्गी का केन्द्र (focus) मिला हो, ऐसे ऑपरेशन के लिए योग्य Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ मरीजों में ३० से ३५ प्रतिशत मरीजों की मिर्गी पूर्णतः नियंत्रित हो जाती है। ऐसे ऑपरेशन हमारे देश में तथा विदेश में भी होते हैं और ये विशेष जोखिमकारी भी नहीं है । विभिन्न सेंटरो में २० हजार से २ लाख रूपये तक का खर्च हो सकता है। हालांकि ऐसे सेंटर हमारे देश में उनकी जरूरतों के मुकाबले काफी कम हैं । मिर्गी के लिये निम्न ऑपरेशन उपलब्ध है । किस मामले में कौनसा ऑपरेशन किया जाए, यह तो एपिलेप्सी सेंटर के अनुभवी न्यूरोलोजिस्ट-न्यूरोसर्जन की टीम ही तय करती है । (पृष्ठ - २५८) (a) Resective Surgery (b) Functional Surgery (a) Resective Surgery काटछांट करना (१) माइक्रोस्कोपिक डिसेक्शन (२) टेम्पोरल लोब सर्जरी (३) एक्स्ट्रा टेम्पोरल सर्जरी (४) लीजनेक्टोमी (५) लोबेक्टोमी (६) मल्टी लोबार सर्जरी (७) हेमी स्फिअरेक्टमी Nonresective/Functional Surgery (१) कोर्पस केलोज़ोटोमी (२) मल्टीपल सबपायल ट्रांसेक्शन (३) स्टीरियोटेकटिक प्रोसीजर (४) आयोनाइजिंग रेडिएशन (५) कमीसरोटोमी (b) Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 - मिर्गी के दौरे (Epilepsy) (c) स्टिम्युलेशन - Stimulation - उत्तेजित करने की प्रक्रिया (१) वेगस नर्व स्टिम्युलेशन (२) थेलेमिक स्टिम्युलेशन (३) सेरीबेलर स्टिम्युलेशन (d) कोष प्रत्यारोपण - सेलट्रान्स्प्लान्ट (Cell Transplant) (C) वेगस नर्व स्टिम्युलेशन - (VNS ) : सन् १९८० में Joseph Zarbara द्वारा खोजी गई और करीब ८ से १० लाख रूपये की लागत से होने वाली यह विशिष्ट प्रकार की सर्जिकल प्रोसीजर है, जिसमें कम्प्यूटर पद्धति से इलेक्ट्रिक रूप से वेगस नर्व (मस्तिष्क से निकलती १० नंबर की चेता) को उत्तेजित किया जाता है, जिससे मिर्गी के दौरे ५० प्रतिशत से भी कम हो जाते हैं । उसके साथ दवा भी ले सकते है । दौरा पड़ने की जानकारी (जिसे औरा कहते है) हो जाती हो, तो मरीज़ स्वयं ही इलेक्ट्रोड को उत्तेजित कर ऐसी मिर्गी को बंद भी कर सकता है । इस पद्धति की व्यापकता बढ़ती जा रही है । यह सुरक्षित पद्धति है । इसके मापदंड बदले जा सकते हैं । जिन मरीजों का सर्जरी के लिए योग्य केस न हो, जिसमें मिर्गी का उद्भवस्थान केन्द्र (focus) नहीं हुआ हो अथवा जो सर्जरी के लिये प्रतीक्षा रत हों, उन सभी में यह पद्धति काफी अच्छी है। खासकर जिस मामले में दवाईयाँ विशेष उपयोगी नहीं साबित हुई हों, उनमें इस प्रकार का उपचार उपयोगी है। (D) किटोजेनिक डायेट : ८० प्रतिशत चरबीयुक्त भोजन से मिर्गी का प्रमाण काफी हद तक कम होता है। ऐसी शोध के बाद यह पद्धति प्रचलित हुई है। यह पद्धति विशेषकर अनियंत्रित मिर्गी वाले बच्चों में उपयोगी पाई गई है, जिससे करीब ३०% बच्चे मिर्गी से मुक्त हुए पाए गए है और इतने ही ३०% अन्य मरीजों की मिर्गी में भी कमी पाई गई है। इस प्रकार का भोजन लेना शुरु में बच्चों को कठिन लगता है और कुछ रोगों में तो यह दिया ही नहीं जा सकता है, परंतु धीरे-धीरे बच्चे आदी हो जाते हैं। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ लगभग १ से २ वर्ष तक डॉक्टर की देखरेख में ऐसा भोजन लेने से अच्छा परिणाम मिल सकता है । इसमें माता-पिता को महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होती है। सर्जरी या VNS जैसी यह खर्चीली पद्धति नहीं है । मरीज को शुरु में २ से ३ सप्ताह तक चिकित्सक की देखरेख में अस्पताल में रखना हितकर है। योग्य मामले में इस प्रकार का उपचार आजमाया जा सकता है । निःसंदेह है कि समय बीतने पर नई शोध, नई पद्धतियां (जैसे टारगेटेड ड्रग डिलीवरी), नई सर्जिकल पद्धति, सेल ट्रान्सप्लान्ट आदि द्वारा मिर्गी के मरीज का भविष्य बदल जाएगा । मिर्गी के मरीज को निराश होने की जरूरत नहीं है ।। मिर्गी प्रचलित रोग होने के कारण इतनी चर्चा आवश्यक लगी है । यह चर्चा मेडिकल रूप से पूर्ण नहीं है, मैं यह बात ध्यान में लाना चाहता हूँ। मिर्गी सम्बंधी कुछ भ्रांतियां अभी भी हैं । इससे कई बार मरीज उचित उपचार से वंचित रह जाता है : (१) मिर्गी मानसिक बीमारी है । यह सत्य नहीं है । (२) मिर्गी के दौरे के दौरान मरीज के हाथ में लोहे का टुकडा दबा कर रखना या प्याज अथवा जूते (चप्पल) सूंघाना । यह मान्यता गलत है । वास्तव में अधिकांशतः एक से पांच मिनिट में मिर्गी का दौरा स्वयं ही शांत हो जाता है। (३) मिर्गी वंशानुगत है । सामान्यत: यह वंशानुगत नहीं है, किन्तु माता-पिता में से किसी एक को भी मिर्गी हो, तो बच्चे में मिर्गी होने की संभावना बढ़ जाती है । (४) मिर्गी के मरीज के लिये टॉनिक अच्छे । यह एक गुमराह करने वाली मान्यता है । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4- मिर्गी के दौरे (Epilepsy) (५) एक बार मिर्गी हुई, तो हमेशा रहेगी । नहीं, ऐसा नहीं है । ७० से ७५ प्रतिशत मामलों में दवा लेने से शत प्रतिशत राहत होती है । कुछ को जिंदगी में एक ही बार दौरा पडता है । • एपिलेप्टिक मरीज बिल्कुल सामान्य ( नोर्मल ) हैं । उनके प्रति नकारात्मक रवैया - अभिगम नहीं रखें तथा यह धारणा नहीं बनाएं कि यह मरीज खामीयुक्त है । 49 ऐसे मरीजों को रोग काबू में आने के बाद भी कुछ वर्ष तक ड्राइविंग नहीं करना चाहिये, और स्विमिंग तथा आग से दूर रहना चाहिये । जुलियस सीजर, नेपोलियन, ऑल्फेड नोबेल, विन्सेंट वान गोग, जॉन्टी रोड्स जैसी विख्यात हस्तियों में यह रोग था, फिर भी वे उनके क्षेत्र में सफल रहे । इस तरह सामाजिक व व्यावसायिक आदि गतिविधियों में महानता प्राप्त करने में मिर्गी कोई बाधा नहीं बनती । मिर्गी के मरीज की सर्वांगी मदद के लिये, 'एपिलेप्सी अवेरनेस फोरम' अहमदाबाद में कार्यरत है, जिसमें रोग की जानकारी, आर्थिक सुविधा, ग्रुप- कार्यक्रम आदि रखे जाते है । मरीज तथा परिजनों को मानसिक सांत्वना देने व समाज में उन्हें स्वीकृति दिलाने वाली गतिविधियां चिकित्सा विशेषज्ञों की देखरेख में की जाती हैं। इसके अलावा राष्ट्रीय स्तर पर इंडियन एपिलेप्सी सोसायटी तथा इंडियन एपिलेप्सी एसोसिएशन जैसी आंतरराष्ट्रीय मान्यताप्राप्त संस्थाएं भी काफी सक्रिय है । अहमदाबाद, बम्बई, दिल्ली जैसे बड़े शहरो में उसकी शाखाएँ कार्यरत है । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ सखिया • मस्तिष्क में अचानक विद्युत तरंगो का असंतुलन हो जाने से शरीर में झटके आते है, जिसको मिर्गी कहते है। विश्व के करीब १ प्रतिशत लोगों को (५ करोड़ से ज्यादा) यह रोग है । • ७०-७५ प्रतिशत मामले में यह बिमारी बचपन से होती है। मिर्गी विविध प्रकार की होती है, उसके अनुसार अलग अलग प्रकार की दवा दी जाती है । • खास करके मरीज़ यदि स्त्री हो तो एपीलेप्सी है या हिस्टीरीया है, उसका फैसला जाँच करने पर किया जा सकता है। मिर्गी एक न्युरोलोजिकल बीमारी है, हिस्टीरीया मानसिक बिमारी है। उसकी जानकारी उनके आप्तजनों को होनी चाहिए । मिर्गी की दवा डोक्टर के सूचना अनुसार मुख्यतः दो या तीन साल या ज्यादा लेनी पडती है । दवा का दुष्प्रभाव हो या तो स्त्री मरीज़ में गर्भावस्था हो तो डोक्टर को यह बताना चाहिए। क्योंकि एसी परिस्थिति में दवा बदलनी पडती है । • मिर्गी के कुछ हठिले केसमें अच्छी तरह ओपरेशन भी किया जा सकता है । • नई-नई दवाईयां, सर्जरी, नये संशोधन की तेज रफतार से मिर्गी के दर्दी का भविष्य आशास्पद हो गया है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्षाघात-लकवा (पेरेलिसिस) - Stroke पक्षाघात (Stroke) (ब्रेईन अटेक) अपने देश में प्रचलित रोग है। मृत्यु के कारणों में हृदयरोग, केन्सर और सड़क दुर्घटना के बाद पक्षाघात (Stroke) एक महत्वपूर्ण कारण है । स्ट्रोक दो प्रकार के होते हैं - (१) रक्त कम मिलना - (Brain Ischemia) (२) ब्रेईन हेमरेज होना (Brain Hemorrhage) इस रोग के विषय में जनजागृति और उसकी जानकारी आम जनता में अत्यंत कम है वह एक दु:खद बात है। विशेषतः इस रोग के बारे में खतरनाक कारणों की सही जानकारी से हृदयरोग की तरह इससे भी बचा जा सकता है । सावधानी के चिह्न जान लें तो बड़े हमले से बचा जा सकता है । इस बीमारी होने के बाद तुरंत इलाज और उपचार मिलें तो इससे विकलांगता से भी बचा जा सकता है और ऐसा होने पर वैयक्तिक, कौटुंबिक, आर्थिक, सामाजिक और राष्ट्रीय हित बृहद प्रमाण में बने रहे तो एक बड़ी सेवा मानी जाएगी। यहां पक्षाघात (ब्रेईन एटेक या स्ट्रोक) की अति विस्तृत जानकारी देने का यही प्रयोजन है। अपनी चरबी और मीठाशयुक्त खुराकपद्धति, आलसी जीवन, कसरत की कमी, पेट पर जमी चरबी, वंशानुगत (रेसियल) कारण, रक्त में अधिक मात्रा में चरबी... इन सभी को लेकर पूरे विश्व में भारतीय और उसमें खास करके गुजरातीयों में हृदयरोग और पक्षाघात का प्रमाण अधिक है। ऊपर बताये मुताबिक स्ट्रोक में प्रमुख चिह्न पक्षाघात (पेरेलिसिस) हो सकता है। जिसमें एक बाजु का अंग । कभी दोनों बाजु के अंग नाकाम बन जाते हैं । इसमें विशेषतः बोलने की, समझने की या देखने की शक्ति पर असर होती है। स्ट्रोक के प्रथम प्रकार ब्रेईन इश्चेमिआ/थ्रोम्बोसिस में मस्तिष्क की कुछ धमनीओं में रक्त के Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ परिभ्रमण में रुकावट होने से मस्तिष्क के कोषों में पोषण और ऑक्सिजन की कमी हो जाती है, फलस्वरूप ये कोष काम करना बंद कर देते हे । और यह समस्या शुरू होती है । स्ट्रोक के दूसरे प्रकार ब्रेईन हेमरेज के बारे में विशेष बातें हम आनेवाले चेप्टर में देखेंगे। कुछ नसीबवाले लोगों को क्षणिक पक्षाघात की असर २४ घंटे के अंदर संपूर्णत: चली जाती है, जिसे चिकित्सा की भाषा में टी.आई.ए. (Transient Ischemic Attack) कहते हैं । हालांकि ऐसे मरीजों में से ३० प्रतिशत को आनेवाले पांच वर्ष में बड़े पक्षाघात का असर हो सकता है । इसलिये क्षणिक पक्षाघात को भी चेतावनी समझ कर सावधानी रखना हितकारी है। ___ पक्षाघात के प्रकार और उससे होने वाली असर की तीव्रता, मस्तिष्क के किस भाग को कितनी क्षति पहुँची है, इसके द्वारा निष्णात डॉक्टर तय करते हैं । अगर मस्तिष्क में बायें भाग में असर होगा तो दायें भाग में पक्षाघात का असर दिखाई देता है, जिसमें वाणी की क्षमता भी कम हो जाती है । इसी प्रकार मस्तिष्क के दायें भाग में असर होगा तो शरीर के बायें भाग पर पक्षाघात का असर दिखता है। मिडल सेरेबल आर्टरी 7 - MCA बा. एन्टिरियर सेरेबल आर्टरी - एन्टिरियर कोम्युनिकेटिंग आर्टरी / इन्टर्नल (केरोटिड आर्टरी) (मस्तिष्क में रक्त पहुंचानेवाली मुख्य नलिकाओं में रक्त प्रवाह बंद होने से पक्षाघात हो सकता है) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 - पक्षाघात-लकवा (पेरेलिसिस) - STROKE ____ मस्तिष्क को रक्त मुख्यतः चार धमनियां पहुंचाती है। गले में आगे के भाग में दोनों तरफ की दो केरोटिड नलिकाएं और पीछे के भाग की केरोटिड आर्टरी - ३ INTERNAL CAROTID A. केरोटिड - आर्टरी - ४ बेसीलर आर्टरी (धोरी नस) (धमनी) वर्टिबल / वर्टिबल आर्टरी - १/ आर्टरी - २ मस्तिष्क को रक्त पहुंचाती मुख्य नलिकाएं दो वर्टिब्रल नलिकाएं मस्तिष्क को लगातार रक्त पहुंचाती है। पीछे की दो नलिकाएं मिलकर बेसीलर आर्टरी बनती हैं, जिसे हम सामान्यतः धोरी नस के नाम से जानते है, जो सबसे महत्वपूर्ण नलिका है। मस्तिष्क की धमनियां अथवा मस्तिष्क को रक्त पहुंचाने वाली रक्तवाहिनी की दीवार अंदर से स्थूल होने से या रक्त जम जाने से मस्तिष्क में रक्त परिभ्रमण को क्षति पहुंचती है। कुछ मिनट के लिये हृदय बंद होने से भी मस्तिष्क को नुकसान पहुंचता है। कभी-कभी शिरा में रक्त जम जाने से भी पक्षाघात हो सकता है। __ बढती उम्र के साथ शरीर की क्षतिग्रस्त धमनियों के आंतरिक स्तर में वृद्धि होती है, परिणामस्वरूप रक्त परिभ्रमण में रुकावट होती है या कम हो जाता है । इस परिस्थिति को आर्टरीओस्क्लेरोसिस-ओथेरो स्क्लेरोसिस कहते है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ ब्रेईन इश्चेमिया में मस्तिष्क के कोषों को दो प्रकार से क्षति हो सकती है । एक, रक्त की स्निग्धता बढ़ने से रक्त जम जाता है (थ्रोम्बोसिस)। दूसरा, जमा हुआ रक्त हृदय में से या अन्य स्थान से रुधिर (रक्त) में प्रवाहित हो कर मस्तिष्क की अन्य धमनी में (Artery) रुक कर रक्त परिभ्रमण को रोकता है, उसे ऐम्बोलिझम कहते हैं । लगभग २० प्रतिशत मरीजों में मस्तिष्क की नस ब्लडप्रेशर बढ जाने से या अन्य कारण से फट जाय तो भी पक्षाघात होता है, जिसे ब्रेईन हेमरेज कहते हैं । पक्षाघात जैसे ही लक्षण अन्य किस बीमारी में हो सकते हैं? मस्तिष्क का संक्रमण, बेईनट्यूमर, मवाद की गांठ, मल्टिपल स्क्लेरोसिस, हिस्टीरिया, सिर का घाव आदि में एक तरफ या दोनों तरफ का पक्षाघात हो सकता है, किन्तु वह यह पक्षाघात (स्ट्रोक) से भिन्न होता है और वह अन्य लक्षणों से पहचाना जा सकता है। पक्षाघात (स्ट्रोक) होने के जिम्मेदार खतरनाक कारण : (१) बढ़ता हुआ रक्तचाप अर्थात् हाई ब्ल्डप्रेशर (२) मधुप्रमेह अर्थात् डायाबिटीस (३) रक्त में बढ़ता हुआ चरबी (फेट) का स्तर (४) बढ़ता वजन (ओबेसिटी) (५) धूम्रपान, तम्बाकु या शराब का सेवन (६) हृदयरोग (IHD), वाल्व के रोग या अनियमित नाडी (जैसे कि Atrial Fibrillation-AF) (७) पुराना पक्षाघात या टी.आई.ए. (८) गर्भनिरोधक गोलियों का सेवन (९) संघर्षयुक्त जीवनशैली, स्ट्रेस, आरामदायक जीवन का अतिरेक और व्यायाम की कमी (१०) वंशानुगत - जिनेटिक Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55 5 . पक्षाघात-लकवा (पेरेलिसिस) - STROKE (११) रक्त घटकों संबंधित बीमारी, जो रक्त को घट्ट करें (१२) कु छ शारीरिक रोग जैसे कि कोलेजन डिसीज, एन्टिकार्डियोलीपिन सिन्ड्रोम (१३) चयापचय की कुछ तकलीफ जैसे कि हायपर होमोसिस्टिनेमिआ (१४) कोकेईन आदि ड्रग्स की लत उपरोक्त में से अधिकतर खतरनाक कारण पक्षाघात और हृदयरोग दोनों बीमारियों को जन्म देते है। नियमित योग्य उपचार से इन कारणों को काबू में लिया जा सकता है । इसलिए ४० वर्ष से ऊपर के प्रत्येक व्यक्ति को नियमित चिकित्सक जाँच करवानी चाहिए । परिवार में किसी सदस्य को हृदयरोग या पक्षाघात हुआ हो तो अधिक सावधानी रख कर पक्षाघात रोकने के लिए उचित कदम उठाने चाहिए। इसके अलावा पक्षाघात की बीमारी के अन्य संभवित कारणों की जानकारी जरूरी है। शरीर में संक्रमित रोगों की उपस्थिति, इलेक्ट्रोलाइट (सोडियम-पोटेशियम) की तकलीफ, हीमोग्लोबिन की कमी, वातावरण-पर्यावरण, पानी की कठोरता आदि । इन सभी कारणों के संदर्भ में वैज्ञानिक एकमतता नहीं है । एक बात यह भी ध्यान में रखनी चाहिए कि लगभग ४० प्रतिशत मरीज़ों में कोई भी महत्वपूर्ण कारण नहीं मिलता जो कि पक्षाघात (अथवा हृदयरोग) के लिये जिम्मेवार हो । पक्षाघात के चेतावनी-चिह्न (टी.आई.ए.) : (१) एक तरफ के अर्थात् आधे अंग में अशक्ति का एहसास हो, एक तरफ के हाथ-पैर काम करना बंद कर दें या सुनापन या झनझनाहट का एहसास हो । (२) थोड़ी देर के लिए एक या दोनों आंखों से कम दिखाई देना । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 ____ मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (३) थोडे समय के लिए बोलने या समझने में तकलीफ होना, दुविधा होना । (४) चक्कर आना, धुंधला दिखना, दुगुना दिखना, अचानक सिर दर्द होना, उल्टी-डकार आना, दोनों पैरों में कमजोरी होना, लडखडाना, अचानक क्षणिक बेहोश होना, खींच आना या गिर जाना; ऐसा कुछ मिनट-घंटे तक रहे । ऐसे लक्षण की ओर बेदरकारी भविष्य में पूरे शरीर में पक्षाघात कर सकती है, आवाज चली जाती है और मरीज़ बेहोश भी हो सकता है। जिंदगी को खतरा हो सकता है । पक्षाघात और हृदयरोग रोकने के उपाय : आर्टरीओस्क्ले रोसिस बहुत ही मंद गति से उत्तरोतर बढ़ने वाला रोग है, जिसमें आगे बताए गयें महत्वपूर्ण कारण गति तथा क्षति में बढोतरी कर सकते है । इसे रोकने के लिए पहले तो वजन का संतुलन बनाए रखे ऐसा सात्त्विक और पौष्टिक भोजन लेना चाहिए। तम्बाकु या धुम्रपान बंद कर देना चाहिए । ब्लडप्रेशर : ब्रेईन थ्रोम्बोसिस, ब्रेईन हेमरेज और हार्ट एटेक का सबसे बड़ा कारण यही है । ब्लडप्रेशर नियमित जांच करवाना चाहिए और अगर अधिक मालुम पड़े तो उचित दवाई लेकर नियंत्रित रखना चाहिए । प्रत्येक नोर्मल व्यक्ति को भी नियमित जांच करवाते रहना जरूरी है । उसमें अगर सिर दर्द, चक्कर, अंधेरा लगना, बेचेनी जैसा लगे तो जांच खास करवानी चाहिए। एक आधारभूत माहिती (नेशनल स्ट्रोक एसोसिएशन) के अनुसार प्रत्येक विजिट दौरान डॉक्टर को अपने मरीज़ का ब्लडप्रेशर देखते रहना चाहिए, भले ही मरीज़ कोई भी अन्य बीमारी के उपचार के लिए क्यों न आया हो ? ऐसा करना चिकित्सक का पवित्र फर्ज है। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 - पक्षाघात-लकवा ( पेरेलिसिस ) - STROKE 57 ब्लडप्रेशर के उचित उपचार और नियमन से हृदयरोग, पक्षाघात और किडनी की बीमारी रोकी जा सकती है । सिस्टोलिक (ऊपर का) ब्लडप्रेशर लगभग १२० और डायस्टोलिक (नीचे का) ब्लडप्रेशर ८०८५ रखना ही श्रेष्ठ उपाय है। केवल ब्लडप्रेशर के सचोट और आजीवन नियमन से ४० से ५० प्रतिशत पक्षाघात और हृदयरोग निश्चित ही रोका जा सकता है, ऐसा समय-समय पर साबित हुआ है। इसलिए ब्लडप्रेशर के नियमन के बारे में जितना कहा और समझा जाए उतना कम है। आम जनता में ब्लडप्रेशर के विषय में अनेक भ्रम हैं, जैसे कि (१) कुछ मरीज खुद को ब्लडप्रेशर हो सकता है, ये मानने को तैयार ही नहीं होते । उनका कहना है कि "मुझे सिर दर्द नहीं है, और चक्कर भी नहीं आते" आदि । किन्तु सभी ब्लडप्रेशर के मरीजों में यह लक्षण नहीं दिखते हैं । ब्लडप्रेशर के कुछ मरीज़ों को कोइ भी लक्षण नहि होते । (२) कुछ समय तक दवा लेने पर मरीज़ ऐसा मानने लगता है कि अब उसका ब्लडप्रेशर कंट्रोल हो गया है । दवाई चालू रखने के साथ मापने पर प्रेशर नोर्मल रहता है, इसलिये वह दवाई बन्द कर देता है । वह ऐसा मानता है कि उसका प्रेशर हमेशा के लिए ठीक हो गया है, किन्तु यह एक अति भयजनक गलतफहमी है । दवाई बन्द करने के कुछ समय के बाद ब्लडप्रेशर फिरसे बढ़ने लगता है। अंत में मरीज़ पक्षाघात और हृदयरोग की तकलीफ के साथ डॉक्टर के पास पहुँचता है । प्रतिदिन हम ऐसा देखते है, जिससे अतिशय दुःख होता है । डायाबिटीस : ब्लडप्रेशर और डायाबिटीस एक दूसरे के भाई जैसे है । वह भी महाभयंकर रोग है । छुपछुपकर प्रवेश करनेवाला यह रोग बहुत तकलीफ देता है । यह रोग हो तो उसका स्वीकार कर के उचित उपचार द्वारा उसका संपूर्ण नियमन अति आवश्यक है । समय-समय पर ब्लडसुगर की जांच करवाते रहना चाहिये, जिससे ब्लडसुगर की मात्रा की जानकारी रहे । डायाबिटीस और बी.पी. के मरीज़ को दवाई के साथ जीवनशैली तथा आहार में भी बहुत परिवर्तन लाकर सावधानी रखनी चाहिए । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ आहार : पक्षाघात से बचने के लिये आहार में चरबी की मात्रा कम (२०%) कर देना अति आवश्यक है । घी, मक्खन, तली हुई चीजें, आईसक्रीम, मीठाई कम कर देना चाहिये । भारतभर में और उसमें भी गुजरातीयों में आईसक्रीम खाने की मात्रा बहुत अधिक होती है । उसे त्यागकर आहार में सलाड, फल, सब्जियों की मात्रा बढ़ा देना हितकर है । नियमित व्यायाम : प्रतिदिन ३० मिनट चलने से निश्चित लाभ होता है । वजन घटाना हो तो ६०-८० मिनट से ज्यादा चलना चाहिए । योगासन और शरीर के अनुरूप अन्य व्यायाम भी किया जा सकता है । हप्ते में पांच दिन तो व्यायाम तबीबी सलाह लेकर करना ही चाहिये । चिंतायुक्त, संघर्षपूर्ण जीवनशैली में कमी कर के आनंदित जीवन जीना चाहिए । इर्ष्या, द्वेष तथा नकारात्मक सोच दूर करके 'सर्वमित्र' बनो । यह अच्छा परिणाम देगा और पक्षाघात तथा हृदयरोग दूर रहेगा। महिलाओं को गर्भनिरोधक गोलियों का उपयोग कम करके, गर्भनिरोध के लिये दूसरी पद्धतियाँ अपनानी चाहिए । जिनको आगे हृदयरोग या लकवा एक बार हो चुका हो, ऐसे मरिज़ों को रक्त पतला रखनेवाली दवाई, जैसे कि एस्पिरिन, क्लोपीडोजेल, डाइपाइरीडेमोल, टीक्लोपीडिन आदि चिकित्सक की सूचना और ओब्झर्वेशन तहत लेनी चाहिये । उससे पक्षाघात या हृदयरोग होने की संभावना करीबन १३ से ४५ % जितनी कम हो जाती है । इसे सेकन्डरी प्रिवेन्शन कहते है । किन्तु आगे हृदयरोग या पक्षाघात न हुआ हो फिर भी ऊपर बतायें गये अन्य खतरनाक लक्षण हो तो उन्हें एस्पिरिन आदि दवाई देनी या नहीं देनी चाहिए उसके लिए एकमत नहीं हैं, किन्तु जिनको ज्यादा खतरा हो उन्हें यह दिया जा सकता है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 59 5- पक्षाघात - लकवा (पेरेलिसिस ) - STROKE रक्त में चरबी का प्रमाण (खास प्रकार से कोलेस्टरोल या एल.डी.एल. प्रकार की चरबी) अधिक हो और / या एच.डी.एल. प्रकार का कोलेस्टरोल कम हो, ऐसे मरीज़ों को सीमवास्टेटीन, अटोर्वास्टेटीन जैसी स्टेटीन प्रकार की दवाई नियत मात्रा में लंबे समय तक देने से हार्टएटेक तथा पक्षाघात का निवारण (प्रिवेन्शन) किया जा सकता है, ऐसा वैज्ञानिक सत्य अभी बहुत स्वीकृति पा रहा है । ऐसी दवाओं के उपयोग से हार्ट और केरोटिड नलिका से संबंधित ज्यादातर सर्जरी या एन्जियोप्लास्टी से बचा जा सकता है, उसमें दो मत नहीं है । निदान : पक्षाघात, मस्तिष्क का रोग होने से अनुभवी फिजिशियन अथवा मस्तिष्क रोग निष्णात (न्यूरोफिजिशयन) के पास बिना विलंब योग्य उपचार लेना चाहिए । यह निष्णात, मस्तिष्क के किस भाग में कितने अंश में क्षति पहुंची है, यह जानने के लिए सभी आवश्यक शारीरिक जाँच तथा कुछ संलग्न जाँच करवाते है । अधिकतर मस्तिष्क का सी.टी. स्केन या एम. आर. आई. टेस्ट करवा कर उपचार का योग्य निर्णय लिया जाता है । पक्षाघात होने के प्रारंभिक समय में सी. टी. स्केन करवाने का हेतु मरीज़ को थ्रोम्बो एम्बोलिजम है या हेमरेज है, वह जानने का है। सी. टी. स्केन में हेमरेज तुरंत ही दिखाई देता है । थ्रोम्बोसिस के केस में सी. टी. स्केन शुरुआत के कुछ घंटे तक नोर्मल आता है । जिसको हेमरेज नहीं है यह निश्चित होने के बाद पक्षाघात के अन्य केसों में थ्रोम्बोसिस का उपचार साधारण सी. टी. स्केन के आधार पर सामान्य प्रकार से तत्काल ही शुरू कर दिया जाता है । जब कि १२-२४ घंटे के बाद कोन्ट्रास्ट डाई डालकर दोबारा सी.टी. स्केन करवाने से मस्तिष्क के कितने भाग में थ्रोम्बोसिस का असर है, यह स्पष्ट जाना जाता है जिससे मरीज़ के भविष्य के बारे में सोचा जा सकता है । कभी-कभी पक्षाघात जैसे लक्षण दूसरी किसी बीमारी के कारण हो तो यह भी सी.टी. स्केन से जान कर गंभीर भूल से बचा जा सकता है । श्रेष्ठ अस्पतालों में सीटी अन्जियोग्राफी और सीटी परफ्युजन स्केन द्वारा मिनटों में संपूर्ण निदान मिलता है । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ इसके उपरांत रक्त की कुछ विशेष जांच, बायोकेमेस्ट्री (शुगर, किडनी के टेस्ट आदि), ई.सी.जी. तथा अन्य आवश्यक जांच द्वारा मरीज़ की शारीरिक स्थिति समझी जा सकती है। योग्य समय पर रक्त की चरबी का टेस्ट किया जाता है । हृदय की जांच में २D - इको (द्विपरिमाणिय ईको ) आदि द्वारा रोग के कारण और जानकारी भी उपलब्ध कराती है । 60 हमने आगे देखा कि जिन खतरनाक कारणों से पक्षाघात होता है, वही कारणों से हृदयरोग भी होता है । हृदयरोग तो पक्षाघात से भी ज्यादा फैला हुआ है । इसलिये ही पक्षाघात के मरीज़ों में हृदय रोगों की जांच का अत्यंत महत्व है, जिससे हृदयरोग रोका जा सके । अन्य रूप से तो, पक्षाघात के मरीज की मृत्यु पक्षाघात के कारण नहीं बल्कि अधिक प्रमाण में हृदयरोग से होती है ऐसा वैज्ञानिको का निष्कर्ष है । छोटी उम्र के पक्षाघात के मरीज़ों के बारे में पहले सुनिश्चित कर लेना चाहिये के उन्हें ब्लडप्रेशर या डायाबिटीस न हो । उनकी विशिष्ट जांच में एन्टीकार्डियो - लीपीन टेस्ट, होमोसीस्टीन टेस्ट आदि शामिल किए जाते है । रक्त नलिकाओं में कितनी खराबी है यह जानने के लिये केरोटिडवर्टिबल डोप्लर तथा एम. आर. एन्जियोग्राफी (कभी-कभी सी. टी. एन्जियोग्राफी, डी. एस. ए. एन्जियोग्राफी) किया जाता है । किस मरीज़ को कौन सी जांच करवानी है, यह डॉक्टर ही तय कर सकते है । पक्षाघात उपचार की विस्तृत जानकारी : पक्षाघात की असर या चिह्नन दिखने के बाद तुरंत ही योग्य अस्पताल में उच्च फीजिशीयन अथवा न्यूरोलोजिस्ट के मार्गदर्शन अनुसार उपचार शुरू कर देना चाहिए । विलंब नुकसानकारक होता हैं । थ्रोम्बोसिस रक्त का जम जाना Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5- पक्षाघात - लकवा (पेरेलिसिस) STROKE 61 अस्पताल में भर्ती कराते समय हो सके तो जहां सुविधा हो उस जगह मरीज़ का सी. टी. स्केन करवाकर ले जाना अधिक हितकारक है । मरीज़ अधिक गंभीर अवस्था में हो तो तात्कालिक I.C.U. या सघन उपचार केन्द्र में ले जाना चाहिए | - गंभीर अवस्था के मरीज़ को पक्षाघात के साथ मस्तिष्क में सूजन लगे तो उसे बेहोश होने से बचाने के लिए सूजन के उपचार की दवाईयां I.C.U. में देनी चाहिए । उसकी धड़कन, बी.पी. और श्वास आदि बराबर रखने के लिए योग्य कदम उठाने चाहिए । मिर्गी आए तो उसे काबू में करना चाहिए और ब्लडप्रेशर, डायाबिटीस आदि हो तो उसका भी तात्कालिक उपचार साथ- साथ में शुरू कर देना चाहिए | पक्षाघात के उपचार के मुख्यतः छह कदम है : (१) थ्रोम्बोलिटिक थेरापी (२) एन्टीथ्रोम्बोटिक थेरापी (३) न्यूरोप्रोटेक्टिव थेरापी (४) कोम्प्लिकेशन हेतु थेरापी (५) न्यूरोसर्जरी (६) सपोर्टिव थेरापी फिजियोथेरापी (१) थ्रोम्बोलिटिक थेरापी : निर्विवाद सत्य है कि थ्रोम्बोएम्बोलिझम से हुए पक्षाघात के केस में यदि ये एकदम नया विशिष्ट उपचार, पक्षाघात होने के १ से ३ घंटे में (और ज्यादा से ज्यादा ६ घंटे तक के समय में) दिया जाए तो अधिकतर केसों में : (क) संपूर्णतः अवरुद्ध नलिका खुल जाती है । (ख) नलिका के अंदर की गांठ (थ्रोम्बस) पिघल जाती है; और (ग) मस्तिष्क के कोषों का नुकसान बंद हो जाता है और उससे होने वाले पक्षाघात और उसके दुष्परिणाम से मरीज़ बच जाता है । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ इसमें मुख्यतः संशोधन थ्रोम्बोलिटिक थेरापी पर हुआ है, जिसमें आर.टी.पी.ओ. नामक औषधि पक्षाघात होने के सिर्फ १ से ३ घंटे में हाथ या पैर की शिराओं में दिया जाता है, जिसे इन्ट्रावीनस थ्रोम्बोलिसिस कहते हैं । यह पद्धति प्रमाण में सरल है जिसमें अधिक उपकरण या विशिष्ट अनुभव की आवश्यकता नहीं हैं । उससे विरुद्ध इन्ट्राआर्टीरीयल पद्धति में केरोटीड या वर्टिब्रल धमनी में आर.टी.पी.ओ., यूरोकाइनेझ या प्रोयूरोकाइनेझ औषधि डायरेक्ट थ्रोम्बोसिस की जगह पर पक्षाघात होने के १ से ६ घंटे में (कभी-कभी २४ घंटे तक) दिया जाता है। यह पद्धति जटिल है, उसमें अनुभवी टीम और आधुनिक उपकरणों की आवश्यकता है । ऐसे अन्य कई औषधियाँ का संशोधन चल रहा है। उसके लिये विशिष्ट उपकरण (सी. टी. स्केन, ओन्जियोग्राफी सुविधा) से सुसज्ज अस्पताल होना चाहिए । इस प्रकार का इलाज महँगा है (वर्तमान में करीबन ६० से ९० हजार खर्च हो सकता है) और ४ से ७ प्रतिशत मरीजों में दुष्प्रभाव के रूप में ब्रेइन हेमरेज होता है । लेकिन मृत्युदर बढ़ता नहीं है और समग्रतया सोचने के बाद आज के वैज्ञानिक प्रमाणों को ध्यान में रखे तो यही सबसे श्रेष्ठ उपचार है । विदेशों में पक्षाघात के चिह्नों के बारे में जनजागृति अति उत्तम है, जिससे अधिकतर मरीज १ से २ घंटे में अस्पताल में दाखिल हो जाते है । वहाँ ईन्स्युरन्स प्रथा अति प्रचलित है जिससे यू.एस.ए. तथा यूरोप में इस प्रकार की उपचार पद्धति बहुत जल्द सर्वव्यापक हो रही है । उम्मीद रखते है कि हमारे देश में भी इस रोग प्रति जनजागृति बढ़े और लोग ईन्स्युरन्स प्रथा के बारे में अपनी सोच हकारात्मक करें तो अधिक लाभ होगा। इन्ट्राआर्टियल थोम्बोलिसिस : इस पद्धति में पैर या हाथ की नलिका में से मस्तिष्क की नलिका-केरोटीड या वर्टिब्रल आर्टरी मेंकेथेटर तहत गाईडवायर पहुंचाया जाता है । इसके पश्चात डिजीटल सबस्ट्रेकशन एन्जियोग्राफी (DSA) द्वारा कौनसी नलिका में थ्रोम्बोसिस है या स्टीनोसिस (अवरोध) है, वह संशोधित किया जाता है । यदि वहां थ्रोम्बोसिस है तो डायरेक्ट संबंधित नलिका में (आर्टरी में) औषधि का Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5- पक्षाघात - लकवा (पेरेलिसिस) STROKE प्रयोग हो तो कई बार परिणाम अच्छा आ सकता है । प्रोयूरोकाइनेझ, यूरोकाइनेझ या आर. टी. पी. ओ. दवाईयाँ सामान्यतः उपयोग की जाती है । आजकल बहुत अधिक नयी औषधियां भी इस उपचार के लिए संशोधित हुई है । - 63 यह पद्धति इन्ट्राविनस थ्रोम्बोलिसिस से अधिक असरकारक है, क्योंकि दवाई सीधे तौर पर थ्रोम्बोसिस की जगह दी जाती है । यहां दुष्प्रभाव (Complication) भी कम हैं, क्योंकि नियत स्थान पर ही दवाई देनी होती है, इस लिए खूब ही कम मात्रा में उसकी जरूरत पडती है जिससे हेमरेज होने की संभावना भी कम होती है । ओपरेटर के सामने ही DSA के तहत दिये जाने के कारण जमा हुआ रक्त (गांठ) तुरंत पिघल जाए तो इन्जेक्शन बंद भी किया जा सकता है । गांठ को पिघलाने में तकलीफ लगे तो गाईडवायर द्वारा गांठ के अंदर पहुंचकर गांठ तोड़ने की कोशिश अनुभवी ओपरेटर कर सकते हैं । सामान्यतः इस पद्धति से शरीर में अन्य स्थान पर भी दुष्परिणाम स्वरूप हेमरेज नहीं होता । इस पद्धति का मुख्य लाभ यह है की कई बार ६ से २४ घंटे के बाद भी गांठ पिघल सकती है । उसके विरुद्ध इन्द्रावीनस पद्धति में सामान्य नियम अनुसार पक्षाघात होने के सिर्फ तीन घंटे में ही दवाई देनी होती है, इसके बाद उपचार में सफल होने की संभावना कम होती है । इन्ट्रावीनस पद्धति में खास मशीनें या विशेष अनुभव या बड़े अस्पताल आदि की आवश्यकता न होने से वह छोटे केन्द्रों में भी हो सकती है, उसमें सिर्फ आर. टी. पी. ए. दवाई ही उपयोग में लाई जाती है । तार्किक और प्रयोगात्मक तरीके से यह सिद्ध हुआ है कि पक्षाघातवाले मरीज़ को तात्कालिक रूप से इन्ट्रावीनस थ्रोम्बोलिसिस शुरू करवा कर बाद में तुरंत ही जहां इन्ट्राआर्टीयल पद्धति उपलब्ध हो वैसे बडे केन्द्रों में ले जाएँ, ऐसा करने से दोनों पद्धतियों का लाभ मरीज़ को मिलेगा और परिणाम दुगुना अच्छा आ सकता है । इस विषय में इतना विस्तृत लेख जनजागृति के लिये है । जिससे पक्षाघात के मरीज़ों को अच्छी तरह तात्कालिक सारवार मिल सके और Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ वह श्रेष्ठ हो तो, मरीज़ की आयु लंबी हो और रोग में जल्द ही अच्छा परिणाम मिले तो मेरा यह विनम्र प्रयत्न सफल होगा । अपने देश की समस्याओं की वजह से यह पद्धति कितने लोगों तक पहुंचेगी और कितने लोगों के लिए चमत्कारी साबित होगी, वह तो आनेवाला वक्त ही बतायेगा, लेकिन अपने देश के डॉक्टरों को इस विषय में योग्य जानकारी है, ऐसा कह सकते है । अब तक संशोधित सभी औषधियां ६ घंटे बाद पक्षाघात को रोक नहीं सकती हैं, क्योंकि उतने समय में रक्त और ऑक्सीजन की कमी से मस्तिष्क के कई कोषों की मृत्यु हो जाती है । (२) एन्टीथ्रोम्बोटिक थेरापी : अपने देश में यह थेरापी बहुत सरलता से उपलब्ध है और उसका ध्येय रक्त नलिका में हुई गांठ अधिक आगे बढने से रोकना है, जिसमें हीपेरीन, लो मोलेक्यूलर हीपेरिन जैसी एन्टी को एग्यूलन्ट दवाई और एस्पिरिन, क्लोपीडोब्रेल, डाईपाईरीडेमोल, एब्सीक्षीमेब जैसी एन्टीप्लेटेलेट ग्रूप की दवाई तथा एन्कोर्ड जैसी फाईब्रीनोलिटिक ग्रूप की दवाई उपयोग में आती है । ऐसा करने से नुकसान आगे बढने से रुकता है परंतु उसके दुष्प्रभाव से शायद हेमरेज भी हो सकता है, इसलिये उसे योग्य मात्रा में, योग्य टेस्ट तहत उपचार करना चाहिए । टीक्लोपीडीन या क्लोपीडोज़ेल दवाई पक्षाघात के प्रारंभिक केस में कोई खास उपयोगी नहीं लगी, परंतु यह दवाई पक्षाघात दुबारा होने से रोकने में निश्चित ही कामियाब है । I करीबन १० से १५ प्रतिशत मरीजों को स्ट्रोक - इन- इवोल्यूशन नामक विचित्र परिस्थिति होती है । विचित्र इसलिये क्योंकि चिह्न शुरु होने के २ से ४ दिन तक दवाई करने के बावजूद पक्षाघात बढ़ता ही जाता है, और अंत में आधा शरीर निष्क्रिय हो जाता है । ऐसा होने की वज़ह यह है की पूरी नलिका क्रमशः अवरुद्ध हो जाती है और एन्टिथ्रोम्बोटिक या एन्टिप्लेटलेट दवाई बीमारी की मात्रा के सामने जरूरी सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकती है। दवाई के साथ भी पक्षाघात बढ़ता जाएँ, वह परिस्थिति मरीज़ और उनके आप्तजनों के मन में गलतफहमी पैदा Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65 5 - पक्षाघात-लकवा (पेरेलिसिस ) - STROKE कर सकती है। अगर पक्षाघात बढ़ता जाए तो हेमरेज नहीं है, वह जानने के लिए दुबारा सी. टी. स्केन से जानकारी प्राप्त की जा सकती है। विशेष में थ्रोम्बोसिस के केस में शुरुआत के थोड़े दिनों तक कुछ मात्रा में ब्लड-प्रेशर स्थिर रखना चाहिए, एकदम शीघ्रता से ब्लड प्रेशर कम नहीं करना चाहिए । B.P. शीघ्रता से कम कर देने पर मस्तिष्क को रक्त कम मिलने से पक्षाघात बढ़ सकता है। ऊपर का (सिस्टोलिक) बी. पी. करीबन २०० और नीचे का (डायास्टोलिक) करीबन ११० हो तब तक ब्लडप्रेशर की कोई दवाई (थ्रोम्बोसिस के केस में पक्षाघात के प्रारंभिक ७ दिन तक ) न्यूरोलोजिस्ट डॉक्टर देते नहीं हैं (अपवादरूप है अभी अभी हुआ हार्टएटेक या एन्जाइना हो या कोई विशिष्ट कारण लगता हो) । (३) न्यूरोप्रोटेक्टिव दवाई : ____ पक्षाघात के केस में सैद्धांतिक तरीके से कोषों को नष्ट होने से बचाने के लिए (रक्त और ऑक्सीजन सरक्युलेशन की कमी से) ऐसे केमिकल्स पक्षाघात होने के प्रारंभिक ६ से २४ घंटो में देने चाहिए, जो कोषों को लम्बे समय तक पोषण दे सके या ऑक्सिजन पहुंचा सके या चयापचय की समस्या दूर करे या कोषों के आवरण को सुरक्षा दे कर कोषों को टूटने से रोके । ऐसी करीबन ३० से ४० प्रकार की दवाई (नीमोडीपीन, सीटीकोलीन, पीरासीटाम, एमके-८०१, एरवेजेल) प्रयोगात्मक परीक्षण में से पास हो चूकी है, लेकिन पता नहि क्यों हकीकत में जब यह दवाई मरीज़ो को देते है तब अपेक्षित सुधार नहीं होता है। उसके कुछ वैज्ञानिक कारण भी है, इस लिए उसमें संशोधन कर नयी दवाई विकसित की जा रही हैं । वह अगर शीघ्र ही दी जाए तो कोषों को रक्त तथा ऑक्सिजन की कमी होने पर भी बचायें जा सकते है या लंबे समय तक जीवित रखें जा सकते है । आजकल सीटीकोलीन और इडारावोन (एरेवोन) दवाई ज्यादातर वपराश में है। (४) कोम्प्लिकेशन्स : पक्षाघात के हमले के दौरान कुछ मरीज़ो को कोम्प्लिकेशन होते हैं जो बीमारी की गंभीरता बढ़ा देते है, जैसे कि मस्तिष्क में सूजन Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ आना, बेहोश होना, मिर्गी आना, बुखार आना, चेहरा फीका पड़ जाना, न्यूमोनिया होना, शरीर में पानी बढ़ना या घटना, पेट फूल जाना, पेशाब बंद होना, और शरीर में सोडियम, पोटेशियम की मात्रा कम-ज्यादा होना... इत्यादि । फिजिशियन को प्रतिदिन ध्यानपूर्वक केस देखकर इन सभी समस्याओं पर ध्यान देना चाहिये, जिससे केस का परिणाम अच्छा आ सके, मरीज़ जीवित रहे और शीघ्रता से ठीक हो जाए । जब मरीज़ को श्वास में तकलीफ हो या मस्तिष्क का सूजन अधिक बढ़ जाने से वह कोमा में चला जाए तब उसे वेन्टीलेटर पर रख कर उसका जीवन बचाने की कोशिश की जा सकती है। (५) न्यूरोसर्जरी : ____ पक्षाघात के कुछ केसों में (लगभग २ से ५ प्रतिशत) न्यूरोसर्जन की आवश्यकता रहती है, जो ओपरेशन द्वारा मरीजों की जिन्दगी बचा सके अथवा मस्तिष्क के कोषों की हानि कम कर सके । इसमें क्रेनीएक्टमी, ड्यूराप्लास्टी, इमरजन्सी के रोटिड बायपास या एम्बोले क्टमी आदि ऑपरेशन होते है । हेमरेज की वजह से होनेवाले पक्षाघात में कभी कभी खोपडी खोलकर रक्त की गांठ निकाल ली जाती है (अगर दवाई से दर्दी की स्थिति में फर्क न हो और हेमरेज निकाला जा सके ऐसा हो तो) । (६) सपोर्टिव (आधाररूप) थेरापी : उपचार के साथ मरीज़ को पूर्ण पोषण और प्रवाही मिले, उसके शरीर के द्रव्य बने रहे और योग्य विटामिन्स प्राप्त हो, इसका ध्यान रखना चाहिए। योग्य समय पर एन्टीबायोटिक दी जा सकती है । यह सब सपोर्टिव ट्रीटमेन्ट कही जाती है । पक्षाघात होने के १-२ दिन में डॉक्टर, फिजियोथेरेपिस्ट को बुलाते हैं। वह हाथ-पैर तथा फेफडों का व्यायाम शुरु करवाते हैं । प्रतिदिन ४ से ६ बार २० से ४० मिनट तक करने की यह कसरत मरीज़ के रिस्तेदार को स्वयं ही सीख कर मरीज को करवानी चाहिए। इससे अनेक लाभ होते हैं । अधिकांश अंगों का हलन-चलन शीघ्रता से सुधरता है और छाती में कफ़ जमा नहीं होता और अंग स्टिफ (कड़क) नहीं होते है। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5- पक्षाघात - लकवा (पेरेलिसिस) STROKE 1 एक बार पक्षाघात का प्रारंभिक उपचार मिलने के बाद में पक्षाघात दुबारा न हो इसके लिए एन्टीप्लेटलेट ग्रूप की दवाई जैसे कि एस्पिरिन, क्लोपीडोजेल, डायपारीडेमोल और टिक्लोपीडीन इत्यादि बहुत लंबे समय तक दी जाती है । किस मरीज़ को इसमें से कौन सी दवाई कितनी (एक या दो प्रकार की), कितनी बार देनी चाहिए, वह मरीज़ की प्रकृति और रोग पुनः होने की संभावना को ध्यान में रखकर डॉक्टर तय करते है । कुछ मरीज़ को ओरल एन्टीको एग्यूलन्ट दवाई भी (जो थोड़ी खतरनाक भी है) देनी पडती है ( उदाहरण... वोरफेरीन, एसीट्रोम इत्यादि) । उचित केसों में गले की रक्त को ले जानेवाली नलिकाएँ (केरोटिड और वर्टिबल आर्टरी को) अल्ट्रासाउन्ड तकनीक डॉप्लर से जांच की जाती है और अगर केरोटिड नलिका ६०-७० % जितनी अवरुद्ध लगे तो डी. एस. ए. या एम. आर. ए. जैसे एन्जियोग्राफी द्वारा उसकी निश्चितता तय की जाती है । एन्जियोग्राफी में रक्त ले जाने वाली यह नलिकाएँ ७० % से अधिक मात्रा अवरुद्ध लगे तो अनुभवी न्यूरोसर्जन या वास्क्यूलर सर्जन के पास केरोटिड नलिका पर सर्जरी करके अवरोध दूर किया जाता है । केरोटिड एन्डआर्टरेक्टमी नाम से प्रख्यात यह सर्जरी अपने देश में अभी विदेश जितनी प्रचलित नहीं है, लेकिन कुछ वर्षों से उसका व्याप बढ़ता जा रहा है और उनके अच्छे परिणाम देखें गए है । यह पद्धति का खतरा १ से २ प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए । बायपास सर्जरी के विरुद्ध जिस प्रकार हृदय में एन्जियोप्लास्टी होती है, उसी प्रकार कई केसों में अब के रोटिड एन्जियोप्लास्टीने एन्ड आर्टरेक्टमी सर्जरी की आवश्यकता कम कर दी है । स्टेन्ट डालकर एन्जियोप्लास्टी करने से लम्बे अरसे तक पक्षाघात (स्ट्रोक) से बच सकते हैं । केरोटिड स्टेन्टिंग 67 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ इस प्रकार दवाई, ओपरेशन, व्यायाम और पक्षाघात होने के कारण जानकर उसका उपचार (उदाहरण - ब्लडप्रेशर, डायाबिटीस) जैसे विभिन्न संयोजनों से पक्षाघात का त्वरित और नियमित उपचार हो सकता है । विशेषतः ऐसे मरीजों का मानसिक, सामाजिक, आर्थिक और व्यावसायिक ढंग से पुनःस्थापन हो तो ही उपचार संतोषकारक हुआ है ऐसा माना जा सकता है। जो मरीजों को पक्षाघात के बाद हाथ-पैर कडक हो जाते हैं (स्पास्टिसीटी) और अंग नियत स्थिति में जकड कर रह जायें (Fixed Position) ऐसे मरीजों को नियमित व्यायाम, अंग को हलका करनेवाली दवाई (लीयोरीसाल, टीजानीडीन, बेन्जोडायाझेपीन) योग्य मात्रा में दे सकते हैं । हाथ-पैर के विशिष्ट पट्टे (Splint) का उपयोग कर सकते हैं । विशेष में बोटुलीनम टोक्सीन (बोटोक्स/डीस्पोर्ट) नामक आधुनिक इंजेक्शन ध्यानपूर्वक नियत मात्रा में (यूनिट्स), संबंधित स्नायु में अनुभवी न्यूरोलोजिस्ट के द्वारा लेने से निश्चित लाभ होता है। उपरांत, व्यायाम द्वारा अंगों को शिथिल बनाकर और भी अच्छा लाभ लेकर अंगों को लगभग संपूर्ण कार्यरत बना सकते हैं । यह इंजेकशन, संबंधित मरीज़ को लाभ पहुँचा सकेगा या नहीं, वह जानने के लिए ऐशवर्थ स्कोर (Ashworth Score) तथा ऐसे ही अन्य फिजियोथेरापी स्कोर की सहायता ली जाती है। यह उपचार खर्चीला होने के बावजूद कई केसों में अत्यंत लाभदायी होता है । पक्षाघात के मरीज के उपचार उपरांत आरोग्य के संपूर्ण पहलूओं की योग्य समज और मार्गदर्शन देने के साथ-साथ चेतावनी चिह्न (टी.आई.ए.) प्राथमिक उपचार, त्वरित उपचार का महत्व आदि समजाना चिकित्सक का पवित्र कर्तव्य है। पक्षाघात के मरीजों के पारिवारिक डॉक्टर की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है, यह सरलता से समझा जा सकता है। मरीज़ को भी स्वयं अपनी जीवनशैली में बदलाव लाना चाहिए । आरामदायक जीवन छोड़कर व्यायाम और योग करने चाहिए । डॉक्टर की सलाह-सूचन अनुसार योग्य दवा-उपचार करने चाहिए और सामान्य जीवन अपनाकर तनाव से दूर रहना चाहिए । मनोवलण में आवश्यक हकारात्मक बदलाव लाने चाहिए, यह अवश्य लाभ करेगा । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 - पक्षाघात-लकवा (पेरेलिसिस) - STROKE अंत में, नियमित जीवन, मानसिक स्वस्थता, उचित मात्रा में परिश्रम, नियमित व्यायाम तथा योगासन और आवश्यक दवाई, खास कर ब्लडप्रेशर और डायाबिटीस के नियमन से पक्षाघात (और हृदयरोग भी) से बचा जा सकता है और उसके लिए जनजागृति अत्यंत आवश्यक है । ऐसा होने से व्यक्ति को, परिवार को, समाज को और देश को होनेवाली अत्याधिक हानि (अनेक प्रकार की) रोकी जा सकती है। (इस संदर्भ में बहुत ही जल्द एक अतिविस्तृत Preventive Programme for Stroke and Heart Attack शुरु करने के लिए सोचा है।) (सुखियाँ - • मस्तिष्क के कोषों में पोषण और ऑक्सिजन की कमी होने के कारण कोष काम करना बंद कर देते है, और शरीर का दायां या बायां अंग नाकाम हो जाता है, उसे पक्षाघात कहते है। मृत्यु के विविध कारणों में हृदयरोग, केन्सर और सड़क दुर्घटना के बाद चौथा नंबर पक्षाघात है। ब्लड प्रेशर, डायाबिटीस, कोलेस्टरोल, व्यायाम का अभाव, मेदस्विता, आहार में चर्बीयुक्त घटकों का अतिरेक, व्यसन, वंशानुगत कारण वगैरह पक्षाघात के जिम्मेवार परिबल है । मस्तिष्क में रक्त नलिकाओं में रक्त प्रवाह की कमी होने से कुछ समय के लिए (क्षण, मिनट, २४ घंटे से कम) बोलने में तकलीफ, हाथ-पांव में झुनझुनी, सुनापन या एक बाजु लकवे की असर, देखी जाए और २४ घंटे के अंदर मरीज़ बिलकुल ठीक हो जाए तो उसको टी.आइ.ए. ( Transient Ischemic Attack) कहते है। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ मस्तिष्क की रक्त नली में रक्त जम जाय तो उसे Thrombosis कहते है । जमे हुए रक्त से कोइ नन्हा क्लोट उखड कर मस्तिष्क की रक्त नली में पहुंचे उसे Embolism कहते है । इनसब में हेमरेज (Hemorrhage) सबसे गंभीर परिस्थिति है । जो कभी कभी जानलेवा हो सकती है । हेमरेज प्रायः नली फटने से होता है। । ज्यादातर पक्षाघात (८०-८५%) थोम्बोसीस या एम्बोलिझम से होते है, बाकी के हेमरेज से होते है। • निदान के लिए सि. टी. स्केन, एम.आर.आई., एन्जियोग्राफी, डोपलर वगैरह टेस्ट किए जाते हैं । • थ्रोम्बोसिस में मगज के कोषों की मृत्यु प्रथम छह घंटे में रक्त और ऑक्सिजन न मिलने से हो जाती है। इसीलिए जितनी हो सके उतनी जल्दी एक से तीन घंटे में दर्दी को अस्पताल में लाकर ट्रीटमेन्ट करवानी चाहिए। अद्यतन सारवार पद्धति थोम्बोलिसिस है, जिसमे r-tPA नामक दवाई प्रथम तीन घण्टो में दी जाती है। इसके अलावा एन्टीथोम्बोटिक थेरपी, न्यूरोप्रोटेक्टिव थेरपी, कोम्प्लिकेशन हेतु थेरपी, न्यूरोसर्जरी, सपोर्टिव थेरपी, फिजियोथेरपी वगैरह पक्षाघात की सारवार के महत्वपूर्ण घटक हैं । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hits # Tentang (Braln Hemorrhage) मस्तिष्क की नलियों में हुई विकृति के कारण हुए पेरेलिसस के केस में करीबन २० % ब्रेईन हेमरेज (मस्तिष्क का रक्तस्राव) के केस होते है। अन्य थ्रोम्बोसीस या एम्बोलिझम से होते है । मस्तिष्क के अति गंभीर रोग के रूप में माने जाने वाले इस रोग में, सामान्य भाषा में कहा जाए तो रक्त की नलिका फटने से या ऐसे किसी कारण से मस्तिष्क में रक्त की जमावट होती है, और क्षणभर में इस में से अधिकतर मरीज बेहोश हो जाते हैं और इस बिमारी में मृत्युदर भी अधिक होता है । • ब्रेईन हेमरेज के मुख्यतः दो प्रकार है : (१) इन्ट्रासेरेबल हेमरेज : ब्लड प्रेशर बढ़ जाने से या एमायलॉइड नामक द्रव्य नलिकाओं में इकट्ठा होने से (एमायलोइड एन्जिओपथी से) मस्तिष्क में हेमरेज होता है। (२) सबएरेकनोइड हेमरेज : रक्त की नलिका पर अप्राकृतिक प्रकार से फुग्गा (सेक्युलर एन्युरिज़म) बन | बेईन हेमरेज कर, उसके फटने से या मस्तिष्क की रक्त की नलिकाओं का विचित्र झुरमुट (ए.वी. मालफोर्मेशन) फटने से होने वाला हेमरेज । इसके अलावा एन्टिकोएग्यूलन्ट नामक रक्त की जम जाने की प्रक्रिया मंद करने में उपयोगी औषधियों के दुष्प्रभाव से, सिर के घाव, रक्त पतले पड़ जाने की बीमारी, मस्तिष्क में केन्सर की गांठ फटने से रक्त इक्टठा होने से, मस्तिष्क में संक्रमण होने के कारण और ऐसे कई अन्य कारणों से भी ब्रेईन हेमरेज होता है । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (१) इन्ट्रासेरेब्रल हेमरेज : ब्लड प्रेशर के कारण मस्तिष्क के अंदर नलियों के फटने से हेमरेज होता है । अधिकांश यह हेमरेज मस्तिष्क के कई स्थानों पर (जैसे कि सेरेब्रम, पुटामेन, थेलेमस, सेरिबेलम) निश्चित रूप में होते हुए देखा गया है, और पेशन्ट को जाँचते ही न्यूरो-फिजिशियन को पता चल जाता है कि हेमरेज मस्तिष्क के किस भाग में हुआ है। एमायलोईड एन्जिओपथी अधिकांश वयस्क लोगों में पाये जानेवाली बड़े मस्तिष्क के भीतर के हेमरेज की बीमारी है,जो कभी-कभी पुनः भी हो सकती है। इन सभी हेमरेज का तात्कालिक निदान करने के बाद, I.C.U. में देखभाल शुरु की जानी चाहिए - मुख्यतः बी.पी. को नियंत्रण में लेकर मस्तिष्क के सूजन का योग्य उपचार - समयसर मिल जाए तो हेमरेज के केस में मृत्यु का प्रमाण निश्चित ही घटाया जा सकता हैं, जो वर्तमान समय में करीबन ५० से ६० % जितना ज्यादा है । कुछ मरीजो में - जिनमें छोटे मस्तिष्क में हुए हेमरेज (सेरेबेलर हेमरेज) अथवा बड़े मस्तिष्क के टेम्पोरल लोब अथवा पुटामेन में हुए हेमरेज के मामले में योग्य समय पर न्यूरोसर्जन द्वारा सर्जरी करवाने से भी जिन्दगी बचाई जा सकती है। परंतु इन सभी के लिए - रोग के प्रति जागृति, तत्काल इलाज, त्वरित उपचार और निष्णात तथा शीघ्र निर्णय ले सके ऐसे न्यूरो-फिजिशियन और न्यूरोसर्जन के साथ साथ तमाम सुविधाओं (वेन्टीलेटर मशीन, ऑपरेशन थियेटर) से परिपूर्ण अच्छा अस्पताल आवश्यक है। चिह्न : ___काम करते हुए अचानक जोर से सिर दर्द होना, उल्टी होना, चक्कर आना, आँखो के सामने अंधेरा छा जाना (ये सभी हाई ब्लड प्रेशर के लक्षण हो सकते है) । मिर्गी आना, लडखडाना, लकवा होना और क्षणभर में मरीज बेहोश होने लगे और श्वास तेजी से चलने लगे - तो ये सभी सामान्यतः ब्रईन हेमरेज के चिह्न होते है । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 - मस्तिष्क में रक्तस्राव (Brain Hemorrhage) • निदान और तात्कालिक उपचार : सी. टी. स्केन अथवा एम.आर.आई. द्वारा तत्काल जाँच करवाना अत्यंत आवश्यक है । साथ ही हेमरेज कहाँ है, कितना रक्त जमा हुआ है, मस्तिष्क में सूजन है या नहीं तथा उसका कारण क्या हो सकता है ? ऐसी तथा अन्य जानकारी भी कई बार इस टेस्ट द्वारा मिल जाती है । जिस मरीज का श्वास व्यवस्थित (नोर्मल) हो और ब्लडप्रेशर अत्यंत अधिक न हो तो. मरीज को अस्पताल ले जाने से पहले अगर शहर में सी. टी. स्केन की सुविधा उपलब्ध हो तो मस्तिष्क का सी. टी. स्कैन करवा के अस्पताल में ले जाना अधिक लाभदायक है, क्योंकि कई बार हेमरेज की आशंका हो तो भी सी. टी. स्कैन में थ्रोम्बोसिस अथवा गांठ, सबड्यूरल हेमरेज या मस्तिष्क का संक्रमण जैसा कोई निदान निकले, तो संपूर्ण ट्रीटमेन्ट अलग अलग होती है । परंतु मरीज की हालत गंभीर हो तो अस्पताल में तात्कालिक उपचार के बाद सी. टी. स्केन करवाना चाहिए । किसी भी प्रकार के गंभीर न्यूरोलोजिकल केसो में अधिकांश निष्णात डॉक्टर को घर बुलाने का आग्रह रखने में समय नष्ट करने के बजाय फेमिली डॉक्टर की सहायता से एम्ब्युलन्स द्वारा मरीज को तात्कालिक अस्पताल में भर्ती करना आवश्यक है, अथवा हो सके तो पहले सी. टी. स्कैन के लिए ले जाएँ, इस बात के प्रति पूर्ण जागृति बहुत आवश्यक है। निष्णात डॉक्टर तात्कालिक घर आ सके तो अच्छी बात है लेकिन सामान्यतः उनके आने में २-४ घंटों का अति मूल्यवान समय नष्ट हो जाता है और परिणामस्वरुप उपचार में होने वाले विलंब से मरीज को कभी भरपाई ना होनेवाला नुकसान मस्तिष्क में हो जाता है। अगर फेमिली डॉक्टर भी कदाचित् शीघ्र न आ सके तो श्रेष्ठ उपाय यह है कि मरीज को तात्कालिक नजदीक के अच्छे अस्पताल में इमरजन्सी वोर्ड में ले जाना चाहिए और तब तक योग्य डोक्टर को बुलाने की व्यवस्था कर लेनी चाहिए । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ यह बात अत्यंत विस्तार से लिखने के पीछे एक निश्चित कारण यह है कि अधिकांश इससे विरुद्ध ही होते देखा जाता है । इमरजन्सी मेडिसिन, क्रिटिकल केर, यह मेडिसिन के एकदम अलग ऐसे सुपरसोनिक या कोन्कर्ड विभाग है, जिसमें सिर्फ मानवता के संदर्भ में एक-एक सेकन्ड बचाकर, निष्णात डॉक्टरो द्वारा अति महत्वपूर्ण निर्णय लिये जाते है । जिन्दगी बचाने की उनकी ट्रेनिंग अत्यंत हितकारक होती है। यह काम इसी प्रकार ही होना चाहिए जिसमें कोई भी प्रकार की दलील या हस्तक्षेप स्वीकार्य नहीं है । मरीज के घर पर जाँच करते हुए बी.पी. अधिक मालूम पडे तो हेमरेज के केस में बी. पी. तात्कालिक नीचे लाने के लिए फेमिली डोक्टर आवश्यक ट्रीटमेन्ट करता है । थ्रोम्बोसिस वाले केसों में शुरुआत में ब्लडप्रेशर एकदम घटाना नहीं चाहिए । ऐसा करने से निश्चित ही नुकसान होता है। फिर भी थ्रोम्बोसिस के केस में ब्लड प्रेशर अधिक बढ़ जाए या साथ में हृदयरोग या रक्त पतला करने की दवाई चालू हो तो ब्लडप्रेशर को नोर्मल करना जरूरी है। मस्तिष्क का सूजन अधिक लगता हो तो घर पर ही तात्कालिक सूजन घटाने का इंजेक्शन (मेनिटोल, लेसिक्स) फेमिली डॉक्टर दे सकते है, उस दौरान मरीज को अस्पताल में ले जा सकते हैं । मिर्गी आती हो तो उसकी ट्रीटमेन्ट में भी देर नहीं करनी चाहिए । सी. टी. स्केन उपरांत कभी कभी निदान के लिए लम्बर पंक्चर भी किया जाता है। परंतु अगर मस्तिष्क में सूजन अधिक हो तो इस जाँच से अधिकतर मरीजों को ज्यादा तकलीफ हो सकती है। (सीरियस मरीज के केस में यह नहीं करना चाहिए ।) अस्पताल में ऐसे मरीज को स्वाभाविकतः आई.सी.यु. (I.C.U.) में ही रखना हितकारक है, जहाँ योग्य उपचार के साथ लगातार मोनिटरिंग किया जाता है । आवश्यक हो तो एन्जिओग्राफी आदि जाँच योग्य समय में करनी चाहिए और अगर जरूरत पड़े तो आगे बताए अनुसार सर्जरी Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 - मस्तिष्क में रक्तस्राव (Brain Hemorrhage) 75 द्वारा मस्तिष्क में से रक्त निकाल लिया जाता है । रक्त में क्षति होने से रक्त पतला पडकर हेमरेज हो गया हो तो योग्य क्षतियां पूर्ण की जाती है । दवा के दुष्प्रभाव (जिनमें वारफेरीन अथवा एसीट्रोम दवाई हृदय के वाल्व के केस में चलती है) से अगर हेमरेज हुआ हो तो प्लाजमा और रक्त के अन्य योग्य घटक देकर हेमरेज बंद करने का प्रयत्न किया जाता है । मेडिकल उपचार के कई दुष्प्रभाव से होने वाली यह मुख्य परिस्थिति है । ऐसे तथा ब्लडप्रेशर से होनेवाले हेमरेज के कुछ केस में नोवो सेवन दवाई (कोएग्युलेशन फेक्टर सेवन) असरकारक है। एन्टीकोग्युएलन्ट दवाईयाँ : यह दवाई रक्त जम जाने में रोक लाती है, वह कुछ केस में अपने दुष्प्रभाव स्वरुप हेमरेज कर सकती है। इसलिए यह दवा चलती हो तो मरीज को प्रभाव-दुष्प्रभाव के विषय में बारीकी से जानकारी देना अत्यंत आवश्यक हैं । प्रति ७ से १५ दिन में Prothrombin time/INR नामक ब्लडटेस्ट करवा के रक्त कितना पतला रहता है उसकी नियमित जाँच करनी पडती है । अगर व्यवस्थित ध्यान रखा जाए तो हजारों मरीज किसी प्रकार की तकलिफ बिना अच्छा जीवन व्यतीत कर सकते हैं । इन्स्युलिन जैसी महत्वपूर्ण दवाई से हजारो जिंदगी सुधरती हुई देखी गई है, वही इन्स्युलिन की मात्रा अधिक होने से शक्कर कम हो जाने से अनेक अकस्मात मृत्यु भी हो जाती है, ऐसा इन बीमारियों की दवाओं में भी है । इसलिए ब्लडप्रेशर का नियमन, मस्तिष्क के सूजन की दवाई, योग्य नसिंग और जो जटिलता - कोम्प्लिकेशन हो उसकी दवाई करने से तथा जरूरत पड़े तो सर्जरी करवाने से ऐसे इन्ट्रासेरेब्रल हेमरेज के मरीज को अधिकतर बचाया जा सकता हैं । जिंदगी बचने के बाद अगर पक्षाघात रह गया हो तो व्यायाम तथा योग्य दवाई के उपचार द्वारा उस भाग को पुनः कार्यरत करने के लिए लंबे समय तक प्रयत्न चालू रखने चाहिए । यह बात सत्य है कि हेमरेज के केस में मृत्यु थ्रोम्बोसिस से अधिक है, लेकिन एक बार जान बच जाए तो पक्षाघात में सुधार भी थ्रोम्बोसिस के मरीज से अधिक शीघ्र होता है । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (२) सबएरेकनोईड हेमरेज : यह हेमरेज उपरोक्त हेमरेज से एकदम अलग है । इसमें अधिकतर मरीजों को ब्लडप्रेशर नहीं होता । अधिकांश मरीज जवान होते है और उनमें से अधिकतर लोगों को रक्त की नलिकाओं में जन्मजात कमजोरी के कारण गुब्बारा (Balloon) बना होता है (सेक्युलर एन्युरिझम) अथवा रक्त की नलिकाओं में झुरमुट होता है (जिसे ए. वी. मालफोर्मेशन कहते हैं) । वो कुछ उम्र में अचानक परिश्रम से या स्वयं ही फट जाती है, उसमें से रक्त मस्तिष्क के दो आवरणों एरेक्नाईड और पाया के बीच सबएरेकनोईड स्पेस में फैल जाता है, उसे सबएरेकनोईड हेमरेज कहते है । महत्वपूर्ण बात यह है की एक अनुमान अनुसार प्रत्येक १०० व्यक्तियों में औसतन एक व्यक्ति को मस्तिष्क की नलिकाओं में ऐसे गुब्बारें हो सकते है और जन्म से ही कमजोरी होने के बावजूद वह कब बढ़ेगा, कब फटेगा, यह निश्चित नहीं होता है और जीवनभर वह न फटे ऐसा भी बहुत से केसो में होता है । अगर योग्य सारवार न मिले तो, एकबार फटने से १०० में से औसतन ४५ से ६० मरीज की एक महीने में ही मृत्यु हो जाती हैं । इतना भयानक होने के कारण इस बीमारी को समजना जितना जरूरी है उतना ही आवश्यक है इसका योग्य इलाज । विचित्र बात यह है की अधिकांश मरीज में किसी प्रकार के पूर्वचिह्न नही होते और अचानक हेमरेज हो जाता है । लेकिन सिर के एक ही तरफ (जैसे कि केवल दाएं तरफ कान के उपर आँख के पीछे) आधाशीशी जैसा दर्द, जो दूसरी तरफ न जाए और बीच-बीच में आता-जाता रहे तो निष्णात डॉक्टरों के एक समूह के मत अनुसार कम से कम एम. आर. एन्जिओग्राफी ऑफ ब्रेईन टेस्ट करवा लेना चाहिए । मस्तिष्क के इस टेस्ट द्वारा मस्तिष्क और मुख्यतः रक्त की नलिकाओं को किसी भी प्रकार की इन्वेजिव प्रक्रिया बिना औसतन Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 - मस्तिष्क में रक्तस्राव (Brain Hemorrhage) ९५ - ९८ % निश्चितता से ऐसे गुब्बारे जिसे एन्युरिझम कहते है, वह है या नहीं यह कहा जा सकता है । इसका खर्च करीबन रू. ४ से ६ हजार का है । ऐसे सभी केसो में इस टेस्ट करवाने के बारे में अभी सहमति नहीं है । परंतु मेरे अनुभव और मतानुसार मात्र एक ही तरफ रहनेवाले आधाशीशी के दर्द में यह टेस्ट करवाना लाभदायक है। इस रोग के चिह्न में जो बात सबसे अधिक ध्यानाकर्षित करती है वह यह है कि मरीज को जीवन में पहले कभी अनुभव न हुआ हो ऐसा भयंकर सिर दर्द होता है । कोई कोई को साथ में मिर्गी भी आती है और मस्तिष्क में सूजन आने के कारण मरीज क्षणिक बेहोश भी हो जाता है । सामान्यतः मरीज होश में आने के बाद दुबारा बेहोश हो जाता है । पक्षाघात हो या तेज श्वास, बी.पी. और हृदय आदि बिगडे तो तात्कालिक अथवा १४ से ३० दिन में मरीज की मृत्यु हो जाती है । इसलिए जब भी मरीज यह कहे की उसे इतना भयंकर सिरदर्द कभी जीवन में नहीं हुआ है और साथ ही उपरोक्त एक भी चिह्न हो तो बिना चूके न्यूरोलोजीकल जाँच करवा लेनी चाहिए, जिसके परिणामस्वरुप समय पर इलाज होने से जिंदगी बचाई जा सकती है। • मस्तिष्क नलिकाओं की जाँच : एन्जिओग्राफी नामक टेस्ट, इस तरह की जाँच का मुख्य माध्यम है। एम.आर. एन्जिओग्राफी इस प्रकार की जाँच है, जिस में एम.आर.आई. के मेग्नेट द्वारा नलियों की जाँच होती है। किसी प्रकार का केथेटर शरीर की नसों में नहीं डाला जाता, अतः इसे नोन-इन्वेझिव टेस्ट कहा जाता है । कोरोनरी एन्जिओग्राफी के लिए हमेशा केथेटर किसी नली में डाला जाता है, जिसमें कुछ खतरे भी होते है । इसमें ऐसा नहीं होता । इस प्रकार के टेस्ट में ९० से ९५% जितनी निश्चितता से निर्णय हो सकता है, इसलिए इसे स्कीनिंग टेस्ट के रूप में उपयोग कर सकते है। सबसे भरोसेमंद टेस्ट तो कन्वेन्शनल फोर(४)-वेसल एन्जिओग्राफी अथवा Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 RT मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ सी. टी. एन्जियोग्राफी एन्टिरिअर सेरिबल आर्टरी में गुब्बारा डिजिटल सबस्ट्रेक्शन एन्जियोग्राफी (DSA) को कह सकते है । सी.टी. एन्जिओग्राफी एक नई तकनिक है, जिसमें ४ मि.मि. से ज्यादा कदवाले गुब्बारे (Aneurysm ) DSA जितनी क्षमता से देखे जा सकते है । एन्जिओग्राफी में एन्युरिजम (गुब्बारा ) हो तो तुरंत ही दिख जाता है । ऐसे १५ प्रतिशत केसो में एक से अधिक एन्युरिजम होते है । इस लिए मस्तिष्क की चारों नलियों की एन्जिओग्राफी करनी चाहिए । ऑपरेशन की आवश्यकता हो तो सभी एन्युरिजम को ध्यान में लेकर ट्रीटमेन्ट करना आसान होता है । LT ACA एन्जिओग्राफी में इसके अलावा रक्त की नलियों का झुरमुट भी दिखता है जिसे आर्टेरिओ-वेनस मालफोर्मेशन (ए.वी. मालफोर्मेशन) कहते हैं । इस प्रकार के मरीजों को प्राथमिक रुप में सिरदर्द होने की हिस्टरी - जानकारी मिलती है। कई बार मिर्गी आती है या कई को पहले से ही एक अंग का पक्षाघात होता है। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 - मस्तिष्क में रक्तस्त्राव (Brain Hemorrhage) 79 SR ए.वी. मालफोर्मेशन (AVM) सबएरकेनोइड हेमरेज के कुछ केसो में डी.एस.ए. (एन्जिओग्राफी) भी नोर्मल आती है। इसमें से कितने ही केसो में एकदम छोटा एन्युरिजम हो अथवा रक्त की नलियों का एकदम छोटा झुरमुट (क्रिप्टिक ए.वी. मालफोर्मेशन) अथवा नली संकुचित हुई हो (वाझोस्पाझम) हो तो एन्जिओग्राफी नोर्मल आती है। इस कारण ऐसे केस में सामान्यतः ३ महीने के बाद दुबारा एन्जिओग्राफी करवानी चाहिए । इस के पश्चात् ही विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि हेमरेज के लिए ऐसा कोई कारण नहीं है। ऐसी स्थितिमें, उसे ईडियोपेथिक सबऐरकेनोईड हेमरेज कहते हैं। . दुष्प्रभाव (Complications) इस बीमारी में एकबार रक्त की नली फट जाए तो उसके पश्चात् एक महीने में दुबारा कभी भी फट सकती है (जिसे Rebleeding कहते हैं) और ऐसे मामले में मरीझ का बचना अत्यंत दुष्कर हो जाता है। इसी प्रकार हेमरेज होने के चार से बारह दिन के दौरान गुब्बारे के बाद नली सिकुड जाती है जिसे वेसोस्पाझम (vasospasm) कहते है। इसमें पक्षाघात होना और सभानता कम होने जैसे लक्षण मुख्य है। दवाई की मदद से प्रायः इसे रोका जा सकता है। उसके पश्चात् रक्त में अधिकतर सोडियम तत्त्व कम हो जाता है (इसे SIADH कहते हैं)। कभी मिर्गी भी आ सकती है । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ एक बार ध्यानपूर्वक (विश्वासपूर्वक) इलाज होने के बाद, सभी सुयोग्य केसो में मस्तिष्क की नली की सर्जरी करके एन्युरिजम को क्लीप किया जाता है। कभी-कभी उसके चारों तरफ स्नायु का आवरण बनाया जाता है, अथवा टेफलोन का कोटिंग किया जाता है। कभी-कभी गले में केरोटिड आर्टरी को बाँधकर भी ट्रीटमेन्ट किया जाता है । सर्जरी के जैसे ही दूसरी सारवार पद्धति में कोईल्स (Colls) का उपयोग किया जाता है। इसमें धातुकी स्प्रिंग जैसी चीज से गुब्बारे को भर दिया जाता है, जिससे गुब्बारे में खून जमा न हो । ये समग्र प्रक्रिया रक्तवाहिनीमें Clot (गठन) पेदा करती है। ये प्रक्रिया संपूर्णतः ओपरेशन रहित (Noninvasive) है । उसका खर्च कितनी कोईल (Coils) का उपयोग हुआ है, उस पर निर्भर है; तकरीबन ३ से ४ लाख हो सकता है । इन सभी के द्वारा Rebleeding पूर्णरूप से रोका जा सकता है और मृत्युदर कम किया जा सकता है। उपर बताई सर्जरी का खर्च करीबन रू. १ लाख से १.५ लाख आता है। सर्जिकल खतरा १ से ५ प्रतिशत ही होता है। सभी उच्च केन्द्रों के निष्णात न्यूरोसर्जन के पास ऐसी सर्जरी संभव है। ए. वी. मालफोर्मेशन के लिए ब्लोक रिसेक्शन अथवा लाईगेशन तकनिक उपयोग में लाई जाती है, अथवा प्रोटोनबीम द्वारा उसे जलाया जाता है। आज कल गामा नाईफ का उपयोग अधिक प्रचलित है । जिस में कोबाल्ट के स्रोत से गामा नाइफ द्वारा केन्द्रित किए गए गामा किरणों से ध्यानपूर्वक इसे जला सकते हैं । जिसमें सर्जरी संभव न हो, वहाँ प्लेटिनम कोईलिंग व एम्बोलाइजेशन किया जाता है । मस्तिष्क के बाहरी भाग में आए हुए छोटे या मध्यम कद के ए.वी. मालफोर्मेशन के लिए ऑपरेशन ही श्रेष्ठ है । मस्तिष्क के अति महत्वपूर्ण स्थान में या मस्तिष्क के अंदरुनी भाग में होते ३ मि.मि. और उससे कम कद के ए.वी.एम. के लिए स्टिरिओटेक्टिक रेडियो सर्जरी (एस.आर.एस. - गामा नाईफ) श्रेष्ठ है । जब की एम्बोलाईजेशन से १५ से २० प्रतिशत मरीजों को रोग मुक्त किया जा सकता है। कभी कभी एम्बोलाईजेशन का उपयोग बडी सर्जरी के लिए राह देखते हुए मरीज में किया जा Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 - मस्तिष्क में रक्तस्राव (Brain Hemorrhage) सकता है । यह तकनिक का एन्यूरिजम और ए. वी. मालफोर्मेशन दोनों में ही उपयोग हो सकता है । (३) कोर्टिकल वीनस थोम्बोसिसः ___ मस्तिष्क की शिरामें कभी-कभी रुधिरका प्रवाह बंद / शिथिल हो जाता है । कभी मुख्य शिराका भंडार (Venous sinus) अवरुद्ध हो जाता है तब मस्तिष्क का खून का प्रवाह अव्यवस्थित हो जाता है। हेमरेज और थ्रोम्बोसिस दोनों ही विक्रिया होती है । जोरों से सरदर्द होना, उलटी होना, फीट (मिर्गी) आना, बेहोशी होना, पक्षाघातका दौरा पडना, और गंभीर के सो में मृत्यु तक होना, ये रोग की विशिष्टता है। कमनसीबी दो बात की है । ज्यादातर रोगी में निदान बहुत देर से होता है । सामान्य डॉक्टरों की भी इसमें जानकारी कम पडती है। इसमें न्यूरोलोजी विशेषज्ञकी जरूर पडती है - खास करके विचित्र प्रकार के सरदर्द में (न्यूरोलोजी) विशेषज्ञ की सलाह ले के अगर जरुरी है तो एम.आर.आई., ब्रेईन (MRI) एम.आर.आई वीनोग्राम (MRV) करवाना चाहिए । ज्यादात्तर केस में निदान उसमें पकड़ा जाता है । दूसरी कमनसीबी ये है कि सगर्भा बहनों को डीलीवरी के पश्चात् प्रथम एक से चार हप्ते के अंदर ये रोग ज्यादा होता है । छोटे गाँवो में अज्ञानता के कारण और मेडिकल सुविधा न मिलने के कारण मृत्युदर भी ऊँचा रहता है । खून गाढा (Thick) होने से (Hypercoagulable states), शरीर में पानी घटने से (Dehydration etc) शरीरमें केन्सर की कही उत्पत्ति होने से और लुपस, हाइपर होमोसिस्टीनेमिआ, एन्टी फोस्फोलिपिड सीन्ड्रोम...... आदि खूनकी विकृतिओं से भी ये रोग होता है । सरदर्द को - खास करके बढ़ते जाते सरदर्द, उलटी, मिर्गी को नजरअंदाज़ न करना चाहिए । सगर्भावस्थाके पश्चात ऐसे चिह्न या मिर्गी आये तो तुरत दर्दीको अच्छी सुविधावाली अस्पताल ले जाना चाहिए । MRI (MRV) करवा लेना चाहिए । खून पतला करनेवाली दवाई, (Heparin, Warfarin etc) दिमाग के सूजन की दवाई, मिर्गी, सरदर्द Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ के चिह्न मिटानेवाली दवाई वगैरह तात्कालिक सारवार से रोगी स्वस्थ हो जाता है । कभी (Venous Thrombolysis) थ्रोम्बोलिसीस एवं सर्जरी द्वारा दर्दी बचाया जा सकता है । पर एन्टीको एग्युलनट (Warfarin, Acitrom) दवाई और फीटकी दवाई लम्बे समय तक लेनी पडती है । 82 सुर्खियाँ रक्त की नलिका फटने से, या ऐसे किसी कारण से मस्तिष्क में रक्त की जमावट होती है, और क्षण भरमें दर्दी बेहोश हो जाता है, उसे ब्रेईन हेमरेज कहते है । ज्यादातर केस में अचानक ब्लडप्रेशर बढ़ जाने से ही ब्रेन हेमरेज होता है । अतः BP की यथायोग्य और कायमी सावार करनी जरूरी है । • जोर से सरदर्द होना, उलटी होना, चक्कर आना, आंखो के सामने अंधेरा छाना, मिर्गी आना, लडखडाना या लकवा होना, क्षणभरमें बेहोश होना और श्वास तेजी से चलना यह सब ब्रेईन हेमरेज के चिह्न है । • ऊपर के कोई भी लक्षण गंभीर रुप से नजर आएं तो दर्दी के लिए निष्णात डॉक्टर घर पर बुलाने के बदले तुरंत फेमिली डॉक्टर की सहायता से अस्पताल ले जाना चाहिए । सीटी स्केन और एन्जियोग्राफी नामक टेस्ट इस रोग में जांच का मुख्य माध्यम है । और कई मरीज़ों में सर्जरी की भी आवश्यकता रहती है । • कोर्टीकल वीनस थ्रोम्बोसिस एक खतरनाक रोग है, जिसमें निदान प्रक्रिया जटिल है । समयसर सरदर्द की जाँच और सारवार करना बहुत आवश्यक है । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधाशीशी और अन्य सिरदर्द एवम् वर्टिगो (Migraine, other headaches & vertigo) सिरदर्द मस्तिष्क के रोगो में सर्वाधिक होनेवाला रोग है । यह कहा जाता है की हर एक व्यक्ति को कभी-कभी या बार-बार सिरदर्द होता ही है। अधिकतर प्रत्येक व्यक्ति को कभी-कभी सिरदर्द का अनुभव होता ही है, परंतु किसी को गंभीर सिरदर्द भी हो सकता है । एक प्रतिशत व्यक्ति को सिरदर्द मस्तिष्क में गांठ के कारण हो सकता है। कई व्यक्तिओं को कुछ दिनों या महीनों में एक तरफ का सिरदर्द होता है, जो की आधाशीशी हो सकता है । अगर पिछले कुछ दिनों से सिर दर्द शुरू हुआ है तो सबसे पहले रोजमर्रा की जीवनपद्धति; जैसे की कामकाज, आहार, आराम आदि में किसी प्रकार के बदलाव के कारण तो ऐसा नहीं हुआ, यह देखना जरूरी है । अगर कुछ महीनों से सिरदर्द होता है तो किस कारण इतने समय पश्चात् उपचार की जरूरत पडी यही भी सोचना चाहिए | कई महिलाओं को गर्भनिरोधक गोलियों के सेवन से भी सिरदर्द हो सकता है । ब्लडप्रेशर बढ़ने से भी सिरदर्द हो सकता है । इसलिए सिरदर्द के सभी मरीजों को संपूर्ण शारीरिक तथा मस्तिष्क की जाँच करवानी चाहिए । अगर सिरदर्द के साथ कभी बेहोशी छाये, एक चीज दो दिखाई दे, मिर्गी आए, लडखड़ाना, चक्कर या अंधकार छाए तो विशेषतः सावधान होकर तात्कालिक सी. टी. स्कैन आदि जाँच करवा लेनी चाहिए, यह ब्रेईन ट्यूमर या मस्तिष्क की कोई ओर गंभीर बीमारी हो सकती है । सिरदर्द के चिंताजनक कारणों में मेनिन्जाइटिस, ब्रेईन हेमरेज, ब्रेन ट्यूमर, ब्लडप्रेशर, आर्टराईटिस, मस्तिष्क की सूजन, ब्लड परिभ्रमण में क्षति आदि हो सकते हैं, हालांकि सिरदर्द के बहुत कम केसो में ऐसी गंभीर बीमारी देखने को मिलती है जिनमें उपरोक्त लक्षण सिरदर्द के साथ दिखाई देते हैं । सिरदर्द के साधारण और चिंताजनक नहीं ऐसे Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ कारणों में आधाशीशी प्रमुख बीमारी है, जिसे सामान्यतः माइग्रेन के नाम से जाना जाता है । इसके अलावा अन्य साधारण कारणों में टेन्शन, दवाई का दुष्प्रभाव, क्लस्टर हेडेक आदि है । इस प्रकार के दर्द में मस्तिष्क की जाँच संपूर्णतः नोर्मल होती है और मरीज को किसी प्रकार की विकलांगता या पेरेलिसिस का भय नहीं रहता । इसके उपरांत डिप्रेशन, शराब का व्यसन, गर्दन के मणके की बीमारी, शरदीसाईनुसाइटीस, आँखो की कमजोरी या झामर की बीमारी अथवा न्यूराल्जिया आदि से भी सिरदर्द हो सकता है । १. आधाशीशी (माईग्रेन) माईग्रेन - आघाशीशी बहुत ही प्रख्यात रोग है । इसके एटेक (हमला) के दौरान मरीज बहुत ही निःसहाय, परेशान और लाचार हो जाता है । बीस प्रतिशत वयस्को को यह बीमारी कम या अधिक प्रमाण में हो सकती है । इस बीमारी में महीने में औसतन १ से ६ बार (कभी-कभी हररोज़) सिरदर्द हो सकता है, जो की सिर के एक या दोनों तरफ (दाएँ और बायें) होता है । इसका दर्द तीव्र और लयबद्ध होता है, जो काम करने से बढ़ता है, कई बार डकार, उलटी आना, आँखों के सामने अंधेरा छाना और प्रकाश के सामने अधिक न देख सकना, आवाज़ सहन न कर सकना, जैसी परिस्थिति होती है। यह दर्द ४ से ७२ घंटे तक चलता है । ऐसे पांच जितने एटेक आये तो मरीज को माइग्रेन है, ऐसा निदान हो सकता है । सामान्यतः उल्टी होने के बाद और आराम से दर्द बंध हो जाता है । आधाशीशी (माईग्रेन) के प्रकार : (१) कोमन माईग्रेन (२) क्लासिक माईग्रेन (जिसमें आँख-द्रष्टि से संबंधित चिह्न । होने जरूरी है। ) (३) माईग्रेन के साथ क्षणिक पक्षाघात होना (४) क्लस्टर हेडेक (५) कोम्प्लिकेटेड माईग्रेन Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 - आधाशीशी और अन्य सिरदर्द एवम् वर्टिगो (Migraine other headaches & vertigo) आहार तथा जीवनशैली में बदलाव होने के कारण भी आधाशीशी हो सकता है । इसलिए आहार-विहार में नियमितता, मन की शांति, पूर्ण आराम की जरूरत होती है । कब्ज न हो यह देखना चाहिये, और धूप में घुमना नहीं चाहिए, अगर धूप में जाना हो तो गोगल्स पहनने चाहिए। चॉकलेट, चीझ, कॉफी, चाइनीस फुड, खट्टे फल, रेड वाइन आदि अनेक प्रकार के आहार से आधाशीशी हो सकता है । कई बार भूखे रहने से या शरीर में पानी की मात्रा कम हो जाने से, अधिक जागरण से या मानसिक तनाव से भी माईग्रेन का हमला हो सकता है । कदाचित जातीय समागम से या कभी वातावरण में फेरबदल से, आवाज़ - शोरगुल से और महिलाओं को गर्भनिरोधक गोलियाँ लेने से या मेनोपोज़ के दौरान माईग्रेन बढ़ सकता है । माईग्रेन के सभी मरीजों को व्यवस्थित शारीरिक जाँच करवानी आवश्यक है । कई मामले में सी. टी. स्केन या एम. आर. आई. द्वारा भी इलाज - उपचार का निर्णय लिया जाता है । योग्य दवाई तथा निर्देशित आहार-विहार के नियमों का अनुसरण करने पर यह बीमारी पर नियंत्रण लाया जा सकता है । आधाशीशी की मुख्य औषधियाँ : (१) हमले के दौरान ली जानेवाली औषधियाँ : 85 हमला हो उस समय तुरत ली जाने वाली दवाई में पेरासिटेमोल, उल्टी की गोली, पीड़ानाशक दवाई जैसे की इबुप्रोफेन या कई केस में अरगटोमाईन नामक दवा मुँह से, इन्जेकशन द्वारा या गुदा में सपोझिटरी द्वारा दिये जाने से संपूर्ण राहत होती है या हमले की मात्रा कम की जा सकती है। नई दवाई में सुमाट्रिप्टान (टेब्लेट या इन्जेक्शन), रीझाट्रिप्टान, नाराट्रिप्टान आदि लाभदायक साबित हुई हैं । क्लस्टर हेडेक में सुमाट्रिप्टान के साथ १००% ऑक्सिजन का भी प्रयोग किया जाता है । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (२) हमले को रोकने हेतु औषधियाँ : अन्य प्रकार की औषधियाँ जिसमें बीटाब्लोकर या फ्लुनारिझिन दवाई अथवा एमिट्रिप्लीन दवाई लम्बे समय तक ली जाए तो आधाशीशी के हमले कम हो जाएँगे । आज कल, टोपीरामेट (TOPAMAC), वालप्रोयेट इत्यादि दवाई ज्यादा प्रचलित है । कभी कभी बोटोक्ष इन्जेक्शन भी सिरमें जहां दर्द होता है, वहाँ लगाने से भी फायदा होता है । क्लस्टर हेडेक के केसों में वेरापामिल, लिथियम और प्रेड्निसोलोन का प्रयोग किया जाता है । इसके साथ साथ उपरोक्त जानकारी के अनुसार आहारविहार का ध्यान रखना आवश्यक है । २. स्पास्टिक हेडेक (Tension Headache) यह दर्द आधाशीशी जितना ही या उससे भी अधिक प्रचलित है। नाम अनुसार स्नायुओं के खिंचाव और टेन्शन से यह दर्द होता है । यह दर्द "सिर पर मान लो कोई पट्टा बँधा हो" ऐसा तथा लगातार और हलका होता है, जो लगभग रोज या महीने के अधिकतर दिनों में रहता है । इन सभी कारणों से यह माईग्रेन से बहुत अलग है । शारीरिक जाँच और एक्स-रे, सी.टी. स्केन इसमें भी नोर्मल ही आता है। इसका उपचार भी माईग्रेन से अलग होता है । सबसे पहले तो मरीज को किन बातों का तनाव है यह खोजकर उसे दूर करने का प्रयास करना चाहिए । सामान्यतः कौटुंबिक, सामाजिक, आर्थिक या शारीरिक बीमारी के कारण यह दर्द में मुख्य भूमिका निभाते है, जिसकी मरीज और उनके स्नेही संबंधी के साथ मुक्त मन से चर्चा कर और उसे दूर करने का उपाय करना यही मुख्य बात है। विशेषतः आगे 'तनाव' के चेप्टर में लिखे अनुसार मानसिक शांति के तमाम प्रयोग करने से अधिक लाभ होता है। व्यायाम, ध्यान, आसन और योग इसके उपचार में मुख्य भूमिका निभाते हैं। आवश्यक लगे तो हिप्नोसिस, ओटोसजेशन, बायोफिडबेक किया जा सकता है। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 - आधाशीशी और अन्य सिरदर्द एवम् वर्टिगो (Migraine, other headaches & vertigo) 87 न्यूरोलॉजिस्ट, फिजिशियन और जरूरत पड़े तो साइकियाट्रिस्ट डॉक्टरों की सहायता लेकर इस रोग में योग्य दवाई, उपचार तथा साइकोथेरापी करवाने से लाभ होता है । उदासीपन तथा अत्याधिक चिंता को दूर करने वाली दवाई के साथ व्यक्ति का मूड सुधरे, परिस्थिति का सामना करने की शक्ति बढ़े ऐसी दवाई का उपयोग किया जाता है । साथ ही स्नायुओं को शांत करने की तथा तनाव कम करने की दवाई का उपयोग किया जाता है । आहारविहार में योग्य बदलाव आवश्यक है । इसमें दर्द की दवाई कम लेने का आग्रह किया जाता है । दर्द की दवाई का अनियंत्रित उपयोग इस प्रकार के दर्द को बढ़ाता है और फिर दर्द की दवाई का असर नहीं होता, दुष्प्रभाव यकृत तथा मूत्रपिंड पर होता है । रक्त कोषिकाओं पर इन दवाओं का दुष्प्रभाव है। कोई कोई मरीज़ दवाई के आदि हो जाते है (Headache of drug abuse)। डॉक्टरों को ऐसे मरीज़ के उपचार में बहुत ध्यानपूर्वक और धैर्य से काम लेना चाहिए और दर्द की दवाई के अलावा उपरोक्त अन्य चिकित्सा पद्धतियों पर भी ध्यान देना चाहिए। ३. सिरदर्द के अन्य कारण आगे दी गई जानकारी के अनुसार मस्तिष्क के दर्द के अन्य कारणों में मस्तिष्क का संक्रमण और मेनिन्जाइटिस के मामले में तात्कालिक उपचार करने से मरीज़ का जीवन बच सकता है । ब्रेईन ट्यूमर का निदान सी. टी. स्कैन अथवा एम.आर.आई. द्वारा हो सकता है । उसके पश्चात योग्य उपचार, सर्जरी द्वारा मरीज अच्छा हो सकता है। इसी प्रकार हेमरेज की योग्य सघन सारवार से अधिकांश केसो में जीवन बचाया जा सकता है। दर्द से मुक्ति पाने के लिए अधिक दवाई के सेवन से या उसकी आदत पड़ जाने से सिरदर्द बढ़ जाता है । कई बार सिरदर्द के एक से अधिक कारण होते है । इसके उपरांत साईनस, आँख की तकलीफ आदि सिरदर्द सरलता से अच्छे हो सके, ऐसे प्राथमिक रोगों के निवारण पर ध्यान देना आवश्यक है । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ सिरदर्द के गंभीर केस में निम्न चिन्ह सामान्यतः दिखते है। इस प्रकरण का मुख्य संदेश यही है कि तात्कालिक जाँच और उपचार से ऐसे केसों में जीवन बचाया जा सकता है । सिरदर्द के साथ-साथ निम्न लिखित चिह्न हो तो मरीज की संपूर्ण जाँच जरूरी बनती है जैसे की... : .. मिर्गी आना, चक्कर आना, अंधेरा छा जाना, चलते हुए लडखड़ाना या पक्षाघात का असर होना अथवा याददास्त या आवाज चली जाना या बेहोश हो जाना । बुखार आना । नींद से उठने के बाद सिरदर्द होना, छींक या खांसी आते समय दर्द होना या बढ़ जाना । अचानक ही कुछ समय के लिये असहनीय दर्द होना । बच्चों में होता सिरदर्द । ५० वर्ष उपर के व्यक्ति को बढ़ता जाता सिरदर्द । दवाई लेने के बावजूद दर्द नियंत्रण में न आना । सिरदर्द के साथ साथ उपरोक्त सभी चिह्न हो तो सावधान हो जाना चाहिए । जिसका मुख्य कारण मस्तिष्क में सूजन, गांठ या संक्रमण हो सकता है । ५० से उपर वयवाली व्यक्ति को बढ़ता हुआ सिरदर्द हो और सिर की रक्त की नली सुझन से मोटी होती हो या दर्द करती हो और साथ साथ शरीर में थकावट, हल्का बुखार, कमजोरी हो तो टेम्पोरल आर्टराईटिस हो सकता है । इसमें ESR और CRP नामक ब्लडटेस्ट किये जाते है । बायोप्सी से इसका निदान होता है और स्टीरोईड दवाई से यह बीमारी अच्छी हो सकती है। ४. ट्राइजेमिनल न्यूराल्जिया : न्यूराल्जिया शब्द का सरल अर्थ है नसो में दर्द । जिस नस की (नर्व-ज्ञानतंतु की) संवेदना का जितना हिस्सा शरीर में होता है अर्थात् वह नस शरीर में जहाँ से संवेदना ग्रहण कर मस्तिष्क तक पहुँचाती Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 - आधाशीशी और अन्य सिरदर्द एवम् वर्टिगो (Migraine, other headaches & vertigo) 89 है, उतने हिस्से में नस दर्द पीडा उत्पन्न करें उसे न्यूराल्जिया कहते हैं । सामान्यतः कुछ नसों में यह अक्सर देखा जाता है जैसे कि मस्तिष्क की पाँच नम्बर की, नव नम्बर की नस... आदि । ऐसे न्यूराल्जिक दर्द छाती में, पेट में, त्वचा पर, हाथ और पैरो की चेताओं में भी हो सकता है । यह बात मुख्यतः जाननी चाहिए की त्वचा पर होने वाले हीस-झोस्टर-वाईरस की बीमारी नस पर सूजन उत्पन्न करती है और उससे अत्यंत पीड़ाजनक न्यूराल्जिया का उद्भव होता मस्तिष्क की पाँच नम्बर की नस को ट्राइजेमिनल चेता (नर्व) कहा जाता है और उसमें होने वाले इस प्रकार के दर्द को ट्राइजेमिनल न्यूराल्जिया कहा जाता है । यह दर्द बिजली के करंट जैसा अल्प समय तक परंतु अत्यंत तीव्र पीड़ादायक होता है और बार-बार होता है । दिन में एक-दो बार से लेकर १०० या २०० या उससे भी अधिक करंट जैसे दर्द से मरीज़ लाचार हो जाता है । उसे कुछ अच्छा नहीं लगता। ठंडे पानी का स्पर्श या भोजन के लिए मुंह खोले या ठंडा पानी-हवा का झोंका आए तो भी दर्द शुरु हो जाता है । ट्राइजेमिनल नस तीन भाग में विभाजित होती है । प्रथम भाग में तकलीफ हो तो भालपेशानी पर दर्द होता है, द्वितीय भाग में तकलीफ हो तो गाल पर और तृतिय भाग में तकलीफ हो तो जबड़े में दर्द होता है। सामान्यतः यह रोग पाँच नंबर की चेता पर कोई छोटी-सी रक्तवाहिनी के दबाव के कारण पैदा होता है । सामान्यतः यह रोग में न्यूरोलोजिकल जाँच में किसी प्रकार की गड़बड़ नहीं दिखती है लेकिन अगर साथ साथ जिस किसी भाग में संवेदना कम हो गई हो उसके साथ में अन्य नसों (उदा. ६ या ७ नम्बर की नसें) पर तकलीफ दिखें अथवा मरीज़ की उम्र ४० से कम हो तो एम.आर.आई. ब्रेईन (विथ कोन्ट्रास्ट और कभी एम.आर. एन्जिओग्राफी) करा लेनी चाहिए, क्योंकि इस प्रकार के किसी भी केस Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ में पाँच नम्बर की नस पर अथवा आसपास में गांठ हो अथवा मल्टिपल स्क्ले रोसिस (यह रोग अपने देश में बहुत कम देखने को मिलता है) नामक विचित्र रोग हो सकता है । ट्राइजेमिनल न्यूराल्जिया की ट्रीटमेन्ट पहले तो मेडिकल अर्थात् दवाई से करनी चाहिये । मुख्य दवाई है कार्बामेजेपीन (टेग्रेटोल, कार्बेटोल, झेप्टोल इत्यादि) । उसका असर ८० % मरीजों में अधिक अच्छा होता है, अन्य मरीजों में फीनाइटोइन, गाबापेन्टीन, क्लोनाझेपाम और बेक्लोफेन आदि दवाई का उपयोग किया जा सकता है। ___ दर्द को शांत करने के लिये दर्द निवारक दवाई का प्रयोग भी किया जा सकता है । आल्कोहल के लोकल इन्जेक्शन से उस नस में तीनचार महीने तक राहत मिलती है । ट्राइजेमिनल न्यूराल्जिया में RFTC अर्थात् रेडियो फ्रिक्वन्सी थर्मोकोएग्युलेशन से नस को शांत किया जाता है । यह पद्धति अक्सीर है और अत्याधिक दर्द का इलाज ओ.पी.डी. प्रोसीजर से किया जाता है, जिससे ९० से ९५ प्रतिशत सफल परिणाम आते है । जिस मरीजों में दवाई असर न करती हो ऐसे केस में सर्जरी की मदद से (राइज़ोटोमी, न्यूरेक्टोमी) नस काट दि जाती है। हालांकि सबसे श्रेष्ठ उपाय तो माईक्रोवास्क्यूलर डिकम्प्रेशन सर्जरी है, जिसमें उपर बताई गई रक्तवाहिनी को पाँच नंबर की चेता से अलग करके बीच में जेलफॉम रखा जाता है । यह सभी ट्रीटमेन्ट गुजरात, मुंबई तथा सभी बड़े सेन्टरों में न्यूरोसर्जन के पास उपलब्ध है । ५. वर्टिगो (चक्कर आना) एक सर्वेक्षण अनुसार ओ.पी.डी. में आनेवाले मरीजों में चक्करअसंतुलितता, छाती का दर्द और शारीरिक थकावट-कमजोरी के बाद का तीसरा सबसे प्रचलित लक्षण है। प्रौढ व्यक्तिओं में औसतन ५० प्रतिशत को यह तकलीफ होती है । जब व्यक्ति को अपने आसपास की चीजे घुमती हुई लगे अथवा व्यक्ति स्वयं को भी घुमता हुआ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 91 7- आधाशीशी और अन्य सिरदर्द एवम् वर्टिगो (Migraine other headaches & vertigo) महसूस करें खुद को संतुलित न कर सके, ऐसी स्थिति में उसे "वर्टिगो चक्कर आया- - है " ऐसा कहा जाता है । सामान्य रूप से क्षणिक अंधेरा छाना, कमजोरी महसूस होना, क्षणिक असंतुलन जैसा लगना, बेचैनी महसूस होना इन सभी को सही अर्थ में वर्टिगो नहीं कहा जाता, इसका खास ध्यान रखना चाहिए । वर्टिगो के मुख्य कारण है : (१) शारीरिक मुद्रा में बदलाव से आनेवाले चक्कर (Benign Positional Vertigo) (२) कान के अंदर अंत:कर्ण के संतुलन संबंधित नाजुक अवयव में तकलीफ (Vestibular disturbance) (३) छोटे मस्तिष्क की बीमारी (४) मीनीअर्स डिसिज़ (५) मस्तिष्क में रक्त का कम परिभ्रमण (६) गिर जाने का डर (७) अन्य कारणों कुछ लोगों को अचानक आने वाले चक्कर कुछ समय तक ही रहते है । कुछ लोगों को चक्कर लंबे समय तक रहते है और कुछ को मिनिटो के लिए बार-बार चक्कर आता है । इन सभी में अंत:कर्ण में होने वाली तकलीफ से आनेवाले चक्कर मुख्य है । वह कभी वेस्टिब्युलर न्यूरोनाइटिस से होते है । जिसमें वाइरस के कारण अंत:कर्ण में सूजन होना अथवा लेबिरिन्थाइटिस से होता है, इसमें चक्कर के साथ बहेरापन और कान में विचित्र प्रकार की आवाज़े सुनाई देती हैं । दोनों ही प्रकार में उल्टी भी हो सकती है । I Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ चक्कर के साथ बहेरापन हो तो हीस, लेबिरिन्थाइटिस, छोटे मस्तिष्क में रक्त का कम परिभ्रमण या गांठ होना जैसे कारणों की जाँच होनी चाहिए । गांठ सामान्यतः एकोस्टिक न्यूरोमा नामक होती है । जिसमें चक्कर, बहेरापन, असंतुलन, छोटे मस्तिष्क से संबंधित चिह्न इत्यादि होते है, साथ में सिरदर्द और उल्टी भी होती है । मिनीअर्स डिसिज़ में अंतःकर्ण में सूजन के साथ पानी भर जाता है, जिससे कान में चक्कर के साथ सीटी जैसी आवाज़ आए, कान भारी लगे, बहेरापन हो और उल्टी भी हो सकती है । यह सभी कुछ घंटो से लेकर कुछ दिनों तक चलता हैं और फिर मरीज़ ठीक हो जाता है। ऐसा बार-बार हमला हो तो फिर बहरापन और कान में सीटी की आवाज हमेशा आती रहती है । ऐसे मरीजों को नमक, कॉफी, चॉकलेट का सेवन बंद कर देना चाहिए । वयस्क व्यक्तिओं में चक्कर का मुख्य कारण Benign Paroxysmal Positional Vertigo है । जिसमें खड़े होने पर, बैठने पर या सोते समय करवट बदलने से कुछ क्षणों के लिए चक्कर आते है। इसमें सामान्यतः मस्तिष्क में कोई गंभीर तकलीफ नहीं होती । प्रौढ व्यक्तिओं में खड़े होने पर ब्लडप्रेशर कम हो जाने के कारण चक्कर या असंतुलन आता है, जिसे Orthostatic Hypotension कहते है। चक्कर के मरीजों की उपरोक्त कारणों में से सही कारण जानकर सारवार करनी चाहिए। चक्कर के लिए एन्टिहिस्टामिनिक, एन्टिएक्झायटी, एन्टिकोलिनर्जीक, फीनोथायाजिन दवाई से लेकर डाईयुरेटिक और नई दवाई जैसे कि ओन्डेनसेट्रोन का उपयोग किया जाता है । साथ ही योग्य केसो में आहार की सूचना दी जाए, उदा. नमक का कम सेवन । विशेष में चक्कर से संबंधित कुछ व्यायाम भी कुछ केसो में सीखाया जाता है। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 - आधाशीशी और अन्य सिरदर्द एवम् वर्टिगो (Migraine, other headaches & vertigo) 93 यह सब करने के उपरांत कभी-कभी विशिष्ट प्रकार की सर्जरी भी लम्बे समय तक चलनेवाले चक्कर में सहायक होती है । गांठवाले केस में तो गांठ निकालनी ही पडती है । मस्तिष्क में रक्त परिभ्रमण की कमी हो तो, उसका भी योग्य उपचार करना पड़ता है। इन सभी उपचार पद्धतियोंसे चक्कर के चक्कर से छूटा जा सकता है - राहत मिल सकती है। (सुखियाँ कई व्यक्तिओं को हर थोडे दिनो में या हप्तो में एक तरफ का सरदर्द होता है, जो कि आधाशीशी हो सकता है । यह काम करने से बढ़ता है ।। • कई बार डकार-उलटी आना, आंखो के सामने अंधेरा छाना, प्रकाश सहन नहि कर पाना जैसे लक्षण भी साथमें होते है। आहार और जीवनशैली में बदलाव के कारण भी आधाशीशी का रोग हो सकता है। नस शरीर के जितने हिस्से में संवेदना पहुँचाती है, उतने हिस्से में नस अमुक प्रकार का दर्द उत्पन्न करें इसे न्युराल्जिया कहते है। मस्तिष्क की पांच नंबर की नस जिसे ट्राइजेमिनल कहा जाता है, उसमें होनेवाले इस प्रकार के दर्द को ट्राइजेमिनल न्युराल्जिया कहा जाता है । • यह दर्द बिजली के करंट जैसा अल्प समय तक होता है, लेकिन अत्यंत पीडादायक होता है । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ • माइग्रेन - आधाशीशी और ट्राइजेमिनल न्युराल्जिया की अत्यंत असर कारक दवाईयाँ उपलब्ध है । जब व्यक्ति को अपने आसपास की चीजें घुमती हुई लगे, अथवा व्यक्ति स्वयं को भी घुमता महेसुस करे, खुद को संतुलित न कर पाएं, उसे वर्टिगो कहते है । • शारीरिक मुद्रा में बदलाव, कान के अंदर के संतुलन में गडबड, छोटे मस्तिष्क की बीमारी, मिनिअर्स डिसीज, मस्तिष्क में रक्त का कम परिभ्रमण... यह सब कारणों से वर्टिगो हो सकता है । आहार में आवश्यक बदलाव और योग्य दवाई लेने से यह बीमारी नियंत्रण में आ सकती है । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूवमेन्ट डिओर्डर्स और डिस्टोनिया .: (Movement disorders & dystonia) मनुष्य के शरीर का हलनचलन और गतिविधियाँ जो कि अधिकांश इच्छावर्ती होती है, वे मुख्यतः तीन प्रकार के ज्ञानतंतुओं के समूह पर आधारित है । जिसे तंत्र या System कह सकते है । (१) पीरामिडल सिस्टम (२) पेरापीरामिडल सिस्टम (३) एक्स्ट्रापीरामिडल सिस्टम इसमें पहला नम्बर मुख्य है । इसकी कार्यवाही में अवरोघ हो तो हम उसे पक्षाघात कहते है अर्थात् जहाँ नसों की कार्यवाही बिगड़ जाती है, उतना अंग काम करना बंद कर देता है और उसमें धीरे धीरे कड़कपन (स्पास्टिसिटी) पैदा होता है। (१) यह पिरामिडल सिस्टम मस्तिष्क के फन्टल लोब के पिछले हिस्से में और कुछ अंश में पेराईटल लोब के अगले हिस्से में आने वाले कोषों - ऊपर के याने अपर न्यूरोन कोष के समूह से पैदा हो कर, कोरोना रेडिएटा बनाने के पश्चात् बेझल गेन्गलीआ के बीच आनेवाली इन्टर्नल केप्स्यूल के पिछले भाग से फैलकर सेरिब्रल पीडकल में से नीचे उतरकर पौरामिडल ट्रेक्ट्स बनाती है । बाद में दोनों तरफ के मस्तिष्क की ट्रेक्ट क्रोस करके अपनी सामने की तरफ मेड्युला में उतर कर कोटिर्को स्पाइनल ट्रेक्ट नाम से करोड़रज्जु में नीचे उतरती है और करोड़रज्जु में आए हुए स्पानइल कोषों को मिलती है । यह स्पाइनल कोषों को लोअर-नीचे के मोटरन्यूरोन कहते है । यह कोष मस्तिष्क से नीचे आती आज्ञा-सूचनाओं को स्पाइनल चेताओं द्वारा स्नायुओं को पहुंचाती है और परिणाम स्वरूप हलनचलन का उद्भव होता है । एक सेकन्ड के क्षणिक अंश जीतने समय में ये समग्र प्रक्रिया संपन्न होती है। मस्तिष्क का फन्टल लोब यह सिस्टम का मुख्य भाग है । साथ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ साथ मस्तिष्क का दूसरा भाग जिसे सप्लिमेन्टरी मोटर कोर्टेक्स कहते है, वह हलनचलन के पूर्व कुछ संदेश पेदा करते है । उसका भी महत्वपूर्ण योगदान है । पिरामिडल सिस्टम में क्षति पैदा हो तो पक्षाघात होता है। (२) पेरापीरामिडल सिस्टम में मुख्यतः रुब्रोस्पाइनल, टेक्टोस्पाइनल, रेटीक्युलोस्पाइनल, वेस्टीब्यूलोस्पाइनल आदि चेतासमूह ट्रेक्ट्स आए हुए हैं। इसका काम पिरामिडल सिस्टम पर अपना प्रभाव डालना है, जिससे इच्छावर्ती कार्य कुछ निश्चित रूप से निश्चित क्रमबद्ध तरीके से ही होता है । इसमें रेड न्यूक्लीयस, टेक्टम और छोटे मस्तिष्क जैसे मस्तिष्क के अनेक अवयव जुड़े हुए है । इसमें क्षति हो तो असंतुलन और कँपन आदि चिह्न आते है । (३) इस प्रकरण में जिन रोगों के विषय में बात करनी है, उन्हें मूवमेन्ट डिसओर्डर्स (हलन-चलन की खामियां) कहते है। उन घटकों में मुख्यतः बेझल गेन्गलीआ नामक मस्तिष्क के मध्य भाग में आने वाले कोष समूह मुख्य भूमिका निभाते है और इस सिस्टम को एक्स्ट्रा पीरामिडल सिस्टम कहते है । Basal Ganglia कोड़ेट न्युक्लिअस इंटर्नल केप्स्युल ग्लोबस पेलीडस थेलेमस पुटामेन Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 - मूवमेन्ट डिस्ओ र्डर्स और डिस्टोनिया (Movement disorders & dystonia) 97 आकृति में कीए गए निर्देश अनुसार यह फंटल लोब, ग्लोबस पेलीडस, पुटामेन, कोडेट न्यूक्लीयस, क्लोस्ट्रम तथा एमीग्डेला नामक कोषों के समूह का बना हुआ है । यह पीरामिडल सिस्टम को अपने तरीके से कंट्रोल करता है। फिर भी इस सिस्टम की कार्यवाही में रुकावट हो तो पक्षाघात अर्थात् पेरेलिसिस नहीं होता, परंतु नीचे बताई दो प्रकार की तकलीफ हो सकती है जिसे हम लक्षण-चिह्नसमूह या सिंड्रोम नाम से पहचानेंगे : (क) एकाइनेटिक रीजीड सिन्ड्रोम जैसे कि कंपन (पार्किन्सोनिझम - जिसके विषय में हम अगले प्रकरण में देखेंगे), जिसमें हाथ-पैर कडक हो जाते है, मरीज़ की सभी क्रिया मंद-कमधीमी हो जाती है, और हाथ-पैर में कंपन होती है। डोपामीन नामक केमिकल की मात्रा मस्तिष्क में कम हो जाने से ऐसा होता है। (ब) हाईपरकाइनेटिक डिस्ओर्डर्स : संक्षिप्त रूप में यह कहा जा सकता है कि इसमें मस्तिष्क में डोपामीन तत्व की मात्रा बढ़ जाती है । स्वाभाविकतः उससे स्वैच्छिक नियंत्रण बाहर की अधिक क्रियाएं अनआवश्यक होती है, जैसे कि डिस्टोनिया, कोरीआ, डिस्काईनेजीया, हेमीबेलीस्मस । (A) fstelfaren (Dystonia ) : जब कोई मुद्रा लम्बे समय तक एक ही स्थिति (पोस्चर) में रहे तो इसे डिस्टोनिया कहते हैं । गर्दन एक तरफ खिंची हुई अवस्था में झुकी रहे तो उसे सर्वाइकल डिस्टोनिया (टोर्टीकोलिस) कहते हैं । आँख और मुँह के स्नायु बार-बार एक ही तरफ खिचे रहे तो उसे हेमीफेसियल स्पाज़म कहते हैं। आँखे अनैच्छिक तरीके से बंद रहे, मुख्यतः सामने खड़े व्यक्ति से आँख मिलाकर बात करने में भी मुश्किल हो तो उसे ब्लेफेरोस्पाझम कहते है । मुँह के या जिह्वा के स्नायु विचित्र प्रकार से लेकिन कुछ क्रमबद्ध तरीके से हिले तो उसे फेसीयल डिस्टोनिया अथवा मीग्स सिन्ड्रोम कहते है। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ बहुत प्रचलित ऐसा रोग है जिसे राइटर्स केम्प कहते है, जिसमें मरीज़ को लिखने की प्रक्रिया में तकलीफ होती है। सबसे पहले अक्षर बिगड़ते है, शीघ्रता से नहीं लिखा जा सकता । अंत में स्वहस्ताक्षर करने में भी मरीज़ को मुश्किल होती है। शिक्षक, क्लार्क आदि जैसे लिखने वाली नौकरी-व्यवसाय करते हो उसे कितनी मुश्किल होती है यह समझा जा सकता है। उदाहरण, कोई एक्जिक्यूटिव, जिसे हस्ताक्षर करने में मुश्किल होती है तब उनके चेक वापस आते है । कोन्ट्राक्ट में हस्ताक्षर अलग पड़ने से भी गंभीर मुश्किलें होती है । देखनेवाली बात यह है कि इन मरीजों को केवल लिखने में ही परेशानी होती है। इन्हें खाने में, छोटी मोटी चीज पकड़ने में किसी प्रकार की कमजोरी-दिक्कत नहीं होती है या पक्षाघात के कोई लक्षण नहीं होते । वोकल कोर्ड डिस्टोनिया में गले से आवाज अत्याधिक पतली नीकलती है या तो बंध हो जाती है। एक मत अनुसार इस प्रकार के कम से कम १०० से अधिक डिस्टोनिया है । वायोलीन बजाने वाली उंगलियों में डिस्टोनिया हो तो बेचारे संगीतकार को उसका नाम-काम और आजीविका खोनी पड़ती है । तबला बजाने वाले की उंगलियों में डिस्टोनिया हो जाए तो तबले का ताल ही बदल जाता है । ऐसी अनेक परेशानियाँ मरीज़ को बीमारी के प्रकार अनुसार होती है । बेझल गेन्गलीआ की कार्यक्षमता में गड़बड़ होने के कारण यह डिस्टोनिया होता है। डोपामीन तत्व बढ़ जाता है, जिसके परिणामस्वरुप मरीज़ की क्रियाएं बढ़ जाती हैं अथवा कुछ निश्चित स्नायु निरंतर खिंचाव में रहने से लयबद्ध क्रिया में रुकावट होती है । __ ऊपर बताए गए अधिकतर डिस्टोनिया प्राईमरी होते है और मुख्यतः युवा अवस्था में होते है । वह जाना नहीं गया है कि यह किस कारण से होते है । मानसिक तनाव से लेकर, एक ही काम विशेषतः करने से (जैसे कि लिखना) डिस्टोनिया हो सकता है। परंतु यह बीमारी असंख्य लोगों में से कुछ लोगों को ही क्यूं होती है ? सम्भवतः Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8- मूवमेन्ट डिस्ओर्डर्स और डिस्टोनिया (Movement disorders & dystonia) आनुवंशिक (जिनेटिक) या वंशानुगत कारणों से या पर्यावरण के कारण, मरीज़ की जीवनशैली, आहार और मानसिक कारण इत्यादि के संयोजन से यह रोग संभवित है । 99 कुछ भी हो, इसकी चिकित्सा भी इतनी ही मुश्किल है । उसकी दवाई अंदाज करके ही दी जाती है, क्योंकि उसके कारण का भी पता नहीं है । उदा. ट्राइहेक्षी फेनीडील, हेलोपेरीडोल, बेन्जोडाइजेपीन (जैसे कि क्लोनाजेपाम ), टेट्राबेन्झिन इत्यादि अनेक दवाई अकेले या संयोजन के रूप में दी जा सकती है। मरीज़ की प्रकृति अनुसार डोज़ भी बदलता है । लेकिन ये सभी दवाई केवल ३०% से ४०% केस में ही असरकारक होती है। दवाई का असर हो तबतक मरीज़ ठीक रहता है । समय बीतने के साथ दवाई का असर भी कम होता जाता है । परंतु युवा मरीज़ों के लिए इन दवाई का दुष्प्रभाव चिंताजनक हैं । इस कारण डोक्टरों को इन दवाई का अधिक उपयोग न करके मरीज़ की तकलीफ अनुसार कुछ हद तक ही संयमित उपयोग करना चाहिए । उसके बदले नई प्रकार की ट्रीटमेन्ट जिसे बोटुलीनम इंजेकशन (बोटोक्स / डीस्पोर्ट) कहते है, इसे स्नायु में योग्य मात्रा में उपयोग करने से इन सभी प्रकार के डिस्टोनिया में अच्छा परिणाम लाया जा सकता है । परिणामस्वरूप उपरोक्त समझाए हुए सर्वाइकल डिस्टोनीआ (टोकोलिस) से लेकर ब्लेफेरोस्पाझम हेमीफेशियल डिस्टोनीआ, राइटर्स क्रेम्प इत्यादि में यह औषधि चमत्कारिक और लाभदायक सिद्ध हुई है । इस प्रकार के इंजेक्शन देने के लिए योग्य ट्रेनिंग प्राप्त किए हुए न्यूरोलोजिस्ट डॉक्टर भारत देश में मुंबई, अहमदाबाद, कोलकाता और दिल्ली और अन्य शहरों में उपलब्ध है । इस इंजेकशन को किस स्नायु में, कितनी मात्रा में देना वह डोक्टर तय करते हैं, जिससे इसका दुष्प्रभाव न हो । उदा. जिस स्नायु में अधिक खिंचाव हो वहाँ इस इंजेकशन को देने से स्नायुओं में संतुलन आ जाता है, स्नायु क्रिया ठीकठाक हो जाती है और खिंचाव से दर्द हो तो वह भी चला जाता है । कस्मेटिक तरीके से भी मरीज़ ठीक रहता है और वह व्यवसाय, नौकरी दुबारा यथावत् कर सकता है । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ यह इंजेकशन महँगा होता है, जिसकी सारवार का खर्च हेमीफेसियल स्पाझम में औसतन रु. ४ से ५ हजार होता है । ब्लेफेरोस्पाझम में औसतन रु. ६ हजार का खर्च होता है । ४ से ६ महीने के बाद उसका असर सामान्यतः खत्म होने से यह इंजेकशन दुबारा देना पड़ता है । कभीकभी किस स्नायु में देना है यह सही तरीके से जानना मुश्किल हो जाता है । तब इ.एम.जी. नामक स्नायुओं के टेस्ट की मदद से यह स्नायु ढूँढना पडता है और अगर डोज़ अधिक हो जाए तो उससे स्नायु की कार्यक्षमता कुछ दिनों तक कमजोर हो जाती है। जैसे कि आँखो की पलकों का बंद हो जाना । इस कारण यह इंजेक्शन केवल निष्णात न्यूरोलोजिस्ट अथवा इस प्रकार की योग्य ट्रेनिंग प्राप्त फिजिशियन द्वारा ही लेना चाहिए । यह बोटुलिनम इंजेक्शन जो बोटोक्स, डिस्पोर्ट इत्यादि नाम से मिलता है, वह दो चेतातंतु जहाँ मिलती है, वहां सायनेप्स के प्रीसायनेप्टिक कोलिनजिक टर्मिनल पर इस प्रकार का बंध (बोन्ड) बनाता है कि जिससे चेतातंतु से कंट्रोल हुए स्नायुपेशियों का फंक्शनल डिनर्वेशन हो जाता है । जिससे स्नायु की पेशियों को वह कमजोर बनाता है । यह कमजोरी धीरे धीरे खत्म हो जाती है । इस बोटोक्स इंजेक्शन द्वारा उपचार का व्याप अत्यंत शीघ्रता से बढ़ रहा है, जिससे डिस्टोनीआ के अलावा जो भी स्नायु में खिचाव महसूस हो अथवा स्नायु में दर्द उठता हो, वहाँ उपयोग में आता है । पक्षाघात के बाद स्नायुओं में आनेवाला कडकपन (spasticity) और उसके साथ अंगों में होनेवाली विचित्र स्थिति (posture) में बोटोक्स इंजेक्शन से अधिक लाभ होता है, परंतु ४ से ६ महीने बाद इसका असर फिर से कम हो जाता है । सेरेब्रल पाल्सी से कडक हुए हाथ-पैर के उपचार से लेकर स्नायुओं के दर्द और उम्र को छुपाने के लिए झररियों की ट्रीटमेन्ट तक इन सभी में बोटुलीनम इंजेक्शन उपयोगी है यह सिद्ध हुआ है । उसका डोज़ छोटे स्नायु में २ युनिट से लेकर कुल १५०-२०० युनिट तक हो सकता है। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 - मूवमेन्ट डिस्ओ र्डर्स और डिस्टोनिया (Movement disorders & dystonia) 101 दवाई और मुख्यतः बोटुलिनम टोक्षिन के उपचार से अधिकतर भाग में इस प्रकार का डिस्टोनिया नियंत्रण में रहता है । लेकिन कभी जरूरत पड़ने पर सर्जरी भी करवा सकते है । सर्जरी में राईझोटोमी, डिनर्वेशन प्रोसिजर इत्यादि से ट्रीटमेन्ट किया जाता है। कभी कभी स्पाइनल कोर्ड स्टिम्युलेशन किया जाता है । डिस्टोनिया के कई केस में रोगग्रस्त स्नायुओं पर की त्वचा पर लगाया पट्टा (स्प्लिन्ट) उपयोग किया जा सकता है । डिस्टोनिया के कई केसों को सेकन्डरी डिस्टोनिया कहते है । उसमें मस्तिष्क में किसी न किसी प्रकार की क्षति-कमी-विकृति होती है जैसे कि कोषों के चयापचय की वंशानुतागत बीमारी, विल्सन डिसिज, आनुवांशिक डिस्टोनिया (डिस्टोनिया मस्क्युलोफोर्मन्स), मस्तिष्क की गांठ, रक्त की क्षति, कई दवाई के दुष्प्रभाव इत्यादि । इसमें से कई कारणों को दूर करने से डिस्टोनीआ में राहत होती है। कई कारणों को सही ढंग से कंट्रोल किया नहीं जा सकता । डिस्टोनिया के उपरांत अन्य कई मुवमेन्ट डिस्ओर्डर्स भी महत्वपूर्ण है। (B) कोरीआ (Chorea) बेझल गेन्गलीआ में स्थित कोडेट न्युक्लीअस की कार्यप्रणाली में समस्या होने से, हाथ-पैर, गर्दन, चहेरे का विचित्र, अर्धहेतुक हलनचलनकि जो अधिकतर क्रमबद्ध तरीके से पुनरावर्तित होता है। (१) रामेटिक फीवर नाम से प्रख्यात जोडों के दर्द का कोरीआ (२) हंटिग्टन कोरीआ (वंशानुगत) । (३) सेनाइल कोरीआ (बुढापे में होता)। (४) डिप्थेरिया, व्हुपिंग कफ, (काली खांसी) रूबेला इत्यादि रोगों में होता हुआ कोरीआ। (५) थाईरोइड बढ़ने से होता हुआ कोरीआ । (६) न्यूरो एकेन्थोसिस कोरीआ । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (७) दवाओं के दुष्प्रभाव से होता हुआ कोरीआ - मुख्यतः मानसिक बीमारियों की दवाईयाँ, गर्भनिरोधक गोलियाँ, लिथियम, उल्टी की दवाईयाँ, पारद जहर - इन सभी कारणों से कोरीआ हो सकता है। कोरीआ में आगे बताए गए अनुसार डोपामीन तत्व बढ़ जाता है, इसलिए डोपामीन की रोकथाम के लिए हेलोपेरीडोल, क्लोर प्रोमेजीन, टेट्राबेन्झिन और सीन इत्यादि दवाई उपयोग में ली जाती है। (c) ट्रेमर (Tremor) (कंपन) हाथ-पैर की उंगलियों की या गर्दन-होठ जिव्हा की क्रमबद्ध, परिवर्तित और एक जैसी कंपकंपी (कंपन) को ट्रेमर कहते हैं । यह सबसे अधिक पाया जाता मूवमेन्ट डिस्ओर्डर है । कई बार स्वस्थ मनुष्यों को भी थकावट, दवाई की असर, कोफी का सेवन, प्रेगनन्सी जैसी परिस्थिति में भी कंपकंपी होती है । दवाई में स्टिरोइड, दम की सालब्युटामोल, थीओफाईलीन; लिथियम, ट्राइसायक्लिक तथा एन्टिसायकोटिक जैसी मानसिक रोगों की दवाई और मिर्गी के रोगों में उपयोग में आने वाली वाल्प्रोयेट दवाई मुख्य है । थाइरोईड की मात्रा बढ़ने से भी ट्रेमर हो सकता है । कई मामलों में ट्रेमर वंशपरंपरागत होता है । जिसे फेमिलीयल एसेन्शीयल ट्रेमर कहते हैं । कुछ लोगों को उम्र की वजह से ट्रेमर आता है, और पार्किन्सोनिजम के मुख्य लक्षणों में भी ट्रेमर सम्मिलित है। __ इस प्रकार भिन्नभिन्न कारणों से होनेवाले ट्रेमर में अलग-अलग दवाई का उपयोग होता है, जैसे की बीटा ब्लोकर (प्रोप्रेनोलोल), डायाजेपाम, क्लोनाजेपाम, गाबापेन्टीन, प्रीमीडोन, पार्किन्सोनिज़म हेतु डोपामीनर्जिक दवाई । कई केसों में सर्जरी से भी लाभ मिल सकता है। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 - मूवमेन्ट डिस्ओर्डर्स और डिस्टोनिया (Movement disorders & dystonia) 103 (D) टिक्स ( Tics ) शीघ्र, परिवर्तित आदत जैसी लगनेवाली हलनचलन जैसे कि पलकों को बारी बारी समय समय पर पटपटाना की प्रक्रिया को टिक्स कहते है | पांच प्रतिशत बच्चों में इस प्रकार की आदत होती है, जो तरुणावस्था में समाप्त हो जाती है । किसी दवा के दुष्प्रभाव या वाईरस के रोग से भी ऐसा होता है। लेकिन जो खराब प्रकार के टिक है, Gilles de la Tourettee Syndrome में देखे जाते है जिसमें दर्दी के व्यवहार में परिवर्तन (ADHD, OCD) तथा असभ्य भाषा का प्रयोग भी लक्षण है । इसकी उचित ट्रीटमेन्ट करवानी चाहिए । वह अन्त में कुछ एलोपेथिक दवाई के दुष्प्रभाव से होने वाले मूवमेन्ट डिस्अर्डर्स को ध्यान में लेंगे : (१) डिस्काईनेजीया फीनोथायेझीन्स, लीवोडोपा, इत्यादि दवाई से होता हुआ कोरीआ, डिस्टोनीआ । (२) डिस्टोनिया : न्यूरोलेप्टिक ग्रूप की दवाई से होती हाथ-पैर की विचित्र खिंचाव की अवस्था । : (३) एकीथीसीआ : एन्टिसायकोटिक दवाई से होती हुई एक प्रकार की विषम परिस्थिति । (४) पार्किन्सोनिझम : उदा. हेलोपेरीडोल, मानसिक रोगों की दवाई से होता कंपन | (५) कोरीआ : उदा. गर्भनिरोधक दवाई । (६) न्यूरोलेप्टिक मेलिग्नन्ट सिन्ड्रोम : एन्टीसायकोटिक दवाई के दुष्प्रभाव से होता रोग ( बुखार और जकड़न ) (७) टार्डिव डिस्काईनेजीया : न्यूरोलेप्टिक दवाई को लंबे समय लेने पर होता हुआ कोरीआ, डिस्टोनीआ इत्यादि । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ सखियाँ । मस्तिष्क की एक्स्ट्रा पीरामिडल सिस्टम की बेझल गेन्गलिया की कार्यवाही में रुकावट होने पर कंपन, डिस्टोनिया, कोरीआ जैसे मुवमेन्ट डिसऑर्डर्स होते है । जो डोपामीन नामक तत्व के असंतुलन से होते है। सर्वाइकल डिस्टोनिया, हेमिफेसीयल स्पाझम, ब्लेफेरोस्पाझम, राइटर्स केम्पस वगैरह डिस्टोनिया के प्रकार है। मुवमेन्ट डिसओर्डर की सारवार की दवाई का दुष्प्रभाव ज्यादा होता है, इसलिए एक नए प्रकार की ट्रीटमेन्ट जिसे बोटुलीनम इन्जेक्शन कहते है, वो आजकल ज्यादा प्रचलित है यह इन्जेक्शन का कोई खास दुष्प्रभाव नहि होता है। बेझल गेन्गलिया में स्थित कोडेट न्युक्लीयस की कार्यप्रणाली में समस्या होने पर हाथ-पैर, गर्दन, मुख का विचित्र अर्ध हेतुक हलन-चलन क्रम बद्ध तरीके से पुनरावर्तन होने को कोरीआ कहते है। हाथ पैर की उंगलियों की या गर्दन, होठ की क्रम बद्ध परिवर्तित और एक जैसी कंपकंपी को ट्रेमर कहते है। • शीघ्र परिवर्तित, आदत जैसी लगने वाली हलन-चलन प्रक्रिया को टिक्स कहते है । • कुछ एलोपेथी दवाई के दुष्प्रभाव से भी मुवमेन्ट डीसओर्डर्स हो सकते है। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Parkinsonism) सन् १८१७ में डॉ. जेम्स पार्किन्सन ने सबसे पहले मस्तिष्क के इस रोग के लक्षणों की विस्तृत जानकारी दी थी, इसलिए यह रोग उन्हीं के नाम से जाना जाता है । वयस्क लोगों में यह परेशान करता हुआ प्रचलित रोग है, जिसमें मस्तिष्क का 'सबस्टेन्सिया नायग्रा' नामक कोष-समूह किसी कारणवश क्षतिग्रस्त होकर नष्ट हो जाता है, तब 'डोपामीन' नामक ब्रेईन के मुख्य जैविक रसायन की उत्पत्ति कम हो जाती हैं । इसी कारण हलनचलन कम और मंद हो जाना, कंपन, स्नायुओं का कड़कपन इत्यादि लक्षण दिखते है । उसकी शुरुआत अधिकतर शरीर की एक तरफ अर्थात् दाएँ या बायें अंग से होती है। कुछ मरीजों में आगे चलकर कुछ वर्षों में यह दोनों तरफ के अंगो में फैल जाता है। लक्षण : (१) आराम के समय में या बैठे बैठे भी हाथ-पैर की उंगलियाँ में विशिष्ट प्रकार से (पीलरोलिंग की तरह अथवा रूपये की नोट गिनते हो इस प्रकार से हाथ की उंगलियाँ का लयबद्ध) कंपन। (Tremors) (२) थोडा झुककर छोटे और शीघ्र कदम से चलना, और चलते समय हाथ का हलनचलन कम हो जाना । (३) सभी क्रिया कम होना और मंद होना । (Bradykinesia) (४) हाथ-पैर और चहेरे के स्नायु कड़क होना । (Rigidity) (५) अक्षर छोटे हो जाना । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (६) कदम धीरे पड़ जाना, चलतेचलते खडे रह जाना । (Postural instability) (७) याददास्त में कमी आना, डिप्रेशन होना, अधिकतर पसीना होना, शरीर में दर्द होना, आवाज धीरी और नीरस ( Monotonous) हो जाना, चहेरे के हावभाव कमअदृश्य होना, मुँह से राल टपकना और आंखों की पलके खोल-बंध होने की प्रक्रिया मंद होना । ऐसे लक्षण दिखें तो डॉक्टर को मिलकर रोग का इलाज करवाना जरूरी हो जाता है । चिकित्सा की दृष्टि से इस रोग को पांच अलगअलग अवस्था (stages) में बाँटा गया है । यह रोग उम्र के कारण होने से मस्तिष्क के घिसाव (wear & tear) के साथ जुड़ा हुआ होता है, लेकिन उसके निश्चित कारणों को अभी संपूर्णत: जाना नहीं गया है। कई बार दवाईयों के दुष्प्रभाव से, सिर में जख्म के कारण, जहरीली गैस या जैविक रसायनों से होता नुकशान या वायरस से, असामान्य संयोग में वंशानुगत कारणों से भी यह रोग होता है। अधिकांश केस में कोई समज नहीं सके ऐसे अज्ञात कारणों से ही (इडियोपेथिक) यह रोग होता है । कई बार यह रोग अन्य किसी बड़े रोग के लक्षणों के रूप में भी देखने को मिलता है। जैसे कि मल्टीसिस्टम एट्रोफी अथवा प्रोग्रेसिव सुप्रान्युक्लियर पाल्सी। उसमे आगे बताये गये कंपन के साथ साथ कई और लक्षण दिखते है। ___औसतन हर पाँचसौ में से एक व्यक्ति को पार्किन्सोनिझम हो सकता है । ६० वर्ष से अधिक उम्र में औसतन १.५ % लोग इस रोग से पीडित हैं । कई बार युवावस्था में भी यह रोग होते हुए देखा गया है । जब 'डोपामीन' नामक मस्तिष्क का रसायन उत्पन्न करने वाले Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9- कंपवात (Parkinsonism) ८० प्रतिशत जितने कोष नष्ट हो जाते हैं तब पार्किन्सोनिझम के लक्षण दिखाई देते हैं । 107 वैसे तो पार्किन्सोनीझम रोग के निदान के लिए कोई विशिष्ट जाँच की आवश्यकता नहीं है; फिर भी जब कभी निदान में शंका हो या पार्किन्सन प्लस सिन्ड्रोम की शक्यता हो (जिसके बारे में हम बादमें देखेंगे) तो एम. आर. आई. या स्पेक्ट या फंक्शनल एम. आर. आई करवाना चाहिए । इन कोषों को नष्ट होने से बचाने के लिए कोई चिकित्सा या दवाई नहीं है । इस कारण इस रोग को जड़ से नहीं निकाला जा सकता है । लेकिन नियमित दवाई, उपचार करने से इसके अधिकांश लक्षणों पर नियंत्रण अवश्य ही किया जा सकता है । आधुनिक चिकित्सा पद्धति तथा व्यायाम और योग द्वारा इस रोग में राहत मिल सकती है । उपचार : चिकित्साकिय उपचार हेतु की दवाई में मुख्यतः लिवोडोपा, डोपामीन एगोनिस्ट (रोपीनीरोल) और एन्टिकोलीनजिक दवाएं (पेसिटेन) इत्यादि दवाई प्रयोग में ली जाती है। इसमें से लिवोडोपा मुख्य दवाई है जो ब्रेईन में डोपामीन नामक तत्त्व सीधा ही प्रवेश करवा देती है । जिसकी कमी से यह रोग होता है । जितने प्रमाण में लक्षण होते हैं, उसके अनुसार दवाई की मात्रा डॉक्टर तय करके यह दवा देते है । आवश्यकता अनुसार निष्णात डॉक्टर का मार्गदर्शन जरूरी होता है, क्योंकि इस दवाई का दुष्प्रभाव भी अधिक होता है । यह दवा अलग अलग प्रमाण में, भिन्नभिन्न संयोजन में, और टेब्लेट, प्रवाही व पम्प की सहाय से भी मरीज को दी जा सकती है । अधिकतर निष्णात चिकित्सक इस दवाई की जगह पर रोग की प्रारंभिक अवस्था में पेसिटेन, एमेन्टिडीन, ब्रोमोक्रिप्टिन, प्रेमीपेक्षोल Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ और ट्राईवास्टाल इत्यादि दवा से काम चलाते हैं और अगर रोग दूसरी या तीसरी अवस्था में (शरीर में दोनों तरफ असर करे) हो तो लिवोडोपा देते है। जिससे मरीज दुष्प्रभाव के बिना लम्बा जीवन जी सकते है। नए संशोधन के मुताबिक डोपामीन एगोनीस्ट नामक दवाई अगर प्रारंभिक अवस्था में दी जाए तो रोग की आगे बढती हुई गति अवश्य थोडी मंद पड़ सकती है । चिकित्साकीय दृष्टि से यह रोग पांच अवस्था (stages) में विभाजित है। उदा. प्रथम अवस्था में शरीर के एक ही तरफ कंपन या कडकपन होता है जबकि अंतिम अवस्था में मरीज बिस्तरवश हो जाता है । किस अवस्था में मरीज को कौन सी दवाई देनी चाहिए वह न्यूरोफिजिशियन तय करते है । यहाँ यह स्पष्टता आवश्यक है कि किसी भी दो मरीज का उपचार हेतु एक ही प्रकार की दवाई का प्रयोग हों ऐसा निश्चित रूप से नहीं है। पिछले कई वर्षों में इस रोग के निर्मूलन के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण संशोधन के कारण चिकित्सको तथा मरीजो में आशा की नई किरण प्रकट हुई है । प्रेमिप्रेक्षोल, रोपिनिरोल, टोलकेपोन, एन्टाकेपोन जैसी दवाई अत्यंत असरकारक और कम दुष्प्रभाववाली है, की जिससे मरीज को बहुत ही आराम मिलता है। वर्तमान में रोपिनिरोल (Ropark) प्रेमीपेक्षोल (Premirole, Remipax) और एन्टाकेपोन (Entacom, Adcapone) बाजार में उपलब्ध है । विदेशों में रासाजिलिन (ऐझिलक्ट) और रोटिगोटिन के स्कीन पेच भी असरकारक मालूम हुए है। विटामीन 'ई' तथा अन्य कई द्रव्यों के सेवन से भी इस रोग की मात्रा कम होती है ऐसा कई लोग मानते हैं, परंतु इस बात को अभी सर्वस्वीकृति नहीं मिली है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 109 9 - कंपवात (Parkinsonism) सर्जरी खास चमत्कारिक बात तो नई सर्जरी की है । चालीस से भी अधिक वर्ष पहले पार्किन्सोनिझम सर्जरी की खोज हुई थी । लेकिन लिवोडोपा दवाई के आविष्कार से इस बीमारी में चमत्कारिक लाभ होने के कारण सर्जरी का योग्य विकास नहीं हो सका। लिवोडोपा दवाई के लंबे समय के प्रयोग बाद सतत दुष्प्रभाव के विषय में चिकित्सको को पता चलने से फिरसे पार्किन्सोनिझम संबंधित सर्जरी का विकास पिछले दस वर्षों में हुआ, और अब उसमें दिन-प्रतिदिन अनुभव बढ़ने के कारण सर्जरी सलामत और स्वीकार्य होती जा रही है। सर्जरी किस केस में कब करें, किस प्रकार की करें यह बात भी आजकल मेडिकल परिषद का महत्त्वपूर्ण मुद्दा बन रही है जो प्रसन्नता की बात है । पार्किन्सोनिझम के केस में तीन प्रकार की सर्जरी हो सकती है । (१) एब्लेशन सर्जरी : इसमें पार्किन्सोनिझम होने के कारण मस्तिष्क के कोषों की सरकिट में योग्य स्थान पर छिद्र या घाव (Ablation) किया जाता है । छिद्र करने हेतु स्टिरीओटेक्सी पद्धति का उपयोग किया जाता है । ऐसा छिद्र थेलेमस, पेलीडम या सबथेलेमिक न्युक्लियस में किया जाता हैं । उस अनुसार उसे थेलेमोटोमि, पेलिडोटोमि इत्यादि नाम दिये जाते है । मरीज युवान हो और जिनमें कंपकंपी जैसे लक्षण हो तो उनमें थेलोमोटोमी किया जाता है । लिवोडोपा दवाई के दुष्प्रभाव, जैसे कि डिस्काईनेजिया इत्यादि से छुटकारा पाने के लिए भी पेलीडोटोमी हो सकती है। इस सर्जरी से अपेक्षित परिणाम मिलता है लेकिन एकबार छिद्र किया गया भाग हमेशा छेदग्रस्त रह जाएगा, विशेष में कभी ओपरेशन के दौरान रक्त जमा होना (Hematoma), संक्रमण हो जाना इत्यादि विक्रिया भी हो सकती है । लेकिन इसका प्रमाण बहुत कम होना जरूरी है । इसका खर्च ३० से Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ ६० हजार रूपये जितना हो सकता है । यह सर्जरी दोनों तरफ करना खतरनाक हो सकता है । इसलिए सामान्यतः एक तरफ किया जाता है। (२) स्टिम्युलेशन तकनिक : किसी भी भाग को हमेशां के लिए छेदग्रस्त न करना हो और इलेक्ट्रिक पद्धति से आवश्यक प्रमाण में नियंत्रण करना हो तो उस भाग को अत्याधिक (स्टिम्युलेट) उत्तेजित करने से इस भाग की कार्यशक्ति कुंठित हो जाती है । इस वैज्ञानिक सत्य के आधार पर यह पद्धति विकसित हुई है । मस्तिष्क की एल्बेशन सर्जरी में बताए हुए भागों को यहां Hyperexcite-अतिउत्तेजित किया जाता है। उसके लिए स्टिम्युलेटर इलेक्ट्रोड और सर्किट रखा जाता है ।। (इस प्रकार थेलेमिक स्टिम्युलेशन, पेलीडल स्टिम्युलेशन और सबथेलेमिक स्टिम्युलेशन-इस प्रकार तीन पद्धति विकसित हुई है। लेकिन वर्तमान समय में सबथेलेमिक स्टिम्युलेशन तकनिक के परिणाम सबसे अच्छे दिखाई दिए है ।) इस पद्धति का एक लाभ यह है कि मस्तिष्क के भागों का कायमी नुकसान नहीं होता । उत्तेजना कम-ज्यादा करने से परिणाम बदल सकते है । इसका दुष्प्रभाव भी कम होता है परंतु यह अत्यंत खर्चीला होता है । सर्जरी का स्टिम्युलेटर सहित एक तरफ का खर्च रू. ४ से ५ लाख आता है । यह मशीन दोनों तरफ भी रखा जा सकता है । कई केसो में खर्च कम करने के लिए और अन्य कारणों से एक तरफ स्टिम्युलेटर और दूसरी तरफ एब्लेशन सर्जरी की जाती है । ऐसा करने से शरीर के दोनों तरफ रोग फैला हो तो उसमें अधिक राहत मिल सकती है। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 111 (३) 9 - कंपवात (Parkinsonism) यह सब सर्जरी हमारे सौभाग्य से हमारे देश में भी कुछ केन्द्रों में उपलब्ध है और उसका व्याप बढ़ता जा रहा है । विदेशों में बीमा की (मेडिकल इन्स्योरन्स की) प्रचलितता के कारण सर्जरी अत्याधिक शीघ्रता से फैलती जा रही है।। सेल ट्रान्सप्लान्टेशन सर्जरी : ऐसा कहा जा सकता है कि यह सर्जरी अभी प्रायोगिक अवस्था में है। इसमें एड्रिनल ग्रंथि के कोषों को मरीज के मस्तिष्क में प्रस्थापित किये जाते है । कुछ समय पहले अर्धविकसित गर्भ के कोषों का ट्रान्सप्लान्ट भी बहुत प्रचलित हुआ था । परंतु इसमें कई मेडिकोलीगल और नैतिक प्रश्न उठते हैं । इन सभी कारणों से यह ट्रान्सप्लान्ट सर्जरी अपेक्षानुसार प्रचलित नहीं हो सकेगी ऐसा मेरा मानना है । मेडिकल तथा सर्जिकल प्रकार के इस उपचार के उपरांत नियमित व्यायाम, प्रसन्नचित्त्, लोगों से मिलना और योगोपचार इत्यादि भी सही उपचार के उपयोगी परिबल है, जो निश्चितरूप से मरीज के उपचार में भूमिका निभाते है। संक्षिप्त में, पार्किन्सन रोग से अब डरने की बिलकुल जरूरत नहीं है। संभव हो उतना जल्द निदान, सही उपचार, निष्णात फिजिशियन अथवा न्यूरॉफिजिशियन का मार्गदर्शन, ग्रूप थेरापी(समूह चिकित्सा), व्यायाम-योग और आवश्यकता अनुसार सर्जरी आदि द्वारा इस रोग को महद् रूप से नियंत्रित किया जा सकता है। अहमदाबाद, मुंबई जैसे शहरो में पार्किन्सोनिझम से पीडित मरीजों का एसोसिएशन (संगठन-मंडल) है, जहां ईन मरीजों को उपयोगी जानकारी देते हैं, ग्रूप में योग-ध्यान, व्यायाम सीखाते है और अच्छी सेवाएं प्रदान करते हैं। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 १. सो मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ पार्किन्सन प्लस सीन्ड्रोम्स : __पार्किन्सन जैसे ही लक्षणों वाले निम्नलिखित रोगो में समयसर निदान करना अत्यंत जरूरी है। क्योंकि इन रोगो में पार्किन्सन की दवा ज्यादा उपयोगी नहीं साबित हुई है और अगर जल्दी निदान करके उचित सारवार न की जाए तो ये रोग जल्दी से आगे बढ़ते है और मरीज पथारीवश हो जाते हैं । (१) मल्टी सिस्टम एट्रोफी (MSA) : यह रोग में पार्किन्सन के कुछ लक्षण तो होते ही है । साथमें असंतुलन - गिर जाना - बोलने में तकलीफ - हाथ की क्रियाओं की तकलीफ भी आती है । ये होने का कारण छोटे दिमाग (Cerebellum) का कार्य बिगडना है । अनुकंपी - परानुकंपी तंत्र (autonomic system) के बिगडने से एकदम खडे होने पर ब्लड प्रेशर कम हो जाता है । युरीन (पिशाब) में अटकाव आता है या युरीन कपडे में हो जाता है । इसमें पार्किन्सन के अलावा दो और तंत्र में मुसीबत होने के कारण इसे मल्टीसीस्टम अट्रफी कहा जाता है । (२) डिफ्यूझ लेवी बॉड़ी डिसीझ (DLB) : इसमें रोग के शुरूआत में ही याददास्त कमजोर होना, भ्रमणा होना, समानता में काफी चढाव-उतार आना वगैरह देखने को मिलता है, और पार्किन्सन के लक्षण बाद में आते है । चित्तभ्रमकी दवाईयों का इसमें ज्यादातर बहुत उल्टा असर होकर शरीर जकड जाता है ।। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9.कंपवात (Parkinsonism) 113 (३) प्रोग्रेसिव सुप्रान्युक्लिअर पालसी (PSP) : पार्किन्सन जैसे शुरूआत में लगनेवाले ये रोग में कडकपन मुख्यतः छाती और पीठमें आता है (Axial Rigidity) - जो कि पार्किन्सन्स डिसीज में हाथ-पैर के स्नायु में आता हैं । आँखो के स्नायु की हलनचलन कम होती है (Supranuclear palsy) । विशेष तो ये मरीज रोग की शुरूआत से चलते चलते बारबार गिरता है और उसकी आवाज में फर्क पड जाता है । (४) कोर्टिकोबेझल डीजनरेशन (CBD) : इसमें कंपवात के साथ एक बाजु के हाथ की विचित्र हलनचलन होती है (alien limb movements) और उसमें संवेदना भी अलग हो जाती है । हाथ में ताकत होने के बावजूद वो हाथ से कार्य नहीं होता है (Apraxia) । -(सुखिया • मस्तिष्क में स्थित सबस्टेन्शिया नायग्रा नामक कोष किसी कारण वश क्षतिग्रस्त होकर नष्ट हो जाता है तब डोपामीन नामक बेईन के मुख्य जैविक रासायण की उत्पत्ति कम हो जाती है, जिसके कारण कंपवात की बिमारी होती है। ज्यादातर मरीजो में ट्रेमर पहला लक्षण होता है । अन्य लक्षणों में स्नायुओं का कडक होना, कार्य की गति कम होना, याददास्त में कमी होना, डीप्रेशन आना, चेहरे के हावभाव अद्रश्य होना, मुंह से राल टपकना आदि होते है। आगे जाते मरीज़ एक पूतले जैसा बन जाता है, किन्तु सभानता आखरी दम तक बनी रहती है। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ • लिवोडोपा, डोपामीन एगोनिस्ट और पेसिटेन इत्यादि दवाई से रोग के लक्षण ठीक होते हैं । इस रोग के उपचार के लिए अब अच्छी नई दवाईयाँ उपलब्ध है और सर्जरी जैसे कि एब्लेशन, स्टीम्युलेशन और सेल ट्रान्सप्लान्टेशन वगैरह भी उपयोगी है। मतलब, ये रोग के मरीज दवाई या ओपरेशनसे काफी ठीक हो सकते हैं । किन्तुं, दवाई कायम लेनी पडती है । पार्किन्सोनीझम जैसे लक्षण वाले अन्य चार रोग MSA, DLB, PSP और CBD है, जिसमें पार्किन्सोनीझम की दवाई इतनी उपयोगी नहीं है और ये चारों रोग में दर्दी बहुत जल्दी परावलंबित हो जाता है । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मृतिभ्रंश-मतिभ्रंश; और याददास्त बढ़ाने के उपाय (Dementia & tips to improve memory) डिमेन्शिया : इसे हम सामान्य शब्दो में स्मृतिभ्रंश के रूप में जानते हैं लेकिन मतिभ्रंश नाम कुछ ज्यादा योग्य लगता है । (मति = बुद्धि) जिसमें व्यक्ति की याददास्त सोचशक्ति, भाषा ( समझने और समझाने की शक्ति) तथा व्यवहार में कमी आती है । मरीज की वाणी, वर्तन, व्यक्तित्व और व्यवहार में उल्लेखनीय बदलाव के साथ उनकी चेतना कम होती चली जाती है । इस प्रकार बुद्धिमत्ता की कमी के कारण व्यवहारिक जीवन में कई प्रश्न उठते है। डिमेन्शिया के कारण : डिमेन्शिया होने के सामान्यत: बहुत से कारण हो सकते है । औसतन ८० प्रतिशत मरीजों में इसका कारण आल्ज़ाइमर्स रोग या वास्क्युलर डिमेन्शिया होता है । इसके उपरांत फन्टोटेम्पोरल डिमेन्शिया, लेवी बोड़ीज, नोर्मल प्रेशर हाईड्रोसिफेलस, जेकब क्रुट्ज़फेल्ड डिसिज, कोर्टिको बेझल डिसिझ, हन्टिंग्टन डिसिज, सबकोर्टिकल ल्यूकोएन्सेफेलोपथी, ए. एल. एस. जैसे रोगो में भी डिमेन्शिया देखने को मिलता है | विटामिन B12 की कमी, थाईरोइड, पेराथाईरोइड और डायबिटीस जैसी बीमारियाँ और कई जहरीलें द्रव्य तथा भारी धातुओं की असर... ऐसे अनेक कारणों से डिमेन्शिया हो सकता है । ( १ ) आल्ज़ाइमर्स डिमेन्शिया के लक्षण चिह्न : इस रोग की शुरूआत में नीचे दिये गये लक्षण देखने को मिलते हैं । भाषा की तकलीफ ( समझने और अर्थपूर्ण बोलने में ) होती है Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ याददास्त (तुरंत या तो भूतकाल की बातें याद रखने की शक्ति) में कमी । अधिक समय तक पुरानी याददास्त अच्छी रहती है। स्थल-समय का ज्ञान कम होना । निर्णयशक्ति कम होना । नीरसता बढना, डिप्रेशन आना, अतिशय क्रोध आना । रोग आगे बढ़ने से इन मरीजों को अपना दैनिक कार्य निभाने में तथा रोजमर्राह के कामकाज में भी तकलीफ होने लगती है। मरीज प्रतिदिन की घटनायें और परिचित व्यक्तियों के नाम भूलने लगता है। सगे-संबंधी, मित्रों और जानीपहेचानी वस्तुओं को पहचानने में तकलीफ; और मरीज चीजें इधर-उधर रख देता है । साफसफाई, रसोई या खरीदी जैसी बातो में पराधीन हो जाता है। स्नानादि और वस्त्रपरिधान के लिए भी उसे मदद की जरूरत पडती है। बातचीत करने में और घुमने-फिरने में भी मुश्किल होती अलग अलग तरह के भ्रम उत्पन्न होते है ।। मरीज को खाने-पीने में मुश्किल होती है । वे संयोगो और परिस्थिति का विश्लेषण करने में असफल होते हैं। घुमने फिरने में तकलीफ पडती है । व्यक्तित्व में परिवर्तन आने से मरीज अपनों से अलग हो जाता है। मल-मूत्र कार्य अनियंत्रित हो जाता है । सार्वजनिक तौर पर विचित्र वर्तन करता है। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10- स्मृतिभ्रंश - मतिभ्रंश; और याददास्त बढ़ाने के उपाय 117 चिकित्सकीय दृष्टि से तीन अवस्था में बांटे गये इस रोग की अंतिम अवस्था में मरीज संपूर्णतः परावलंबी बन जाता है । कारण तथा उपचार : आल्ज़ाइमर्स होने का निश्चित कारण नहीं जाना गया है । लेकिन मरीज का विचार, याददास्त और भाषा पर नियंत्रण रखनेवाले मस्तिष्क के कोष नष्ट हो जाते है । ऐसा होने के कारणों में रक्त का परिभ्रमण कम होना, संक्रमण (इन्फेक्शन) या बढ़ती उम्र नहीं होते । ऐसे तो कई विश्वविख्यात व्यक्तियों में यह रोग है, यह सर्वविदित बात है । जैसे की अमरिका के भूतपूर्व प्रमुख रोनाल्ड रीगन, रिटा हेवर्थ, शुगर रे रोबिन्सन, ई. बी. व्हाइट तथा अन्य... इस रोग की कोई निश्चित दवाई का अभी तक कोई सफल संशोधन नहीं हुआ । रोग के लक्षणों की तीव्रता घटानेवाली नई दवाई का संशोधन जारी है । ऐसा होने पर इस रोग का इलाज करके इन मरीजों के लिए मदद हो सकती है । रोजिंदी जिंदगी में आनेवाली अपेक्षित आपत्ति के निवारण के बारे में मरीज तथा उनके सगे-संबंधियों के पास पद्धतिसर जानकारी और तालीम होना आवश्यक है । • निदान : आगे बताए गयें लक्षणों के उपरांत मरीज का होश, याददास्त, ग्रहणशक्ति और भाषाकीय संतुलन को जांचते हुए अनेक परिक्षण (Cognitive Test) से मरीज को डिमेन्शिया होने की बात का समर्थन मिल सकता है । मिनि मेन्टल स्टेटस एक्जामिनेशन, वर्ड लिस्ट मेमरी टेस्ट, वर्ड रिकॉल टेस्ट जैसे न्यूरोसाईकोलोजिकल मापदंड द्वारा रोग और उसकी तीव्रता नापी जा सकती है । रक्त का टेस्ट, ब्लडशुगर का प्रमाण, थाईरोइड टेस्ट, पेराथाईरोइड टेस्ट, यकृत तथा किडनी के टेस्ट, विटामिन बी१२ तथा फोलिक एसिड की मात्रा आदि परिक्षण भी इलाज में सहायक है, जो इस रोग के मरीजों में नोर्मल होने चाहिए । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ ई.ई.जी. द्वारा जेकब-क्रुट्जफेल्ड्ट डिसीज तथा फन्टोटेम्पोरल डिमेन्शिया जैसे रोग के निदान में समर्थन मिलता है । सी. टी. स्केन, एम.आर.आई. उपरांत एम.आर.एन्जिओ, स्पेक्ट (SPECT), पेट (PET) जैसी न्यूरोईमेजिंग पद्धतियों की भी निदान में कभी जरूरत पड़ती है। • नयें संशोधन : आल्झइमर्स के कारणों और उपचार के लिये संशोधन हो रहे है। . औसतन ५% से १०% केसो में यह रोग वंशानुगत होता है। मरीज के १९ वे रंगसूत्र पर एपोलाइपोप्रोटीन ई-४ जनीन हो तो मरीज के वारिस को आल्झईमर्स होने की संभावना अधिक रहती है । मस्तिष्क के न्यूरोन्स में (कोषिकाओं में) न्यूरोफीब्रिलरी टेन्गल्स बनना, कोषिकाओं के बाहर बीटा एमायलोइड्स नामक प्रोटीन के प्लेक्स इकट्ठा होने से मस्तिष्क की नाजुक कोषिकाओं को हानि होना और सूजन होना इस रोग की एक पेथोलोजिकल प्रक्रिया है। परंतु यह किस कारण होता है ? अभी तक उसका उत्तर नही मिला है । संभावना है कि APOE नामक प्रोटीन और TAU नामक अन्य जैविक रसायन इन सभी प्रक्रिया के लिए जिम्मेदार हो सकते है । नये संशोधन इन सभी को रोकने की दवाई की खोज पर केन्द्रित हुए हैं । अल्झईमर्स के मरीजो में 'डानेपेझिल (Donep, Alzil, Aricep) नामक दवा असरकारक है। नई उपयोग होने वाली दवाई में रिवास्टिग्मिन (Rivamer) और उससे संबंधित अन्य दवाई का परिणाम बहुत अच्छा है। युरोप में गेलेन्टेमाइन (Galamer) अधिक प्रचलित है । भारत में मेमेन्टाइन (Admenta, Mentra) नामक दवाई उपलब्ध है । पहले ज्यादा मात्रा में प्रयोग में ली जाती टेक्रीन (कोग्नेक्ष) दवाई अपने दुष्प्रभाव की वजह से प्रयोग में कम हो गई है । स्टेटीन ग्रुप की दवाई (Atorvastatin इत्यादि) का उपयोग सामान्यतः रक्त की चरबी घटाने के लिये होता है। परंतु ये दवाई आल्झाइमर डिमेन्शिया में भी उपयोगी सिद्ध हुई है। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 - स्मृतिभ्रंश-मतिभ्रंश; और याददास्त बढ़ाने के उपाय 119 अन्य नई दवाई-पद्धति जिसमें जिनेटिक एन्जिनियरिंग तथा क्लोनिंग का उपयोग किया जाता है, वह अभी प्रायोगिक कक्षा में है। आल्जाइमर्स का वेक्सिन भी तैयार किया गया है । हमारे देश में इन सभी महँगी दवाई के साथ पिरासिटाम ( नोर्माब्रेईन, नूरोपील) जिन्कगो बिलोबा तथा अरगट ग्रुप की दवाई प्रचलित है। (२) Frontotemporal Dementia : विस्मृति के रोगों में आल्झाईमर के रोग के बाद यह एक महत्वपूर्ण रोग है । इसमें फन्टल लॉब और टेम्बपोरल लॉब के कोषों का क्रमशः नाश होता है । जिसके लक्षणों को दो समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है। व्यवहार के लक्षण या व्यक्तित्त्व में बदलाव / और Executive (नेतृत्व) function के संबंधित समस्याओं के लक्षण । व्यवहार के लक्षणों में सुस्ती, अनुचित वर्ताव करना या उदासिन रहना, अपने आपकी देखभाल न करना वगैरह शामिल है । दर्दी जटिल कौशल (Complex Executive Task) प्रदर्शन करने में असमर्थ होता है । यह रोग में मरीज की भाषा भी प्रभावित होती है । कई मरीजों की भाषा का धाराप्रवाह सामान्य होता है पर वह किसी चीज का नाम और शब्द समझने में कठिनाई महसूस करते है। जबकि कई मरीजों की भाषामें वाक्यात्मक त्रुटि होती है ।। अल्झाईमर के रोग जैसे ही लगनेवाले यह रोग में मुख्यतः निम्न फर्क है। आदमी की नेतृत्व शक्ति, निर्णय शक्ति और विशेष बुद्धिमता को पहले असर होती है । उसके व्यक्तित्व और वर्तन में काफी बदलाव आ जाता है । जैसे कि पहले का आदमी ही न हो । आल्झाईमर रोग से और एक अलग बात यह है, कि इस रोग में याददास्त के संग्रह (Memory Storage) और रास्ते की परख काफी देर तक ठीक रहती है । इस रोग के तीन प्रकार है । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (1) Frontal variant (2) Primary progressive aphasia (3) Semantic dementia यह रोग के चिह्न समूह के साथ एम. आर. आई. नामकी जाँच द्वारा यह रोग का निदान हो सकता है । जिसमें फन्टल लॉब और / या टेम्पोरल लॉब का संकुचन ( Atrophy) देखा जाता है । यह संकुचन की मात्रा दर्दी के रोग की गंभीरता अनुसार होती है । परंतु कई मरीजो में रोग के शुरू के समय पर एम. आर. आई. नोर्मल भी लग सकता है । यह रोग में जनिन की खामी भी देखी गई है, जिसमें MAPT जनिन में म्यूटेशन या प्रोग्रेन्यूलिन में म्युटेशन १७ नंबर के रंगसूत्र में देखी गई है । यह रोग का कोई ठोस उपचार नहीं है । (३) वास्क्युलर डिमेन्शिया - मल्टि इन्फार्कट डिमेन्शिया (MID ) : मस्तिष्क के छोटे छोटे हिस्सो में रक्त का परिभ्रमण घटने से इन भागों की कोषिकाऐं नष्ट हो जाने पर यह स्थिति उत्पन्न होती है । रक्त का दबाव बढ़ने से, छोटी छोटी रक्तवाहिनीयों के टूटने से और रक्त के छोटे गठ्ठे द्वारा छोटी रक्तवाहिनीयों में अवरोध पैदा होने से मस्तिष्क के कई भागों में रक्त का परिभ्रमण कम या बंध हो जाता है । अनेक जगह ऐसी क्षति होनेसे MID होता है । उच्च रक्तचाप (High B. P . ) के कारण धमनी क्षतिग्रस्त हो के मोटी (Thick) होती है । उससे खून का परिभ्रमण कम होने से भी ये रोग हो सकता है (Deep white matter changes ) I यह रोग की शुरुआत अचानक हो सकती है । या उसमें उत्तरोत्तर (Stepwise) बढ़त हो सकती है । आरंभ में अधिकतर लोगों की याददास्त (मुख्यतः नजदीक के भूतकाल की बातें) कम हो जाती है I रोग के लक्षणों में और मरीज की मानसिक स्थिति में चढाव - उतार होता रहता है । इस प्रकार के मरीज में सजागता, आल्जाइमर्स डिमेन्शिया के मरीजों से अधिक होती है । मरीजों का असल व्यक्तित्व भी कम Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 - स्मृतिभ्रंश-मतिभ्रंश; और याददास्त बढ़ाने के उपाय 121 या अधिक मात्रा में बना रहता है, परंतु रोग आगे बढ़ने से मरीज की हालत अधिक खराब हो जाती है। साथ में पक्षाघात का असर भी हो सकता है, परंतु किस नलिका पर असर है उस पर वह आधारित है । मरीज के उपरोक्त लक्षणों के उपरांत सी. टी. स्कैन, एम.आर.आई., एम.आर. एन्जियो द्वारा निदान बहुत निश्चित रूप से हो सकता है । इस तरह आल्जाइमर्स की तुलना में निदान अति सहज हैं । रक्त में चरबी का प्रमाण, गले की नसों का केरोटिड डोप्लर, हृदय का द्विपरिमाणीय इको (टू-डी इको) इत्यादि टेस्ट निदान में विशेष सहायक होते हैं । रक्त पतला करने की दवाई के उपरांत इस रोग को होने से रोकने के लिए ब्लडप्रेशर, डायाबिटीस का नियंत्रण तथा आहार का नियमन और नियमित व्यायाम इत्यादि अनिवार्य हो जाता है। कभी-कभी आल्जाइमर्स और वास्क्युलर डीमेन्शीआ साथ भी हो सकता है । • स्मृतिभ्रंश के मरीजों की सारवार : इस रोग के मरीजों के लिये सरल हो और वह जितना भी स्वावलंबी रह सके इस प्रकार की दिनचर्या का आयोजन करना चाहिए । साथ ही मरीज की सुरक्षा के लिए भी ठोस कदम उठाने चाहिए। स्नानादि और कपड़े पहनने, भोजन करने, जैसे नित्यक्रमो में मरीज की अवस्था अनुसार योग्य मदद करनी पडती है। याददास्त में मदद कर सके ऐसी बातों को ढूंढकर मरीज को समस्या में से निकाल सकते है, जैसे की लिखने के लिए डायरी देना । मरीज के साथ बातचीत का व्यवहार रखना अत्यंत जरूरी है, जिससे मरीज की संवेदनायें बनी रहें । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ घुमने-फिरने और आराम के लिए मरीज को किसी प्रकार का बंधन महेसूस न हो, इस प्रकार का नित्यक्रम आयोजित कर देना चाहिए । इसके उपरांत नई दवाई जैसे कि रिवास्टिग्मिन, गेलेन्टामाईन और डोनेपेज़िल उपयोग में लाई जा सकती है । उसके उपरांत एन्टिप्लेटलेट प्रकार की दवाई मरीज के रोग के कारण अनुसार देनी चाहिए । वंशानुगत तरीके में होनेवाला आल्जाइमर या अन्य डिमेन्शिया में उनके नजदीक के सगेसंबंधी (पुत्र, पुत्री, भाई-बहन आदि), अर्थात् स्वस्थ वारिस की पहले से ही इस रोग के संदर्भ में जाँच करना कितना उचित या व्यवहारिक है, यह एक गूढ प्रश्न है । __परंतु कई देशो में ऐसी सुविधाएँ उपलब्ध है कि जनीन की जाँच (वंशानुगत लक्षणों की जाँच) द्वारा यह रोग इस व्यक्ति को भविष्य में वंशानुगत होगा या नहीं वह प्रमाण में निश्चित ही जाना जा सकता है। अधिकतर डिमेन्शिया जैसे लक्षण मानसिक तनाव की स्थिति में भी होते है, जिसमें मुख्यतः डिप्रेशन या स्ट्रेस ही कारण बनते है उसे स्यूडोडिमेन्शिया कहते हैं । योग्य न्यूरोलोजिकल जाँच से ही वह जाना जा सकता है । उसकी चिकित्सा प्रमाण में सरल हैं । यह रोग नियंत्रित किया जा सकता है, और उसकी असर लँबे समय तक रहती नहीं है और बढ़ती भी नहीं है। कई मेडिकल रोगो में भी कम या अधिक मात्रा में याददास्त, व्यवहार, व्यक्तित्व इत्यादि पर असर हो सकता है, तब कई बार भूल से आल्जाईमर का निदान होते हुए देखा गया है । जैसे कि, थाईरोइड का कार्य कम होना (हाईपोथाईरोइड), विटामिन B12 की कमी, कुछ कोलेजन डिसिज जैसे कि, एस.एल.ई. इत्यादि । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 123 10 - स्मृतिभ्रंश-मतिभ्रंश; और याददास्त बढ़ाने के उपाय दवाई मरीज के रोग के अनुसार योग्य दवाई दी जा सकती है, जैसे कि(१) एन्टिप्लेटलेट : वास्क्युलर डिमेन्शिया में (२) नई विशिष्ट दवाई जैसे कि रिवास्टिग्मिन, डोनपेजिल, गेलामर, मेमेन्टीन इत्यादि आल्जईमर डिमेन्शिया में दी जा सकती है। (३) अरगोट समूह की दवाई जैसे कि समिअन, हाइडरजिन, सेरेलोइड (४) पिरासिटाम जैसे कि नोर्माब्रेइन, न्यूट्रोपिल, सेरेसिटाम अथवा एन्सेफेबोल दवाई। स्मृतिभ्रंश की रोकथाम और मस्तिष्क की कार्यक्षमता : ऐसा माना जाता है कि प्रौढ मनुष्य की मस्तिष्क की कोषिकाएं क्षिण-नष्ट होती जाती है और याददास्त और मस्तिष्क शक्ति कम हो जाती है, लेकिन यह संपूर्णतः सत्य नहीं है । संशोधन द्वारा अभी ऐसा जाना गया है कि अगर योग्य वातावरण दिया जाए तो वृद्ध व्यक्तियों के मस्तिष्क में भी नये चेताकोष और कोशिकाए विकसित हो सकती है। याददास्त अंत समय तक अच्छी रखी जा सकती है। मस्तिष्क को कार्यशील करने के लिए रक्त संचार जरूरी है, इसलिए शुरूआत सुबह से ही करो, थोडा सा जोगिंग करो, जिससे शरीर में रक्त प्रवाह बढता है । परिणामस्वरूप मस्तिष्क को रक्त और ओक्सिजन की आपूर्ति अधिक मिलेगी और चेतातंत्र जाग्रत होगा । व्यायाम के पश्चात् नास्ता लेने में ध्यान रखो । चरबीयुक्त पदार्थों के बजाय कार्बोहाईड्रेटयुक्त (ग्लुकोज़ आधारित) पदार्थ अधिक पसंद करो । ओफिस या कामकाज के स्थान पर एक से डेढ़ घंटे काम करने के बाद कुछ क्षणों के लिये विश्राम करो, थोड़ा टहेलो । निरंतर एक ही प्रकार का काम करते मस्तिष्क को दूसरा काम दो, जो मस्तिष्क को अधिक सचेत रखता है। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ दोपहर के भोजन में भी कार्बोहाईड्रेट भरपूर लें, चर्बी और प्रोटीनयुक्त आहार प्रमाणसर लें । आहार लेने के बाद मस्तिष्क को रक्त कम पहुँचता है, जिससे नींद सामान्यतः आने लगती है, इस कारण जितना आवश्यक हो उतना ही आहार लें । समय मिलते हलका व्यायाम कर लें । शरीर आलसी हो तो स्थूल हो जाता है । इस प्रकार मस्तिष्क में भी ऐसा है । केलक्युलेटर और कॉम्प्युटर के युग में मस्तिष्क को बहुत अधिक महेनत नहीं करनी पड़ती है। इसलिए मेमरी गेम या शब्दव्यूह रचना जैसे मस्तिष्क कि कसौटी करें ऐसे (न्यूरोबिक्स) खेल खेलने की आदत डालो। याददास्त का उपयोग न हो तो वह कम होती जाती है, इसलिये याददास्त का नियमित उपयोग करें। उदा. खरीददारी करते समय लिस्ट बनाना छोड़ दो, टेलीफोन नंबर याद रखो और मित्रों-संबंधियों की जन्मतारीख याद रखने की आदत डालो । यह हकीकत है कि याददास्त बढ़ाने के लिए कोई अक्सीर इलाज नहीं है। मस्तिष्क और शरीर के व्यायाम करने से मस्तिष्क की शक्ति बढ़ती है। शाम के खाने में भी चर्बीयुक्त पदार्थ कम लेना चाहिए । शरीर को केल्शियम योग्य मात्रा में मिले ऐसा आयोजन करो । दूध-केला और ड्रायफूट्स मुख्यतः लें । मस्तिष्क को व्यायाम की जितनी जरूरत है उतना ही आराम भी जरूरी है। पूर्णतः नींद मिलना अत्यंत आवश्यक है। नींद के दौरान भी मस्तिष्क सक्रिय होता है। पूरे दिन के अनुभवों में से गुडनाइट - शुभरात्री के लिए कारण खोज के, पोजिटिव (सकारात्मक) विचार के साथ चैन से सो जाना चाहिए । ऐसा करना कठिन नहीं है। इसके उपरांत योग और ध्यान से मस्तिष्क की कार्यक्षमता बढ़ती है। यह एक वैज्ञानिक सत्य है। मस्तिष्क की कार्यदक्षता बढ़ाने के लिए इतना अवश्य करें __ तनाव को नियंत्रित करें, तनाव से चेताकोषों में हानिकारक रसायन पैदा होते है । इस कारण मस्तिष्क के प्रति नाजूक व्यवहार रखें । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10- स्मृतिभ्रंश - मतिभ्रंश; और याददास्त बढ़ाने के उपाय ध्यान और योग से मस्तिष्क की कार्यदक्षता अवश्य बढ़ती है । इसलिये यह आवश्यक है । उचित समय नींद लें, कम निद्रा से मस्तिष्क की कार्यशक्ति और याददास्त कम होती है । तम्बाकु, शराब और दवाई की आदत मत डालो, मस्तिष्क के लिए हानिकारक है । 125 मित्र बनाएं, सामाजिक संबंध रखें । हकारात्मक अभिगम ( पोजिटिव थिंकिंग ) रखें । नियमित शारीरिक और मानसिक व्यायाम करें । विटामिन और खनिजतत्वों से भरपूर समतोल आहार लें । अधिक चर्बीयुक्त आहार कम करें । विद्यार्थियों के लिए याददास्त में वृद्धि लाने की सरल पद्धति : अभ्यास करते समय अपनी जरूरी पाठ्यपुस्तक, पेन, नोट, अन्य साहित्य साथ ही रखें, जिससे बार-बार उठना न पड़े । संभव हो तो पढ़ने का स्थान एक ही जगह रखना चाहिए । पढ़ने का कमरा शुद्ध हवायुक्त और शांतिपूर्ण हो यह जरूरी है । यह ध्यान देना चाहिए कि वहाँ टी.वी. और टेपरेकोर्डर इत्यादि सामग्री न हो । अभ्यास के दौरान एकाग्रता तोडनेवाले टेलीफोन इत्यादि से भी हो सके उतना दूर रहना चाहिए । नशा कभी भी सोते सोते या अयोग्य अंगमुद्रा में पढ़ना नहीं चाहिए । पलथी मार के बैठे या टेबल कुर्सी का उपयोग करें । 1 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ नियमित अभ्यास के लिए समयतालिका बनानी चाहिए, जिसे टेबल या दीवार पर रखें । अभ्यास समय में आपको कोई बाधा न पहुँचाए इस कारण मातापिता और मित्रों को इसकी जानकारी दें। अभ्यास शुरू करने से पहले और अभ्यास करने के बाद एक मिनिट आँखे बंद रखकर धीरे धीरे गहरी श्वास लें । मुख्यतः कठिन विषय के अभ्यास के बाद पांच मिनट के लिए गहरी श्वास लें । इससे मन की एकाग्रता बढ़ेगी। दिलसे, उत्साहपूर्वक पढाई करें, रीबोजोमल मेमरी के सिद्धांत अनुसार निम्न सूचनों से लाभ होता है : ध्यानपूर्वक प्रत्येक पेरेग्राफ पढ़ें और उसमें लिखे हुए मुद्दों को ठीक तरह याद रखें । उसी प्रकार दूसरा पेरेग्राफ पढ़ें । और थोडी देर पढ़ने के बाद पाठ्यपुस्तक एक तरफ रखकर पढ़ें हुए पाठ को याद करें । मुख्य मुद्दों को याद करके उसे लिखें तथा अन्य लोगों के साथ पढ़े हुए मुद्दों की चर्चा करें और उसके पश्चात् पढ़े हुए मुद्दों की याद किए हुए मुद्दों के साथ तुलना करें। प्रत्येक नये प्रकरण-पाठ को पढ़ने से पहले २ से ५ मिनट पीछे पढ़े हुए प्रकरण को सरसरी निगाह से याद कर लें । २४ घंटों के बाद, ७, १५ और ३० दिनों के बाद पढ़े हुए विषयों के २ से १५ मिनट के लिए केवल मुख्य मुद्दे याद करें तो किसी भी कमजोर विद्यार्थी को भी यह सही ढंग से लंबे समय तक याद रहता है - इसमें कोई आशंका नहीं है। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 स्मृतिभ्रंश मतिभ्रंश; और याददास्त बढ़ाने के उपाय 127 जहाँ संभावना हो और आवश्यकता हो (उदा. किसी एक प्रश्न के अनेक कारणों या मुछें याद रखने हो) तो नेमोनिक्स या संक्षिप्तीकरण का प्रयोग किया जा सकता है e.g. ABCD | कई लोग चित्र से (ग्राफिक मेमरी) या संगीतमय तरीके (मेलोड़ी से) से भी याद रखते हैं । यह और ऐसे प्रयोग लम्बे लिस्ट की जगह स्वयं ही अपनाने चाहिए । पाठ्यपुस्तक में महत्व के विधानों को रेखांकित करें, जिससे बिनजरूरी पढ़ने में याद रखने में समय व्यर्थ नहीं होता और आवश्यक जानकारी याद रह जाती है । - कुछ समय तक पढ़ने के बाद आँखो को पटपटाएँ, इससे आंखो की थकावट उतर जाती है। आंखो को बंद कर के हाथ की हथेली से हल्के से दबाओ, हथेली की उष्मा और शक्ति आंख को ताजगी प्रदान करती है । थक जाने तक एक ही स्थिति में रह कर न पढ़े। संभावना हो तो कमरे में एक-दो बार घूमकर, गहरे श्वास लेकर, प्राणायाम करके आवश्यक स्फूर्ति मिल सकती है । परीक्षाखंड में कठिन प्रश्न हो तब आंखे बंद रखकर पढ़ी हुई जानकारी याद करें, इससे शीघ्र ही स्मरणशक्ति जाग्रत होगी । आगे समझाया गया है कि याददास्त बढ़ाने के लिए कोई निश्चित अक्सीर इलाज नहीं है, लेकिन उपरोक्त उपायों के अनुसार पठन या अभ्यास किया जाए तो सिर्फ छात्रों को ही नहीं, लेकिन प्रत्येक व्यक्ति को निश्चित ही लाभ होगा । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ सुखियाँ • स्मृतिभ्रंश रोग में व्यक्ति की याददास्त, सोच-शक्ति और भाषा तथा व्यवहार में कमी आती है। • स्मृतिभ्रंश के कारण अनेक है, किन्तु आल्जाइमर्स और वास्क्युलर डिमेन्सिया ज्यादातर (८०%) मरीजो में पाया जाता है। • आल्जाइमर्स डिमेन्शिया में भाषा तकलीफ, याददास्त की कमी, डिप्रेशन, प्रतिदिन के व्यवहार करने में असमर्थता से बढ़कर अंत में मरीज़ संपूर्णतः परावलंबी बन जाता है। • इस रोग की निश्चित दवाईयों का संशोधन नहि हुआ है, किन्तु रोग के लक्षणों की तीव्रता घटानेवाली दवाईयाँ उपलब्ध है। मस्तिष्क की कार्यक्षमता बढाने के लिए तनाव को नियंत्रित करना, ध्यान और योग करना, पूरी नींद लेना, नशीले पदार्थों का सेवन बंद करना, शारीरिक और मानसिक व्यायाम करना, समतोल आहार लेना और पोझिटिव थिंकिंग करना अत्यंत जरूरी है । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निद्रा-विकार और उपचार (Sleep Disorders) निद्रा याने चैन की निंद प्रत्येक प्राणी के लिए खान-पान, प्रजोत्पत्ति जैसी ही एक मूलतः प्राकृतिक और प्राथमिक आवश्यकता है । हम अपने जीवन का औसतन एक तिहाई भाग नींद में गुजार देते है । निद्रा से, थके हुए हमारे शरीर को आराम मिलता है, शक्ति और उत्साह का संचार होता है, तन-मन फिर से तरोताजा और स्फूर्तिले हो जाते है । शरीर के जो कोष को घिसाव हो उसकी मरम्मत होती है, स्मृति द्रढ होती है, और हमारी शारीरिक स्वस्थता बनी रहती है । इस प्रकार निद्रा हमारे लिए कुदरत की ओर से मिली हुई अमूल्य बक्षिस भी कही जा सकती है। (स्वप्न, निद्रा की एक गूढ स्थिति है जिसे अधिकृत तरीके से पहचाना नहि जाने के कारण अभी तक पूर्णतः समझा नहीं गया है।) वैसे तो निद्रा, सभानता और बेभान अवस्था दोनों से ही अलग है । लेकिन प्रयोगों, लेबोरेटरी टेस्ट और निद्रा संदर्भ के अभ्यासों से यह जाना गया है कि निद्रा सभानावस्था का ही अन्य रूप है। हमारे जीवन में निद्रा का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, फिर भी उसकी अधिकांश उपेक्षा हुई है। निद्रा के विकार-रोगों का योग्य निदान न होने से ऐसे मरीज का संपूर्ण उपचार भी ज्यादातर योग्य तरीके से नहीं होता है । इससे जनसमुदाय की कार्यक्षमता तथा स्वस्थता में उल्लेखनीय कमी हुई है। अच्छी नींद हमें रोगो से दूर रखती है, नादुरस्त तबियत के समय आराम प्रदान करती है, तनाव के समय में भावनाशील राहत देती है । निद्रा विकार के कारण, दिन के दौरान तंद्रावस्था रहने से अधिकतर सड़क दुर्घटना भी होती है, यह सब जानते है । यदि मरीज की निद्रा संबंधित तकलीफों के वर्णन को अधिक ध्यान से समजा जाये तो उसके अधिकांश विकारों को समझा जा सकता है और उसका योग्य उपचार भी किया जा सकता है। जब मरीज को निद्रा Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ दौरान, श्वास में अवरोध होता हो या नींद में मिर्गी आती हो तब ही लेबोरेटरी में अधिक एकाग्रतापूर्वक जाँच की जरूरत पड़ती है। इस प्रकरण में निद्रा और संलग्न विकारों की संक्षिप्त जानकारी देने का प्रयत्न किया है। निद्रा की संरचना और अवस्था (Organisation and Stages of Sleep :) निद्रा मनुष्य की २४ घंटे की जैविक घड़ी (Circadian) की मूलभूत प्रक्रिया है । एक दिन में नवजात शिशु को १६ से २० घंटे, बालक को १० से १२ घंटे, दस वर्ष के बालक को ९ से १० घंटे, वयस्क व्यक्ति को ७ से ७.५ घंटे और प्रौढ व्यक्ति को ६.५ घंटे की नींद आवश्यक होती है । NREM Sleep और REM Sleep निद्रा की दो मुख्य अवस्था है । सामान्यतः व्यक्ति जब निद्राधीन होता है तब 3710 of rafa fa-(Rapid Eye Movement - REM) 3701 FETT में जाने से पहले, आंख के त्वरित नहीं ऐसी (Non-Rapid Eye Movement-NREM) निद्रा की कम से कम एक अवस्था से पसार होता है । NREM Sleep की ४ अवस्था होती है । REM तथा NREM अवस्था का चक्र समग्र निद्रा के समय में ४ से ६ बार घुम घुम कर उतने ही समय के लिए होता है । NREM अवस्था में आंखे पटपटाती है। आंख की पलकें आधी गिरी हुई होती है और उसकी पुतली छोटी हो जाती है । उसके विरुद्ध REM अवस्था में आंख के स्नायुओं के अलावा शरीर के स्नायु शिथिल हो जाते है । परंतु आंख की गोटी शीघ्रतापूर्वक गतिशील रहती है । श्वास अनियमित होता है । निद्रा का जैविक-रासायनिक पृथक्करण : कुछ प्रयोगों में जाना गया है कि निद्रा लाने में सीरोटीनीन नामक तत्त्व काम करता है, जब कि केटेकोलामाईन नामक तत्त्व जाग्रत अवस्था के लिए निमित्त है। REM अवस्था की निद्रा के लिए कोलीनर्जीक न्यूरोट्रान्समिशन महत्त्वपूर्ण है, इसी अवस्था में स्मृति द्रढ होती है। इसके उपरांत प्रोस्टाग्लेन्डीन-डी-२, मेलाटोनीन आदि निद्राप्रद उद्दीपक माने जाते है । इन उद्दीपकों की असर सामान्यतः निद्रा की NREM Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 - निद्रा-विकार और उपचार (Sleep Disorders) 131 अवस्था तक मर्यादित रहती है । कुछ निद्राप्रद-उद्दीपक रोगप्रतिकारक भी होते है। उनके रोगप्रतिकारक कार्य और निद्रा-जाग्रत अवस्था के बीच संबंध पाया गया है। रात को पीनीयल ग्रंथि में से मेलाटोनीन नामक तत्व का स्राव होता है । मेलाटोनीन के स्राव का आधार निद्रा के साथ नहीं होता क्यों कि रात को जाग्रत व्यक्ति में भी उसका स्राव होता है । प्रकाश में रेटिना की उत्तेजना के दौरान वह कम होता है। (मेलाटोनीन की वृद्धि निद्रा बढ़ाती है ।) हायपोक्रेटीन तत्त्व जागृक अवस्था के लिए महत्त्वपूर्ण है। उसकी कमी से नार्कोलेप्सी और दिन में ज्यादा निद्रा की बिमारी होती है । Fra facare ( Sleep Disorders ) : (१) अयोग्य निद्रा-(Dyssomnias): अनिद्रा, अतिनिद्रा इत्यादि (२) विक्षिप्त निद्रावस्था या विकृत निद्रा की परिस्थिति (Parasomnias) (३) दैहिक / मानसिक रोगों के कारण होने वाले निद्रा के विकार (४) अन्य विकार (१) अनिद्रा (Insomnia) : अनिद्रा शब्द ही पूर्ण सुविधा होने पर भी गहरी निद्रा न आने की स्थिति निर्देशित करता है। इस तरह की अनिद्रा में नींद न आना, नींद की अवधि के पहले जाग जाना, बार-बार जागना या पर्याप्त और गहरी नींद न आए अथवा तो इन तीनों प्रकार की परिस्थिति का समावेश होता है । १५-२५ प्रतिशत वयस्क व्यक्तिओं में यह तकलीफ होती है । आश्चर्य और दुःख की बात है कि ज्यादातर लोग इस के उपचार के लिए सजाग नहीं है। इस अनिद्रा को नीचे बताये अनुसार तीन भागों में विभाजित कर सकते है : (१) मूलतः अनिद्रा होना, जिसमें डिप्रेशन, न्यूरोसिस, मानसिक कारणों या कोई बीमारी न हो फिर भी अधिक समय तक नींद न आना। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (२) खाद्य पदार्थ की एलर्जी, स्थल की उँचाई, वातावरण की फेरबदल या नींद की शुरूआत न होनी जैसे बाह्य कारणों से अनिद्रा होना। (३) शीफ्ट में काम करना, टाईमझोन में बदलाव या सोने जागने की अनियमित पद्धति के कारण अनिद्रा होना । अनिद्रा के दुष्प्रभाव : अगर अनिद्रा का उपद्रव लंबे समय तक चले तो नये संशोधन के मुताबिक मरीज को शारीरिक और मानसिक बहुत नुकसान हो सकता है। जैसे कि अतिचिंता, निरसता (डिप्रेशन), डायाबिटिस, स्थूलता, ब्लड प्रेशर, हृदय रोग होना, मिर्गी के दौरे शुरू होना या बढ़ना, आत्महत्या की इच्छा होना या नशीली दवाई की आदत पड़ जाना । इसलिए अनिद्रा का सुआयोजित उपचार बहुत जरूरी है । अनिद्रा का उपचार : सामान्यतः बीमारी या अन्य असामान्य संयोगो में अल्प समय के लिये मुख्य दवा के साथ उपशामक या निद्राप्रद दवाई उपचार के लिये दी जाती है। जिन मरीजों को निद्रा न आती हो या निद्रा में बाधा पहुँचती हो, तो उन्हें शीघ्रता से असर करे ऐसी निद्रा की दवाई उपयोगी साबित होती है (झोल्पीड़ेम, फ्लूराजेपाम, ट्रायोज़ेलाम) । जो मरीज लम्बे समय से अनिद्रा का शिकार हो उन्हें लम्बे समय तक निद्राप्रद उपशामक दवाई नहीं देनी चाहिए। परंतु अनिद्रा का कारण ढूंढ लेना चाहिए । इस प्रकार के मरीजों को सोने के समय के साथ दिनचर्या का भी सुआयोजन करना चाहिए, दिन में शारीरिक रूप से सक्रिय रहना और सोने से तीन घण्टों पहले कुछ हलका सा व्यायाम श्रम करने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिए। तनाव से मुक्त रहना चाहिए । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 - निद्रा-विकार और उपचार (Sleep Disorders) 133 अनिद्रा के उपचार के लिए निद्रा घटायें ऐसे कारणों में बदलाव लाना चाहिए, जैसे कि : केफीनयुक्त पेय, स्टीरोइड तथा मस्तिष्क को उत्तेजित करने वाली दवाई का उपयोग नहीं करना चाहिए । तम्बाकु और बीड़ी-सिगरेट का सेवन भी अनिद्रा का कारण बन सकता है। गंभीर शारीरिक बीमारी, जैसे कि हृदय रोग, पक्षाघात, केन्सर आदि हो जाएगा, ऐसी अप्रस्तुत चिंता और भय को दूर करना चाहिए। कभीकभी अनिद्रा के उपचार करने के बाद जब दवाई बंद करते है तब अनिद्रा की बीमारी पहले से भी अधिक न बिगडे इस बात का ध्यान रखना चाहिए। (२) अस्थिर पैर और पैर का बारबार हलनचलन (restless legs syndrome and periodic leg movement ) : अस्थिर (Restless) पैर के लक्षण जैसे दिखने वाले विकार हमेशां समयसर की निद्रा में विक्षेप करते है । इस प्रकार के लक्षणों में घुटनों पर चलने से होनेवाला दर्द जैसा ही दर्द पैर के पिछले हिस्से और पिंडी में होने की शिकायत मरीज करता है । इन लक्षणों में पैरों की थोड़ी सी हलचल थोड़े समय राहत भी देती है । ऐसे तो यह लक्षण कुदरती है परंतु कभीकभी वह पेरीफेरल न्यूरोपथी (न्यूराइटिस) का संकेत करते है। इसके जैसा ही अन्य विकार अनिद्रा में बारबार पैर की अस्थिर हलचल से होता है, जिसके लिए दिन की अधिक नींद भी कारणभूत है । लोहतत्त्व की कमी (एनिमिया) से पीडित मरीजों में यह बीमारी अधिकतर देखी जाती है। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ उपचार : डोपामिनर्जिक दवाईयाँ, ओक्सिकोडोन, गाबापेन्टिन, लोहतत्त्व की कमी का उपचार (३) निद्रा में श्वास रुक जाना : (Sleep-Apnea Syndrome) उसके मुख्यतः दो प्रकार है । (a) Obstructive sleep Apnea : नींद में जोर से खर्राटे बोलना, नींद में श्वास रुक जाना और दिन में ज्यादा निंद आना ईसके मुख्य लक्षण है। जैसा कि आगे बताया गया है, निद्रा की REM अवस्था में श्वास अनियमित रहता है । कभीकभी तो श्वास १० सेकन्ड तक रूका हुआ लगता है । निद्रा की प्रारंभिक अवस्था में श्वास का, इस प्रकार का अवरोध कोई बीमारी नहीं है, परंतु कितने ही व्यक्तियों में यह श्वासावरोध बारबार होता है और वह १० सेंकन्ड से भी अधिक समय तक चलता है । श्वासोच्छ्वास में रूकावट, या तो श्वासोच्छ्वास बंद हो जाने के कारण श्वासावरोध होता है। उपरी श्वसन मार्ग (Pharyngeal airway) छोटा या दबा हुआ हो, तो ये रोग हो सकता है । सोने के बाद श्वासावरोध होता है और रक्त में प्राणवायु कम हो जाता है तथा कार्बनडायोक्साईड बढ़ जाता है । इस कारण निद्रा से भी अचानक उठ जाना पडता है और फिर श्वासोच्छ्वास सरल होने से फिर निद्रा आती है । ऐसा कई बार होने से गहरी निद्रा में विक्षेप पडता है, इस कारण मरीज दिन में अधिक निद्राधीन रहता है । अनिद्रा अधिक समय तक रहे तो मस्तिष्क की कार्य क्षमता में विक्षेप पहूँचता है, जिससे बुद्धि, व्यक्तित्व और व्यवहार में बदलाव हो सकता है । क्वचित हृदय बंध हो जाता है । समज में न आए ऐसी मृत्यु निद्रा में हो सकती है या ब्लडप्रेशर भी हो सकता Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ 11 - निदा-विकार और उपचार (Sleep Disorders) 135 है। मोटे शरीरवाले व्यक्तियों में यह लक्षण पीकवीकीअन (Pickwickian syndrome) सिन्ड्रोम के नाम से जाना जाता है। प्रौढ, पुरुषो में यह रोग ज्यादा होता है । स्थूल शरीरवाले व्यक्तिको निंद में जोर से खर्राटे आते हो तो यह रोग के बारे में सोचना चाहिए । इस रोग के निदान में पोलीसोम्नोग्राफी टेस्ट मुख्य है । उपचार : • शराब जैसे नशेयुक्त प्रवाही से नशा करना छोड़ देने से श्वसनमार्ग सरल बनता है । वज़न कम करना चाहिए। चित्त (supine) सोने की आदत छोड देनी चाहिए और मुंह में जीभ अंदर न चली जाए ईसलिये योग्य साधन का उपयोग आदि से श्वास लेने में सरलता रहती है और नाक से श्वास लेने की आदत डालनी चाहिए। दायें या बायें करवट बदल के सोने से राहत मिल सकती है। कई बार सर्जरी द्वारा भी श्वासावरोध घटाया जा सकता है। कई बार श्वासोच्छ्वास की मशीन (CPAP) तथा श्वासनली में छिद्र की भी जरूरत पड़ती है । मोडाफीनील जैसी दवाई से दिन की ज्यादा नींद कम हो जाती है। (b) Central Sleep Apnea कारण : अज्ञात कारणों से । मस्तिष्क की बीमारी (Brain stem dysfunction) । STT TEATA 37f-12FFISTOIT (Cheyne-Stokes Breathing)। ओक्सिजन की कमी (ऊँचाई पर, फेफड़े की बीमारी) । हृदय और फेफड़े से संबंधित बीमारी । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ उपचार : कारण अनुसार उपचार होता है । दवाईयाँ; श्वासोच्छ्वास की मशीन BiPAP या CPAP का उपयोग भी करना चाहिए । (४) अतिनिद्रा : दिन की निद्रा सहित अति (जरुरत से ज्यादा) निद्रा होना, जिसके कारण निम्नलिखित है । (१) निद्राप्रद दवाई, चक्कर की दवाई, डीप्रेशन की दवाई या नियमित नशीले पदार्थो के सेवन से । (२) गंभीर बीमारी । (३) ओपरेशन के बाद एनेस्थेसिया की असर । (४) डीप्रेशन - हताशा । (५) चयापचय की तकलीफ, थाईरोइड, एडिसन डिसीज । (६) मस्तिष्क का संक्रमित बुखार, वायरस, क्षार तत्त्व की कमी। (७) तंद्रावस्था । (८) दिन की अतिनिद्रा (Narcolepsy) अनियंत्रित निद्रा (Narcolepsy) : ग्रीक शब्द Narken अर्थात् झपकी आना, Leptos अर्थात् कब्जे में लेना, इसके उपरसे अनियंत्रित निद्रा (Narcolepsy) नाम दिया गया है। जिसके मुख्य चार लक्षण - दिनमें ज्यादा सोना, केटाप्लेक्सी, निंदमें क्षणिक पक्षाघात होना और विचित्र स्वप्न आना है । इसके अलावा रात की निद्रा खराब होना और अनैच्छिक व्यवहार करना भी महत्वपूर्ण लक्षण है। काफी मरीजों में यह रोग वंशानुगत होता है और जिंदगीभर रहता है। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 137 11 - निद्रा-विकार और उपचार (Sleep Disorders) (i) दिनमें अतिनिद्रा : • १५ से ३५ वर्ष की उम्र में अतिनिद्रा का विकार शुरू होता यह रोग मुख्यतः हायपोक्रे टिन नामक तत्त्व की खामी से होता है। निद्रा का समय १५ मिनिट से अधिक नहि होता और आवाज देने से या स्पर्श करने से मरीज जाग जाता है । • दिन में ऐसा कई बार होता है । (ii) केटाप्लेक्सी (Cataplexy) : कुछ सेंकन्ड के लिए भावुकता से या भारी श्रम करने से या कभी बिना कारण सभान अवस्था होने के बावजूद स्नायुओं का शिथिल होना। गिर जाना । कई बार ऐसी परिस्थिति घंटो तक रहती है। कई बार स्नायु आंशिक शिथिल हो जाते है उदा. जबड़े का लटक जाना। (iii) निद्रा आने या जाग जाने पर विचित्र भ्रम होना । (iv) कुछ मरीजों को निद्रा में अल्पजीवी पक्षाघात भी हो सकता है। पोलीसोम्नोग्राफी-मल्टीपल स्लीप लेटन्सी टेस्ट द्वारा योग्य निदान हो सकता है। उपचार : (१) १५ से २० मिनिट के लिए दिन में २ से ३ बार नियत समय पर सो जाए। (२) मस्तिष्क को उत्तेजित करने वाली दवाई - मिथाईल फेनीडेट, एम्फेटेमाईन, मोडाफोनील जैसी दवाई का योग्य प्रयोग (३) ट्राइसायक्लीक एन्टिडीप्रेसन्ट दवाईयाँ, एस.एस.आर.आई. और एस.एन.आर.आई दवाईयाँ । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (५) विक्षिप्त निद्रावस्था ( Parasomnia) : ___ यहाँ ऐसे कुछ निद्रा के विकार समाविष्ट हो सकते है, जिस में सिर्फ निद्रा में ही असामान्य व्यवहार या असामान्य तरीके से शरीर की हलचल देखने को मिलती है । यह रोग के लक्षण REM निद्रावस्था और NREM निद्रावस्था में अलग-अलग होते है । (A) निद्रा से उठते ( Arousal) समय होनेवाले विकार : - निद्रा में चलना । - निद्रा में डर का एहसास होना । (B) अर्धनिद्रा दौरान के विकार : - निद्रा में जर्क / झटके आना । निद्रा में बातें करना, बड़बडाना । - हाथ पैर की श्रेणीबद्ध हलचल होना । (c) निदा की REM अवस्था से जुड़ी हुई विकृति : - डर लगे ऐसे स्वप्न । -- निद्रा दौरान अल्पजीवी पक्षाघात । (D) विक्षिप्त निद्रावस्था के अन्य विकार : निद्रा में दांत भिडाना । निद्रा में पिशाब हो जाना । खर्राटे लेना । - निद्रा में बालक की मृत्यु होना । (SIDS) निद्रा में चलना (Sleepwalking - Somnambulism) : - बच्चों में अधिकांश देखने को मिलता है । मरीज सोते समय बैठ जाता है या पलंग के किनारे बैठ जाता है या घर में घूमने लगता है । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11- निद्रा-विकार और उपचार (Sleep Disorders) 139 यह विकार बचपन में पैदा होता है और उम्र बढ़ने से ठीक हो जाता है । वयस्क व्यक्ति में यह विकार असामान्य होता है और यह कोई मानसिक बिमारी या किसी दवा का दुष्प्रभाव हो सकता है । कभी निद्रा में चलने के दौरान गिरने से चोट लग जाने अथवा मृत्यु हो जाने जैसी दुर्घटना भी हो सकती है, अथवा तो मरीज अनजाने ही गुनाहित प्रवृत्ति में फंस सकता है । कोई भावुकताशील दुर्घटना या भय अथवा हिंसक व्यवहार हो सकता है । कभी डर लगे और हृदय की धड़कन भी बढ़ जाती है । उपचार में ०.५ या १.०० मि.ग्रा. क्लोनाझेपाम दी जा सकती है I निद्रा में डर लगना ( Sleep Terrors ) : बचपन में होता है । निद्रा की तीसरी या चौथी अवस्था में ऐसा होता है । बच्चा अचानक चौंक कर जाग जाता है और उसके श्वासोच्छ्वास गहरे और तेज हो जाते है, साथ में बालक डर जाता है । ऐसे बच्चो में नींद में चलने के लक्षण भी हो सकते है । डायाझेपाम तथा अन्य कुछ दवाई इस बीमारी को नियंत्रित रखने में सहायक है । I निद्रा में जर्क / झटके लगना ( Sleep Starts ) : निद्रा आती है तब कई चलन बिंदु उत्तेजित हो जाते है, जिससे अधिकतर जर्ड्स / झटके आते हैं और व्यक्ति जाग जाता है । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ दुःस्वप्न/ डरावने स्वप्न आना ( Nightmares) : निद्रा में REM अवस्था में होता है । मुख्यतः जब शराब या अन्य निद्राप्रद दवाई बंद करने से, REM अवस्था नियंत्रित की गई हो तब इस प्रकार के स्वप्न आते हैं ऐसे स्वप्न किसी एकाकी घटना के अनुरूप भी हो सकते है । कारण : बुखार आना, चयापचाय ठीक तरह से न होना, डरावनी बातें सुनना अथवा डरावनी टेलिविजन सिरियल या सिनेमा देखना, बारबार सिर दर्द होना, इत्यादि । • निद्रा में दाँत भिडाने ( Sleep Bruxism) : - रात में निद्रा में ही दांत भिडते हैं । - यह अपनेआप ही होता है । निद्रा में पेशाब हो जाना (Nocturnal Enuresis): - दिन में पेशाब रोक रखने से ऐसा होता है और वयस्क अवस्था में भी चालू रहता है । बच्चों में ऐसा अधिकतर होता है। सैद्धांतिक द्रष्टि से - मूत्राशय की शारीरिक विकृति होना । सामान्य व्यक्ति की तुलना में इनकी मूत्राशय की कार्यशक्ति कम होती है। ऐसे मरीजों में मूत्राशय में होने वाला दबाव सामान्य से अधिक होता है । उपचार-दवाई : - रात को सोते समय इमिप्रामीन । मूत्राशय संबंधित व्यायाम करना । गंभीर मामले में नाक में डालने की दवाई-डेस्मोप्रेसीन स्प्रे (Spray)। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 141 11 - निद्रा-विकार और उपचार (Sleep Disorders) (६) मानसिक और दैहिक परिस्थिति से संबंधित निद्रा के विकार : (A) मानसिक विकृति, मनोरोगी, चिंता, उचाट, शराब से संबंधित । (B) मस्तिष्क की विकृतियाँ, उन्माद, पार्किन्सन बिमारी, ओपिलेप्सी, स्मृतिभ्रंश से संबंधित। (C) अन्य : अनैच्छिक निद्रा की बीमारी (Sleeping Sickness), फेफड़े की बीमारी, अस्थमा, जठर में छाले पड़ना, अन्न नलिकाओं की तकलीफ इत्यादि द्वारा निद्रा में विक्षेप होना। (७) अन्य प्रकार के निद्रा-विकार : (A) कम सोने वाले (B) लम्बे समय तक सोने वाले (C) अर्धजाग्रत/ तंद्रावस्था वाले (D) निद्रा में झटके आना (E) निद्रा में अत्यंत पसीना होना (F) मासिक समय से संबंधित विकार (G) गर्भावस्था से संबंधित (H) इसके उपरांत निद्रा में होनेवाली अन्य तकलीफों में श्वास रुकना, श्वास बढ़ जाना, आवाज आना इत्यादि । इस प्रकार निद्रा के इतने सारे विकार होने के बावजूद निद्रा इन रोगों की जननी है, ऐसा मानने की गलती नहि करनी चाहिए । निद्रा मनुष्य को हकीकत में हकारात्मक स्वास्थ्य देनेवाली, शरीर को आराम देनेवाली और शक्ति का पुनः संचार करने वाली है । परमात्मा ने हमें निद्रा के रूप में उत्तम भेट दी है, सिर्फ उसका योग्य जतन करना चाहिए और हमने आगे देखा कि अधिकतर निद्रा के रोग सामान्य है, गंभीर Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ नहीं है और मिट सकते है । इसका समयसर इलाज हो सके इसलिए जागृति के लिए यह प्रकरण लिखा गया है । आशा है कि इससे लोगों की निद्रा प्रवृत्ति में योग्य सुधार होगा और इससे संबंधित रोगों का योग्य और समयसर इलाज होगा। (सुर्खियाँ मनुष्य जीवन में निद्रा का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। नवजात शीशु को १६-२० घंटा, बालक को १०-१२ घंटा, युवान को ७-७.५ घंटा और प्रौढ़ व्यक्ति को ६.५ घंटो की नींद की आवश्यकता होती है । अनिद्रा, अस्थिर पैर, प्रगाढ निदा में श्वासावरोध, अतिनिद्रा, केटाप्लेक्सी, विक्षिप्त निदा, निदामें चलना, निद्रा में डर लगना, निद्रा में झटके आना, दुःस्वप्न आना, निद्रामें दांत भीडना, निद्रा में पेशाब हो जाना, मानसिक विकृति, उन्माद, स्मृतिभ्रंश, अनैच्छिक निदा की बिमारी वगैरह निद्रा से जुड़े हुए विकार है । अधिकतर निद्रा के रोग सामान्य है, गंभीर नहि है और समयसर इलाज करने पर स्वस्थता आ सकती है। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ) मस्तिष्क की संक्रमित बीमारिया S Infections मस्तिष्क शरीर के हृदय जैसे अन्य अंग की तुलना में कई बार अति शीघ्रता से और कई बार संक्रमित बीमारी का भोग बनता हैं । विशेषतः मस्तिष्क का टी. बी., मस्तिष्क का पायोजनिक मेनिन्जाइटिस, मस्तिष्क में मवाद की गांठ (एब्सेस), मस्तिष्क का एन्सेफेलाइटिस (वायरस संबंधित), मस्तिष्क का जहरी मलेरिया और अन्य परोपजीवी जंतुओ से होनेवाला संक्रमण, जैसे कि सिस्टिसरकोसिस, मस्तिष्क में होती फफूंद, जातीय रोग संबंधित संक्रमित बीमारियाँ जैसे कि एईड्स आदि । इस तरह अनेक प्रकार के जंतु से मस्तिष्क संक्रमण बीमारी का शिकार बनता है। मुख्यतः कान या नाक में सडन हो या मवाद निकलता हो, गला संक्रमित हुआ हो, मुँह पर संक्रमित फफोले हुए हो, शरीर के अन्य भाग जैसे कि छाती में मवाद हुआ हो अथवा सेप्टिसीमिया हुआ हो तो मस्तिष्क में संक्रमण की संभावना रहती हैं । इसके उपरांत हेड इन्जरी याने सिर पर चोट लगना और विशेषतः कान, नाक में से रक्त निकला हो या फेक्चर हुआ हो, तब मस्तिष्क का पानी (CSF) नाक में से बाहर आता है, जिसे सी.एस.एफ. राइनोरिआ कहा जाता है अथवा तो मस्तिष्क का किसी कारणवश ऑपरेशन हुआ हो (जैसे कि मस्तिष्क की गांठ का) और शरीर की रोग प्रतिकारक शक्ति कम हुई हो तब मस्तिष्क में संक्रमण की संभावना बढ़ जाती है । इस कारण से सिरदर्द, बुखार, मिर्गी आने जैसे चिह्नो से लेकर पक्षाघात, बेहोशी छाना या मृत्यु होना जैसे खतरनाक परिणाम आ सकते है। इन सभी बीमारियों के बारे में लिखना संभव नहीं है, लेकिन अत्यंत महत्वपूर्ण बीमारियों के बारे में जानेंगे। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (१) मस्तिष्क का टी.बी. : सामान्यतः मस्तिष्क का टी. बी. शरीर के अन्य भाग या छाती या पेट के टी.बी. में से फैलता है । ऐसा भी होता है कि छाती का टी.बी. बहुत पहले हुआ हो और अब शरीर को तकलीफ हुई हो, और शरीर की रोगप्रतिकारक शक्ति कम हो गई हो, तब मस्तिष्क का टी.बी. होने की संभावना रहती है। अपने देश में टी.बी. इतना ज्यादा प्रचलित है कि अधिकांशतः लोगों में टी.बी. के जीवाणु कभी न कभी हवा और दूध आदि से शरीर में प्रवेश कर चूके होते है, और उसके प्रतिभाव स्वरुप की एलर्जी शरीर में ही रह जाती है। इसमें से जब भी किसी कारणवश मस्तिष्क का टी.बी. | शरीर की रोग प्रतिकारक शक्ति कम होती है या शरीर कमजोर पड़ता है, तब बीमारी का प्रारंभ होता है । एईड्सवाले मरीजों को असंख्य जंतुओ का संक्रमण लग सकता है, इसमें भी टी. बी. मुख्य हैं । मस्तिष्क के आवरणों में टी. बी. का संक्रमण हो तब उसे टी. बी. मेनिन्जाइटिस कहा जाता है। मस्तिष्क में टी. बी. की गांठ हो तो उसे ट्युबरक्यूलोमा कहा जाता है । मस्तिष्क में कोर्टेक्स का संक्रमण हो तो उसे एन्सेफेलाइटिस ( एन्सेफेलोपथी) कहा जाता है । इस रोग के लक्षण में सिर दर्द होना, हल्का सा बुखार आना, उल्टी होना, भूख न लगना, अशक्ति या बैचैनी आना... यह सब प्रारंभिक लक्षण है। उसके बाद मिर्गी आती है । एक या अधिक अंगो में पक्षाघात की असर होती है और बीमारी बढ़ जाए तो मस्तिष्क में सूजन आने से मरीज बेहोश हो जाता है या मृत्यु होती है। इसके उपरांत मस्तिष्क में बड़ी या छोटी रक्त नलिका बंद हो जाये तो उसे टी. बी. एन्डआरटराईटीस कहा जाता है Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 - मस्तिष्क की संक्रमित बीमारियाँ (CNS Infections) 145 जिससे पक्षाघात भी हो सकता है। मस्तिष्क प्रवाही (सी.एस.एफ.) की थेलीओं में प्रवाही का मार्ग अवरुद्ध हो तो हाइड्रोसीफेलस होता है, जिससे थेलीयाँ फूल जाती है और मरीज होश खो बेठता है या आँख की द्रष्टि भी खो बैठता है। करोड़रज्जु और रीढ़ की हड्डी में टी. बी. की असर हो तो पैर का पक्षाघात हो सकता है । • निदान : इस बीमारी के निदान के लिए मरीज की विधिवत संपूर्ण जाँच और आवश्यक टेस्ट करवाये जाते है । कमर के पानी की जाँच (लम्बर पंक्चर) मस्तिष्क की संक्रमित बीमारी के निश्चित निदान के लिए लगभग अनिवार्य प्रक्रिया है । मस्तिष्क के टी. बी. मेनिन्जाईटीस में कमर के पानी की जाँच में प्रोटीन ज्यादा और शर्करा (सुगर) कम और लिम्फोसाइट नामक श्वेत कण अधिक मात्रा में आते है । इसके उपरांत कुछ मुश्किल केस में सी.एस.एफ.-पी.सी.आर., सी.एस.एफ.सी.आर.पी., सी.एस.एफ.-ए.डी.ए. आदि टेस्ट के तहत भी निदान में निश्चितता लाई जा सकती है। ऐसी निश्चितता इसलिए आवश्यक है कि एक बार मस्तिष्क के टी.बी. का निदान हो जाए तो मरीज को कम से कम डेढ़ से दो वर्ष तक उपचार की जरूरत पड़ती है। कभी कभी सीटी स्कैन और एम.आर.आई. की जाँच की भी जरुरत पड़ती है । बीमारी की शरुआत में कमर के पानी के रिपोर्ट में कभीकभी वाईरस अथवा मवाद के जंतु कारणभूत हो ऐसा लगता है और तीनो में से किसी का भी योग्य उपचार करने में कमी रह जाए तो भयजनक परिणाम आ सकते हैं । इसलिए इन तमाम संक्रमित बीमारीओं की व्यवस्थित जाँच अत्यंत आवश्यक है । अंदाज लगाकर उपचार नहीं करना चाहिए, ऐसा सभी निष्णात डॉक्टर मानते है । परंतु मस्तिष्क में ज्यादा सूजन हो, श्वास अधिक हो, मरीज की सामान्य परिस्थिति अच्छी न हो ऐसे संजोग में कमर का पानी निकालना खतरा साबित हो सकता है । ऐसे वक्त में स्कैन, एम.आर.आई. तथा अन्य सहायक सबूतों के आधार पर दवाई शुरु कर देनी चाहिए। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ • दवाई : मस्तिष्क के टी. बी. की दवाई में मुख्यतः स्ट्रेप्टोमाइसिन (SM ) के इन्जेकशन, आइसोनायाझाइड़ (INH ), रिफाम्पीसीन (RF ), पायरेझीनामाइड (Pz ) तथा इथाम्ब्युटोल ( EMB ) है, जिसे प्रायमरी (प्रथम चरण की) दवाई कहते है । कुछ हठीले केस में स्पारफ्लोकसासिन या सिप्रोफ्लोक्सासिन; अथवा केनामाइसिन इन्जेकशन, इथिओनेमाईड या साइक्लोसेरिन नामक दवाई भी उपयोग में ली जाती है, जिसे सेकन्डरी (द्वितिय चरण की) दवाई कहते है। लेकिन इन सब दवाई का कोई न कोई दुष्प्रभाव संभवित है, इसलिए मरीज के लक्षण के उपरांत लेबोरेटरी जाँच से बारबार चौकसाई की जाती है । जैसे कि INH, RF या Pz से यकृत (लीवर) में कभीकभी सूजन आ सकती है और पीलिए की असर भी दिखाई देती है। इसलिए डॉक्टर SGPT/ SGOT आदि ब्लडरिपोर्ट समयसमय पर करवाते रहते हैं, और अगर रिपोर्ट ठीक न आये तो, संबंधित दवाई कुछ समय बंद करनी पड़ती है। कभी उल्टी होना, भूख कम हो जाना, RF लिया हो तो पेशाब का रंग लाल जैसा होना - यह सभी लगभग सभी मरीजों में दिखते हैं, परंतु इस वजह से दवा बंद नहीं करनी पड़ती । ४ से ६ सप्ताह में मरीज की तबियत में सुधार होने लगता है। मस्तिष्क में सूजन हो या CSF जाँच में प्रोटीन विशेष हो तो मुख्यतः स्टीरोईड दवाई ४ से ६ सप्ताह के लिए दी जाती है और यदि मस्तिष्क में बड़ी गांठ हो तो शायद बड़ा ऑपरेशन करना पडता है या नई स्टीरिओटेक्टिक बायोप्सी के छोटे ऑपरेशन द्वारा बायोप्सी के साथ छोटी गांठ हो तो वह भी निकाली जा सकती है । सामान्यतः गांठों के लिए ऑपरेशन की शायद ही जरूरत पड़ती है। दवाई के माध्यम से ही गांठ पिघलने लगती है। जिसके लिए २ से ३ महिने के बाद सी.टी. स्कैन या एम.आर.आई. जाँच करवा कर उसमें हो रहे सुधार पर नजर रखनी चाहिए । कमर के पानी की जाँच (CSF) शायद ही बारबार करनी पडती है। परंतु हठीले दर्दो में कभीकभी कमर के पानी द्वारा दवाई दी जाती है, जिसे इन्द्राथिकल स्ट से दवा दी गई ऐसा कहा जाता है । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 - मस्तिष्क की संक्रमित बीमारिया (CNS Infections) 147 जब मस्तिष्क की थेलियों में (Ventricles) में पानी का रास्ता अवरुद्ध हो और उसमें ज्यादा पानी भरने लगे तो मरीज होश खोने लगता है, चलने-बोलने, समजने में तकलीफ हो सकती है, आँखो की द्रष्टि कम हो जाती है या सिर दर्द और उलटियाँ होने जैसी तकलीफ भी हो सकती है। इसे हाइड्रोसीफेलस कहते है। और उसे सि.टी. स्कैन द्वारा निश्चित किया जा सकता है । यदि ऐसा हो तो छोटी ट्यूब खोपड़ी में से होकर मस्तिष्क की थेलिमें प्रसारित की जाती है । इसके द्वारा मस्तिष्क के पानी को पेट में चमड़ी के नीचे टनेल द्वारा ट्यूब से प्रसारित किया जाता है । इसे शन्ट डाला भी कहा जाता है । यह एक सरल ऑपरेशन है और उसके परिणाम अच्छे होते है। परंतु शन्ट अवरुद्ध हो तो तकलीफ हो सकती है। विशेषतः टी. बी. के जंतु दवाई से कंट्रोल में न आए और बीमारी बढ़ती जाए तो उसे ड्रग रेजिस्टन्स कहा जाता है। उसमें प्रायमरी दवाई असफल रहे तो सेकन्डरी दवाई उपयोग में लाई जा सकती है । फिर भी किसी केस में मरीज की रोगप्रतिकारक शक्ति संपूर्णतः खत्म हो गई हो, जैसे कि एईड्स के संक्रमित जंतु हठीले हो तो ऐसे मरीज की ज्यादा मदद नहीं हो सकती है । ओरेक्नोडाइटिस के कुछ हठीले केसों में थेलिडोमाइड नामक दवाई अच्छे परिणाम देती है । (२) पायोजनिक मेनिन्जाइटिस : टी. बी. के अलावा यह महत्वपूर्ण और जोखिमयुक्त ऐसा दूसरे प्रकार का मेनिन्जाइटिस संक्रमित जंतुओ से होता है, जो मस्तिष्क में मवाद बनाता है । यह मवाद मस्तिष्क की सपाटी के आवरणों में जल्दी से बनता है और फैलता है । इसलिए टी.बी. की तुलना में खूब जल्दी अर्थात् थोड़े ही दिनो या घंटो में मरीज की हालत बिगड़ती जाती है और अत्याधिक बुखार आना, असह्य सिर दुखना, उल्टी होना और गरदन के पीछे दर्द होना, प्रकाश सहन न होना-इस प्रकार के प्रारंभिक लक्षण के बाद थोड़े समय में बेहोशी आती है, मिर्गी आती है या योग्य उपचार के अभाव में मृत्यु भी हो सकती है। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ इन जंतुओ में मेनिन्गोकोकस, स्टेफिलोकोकस, न्यूमोकोकस, स्ट्रेप्टोकोकस, लीस्टिरिआ, एच. इन्फल्युएन्झा, स्युडोमोनास, प्रोटीअस, इ. कोलाई ऐसे विभिन्न ग्राम-पोजिटिव और ग्रामनेगेटिव स्वरूप के बेक्टेरिया होते है, जो मस्तिष्क को शीघ्रता से विविध प्रकार के नुकसान करते है; परंतु यदि तत्काल उपचार हो तो किसी भी प्रकार की दूरोगामी विकलांगता की असर के बिना मरीज एकदम ठीक हो सकता है । इसलिए किसी भी प्रकार के सिर दर्द के साथ यदि बुखार आता है तो मस्तिष्क के संक्रमण की एक उल्लेखनीय आशंका रहती है। साथ ही यदि मरीज का बोलना चलना और हावभाव बदल गया हो, मिर्गी आती हो या होश खोने की शुरुआत हुई हो तो तात्कालिक आधी रात को भी सी. टी. स्कैन कर देना चाहिए । उसे अस्पताल में दाखिल कर देना चाहिए । जरूरत पड़ने पर कमर का पानी (CSF Examination) सावधानीपूर्वक निकलवा कर, उपचार सुनिश्चित करना अति महत्वपूर्ण बनता है । यह जाँच श्रेष्ठ डॉक्टर के पास और श्रेष्ठ लेबोरेटरी में करवाना अति आवश्यक है। इससे ही मरीज के भावि उपचार के बारे में जाना जा सकता है । इसमें किसी भी प्रकार का समाधान नहीं करना चाहिए (No Compromise) । कमर के पानी (CSF) की जाँच में ऐसे मेनिन्जाइटिस में सामान्यतः सैंकडो से लेकर हजारों की संख्या में न्यूट्रोफिल्स (श्वेतकणों का एक प्रकार) होते है । प्रोटीन थोड़ा बढ़ता है और पानी में सुगर (ग्लूकोज) अत्यंत कम या नहिवत् हो जाती है । टी. बी. मेनिन्जाइटीस के कमर के पानी के रिपोर्ट से यह रिपोर्ट अलग प्रकार का होता है । इसके उपरांत ग्राम स्टेईन द्वारा माईक्रोस्कोप में अधिकतर जंतू भी निश्चिततापूर्वक जाने जाते है । इन सब बातों को ध्यान में रखकर तात्कालिक कौन सी दवाई शुरु करनी चाहिए उसका निर्णय किया जाता है । प्रत्येक केस में CSF कल्चर एन्ड सेन्सिटिवीटी टेस्ट करवाना चाहिए, जिसका परिणाम ४८ से ७२ घंटे में मिलता है और उसके अनुसार पहले ही पसंद की गई दवाई में बदलाव करने की जरूरत है या नही वह तय किया जाता है । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 149 12 . मस्तिष्क की संक्रमित बीमारिया (CNS Infections) उपरांत आवश्यकता अनुसार CSF Lactate, CSF CRP, Latex Particle Agglutination, सिरोलोजिकल टेस्ट फोर सिफिलिस, वाईरस आइसोलेशन टेस्ट, इम्युनो एसे, फन्गस के टेस्ट और टी.बी. के PCR टेस्ट भी साथ ही किये जाते है । इस प्रकार यह पायोजनिक मेनिन्जाइटिस ही है या नहीं, वह निर्णित किया जाता है और कौन से जंतू है यह भी जानकर दवाई शुरु की जाती है । • दवाई : ____ जरूरत पड़ने पर यह दवाई जैसे कि सिफेलोस्पोरिन, पेनिसिलीन, वेन्कोमाइसिन, लाईनेझोलिड, मेरोपेनम, इमिपेनम, पिपेरासिलिनटाझोबेक्टम, जेन्टामाइसिन, क्लोराम्फेनिकोल और मेट्रोनिडेझोल का उपयोग किया जाता है । यह सब उत्तम और सफल परिणामलक्षी दवाई है और त्वरित रूप से योग्य मात्रा में, योग्य संयोजनवाली दवाई के उपयोग से ८० से ८५ प्रतिशत मरीज ठीक हो जाते हैं । सामान्यतः इन दवाई को १० से १४ दिन तक एक समान ढंग से उपयोग में लाया जाता है और कल्चर के रिपोर्ट अनुसार जरूर पड़ने पर बीच में बदलाव करने पडते है । अन्ततः दूसरी बार कमर के पानी (CSF) की जाँच करके सुनिश्चित किया जाता है कि जंतू निकल चूके है, और यह पानी अब मवाद सर्जक नहीं है। उसके बाद ही दवाई बंद करनी चाहिए । यदि मस्तिष्क में थोड़ा भी संक्रमण रह गया हो और दवाई बंध कर दी जाए तो संभव है कि बीमारी थोड़े ही समय में फिर से हो सकती हैं । उस समय शायद यह दवाई अपेक्षित असर न भी करे, जिसे ड्रग रेजिस्टन्स कहा जाता है। __ मस्तिष्क में सूजन अधिक हो, एक तरफ मिर्गी या पक्षाघात का असर हो (फोकल सिम्पटम-स्थानिक नुकसानसूचक लक्षण) तो अवश्य जल्दी से सी. टी. स्कैन करवा लेना चाहिए । शायद मवाद की गांठ हो सकती है। इन केसो में अधिकतर कमर का पानी निकाले बिना भी योग्य दवाई शुरु की जाती है । आवश्यकता हो तो सक्षम न्यूरोसर्जन के पास जाकर गांठ में से मवाद खींच लिया जाता है या ऑपरेशन करवाया जा सकता है । इस प्रकार मरीज को नई जिंदगी मिलती है। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ मस्तिष्क का सूजन बढ़ना (Raised Intracranial Tension), मिर्गी आना, थेली का रास्ता अवरुद्ध होना (हाईड्रोसिफेलस), सबड्युरल ईफ्युजन या सबड्युरल एम्पायमा (मवाद की गांठ मस्तिष्क के आवरण के बीच) या ब्रेईन एब्सेस (मस्तिष्क के अंदर मवाद की गांठ)... बहरापन, मस्तिष्क की शिराओं का अवरुद्ध होना (विनस थ्रोम्बोसिस) और वास्कयुलाईटिस-यह सब कम मात्रा में होनेवाली, परंतु मेनिन्जाइटिस से होनेवाली निश्चित प्रचलित समस्याएँ है और उसका भी योग्य निदान करके त्वरित उपचार करना चाहिए । इसके उपरांत ये सभी भारी दवाई भी विपरीत असर कर सकती है, इसलिए सावधानी रखनी चाहिए । (३) फन्गल मेनिन्जाइटिस : __ मस्तिष्क में होनेवाली फफूंद (फंगस)की बीमारी को फन्गल मेनिन्जाइटिस कहा जाता है । फफूंद अनेक प्रकार का होता है। जिसमें क्रीप्टोकोक्स, कोकीडोसीस, केन्डीडा, एस्परजीलस, हिस्टोप्लाझमा, फाइकोमायसेटिस आदि है। कमर के पानी का रिपोर्ट टी.बी. जैसा होता है। परंतु अधिक सावधानीपूर्वक माइक्रोस्कोप में देखने से उसमें फन्गस मिलते है (e.g. India Ink Preparation In Cryptococcus)। यह बीमारी भी सामान्य बुखार, सिर दर्द, अशक्ति एवं बेचैनी से शुरु होती है। कई बार उसका निदान प्रारंभिक अवस्था में नहीं होता है। इस प्रकार बीमारी बढ़ जाने से बेहोशी तथा मिर्गी आने जैसे लक्षण दिखाई देते है। सामान्यतः जिस व्यक्ति के शरीर की रोगप्रतिकारक शक्ति एकदम कम हो गई हो उन्हें फन्गस की बीमारी होती है, जैसे कि केन्सर, लिम्फोमा, एईड्स, नशायुक्त दवाई की आदत, ज्यादा शराब, ज्यादा एन्टिबायोटिक या स्टीरोईड दवाई का सेवन, हर्पिस, केन्सर की केमोथेरेपी और अधिक डायाबिटीस - इन सभी संजोगो में फन्गस शरीर में फैलने लगता है। ___ कभीकभी मरीज अस्पताल में अन्य बीमारी के उपचार के लिए गया हो और टी.बी., फन्गस (फफूंद) और अन्य मवाद पैदा करनेवाली Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 - मस्तिष्क की संक्रमित बीमारिया (CNS Infections) 151 बीमारी साथ लेकर वापस आया हो ऐसा भी कभी हो सकता है । अर्वाचीन चिकित्सा उपचार पद्धति की यह एक विपरीत असर है । फफूंद के लिए मुख्यतः एम्फोटेरेसीन, फ्लूसायटोसीन, फ्लूकोनाझोल वोरीकोनाझोल, केस्पोफन्गिन और स्पारनोक्स जैसी दवाई उपयोग में ली जाती है । इन दवाई का किडनी (मूत्रपिंड), लीवर और कान पर ज्यादा दुष्प्रभाव पडता है । इस वजह से उनका उपयोग अत्यंत सावधानीपूर्वक करना चाहिए । ( ४ ) वाइरल एन्सेफेलाइटिस : यह एकदम तीव्र गति से होने वाली बीमारी है, जिसमें मरीज को बुखार आता है, व्यवहार में अचानक बदलाव आता है या डिप्रेशन होता है, प्रकाश से डर लगता है। यह सब के बाद मिर्गी की शुरूआत होती है, बाद में पक्षाघात का हमला हो जाता है और मरीज बेहोशी वाइरल एन्सेफेलाइटिस में सरक जाता है। मस्तिष्क - के कोर्टेक्स को दीमक की तरह जल्दी से खतम कर देनेवाली यह बीमारी कोषों का भी नाश करती है। कभीकभी उसका स्थायी असर शरीर में छोड़ जाती है, जैसे कि याददास्त कम होना, मिर्गी के दौरे पड़ने और व्यक्तित्व में बदलाव आना। अधिकांशतः गलसुआ का वाइरस (मम्प्स), हर्पिस सिम्प्लेक्स वाईरस (HSV-१), आर्बो वाईरस और कभीकभी वेरिसेला, एप्स्टिन बार, एन्ट वाईरस - ये सब वाईरस किसी कारणसर मस्तिष्क में प्रवेश कर ले तो वाईरस एन्सेफेलाइटिस होता है। एईड्स का वाईरस भी इस प्रकार P-13ant Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ का एन्सेफेलाइटिस पैदा करता है । कभी कुछ वाईरस सिर्फ मस्तिष्क के आवरणों को असर करते हैं, जिसे वायरल मेनिन्जाइटिस कहते है। यह बीमारी प्रमाण में हल्की है । वायरस की बीमारी अतिशय खतरनाक हो सकती है, जैसे कि हर्पिस एन्सेफेलाइटिस बीमारी में यु.एस.ए. में भी लगभग १० से ४० प्रतिशत मरीज की मौत हो जाती है । उतने ही प्रमाण में उन्हें बीमारी के आगे बताये गये दुष्प्रभाव रह जाते है । • निदान : कमर के पानी (CSF) के रिपोर्ट में प्रोटीन थोड़े ज्यादा होते है, सुगर लगभग नोर्मल होती है और लिम्फोसाइट्स नामक श्वेतकण अधिक होते है । इम्युनोलोजिकल टेस्ट द्वारा अधिकांशतः वायरस की उपस्थिति जानी जाती है। जैसे कि CSF-HSV टेस्ट । कभीकभी CSF-PCR टेस्ट द्वारा यह तय किया जाता है । योग्य केस में एम.आर.आई. या सी.टी. स्कैन अथवा ई.ई.जी. किया जाता है। यदि इस बीमारी का सही निदान हो जाए तो तात्कालिक कुछ दवाई से जिन्दगी बचाई जा सकती है और विकलांगता से दूर रहा जा सकता है। उदाहरण के तौर पर हर्पिस एन्सेफेलाइटिस में एसाइक्लोविर (झोविरेक्ष, वीर, एसीवीर) के इन्जेकशन दिये जाते है । प्रत्येक दवाई की तरह इस दवाई का दैनिक डोज़ और उसे कितनी बार लेना वह निष्णात डॉक्टर ही तय करते है। हालांकि इसकी विपरीत असर ज्यादा नहीं है, फिर भी सतर्क रहेना आवश्यक है। इसके अलावा सी.एम.वी. जैसे अनेक दूसरे वायरस मस्तिष्क को एक या दूसरी तरह से तकलीफ पहुँचा सकते हैं । जिसका विवरण जगह की कमी के कारण यहाँ करना संभव नहीं है । इसी प्रकार मस्तिष्क के अन्य वायरस जिसे स्लो-वायरस कहा जाता है, वह क्रमशः महिने और वर्षों में मस्तिष्क के कोषों का नाश करते है। इसमें एस.एस.पी.ई. Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 - मस्तिष्क की संक्रमित बीमारियाँ (CNS Infections) 153 (सबएक्यूट स्क्लेरोजिंग पानएन्सेफेलाइटिस), जेकोब-क्रुड्झफेल्ड्ट आदि मुख्य है । दुर्भाग्य वश इसमें से किसी बीमारी की दवाई उपलब्ध नहीं है । थोड़ी राहत मिले ऐसी दवाई से काम चलाना पड़ता है और अधिकांशतः ऐसे स्लो वायरस के केस में मरीज की अन्ततः मृत्यु हो जाती है। (५) फाल्सिपेरम मलेरिया : मलेरिया के जंतु सूक्ष्म जीवसृष्टि में है । परंतु वे बेक्टेरिया या वायरस से एकदम विपरीत प्रोटोजोआ समूह के हैं । यह जंतु मलेरियल पेरेसाइट (परोपजीवी जंतु) के नाम से जाने जाते है । इन जंतुओं के कुल चार उपप्रकार है। परंतु उसमें वाइवेक्स और फाल्सिपेरम मुख्य है। फाल्सिपेरम के बारे में जानने से पहले हम इस प्रचलित बीमारी के बारे में सविस्तर जानेंगे । यह मलेरियल पेरेसाईट का जीवनचक्र दो अवस्था में होता है : (१) एक अवस्था मादा एनोफीलिस मच्छर में होती है । यह अवस्था प्रजनन अवस्था के रूप में जानी जाती है । (२) दूसरी अवस्था मनुष्य के लीवर-यकृत के कोष और रक्त में स्थित रक्तकणों में होती है । यह अवस्था विकास, विभाजन और वृद्धि की अवस्था कही जाती है । एनोफिलिस मादा मच्छर मनुष्य को काटता है तब उसके डंस के साथ मलेरियल पेरेसाइट के स्पोरोजोइट्स मनुष्य के रक्त में मिलते है और थोड़ी देर में लीवर के कोषो में दाखिल हो जाते है । वहाँ उसका विकास, विभाजन और वृद्धि होती है । अन्ततः लीवर के कोष टूटते है और असंख्य मेरोज़ोइट्स रक्त में मिलते हैं । जो रक्त में तैरते हुए रक्तकणों में प्रवेश करते हैं । इस अवस्था में कुछ मेरोज़ोईट्स गेमेटोसाइट्स (नर और मादा) में रुपांतरित होते है । गेमेटोसाइट्स प्रजनन की अवस्था है। एनोफिलिस मादा मच्छर जब मलेरिया के मरीज को काटता है और रक्त लेता है तो उसके साथ ही गेमेटोसाइट्स भी उसके पेट में Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ पहुँचते है । उसमें से अन्ततः नए स्पोरोज़ोइट्स पैदा होते हैं, जो मच्छर के डंस द्वारा दूसरे मनुष्य के रक्त में मिलते हैं । रक्तकणों में प्रवेश किए हुए बाकी मेरोजोइट्स विकास, विभाजन और वृद्धि का क्रम चालू रखते हैं । परिणामतः यह रक्तकण भी तूटते है और असंख्य मेरोजोइट्स फिरसे रक्त में मिलते है तथा बाद में दूसरे रक्तकण में दाखिल होते है । वाइवेक्स मलेरिया में यह चक्र लंबे समय तक चलता रहता है । फाल्सीपेरम प्रकार में मानव शरीर में एक ही चक्र होता है । 154 वास्तव में असंख्य रक्तकणों के एक साथ तूटने-फटने से मलेरिया की बीमारी में ठंडी लगती है और बुखार आता है । बारबार मलेरिया होने के कारण जो एनेमिया होता है, ( रक्त में फीकापन, कम लोहतत्त्व हीमोग्लोबिन) उसका भी यही कारण है । इस प्रकार मादा एनोफिलिस मच्छर और मनुष्य के बीच अपना आना-जाना चालू रखकर मलेरियल पेरेसाइट्स अपना और साथ ही मलेरिया की बीमारी का अस्तित्त्व और जीवनचक्र बनाए रखते हैं । इस प्रकार संक्रमित मच्छर काटने के बाद ८ से १४ दिन के बाद ही मलेरिया का बुखार होता है । मलेरिया के लक्षण : मलेरिया के हमले की तीन अवस्थाएँ हैं : (१) प्रारंभ में मरीज़ थरकन या सख्त कंपन का ( चारपाई भी हिल जाए उस प्रकार का ) अनुभव करता है । I (२) कंपन शांत होते ही बुखार चढ़ता है और गर्मी लगती है। (३) कुछ समय के बाद बहुत पसीना होने के बाद बुखार उतर जाता है । मरीज को कमजोरी महसूस होती है । फिर तीसरे दिन (वाइवेकस प्रकार मे) ऐसा ही हमला होता है । इसके साथ सिरदर्द, शरीर में दर्द, उल्टी, डकार के साथ हल्की खांसी भी रहती है । कुछ केस में होठ पर फफोले भी होते हैं ( हर्पिस सिम्प्लेक्स लेबियालिस) । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 - मस्तिष्क की संक्रमित बीमारिया (CNS Infections) 155 विशेषतः फाल्सिपेरम नामक मलेरिया असामान्य प्रकार के कई चिन्हों के साथ हो सकता है । बुखार की लय अनिर्णित होती है, फाल्सिपेरम मलेरिया को जहरीला मलेरिया भी कहते है । इस प्रकार मलेरिया के जीवाणु प्रत्येक अवस्था के रक्तकणों में संक्रमण पैदा करते है (वाइवेक्स सिर्फ नयें (युवान) रक्तकणों को ही संक्रमित करते है)। १-२ प्रतिशत रक्तकणों पर असर होता है । इस प्रकार इस मलेरिया का संक्रमण रखने वाले रक्तकणों की संख्या बढ़ जाती है और इसके साथ . साथ एनिमिया भी अधिक मात्रा में होता है । संक्रमित रक्तकण रक्त की छोटी नलिकाओं (capillaries) में जमा होते है और नलिका बंद हो जाती है । परिणामतः मरीज़ बेहोश हो जाता है (सेरेब्रल मलेरिया) या किडनी खराब हो जाती है, अधिक दस्त होते है । उपरांत पीलिया होना, श्वासोच्छवास में तकलीफ और ब्लडप्रेशर कम हो जाना जैसी जानलेवा बीमारियाँ भी हो सकती है। . सामान्यतः वाइवेक्स मलेरिया में क्लोरोक्वीन की गोलियों का उपयोग होता है । फाल्सिपेरम मलेरिया में उपचार की अक्सीर दवा क्विनाइन है । वह १० मिलीग्राम/किलो प्रति ८ घंटे पर १० दिन तक दी जाती है । यह दवाई का दुष्प्रभाव मुख्यतः हृदय पर होता है । यह दवाई हमेशां डॉक्टर की सलाह अनुसार और उनकी देखरेख में ही लेनी चाहिए । केस गंभीर हो तो प्राथमिक अवस्था में क्विनाइन नस में ग्लूकोज के साथ दिया जाता है । मरीज मुँह से गोली ले सकता हो तब गोलियों का प्रयोग किया जाता है । फाल्सिपेरम मलेरिया में इस दवाई का असर न हो ऐसा भी पाया गया है। ऐसे वक्त पर आर्टिस्यूनेट, आर्टेथर, मेफ्लोक्वीन, जैसी दवाई का प्रयोग करना पड़ता है । इसके उपरांत पायरीमेथेमाइन, टेट्रासाइक्लिन और डोक्सिसायक्लिन दवाई भी कम गंभीर केसो में उपयोग की जा सकती है। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ • निदान निश्चित करने हेतु रक्त की जाँच : सावधानीपूर्वक रक्त की जाँच की जाए तो सामान्यतः रक्तकणों में मलेरियल पेरेसाइट्स (एम.पी.) देखे जाते है । फाल्सिपेरम में मलेरियल पेरेसाइट की संख्या अधिक होने से वह रक्त की जाँच से सरलतापूर्वक देखे जा सकते है। लेकिन वाईवेक्स प्रकार में एम.पी. कम होने से, वह नहीं भी दिखता हैं । क्यू.बी.सी. प्रकार की जाँच से अधिक सफलता मिल सकती है । इसलिए बुखार हो तब रक्त लेना ज्यादा इच्छनीय है। परंतु वह बाद में भी लिया जा सकता है । कभीकभी दो-चार क्लोरोक्विन की गोली लेकर आए हुए मरीज की रक्त की जाँच में कुछ भी नहीं मिलता है। ऐसे केस में लक्षणों को ज्यादा महत्व दे कर उपचार पूर्ण करना पड़ता है। लक्षणों से मलेरिया की संभावना ज्यादा लगे तो उसका संपूर्ण उपचार करना पड़ता है, फिर भी बुखार न उतरे तो उसका अन्य कोई कारण ढूँढने की ज्यादा कोशिश करनी चाहिए और बाद में वह कारण अनुसार इलाज करवाना हितकारक रहता है। (६) न्यूरोसिस्टिसरकोसिस : पेरेसाइटिक बीमारियों में एक अत्यंत प्रचलित और चिकित्सको को भी परेशान करने वाली यह ऐसी बीमारी है, जिसमें मस्तिष्क के सी.टी. स्कैन में टी.बी. जैसी गांठ (ring enhancing lesions) देखी जाती है । ऐसा माना जाता है कि अपने देश में युवा व्यक्तिओ में मिर्गी (फिट) आने का न्यूरोसिस्टिसरकोसिस सबसे महत्त्वपूर्ण कारण Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 - मस्तिष्क की संक्रमित बीमारिया (CNS Infections) 157 सिस्टिसरकस नामक पेरेसाइट है, जो मांस को खाने से हो सकता है, या सलाड को बिना धोए खाने से हो सकता है । इसमें मिर्गी (फिट) रोकने की दवाई उपरांत रोग नाबूद करने के लिए न्यूरोलोजिस्ट आल्बेन्डेजोल या प्रेजिक्वोन्टाल नामक दवा जरूरी मात्रा में देते हैं । मांस नहि खाना चाहिए और सलाड घोकर और हो सके तो कच्चा नहि लेकिन उसे थोड़ी धीमी आँच पर गरम करके खाना चाहिए, जिससे यह अतिप्रचलित बीमारी फैलने से रूकती हैं। (७) टीटेनस (धनुर्वा) : यह रोग क्लोस्ट्रीडियम टीटेनी नामक ग्रामपोजिटिव जंतु से पैदा होनेवाले जहरीले द्रव्य से होता है । यह जंतु शरीर के घाव में से अंदर प्रवेश करते है। यह जहरीला द्रव्य (एक्सोटोक्सिन) स्नायु और नसो की उत्तेजना पैदा करता है और उससे टीटेनस पैदा होता है । उसमें स्नायु जकड़ जाते है, जबड़े ठीकसे खुलते नही (lock Jaw) है । मुँह, गरदन और पीठ के स्नायु जकड़ जाते है । प्रारंभ में सामान्य तकलीफ से लेकर अन्ततः समय जाते दिनब-दिन ऐसी परिस्थिति का निर्माण होता है कि स्नायु सतत उत्तेजित रहते हैं । झटके (spasm) आते है और अंततः श्वास तथा गले के स्नायुओं पर असर होता है । कभीकभी सिर्फ घाव तक ही टिटेनस सीमित रहता है। उसमें मरीज की स्थिति में सुधार होने की ज्यादा संभावना रहती है। परंतु शरीर में सभी जगह फैले हुए टीटेनस में मृत्यु का प्रमाण ट्रीटमेन्ट कराने के बाद भी लगभग ६० प्रतिशत तक पहुँचता है। उपचार : एन्टी टीटेनीक सीहल (३००० से १०,००० युनिट) से ट्रीटमेन्ट की शुरुआत की जाती है । जख्म को ठीक से साफ कर आसपास में सर्जिकल ड्रेसिंग किया जाता है लेकिन हो सके तो ड्रेसिंग खुल्ला रखना Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ चाहिए । पेनिसिलीन इस बीमारी की अकसीर एन्टिबायोटिक है । जो १० से १४ दिन तक दी जाती है । पेनिसिलीन की एलर्जी हो तो टेट्रासायक्लिन दिया जा सकता है । 158 मरीज को अंधकारयुक्त कमरें में रखकर, झटके के दौरे को रोकने के लिए सतत डायाझेपम बोतल में औषधि के रुप में योग्य मात्रा में नस में या स्नायुमें इन्जेक्शन के रुप में दिया जाता है । कभीकभी वेन्टिलेटर पर रखकर न्यूरोमस्कयुलर ब्लोकिंग भी किया जाता है । अनैच्छिक सिस्टम की अनियमितता के कारण ब्लडप्रेशर में चढाव - उतार, बुखार और हृदय की समस्या भी हो तो, उसका सावधानीपूर्वक उपचार करना चाहिए । टीटेनस रोकने के लिए टीकाकरण : यह एक बहुत महत्वपूर्ण और आवश्यक प्रक्रिया है जिससे अनेक जिंदगियां बच सकती है । दो महिने से अधिक उम्र की प्रत्येक व्यक्ति को और जिसने टिटेनस का टीकाकरण बराबर नहि करवाया हो तथा जो मरीज टीटेनस की बीमारी से तत्काल ठीक हुआ हो, उसको टीटेनस टोक्सोइड (TT) द्वारा पद्धतिसर संपूर्ण टीकाकरण करना चाहिए | TT का पहला इन्जेकशन लेने के बाद एक महिना पूरा होते ही इन्जेकशन का दूसरा डोज लेना चाहिए। उसके पश्चात् छ महिने के बाद तीसरा डोज लेना चाहिए । उसके पश्चात् प्रत्येक दस वर्ष में TT का एक बुस्टर डोज लेना होता है । गर्भवती स्त्री को एक्स्ट्रा डोज दिये जाते है । इस प्रकार टीके का संपूर्ण कोर्स करने से टिटेनस के सामने प्रतिकारशक्ति बढ़ती है । जब कभी भी जख्म हो तो TT का एक डोज फिर से दिया जाता है । यदि जख्म खराब हो तो ह्युमन टीटेनस इम्युनोग्लोब्युलिन का एक डोज (२५० Units/I.M.) दिया जाता है । टिटेनस के निवारण (Prevention) हेतु यह सामान्य मार्गदर्शन ही है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति/ केस में विभिन्न कारणों को ध्यान में लेकर उपचार का अंतिम निर्णय तो डॉक्टर को ही लेना पड़ता है । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 - मस्तिष्क की संक्रमित बीमारिया ( CNS Infections ) दुर्भाग्यवश अपने देश में अभी भी यह बीमारी ज्यादा प्रचलित है, क्योंकि अज्ञानता और गंदगी की मात्रा ज्यादा है । साथ ही गाँवो तक मेडिकल सिस्टम और सुविधाएं पर्याप्त मात्रा में विकसित तथा उपलब्ध नहि है । इस लिए नियंत्रित हो सकती ऐसी बीमारियों में भी प्रति वर्ष सेंकड़ो नागरिक मृत्यु के शरण हो जाते हैं । (८) पोलियोमायलाइटिस : 1 वायरस का यह संक्रमण एन्टरोवायरस से होता है और करोडरज्जु के एन्टिरिअर होर्न सेल का नाश कर देते हैं । कदाचित परिणामतः शरीर के अवयव जल्दी से शिथिल हो जाते है । परंतु सौभाग्यवश टीकाकरण के अभियान से यह बीमारी अब विश्वभर में से अद्रश्य हो रही है I उसकी ट्रीटमेन्ट मुख्यतः पूरक उपचार ही रहती है । कोई खास दवा नहीं होती है। छोटे बच्चो में बुखार के दौरान स्नायु में इंजेक्शन नहि देने से पोलियो के किस्से कम होते है I पल्स पोलीयो कार्यक्रम : 159 हरेक नवजात शिशु को पोलीयो की रसीका पूरा कोर्स करने के फल स्वरुप देश में से यह रोग संपूर्णतः दूर करने की दिशा में हम काफी मात्रा में सफल हुए हे । स्वास्थ्य विभाग और तबीबी विज्ञान की यह महत्वपूर्ण उपलब्धि कही जा सकती है । फिर भी, देश के दूर दूर के गांवो में कभी भी पोलीयो की खबर दैनिक पत्रो में आती रहती है । स्वास्थ्य विभाग ने इस रोग को मूलतः और हंमेश के लिए देश में से हटाने के उद्देश्य को परिपूर्ण करने के लिए पल्स पोलीयो अभियान आरंभ कीया है और उसके परिणामत: देश में से यह बिमारी को संपूर्णत: विदाय करने की दिशा में हम मंजिल की तरफ पहूंचने से कुछ कदम ही दूर है ऐसा जरुर कह सकते है । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (९) रेबीस ( हडकवा) : कुत्ता, बंदर, लौमडी और गरम रक्तवाले अन्य प्राणी तथा चमगादड़ आदि के काटने से होनेवाली और अचूक मृत्यु लानेवाली यह भयावह बीमारी वायरस से होती है । प्राणी के काटने से ३० से ६० दिन में और कभीकभी छ महिने में यह बीमारी प्रगट हो जाती है। प्रारंभ में व्यवहार में फर्क दिखता है, मरीज उत्तेजित हो जाता है और बाद में पक्षाघात आदि हो सकते है । मुख्यतः पानी देखकर वह घबरा जाता है और थोड़े समय में श्वास बंद होने से अथवा हृदय की गति बिगड़ने से मृत्यु होती है । श्रेष्ठ देखरेख या दवाई के बाद भी शायद ही कोई मरीज बचता है । इसलिए उसकी रोकथाम पहले से ही करनी अत्यंत जरूरी है। प्राणी के काटने से प्रत्येक केस में रेबीस का टीका और एन्टीसीरम का उपयोग हितकारक है। हालांकि पुराने टीकों की कुछ विपरीत असर भी है। इसलिए अब नये संशोधित रिफाईन्ड टीके (जो थोड़े महंगे है), और जो HDCV नाम से जाने जाते है, वह देना हितकारक है । इस संदर्भ में डॉक्टर की सलाह तुरंत लेनी चाहिए । उपसंहार : मस्तिष्क की इन तमाम संक्रमित बीमारियों की चर्चा से जाना जाता है कि मस्तिष्क तथा शरीर की ऐसी विभिन्न संक्रमित बीमारियाँ मंद रोगप्रतिकारक शक्ति की वजह से होती है । इसलिए रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ाने के प्रयास करने चाहिए। योग्य पौष्टिक आहार लेना, व्यायाम करना, स्वच्छता बनाए रखना, गंदगीवाली वस्तु-जगह से दूर रहना और पानी उबालकर पीना, पूरी नींद लेना आदि रोगप्रतिकारक शक्ति बनाए रखने के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। इसके उपरांत घर में या काम करने की जगह पर कुछ संक्रमित बीमारीवाले मरीजों से सावधानी रखनी चाहिए । मरीज के परिवारजनों को सावधानी के लिए डॉक्टर कभीकभी एन्टिबायोटिक अथवा अन्य दवाई देते हैं। इससे अन्य व्यक्ति की रोगप्रतिकारक शक्ति बढ़ती है, इसलिए इस प्रकार की दवाई लेने में हिचकिचाहट नहीं करना चाहिए | अधिक मानसिक श्रम Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 161 12 - मस्तिष्क की संक्रमित बीमारिया (CNS Infections) नहीं करना चाहिए और ज्यादा मानसिक थकान न आए उसका भी ध्यान रखना चाहिए । एईड्स को रोकने के उपायो के बारे में इसके बाद के प्रकरण में पढेंगे । उसमें बताएँ अनुसार सावधानी रखनी चाहिए । बाहर के अस्वच्छ और खराब गुणवत्तावाले आहार और प्रवाही से दूर रहना चाहिए । अंत मे, अंग्रेजी कहावत "Prevention is better than cure" (रोग को रोक लेना रोग के उपचार से ज्यादा अच्छा है), याद रखनी चाहिए । (सखियाँ • मस्तिष्क शरीर के अन्य अंगो की तुलना में कई बार अति शिघ्रता से संक्रमित बिमारी का भोग हो सकता है । विशेषत: मस्तिष्क का टी.बी., पायोजनिक मेनिन्जाइटिस, मवाद की गांठ, एन्सेफेलाइटीस, जहरी मेलेरिया, सिस्टिसरकोसिस, वगैरह रोग संक्रमण से होते है । • मस्तिष्क के आवरणों में टी.बी. का संक्रमण हो तब उसे टी.बी. मेनिन्जाइटिस कहा जाता है । मस्तिष्क के कोर्टेक्स में संक्रमण हो तो उसे एन्सेफेलाइटिस कहा जाता है । • स्ट्रेप्टोमाइसीन, आइसोनायासाइड, रीफामपीसीन, पाइरेझीनामाइड, इथाम्ब्युटोल, लीवोफ्लोक्सासीन, वगैरह दवाईयां टी.बी. में अक्सीर होती है। • पायोजनिक मेनिन्जाइटीसमें संक्रमित जंतु मस्तिष्क में मवाद बना कर जल्दी से फैलते है, इसलीए यह जोखिम युक्त रोग • क्रिप्टोकोकस, कोकिडोसिस, केन्डीडा, एस्परजिलस वगैरह फफूंद से मस्तिष्क में होनेवाली बिमारी को फंगल मेनिन्जाइटिस कहते है। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ वायरस एन्सेफेलाइटिस-वायरस जैसे कि, हर्पिस सिम्पलेक्स मम्प्स का वाईरस, वेरिसेला, एप्स्टिनबार, एन्टेरोवाइरस, एईड्स के वाइरस वगैरह से होता है। वाइरस एन्सेफेलाइटिस में समय पर सही निदान होने पर जिंदगी बचाई जा सकती है । • फाल्सीपेरम मेलेरिया में एनोफिलीस मादा मच्छर मनुष्य को काट कर दंश के साथ फाल्सीपेरम नामक परोपजीवी जंतु को रक्त में छोड़ देते है। सही समय पर निदान हुआ तो क्विनाइन के इस्तेमाल से जान बच सकती है। सलाड बिना धोए खाने से या मांस खाने से सिस्टिसरकस नाम के पेरेसाइट मस्तिष्क में जा कर अपना स्थान जमाते • टिटेनस में क्लोस्ट्रिडियम टीटेनी नामक जंतु शरीर के घाव से अंदर प्रवेश करते है और अत्यंत जहरीले पदार्थ छोडते है । इसमें ट्रीटमेन्ट कराने के बावजूद मृत्यु प्रमाण ६०% तक होता है। चेतातंत्र में एन्टेरोवाइरस के संक्रमण से पोलियोमाइलाइटिस होता है, किन्तु टीकाकरण अभियान से यह बिमारी विश्वभर से अद्रश्य हो रही है। रेबीस-कुत्ता, बंदर, लौमडी और गरम रक्त वाले अन्य प्राणी तथा चमगादड आदि के काटने से होती है। यह बिमारी होने पर शायद ही कोइ मरीज़ बच सकता है, इसलिए प्राणी के काटने पर तुरंत टीका लगवाना चाहिए । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एईड्स (चेतातंत्र पर उसकी असर) (AIDS - its effects on Nervous System) ___एईड्स अर्थात् एक्वायर्ड इम्युनोडेफिशियन्सी सिन्ड्रोम । यह रोग एच.आई.वी. अर्थात् ह्युमन इम्युनोडेफिशियन्सी वाइरस से होता है। इस वायरस के कारण शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता में कमी होने से यह (AIDS) बिमारी होती है । एईड्स एक ही रोग नहीं परंतु एक से अधिक बीमारियों के समूह को निर्देशित करता है। सामान्यतः हमारे शरीर में विभिन्न बीमारियों का मुकाबला करने के लिए दो प्रकार की रोग प्रतिकारक शक्ति होती है : (१) सेल मिडिएटेड-कोषप्रेरित अर्थात् श्वेतकणो-लिम्फोसाइट से उपलब्ध रोग प्रतिकारक शक्ति (२) ह्यूमरल इम्यूनिटी अर्थात् एन्टिबोडी से उपलब्ध क्षमता । एच.आई.वी. विषाणु रक्त में रहने वाले टी-लिम्फोसाइट प्रकार के श्वेतकणों को संक्रमित कर के उनकी संख्या और क्षमता घटाते है। शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता का मुख्य आधार श्वेतकण है । वह कम होने से शरीर की रोगप्रतिरोधक शक्ति क्रमशः घटती जाती है । उसके कारण जो सूक्ष्म जीवों से अन्य तंदुरस्त मनुष्य को संक्रमण नहीं होता, उन्हीं सूक्ष्म जीवों से एईड्स बीमारीयुक्त व्यक्ति आसानी से संक्रमित हो सकता है । एईड्स किस प्रकार प्रसरता है : (१) सजातीय या विजातीय संभोग से । (२) एच.आई.वी. संक्रमित व्यक्ति का रक्त अन्य मरीज को देने से। एच.आई.वी. संक्रमित माता से गर्भावस्था दौरान उसके बच्चे को, प्रसूति के समय और प्रसूति के बाद स्तनपान द्वारा यह संक्रमण होने की ३० से ४० % संभावना रहती है। (३) । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (४) इंजेक्शन की सुई, सिरिंज तथा अन्य ऑपरेशन के उपकरणों से। (५) नस द्वारा नशीले द्रव्यों का सेवन करनेवाले व्यक्तिओं के जूथ में अगर एक भी व्यक्ति रोगिष्ट हो तो एक ही सुई का सामूहिक प्रयोग यह रोग को जन्म देता है। __ एईड्स के संक्रमण के विषय में आज भी कई गलतफहमीयां हैं, जैसे कि मरीज के साथ रहने से, उनसे हाथ मिलाने से, खेलने से और खाने से इस रोग का संक्रमण होता है । यह मान्यता गलत है। इतना ही नहीं यह रोग आहार, पानी, जंतु, मल या हवा से नहीं फैलता है । इस कारण एईड्स के मरीज के सामाजिक संपर्क से डरना नहीं चाहिए, बल्कि उन्हें अधिक प्यार और सामाजिक स्वीकृति मिले उस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए । • एईड्स प्रसरने से रोकने के लिये इतना ध्यान रखें : १. इंजेक्शन लेने के लिए बाजार में मिलनेवाली डिस्पोजेबल सिरिंज-सूई का उपयोग करें तथा सामान्य बीमारी में इंजेकशन लेने से बचें । अपरिचित व्यक्ति के साथ शारीरिक संबंध न बनाएँ या तो कॉन्डोम का उपयोग करें । ३. अगर रक्त लेने की परिस्थिति हो तो एच.आई.वी. की लेबोरेटरी-जाँच करवा कर ही रक्त को उपयोग में ले । संभवत: स्नेहीओं का रक्त मिल सके तो अधिक अच्छा है। व्यावसायिक रक्तदाताओं से रक्त न लें । दाढ़ी करने स्वयं का रेज़र तथा ब्लेड अलग रखें, दूसरों का रेज़र-ब्लेड उपयोग न करें । एच.आई.वी. ग्रस्त महिला द्वारा उसके बच्चे को बीमारी होने की संभावना को निम्न समझाए गयें उपायों से बचा जा सकता है: (क) एच.आई.वी. की दवाइयाँ (एन्टिरीट्रोवायरल) दें। यह दवा डॉक्टर की सलाह अनुसार ही दें । ४. Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 165 13 - एईड्स (चेतातंत्र पर उसकी असर) (ख) प्रसूति के दौरान ध्यान रखें । (ग) बच्चे को स्तनपान न कराएँ । (घ) बच्चे को ४५ दिनों तक झीडोवुडीन (Zidovudine) सप्रमाण डोज में दें । इन उपायो से बच्चों में संक्रमण होने की संभावना ५ प्रतिशत से भी कम हो जाती हैं । • एईड्स के लक्षण : (१) प्रथम बीमारी ६ से ८ हफ्ते में होती है । इसमें मरीज को बुखार आना, हाथ-पैर के स्नायुओं में दर्द होना, लसिकाग्रंथि पर सूजन आना, त्वचा पर लाल चाठे पड़ना, गले में सूजन आना । यह लक्षण से मरीज़ एक हफ्ते में बिना दवाई ठीक हो जाता है । यह प्रथम बीमारी को एक्युट सिरो कन्वर्जन इलनेस कहते हैं । यह प्रथम बिमारी के बाद एच.आई.वी. की जाँच पोझिटिव होती है । शुरुआत के ६ से ८ महिने के दौरान एच.आई.वी. की लेबोरेटरी-जाँच में नकारात्मक परिणाम बताते हैं, लेकिन मरीज अपना संक्रमण यह समय दौरान अन्य व्यक्ति को फैला सकता है। यह समय को विन्डो पीरियड कहते हैं । यह प्रथम बीमारी के बाद मरीज़ बिना चिन्ह की एच.आई.वी. वाहक अवस्था में प्रवेश करता है । यह अवस्था ५ से १० वर्ष जितनी लंबी हो सकती है। यह अवस्था का समय मरीज की तंदुरस्ती, आदतें इत्यादि पर आधारित हैं। (३) यह अवस्था के बाद मरीज में रोग के अनेक चिहन दिखते हैं, जिसमें लसिकाग्रंथि का फूलना, बारबार या लगातार बुखार रहना, मुँह और गले में छाले पड़ना, आहार कम होना, लंबे समय तक खांसी आना, बारबार दस्त होना वजन कम होना इत्यादि है। यह लक्षण मरीज़ में बार बार या लगातार रहे तो उसके रक्त की एच.आई.वी. जाँच करवाने से निदान हो सकता हैं । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ विश्व आरोग्य संस्था (WHO) द्वारा एच.आई.वी. (Human Immunodeficiency Virus) हेतु निश्चित मुख्य लक्षणों अनुसार : १. एक महीने से अधिक समय के लिए बुखार. २. एक महीने से अधिक समय के लिये दस्त और वजन में १० % से अधिक कमी होना ।। उपरांत खांसी आना, शरीर में खुजली होना, मुँह, गले अथवा गुदा या गुप्त भाग में छाले होना, दो-तीन जगह में लसिकाग्रंथि का फूल जाना, या बारबार हर्पिस झोस्टर हो तो एच.आई.वी. परिक्षण करवाना चाहिए। एईड्स के रोग में न्यूरोलोजिकल सिस्टम अर्थात् मस्तिष्क और चेतातंत्र में लक्षण-चिह्न दिखते हैं । ऐसा कहा जाता है कि एईड्स के ३३ % मरीजों को स्पष्टतः न्यूरोलोजिकल बीमारी होती है और प्रत्येक मरीज के मस्तिष्क या चेतापेशी में थोड़ा बहुत नुकसान तो होता ही है । लेबोरेटरी परीक्षण : मरीज के शरीर में एच.आइ.वी. के जंतु की उपस्थिति एलीसा ELISA टेस्ट द्वारा जानी जा सकती हैं । यह टेस्ट स्क्रिनिंग टेस्ट हैं । अगर इस टेस्ट में एच.आइ.वी. की उपस्थिति (पोजिटिव) देखने को मिले तो उसे 'वेस्टर्न ब्लोट' (Western Blot) टेस्ट द्वारा सुनिश्चित करना जरूरी हैं । संक्रमण होने के बाद अधिकतर ६ हफ्ते से ६ महिने में इस टेस्ट द्वारा मरीज के शरीर में एच.आइ.वी. की उपस्थिति के बारे में जाना जा सकता हैं । लेकिन शुरुआत के इस समय दौरान (Window Period) यह टेस्ट नेगेटिव या इनडिटरमिनेट (अनिश्चित) परिणाम दर्शाता हैं । मरीज के रक्त में वाईरस की मात्रा और CD4 नामक कोषों की संख्या (जिससे शरीर की रोग-प्रतिरोधक क्षमता जानी जा सकती हैं) विभिन्न परीक्षण द्वारा जानी जा सकती हैं, जो मरीज के उपचार में उपयोगी हैं। अगर यह काउन्ट १०० से कम हो तो मृत्यु नजदीक है ऐसा देखा गया है । इसके अलावा वाइरस लोड टेस्ट द्वारा बीमारी को कितना नियंत्रित किया गया है यह जान सकते हैं । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 167 13 - एईड्स (चेतातंत्र पर उसकी असर) मस्तिष्क और चेतातंत्र के एईड्स संबंधित रोगों को मुख्यतः पाँच हिस्से में बाँटा जा सकता हैं : (१) मस्तिष्क में एन्सेफेलाइटिस, हर्पिस सिम्प्लेक्स, वेरिसेला झोस्टर इन्फेक्शन, एईड्स डिमेन्शिया (याददास्त की बीमारी) कोम्प्लेक्स, मस्तिष्क के चयापचय संबंधित रोग, मस्तिष्क का टी.बी., लिम्फोमा, टोक्सोप्लाझमोसिस, पी.एम.एल., मवाद की गांठ, मस्तिष्क में सिफिलिस, मस्तिष्क में फफूंद इत्यादि रोगों द्वारा अत्यंत एच.आई.वी. एन्सेफेलाइटिस _ हानि हो सकती हैं। (२) स्पाइनल कोर्ड (करोड़रज्जु) में सूजन अर्थात् माइलाइटिस, माइलोपथी इत्यादि बीमारियाँ हो सकती है, जिससे मरीज का हलनचलन स्थगित हो जाता है । (३) मस्तिष्क के आवरणों अर्थात् मेनिन्जिस में संक्रमण होने से मेनिन्जाइटिस हो जाता हैं । उसमें टी.बी., सिफिलिस या फफूंद के जंतु हो सकते हैं, जिसके कारण मरीज बेहोश हो सकता हैं, मिर्गी आ सकती है या पक्षाघात हो सकता हैं। ___ (४) चेताओं-ज्ञानतंतुओ में सूजन आने से न्यूराइटिस हो सकता है जो संक्रमित जंतुओं, हर्पिस इत्यादि कारणों से होता हैं । इसके कारण पैर में जलन, चलने में तकलीफ और दर्द इत्यादि हो सकता हैं । (५) पोलिमायोसाईटिस और स्नायुओं संबंधित अन्य बीमारियाँ, जिसमें स्नायु कमजोर होते हैं । इस प्रकार एईड्स द्वारा शरीर में लसिकाग्रंथि से लेकर न्यूरोलोजिकल सिस्टम तक कई रोग हो सकते हैं । हृदय संबंधित बीमारीयाँ एईड्स के मरीजों में बहुत कम देखने को मिलती हैं । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ उपचार : एईड्स के मरीजों का उपचार हो सकता हैं लेकिन उसे संपूर्ण नाबूद कर सके ऐसा उपचार अभी संशोधित नहीं हुआ हैं । वर्तमान दवाईयाँ तथा उपचार पद्धति से इस रोग को आगे बढ़ने से कुछ मात्रा में रोका जा सकता है । रोगप्रतिरोधक क्षमता (CD4 Count) सुधारी जा सकती हैं । एईड्स की बीमारी के वाइरस के जंतुओ को नष्ट करने के लिए तीन दवाई के संयोजन में ली जाती हैं । यह दवाई मरीज के शरीर में रहने वाले अन्य संक्रमित रोग जैसे कि टी.बी., पीलिया के वाइरस की उपस्थिति तथा मरीज के लीवर, कीडनी, मस्तिष्क इत्यादि अवयवों की कार्यक्षमता के आधार पर निष्णात डॉक्टर तय करते हैं । दवाई के कम समय के और लंबे समय के दुष्प्रभाव होते हैं । मरीज को नियमित डक्टर को मिलकर दुष्प्रभाव कम करने के लिए आवश्यक कदम उठाने चाहिए । एन्टिट्रोवायरल दवाई (ART) नियमित लेने से मरीज लंबे समय तक तंदुरस्त और स्वस्थ जीवन व्यतित कर सकता हैं । दवाई नियमित ली जाए तो उसकी असर लंबे समय तक रहती है । अगर मरीज दवाई लेने में अनियमित रहें तो दवाई असरकारक नहीं रहती है । इसलिए ऐसे केस में बीमारी नियंत्रित करने का काम बहुत कठिन हो जाएगा । इन दवाई का मासिक अंदाजित खर्च एक हजार से दस हजार रूपये जितना होता है । एच.आई.वी. संक्रमण के कारण प्राथमिक अवस्था में अधिकतर मरीज की मृत्यु नहीं होती है । यह मुख्यतः याद रखना चाहिए कि एईड्स के मरीजों की मृत्यु अधिकतर सूक्ष्म जंतु और संक्रमित जीवाणुओं से होती हैं । अगर इन दोनों जाति के जंतुओं का योग्य निदान शीघ्रता से हो और त्वरित उपचार किया जाए तो मरीज को ज्यादा लाभ हो सकता हैं । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 - एईड्स ( चेतातंत्र पर उसकी असर ) कुछ महत्वपूर्ण बाते : (१) एच.आई.वी. रोग के मरीज नियमित परीक्षण करवाऐं और नियमित दवाई लें तो वह बहुत आयु तक स्वस्थ जीवन व्यतित कर सकते है । इस रोग की दवाई सरकारी अस्पताल में मुफ्त में मिलती है । आज की तारीख में गुजरात को मिलाके बहुत सारे राज्यों के मेड़िकल कालिजों में ART Centre है । इस रोग की प्राथमिक जाँच के लिए विभिन्न VCTC Centre भी कार्यरत है । जहाँ मरीज जाँच करवा के रोग के बारे में जानकारी भी पा सकता है । 169 (२) एच.आई.वी. रोग से पीड़ित गर्भवती महिलाओं के लिए MTCT programme भी ART Centre पर कार्यरत है, जहाँ उनकी अच्छी देखरेख की जाती है । जिसमें नवजात शिशु में संक्रमण की दर कम की जा सकती है । (३) एच.आई.वी. रोग के मरीज में CRF हो जाये तो, उसमें किड़नी ट्रान्सप्लान्ट जैसे बड़े ऑपरेशन भी अच्छे परिणाम के साथ किये जा सकते है । (४) इस रोग के मरीजों की सेवा के लिए विभिन्न सरकारी, प्राईवेट तथा NGO कार्यरत है । (५) ART के आगमन के बाद इस रोग के मरीज तीन दशक तक स्वस्थ जीवन जी सकते है । इन दवाई को मेड़िकल देखरेख में ही लेनी चाहिए क्यों कि इन दवाई से विभिन्न दुष्प्रभाव हो सकते है । (६) एच.आई.वी. ग्रहित स्त्री पुरूष आपस में शादी भी कर सकते है तथा अच्छी पारिवारिक जिंदगी व्यतित कर सकते है । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ संक्षिप्त में, तात्कालिक निदान, योग्य उपचार, देखरेख, संक्रमित बीमारियों से दूर रहने की जीवन पद्धति इत्यादि द्वारा मरीज की जीवनशैली और आयु सुधारी जा सकती है । मरीज मानसिक रूप से स्वस्थ रह सकता है । इस रोग की जानकारी के लिए कुछ सरकारी अस्पताल में मुफ्त सलाह केन्द्र की सुविधा हैं और अब तो इन्टरनेट से भी यह जानकारी उपलब्ध है। सुखियाँ • एच.आइ.वी. नामक वायरस से होनेवाला यह रोग एक रोग नहि परंतु अधिक बिमारियों के समूह का निर्देश करता है, जो शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता की कमी के कारण होता है। हर एच.आई.वी. पोझीटीव व्यक्तिको एईड्स हो ये जरूरी नहीं हैं। एईड्स कई प्रकार से फैलता है, उसमें से मुख्य है - सजातीय या अनैतिक विजातीय संभोग, रोगी अपना रक्त अन्य को दे तब, रोगी महिला गर्भावस्था में हो तो उसके बच्चे को यह रोग होने की संभावना है । इन्जेक्शन की सूई या असुरक्षित सर्जिकल उपकरण से । एन्टीरीट्रोवायरल दवाई नियमित लेने से मरीज़ लंबे समय तक तंदुरस्त और स्वस्थ जीवन व्यतित कर सकता है। इस रोग की जानकारी के लिए कुछ सरकारी अस्पतालो में मुफ्त सलाह केन्द्र है और इन्टरनेट पर भी यह जानकारी मिल सकती है। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तष्क में होने वाली गांठ (Brain Tumour) मस्तिष्क में होनेवाली गांठ (ब्रेईन टयूमर) एक गंभीर बीमारी है। उससे सम्बन्धित सही जानकारी अत्यन्त महत्वपूर्ण है । मस्तिष्क की गांठ अनेक प्रकार की होती है । उसका कद, प्रकार, स्थान, गुणवत्ता और हीस्टोलोजी के अनुसार वह अनेक सामान्य और विशेष चिह्न उत्पन्न करती है । कुछ गांठे मस्तिष्क को दीमक की तरह खा जाती हैं । कुछ मस्तिष्क को दबोचती हैं । मस्तिष्क में सूजन के (Increased Intracranial Pressure) लक्षण / चिह्न उत्पन्न होने का यह एक महत्वपूर्ण कारण है। अब सर्जिकल पद्धति में तथा एनेस्थेसिया में सुधार होने से आधुनिक स्टीरीओटेक्सिस तकनीक और माईक्रो न्यूरोसर्जिकल तकनिक बढ़ने से, रेडिमेशन तथा कीमोथेरेपी में उल्लेखनीय विकास होने से ब्रेईन-टयूमर के मरीजों का भविष्य शीघ्रता से सुधर रहा है। ब्रेईन टयूमर मस्तिष्क का प्रचलित रोग है और यु.एस.ए. जैसे - देश में प्रतिवर्ष लगभग १,००,००० लोगों को यह रोग होता है, यह संजोग में अपने देश की परिस्थिति की कल्पना करें ! उसमें से कुछ केन्सर की होती हैं, जो मस्तिष्क में से ही उद्भव होती है (प्राईमरी), जैसे की ग्लायोमा अथवा शरीर के अन्य भाग में से मस्तिष्क में फैलती (सेकन्डरी) हैं। अन्य बेईन टयूमर गांठ प्रमाण में निर्दोष Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (Benign) होती है, जैसे कि मेनिन्जिओमा, पीच्युटरी ट्यूमर इत्यादि । संक्रमित रोग से उत्पन्न होने वाली गांठे जैसे की ट्यूबरक्यूलोमा, मवाद की गांठ, सिस्टसरकोसिस, एईड्स का भी उल्लेख करना चाहिए । लेकिन उसके लक्षण, ईलाज और उपचार के प्रकार भिन्न-भिन्न होते हैं । 172 लक्षण / चिह्न : मस्तिष्क की गांठ के लक्षण क्रमशः बढते दिखाई देते हैं, जो अलग अलग तरह की गांठ की गुणवत्ता, स्थान, कद, प्रकार, विकास और सूजन पर आधारित होते है । (१) मस्तिष्क में दबाव बढ़ना ( Increased Intracranial Pressure) : प्रत्येक गांठ का कद बढ़ने से मस्तिष्क में दबाव बढ़ता है, जिससे दोनों तरफ का सिर दर्द होना, उल्टी होना, अंधेरा लगना, बेचैनी का अनुभव होना, चीजों का एक के बदले दो दिखना (Diplopia) जैसे चिह्न आते हैं। सिर दर्द के केस के सभी मरीजों को ब्रेईन ट्यूमर नहीं होता । बल्कि १ प्रतिशत केस में ही ब्रेन ट्यूमर होता है । कोई भी स्वस्थ व्यक्ति को क्रमशः सिर दर्द बढ़ता जायें तो टयूमर के विषय में निष्णात के पास जाँच करवा लेनी चाहिये । (२) गांठ मस्तिष्क के जिस हिस्से में हो उस अनुसार लक्षण दिखाई देते हैं । जिससे मरीज को क्रमशः पक्षाघात का असर भी हो सकता है। बोलने में तकलीफ होना, यादशक्ति कम होना या शरीर का संतुलन बिगड़ना, ऐसा हो सकता है । कुछ मरीजों में सिर्फ व्यक्तित्व या व्यवहार पर असर पड़ता है । मल-मूत्र त्याग अनियंत्रित हो जाता है । (३) मिर्गी आना अथवा बेहोश होना यह भी एक महत्वपूर्ण लक्षण है । मिर्गी के साथ में यदि सिरदर्द अथवा पक्षाघात की असर भी हो तो तात्कालिक जाँच करवा लेनी चाहिये । (४) कभी कभी गांठ में हेमरेज होने से मरीज की परिस्थिति अचानक ही बिगड़ जाती हैं । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14- मस्तिष्क में होने वाली गांठ (Brain Tumour) 173 उपरोक्त में से एक से अधिक लक्षण / चिह्न हो तो मरीज़ को गांठ होने की संभावना अधिक होती है । निदान : सही निदान के लिये अधिकांश केसो में (१) सी. टी. स्कैन ब्रेईन (कोन्ट्रास्ट के साथ) एक पूर्ण जाँच है । गांठ छोटी हो, मस्तिष्क के पीछे के भाग में हो अथवा सी.टी. स्कैन द्वारा उसका प्रकार पता न चल सके तो ब्रेईन का एम. आर. आई. करवाना चाहिए । (२) एम.आर.आई. (मेग्नेटिक रेजोनन्स इमेजिंग) नामक टेस्ट कराने से निश्चित निदान किया जा सकता है और कुछ केसो में वह आवश्यक भी होता है । निश्चित निदान के लिये कभीकभी साथ में एन्जियोग्राफी या एम. आर. स्पेक्ट्रोस्कोपी भी करवानी पड़ती हैं। शरीर में पेसमेकर हो, मेटल का कोई इम्प्लान्ट हो तो एम. आर. आई. नहीं हो सकती है, और ऐसे संजोग में सी.टी. स्कैन ही एक उपाय हैं 1 — ग्लायोमा : केन्सर की गांठ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ मेनिन्जिओमा : सादी गांठ कुछ मरीजों को एम.आर.आई. की केबिन में २० से ३० मिनिट सोते रहना अत्यंत कठिन लगता हैं, जिसे क्लोस्ट्रोफोबिआ कहते हैं । ऐसे संजोग में या छोटे बच्चों को कभीकभी नींद की दवाई या अल्प मात्रा में एनेस्थेसिया देकर ऐसी छबी ली जा सकती है । (३) लंबर पंक्चर द्वारा कमर के पानी की जाँच की जाती है, लेकिन अगर मस्तिष्क में सूजन अधिक हो तो यह जाँच हानिकारक हो सकती है । इसलिए ब्रेइन ट्यूमर के केस में इस प्रकार की जाँच की शक्यता बहुत कम होती है । मस्तिष्क में संक्रमण का इलाज जैसे कि मेनिन्जाइटिस, एन्सेफेलाइटिस इत्यादि में यह जाँच अत्यंत उपयोगी हैं । मस्तिष्क की गांठ के प्रकार : जैसे कि आगे बताया गया है, मस्तिष्क की गांठ केन्सरयुक्त अथवा बिना केन्सर (निर्दोष) ऐसे दो प्रकार की होती है । जो गांठ मस्तिष्क के उपर के भाग में होती है उन्हें सुप्राटेन्टोरियल कहतें है, Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14- मस्तिष्क में होने वाली गांठ (Brain Tumour) 175 पीछे या नीचे के भाग में होने वाली गांठ को इन्फाटेन्टोरियल कहते है । इसके अलावा करोड़रज्जु में भी ऐसी दोनों प्रकार अर्थात् केन्सरयुक्त या बिना केन्सर (निर्दोष) की गांठ हो सकती है । केन्सर की गांठो में कुछ गांठ बहुत ही शीघ्रता से बढ़ती हुई गंभीर प्रकार की होती हैं, जिसमें मरीज की आयु अघिकांशत: ६ महीने से ३ वर्ष जितनी ही रहती है (जैसे कि मेलिग्नन्ट ग्लायोमा, एनाप्लास्टिक ग्लायोमा, ग्लायोब्लास्टोमा मल्टीफोर्मी, इत्यादि....) । केन्सर की कुछ गांठ मंद गति से फैलती है जैसे कि एस्ट्रोसायटोमा (Astrocytoma), ओलिगोडेन्ड्रोग्लायोमा, इत्यादि । इसके अलावा मस्तिष्क में लिम्फोमा प्रकार की गांठे भी होती है, जो एईड्सयुक्त मरीज़ में विशेषतः पाई जाती हैं । बिना केन्सर की गांठो में मुख्यतः मेनिन्जिओमा श्वानोमा और पिट्यूइटरी ग्रंथि की गांठ मुख्य है। शुरूआत में ही उसका निदान हुआ हो और योग्य सर्जन के पास सही तरीके से उसकी सर्जरी हुई हो तो मरीज की आयु यथावत् रहती है, इतना ही नहीं बल्कि कुछ सामान्य परेशानियाँ या कमजोरी छोडकर मुख्यतः नोर्मल जैसी ही जिंदगी रहती है । मेटास्टेटिक ट्यूमर Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ शायद मिर्गी की दवाई आजीवन लेनी पड़ती है। शरीर के अन्य हिस्सो में से केन्सर मस्तिष्क में आए तो उसे मेटास्टेटिक टयूमर कहा जाता है। इस स्थिति में कई बार ब्रेइन टयूमर के चिह्न द्वारा मरीज को अन्य कहीं केन्सर है, ऐसी जानकारी मिलती है तब अत्यंत विलंब हो चुका होता है। फिर भी प्राईमरी केन्सर ढूंढकर उसकी ट्रीटमेन्ट करवाने से आयु बढ़ाई जा सकती है। उपचार : निदान होने के पश्चात् ब्रेईन टयूमर के उपचार में न्यूरोलोजिस्ट से अधिक महत्वपूर्ण भूमिका न्यूरोसर्जन की रहती है । गांठ केन्सर की साबित हो तो ओन्कोलोजिस्ट और रेडियेशन देनेवाले रेडियेशन फिजिशियन की भी अधिक जरूरत रहती है । ऑपरेशन और अन्य उपचार के बाद मस्तिष्क के शेष लक्षण जैसे कि मिर्गी, सूजन और पक्षाघात इत्यादि में न्यूरोलोजिस्ट की समय समय पर सलाह ली जा सकती है। ब्रेईन टयूमर के ऑपरेशन खूब अच्छी तरह विकसित हुए है, जिसमें कुछ प्रकार की गांठ में मस्तिष्क को बिना खोले गामा रेडिशन से गांठ को आगे बढ़ती रोककर उसे सूखाई जाती है। यह ऑपरेशन असफल रहे तो मस्तिष्क को खोल कर दुबारा ओपरेशन किया जा सकता हैं । कुछ छोटी और बाहर की गांठ केवल स्टिरिओटेक्सिस तकनीक द्वारा विशिष्ट सूई से दूर हो सकती है तो कुछ केस में निश्चित-विशिष्ट किरणें द्वारा उसे जलाया या पिघलाया जा सकता है । शेष केसो में ऑपरेशन द्वारा मस्तिष्क या करोड़रज्जु खोलकर संभव हो तो गांठ के उतने भाग को सर्जन निकाल देते है । कभी माईक्रोस्कोप की मदद से बारीकी से सूक्ष्म सर्जरी हो सकती है, जिससे परिणाम अच्छे मिले और नोर्मल हिस्से को किसी प्रकार का नुकशान Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 - मस्तिष्क में होने वाली गांठ (Brain Tumour) 177 न हो । इस कारण ब्रेईन के कई ऑपरेशन ६ से १२ घंटो तक लम्बे चलते है । एनेस्थेसिया के विकास से ऑपरेशन का खतरा भी पहले से बहुत कम हुआ है । ऐसे कुशल सर्जन, अच्छे साधन और अच्छे एनेस्थेसिओलोजिस्ट डॉक्टर्स पूरे भारत में हर जगह है, वह हमारा सौभाग्य है। ऑपरेशन के बाद फिजियोथेरेपी की जरुरत पड़ती है। गांठ के उपचार दरम्यान किसी प्रकार का दुष्प्रभाव हो तो उसका भी उपचार किया जाता है। गांठ की बायोप्सी में अगर केन्सर का पता चले तो किमोथेरेपी, रेडिमेशन इत्यादि द्वारा मरीज को जितना ज्यादा ठीक हो सके उतना ठीक करने का प्रयास किया जाता है । इस प्रकार ब्रेईन टयूमर निश्चित ही तकलीफजनक रोग है । किन्तु, अधिकतर और मुख्यतः बिना केन्सरवाले मरीजों को अधिक अच्छे परिणाम मिल सकते है। उसके लिए उनके लक्षणों/चिह्नों को जल्दी पहचानना, उसका विश्लेषण करना, तात्कालिक निष्णात डॉक्टरों के पास निदान करवा कर शीघ्रता से उपचार करना जरूरी है, ऐसे केस में संपूर्ण (या तो अधिक मात्रा में) सफलता मिल सकती है । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ सुर्खियाँ • मस्तिष्क में अलग अलग कारण से अलग अलग तरह की गांठ होती है । जो कद, आकार, स्थान, गुणवत्ता और हिस्टोलोजी के अनुसार विशेष चिह्न उत्पन्न करती है । • सरदर्द, उलटी, अंधेरा छाना, बेचेनी लगना, पक्षाघात का असर होना, यादशक्ति बिगडना, बेहोश होना, मिर्गी आना वगैरह ब्रेईन ट्युमर के लक्षण हो सकते हैं । आधुनिक स्टिरिओटेक्सिस तकनीक और माइक्रोन्युरोसर्जिकल तकनीक में सुधार आने से तथा रेडिएशन तथा किमोथेरपी में विकास होने से ब्रेईन ट्युमर के मरीजों का वर्तमान एवम् भविष्य उज्जवल है । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | सेरिबल पाल्सी (Cerebral Palsy) प्रत्येक हज़ार में २ (दो) बच्चों को होनेवाला यह लगभग जन्मगत प्रकार का मस्तिष्क का ऐसा रोग है जिसमें दोनों पैर अथवा हाथ-पैर का विकास अत्यंत मंद हो जाता है। साथ ही कुछ मात्रा में मानसिक विकलांगता और मस्तिष्क से उद्भव होने वाली मिर्गी होती हैं । इस कारण इस रोग को सेरिब्रल पाल्सी नाम दिया गया है । इस प्रकार सेरिब्रल पाल्सी (सी.पी.) का सही अर्थ है-विकसित होते हुए मस्तिक को हानि पहुँचना । हमने आगे के प्रकरण में देखा कि मस्तिष्क के विभिन्न हिस्से कुछ निश्चित मनोशारीरिक क्रियाओं का प्रारंभ और नियंत्रण करते है । अब मस्तिष्क के जिस हिस्से को हानि पहुँची हो उस भाग द्वारा नियंत्रित क्रिया होने में परेशानी होती है। यह सच्चाई के कारण ही सेरिब्रल पाल्सीग्रस्त बच्चों में एक या अधिक मात्रा में तकलीफ होती हैं । इसलिए सेरिब्रल पाल्सीग्रस्त दो बच्चों को एकदम अलग प्रकार की तकलीफ हो, वह संभव है। इस रोग की लाक्षणिकता यह है कि उम्र बढ़ने से इसमें धीरेधीरे सुधार होता जाता है, बीमारी बढ़ती या बिगड़ती नही । इस प्रकार जो बीमारी धीरे धीरे बिगड़ती जाती है, वह सेरिब्रल पाल्सी नहीं होती । कारण : कुछ केसो में यह रोग जन्मसमय में ऑक्सिजन की कमी की वजह से होता है। शेष अधिकतर केसो में गर्भ के वातावरण या विकास में कमी उत्पन्न होने से ऐसा हो सकता है । वंशानुतागत कारण शायद ही हो सकता है। हमने देखा कि सेरिब्रल पाल्सी मस्तिष्क में हुई हानि के कारण है। इन कारणों को हम मुख्यतः तीन हिस्सो में विभाजित कर सकते हैं : Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (अ) जन्म से पहले (गर्भावस्था दौरान) : (१) अधूरे महीने में बच्चे का जन्म होना । (२) गर्भावस्था के शुरुआत में माता को वाईरस का संक्रमण होना। (३) माँ-बाप के रक्त ब्लडग्रुप-Rh (माता का ब्लडग्रुप-Rh नेगेटिव और पिता को पोझिटिव होने से) प्रकार में असमानता । (४) वंशानुगत बीमारियाँ । (५) माता की अपनी ही बीमारी और गर्भ का वातावरण तथा विकास में कमी। (ब) जन्म समय : (१) प्रसूति की पीड़ा बहुत लंबे समय तक रहे और बच्चे की धड़कन कम या ज्यादा हो । (२) औजार से बच्चे का जन्म करवाते समय मस्तिष्क के ऊपर दबाव । (३) बच्चे के गले के चारों ओर गर्भनाभ चिपटी हो तो मस्तिष्क को अपूर्ण रक्त-ऑक्सिजन मिलना । (क) जन्म पश्चात तुरंत : (१) मिर्गी आना (२) अधिकतर मात्रा में पीलिया हो जाना (३) रक्त में शुगर (चीनी) कम होना (४) रक्त में संक्रमण (५) रक्त में केल्शियम की कमी (६) मस्तिष्क पर सूजन (७) मेनिन्जाइटिस, एन्सेफेलाइटिस, इत्यादि... Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 181 15 - सेरिब्रल पाल्सी (Cerebral Palsy) इसी कारण योग्य केस में नवजात बच्चे को योग्य निरीक्षण तथा उपचार हेतु इन्क्युबेटर में रखा जाता है। लेकिन प्रत्येक बच्चे में कारण मिल जाए ऐसा नहीं होता । उपर्युक्त अधिकतर कारणों को रोका जा सकता है, लेकिन इसके लिए हम सभी को जाग्रत रहना जरूरी है। इस कारण शिशु का जन्म (डीलीवरी) विविध सुविधावाली अस्पताल में निष्णात तबीब द्वारा ही करवाना चाहिए। • सेरिब्रल पाल्सी के प्रकार : (१) स्पास्टिक सेरिब्रल पाल्सी : सी.पी. का यह सबसे सामान्य प्रकार है। इस प्रकार में स्नायु खिचे हुए और कड़क रहते है, परिणामतः इससे असरग्रस्त हाथ-पैर को मोड़ने या सीधा करने में ताकत लगानी पड़ती है। पैर में अंटस या चौकड़ी पड जाती है। खड़े रहने या चलते समय बच्चा सिर्फ पैर के पंजे का ही उपयोग करता है और एडी ऊँची रखता है। इसकी असर शरीर के किस अंग में हुई है, वह आधार पर उसके उपप्रकार निम्नलिखित है : हेमीप्लेजिया : जब आधा अंग अर्थात् एक हाथ, एक पैर और वही तरफ धड़ के स्नायुओ में असर दिखता हैं । डाइप्लेजिया : दोनों पैर के स्नायुओं पर असर हो और कभी हाथ में कुछ असर दिखें । • क्वाड्रीप्लेजिया : जब दोनों हाथ और दोनों पैर तथा धड़ के स्नायुओं पर असर दिखता है। (२) डिसकाईनेटिक (डिसटोनिक, एथिटोईड) सेरिब्रल पाल्सी : शरीर के अंगो में अनैच्छिक हलन-चलन होता है, जिससे इच्छा अनुसार कार्य करने में तकलीफ होती है। शरीर धनुष की तरह तिरछा हो जाता है और मस्तिष्क के नियंत्रण में नहीं रहता है । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (३) एटेक्सिक सेरिब्रल पाल्सी और हाईपोटोनिक सेरिब्रल पाल्सी : शरीर का संतुलन नहीं रहता है और शरीर के स्नायु बहुत ढीले रहते है। शरीर जैसे की रबर का बना हुआ हो ऐसा प्रतीत होता है। सी.पी. बच्चे में उपर्युक्त एक या अधिक प्रमाण हो सकते है। इसके उपरांत निम्नलिखित कुछ तकलीफ सामान्यतः देखने को मिलती है : (१) तिरछी आँख - ५० से ६०% बच्चों में देखने को मिलती है। (२) द्रष्टि में कमी। (३) मिर्गी (एपिलेप्सी)-६६ % । (४) सुनने में तकलीफ । (५) मंद बुद्धि - ६६ % । (६) स्वभाव में जिद्दीपन, इत्यादि । सामान्य जानकारी : जन्म से ही सेरिब्रल पाल्सी होना दुर्भाग्यपूर्ण तो है पर उसमें सुधार न हो सके ऐसा भी नहीं है। कुछ बच्चों को सामान्य तकलीफ हो तो सुधार शीध्र ही होता है। शेष केस में बहुत व्यायाम (फिजियोथेरेपी) से तथा योग्य दवाई के संयोजन से लंबे समय के बाद कुछ लाभ हो सकता है । इस प्रकार की बीमारी में करीब तीस प्रतिशत मरीजों को तीव्र रोग होता है, जिसमें अच्छे होने की संभावना कम होती है। जन्म पश्चात प्रथम महीने तक नोर्मल दिखने वाला बच्चा क्रमशः उसके विकास में बहुत पीछे रह गया है, ऐसा दिखता है या तो वह बैठना सीख नहीं सकता। इसी प्रकार चलने की क्रिया जो सामान्य संयोग में एक वर्ष की उम्र में होनी चाहिए, वह अधिक विलंबित होती है और चलना सीख ले तो पैर के पंजे पर खड़े रहने का प्रयत्न करता है और चलने में बहुत तकलीफ होती है। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 - सेरिबल पाल्सी (Cerebral Palsy) 183 इसी प्रकार मस्तिष्क विकास और बुद्धिशक्ति में अधिकतर बच्चे कमजोर रहते है, बोलना देर से सीखते है तथा उच्चारण स्पष्ट नहीं होते । कुछ तीव्र केस में चेहरे से ही बालक मंदबुद्धि होने का पता चल जाता है। इस में से कुछ बच्चे बहुत शरारती और जिद्दी भी हो सकते है और कुछ को मिर्गी भी आती है। परंतु याद रखना चाहिए कि अधिकतर बच्चों को यह बीमारी सामान्य प्रकार की होने से कुछ समय के बाद बच्चा लगभग सामान्य हो सकता है। परंतु जिन बच्चों के हाथ-पैर संपूर्णतः असरयुक्त हो, मस्तिष्क में अधिक हानि हो और मंदबुद्धि का हो उसका उपचार अत्याधिक मुश्किल निदान : जन्म पश्चात् बालक का उम्र के साथ विकास नहीं होता, वह मातापिता को सबसे पहले ध्यान में आता हैं । बालक गर्दन कड़क-टट्टार रखना, नजर घुमाना, करवट बदलना, बैठना, चलना इत्यादि सीख नहीं सकता । बालक अगर मंद बुद्धि का हो तो माता-पिता या घर के सदस्यों को पहचानना भी नहीं सीख सकता। बच्चे के जन्मसमय की जानकारी, जन्म के तुरंत बाद बच्चे के रोने में देरी, श्वासोच्छ्वास में तकलीफ या बच्चा पैदा होकर नीला पड़ गया हो, ऐसी कोई जानकारी मिलें तो निदान सरल हो जाता है । कुछ केस में ही एम.आर.आई. या अन्य जाँच करवानी पड़ती है । • उपचार : सेरिब्रल पाल्सी की कोई जादूई या चमत्कारिक दवाई या ऑपरेशन नहीं है, लेकिन इससे हताश होने की जरूरत भी नहीं है । ऐसे बच्चे को शीध्र से शीध्र कुछ खास प्रकार की तालीम चालू करवानी पड़ती है । पाँच वर्ष से कम की उम्र के बच्चों को देनेवाली तालीम को अर्ली इन्टरवेन्शन Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (Early Intervention) कहते है । इस तालीम में बालक की परिस्थिति को ध्यान में रखकर नीचे बताए हुए लोगों का समन्वय और योगदान जरूरी है : 184 ४. ऑक्युपेशनल थेरापिस्ट स्पेशियल टीचर इसके उपरांत जरूरत पड़े तो ओर्थोपिडिक डॉक्टर, आँखों के डोक्टर और न्यूरोलोजिस्ट का अभिप्राय जरूरी है । दवाई में कड़क स्नायुओं को नर्म अर्थात् ढीला करने के लिए दवाई का उपयोग किया जा सकता है । योग्य मामले में बोटुलिनम टोक्सिन के इंजेकशन योग्य मात्रा में स्नायुओं में देने से कई बार अत्यंत अच्छे परिणाम मिल सकते हैं और कुछ मरीज अपना काम स्वयं कर सकते है, और स्वयं घुम फिर सकते है । ५. ६. डेवलपमेन्टल फिजियोथेरापिस्ट चाइल्ड साईकोलोजिस्ट स्पीच थेरापिस्ट और ऑडियोलॉजिस्ट ७. योग्य केस में हाथ-पैर की छोटी-बड़ी सर्जरी । उपचार और तालीम का लक्ष्य : प्रतिदिन के कार्य में स्वावलंबन सामाजिक योग्यता - शैक्षणिक योग्यता आर्थिक स्वावलंबन Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15- सेरिब्रल पाल्सी (Cerebral Palsy) आपने देखा कि यह रोग की सारवार मर्यादित है, इसलिए हमारा मुख्य लक्ष्य अटकाव (Prevention) होना चाहिए। गर्भ के विकास दौरान गायनेकोलोजीकल नियमित परीक्षण, अस्पताल में प्रसूति और जन्म के बाद शिशु की योग्य देखभाल से रोग को ७० प्रतिशत तक रोका जा सकता है। न्यूरोप्रोटेक्टिव दवाई, मग्नेशियम सल्फेट, ईन्डोमिथासिन और योग्य समय पर सिझेरियन ऑपरेशन का निर्णय इसमें लाभदायी है । उपसंहार : I सी.पी. ग्रस्त ३३ % बच्चों का बुद्धिआंक अच्छा होता हैं । ये बच्चे स्कूल में जा सकते हैं। शेष बच्चों को स्पेशियल स्कूल में तालीम दी जाती है । 185 दुखः की बात है कि ऐसे बच्चों का जन्म, कुदरत का अभिशाप माना जाता है । समाज और कुटुंब के लिए ये बच्चे जिम्मेदारी और समस्या बनकर रह जाते है । चिकित्साविज्ञान का इतना विकास होने के बावजूद हम ऐसे केस को रोक नही सकते है या उसका योग्य उपचार भी नहीं कर सकते है । इस कारण हम सब की यह सामाजिक, नैतिक और मानवीय फर्ज है कि ऐसे बच्चों का उपचार और प्रशिक्षण प्रदान करने वाली संस्थाओ अथवा फिजियोथेरेपी सेन्टरों को योग्य आर्थिक सहायता दे कर या ऐसी नयी संस्थाएँ स्थापित करके, संभव हो तो ऐसी संस्थाओं में कुछ घंटे बिताकर बच्चों के विकास में मदद करें और उन्हें योग्य प्यार और सहयोग दें । इन बच्चों को दया की नहि, स्नेह और सहयोग की ज्यादा जरूरत होती है । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (सुर्खियाँ • बच्चों को होनेवाले यह रोग में दोनों पैर अथवा हाथ-पैर का विकास अत्यंत मंद हो जाता है । कभी कभी मिर्गी के साथ मानसिक विकलांगता भी होती है। • इस रोग का प्रमाण ०.२% है । इस रोग के कारण में जन्म समय ऑक्सिजन की कमी, गर्भ के विकास में कमी, जन्म समय पर औझार के इस्तेमाल से हुई हानी, जन्मबाद तुरंत मिर्गी आना या पिलीया हो जाना वगैरह है। स्पास्टिक सेरिब्रल पाल्सी, डिसकाईनेटिक सेरिब्रल पाल्सी, एटेक्सिक सेरिब्रल पाल्सी और हाईपोटोनिक सेरिब्रल पाल्सी, यह सब सेरिब्रल पाल्सी के प्रकार है । उम्र बढ़ने से यह रोग में सुधार आता है । ३३% बच्चे अच्छे बुद्धिआंक वाले होते है, जो आम स्कूल जा सकते है, बाकी के बच्चों को स्पेश्यिल स्कूल में तालीम दी जाती Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब तक हमने मस्तिष्क संबंधित रोगों के विषय में देखा, अब चेताज्ञानतंतु और स्नायुओं के रोग के विषय में जानने से पहले संक्षिप्त में करोड़रज्जु के रोगों के संदर्भ में जानेगें । बडा मस्तिष्क कोर्पस केलोयम RAथेलेमस हाईपोथेलेमस - छोटा मस्तिष्क MARARAMBRI सर्वाइकल कोर्ड करोडरज्जु -डोर्सल कोर्ड 19023823301CUECOSISTERS -- लम्बर विभाग -203RRIES ----कोनस मेड्यूलारिस Spinal Cord मस्तिष्क से पसार होनेवाली संवेदनाओं को चेता और स्नायुओं तक पहुँचाने वाला मुख्य रिले स्टेशन (प्रसारण केन्द्र) है करोड़रज्जु (SPINAL CORD) । करोड (मेरुदंड) के मणके के बीच सही तरह से सुरक्षित करोड़रज्जु .. Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ का एक बहुत महत्त्वपूर्ण अंग है। करीबन ३० प्रकार की बीमारीयाँ करोड़रज्जु में हो सकती है, जो उसकी कार्य पद्धति और रचना, संवेदना-परिवहन कार्य, उसकी लंबाई, उसका सिलिन्डर जैसा आकार, बहुत कम चौड़ाई, उसके आवरण, उसकी रक्त वाहिनियाँ और करोड (मेरुदंड) के मणके के साथ उसका संबंध, इत्यादि के अनुसंधान में समझाया जा सकता हैं। • करोड़रज्जु संबंधित बीमारीओं के चिह्न : - - दोनों पैर कमजोर हो जाना या निष्क्रिय हो जाना । पूरे पैर में झुनझुनी होना या सुन्न पड़ जाना । हाथ-पैर में कमजोरी आना । मल/मूत्र का रुक जाना या उसका अनियंत्रित हो जाना । हाथ-पैर के किसी भाग में निरंतर दर्द होना । पैर में से चप्पल निकल जाए तो पता न चले अथवा पैर के नीचे गद्दी जैसा लगना, जलन होना, हाथ-पैर पर चीटियों चलने जैसा अनुभव होना। - हाथ-पैर के स्नायु सूखना । करोड़रज्जु की बीमारी मुख्यत: लक्षणों-चिह्नसमूह (Syndrome) के रूप में दिखाई देती है और वह निश्चित प्रकार के होने से उसका इलाज भी अधिकतर स्पष्ट होता हैं। करोड़रज्जु की इन सब बीमारियों को मायलोपथीMyelopathy कहते हैं। गर्दन के मणके के बीच आनेवाली करोड़रज्जु को नुकसान हो तो उसे Cervical Myelopathy (सर्वाइकल मायलोपथी) कहते हैं, जिसमें पैर उपरांत हाथ के हलनचलन की क्रिया तथा संवेदनाओं को भी असर पहुँचती पीठ के मणके के बीच की करोड़रज्जु को नुकसान हुआ हो तो सिर्फ पैर के (एक या दोनों) हलनचलन को तथा संवेदनाओं को असर पहुँचती है, साथ में मल-मूत्र की क्रिया पर भी असर हो सकती हैं । इसे Dorsal Myelopathy (डोझल मायलोपथी) कहते हैं । मल-मूत्र की लिनचलन को तथा संवेदनाकसान हुआ हो Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 189 16 - करोड़रज्जु के रोग (Myelopathy) यह समझना चाहिए कि - १. करोड़रज्जु सामन्यतः कमर के मणके में होती नहीं है। अर्थात् Lumbar One (L1) मणके से करोड़रज्जु समाप्त होती है । जिसे कोनस मेड्युलारिस कहते हैं, वहाँ से वह चेताओं में परिवर्तित होती है, जिसे Cauda Equina (घोड़े की पूंछ जैसा ज्ञानतंतुओं का झुंड) कहते हैं । केवल करोड़रज्जु के रोगो में मस्तिष्क संबंधित चिह्न नहीं होते, जैसे कि बोलना, समजना, आँख, कान, सुगंध इत्यादि ज्ञानेन्द्रिय क्रिया, मिर्गी, एक तरफा अंगो का पक्षाघात, मुँह का पक्षाघात । यह सब चिह्न होने से वह करोड़रज्जु के अलावा कोई अन्य बीमारी हो सकती हैं। Back Cross Section of the Spinal Cord Front करोड़रज्जु का आड़ छेद करोड़रज्जु के रोगों के लक्षण : (१) करोड़रज्जु की तमाम संवेदना एक निश्चित स्तर के बाद कट जाना, साथ ही दोनों पैर निष्क्रिय हो जाना, हलन चलन बंध हो जाना, मल-मूत्र रुक जाना, जैसे कि सड़क दुर्घटना से हुआ मणके का फेक्चर। कुछ संवेदनावाहक नसे कार्य करना बंद कर दे, और साथ ही नसो में दर्द होकर उसका कार्य कम हो जाए । (MyeloRadiculopathy), जैसे कि स्पोन्डिलोसिस । (२) Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (३) करोड़रज्जु की ५० प्रतिशत कार्यवाही बंद होना (ब्राउन सिक्वर्ड-सीन्ड्रोम)। उससे एक तरफ के पैर की हलचल बंध होती है, और दूसरे तरफ के पैर की संवेदना बंद होती है। (४) करोड़रज्जु के अगले भाग का काम करना बंद होना (जैसे कि रक्त नली का बंद हो जाना) । (५) करोड़रज्जु का बिलकुल ऊपर के भाग में दब जाना (Foramen Magnum Compression) । (६) सिरिंगोमायेलिया : करोड़रज्जु के बीच का भाग रिक्त हो कर प्रवाही भर जाना, जिससे हाथ की नसें सूखे, पेशाब रुके । (७) कोनस मेडयुलारीस सिन्ड्रोम : करोड़रज्जु के अंतिम भाग में दबाव या गांठ होना। (८) कोडा इक्वाईना सिन्ड्रोम : करोड़ में (मेरुदंड) से निकलने वाली अंतिम ज्ञानतंतुओ के झुंड की बीमारी । इस प्रकार अन्य तरीके से करोड़रज्जु की बीमारियों को दो हिस्से में विभाजित किया जा सकता हैं : (१) करोड़रज्जु पर दबाव का असर होना (Compressive Myelopathy): उदा. गांठ, परु इत्यादि से होने वाले दबाव । (२) करोडरज्जु पर दबाव न हो, ऐसी बीमारियाँ (Noncompressive Myelopathy) : जिसमें करोड (मेरुदंड) का संक्रमण, विटामिन की कमी, सूजन, घिसाव (degeneration), रसायनों और दवाई से आड़असर इत्यादि सम्मिलित होती हैं। यह सब में MRI, Myelography, Lumbar Puncture (कमर के पानी की जांच) आदि द्वारा निश्चित निदान तथा इलाज हो सकता हैं। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . mamigame nedabana KED.. 16 - करोड़रज्जु के रोग (Myelopathy) 191 (१) अब हम करोड़रज्जु पर दबाव के संदर्भ में देखेंगे : PPIN SHASERAI (१) करोड़रज्जु में बीच में गांठ हो या बीच में पानी भर जाए उसे इन्ट्रामेडयूलरी प्रकार का करोड़रज्जु का रोग कहते हैं, जिसे मेडिकल न्यूरोलोजी जाँच में तुरंत ही पकड़ सकते है और एम.आर.आई. द्वारा सुनिश्चित कर सकते हैं । (२) करोड़रज्जु के आवरणों की गांठ (मेनिन्जिओमा) या करोड़रज्जु में से निकलनेवाली चेता की गांठ (श्वानोमा)। (३) करोड़रज्जु के आवरणों पर केन्सर या लिम्फोमा की गांठ । (४) करोड़रज्जु के आवरणों की बाह्य गांठ ॥ : लायपोमा इत्यादि । (५) करोड़ (मेरुदंड) के मणके का फेक्चर, उसकी गांठ ( बोन ट्यूमर), सर्वाइकल स्पोन्डिलोसिस, मणके में मवाद होना, जैसे कि, टीबी, दो मणके के बीच की गद्दी खिसक जाना, फ्लुरोसिस से मणके करोड़रज्जु का एम.आर.आई. का घिसाव। इन सब द्वारा करोड़रज्जु पर दबाव होता है, जो उपर के चित्र में दर्शाया हैं। इन सब में वाहन-दुर्घटना से होने वाले करोड़रज्जु के घाव सबसे अधिक देखने को मिलते है और इसका उपचार अधिकतर कठिन होता हैं । इसके पश्चात् सर्वाइकल स्पोन्डिलोसिस के कारण करोड़रज्जु और नसो में होने वाले दबाव के चिह्न बहुत प्रचलित है । जिसके लिए ओपरेशन की आवश्यकता हो सकती है। यह अधिकतर वयस्क लोगों में होता है। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ सर्वाइकल स्पोन्डिलोसिस : बढ़ती उम्र के साथ करोड़स्तंभ में घर्षण पैदा होता है और एक प्रकार की सूजन होती है । घर्षण की प्रतिक्रिया के सामने कुछ स्थानों पर अस्थि (हड्डी) बढ़ती है (osteophyte) और दो मणके के बीच की गद्दी में घिसाव आता हैं। उसका जिलेटीन मटिरियल गद्दी घिसने से बाहर निकलता हैं । वह समय जाने पर करोड़रज्जु पर दबाव डालता है और चिह्नसमूह पैदा करता है। दबाव सीधा करोड़रज्जु पर हो तो उसे मायलोपथी कहते हैं । अधिकतर केसो में गर्दन की (सर्वाइकल) करोड़रज्जु पर दबाव होता है। CH-CE CA-CE; जिसे सर्वाइकल मायलोपथी कहते हैं । उसी तरह डोर्जल (पीठ) मायलोपथी हो सकती है । ___दबाव चेता पर हो अर्थात् साईड में हो तो उसे रेडिक्युलोपथी कहते हैं, जिसमें संबंधित चेता पर जलन, झुनझुनी और दर्द होता है; साथ में वहाँ संवेदन कम हो सकता है (सेन्सरी रेडिक्युलोपथी) और उससे उत्तेजित होने वाले स्नायुओं की कार्यक्षमता कम होकर उतने स्नायु कमजोर हो जाते हैं (मोटर रेडिक्युलोपथी) । लम्बर (कमर) हिस्से में करोड़रज्जु नहीं होती, इसलिए चेता पर ही असर होती है। जैसे कि रेडिक्युलोपथी या कोडाइक्वाइना सिन्ड्रोम । अन्य कुछ केसो में गर्दन या करोड में अन्य जगह केवल दर्द ही होता है। यह दर्द बहुत पीड़ादायक होता है। योग्य जाँच से इसका निदान और इलाज होता है । मुख्य टेस्ट एम.आर.आई. है। अधिकतर संपूर्ण करोड़ की ही एम.आर.आई. करनी पड़ती है, क्योंकि स्पोन्डिलोसिस एक साथ एक से अधिक स्थान पर होती है; जैसे कि सर्वाइकल (गर्दन) तथा लम्बर (कमर) स्पोन्डिलोसिस । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 193 16 - करोड़रज्जु के रोग (Myelopathy) यह बीमारी उम्र और घिसाव से संबंधित होने के कारण इसे रोकना कठिन है, लेकिन गर्दन को झटका न लगे, गर्दन पर बहुत बोझ न डाला जाए और आवश्यकता हो तो कोलर पहनकर गर्दन का हलनचलन घटाया जाए तो घिसाव अवश्य कम होगा । जब चेता या करोड़रज्जु पर दबाव अधिक हो तब साधारण व्यायाम तथा दर्द की दवाई का उपयोग करना चाहिए और जरूरत पड़ने पर अन्य योग्य केस में ट्रेकशनयुक्त (खिंचाव) व्यायाम किये जा सकते हैं । कभीकभी स्टीरोईड ग्रुप की दवाई भी अनुभवी डॉक्टर उपयोग में लेते हैं । सर्जरी से अधिकतर बहुत अच्छे परिणाम आते हैं, जिससे दर्द चला जाता है, चलने में सरलता होती है और आगे बताए गए रेडिक्युलोपथी तथा मायलोपथी के चिह्न काफी मात्रा में कम हो जाते हैं। (२) करोड़रज्जु की अन्य प्रकार की बीमारी को नोनकोम्प्रेसिव मायलोपथी कहते हैं जिसके कई कारण हैं, जिसमें मुख्य निम्न अनुसार हैं : (१) करोड़रज्जु की अनेक प्रकार के वाइरस की बीमारी जिसमें हर्पिस, रेबिस और एईड्स के वाइरस भी शामिल हैं । इसको वाइरल मायलाईटिस कहते है । (२) टी.बी., मवाद के संक्रमित जंतू, फफूंद, सिफिलिस इत्यादि अनेक प्रकार के संक्रमित रोग । ये भी मायलाईटिस (Myelitis) है। (३) करोड़रज्जु की अन्य प्रकार की सूजन जैसे कि... रेबिस टीके के दुष्प्रभाव से करोड़रज्जु की कार्यवाही रुक जाना । मल्टिपल स्क्लेरोसिस (डिमायलीनेटिंग डिसीज़) कोलेजन उदा. ल्युपसका करोडरज्जु से होता रोग । • शरीर में कहीं केन्सर हो और करोड़रज्जु में सूजन आये। रेडियेशन (विकिरण) से करोड़रज्जु को हानि होना । उपर के तीनों (१), (२), (३) को मायलाईटिस (Myelitis) करोड़रज्जु की सूजन कहा जाता है । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (४) करोड़रज्जु में रक्तप्रवाह कम होना । (५) करोड़रज्जु में हेमरेज होना, जैसे कि रक्त की नलिकाओं के झुंड का फटना । (६) Vitamin B12 या Folic acid की कमी से करोड़रज्जु को नुकसान होना। कभी कभी Vit. E की कमी से भी नुकसान होना। (७) मसूर की दाल ज्यादा खाने से होने वाला Lathyrism तथा अन्य आहार और दवाई, रसायनों से होते दुष्प्रभाव संबंधित करोड़रज्जु के जहरीले रोग (Toxic Myelopathy) । (८) करोड़रज्जु के वंशानुगत घर्षण की बीमारी जैसे कि फेमिलियल स्पास्टिक पेराप्लेजिया (Familial Spastic Paraplegia), स्पाइनोसेरीबेलर डिसिज़, इत्यादि । (९) मोटर न्यूरोन डिसिज़ जैसे अज्ञात कारणों से होने वाले घिसाव के रोग। (१०) लंबे अरसे की कलेजे और गुड़दे की बिमारी से करोड़रज्जु को नुकसान होना । (११) अज्ञात कारणों से करोड़रज्जु को हानि होना । करोड़रज्जु की इन सभी बीमारियों का निदान इतना अधिक कठिन नहीं है, एक प्रकार का गणित ही है। कुछ अनुभव और सूझबूझ हो तो विस्तृत मेडिकल जानकारी और सुयोग्य न्यूरोलोजिकल जाँच द्वारा निश्चित निदान हो सकता हैं। निदान की निश्चितता के लिए करोड़रज्जु के मुख्य रिपोर्ट्स (जाँच) निम्न अनुसार हैं : १. करोड़रज्जु की एम. आर. आई. जाँच या सी.टी. स्कैन । २. कमर के पानी की जाँच । ३. मायलोग्राफी । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 195 16 - करोड़रज्जु के रोग (Myelopathy) ४. विशिष्ट लेबोरेटरी जाँच, बायोकेमिस्ट्री इत्यादि । ५. कभीकभी ई.एम.जी., एन.सी.वी., वी.ई.पी., और जिनेटिक जाँच इत्यादि की आवश्यकता भी रहती हैं। उपचार : योग्य उपचार हेतु संपूर्ण निदान होना बहुत जरुरी है । करोड़रज्जु में दबाव के कारण बीमारी की परिस्थिति का निर्माण हो तो, सबसे पहले यह देखना चाहिए कि शस्त्रक्रिया संभव है या नहीं ? बहुत लंबे, जटिल या माईक्रोस्कोप की मदद से होने वाले ऑपरेशन से लेकर अल्ट्रासाउन्ड की मदद से गांठ निकालने (CUSA) के ऑपरेशन भी हमारे देश में उपलब्ध है। करोड़रज्जु की सर्जरी सामान्यतः इतनी खरतनाक नहीं है, परंतु इतना सत्य है कि इसे नाजुकता से, कुशलता से बहुत जहेमतपूर्वक और संपूर्णत: व्यवस्थित तरीके से करनी पड़ती है, क्योंकि बहुत कम चौडाईवाले इस अंग में अत्यंत ठांसकर चेतातंतु भरे हुए हैं, इस कारण किसी भी प्रकार का नुकसान न हो इसलिए शस्त्रक्रिया के समय सावधानी रखनी पड़ती है। इसके अलावा दबावविहीन रोगो में चिकित्सा, रोग अनुसार की जाती है, जैसे कि... (१) टी.बी. का उपचार । (२) मल्टिपल स्क्लेरोसिस और ऐसे अन्य डिमाइलिनेटिंग डिसिज़ में तथा कोलेजन की बीमारी में स्टिरोईड्स दवाई । (३) विटामिन की कमी पूर्ण करना इत्यादि । (४) नयी उपचार पद्धतियों में स्टेमसेलथेरपी आशास्पद है - खास करके अकस्मात से करोड़रज्जु को नुकसान हुआ हौ तब उसके परिणाम काफी अच्छे मिले है। सामान्यतः वंशानुगत बीमारियाँ या घिसाव से संबंधित रोगों की (जैसे कि मोटर न्यूरोन डिसिज़) कुछ खास दवाई अभी तक संशोधित नहीं हुई। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ इन सभी बीमारियों में विशेषतः योग्य फिजियोथेरेपी (व्यायाम) करना जरूरी है। साथ ही पौष्टिक आहार लेना और पीठ की त्वचा में छाले न पड़े इसका ध्यान रखना | मल-मूत्र त्याग की तकलीफ हो तो उसका योग्य उपचार करवाना चाहिए । 196 करोड़रज्जु की सभी बीमारियों के विषय में जगह की कमी के कारण लिखना संभव नहीं हैं । सुर्खियाँ करोड़रज्जु, मस्तिष्क से पसार होनेवाली संवेदनाओं को चेता और स्नायुओं तक पहुंचाने वाला प्रसारण केन्द्र है । इसमें होनेवाली बीमारियों के समूह को मायलोपेथी कहते है । • सर्वाइकल मायलोपेथी, डोर्सलमायलोपेथी वगैरह मायलोपेथी के प्रकार है । • करोड़रज्जु की एम. आर. आई. जांच या सीटीस्कैन, कमर के पानी की जांच, मायलोग्राफी, विशिष्ट लेबोरेटरी जांच, इ.एम.जी., इत्यादि से रोग के बारे में अच्छी तरह से जाना जा सकता है । • करोड़रज्जु की सर्जरी निष्णात के पास सामान्यतः सरल है, इसीलिये सफलता से की जा सकती है । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) मल्टिपल स्क्ले रोसिस (Multiple Sclerosis)] मस्तिष्क और करोड़रज्जु की बीमारियाँ, जिसमें मायलिन की परत या व्हाइट मेटर को नुकसान हुआ हो तो उसे डिमायलिनेटिंग डिसिज़ कहते हैं । मनुष्य के शरीर के चेतातंत्र को कार्य तथा रचनाकीय द्रष्टि से ग्रे-मेटर और व्हाइट मेटर में विभाजित किया जाता है । व्हाइट मेटर को इलेक्ट्रिसिटी के वायर की तरह माना जा सकता है, जो ग्रे-मेटर के कोषों में से उद्भव होने वाले स्पंदन और आज्ञाओं को चेतातंत्र के अन्य हिस्से तक पहुँचाने का महत्त्वपूर्ण कार्य करता हैं। जिस प्रकार बिजली के तार में इन्स्युलेशन के लिए बाहर परत होती है, उसी प्रकार व्हाइट मेटर में इन्स्युलेशन के लिए मायलिन की परत होती हैं । व्हाइट मेटर मायलिन को हानि पहुँचाने वाली बीमारियों को डिमायलिनेटिंग डिसिज कहते हैं। उसमें सबसे मुख्य है-अत्यंत विचित्र और तकलीफ देनेवाला रोग मल्टिपल स्क्लेरोसिस । सरल भाषा में कहें तो किसी प्रकार की एलर्जी या मस्तिष्क की चयापचय की प्रक्रिया में गड़बड़ होने से व्हाइट मेटर को नुकसान होता है, उसे डिमायलिनेशन और ग्लायोसिस कहते हैं। यहाँ मुख्यत: मस्तिष्क, करोड़रज्जु और विशेषतः आँख के ज्ञानतंतु की तकलीफ के चिह्न शुरु होते हैं । * मल्टिपल स्क्लेरोसिस : रोग संदर्भ में सामान्य जानकारी : • रोग का प्रमाण स्त्रियों में पुरुषों से दुगुना होता है । वह सामान्यतः १५ से ५० की उम्र के व्यक्तियों में देखने को मिलता है। बहुत छोटे बच्चों को और वृद्ध पुरुषों को यह सामान्यतः नहीं होता। यह रोग स्कोटलेन्ड, उत्तरीय युरोप और अमेरिका में विशेषतः देखने को मिलता है। विषुववृत्त से दूर के प्रदेशो में यह अधिक प्रचलित है । इसलिए हमारे देश में इसका प्रमाण कम है और जपान तथा साउथ अफ्रिका में भी नहीं जैसा है । विचित्र जीवनशैली के कारण हमारे यहाँ भी यह रोग बढ़ता जा रहा है। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ इस बीमारी के कारण मस्तिष्क की अधिकतर बीमारियों की तरह जटिल है और वह अभी भी पूर्णतः जाने नहीं गये है। कई केसो में बीमारी वंशानुगत है। लेकिन कई केसो में वंशानुगत कारण माना नहीं गया हैं। वायरस एलर्जी या तो पर्यावरण के कारण और शायद आहारविहार की गड़बड़ से यह बीमारी हो सकती है । • बीमारी के लक्षण : एक या अधिक अंगो का पक्षाघात होना : ३५ % केस में द्रष्टि में कमी होना या एक चीज दो दिखना : ३६ % केस में शरीर के कुछ हिस्से में संवेदना लुप्त हो जाना (३७ % केस में) अथवा गलत संवेदना होना जैसे कि सूई चुभती हो ऐसा लगना (२६ % केस में)। शरीर का संतुलन बिगड़ना, चक्कर आना, मल-मूत्र त्याग में परेशानी होना। याददास्त कम होना और मिर्गी आना ।। इसके उपरांत हाथ-पैर में कंपन, दर्द, जातीय जीवन की परेशानी और उन्माद से लेकर हताशा जैसी मानसिक बीमारी देखने को मिलती है। इन सभी में से कोई एक या अधिक लक्षणों के साथ यह बीमारी शुरु हो कर, या तो.... (i) Relapsing & Remitting Multiple Sclerosis - RRMS : यह प्रकार में बीमारी के लक्षण संपूर्ण तरीके से चले जाते है और बाद में बारबार उसके ऐसे हमले आते रहते है और दर्दी परवश हो जाता है। (ii) Primary Progressive Multiple Sclerosis - PPMS : यह प्रकार में एक बार लक्षण शुरू होने का बाद हमेशा के लिए रोग आगे बढ़ता है। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 - मल्टिपल स्क्ले रोसिस (Multiple sclerosis) 199 (iii) Secondary Progressive Multiple Sclerosis - SPMS : RRMS की तरह शुरू होने वाली यह बीमारी के लक्षण थोडे समय के बाद कायमी बढ़ने वाली (progressive) बीमारी के रूप में परिवर्तित हो जाते है । • बीमारी का निदान : उपर्युक्त लक्षण मुख्यतः द्रष्टि संबंधित अथवा पक्षाघात या संतुलन संबंधित दिखें तो फिजिशियन/न्यूरोलोजिस्ट का संपर्क करना अति महत्त्वपूर्ण हैं। बीमारी की जाँच में रक्त की कुछ जाँच के उपरांत मुख्यतः मेग्नेटिक रेसोनन्स इमेजिंग (एम.आर.आई.) की आवश्यकता रहती हैं। आँख की जांच मल्टिपल स्कलेरोसिस (Fundoscopy) से रेटिना में लाक्षणिक फिकापन देखा जाता है। इसके उपरांत सी.एस.एफ. (लम्बर पंक्चर) जाँच की भी खूब जरूरत पड़ती है। सी.एस.एफ. में कोषों की संख्या में बढ़ोत्तरी के मुकाबले प्रोटीन की मात्रा ज्यादा पाई जाती है और उसमें भी इम्युनोग्लोब्युलिन (IgG) मुख्यत: बढ़ता है । ओलीगोक्लोनल बेन्ड दिखता है और मायलिन बेसिक प्रोटीन की मात्रा अधिक होती है । कुछ विशिष्ट केसो में CSF एन्टी एन.एम.ओ. एन्टीबॉडी की भी जाँच की जाती है । VE.P., S.S.E.P., B.E.R.A. जाँच निदान के समर्थन में बहुत सहायक सिद्ध होती हैं। तबीबी शारीरिक जाँच और उपर बताई गई जाँच द्वारा बीमारी का निदान सही ढंग से हो सकता है । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ उपचार : कुछ वर्ष पहले तक असाध्य समझी जानेवाली इस बीमारी के उपचार में आधुनिक चिकित्सा विज्ञानने आंशिक सफलता प्राप्त की है। (१) बीमारी का हमला हो तब तुरंत ही स्टिरोइड्स मुख्यतः मिथाइल प्रेड्निसोलोन या ए.सी.टी.एच. (A.C.T.H.) या प्रेड्निसोलोन नामक दवाई उपयोग की जाती हैं । (२) बीमारी धीरे धीरे बढ़ते हुए कायमी बने तब मिथोट्रेक्षेट या तो एझाथायोप्रीन इत्यादि दवाई कभी-कभी दी जाती है। लेकिन ये बहुत उपयोगी मालूम नहीं हुई । (३) इन्टरफेरोन B1b (बीटा सेरोन), इन्टरफेरोन B1a ( एवोनेक्ष UM, रेबीफ SIC), कोपेक्षोन (ग्लेटिरामर) तथा कोपोलिमर (Copolymer) जैसी दवाई हमले को रोकने के लिए उपयोगी होती हैं। इन दवाई को उपचार हेतु मूलभूत दवाई कह सकते है। यह दवाई महँगी होती है और उन्हें निष्णात डोक्टर की देखरेख में ही दी जानी चाहिए। (४) Mitoxantrone और Natalizumab दवाई भी बारबार हमला होनेवाले मरीजो में असरकारक है । (५) कुछ केस में गामा-ग्लोब्युलिन नामक महँगी दवाई असरकारक साबित हुई हैं। (६) स्टेमसेल थेरेपी से कुछ केसो में अच्छे परिणाम मिले है, लेकिन आगे संशोधन की इसमें जरुरत है । (७) इसके उपरांत इस बीमारी में और भी बहुत से चिह्न होते हैं। अत्यंत दर्द, हाथ-पैर का कड़कपन अथवा कंपन, स्मृतिभ्रंश होना, मल-मूत्र त्याग में परेशानी, कमज़ोरी, थकावट, जातीय जीवन की परेशानी, हताशा जैसी मानसिक व्यथा जैसे अनेक चिह्न होते है। जिनका योग्य उपचार करना चाहिए। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 201 (६) रोग 17 - मल्टिपल स्क्ले रोसिस (Multiple sclerosis) मल्टिपल स्कलेरोसिस की सारवार के कुछ सिद्धांत : (१) जब रोग का नया हमला आए और भारी हो, तब स्टीरोईड्स (intravenous) देना चाहिए। (२) RRMS दर्दीओंको immunomodulatory दवाईयाँ देनी चाहिए। (इन्टरफेरोन, कोपेक्झोन, माईटोजेन्ट्रोन इत्यादि) (३) सेकन्डरी प्रोग्रेसीव रोग के रोगियों को बहुत जल्दी से भारी सारवार देनी चाहिए। (४) प्राइमरी प्रोग्रेसीव प्रकार के रोगी को सामान्यतः कोई दवाई से फायदा नहीं होता है। (५) मल्टिपल स्क्लेरोसिस एक जिंदगीभर चलने वाली बीमारी है। इसलिए इसकी सारवार भी बंद नही करनी चाहिए । रोग के दर्दी की बहुत नजदीक में बारबार शारीरिक तपास एवं नियमित तौर से एम.आर.आई. जाँच करनी चाहिए । दिमाग और करोडरज्जु का कोन्ट्रास्ट एम.आर.आई. थोडे-थोडे समय के बाद करते रहना चाहिए । NMO (Neuromyelitis Optica) : न्यूरोमायलाईटिस ओप्टिका : बिलकुल मल्टिपल स्क्लेरोसिस जैसी लगने वाली यह बीमारी में करोड़रज्जु के तीन से ज्यादा सेग्मेन्टस में डिमायलिनेशन (सूजन) होती है जिसको मायलाईटिस कहा जा सकता है । साथ में आँख की दृष्टि को क्षति होती है । इसके निदान के लिए ब्रेईन, ऑप्टिक नर्व और करोड़रज्जु का कोन्ट्रास्ट एम.आर.आई. और CSF में एन्टी एन.एम.ओ. एन्टीबॉडी की जाँच की जाती है। यह रोग स्टिरोईड्स से काबू में आ सकता है, पर गामाग्लोब्यूलिन और प्लाझमा एक्सचेंज से भी बहुत फायदा होता है, जो सारवार मल्टिपल स्क्लेरोसिस में इतनी उपयोगी नहीं है । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 ܀ मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ ADEM (Acute Disseminated Encephalomyelitis) : ADEM हो सकती है। चेचक या रेबीज़ के हो सकती है। कभीकभी धनुर्वा के शरीर के किसी प्रकार के वायरस के संक्रमण (जैसे कि चेचक, अछबड़े या अन्य) के बाद थोड़े दिन में जब न्यूरोलोजिकल बीमारी हो तब अधिकांश वह - ADEM नामक बिमारी हो सकती है, जिसमें बड़े या छोटे मस्तिष्क, करोड़रज्जु अथवा दोनों से संबंधित चिह्न - समूह दिखते हैं । वायरस बीमारीग्रस्त लोगों में दो हजार में से एक या दो को यह तकलीफ टीके के बाद भी कई बार यह बीमारी टीके से हुए केस भी देखें है । छोटे बच्चों में कई बार यह प्रमाण अधिक होता है और कुछ केस में हमेशा के लिये याददास्त व्यवहार में परिवर्तन या मिर्गी जैसे लक्षण देखे जाते हैं । वयस्क लोगों को इसमें सौभाग्यवश शीघ्र और अधिक लाभ होता है। छोटे मस्तिष्क की तकलीफ में सुधार अधिक अच्छी तरह होता है । यह बीमारी वायरस से होने वाले मस्तिष्क के प्रत्यक्ष नुकसान से अलग है, क्योंकि मस्तिष्क की माइक्रोस्कोपिक या अन्य जाँच में वायरस दिखाई नहीं देते हैं । सामान्यतः वायरस का रोग होने के कुछ दिनों बाद (२ से २० दिन) यह बीमारी शुरु होती है । इस पर से यह माना जाता है कि यह शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता में हुई कमी - खराबी से संबंधित रोग है (immune mediated) । हालांकि नई अत्याधुनिक पद्धति से, DNA घटकों की वायरस के साथ संबंधित कड़ी प्रस्थापित होती है । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17- मल्टिपल स्क्लेरोसिस ( Multiple Sclerosis) चिह्न (१) एन्सेफेलाइटिस प्रकार की यह बीमारी में तीव्र बेचैनी, असमंजस, अधिक मात्रा में नींद और मिर्गी आ सकती है। साथ ही सिर दर्द, बुखार आना इत्यादि होता है । असंतुलन होता है और झटके भी आते है । गंभीर केसो में होश - सतर्कता कम हो जाती है मरीज बेहोश हो जाता है और बाद में श्वास की लयबद्धता चली जाती है । 1 I : (२) मायलाईटिक प्रकार की बीमारी में करोड़रज्जु से संबंधित चिह्न होते हैं, उसे Postinfective Myelitis या Transverse Myelitis कहते हैं । उसमें दोनों हाथ-पैर का कमज़ोर होना, संवेदना का कम होना और मल-मूत्र रुक जाना समाविष्ट है । I 203 Measles, Mumps के वायरस में त्वचा पर चाठे ( rash) पड़ना मुख्य है। उसके २-४ दिनों के बाद ADEM बीमारी होती है और बच्चे को दुबारा बुखार, मिर्गी आती है और बेहोश हो जाता है । Measles, Mumps के बाद छोटे मस्तिष्क की बीमारियाँ अधिक देखने को मिलती हैं। इसमें शारीरिक संतुलन बिगड़ता है। अन्य कई वायरस (जैसे कि एप्स्टीनबार, मायकोप्लाज़मा) के पश्चात् भी ऐसी बीमारी हो सकती है । जिसमें छोटे मस्तिष्क संबंधित मुख्य चिह्न होते हैं । यह बीमारी छोटे मस्तिष्क में संक्रमित वायरस से होने वाली बीमारी से अलग है (Viral Cerebellitis )। यह जान लेना चाहिए क्योंकि यहाँ पर वायरस से होने वाली एलर्जी इस बीमारी का मुख्य कारण है । आगे बताए अनुसार रेबीज़ अथवा चेचक के टीके के बाद भी ऐसी एन्सेफेलोमायलाइटिस प्रकार की बीमारी हो सकती है । रेबीज़ के टीके (सीरम) में हर ७५० में से एक व्यक्ति को ऐसी एलर्जी हो सकती है और ऐसा होने से उनमें से २५ % व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है । रेबीज़ के नए टीके के प्रयोग से न्यूरोलोजिकल चिह्न नहीं दिखते। इस कारण HDCV प्रकार का रेबीज़ का टीका प्रयोग में लाना चाहिए । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ लेकिन अगर बीमारी नियंत्रण में आयें तो सुधार भी अत्यंत अच्छा. होता है। ADEM की ट्रीटमेन्ट में "high potency steroids" का प्रयोग करना चाहिए । कोई खराब केस में प्लाज़मा एक्षचेन्ज अथवा अतिशय महँगे ऐसे इम्युनोग्लोब्युलिन दे सकते हैं जिससे जिंदगी बचने के उदाहरण मौजूद है। सुर्खियाँ मस्तिष्क में व्हाइट मेटर की अनियमितता से होनेवाले डिमायलिनेटिंग डिसीझ में मल्टिपल स्क्लेरोसिस मुख्य है । • यह रोग का प्रमाण स्त्रीओं में पुरुषों से ज्यादा होता है । इस रोग में पक्षाघात होता है, दृष्टि में कमी आती है या डबल दिखता है । शरीर के कुछ हिस्सो में संवेदना लुप्त होना, शरीर का असंतुलन होना, याददास्त कम होना, डिप्रेशन आना वगैरह यह रोग के अन्य लक्षण है । कभीकभी यह रोग में बार-बार हमले आते हैं (RRMS) या शुरू होने बाद हमेशा के लिए बढ़ता जाता है (PPMS) I • कुछ सालों पहले तक असाध्य समझी जानेवाली यह बीमारी के उपचार में आधुनिक चिकित्सा विज्ञानने आंशिक सफलता प्राप्त की है । • कभी कोई वायरस के संक्रमण के बाद ADEM नामकी न्युरोलोजिकल बीमारी हो सकती है । चेचक या रेबीस के टीके के बाद भी यह बीमारी हो सकती है । हाईपोटेन्सी स्टीरोईड के इस्तेमाल से ADEM में अच्छा परिणाम मिलता है । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोटर न्यूरोन डिसीज (Motor Neuron Diseases स्नायुपेशीओ को धीरे धीरे शिथिल और निष्क्रिय करनेवाली न्यूरोलोजी की यह क्रूर-बेरहम कहने योग्य बीमारी है । इसमें अनेक संशोधन होने के बावजूद कोई निश्चित उपचार पद्धति आज भी उपलब्ध नहीं है और मरीज़ को प्रति वर्ष अधिक से अधिक कमज़ोर और क्षीण होकर, मौत के मुँह में धंसते हुए निःसहाय होकर उनके डॉक्टर तथा सगे-संबंधी देखते रहते हैं। यह दुर्भाग्य है कि अंत तक मस्तिष्क प्रमाण में व्यवस्थित काम करने से विचार, एहसास, होश और पीड़ा का अनुभव बना रहता है। • मोटर न्यूरोन डिसीज के प्रकार : (१) हम प्रथम अज्ञात कारण - कारणों से होनेवाली प्राईमरी (इडीओपेथिक) मोटर न्यूरोन डिसीज के विषय में देखेंगे। इस प्रकार में मुख्य कमी मोटर न्यूरोन्स की होती है, जिसके कारण करोड़रज्जु में, जहाँ से चेताएँ निकलती हैं वे एन्टिरिअर होर्न सेल्स तथा मस्तिष्क में ब्रेईन स्टेम में या जहाँ से मस्तिष्क चेताएँ निकलती है, वे बल्बर न्यूरोन्स क्रमश: कोई विचित्र और अगम्य कारणों से नष्ट होते हैं। (२) इस कारण हाथ-पैर के स्नायु गलने लगते हैं और हलनचलन कम हो जाता है। हाथ में वस्तु को पकड़ने या लिखने की क्रिया में या हाथ उपर- नीचे करने में मुश्किल होती है। उसके बाद सीडी उपर-नीचे चढ़ने-उतरने में तथा चप्पल पहनने में भी मुश्किल शुरु हो जाती है । मरीज अंततः बीमारी की शुरूआत Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ होने के बाद ३ से ७ वर्ष में बिस्तर वश हो जाता है, वज़न कम होता जाता है। बीमारी के इस प्रकार को "एमायोट्रोफिक लेटरल स्क्लेरोसिस " ( ए. एल. एस.) कहते है। यहाँ करोड़रज्जु के एन्टिरिअर होर्न सेल्स और उसे कंट्रोल करती उपर से आनेवाली चेताओं (पिरामिडल फाइबर्स) को असर होता है । इसलिए न्यूरोलोजी की भाषा में उसके अपर मोटर न्यूरोन तथा लोअर मोटर न्यूरोन इन दोनों पर असर (जाँच द्वारा ) दिखती है । (३) "प्रोग्रेसिव मस्क्युलर एट्रोफी" मोटर न्यूरोन डिसीज़ का एक ऐसा प्रकार है जिसमें पिरामिडल फाईबर्स को असर नहीं होता, इस लिए अपर मोटर न्यूरोन प्रकार के न्यूरोलोजिकल लक्षण (जैसे कि ब्रिस्क जर्क, एक्षटेन्सर प्लान्टर इत्यादि) नहीं दिखते हैं। प्रमाण में यह धीरे से फैलने वाला और धीरे से बढ़ने वाला रोग है । (४) बल्बर मोटर न्यूरोन डिसीज़ में जैसे कि आगे निर्देशित किया है, मस्तिष्क की चेता के जनिक कोषों पर असर होती है, जिसके कारण आहार निगलना, बोलना इत्यादि महत्त्वपूर्ण क्रियाओं पर प्रभाव पड़ता है। श्वास में तकलीफ होती है । इसमें मृत्यु शीघ्र ही अर्थात् १ से ३ वर्ष में हो जाती है । (4) स्यूडोबल्बर पाल्सी, वह ए. एल. एस. के साथ संबंधित मस्तिष्क चेताओं का रोग है और उसमें भी आहार निगलना, बोलना इत्यादि क्रियाओं पर प्रभाव होता है, साथ ही अनैच्छिक वजह से मात्रा से ज्यादा हंसना, रोना ऐसे विचित्र लक्षण प्रारंभ होते है । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 - मोटर न्यूरोन डिसीज़ (Motor Neuron Diseases) 207 (६) कुछ भाग्यशाली मरीजों में यह रोग एक हाथ-या पैर तक सीमित रहता है, जिसे मोनोपेरेटिक मोटर न्यूरोन डिसीज़ कहते है । मदास मोटर न्यूरोन डिसीज में बहरापन भी साथ हो जाता है, जो सामान्यतः अन्य प्रकार की मोटर न्यूरोन डिसीज में नहीं होता है। निदान : बीमारी का निदान इ.एम.जी. जाँच से सही तरीके से हो सकता है। एक बार इस बीमारी का निदान न्यूरोलोजिस्ट के पास चौक्साई से (ध्यानपूर्वक) करवाना जरुरी है, क्योंकि इस निदान के बाद मरीज के पास समय कम रहता है । इसलिये उसके शेष जीवन का व्यवस्थित आयोजन, उसका आर्थिक, मेडिकल, सामाजिक पहलू का आयोजन इत्यादि शीघ्र ही कर लेना एक व्यवहारिक और आवश्यक बात हो जाती है। कुछ बार मोटर न्यूरोन डिसीज़ जैसे ही लक्षण कई अन्य बीमारी से होते है, जैसे कि होर्मोन-पेराथाईरोइड़ की कमी, करोड़रज्जु का घाव (व्हीप्लेश इन्जरी), कुछ धातुओं का शरीर पर प्रभाव (जैसे कि शीशा), रेडिएशन, रसायनों का दुष्प्रभाव, मायलोमा तथा अन्य प्रकार की केन्सर अथवा एईड्स की बीमारी से होनेवाले मोटर न्यूरोन डिसीज़ भी होते है। ऐसी बीमारी को सेकन्डरी मोटर न्यूरोन डिसीज़ कहते है। इस प्रकार कभी भी किसी प्राईमरी मोटर न्यूरोन डिसीज का निदान/लेबल करने से पहले उपर्युक्त बताए अनुसार मुख्यत: ट्रीटमेन्ट से अच्छे हो सके एसे प्रकार के रोग मरीज को है कि नहि - इसकी जाँच करना बहुत आवश्यक है। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ उपचार : • मरीज़ और सगे-संबंधियों को योग्य समय पर बीमारी की गंभीरता बताकर, शेष जीवन के आयोजन हेतु सूचना देनी चाहिए । फिजियोथेरेपी, मसल ट्रेनिंग और चलने का व्यायाम इत्यादि से स्नायुओं को जितना संभव हो उतना सक्षम रखा जा सकता हैं । साथ ही साधनों की मदद से चलने और हाथ की क्रियाओं में लाभ हो, वह देखना चाहिए जैसे कि बैसाखी, केलिपर्स । यह बीमारी का कोई विशिष्ट उपचार नहीं है। अनेक प्रकार की दवाईयों के संशोधन के बाद हाल ही में एक दवा जिसे राइल्यूजोल कहते है वह अधिक प्रचलित हुई है। इसका लगभग ६-१२ महीने का उपचार का कोर्स होता है । इसका प्रतिमास खर्च रू. २० से ३० हजार आता है, परंतु इससे दर्द केवल ३ से ६ महीने के लिए मंद हो सकता है। इससे सिर्फ समग्रतः वेदना की अवधि बढ़ती है और सामान्य अनुभव बताता है कि इसकी कोई जादूई भूमिका नहीं है। फिर भी योग्य केस में वह दी जा सकती हैं । ओर दवाईयों में रासाजिलिन, माइनोसायक्लिन भी प्रयोगमें है । २००८ के नये संशोधन मुताबिक, लिथियम दवाई से ये रोग में काफी अच्छे परिणाम मिले है। आहार निगलने में, बोलने की प्रक्रिया इत्यादि पर प्रभाव हो तो उसकी भी ट्रेनिंग कुछ हद तक उपयोगी होती है। बाद में आहार निगलने हेतु राइल्स टयूब अथवा बहुत अच्छे ढंग से गेस्ट्रोस्टोमी फीडिंग कर सकते हैं, जिसमें त्वचा के नीचे टनल बनाकर, होजरी में ट्यूब उतारकर पोषण दिया जाता है। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18- मोटर न्यूरॉन डिसीज़ (Motor Neuron Diseases) अंत में जब इमोशनल लेबिलिटी (असंतुलित, अस्थिर भावुकशीलता) डिप्रेशन, अनैच्छिक हंसना, रोना इत्यादि हो तब उसके संबंधित मेडिकल उपचार करवाना चाहिए । श्वास के स्नायु का व्यायाम आरंभ से ही करना चाहिए । कवचित् अंततः वेन्टिलेटर मशीन से श्वास में मदद करके मरीज़ की आयु कुछ समय के लिए बढ़ा सकते हैं । नर्सिंग केर, सगे-संबंधियों का स्नेह, डॉक्टर का उष्मापूर्ण अभिगम इत्यादि, इन मरीजों की पीड़ा में एक सहारा साबित होता है । जो इस कष्टदायक असाध्य बीमारी में मरीज को शेष बचे जीवन में दुःखों को झेलने की ताकत देता है । 209 विशेषतः आजकल स्टेमसेल थेरपी, ये रोग के दर्दीओं के लिए भविष्यकी आशाका किरण है । शायद इससे ये रोग काबूमें आ सकता है । हालाँकि अब तक कोई ठोस परिणाम मिला नहीं है। इस बीमारी के मरीज़ों का एक संगठन भी "मोटर न्यूरोन डिसीज़ एसोसियेशन" अस्तित्व में है, जिसका संपर्क किया जा सकता है। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (सुर्खियाँ) - स्नायु (मांस) पेशीओं को धीरे धीरे शिथील करनेवाले यह रोग में निश्चित उपचार पद्धति के अभाव से मरीज़ के संबंधी या डाक्टर निःसहाय हो कर मरीज़को धीरे धीरे मौत के मुह में जाते देखते रह जाते हैं। • प्राइमरी मोटर न्युरोन डिसीझ, प्रोग्रेसिव मस्क्युलर एट्रोफी, बल्बर मोटर न्युरोन डिसीझ, स्युडो बल्बर पाल्सी, मोनोपेरेटिक मोटर न्युरोन डिसीझ, मद्रास मोटरन्युरोन डिसीझ वगैरह यह रोग के अलग-अलग प्रकार है । • फिजीयोथेरपी, मसल ट्रेनिंग और चलने का व्यायाम इस रोग में महत्वपूर्ण साबित हो सकता है। • आधुनिक संशोधन के अनुसार राइल्युझोल नामक दवा इस रोग में काम आ सकती है । इस बिमारी के मरीज़ो का संगठन-मोटर न्युरोन डीसीज एसोसिएशन-अस्तित्व में है। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यूरोपथी (Neuropathy) : इस प्रकरण में हम मस्तिष्क और करोड़रज्जु में से निकलकर चहेरे, गर्दन, हाथ, पैर और छाती व पेट जैसे विभिन्न स्नायुओं तक संदेशा ले जाने वाली और त्वचा तथा अन्य संवेदनशील अवयव व महत्वपूर्ण अंगों में से करोड़रज्जु, मस्तिष्क की ओर संवेदना लानेवाली नसों, चेताओं (nerves) के रोगों के विषय में बात करेंगे। संदेशा ले जाने वाली चेताओं को मोटर नर्क्स कहा जाता है। संवेदना लाने वाली चेताओं को सेन्सरी नर्क्स कहा जाता है । करोड़रज्जु में से निकलने वाले प्रारंभिक भाग को रेडिकल्स कहा जाता है। वह भी दो प्रकार के मोटर और सेन्सरी होते है। उनके रोगों को रेडिक्युलोपथी कहते है। जबकी चेताओं के रोगों को पेरीफेरल न्यूरोपथी कहते हैं। The n contra cantar Dorsal column Dorsal root Synapse Dorsal root ganglion Corticospinal tract Cel body of Pensory neuron Rubrospinal tract Spinotharam!! tract Dendrite of sensory neuroni White matter Grey metter Receptor Coll body of motor neuron Ventral root Axon of motor neuron Synaptic knobs Effector muscle Cross-section of Spinal cord and a scheme of peripheral nervous system Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ पेरीफेरल न्यूरोपथी के कुछ मुख्य प्रकार है, जिसे पोलीन्यूरोपथी, एन्ट्रेपमेन्ट न्यूरोपथी और मोनोन्यूरोपथी, मोनोन्यूरोपथी मल्टिप्लेक्स कहते हैं । अनेक रोग और अन्य कारणों से ऐसी पेरीफेरल न्यूरोपथी होती है । 212 I कुछ न्यूरोपथी ऐसी होती है जिसमें प्राथमिक न्यूरोलोजिकल बीमारी होती है। जैसे कि वंशानुगत न्यूरोपथी ( HMSN - I to HMSN-VI) या ए.आई.डी.पी.। कुछ में न्यूरोलोजिकल और अन्य सिस्टम के रोग होते है जैसे कि केसर से संबंधित न्यूरोपथी और कुछ बीमारियों में सालों बाद चेताओं पर असर होती हैं, जैसे की डायाबिटीस । एकदम शीघ्र होती और फैलने वाली न्यूरोपथी में अधिकतर अस्पताल में भरती होना पडता है, जैसे कि ए.आई.डी.पी. } मोनोन्यूरोपथी में एक अथवा अधिक विभिन्न चेताओं की कार्यशक्ति बिगड़ती है । सामान्यतः उसमें दर्द होता है । एन्ट्रेपमेन्ट न्यूरोपथी में एक या ज्यादा नस उसके निर्धारित मार्ग में बीच में कही दबती है । जैसे कि कार्पल टनल सिन्ड्रोम में मीडीअन नर्व हथेली की जड़ के आगे दबती है । I पोलीन्यूरोपथी में सामान्यतः शरीर के दोनों तरफ बराबर प्रमाण में संवेदना कम होती है, स्नायुओं की कार्यशक्ति कम होती है और अन्य कुछ मुश्किलें भी आ सकती हैं। जैसे कि मल-मूत्र को त्याग ने में परेशानी होती है । पोलीन्युरोपथी दो प्रकार की होती है । (अ) एक्झोनल न्यूरोपथी : इसमें पैर के लिये और हाथ की हथेली में झुनझुनी होती है, जलन की शुरुआत होती है, रोग धीरेधीरे ऊपर की ओर फैलने लगता है और स्नायु भी कमजोर हो जाते है और संवेदना कम होती जाती है । मुख्यतः चयापचय प्रक्रियाओं की बीमारी (metabolic diseases), जैसे कि डायाबिटीस, कीड़नी, लीवर इत्यादि तकलीफ और कुछ विटामिनों की कमी व भारी धातु, जहरीले पदार्थ या केमिकल्स और मुख्यतः दवाई का दुष्प्रभाव (कुछ एन्टिबायोटिक्स, केन्सर केमोथेरपी, एन्टिमलेरियल इत्यादि) से ऐसी एक्झोनल न्यूरोपथी होती हैं। अधिकतर यह धीरे से आनेवाली और लंबे समय तक चलनेवाली बीमारी है और कष्टसाध्य है । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 213 19 - न्यूरोपथी (Neuropathy) (ब) डिमायलिनेटिंग न्यूरोपथी : उसमें नसों के ऊपर के इन्स्युलेटरी मायलिन की परत में विकृति पैदा होती है, उसे एक प्रकार की एलर्जी मानी जा सकती है। वायरल से लेकर दूसरे अन्य कारणों से नस पर की मायलिन नष्ट हो तो उससे नसों की कार्यक्षमता पर असर होती है और मुख्यतः कंधा तथा आसपास के स्नायुओं में प्रथम कमज़ोरी आ कर बाद में शीघ्र फैलती है। इसमें से कुछ शीघ्र आकर चली जाती है, कुछ जिंदगी को खतरे में डाल देती हैं। जैसे कि ए.आई.डी.पी., जिसके विषय में हम नीचे विस्तार से देखेंगे। कुछ न्यूरोपथी एकबार दूर होने के बाद फिर से भी होती है । कुछ में स्नायु और नसों की बीमारी साथ में देखने को मिलती है, जैसे की मायोटोनिक डिस्ट्रोफी । न्यूरोपथी का वर्गीकरण : १. नसों की सूजन या एलर्जी से होनेवाली न्यूरोपथी जैसे कि ए.आई.डी.पी., सी.आई.डी.पी. संक्रमण से होने वाली न्यूरोपथी जैसे लेप्रसी, डिप्थेरिया, टीक पेरेलिसिस विटामिन की खामी से होने वाली न्यूरोपथी - बेरी बेरी - पेलाग्रा - विटामिन बी-१२ की खामी ४. टोक्सिन (जहरीले द्रव्य) से होने वाली न्यूरोपथी - भारी धातु जैसे आर्सेनिक, सीसा, मयुरी - रसायण जैसे थेलियम, ऑर्गेनोफोस्फरस - दवाई की आड असर जैसे आईसोनियाझेड, केन्सर की दवाईयाँ, डेप्सोन, एन्टीबायोटिक्स डायाबिटीस से होनेवाली न्यूरोपथी या शरीर के अन्य रोगों से होनेवाली न्यूरोपथी -- कीडनी की बीमारी - वास्क्युलाईटिस (कोलेजन डिसीज) Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ केन्सर से होनेवाली न्यूरोपथी ७. मायलोमा जैसे रोगों से होनेवाली पेराप्रोटीनेमिक न्यूरोपथी ८. वंशानुगत न्यूरोपथी (हेरिडिटरी मोटर । सेन्सरी न्यूरोपथी) ९. नस पर दबाव आने से होती न्यूरोपथी (एन्ट्रेपमेन्ट न्यूरोपथी) संक्षिप्त में कहा जाये तो वंशानुगत कारणों से प्रारंभ करके वायरस तक और केन्सर से लेकर दवाई के दुष्प्रभाव तक, शरीर के किसी भी अंग के रोग के कारण से प्रारंभ करके पोषक तत्वों की कमी तक या लेप्रसी से लेकर डायाबिटीस तक, ऐसे अनेक कारणों से नसों-नर्स पर असर हो शकती है या तो अन्य तरह से बोले तो नर्स पर असर हुई हो तो क्वचित पूरे शरीर में रोग का उद्भवस्थान ढूँढना पड़ता है । और फिर भी २० से ३० प्रतिशत पोलीन्यूरोपथी के केस में न्यूरोपथी का सही कारण पता नहीं चलता है। वह आधुनिक चिकित्सा पद्धति के लिए एक चुनौती है। वैसे तो न्यूरोपथी के असंख्य कारण है, पर हमारे देश में प्रचलित और महत्वपूर्ण न्यूरोपथी के बारे में नीचे संक्षिप्त में लिखने का प्रयास किया है। (१) ए. आई. डी. पी. : ए.आई.डी.पी. यानी एक्यूट इन्फ्ले मेटरी डिमायलिनेटिंग पोलिरेडिक्युलोन्यूरोपथी। इसके उपरांत उसे जी.-बी.एस. या गुलियन बारे सिन्ड्रोम भी कहा जाता है । इस रोग में किसी कारणसर ज्ञानतंतु में कमजोरी आती है । मरीज़ के पैर में सबसे पहले असर होने से पैर में सुनापन या बहेरापन आता है, साथ में सामान्य कमजोरी के उपरांत हाथ-पैर के स्नायुओं का शिथिल हो जाना और श्वासोच्छ्वास की जानलेवा तकलीफ तक के लक्षण भी इस बीमारी के मरीज में देखने को मिलते हैं। ज्ञानतंतुओं(नसों) में किसी कारणसर सूजन आने से मोनोसाइट मेक्रोफेज नामक कोषों का प्रमाण बढ़ जाता है। इसकी प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप चेताओं का मायलिन नामक आवरण नष्ट हो जाता है और ज्ञानतंतु कमजोर पड़ जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि ज्ञानतंतु के आवरण 'मायलिन' को प्रतिकूल वैसे एन्टिबोडी (प्रतिद्रव्य) उत्पन्न होने से नसें कमजोर बनने की प्रक्रिया प्रारंभ होती हैं। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 - न्यूरोपथी (Neuropathy) 215 उपर्युक्त प्रक्रिया शुरू होने के सचोट कारण अभी स्पष्ट नहीं है। फिर भी ५० से ६० प्रतिशत मरीजों में ए.आई.डी.पी. होने से पहले गले, जठर या आंत में वायरस का संक्रमण लगा हुआ देखा जाता है। उपरांत हड़कवा, धनुर या पोलियो जैसी बीमारी के टीके लेने के बाद भी कुछ मरीजों में यह बीमारी के चिह्न देखे जाते हैं । इसके उपरांत कभीकभी कोई शस्त्रक्रिया के कुछ सप्ताह बाद ए.आई.डी.पी. हो सकता हैं ।। किसी भी उम्र में पाये जाने वाले इस रोग का विशेषतः प्रमाण ४० से ५५ वर्ष की आयु में विशेष पाया जाता है। कुछ ऋतुओं के साथ इस बीमारी का संबंध है ऐसा भी संशोधन के आधार पर प्रस्थापित हुआ है। बीमारी की तीव्रता अनुसार यह बीमारी को - सामान्य, मध्यम और अतितीव्र, यह तीन प्रकार में अलग किया जा सकता हैं । इस रोग के प्रारंभ में मरीज़ को पैर में झुनझुनी का अनुभव होता है, खालीमूंगी चढ जाती है, पैर दर्द होता है, तो अधिकतर मरीजों में चलते-चलते अचानक पैर लडखड़ा जाते है। दोनों पैरों में लगभग एक साथ ही असर होती है, या क्रमशः कमजोरी बढ़ने से अन्ततः दोनों पैर और हाथ संपूर्णत: पक्षाघात में परिवर्तित हो जाते हैं । दो-चार दिन से लेकर दो-चार सप्ताह तक ऐसा देखा जाता है। कई मरीज़ों में झुनझुनी की शिकायत नहीं भी होती है। मस्तिष्क में से निकलने वाले कुछ ज्ञानतंतु को जब असर होता है, तब मरीज के चेहरे के स्नायु निष्क्रिय हो जाते हैं। आवाज़ में फर्क हो जाता है, आहार निगलने में तकलीफ होती है। पानी पीते समय नाक से प्रवाही बाहर आ जाता है और श्वासोच्छ्वास में तकलीफ हो सकती हैं। दस प्रतिशत मरीजों को श्वासोच्छवास में तकलीफ होती है, जो जिंदगी को खतरे में डाल देती है। ऐसे मरीजों को 'वेन्टिलेटर' कुछ दिनों तक तहत कृत्रिम श्वासोच्छ्वास दिया जा सकता हैं। इस बीमारी के अन्य लक्षण में हृदय की धड़कन की अनियमितता देखी जाती है। कभी बी.पी. कम या ज्यादा हो जाता है या अतिशय पसीना होता है। रक्त में सोडियम की मात्रा कम हो सकती है। मरीज़ संपूर्णत: होश में होता है और क्वचित मरीज़ को मल-मूत्र पर अंकुश बनाए रखने में तकलीफ होती है। लेकिन यह क्वचित ही देखा जाता है। उसके AIDP, Sensory, AMAN, AMSAN, MMN ऐसे अलग-अलग प्रकार है। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ रोग का निदान : उपरोक्त लक्षणवाले मरीज़ की प्राथमिक चेतातंत्र की जाँच में बीमारी के निदान को समर्थन देती कड़ी मिल सकती है। इसमें मुख्यतः 'टेन्डन जर्क्स' (स्नायु के छोर पर हथोड़ी मारने से स्नायु खींचकर हलकासा जर्क्स-झटका उत्पन्न होता है) इस रोग में नाबूद हो जाते है । I दूसरी जाँच में मरीज़ की कमर में से पानी खींचकर जाँच की जाती है उस प्रवाही की जाँच करते समय उसमें प्रोटीन का तत्व (मुख्यत: IgG ) बढ़ा हुआ मालूम पड़ता है, किन्तु कोषों में कोई बढ़ावा मालूम नहीं पड़ता है । EMG/NCV : इस में ई. एम. जी. और एन.सी.वी. की जाँच शामिल है । यह न्यूरोपथी, मायोपथी और न्यूरोमस्क्यूलर जंकशन के रोगों के लिए अतिमहत्वपूर्ण जाँच है । इसमें चेताओं को विद्युत के माध्यम से उत्तेजित करके और स्नायुओं को साधारण दर्द देने वाली सुई से जाँच करके दोनों के बारे में काफी जानकारी हांसिल की जा सकती है । न्यूरोपथी एक्झोनल है या डिमायलिनेटिंग ये पता चलता है । जिससे सारवार में बहुत फर्क पड़ता है I न्यूरोपथी एक चेता से है, कई सारी अलग-अलग चेताओं से है या जनरलाईझड़ न्यूरोपथी है यह पता चलता है । किसी एक चेता में ही रोग हो तो चेता के किस भाग में रोग है ये पता चलता है । चेता और स्नायु को जोड़ते न्यूरो- मस्क्यूलर जंक्शन के रोग का निदान भी हो सकता है । इसमें रोग प्राथमिक तौर पर चेता का है या स्नायु का, ये भी पता चल सकता है । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 217 19 - न्यूरोपथी (Neuropathy) उपचार : ए.आई.डी.पी. के उपचार के लिये सभी मरीजों को शुरूआत में एकदो सप्ताह के लिये अस्पताल में भर्ती करना अच्छा रहता है। इस रोग के उपचार के लिये स्टिरोईड समूह की दवाई, उदाहरण-मिथाईल प्रेड्निसोलोन, ए.सी.टी.एच. नामक दवाई के उपयोग से होने वाले लाभ संदर्भ में एकमत नहीं होने के कारण नई दवाई दी जाती है। ___ प्लाझमाफेरेसिस नामक पद्धति में मरीज़ के शरीर में से एक समय में १५०० से ३००० मि.लि. जितना रक्त निकालकर उसे शुद्ध किया जाता है। सेल सेपरेटर द्वारा कोषों को अलग कर, उसे शुद्धिकरण करके रक्त में से हानिकारक एन्टिबोडिझ (प्रतिद्रव्यों) दूर करके शुद्ध रक्त फिर से मरीज़ के शरीर में चढ़ाया जाता है। इस पद्धति से रोग को बढ़ने से रोका जा सकता है। श्वासोच्छ्वास की तकलीफ दूर की जा सकती है और शीघ्र ही उसे सुधारा जा सकता है। यह प्रक्रिया एक-एक दिन के अंतर में कुल पांच बार किया जाता है। इस रोग की दूसरी असरकारक दवाई है गामा ग्लोब्यूलीन । रक्तवाहिनी में इंजेक्शन के रूप में दी जाती इस दवाई से हानिकारक एन्टिबोडिझ दूर होते है। प्रतिदिन लगभग २० से ३० ग्राम की मात्रा में (४०० मि.ग्रा./कि.ग्रा. शरीर के वजन अनुसार) यह दवाई पाँच दिन दी जाती है । इस दवाई का दुष्प्रभाव भी बहुत कम है। यह दवाई बच्चों तथा हृदय के मरीजों को भी दी जाती हैं। परंतु यह उपचार अतिशय महँगा होने से सभी मरीज़ इस दवाई का लाभ नहीं ले सकते हैं। ऐसे उपचार के सिवाय ए.आई.डी.पी. के मरीजों में अन्य देखभाल रखनी पड़ती है। इन मरीजों को पूरा पोषण मिलता रहे, शरीर में पीठ पर छाले न हो, किसी भी प्रकार का संक्रमण न हो उसका खूब ध्यान रखना पड़ता है । श्वासोच्छ्वास में परेशानी लगे तो आवश्यकता होने पर वेन्टिलेटर मशीन का प्रयोग किया जा सकता है। यह प्रक्रिया महँगी है लेकिन इससे जिंदगी बचाई जा सकती है । इसके उपरांत व्यायाम (फिजियोथेरपी) से भी इस रोग में बहुत लाभ होता हैं, जो उपचार का एक अति महत्वपूर्ण अंग है। प्रारंभिक १५ दिनों के भीतर रोग आगे न बढ़े और मुख्यतः श्वास की परेशानी न हो Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ तो रोग पूरी तरह से मीट जाने की संभावना बढ़ जाती है। लेकिन संपूर्णत: अच्छे होने में शायद कुछ महीने बीत जाते हैं । (२) सी.आई.डी.पी. : ए.आई.डी.पी. जब लम्बे समय तक बढ़ती रहे (२ महीना) अथवा लगातार हमला होता रहे तब उसे सी.आई.डी.पी. (Chronic Inflammatory Demyelinating Polyneuropathy ) कहते है। केवल न्यूरोलोजिकल कारणसर यह रोग हुआ हो तो कई बार वह मोटर न्यूरोन डिसीज़ जैसा होता है। कुछ बार एच.आई.वी. इन्फेक्शन, एस.एल.ई., प्लाझमा सेल डिस्क्रेझिया जैसे कारणों से भी सी.आई.डी.पी. जैसे लक्षण होते हैं। उपचार : (१) मुख्यतः उपर्युक्त बीमारियों में से कोई रोग हो तो उसे ढूँढकर ट्रीटमेन्ट की जाती है और विशेष में स्टिरोईड, प्लाझमा एक्सचेन्ज, एझाथायोप्रिन या मोफीलेट का उपयोग किया जाता है। ए.आई.डी.पी. ट्रीटमेन्ट की तरह क्वचित इम्यूनोग्लोब्युलिन का भी उपयोग किया जा सकता है । (२) यह और ऐसी अनेक न्यूरोपथी में व्यायाम (फिजियोथेरपी) अत्यंत महत्वपूर्ण उपचार है । आवश्यकतानुसार ब्रेसीस, स्प्लिंट, बूट्स और अन्य सहायक उपकरण से मरीजों की दिनचर्या और दैनिक व्यवहार सहज और सरल बनाया जा सकता है । (३) पीड़ा में दर्दशामक दवाई आवश्यकतानुसार दी जा सकती है। (४) लम्बे समय के बाद कभीकभी छोटी-बड़ी सर्जरी करके मरीज़ के स्नायु अधिक कार्यशील किये जा सकते है, जिससे कमजोर रह गये स्नायु में अधिक लाभ प्राप्त हो शके । (३) मल्टीफोकल मोटर न्यूरोपथी : मोटर न्यूरोन डिसीज जैसी लगनेवाली यह बीमारी में शरीर के दोनों बाजु अलग-अलग चेताओं में असमान असर होता है । यह रोग में गामाग्लोब्यूलिन और साईक्लो फोस्फामाईड से फायदा होता है, जबकि स्टिरोईड्स और प्लाझमा एक्सचेंज से नहीं। मोटर न्यूरोन डिसीज़ में कोई सारवार काम नहीं लगती । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 - न्यूरोपथी (Neuropathy) 219 (४) बेल्स पाल्सी तथा अन्य न्यूरोपथी : ऐसा ही एक अन्य वायरस से होनेवाला रोग है, जो सिर्फ मुँह के स्नायुओं का पक्षाघात करता है, जिसे बेल्स पाल्सी (Bell's palsy) कहते है। इसमें मस्तिष्क में से निकलने वाली सात नंबर की चेता पर सूजन आती है, जो अधिकांशतः पवन लगने से, वाईरस के संक्रमण से या तो कान में सड़न होने से होती है । लक्षण : आँख पूरी तरह बन्द न होना, मुँह टेढ़ा होना, मुँह के एक तरफ से लार टपकना, गाल बराबर नहीं फूलना, कान के पीछे दर्द होना, आवाज़ अधिक सुनाई देना और जिह्वा का स्वाद कम हो जाना, जैसे लक्षण हैं। तुरन्त उपचार किया जाये तो ९० से ९५ प्रतिशत मरीज़ १ से २ महिने में लगभग सम्पूर्ण ठीक हो सकते हैं। इसके वायरस सामान्यतः एपस्टीन बार, हर्पिस और सायटोमिगालो इत्यादि होते है । कभीकभी दोनों ओर की सात नंबर की नस को एकसाथ असर होता है, परन्तु अधिकतर तो एक ही हिस्से में असर होता है। कोई केस में असर लंबे समय तक या हमेशा के लिए रह जाता है या वही रोग बारबार हमला करता है और बारबार मुँह का पक्षाघात होता है। (५) डायाबिटीस से उत्पन्न न्यूरोपथी : डायाबिटीस के मरीज़ को लंबे समय के बाद न्यूरोपथी हो सकती है। जितना अधिक पुराना डायाबिटीस और उसका नियमन जितना कम उतनी ही जल्दी न्यूरोपथी होती है । डायाबिटीस में अनेक प्रकार की न्यूरोपथी होती है, जिसके लक्षण निम्न अनुसार पैर की चेताएं-नसें कमजोर होने से चलने में या सीढियाँ चढने में परेशानी होती है। पैर में से चप्पल निकल जाये तो मालूम नहीं पड़ता, जाँघ या पैर में अधिक दर्द होता है । पैर के नीचे गद्दी जैसा लगता है, पैर में खूब जलन होती है, हाथ-पैर में झुनझुनी या सुनापन जैसा लगता है । चोट लगने की असर नहीं होती, स्नान के समय गर्म-ठंडे पानी का भेद मालूम नहीं पड़ता। हथेली और पैर की संवेदना कम होती है। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ पेशाब में तकलीफ, शारीरिक अशक्ति, या तो दस्त या तो पसीना बहुत होता है या कम हो जाता है, हृदय की धड़कन में चढाव-उतार होता है। ४. छाती या पेट के ऊपर की कुछ नस में अधिक जलन होती है। डायाबिटीस को सम्पूर्णतः नियंत्रित रखने से और इन्स्युलीन का उपयोग करने से राहत होती है। न्यूरोपथी के चिह्न को नियंत्रित रखने की योग्य दवाई है, जिससे कुछ हद तक लाभ होता है। (६) लेप्रसी : अपने देश में लेप्रसी (कुष्ठरोग) प्रचलित है (हालाँकि अब वह आंशिक रूप से कम जरूर हुआ है)। मायकोबेक्टीरियम लेप्री नामक जंतु से यह होता है और मुख्यतः संवेदना वाहक चेताओं (सेन्सरी नर्क्स) को वह नुकसान करते है। इससे उँगलियों की संवेदना चली जाती है। चोट का एहसास नहीं होता और हाथ-पैर की उँगलियाँ धीरेधीरे पिघल जाती है और बीमारी शरीर के अन्य अंग में फैलती है । इसके मुख्य दो प्रकार है : (१) लेप्रोमेटस लेप्रसी (२) ट्युबरक्युलोइड लेप्रसी, जिसमें त्वचा को प्रमाण में कम नुकसान होता है, लेकिन न्यूरोलोजिकल नुकसान अधिक है । डेप्सोन, रिफाम्पीसीन, क्लोफाझिमीन जैसी दवाई और योग्य ड्रेसिंग द्वारा यह बीमारी अधिकांशतः काबू में लाई जा सकती है। परंतु उपचार डेढ़ या दो वर्ष से लेकर दस वर्ष तक चलता है। इस बीमारी को रोकनेवाले टीके भी अब उपलब्ध है। (७) केन्सर : केन्सर शरीर के अन्य भाग में हो तो भी नसों को असर होता है, जिसे पेरानीओप्लास्टिक सिन्डोम कहा जाता है । फेफडें के केन्सर में ऐसी न्यूरोपथी खास देखने को मिलती है । पेराप्रोटीनीमिआ या मायलोमा के नाम से जानेवाले एक प्रकार के ब्लडकेन्सर में भी न्यूरोपथी अधिक देखने को मिलती है। इसलिए न्यूरोपथी के तमाम केसों में सघन जाँच की अति आवश्यकता है, वह स्पष्ट है। कुछ केसों में ओटोनोमिक न्यूरोपथी हो सकती है जैसे कि डायाबिटीस में ब्लडप्रेशर का अधिकमात्रा में चढ़ाव-उतार, नाड़ी की धड़कन में चढ़ावउतार, पसीना, मल-मूत्र की तकलीफ आदि अनेक प्रकार की अनैच्छिक Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 - न्यूरोपथी (Neuropathy) 221 प्रक्रियाओं में तकलीफ होती है, इस रोग की पर्याप्त वैज्ञानिक जानकारी न होने से कईबार डॉक्टर्स भी इस बारे में मुश्किल में पड़ सकते है । परिणामतः यह बीमारी के निदान में अधिक समय लगता है। (८) एन्ट्रेपमेन्ट न्यूरोपथी : इस विभाग में सबसे ज्यादा प्रचलित एन्ट्रेपमेन्ट न्यूरोपथी है-कार्पल टर्नल सिन्ड्रोम, जिसमें मीडीअन नर्व, हथेली के नीचे वाले वोलर लीगामेन्ट में दबती है। जिससे हथेली में दर्द, कमजोरी और झुनझुनी होती है और क्वचित कंधे और हाथ तक दर्द फैलता है। आगे बढ़कर अंगूठे के नीचे के स्नायु सूख जाते है। कलाई पर पट्टा पहनने से और थोड़े समय स्टिरोईड आदि दवाई लेने से फर्क न पडे तो कलाई में योग्य जगह पर स्टिरोईड का इन्जेक्शन दिया जा सकता है । अन्ततः छोटी सी सर्जिकल प्रक्रिया द्वारा नस को अलग कर सकते है। इसके उपरांत विभिन्न नसें अपने मार्ग में अलग-अलग जगह दबने से लगभग ३० प्रकार के एन्ट्रेपमेन्ट सिन्ड्रोम होते हैं । १. मीडीअन नर्व का प्रोनेटर सिन्ड्रोम । २. टार्डिव अल्लर पाल्सी (कोहनी के पास) । ३. रेडियल पाल्सी (कंधे और कोह्नी के बीचोबीच ।) रेडियल नर्व सोते समय दब जाने से, जो 'सेटर-डे नाइट पाल्सी' के नाम से प्रचलित है। मेराल्जिया पेरेस्थेटिका : लेटरल क्यूटेनीअस नर्व दबने से जाँघ में हलका दर्द और झुनझुनी उत्पन्न होती है । टार्सल टनल सिन्ड्रोम, जिसमें पोस्टीरीअर टीबीअल नस पैर के चूंटन के नीचे दबने से पैर के तलवे में दर्द या झुनझुनी होती है। छोटी सर्जरी द्वारा इससे राहत मिलती है। अनुभव से पता चला है कि यह सभी एन्ट्रेपमेन्ट अत्यंत प्रचलित है । परंतु मुख्यतः बिना निदान मरीज़ लंबे समय तक परेशान होता रहता है। इसलिए इस बारे में जाग्रतता रखनी चाहिए । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (९) न्यूरोपथी के अन्य प्रकार : विटामिन की कमी से होनेवाली न्यूरोपथी में मुख्यतः विटामिन B12 तथा Folic acid की न्यूरोपथी समाविष्ट है। (इस बीमारी को SCD - Subacute combined Degeneration कहते है)। उसके उपरांत शराब का अधिक सेवन करनेवाले को विटामिन B, की कमी हो जाती है, बेरीबेरी नामक बीमारी होती है, जिसमें दर्दयुक्त न्यूरोपथी होती है। दवाइ से होनेवाली न्यूरोपथी में एन्टिबायोटिक नाइट्रोफ्यूरेन्टोइन, केन्सर की दवाई वीन्क्रीस्टीन, मिर्गी की दवाई फिनाईटोईन और टी.बी. की दवाई आइसोनायाझाईड आदि है। दवाई बंद करने से धीरे धीरे न्यूरोपथी सुधर जाती है । यह याद रखना चाहिए कि यह दवाई लेनेवाले प्रत्येक को न्यूरोपथी नहीं होती है और उसकी रोकथाम के लिए अनेक उपाय भी है, जैसे कि टी.बी. की दवाई आइसोनायाजाईड के साथ विटामिन B6 देना चाहिए । भारी धातु जैसे कि सीसा, सोना, पारा, आर्सेनिक वगैरह के सेवन से या कुछ रसायन जैसे कि थेलियम, हेक्झोकार्बन, आर्गेनो फोस्फेट वगैरह से भी न्यूरोपथी हो सकती है। एक बात ध्यान रखनी चाहिए की २०% से ३०% न्यूरोपथी में कोई कारण नहीं मिलता । अन्ततः इन सब न्यूरोपथी में अपने देश में सबसे अधिक दिखाई देनेवाली न्यूरोपथी डायाबिटीस, लेप्रसी, एईड्स (एच.आई.वी.) तथा आल्कोहोल से होती विटामिन B, और अन्य पोषक विटामिन की कमी से होती B12 तथा फोलिक एसिड की न्यूरोपथी मुख्य है । उसके विरुद्ध शीघ्र से फैलनेवाली ए.आई.डी.पी. और क्रमश: फैलती केन्सर और मायलोमा की न्यूरोपथी खतरनाक है, इस बात का ध्यान रखना चाहिए । इस लिए शीघ्र निदान, संपूर्ण जाँच और पर्याप्त उपचार, योग्य फिजियोथेरपी - यह तमाम न्यूरोपथी की ट्रीटमेन्ट के महत्वपूर्ण पहलू है। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19 - न्यूरोपथी (Neuropathy) 223 -(सुखियाँ • मस्तिष्क और करोडरज्जु में से निकल कर चहरे, गर्दन तथा अन्य स्नायुओं तक संदेशा ले जानेवाली तथा अन्य संवेदनशील अंगों से करोडरज्जु और मस्तिष्क की ओर संवेदना लानेवाली नसों, चेताओं के रोगों को पेरिफेरल न्यूरोपथी कहते है। • मोनोन्यूरोपथी में एक अथवा अधिक विभिन्न नसो की कार्यशक्ति बिगडती है, जबकि पोलीन्यूरोपथी में शरीर के दोनों तरफ बराबर प्रमाण में संवेदन कम होता है। यह दो प्रकार की है, एक्झोनल न्यूरोपथी और डिमायलिनेटिंग न्यूरोपथी। • ए.आई.डी.पी. को गुलियन बारे सिन्ड्रोम भी कहा जाता है। इसमें मरीज़ के ज्ञानतंतु की कमजोरी के कारण पैर में झुनझुनी होती है, बाद में हाथ पैर का पक्षाघात और श्वासोच्छवास में मुश्किल होती है । ए.आई.डी.पी. में प्लाझमा फेरेसीस नामक पद्धति से मरीज़ का रक्त शुद्ध किया जाता है और गामाग्लोब्युलिन की मदद से बहुत राहत होती है। • जब यह रोग लंबा चलता है तो उसे सी.आई.डी.पी. कहते • सिर्फ मुंह के स्नायुओं के पक्षाघात को बेल्स पाल्सी कहते • डायाबिटीस के मरीज़ को लंबे समय के बाद होनेवाली न्यूरोपथी को डायाबिटीक न्यूरोपथी कहते है। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ | • लेप्रसी के रोग में जंतु मुख्यतः संवेदना वाहक नसों को । नुकसान करते हैं। • केन्सर शरीर के अन्य भाग में हो तो भी नसों को असर होता है, जिसे पेरानिओप्लास्टिक न्यूरोपथी कहते है। • एन्ट्रेपमेन्ट न्यूरोपथी - कार्पल टनल सिन्ड्रोम में मिडियन नर्व हथेली के नीचेवाले वोलर लिगामेन्ट में दबती है जिससे हथेली में दर्द और झुनझुनी होती है जो कंधे और हाथ तक फैलती है। ऐसे अलग-अलग लगभग ३० प्रकार के एन्ट्रेपमेन्ट सिन्ड्रोम है। विटामिन की कमी से, शराब के ज्यादा सेवन से, दवाई के दुष्प्रभाव वगैरह कारणों से भी न्यूरोपथी होती है । । अपने देश में सबसे अधिक दिखाई देनेवाली न्यूरोपथी - डायाबिटीस, लेप्रसी, एईड्स तथा आल्कोहोल से होती वीटामिन-बी१ की कमी और वीटामीन-बी-१२ तथा फोलिक एसिड की कमी से होती न्यूरोपथी मुख्य है। • शीघ्र निदान, व्यवस्थित जाँच, पर्याप्त उपचार और योग्य फिजियोथेरपी से बहुधा न्यूरोपथी की अच्छी तरह सारवार हो सकती है। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मायस्थेनिया ग्रेविस (Myasthenia Gravis) मायस्थेनिया ग्रेविस एक कष्टसाध्य, दीर्घकाल तक चलनेवाली ज्ञानतंतु और स्नायु की बीमारी है । इस बीमारी में स्नायु में समय - समय पर कमज़ोरी आ जाती है । ऐच्छिक स्नायु असाधारण तीव्रता से थक जाते हैं । अस्थितंत्र के साथ जुड़े हुए स्नायु - आँख, मुँह, जिह्वा और हाथ-पैर के हलन चलन पर नियंत्रण करनेवाले स्नायु इस बीमारी में असरग्रस्त होते है | चेता और स्नायु के बीच की कड़ी को न्यूरो मस्क्यूलर जंक्शन कहते है, जो तरंगो को चेता से स्नायु तक पहुँचाता है । ज्ञानतंतुओं में से स्नायु तक पहुँचने वाली तरंगो के प्रसारण में क्षति होने की वजह से यह रोग होता है, लेकिन उसमें ज्ञानतंतु और स्नायु स्वयं स्वस्थ - क्षतिरहित होते है । I यह रोग का प्राथमिक प्रारंभ मुख्यतः स्त्रीओं में ४० साल की उम्र के पहले और पुरुषो में ४० साल की उम्र के बाद होता है । लेकिन बालिकाओं में यह रोग क्वचित ही देखा जाता है । यह व्याधि संक्रमित या वंशानुगत नहीं है । T चार हिस्सो में विभाजित यह रोग में सर्वप्रथम ध्यान केन्द्रित करनेवाला लक्षण आँखो के स्नायु की कमज़ोरी है (Grade - १) । अंशत: मरीज़ो में यह रोग आँखो तक सीमित रहता है । परन्तु अधिक समय पश्चात अन्य स्नायुओ, जो कि हँसने की, चबाने की, निगलने की, बोलने की और हाथ-पैर चलाने की क्रिया करते है, (उनके) उपर भी असर दिखने लगती है, अन्त में श्वासोच्छ्वास की क्रिया करने वाले स्नायु पर भी जब बीमारी की असर होती है तब सांस लेने में भी तकलीफ होती है और जान खतरे में पड़ जाती है (Grade-४) । मुख्य लक्षण : १. २. ३. ४. एक या दोनों पलकें गिर जाना । आँख-नजर इधरउधर घुमाने में तकलीफ । चलने में अस्थिरता, कमज़ोरी, थकान । हाथ और ऊँगलियों में कमज़ोरी । आहार निगलने में परेशानी । - Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ ६. बोलने में परेशानी होना, बोलते बोलते आवाज़ क्षीण हो जाना, नाक से आवाज़ निकलना । ७. श्वासोच्छ्वास में तकलीफ । मायस्थेनिया ग्रेविस के मरीज़ो के लिये श्वासोच्छ्वास की तकलीफ बहुत खतरनाक हो सकती है। यह तकलीफ हो तब मरीज़ को अस्पताल में भर्ती करना आवश्यक हो जाता है । रोग बढ़े तब अथवा शरीर में संक्रमण या गर्भावस्था जैसे संयोगो में श्वास की तकलीफ हो सकती है। यह रोग में बारबार स्नायुओं की कमजोरी होती है। जो बाद में खत्म भी हो जाती है या कुछ समय के पश्चात बढ़ भी सकती है या लंबे समय तक यथावत् भी रह सकती है। यह बीमारी की उग्रता प्रत्येक मरीज में प्रति घंटे बदल सकती है। अधिक परिश्रम से मरीज़ दिन के अंत भाग में ज्यादा कमज़ोर दिखाई देता है, आराम करने से यह परिस्थिति में आंशिक सुधार होता है । ऐसे संजोग में आधुनिक उपचार से मरीज़ अधिकांशतः आराम पाकर सामान्य जीवन व्यतीत कर सकते है । इस रोग में थायमस ग्रन्थि भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उसके कोषों को शरीर के रोगप्रतिकारक तंत्र का एक हिस्सा माना जाता है। छाती में स्थित यह ग्रंथि बचपन में बड़ी होती है, जो क्रमश: छोटी होती चली जाती है। और वयस्क उम्र के सामान्य व्यक्तिओं में उसे ढूंढना बहुत मुश्किल हो जाता है । लेकिन मायस्थेनिया ग्रेविस के मरीज़ो में अधिकांशतः थायमस ग्रन्थि बड़ी देखी जाती है। १० प्रतिशत से १५ प्रतिशत मरीज़ो में थायमोमा नामक थायमस ग्रन्थि की गांठ होती है, जो सामान्यतः साधारण (यानि की केन्सर की नहीं) होती है। लेकिन कभीकभी उसमें केन्सर होने की संभावना होती है। उपरांत करीबन ५ प्रतिशत मरीज़ो में थायरोईड ग्रन्थि की बीमारी देखने को मिलती है। मायस्थेनिया ग्रेविस की शुरूआत कोई कोई मरीज में अचानक हो सकती है, जो सभी स्नायुओ में उग्रतापूर्वक कमजोरी लाता है। अधिकतर प्राथमिक लक्षणों से यह बीमारी का निदान करना मुश्किल है। परन्तु निष्णात डॉक्टर रोग का निदान उसके लक्षण और चिह्न से कर सकते है। मुख्यतः थकान के लक्षणों हेतु आँखो और हाथ-पैर के स्नायुओं पर ध्यान दिया जाता है। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 227 20 - मायस्थेनिया ग्रेविस (Myasthenia Gravis) निदान : १. टीलस्टीग्मीन टेस्ट : टीलस्टीग्मीन के इंजेक्शन से रोग के चिह्न में तुरंत लाभ देखा जाए तो उसके आधार पर निदान हो सकता है। ई.एम.जी. : ज्ञानतंतुओ को विद्युतशक्ति से बारबार उत्तेजित करने से उसकी तरंगो के प्रसारण में रही कमी जानी जा सकती है। ३. खून परिक्षण में एसिटाईलकोलिन रिसेप्टर एन्टिबोडी लेवल टेस्ट मुख्य है। हालाँकि रोग की गंभीरता बताने में और रोग की अवस्था की पुनः निरीक्षण में (follow-up) ये लेवल कितने विश्वसनीय है, यह बात निश्चित नहीं है। कभी कभी एन्टीमस्क एन्टीबोड़ी टेस्ट भी किया जाता है । ४. सी. टी. स्केन थोरेक्स : 'थायमोमा' नामक गांठ ढूँढने के लिये यह छाती का टेस्ट है । ५. थायरोईड का टेस्ट तथा अन्य आवश्यक ब्लड टेस्ट । • उपचार : इस रोग के उपचार में एन्टिकोलीनेस्टरेस दवाई उपयोग की जाती है, जैसे कि नीओस्टिग्मीन या पायरिडोस्टिग्मीन, जो ज्ञानतंतुओं में से स्नायुओ की ओर जाने वाली तरंगो का प्रसारण मजबूत करती है। परिणामतः एसिटाईलकोलिन नामक तत्त्व ज्यादा समय तक उपलब्ध रहता है, जिससे स्नायुओ की संकुचनशक्ति बढ़ती है। यह दवाई की असर मरीजो के लिए ज्यादा लाभकारक होती है, लेकिन उससे मरीज़ अपनी सब क्रियाएँ पूर्ववत् क्षमता से नहीं कर सकता । थायमस ग्रन्थि को ऑपरेशन द्वारा निकाल लेने से बहुत फायदा होता है। रोग की प्रारम्भिक अवस्था में यह ऑपरेशन किया जाय तो ५० % से अधिक मरीजो को लाभ होता है । दर्दी की उम्र ४५ से कम हो तब यह ऑपरेशन करने की सलाह खास दी जाती है। उससे विपरीत ५० % मरीज़ो में स्टीरोईड समूह की दवाई से लाभ होता है। कुछ लोगो को एझाथायोप्रिन नामक दवाई से आराम मिलता है, परन्तु लंबे समय तक लेने से उसका दुष्प्रभाव भी देखा जाता है । नई दवाईयों में माईकोफिनोलेट नामक दवाई मुख्य है। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ ज्यादा मात्रा में असरयुक्त मरीज़ो में प्लाझमाफेरेसिस नामक उपचार किया जाता है। जिसमें मरीज़ का रक्त शुद्ध करके पुनः उसे शरीर में चढ़ाया जाता है। यह क्रिया से स्नायु की ओर जाने वाली तरंगो के प्रसारण में क्षति उत्पन्न करने वाले एसिटाईलकोलिन प्रतिद्रव्य (एन्टबोडिज) तथा अन्य पदार्थ दूर होते है। वास्तव में दर्द की किसी भी अवस्था में यह उपचार पद्धति से मरीज़ को फायदा होता ही है। न्यूरोलीजस्ट तय करते हैं, कौन से मरीज में कब करना । रोग की गंभीर स्थिति में जब कोई दवाई असर न करे तब तो यह उपचार अकसीर है । कभी कभी मरीज़ मायस्थेनिया क्राईसिस (कटोकटीयुक्त स्थिति)में आ जाता है । और रोग तीसरी, चौथी या अन्तिम अवस्था में आ जाए तब यह उपचार अर्थात, प्लाझमाफेरेसिस द्वारा मरीज़ की जिंदगी बचाई जा सकती है। कुछ मरीजो में प्लाझमाफेरेसिस एक से ज्यादाबार भी करने की जरूरत पड़ती है । ऐसा ही अत्यंत सही लेकिन महँगा उपचार इम्यूनोग्लोब्यूलिन के इन्जेक्शन का है, जिसमें स्वस्थ मनुष्यों के रक्त में से अथवा सिन्थेटिक तरह से एकत्रित किया गया रोगप्रतिकारक द्रव्य, जिसे इम्यूनोग्लोब्यूलिन कहते है, वह मरीज़ को विपुल मात्रा में नस द्वारा दिया जाता हैं । सामान्यतः ४०० मि.ग्रा./कि.ग्राम. प्रतिदिन करीबन तीन से पांच दिन यह दवाई प्रयोग की जाती है। उसका अंदाजित खर्च दो लाख तक हो सकता है। इस प्रकार के उपचार द्वारा भी रोग को शीघ्र नियंत्रण में ला कर जिंदगी बचाई जा सकती है। यह उपचार भी बार बार किया जा सकता है। सर्जरी : मायस्थेनिया रोग में सर्जरी दो हेतुसर की जाती है । १. अगर आगे बताये मुजब थायमोमा नामकी गांठ हो तो । २. गांठ न भी हो, पर व्यक्ति की उम्र-४५ से कम हो तो । इस सर्जरी को थायमेक्टमी कहते है और उसके लंबे अरसे के परिणाम काफी अच्छे पाए गए है । इसके बाद दवाई क्रमशः बंद भी हो सकती है। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 - मायस्थेनिया ग्रेविस (Myasthenia Gravis) 229 इस तरह मायस्थेनिया ग्रेविस प्रमाण में कठिन और जटिल रोग है। प्रत्येक मरीज़ अनुसार मात्रा और चढ़ाव-उतार विभिन्न रहने से, तुरन्त निदान करके निष्णात चिकित्सक का उपचार किया जाये तो अधिकांशतः मरीज़ो को बचाया जा सकता है। कौन से मरीज को कौन सी दवाई या उपचारपद्धति देनी है, वह निष्णात डॉक्टर ही तय कर सकते है । • लेम्बर्ट इटन मायस्थेनिक सिन्ड्रोम (LEMS) : यह भी मायस्थेनिया जैसा न्यूरामस्क्यूलर जंक्शन का रोग है । ८५% (प्रतिशत) मरीज ४० वर्ष उपर की उम्र के होते है। ६७% मरीज में यह रोग फेफड़े के केन्सर से होने वाले पेरानियोप्लास्टिक डिसोर्डर के रूप में होता है । मायस्थेनिया से ये अलग पड़ता है क्योंकि (१) कंधे और जाँघ के स्नायुओं की कमजोरी इस रोग के मुख्य लक्षण है। (२) आँखो के स्नायु की कमजोरी इसमें मामूली होती है। (३) कई मरीजों को बोलने और खुराक निगलने में भी तकलीफ होती है। (४) अनुकंपी - परानुकंपी चेतातंत्र की तकलीफ जैसे कि आँखें सूकी हो जाना, कम दिखना, कब्जी, कम पसीना होना वगैरह भी इसमें देखने को मिलता है । Electrophysiology (इ.एम.जी. एवं. आर. एन.एस.) जाँच में ये . रोग मायस्थेनिया से तुरंत अलग पकड़ा जाता है । यह रोग की शक्यता वाले मरीज की संपूर्ण जाँच करवानी चाहिए और उसको कोई प्रकार का केन्सर, मुख्यतः फेफडे का है के नहि वह पता करना चाहिए । अगर मरीज को केन्सर हो तो उसकी सारवार करने से LEMS के लक्षणों में फायदा हो सकता है । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ मायस्थेनिया में उपयोग होने वाली दवाई जैसे कि मेस्टिनोन, स्टीरोईड्स, एझाथायोप्रिन, मायकोफिनोलेट वगैरह इस रोग में मायस्थेनिया जितनी अक्सीर साबित नहीं हुई है । डाई अमाईनोपायरिडिन नामक दवाई इसमें मददरूप हो सकती है । 230 सुर्खियाँ • ज्ञानतंतुओं में से स्नायु तक पहुंचने वाली तरंगो के प्रसारण में क्षति होने से यह रोग होता है । जिसमें स्नायु में समय समय पर असाधारण कमजोरी आती है । • आँखों के स्नायु की कमजोरी से शुरू करके श्वासोच्छवास की क्रिया करनेवाले स्नायु भी कमजोर हो सकते है, तब परिस्थिति बिगड भी सकती है । • एसीटाईलकोलिन रिसेप्टर एन्टिबोडी टेस्ट, इ.एम.जी., टिलस्टिग्मीन टेस्ट, थोरेक्स सिटीस्कैन और थायरोईड का टेस्ट करवाने पर रोग का निदान किया जाता है । • स्टिरोईड, एझाथायोप्रीन वगैरह दवाईया; प्लाझमा फेरेसिस नामक उपचार पद्धति और इम्युनोग्लोब्युलिन के इन्जेक्शन वगैरह से यह रोग काबू में आ सकता है। हालांकि स्नायु की थकावट दूर करने के लिए पायरिडोस्टिग्मीन और नीओस्टिग्मीन का उपयोग होता है । ज्यादातर केन्सर से जूडी न्यूरोमस्क्यूलर जंक्शन की बीमारी LEMS, मायस्थेनिया जैसी दिखती है, पर अलग है । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्नायु की बीमारियाँ (Myopathies) अभी तक हमने मस्तिष्क और चेतातंत्र की अधिकतर बीमारियों के विषय में जाना। अब हम मुख्यतः स्नायु की बीमारियों के संदर्भ में कुछ जानेंगे। हम जानते है कि हमारे शरीर के प्रत्येक अवयव या प्रत्येक भाग का संचालन मस्तिष्क से होता है । इस तंत्र में मस्तिष्क, छोटा मस्तिष्क, करोड़रज्जु, उसमें से निकलने वाली चेताएँ, चेता और स्नायु के बीच की कड़ी अर्थात् न्यूरोमस्क्युलर जंक्शन और स्नायुओं का समावेश होता है । न्यूरोमस्क्युलर जंकशन की बीमारी मायस्थेनिया ग्रेविस संदर्भ में हमने आगे विस्तार से वर्णन किया है । स्नायुओं की बीमारियों का वर्गीकरण : मुख्यतः इस रूप से किया जा सकता है । (A) मस्क्युलर डिस्ट्रोफी : (B) (C) स्नायुओं के कोषों की वंशानुगत बीमारी जैसे कि डशेन मस्क्युलर डिस्ट्रोफी चेनलोपथी : जैसे कि हायपोकेलेमिक या हायपरकेलेमिक पीरियोडिक पेरेलिसिस मेटाबोलिक मायोपथी : शर्करा, चरबी वगैरह के चयापचय में खामी के कारण होनेवाली स्नायुओं की कमजोरी (D) माईटोकोन्ड्रियल मायोपथी : शरीर के प्रत्येकं कोष के उर्जास्त्रोत - माईटोकोन्ड्रिआ में खामी होने से होनेवाली स्नायुओं की कमजोरी जैसे कि कर्न सयारे सिन्ड्रोम (E) कोन्जनीईटल मायोपथी : जैसे कि सेन्ट्रल कोर डिसीझ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (1) इन्फ्लेमेटरी मायोपथी : जैसे कि पॉलीमायोसायटिस, डर्मटोमायोसायटिस इत्यादि (G) एक्वायई मायोपथी : अब हम स्नायुओं की बीमारियों में मुख्यतः वंशानुगत अर्थात् हेरिडिटरी मायोपथीज के संदर्भ में जानेंगे । (A) मस्क्युलर डिस्ट्रोफी : (१) डशेन मस्क्यु लर डिस्ट्रोफी ( Duchenne Muscular Dystrophy): 'एक्स' रंगसूत्र (Sex-linked recessive) से संबंधित यह वंशानुगत बीमारी एक लाख में से ३० किशोरों में देखने को मिलती है । स्त्रीयां इस रोग से बची है, जब की बीमारी का वहन उन्हीं से होता है। वैसे तो यह बीमारी जन्म से ही होती है, किन्तु उसके चिह्न ३-५ वर्ष की उम्र में नजर आते है । बच्चा चलते चलते गिर जाए, बैठकर उठने में या सीढियाँ चढ़ने में परेशानी का अनुभव करे और क्रमशः कमज़ोरी में बढ़ोतरी हो । पीडी के स्नायु में सूजन हो जाये, जिसे स्यूडो हायपरट्रोफी कहते है । १०-१२ वर्ष की उम्र तक तो अधिकतर मरीज़ो को व्हीलचेयर का सहारा लेना पड़ता है, ऐसे मरीज़ो में उग्र और कभी जानलेवा फेफडे का संक्रमण लगने की भी संभावना रहती है। ऐसे बच्चों में मानसिक विकास मंद होता है और हृदय की बीमारी भी देखने को मिलती है। निदान : इस बीमारी का निदान निम्न अनुसार किया जाता है : (१) रक्त के नमूने में सी.पी.के., एस.जी.ओ.टी., आल्डोलेज़ जैसे एन्जाईम्स का प्रमाण बढ़ा हुआ मालूम पडता है । (२) इ.एम.जी. जाँच में कुछ निश्चित गड़बड़ पकडी जाती है (मायोपथिक पेटर्न)। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 - स्नायु की बीमारियाँ (Myopathies) 233 (३) मसल बायोप्सी करके माईक्रोस्कोप जाँच में सुनिश्चित निदान होता है। (४) परिवार के अन्य पुरुष, बच्चे और माता के भाई और उनके बच्चों में ऐसी बीमारी के लक्षण पाए जाने की पूरी संभावना है। उपचार: स्टिरोइड से इस बीमारी पर कुछ मात्रा में अंकुश लगाने के बाद भी इसका कोई ठोस-अकसीर इलाज अभी तक संशोधित नहीं हुआ है। फिरभी व्यायाम और मानसिक सहायता इन मरीजों का विश्वास बनाए रखने में अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । इसलिए मस्क्युलर डिस्ट्रोफी एसोसियेशन और डी.एम.डी. सपोर्ट ग्रुप जैसी संस्थाए कार्यरत हैं। नई पद्धतियों में जीन थेरेपी / स्टेमसेल थेरेपी आशास्पद लगती है । (२) बेकर मस्क्युलर डिस्ट्रोफी : 'एक्स' रंगसूत्रयुक्त की यह बीमारी में स्नायुओं की कमजोरी डशेन मस्क्युलर डिस्ट्रोफी जैसी ही होती है, लेकिन कमजोरी की तीव्रता और बीमारी बढने की गति मंद होती है । बीमारी के प्रारंभिक चिह्न ५ से १५ वर्ष की आयु में दिखते हैं और सामान्यतः मरीज ४ से ५ दशक जीवित रहता है। (३) लिंब (उद्दीपक पदार्थ) गर्डल डिस्ट्रोफी : । स्नायुओं की यह बीमारी पुरुष और स्त्री दोनों में देखने को मिलती है। यह जीवन के पहले से चौथे दशक तक होते हुए देखने को मिलती है । क्रमश: बढ़ती हुई यह बीमारी में कमर और कंधे के स्नायुओं में कमजोरी मालूम पडती है, जो क्रमशः बढ़ती जाती है। उदरपटल की कमजोरी से कभी श्वासोच्छ्वास की गंभीर परेशानी हो सकती है । इसके उपरांत हृदय की तकलीफ भी शुरु हो सकती है । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 (B) मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (४) मायोटोनिक डिस्ट्रोफी : यह बीमारी में चहेरे के स्नायु कमजोर हो जाते है। मरीज के चेहरे पर यह बीमारी स्पष्ट दिखती है। इसके उपरांत गले और हाथ के स्नायुओं को भी असर होता है । मायोटोनिया देखने को मिलता है, जिस में मुठ्ठी बंध करने के बाद वह सरलता से खुल नहीं सकती। मरीजों में अल्पमानसिक विकास, हृदय की बीमारी और मोतियाबिन्द इत्यादि देखने को मिलता है। इसके उपरांत फेसियोस्केप्यूलोह्युमरल मस्क्युलर डिस्ट्रोफी में मुँह, कंधे और हाथ के स्नायुओं में कमजोरी होती है। इस दर्द में मायोटोनिया हेतु फेनिटोइन नामक दवाई दी जाती है। चेनलोपथी : आयन चेनल जो स्नायुओं में कोषों के बीच होती है, उनमें खामी होने से होनेवाली मायोपथी मुख्यतः नीचे मुजब है । (१) हायपोकेलेमिक पीरियोडिक पेरेलिसिस : रक्त में पोटेशियम तत्व कम होने से हाइपोकेलेमिक पीरियोडिक पेरेलिसिस हो सकता है जिस में हाथ में-कंधे तरफ और पैर मेंजांघ तरफ के स्नायुओं में कमजोरी आती है। यह बीमारी बार बार हमला कर सकती है। कभी कभी आंखो और श्वासोच्छ्वास के स्नायुओं पर भी असर हो सकती है। योग्य उपचार न मिलने पर जानलेवा हो सकती है। हृदय की धड़कन में अनियमितता देखने को मिलती है। रक्त में पोटेशियम का प्रमाण कम होते हुए देखने को मिलता है। टेन्डन जस की तीव्रता कम मालूम पडती है । इसमें मुख्यतः केल्शियम की चेनल में खामी होती है। पोटेशियम-नस में इंजेक्शन बोतल के तहत या मुँह द्वारा देने से स्नायुओं की कमजोरी दूर हो जाती है। इसमें तबीबी देखरेख अत्यंत जरूरी है क्योंकि पोटेशियम की मात्रा में वध-घट होने से गंभीर दुष्प्रभाव हो सकते है। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 स्नायु की बीमारियाँ (Myopathies) (२) हाईपरकेलेमिक पीरियोडिक पेरेलिसिस : रक्त में पोटेशियम की मात्रा बढ़ने से भी इस प्रकार की स्नायुओं की कमजोरी आ सकती है । इसमें मुख्यतः सोडियम चेनल में खामी देखने को मिलती है। मरीज को कम पोटेशियम और ज्यादा शर्करा युक्त आहार लेना चाहिए। ज्यादा श्रम, उपवास और ठंड से बचना चाहिए । एसिटाझोलामाईड और क्लोर थायाझाईड दवाईयों से फायदा हो सकता है । (३) पेरामायोटोनिया कोन्जेनीईटा : 235 इस रोग में ठंडे वातावरण से या तो बिनाकारण कमज़ोरी आ सकती है । शारीरिक प्रवृत्ति से कमज़ोरी बढ़ती है । ग्लुकोझ या अन्य कार्बोहाईड्रेटयुक्त पदार्थों का सेवन करने से यह कमजोरी दूर हो सकती है । थायाझाईड डाइयूरेटिक और मेक्झिलेटिन नामक दवाई से फायदा होता है । लेकिन इसका असर होते समय लगता है । / (C) मेटाबोलिक मायोपथी ( Metabolic Myopathy) : स्नायुओं की जन्मजात चयापचय की गड़बड़, जैसे कि ग्लायकोजन स्टोरेज, मायो फोस्फोरीलेज़, लिपिड स्टोरेज तथा कुछ मायटोकोन्ड्रीयल मायोपथी इस प्रकार में समाविष्ट है । इसमें मरीजको शुरूआत में थोडा-सा काम करने पर भी थकावट महसूस होती है । व्यायाम करते समय स्नायुओं में दर्द होता है, जो सामान्य व्यक्तिओं में नहीं होता । स्नायुओंकी कमजोरी छोटी उम्र से ही दिखना शुरू हो जाती है । पेशाब का रंग कोला के रंग जैसा लगता है । खून में शर्करा, चरबी वगैरह के चयापचय में उपयोग में आनेवाले एनझाईम की मात्रा कम हो जाती है । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ चयापचय की जिस खामी से यह रोग होता है, उसका उपचार करने से कुछ रोग में फायदा मिलता है। नियमित कसरत (Physiotherapy) तो जरूरी है ही। (D) माईटोकोन्ड्रियल मायोपथी : इसमें माईटोकोन्ड्रिया जो शरीर के प्रत्येक कोष का ऊर्जास्त्रोत है उसमें खामी देखने को मिलती है, जैसे कि माईटोकोन्ड्रिआ के डी.एन.ए. का म्यूटेशन, एन्झाईम की खामी या उसकी रचना में खामी । इसमें मुख्यतः आँख के स्नायुओं पर ज्यादा असर देखने को मिलती है। साथमें हाथ और पैर के स्नायुओं में भी कमजोरी होती है । इसके अलावा नाटापन, रीढ की हड्डी का टेढा हो जाना, हृदय के स्नायुओं की कमजोरी, न्यूरोपथी, बहेरापन, होर्मोन्स की खामी, खिंच, चलने में तकलीफ होना, सरदर्द, पक्षाघात होना वगैरह कई मरीजो में देखने को मिलता है। यह सब चिह्न समूह पर से कौन से प्रकार की माईटोकौन्ड्रियल मायोपथी है, यह पता चल सकता है। जैसे कि, - कर्न सयारे सिन्ड्रोम - एम.ई.आर.आर.एफ. - एम.ई.एल.ए.एस. जनीनों की विशिष्ट जाँच करने से माईटोकोन्ड्रियल डी.एन.ए. म्यूटेशन देखने को मिलता है । नियमित कसरत के अलावा इसका कोई उपचार नहीं है। को-एन्झाईम क्यू-१० और विटामिन्स देने से स्नायुओं की कमजोरी में थोड़ा फायदा थोडे समय तक देखने को मिल सकता है। मरीज को कमजोरी के अलावा जो लक्षण हो, उसका उपचार करना चाहिए। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 237 21 - स्नायु की बीमारियाँ (Myopathies) (E) 'कोन्जेनाइटल' (जन्मजात) मायोपथी : नवजात शिशुओ में देखने को मिलनेवाली स्नायुओं की बीमारी में सेन्ट्रल कोर, निमेलाईन और सेन्ट्रोन्यूक्लिअर मायोपथी का समावेश होता है। इसमें ज्यादातर जन्म से ही स्नायुओं की कमजोरी देखने को मिलती है। नवजात शिशु बिना हलन-चलन पड़ा रहता है । या उसका हलन-चलन सामान्य बच्चों के मुकाबले कम होता है। जैसे जैसे बच्चा बड़ा होता है, उसके स्नायु कई बार कडक हो जाते है और उसका मानसिक विकास मंद हो जाता है । स्नायुओं में घिसाव (atrophy) देखने को मिलता है। कई बच्चों में बढ़ती उम्र के साथ स्नायुओं में सामान्य बच्चों जैसे ही विकास होता है और मानसिक विकास भी बराबर होता है । इस रोग में बच्चों को खेलने कूदने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। जिससे की उनके स्नायुओं में ताकात बढ़े और उसका सही ढंग से विकास हो । जरूरत पड़ने पर व्यवसायिक निष्णात की सलाह भी ली जा सकती है। (E) इन्फ्लेमेटरी मायोपथी : स्नायुओं के सूजन से होती कुछ जटिल बीमारियों के संदर्भ में अब हम देखेंगे। पोलीमायोसायटिस और डर्मेटोमायोसायटिस : पोलीमायोसायटिस और डर्मेटोमायोसायटिस क्या है ? इस बीमारी में प्रथम स्नायुओं में सूजन की-'इन्फ्लेमेशन' की-प्रक्रिया होती है और उससे स्नायु शिथिल और कमजोर होते जाते है। इस बीमारी का मुख्य लक्षण स्नायुओं की कमजोरी है, जो क्रमशः बढ़कर मरीज को विकलांग बना देता है । डर्मेटोमायोसायटिस के मरीजों में चेहरे, पीठ, छाती, कोनी और घुटने के भाग पर लालाश वाले चाठे भी देखने को मिलते है । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ कारण : यह बीमारी वंशानुगत नहीं है । शरीर की रक्षणात्मक इम्यून सिस्ट्म ( प्रतिकारतंत्र) में विक्षेप होने से स्नायुओं को नष्ट करने वाले कोष पैदा होते है, जो यह बीमारी का कारण है । यहाँ यह बताना आवश्यक है कि यह बीमारी संक्रमित नहीं है I लक्षण : १८ वर्ष के नजदीक की आयु में होती इस बीमारी के लक्षण, इसकी तीव्रता और बढ़ने की गति आदि में बहुत विविधता देखने को मिलती है । कुछ महीनों के अंतर्गत ही स्नायुओं में कमजोरी फैलती है । क्वचित यह बीमारी रूक जाती है, लेकिन अधिकतर मरीजो में अगर योग्य उपचार न किया जाए तो, कमजोरी क्रमशः बढ़ती ही जाती है । मरीज की चाल अस्थिर हो जाती है और वह बार बार गिर जाता है समय बीतने पर चलना बिल्कुल ही बंद हो जाता है और मरीज बिस्तरवश हो जाता है । शीघ्रता से बढ़ती हुई बीमारी में मरीज को ठीक होने की संभावना अधिक होती है। करीबन ५० % मरीजों में दवाई से सुधार हो सकता है । 1 इन मरीजों में स्नायुओं के दर्द से मुख्यतः सीढ़ी चढ़ने में या कुर्सी में से खडे होने में तकलीफ होती है । हाथ उपर करने में भी तकलीफ होती है । गरदन के स्नायुओंमें कमजोरी देखने को मिलती है । जैसे जैसे बीमारी बढ़ती है, वैसे वैसे आहार, प्रवाही निगलने में और श्वास लेने में भी परेशानी होती है । निदान : उपर्युक्त लक्षणों के साथ : (१) रक्त में सी.पी. के. की बढ़ी हुई मात्रा (२) मसल बायोप्सी में स्नायु के टुकड़े में देखने को मिलते निश्चित बदलाव । (३) ई.एम.जी., एन.सी.वी. जैसी जाँच से बीमारी की चौकसाई होती है। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 239 21 - स्नायु की बीमारियाँ (Myopathies) उपचार : (अ) दवाई (१) स्टिरोईड ग्रूप में प्रेड्नीसोलोन, मिथाईल प्रेड्नीसोलोन, डेक्षामेथासोन तथा (२) इम्यूनोसप्रेसिव दवाई जैसे कि एझाथायोप्रीन, मायकोफिनोलेट, मिथोट्रेक्सेट तथा (३) सायक्लोस्पोरिन जैसी दवाई से यह बीमारी अधिकांश नियंत्रण में ला सकते है, जो कि लंबे समय के बाद यह दवाई का दुष्प्रभाव भी देखने को मिलता है । (ब) प्लाझमाफेरेसिस : मरीज के रक्त में से खराब प्रोटीन शुद्ध करने की इस प्रक्रिया द्वारा बीमारी पर नियंत्रण लाया जा सकता है। (क) इम्यूनोग्लोब्यूलिन : यह दवाई रक्तवाहिनी में देने से भी लाभ होता है, परंतु यह उपचार बहुत महँगा होता है । इसके बावजूद फिजियोथेरेपी का महत्व भी कम नहीं समजना चाहिए । प्रतिदिन नियमित फिजियोथेरेपी (व्यायाम) करने से कुछ अंश तक स्नायुओं को शिथिल होते हुए रोका जा सकता है। इस बीमारी में केवल सामान्य दर्द होता है, इसलिए बीमारी ठीक होने का इन्तजार किये बिना शीघ्र ही योग्य चिकित्सक की सलाह लेना अधिक महत्वपूर्ण है। (G) एक्वायर्ड मायोपथी : इस प्रकार में स्नायुओं में जन्मजात गड़बड़ नहीं होती, लेकिन थाइरोईड होर्मोन बढ़ने या घटने से, पेराथाइरोईड होर्मोन बढ़ने से, अधिक मात्रा Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ में स्टिरोइड के सेवन से या अन्य दवाई के दुष्प्रभाव से, डायाबिटीस के अपूर्ण उपचार से, मूत्रपिंड (किडनी), यकृत (लिवर) की लंबी बीमारी से या अधिक शराब के सेवन से और विटामिन की कमी से और केसर से या उसकी दवाई के दुष्प्रभाव से, ऐसे अनेक कारणों से स्नायु कमजोर हो सकते है। योग्य निदान से और ध्यानपूर्वक उपचार करने से यह स्थिति में सुधार हो सकता है । मेलिग्नन्ट हायपरथर्मिया : यह रोग के लक्षण सामान्यतः किसी मरीज को ऑपरेशन के लिए जनरल ऐनेस्थेसिया ( सक्सिनाईल कोलिन, हेलोथेन) दिया जाए तब मालूम पडते है । यह एक आनुवंशिक रोग है । ऐनेस्थेसिया देते वक्त अचानक स्नायु कड़क हो जाते है । पिशाब का रंग कोला जैसा होता है । भारी बुखार आना, धड़कने बढ़ जाना, शरीर नीला पड़ जाना और हृदय की धड़कनों में अनियमितता आना वगैरह लक्षण देखने को मिलते है । इसके निदान के मुख्य टेस्ट है खून में सी.पी. के. की मात्रा (Serum CPK level) जो काफी बढ़ जाती है । इस बीमारी से दर्दी ज्यादातर जान गँवा देता है । इसलिए कोई भी व्यक्ति को जनरल एनेस्थेसिया देने से पहले यह जान लेना चाहिए कि कुटुंब में अन्य किसीको एनेस्थेसिया के दौरान ऐसी कोई तकलीफ या मृत्यु हुई थी क्या ? शरीर को ठंडे करने के उपचार के साथ तात्कालिक डेन्ट्रोलिन नामक दवाई इस में जान बचा सकती है । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 - स्नायु की बीमारियाँ (Myopathies) सुर्खियाँ स्नायुओं की बीमारियों में मुख्यतः वंशानुगत अर्थात् हेरिडिटरी मायोपथीज होती है । • डशेन मस्क्युलर डिस्ट्रोफी सिर्फ पुरुषों में होती है, जिसमें चलने में या चढने - उतरने में परेशानी से लेकर जानलेवा फेफडे का संक्रमण लगने की संभावना रहती है । • लिंबगर्डल डिस्ट्रोफी में कमर और कंधे के स्नायु कमजोर होते है और कभी श्वासोच्छवास में परेशानी होती हैं । यह स्त्री-पुरुष दोनों में होती है । रक्त में पोटेश्यम का प्रमाण कम होने पर हाथ में कंधे तरफ और पैर में जाँघ तरफ के स्नायुओं में कमजोरी आती है, उसे हाइपोकेलेमिक पीरीयोडिक पेरालिसीस कहते है । • रक्त में पोटेश्यम का प्रमाण बढ़ने से होनेवाली स्नायुओं की कमजोरी को हाइपर केलेमिक पीरीयोडिक पेरालिसीस कहते है । • पेरामायोटोनिया कोन्जेनीईटा में ठंडे वातावरण में या तो बिना कारण कमजोरी आती है । • स्नायुओं की जन्मजात चयापचय की गड़बड़ से होने वाली मायोपथी को मेटाबोलिक मायोपथी कहते हैं । • नवजात शिशु में देखने को मिलने वाली स्नायुओं की बीमारी को कोन्जेनाईटल मायोपथी कहते है । • पोलीमायोसायटीस में स्नायुओं में सूजन आती है, वह कमजोर होते है और मरीज विकलांग हो जाता है । 241 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ • डरमेटोमायोसायटीस में स्नायुओं की सूजन के साथ मरीझों के चेहरे, पीठ, छाती, कोहनी और घुटने के भाग पर लालाश वाले चिह्न देखे जाते है । • स्टीरोईड गुप की दवाई, इम्युनोसप्रेसिव दवाई, साइक्लोस्पोरिन दवाई, प्लाझमा फेरेसिस की प्रक्रिया और इम्युनोग्लोब्युलिन के इन्जेक्शन से इस रोग में काफी राहत मिल सकती है। एक्वायर्ड मायोपथी में होर्मोन्स के असंतुलन से, दवाई के दुष्प्रभाव से, डायाबिटीस के अपूर्ण उपचार से, किडनी या यकृत की लंबी बीमारी से या अधिक शराब के सेवन से और विटामिन की कमी के कारण या अन्य अनेक कारणो से स्नायु कमजोर होते है। जनरल एनेस्थेसिया के दरम्यान कुछ मरीजों की अचानक बुखार के साथ मृत्यु होती है, उसका कारण मेलिग्नन्ट हायपरथर्मिया नामक, बहुत ही कम दिखने वाला रोग है। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( सक तनाव देन्शन (Stress) • तनाव क्या है ? तनाव अर्थात् शरीर के किसी भी तंत्र पर होनेवाला दबाव और उससे उत्पन्न हुई स्थिति। हमारी जीवनशैली या हमारे मनोसामाजिक वातावरण में उठती हुई समस्याओं और तकलीफों से शरीर और मन जो प्रतिक्रियाएँ पेदा करता है उसे स्ट्रेस या तनाव कहते है। तनाव केवल नकारात्मक या हानिकारक ही हो ऐसा नहीं है, तनाव सकारात्मक भी हो सकता है। तनाव से अनपेक्षित परिस्थितियों का सामना करने की क्षमता बढ़ती है। दुविधापूर्ण परिस्थितियाँ जैसे कि स्पर्धा, परीक्षा इत्यादि में तनाव की प्रक्रिया से मनुष्य सतर्क और सजाग बनता है। • 'सामना करो या भाग जाओ' प्रतिक्रिया क्या है ? तनाव की परिस्थिति आने से ही हमारे शरीर में कई जैविक रासायनिक बदलाव होते है, जो दो प्रकार की प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं । लडना या पलायन कर जाना (fight or flight) - इस प्रक्रिया के दौरान शरीर में वास्तव में कहाँ बदलाव होता है यह हम देंखेगे । तनाव में हमारे शरीर का स्वयंसंचालित ऐसा अनुकंपी ज्ञानतंत्र (Sympathetic Nervous System) उत्तेजित होता है-एड्रिनलिन नामक रस का स्राव होता है और इस कारण शरीर में निश्चित प्रक्रिया देखने को मिलती है। • तनाव के कारण शरीर और मस्तिष्क पर होने वाले विभिन्न तत्कालिन प्रभाव : (१) श्वासोच्छ्वास शीघ्र, छोटे और गहराई विहीन बनते है । (२) हृदय की धडकन बढ़ जाना और रक्त का दबाव बढना । (३) हाथ-पैर में रक्त आपूर्ति में कमी होना और स्नायुओं में रक्त का परिभ्रमण बढ़ना । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (४) शरीर में स्नायुओं का तंग हो जाना, हाथ-पैर ठंडे हो जाना, शरीर में पसीना होना, रोंगटे खड़े हो जाना, कई बार कंपन-ध्रुजारी का अनुभव होना। (५) रक्त जम जाने की प्रक्रिया शीघ्र बनना । (६) आँख की पुतलियाँ चौडी हो जाना । (७) इन्द्रियाँ सतेज बनें और सुनने की, देखने की और सूंघने की तीव्रता बढ़े। (८) शरीर की चयापचय की प्रक्रिया (मेटाबोलिझम) में वेग आना। (९) मस्तिष्क की विचारशक्ति बढ़ना । (१०) निर्णयशक्ति तथा परिस्थिति परखने की सूझ तेज बने और स्मरणशक्ति सतेज़ बने । कोई बार 'क्या होगा?' ऐसा डर भी लगता है। • शरीर पर लंबे समय के तनाव का नकारात्मक प्रभाव : (१) व्यवहार की समस्याएँ : स्वभाव गुस्सेवाला और चिडचिडा हो जाना, कार्यशक्ति में कमी आ जाना, स्वभाव से भुलक्कड होना, विवेकहीन और बेध्यान होना, खराब आदतों का शिकार होना, जातीय जीवन की समस्या पैदा होना, आहार में अरुचि अथवा अत्याधिक खाने की आदत पड़ना । प्रलंब-तनाव के कारण व्यवहार में होने वाली समस्याओं के यह सभी चिह्न है। (२) स्वास्थ्य की समस्याएँ : - इनमें सिरदर्द, दम, हाई बी.पी., जोडों का दर्द, त्वचारोग, हृदयरोग, जठर के छाले, अनिद्रा, चक्कर आना और डिप्रेशन इत्यादि का समावेश होता है। एक अंदाज अनुसार करीबन ८० प्रतिशत बीमारियाँ मानसिक तनाव की वजह से शरीर में पैदा होती है, जिसे मनोदैहिक (सायकोसोमेटिक) बीमारी कहते है। इसके उपरांत तनाव से रोगप्रतिरोधक शक्ति कम होती है । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 245 22 - तनाव-टेन्शन (Stress) • तनाव उत्पन्न करनेवाले परिबल : तनाव पैदा करनेवाली परिस्थिति/ संयोग प्रत्येक व्यक्ति अनुसार भिन्नभिन्न होती है। पारिवारिक तथा अंगत समस्याएँ : * परिवार के सदस्यों में मतभेद * जीवनशैली में मतभेद * दुर्घटना, इर्ष्या संपत्ति से संबंधित झगडा आर्थिक समस्या बच्चों की समस्या प्रेम या विवाह में मिलती असफलता, विवाद-विच्छेद * दाम्पत्य जीवन के प्रश्न व्यवसाय और कारकीर्दि (करियर) संबंधित समस्याएँ : * काम का अत्याधिक बोज़ अत्यंत ऊँचा कार्यलक्ष्यांक तक(ओपोर्युनिटी) की कमी, बेकारी, कम आवक परीक्षा, इन्टयूं, तबादला, तालीम नौकरी के स्थान पर सत्ता का राजकारण, भ्रष्टाचार * सहकर्मचारियों के साथ मतभेद * नौकरी-व्यवसाय से मिलने वाले संतोष की कमी सामाजिक समस्याएँ : * गरीबी * जातिभेद * गुनेहगारी * आतंकवाद Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 * मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ दुर्घटना के शिकार बने लोग या उसे देखनेवाले व्यक्ति भी तनाव के शिकार हो सकते है। 'ए' प्रकार का ('टाइप ए') व्यक्तित्व जिसमें मनुष्य अधिक महत्वाकांक्षी, उग्र, घमंडी होता है, यह परिस्थिति भी तनाव पैदा करती है। जन्म, विवाह, गर्भावस्था, विवाह-विच्छेद (तलाक), निवृत्ति, परिवारजन का मृत्यु जैसे जीवन के प्रसंग भी तनाव पैदा करते है। इसके साथ ही आधुनिक जीवनशैली तथा आधुनिक जीवन की भागदौड-स्पर्धा में और अधिक कमाने की दौड में लगे रहने के लिए झूझता हुआ व्यक्ति आसानी से तनाव और तनावजन्य बीमारियों का शिकार हो जाता है। तनाव पर नियंत्रण हेतु और तनाव से दूर रहने के उपाय : सबसे पहले तो हमें तनाव उत्पन्न करनेवाली परिस्थिति को समझना पड़ेगा और शांत चित्त से योग्य समाधान करने का प्रयत्न करना पड़ेगा। इसके अलावा तनाव के चिह्नों को सावधानी का संकेत मानकर, तनाव पर नियंत्रण पाने के लिए त्वरित योग्य कदम उठाने चाहिए। • उपचार : तनाव के कारणों और चिह्नों के विषय में जागृति लानी हो तो, तनाव पैदा करनेवाली परिस्थितियों का मूल्यांकन करके उसे हल करने के विकल्पों को पहचाने और सुनिश्चित करें। • प्रवर्तमान परिस्थिति-संयोग संदर्भ : (१) परिस्थिति का समझदारी और स्वस्थता से मुकाबला करें: उदाहरण - परीक्षा के समय दिनचर्या में बदलाव लाकर, पढ़ने के लिए समयतालिका बनाकर योग्य मार्गदर्शन के साथ तैयारी करें। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 तनाव - टेन्शन (Stress) ( २ ) परिस्थिति से दूर हो जाएँ : उदाहरण किसी के साथ अनअपेक्षित व्यवहार या घटना से तनाव पैदा होता हो और संबंध सुधरे नहीं ऐसा हो तो संबंध को खत्म कर दें । नये संबंध ज्यादा बढ़ाना नहीं चाहिए, नई जवाबदारी से दूर रहें | कुछ समय के लिए एकांतवास अपनायें। नए मनुष्यों से सम्पर्क जितना बढ़ेगा, उतना तनाव भी बढ़ेगा । इस कारण मेधावी मनुष्य यह सब परिस्थिति से और नये संयोगों से दूर रहता है या उसे सीमित प्रमाण में रखता है । (३) कुछ भी न करें : केवल योग्य समय का इंतजार करे। उदा. परीक्षा के परिणाम के लिए स्वस्थ चित्त से इन्तजार करें । मनोशारीरिक परिबल संदर्भ : - (१) नियमित ध्यान : ध्यान अनेक प्रकार के हो सकते हैं । भारत में अनेक ध्यानपद्धतियाँ विकसित है । यह ध्यानपद्धतियों में पातंजल, अनापन सति और स्मृति उपस्थान मुख्य है । उसी तरह विपश्यना और प्रेक्षाध्यान भी है, जो अंशतः ऊपर बताई गई पद्धतियों का संवर्धन है । अन्य अधिकतर पद्धतियाँ उपर्युक्त पद्धतियों के एकाद अंग पर से बनी है । मनन, मंत्रजाप, श्वासोच्छ्वास का ध्यान, पूर्णयोग ध्यान, स्पंदध्यान, नाभि ध्यान, स्वप्न ध्यान, नाद ध्यान, योग निद्रा, न्यास, त्राटक, सूर्यसंयम, अरूप ध्यान, कायोत्सर्ग ध्यान, जैन ध्यान, तथाता ध्यान, सहज ध्यान, साधुमौन, हू ध्यान, इत्यादि अनेक ध्यान पद्धतियाँ हैं । लेकिन सभी पद्धतियों का हेतु अंतिम ध्येय अंतिम साध्यबिंदु एक ही है, और वह है मन की शांति और उसका विकास | 247 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ किसी भी ध्यान पद्धति में एकाद चीज पर केन्द्रित होना होता है - चाहे वो श्वास हो, चाहे विचार हो, चाहे शब्द हो, चाहे कोई . दर्शनीय चीज (छवी, मूर्ति आदि) हो, या फिर कोई आनंदप्रद स्मृति या कल्पना हो । शांत चित्त, समताभरा चित और सजगताभरा चित्त ये तीनों आवश्यक है कोई भी ध्यान की सफलता हेतु । ऐसे चित्त से देखना और जानना-ध्यान है। स्वयं की शारीरिक तथा मानसिक प्रकृति और स्वयं के आत्मिक विकास को लक्ष्य में रखकर खुद को जो योग्य लगे वह ध्यान का नियमित अभ्यास करें। ध्यान, तनाव दूर करने की एक श्रेष्ठ औषधि माना जाता है। यह प्रतिदिन करना हितकारक और आवश्यक भी है । ध्यान तनावयुक्त परिस्थियों में विशेषतः करना चाहिए। प्रतिदिन तीस मिनिट ध्यान करने की सलाह दी जाती है। (२) प्राणायाम : श्वासोच्छ्वास के व्यायाम (ब्रीधिंग एक्सरसाइज़), तात्कालिक तनाव और कायमी तनाव के सामने रक्षण का श्रेष्ठ और सरल उपाय माना जा सकता है। (३) व्यायाम : चलना, दौड़ना, एरोबिक व्यायाम, जिम्नेस्टिक, योगासन, खेलना, तैरना इत्यादि योग्य मात्रा में नियमित करने से स्ट्रेस अवश्य ही कम हो सकता है। ऐसे व्यायाम का समय ५ मिनट से ४० मिनट तक बढ़ाया जा सकता है । हफ्ते में ४ से ५ दिन नियमित व्यायाम करना चाहिए। छोटा-छोटा व्यायाम तो कामकाज दौरान भी २-५ मिनिट के लिए किया जा सकता है, जैसे कि गर्दन घुमाना, हाथ और कलाई का व्यायाम, चहेरे का व्यायाम अथवा खडे होकर १-२ सीढियाँ चढ़ना-उतरना। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 249 22 - तनाव-टेन्शन (Stress) (४) बायोफीडबेक : क्रमशः शिथिलीकरण (प्रोग्रेसिव रिलेक्सेशन), हास्यचिकित्सा (लाफ्टर थेरेपी), प्रेक्षाध्यान, विपश्यना, सेल्फहिप्नोटिज़म, सिस्टेमेटिक डिसेन्सिटाइझेशन इत्यादि से भी अधिक लाभ होता है, यह एक वैज्ञानिक सत्य है । (५) संगीत चिकित्सा : मन की शांति, शिथिलीकरण, आनंद की अनुभूति और तनाव से मुक्ति के लिए संगीत (सुनना या गाना या वाद्य बजाना) से बहेतर क्या हो सकता है ? (६) आहार में योग्य बदलाव : पौष्टिक आहार, प्रोटीनयुक्त आहार, फलफलादि, योग्य नास्ता और आहार में रेसायुक्त पदार्थों का अधिक उपयोग तनाव (स्ट्रेस) के सामने राहत देता है। प्रजीवको (विटामिन्स) और एन्टिओक्सिडन्ट द्रव्य योग्य मात्रा में लेने से निश्चित ही लाभ होता है। चर्बीयुक्त, तीखें और अति गर्मउष्म आहार या फास्टफूड से हानि होती है। "जैसा आहार वैसी सोच" यह कहावत यहाँ यथार्थ है। (७) आवश्यकतानुसार डोक्टर या अन्य की सहाय : प्रोफेशनल व्यक्ति की सहाय ले सकते है । स्ट्रेस को दूर करने के लिए विभिन्न कोर्स किये जा सकते है, जैसे कि जीवन जीने की कला (आर्ट ऑफ लिविंग), सिद्ध समाधियोग और लेंडमार्क फोरम इत्यादि भी अच्छा लाभ पहुँचा सकते है । स्वउपचार : इस के अलावा यहां निर्दिष्ट कई दैनिक उपयोगी उपाय भी आजमायें जा सकते है । यह उपायों में अन्य व्यक्ति की सहाय आवश्यक नहीं है । इसलिए १०-१५ दिनों की छुट्टी लेकर, हिलस्टेशन पर जाने की जरूरत नहीं हैं, अधिक खर्च की भी जरूरत नहीं है । • चलने फिरने या बाईक पर घूमने जाओ । • बागबानी (गार्डनिंग) करो या बाग में घूमने जाओ । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ टेनिस या टेबलटेनिस या बेडमिन्टन की गेम खेलो । मित्र को पत्र लिखें या उसे फोन करें (phone a friend) या उसके साथ भोजन लो । कोई शौक की चीज या कला-कारीगरी (क्राफ्ट) के लिए समय निकालो। दिन में दो बार १० से १५ मिनट प्रार्थना करो । यह एक अद्भुत विधि है, जिसमें मन को संपूर्णतः स्वस्थ रखने की ताकत है। समस्याओं के बारे में ज्यादा मत सोचो, उसका हल क्या हो सकता है उस पर अपनी सोच केन्द्रित करो ।। मानद् सेवा जैसी सामाजिक प्रवृत्ति करें, अनाथ आश्रम के लिए समय निकाले, मित्र या सगे-संबंधियों से मिलने जाएँ । कोई अच्छे ग्रूप में सदस्य बनें। चलचित्र या नाटक देखने जाओ । अच्छी पुस्तकें या सामयिक पढ़ें, सत्संगी सज्जनों को मिलें। धार्मिक पठन करें। बच्चों के साथ १५-३० मिनट खेलने जैसा उत्तम और निर्दोष आनंद कहां मिलेगा ? बच्चों जैसे बनकर उनके साथ खेलो। संग्रहालय (म्युजियम)-आर्ट गेलेरी में जाएँ । मसाज, फेशियल, बबलबाथ या स्टीमबाथ लें । फोन साईड में रखकर, खिड़कियाँ बंध कर, लाईट तथा आंखे बंध करके संगीत सुनें । इस समय फोन की घंटी बजे तो उठाए नहीं, आन्सरिंग मशीन का उपयोग करें। मन का अभिगम अर्थात् Attitude सुधारें, उसे हकारात्मक और समाधानकारी बनायें । यह गुरुमंत्र है। योग्य पठन, सत्संग और मनन से ही अभिगम बदला जाता है और ऐसा हो तो कोई भी परिस्थिति में स्वस्थता रहेगी। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 251 22 - तनाव-टेन्शन (Stress) • उपसंहार : स्ट्रेस के दौरान कोई भी निर्णय जल्दबाजी में-अचानक मत करो । तात्कालिक बिना सोचे निर्णय न करें, शवासन करें। संपूर्ण आराम और गहरे श्वास शायद श्रेष्ठ उपाय है । संभव हो तो उस दौरान प्रेक्षाध्यान, प्रोग्रेसिव रिलेक्सेशन या योगनिद्रा सीख कर उसका अभ्यास करें। अचानक स्ट्रेस किसी व्यक्ति या जगह के कारण हुआ हो तो उस व्यक्ति या स्थान को छोड़ कर दूर चले जाओ। मंदिर में, मित्र के वहाँ जाएँ । दर्पण में अपना प्रतिबिंब देखो। गुस्से से प्रतिभाव न दो । गुस्सा आये तो १ से १० तक गिनती करो, यह एक सिद्ध प्रयोग है। इससे गुस्सा दूर हो जाएगा। उस क्षण को सावधानीपूर्वक लेना ही महत्वपूर्ण है। कुछ मिनट के बाद स्ट्रेस शांत हो जाएगा । संभव हो तो ध्यान करो । संक्षिप्त में यह कहा जा सकता है कि जिससे स्ट्रेस होता हो उन संयोगों या उन व्यक्तियों से दूर रहो, और मनकी गलत प्रत्याघात देनेवाली वृत्ति को शांत करो । शुभ ध्यान में, शुभ प्रवृत्ति में और अच्छे विचारों में अपने आपको जोड़ देने की कला हस्तगत करनी चाहिए। प्रत्येक क्षण जाग्रत रह कर आनंद से जीना सीखना चाहिए। प्रतिदिन की जीवनशैली में प्रार्थना, ध्यान, योग, व्यायाम और प्राणायाम नियमित कर देना चाहिए । सात्त्विक-पौष्टिक आहार, फलफलादि नियमित लेने चाहिए । जीवनशैली और अपने आपका अभिगम (Attitude) बदलने से स्ट्रेस अवश्य ही कम हो जाएगा और स्ट्रेस की परिस्थिति पैदा हो तो भी उसका सामना करने की क्षमता अवश्य ही बढ़ेगी। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ सुर्खियाँ) • हमारी जीवन शैली में उठती हुई समस्याओं और तकलीफों से शरीर और मन जो प्रतिक्रियाएं पैदा करता है उसे स्ट्रेस कहा जाता है। स्ट्रेस केवल नकारात्मक नहि होता है, वह कभी-कभी सकारात्मक भी हो सकता है । • तनाव के कारण हृदय की धडकन बढती है, श्वासोच्छवास शिघ्र होते है, इन्द्रियाँ सतेज होती है, शरीर की चयापचय की क्रिया में वेग आता है, शरीर पे पसीना आता है, रोंगटे खडे हो जाते है, कंपन होती है, मस्तिष्क की विचार शक्ति बढती है और निर्णय शक्ति तेज होती है। लंबे समय के तनाव से कई व्यवहार समस्याएँ और स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ आ सकती है। • तनाव पैदा करनेवाली परिस्थिति प्रत्येक व्यक्ति के अनसार भिन्न-भिन्न होती है, जैसे कि पारिवारिक और अंगत समस्याएँ, व्यवसाय और करियर संबंधी समस्याएं या सामाजिक समस्याएँ। तनाव के उपाय में उसे पैदा करनेवाली परिस्थिति का स्वस्थता से सामना करना, परिस्थिति से दूर जाना या कुछ भी न करना, यह सब विकल्प में से जो योग्य हो उसका चयन करना है। • नियमित ध्यान, प्रार्थना, प्राणायाम, व्यायाम और बायोफीडबेक की मदद से भी तनाव पर काबू पाया जा सकता है। • सात्त्विक - पौष्टिक आहार और फलफलादि नियमित लेने चाहिए । • जीवनशैली सुधारने से और अपना अभिगम हकारात्मक करने से स्ट्रेस अवश्य कम हो जाएगा और परिस्थिति का सामना करने की क्षमता बढेगी । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की शस्त्रक्रिया (Neurosurgery)| __ अब तक के सभी प्रकरणों पर से समझा जा सकता है कि मस्तिष्क और चेतातंत्र, महत्व का और अति नाजुक तंत्र है । उसकी कार्यपद्धति बिलकुल विशिष्ट-भिन्न और इतनी ही नाजुक प्रकार की है। उसके विभिन्न हिस्सों को नुकसान पहुँचे तो विभिन्न चिह्नसमूह उद्भवित होते है, जिसके निवारण हेतु मेडिकल जाँच तथा एम.आर.आई., सी.टी. स्कैन, ई.एम.जी., रक्त की जाँच, कमर के पानी की जाँच जैसे विभिन्न टेस्ट करवाने पडते है, जिसके लिए न्यूरोफिजिशियन (या अनुभवी फिजिशियन) की मदद ली जा सकती है। यह डॉक्टर्स इन बिमारीओं का निवारण, अधिकतर दवाई-उपचार से करते हैं । जब कुछ परिस्थिति में दवाई-उपचार से रोग का निवारण न हो अथवा मुख्यत: मस्तिष्क में या करोड़रज्जु में गांठ हो, करोड़रज्जु पर दबाव हो, रक्त नलिका में रूकावट हो अथवा गिरने से या अकस्मात से मस्तिष्क या करोड़रज्जु को कोई चोट लगी हो तो सर्जरी करने की आवश्यकता पैदा होती है । तब न्यूरोसर्जन की सेवा लेनी पडती है। इस तरह चेतातंत्र की शस्त्रक्रिया में मस्तिष्क, खोपड़ी, रीढ़ की हड्डी, करोड़रज्जु, ज्ञानतंतु तथा मस्तिष्क में रक्त पहुँचाने वाली नलिकाओं की सर्जरी समाविष्ट होती है। यह सब अंग आगे बतायें अनुसार अतिनाजुक होते है, इसलिए कुदरतने उसे बहुत सुरक्षित तरीके से रखे हैं । इस लिए उनकी शस्त्रक्रिया में भी निपुणता, सावधानी बहुत महत्वपूर्ण है। एक बार यह अंगो को ज्यादा मात्रा में नुकसान हो जाए तो सामान्यतः वह ठीक नहीं हो पाते । कुछ रोगो में सिर्फ दवाई द्वारा ही उपचार मुख्य नहीं होता, जैसे कि कुछ प्रकार के ब्रेईन ट्युमर, जिसमें ऑपरेशन करने से ही छूटकारा मिलता है। उसके विरुद्ध कुछ रोगों में मेडिकल और सर्जिकल उपचार एक साथ या तो क्रमशः करने पड़ते है। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ • सर्जरी की आवश्यकता रहें, वैसे कुछ रोग निम्न निर्दिष्ट है : (१) मस्तिष्क या करोड़रज्जु की चोट (दुर्घटना या अन्य कारण) खोपडी या मणके का फेक्चर एक्स्ट्राड्यूरल या सबड्यूरल हीमेटोमा (मस्तिष्क के आवरणों में रक्त जम जाना) मस्तिष्क या करोडरज्जु का घिसाव होना या चोट लगना (Contusion) । मस्तिष्क के पानी का नाक में से स्राव होना (CSF rhinorhoea)। मस्तिष्क की ईजा से होता एकस्ट्रा ड्यूरल रक्तस्त्राव (२) मस्तिष्क में संक्रमण फैलना - मवाद की गांठ (Abscess) - टी.बी. की बड़ी गांठ (Tuberculoma) - मस्तिष्क में पानी की थैली फूल जाना (हाईड्रोसीफेलस) (३) मस्तिष्क या करोड़रज्जु में गांठ होना __ - साधारण गांठ जैसे कि मेनिन्जिओमा, न्यूरोमा, एपीडरमोईड, डरमोईड या पिट्यूटरी ग्रंथि की गांठ - केन्सर की गांठ जैसे कि ग्लायोमा, मेटास्टेसिस Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 255 23 - मस्तिष्क की शस्त्रक्रिया (Neurosurgery) (४) रक्त नलिका में क्षति या विकृति - नली पर गुब्बारा होना (एन्युरिझम) नली में झुरमुट होना (ए-वी. मालफोर्मेशन) केरोटिड नली में चरबी-क्षार जमने से रास्ता अवरुद्ध होना (स्टेनोसिस) ब्रेईन हेमरेज के कुछ मरीज (५) जन्मजात विकलांगता खोपड़ी की विकृति-क्रेनीओस्टेनोसिस हाईड्रोसीफेलस मस्तिष्क की जन्मजात गांठ रीढ़ की हड्डी में क्षति होने से करोड़रज्जु खुल जाना (मेनिन्गोमायलोसिल) क्रेनीओवर्टिब्रल एनोमली (६) चेतातंत्र के घिसाव की बीमारी गरदन या कमर के मणके की गद्दी का घिसाव-खिसकना (डिस्क प्रोलेप्स) सर्वाईकल स्पोन्डिलोसीस लंबर केनाल स्टेनोसिस (कमर के मणके के बीचमें जगह की कमी) (७) नस - चेता दबाव में आ जाना, जैसे कि कार्पल टनल सिन्ड्रोम अथवा नस कट गई हो तो नर्व रिपेर या नर्व ट्रान्सप्लान्ट की सर्जरी। (८) पार्किन्सोनिझम (कंपवात), मिर्गी आदि के लिए फंक्शनल न्यूरोसर्जरी (इसके उपरांत अन्य कई केस में सर्जरी हो सकती है )। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ • सामान्य जानकारी : यह कहना एकदम यथार्थ है कि किसी भी प्रकार की ऐसी सर्जरी कराने से पहले निश्चिततापूर्वक निदान करना अनिवार्य है। सर्जरी की आवश्यकता और यह सर्जरी से कितना फायदा होगा उसका अंदाज निकालकर मरीज और उसके परिवारजनों को माहितगार करना न्यूरोसर्जन का फर्ज है। सर्जरी के भयस्थान हो तो उसकी भी जानकारी देनी चाहिए। ऐसे तो निदान और ऑपरेशन की आवश्यकता का निर्णय लेना न्यूरोफिजिशियन डॉक्टर के हाथ में होता है, परंतु यह आवश्यक है कि ऑपरेशन के पहले योग्य केस में न्यूरोफिजिशियन और न्यूरोसर्जन को साथ बैठकर चर्चा करनी चाहिए और जहाँ संशय हो, वहाँ अधिक जाँच करवा के निदान के बारे में संपूर्ण संतोष होने के बाद ही सभी पहेलूओं को ध्यान में रख के दोनों तजज्ञों को साथ में निर्णय लेना चाहिए। . ऑपरेशन की पद्धति अनेक प्रकार की होती है। एनेस्थेसिया में ज्यादा विकास होने से अब ऐसा कहा जा सकता है कि अधिक लंबे समय चलनेवाले और जटिल केसों में भी ऑपरेशन के कारण जिंदगी का खतरा नहि जैसा हो गया है। फिर भी अन्य सर्जरी की तुलना में मस्तिष्क की सर्जरी थोडी खतरेवाली तो होगी ही, ऐसा कहना अयोग्य नहीं है । मस्तिष्क की सर्जरी लगभग दो से चार घंटे तक चलती है, कभीकभी १६ से २० घंटे या अधिक समय तक भी चलती है। सामान्यतः अच्छे फिजिशियन के पास ऑपरेशन के लिए फिटनेस की जाँच होने के बाद एनेस्थेसिया का डॉक्टर मरीज एनेस्थेसिया के लायक-फीट है या नहीं वह तय करता है। परंतु मृत्यु का खतरा हो और समय अधिक न हो तो सब कुछ भूल कर न्यूरोसर्जन डॉक्टर जोखिम उठाकर भी इमरजन्सी ऑपरेशन करते है। उदाहरण-मार्ग दुर्घटना में मस्तिष्क का हेमरेज होना । __ मस्तिष्क के ऑपरेशन भी अनेक प्रकार के होते है। जो बीमारी हो उस तरह से अंगो का ऑपरेशन होता है । जिस अंग तक पहुँचना हो उसके अनुसार ऑपरेशन का प्लानिंग किया जाता है । मस्तिष्क के कौन से भाग Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 • मस्तिष्क की शस्त्रक्रिया (Neurosurgery) 257 में और उसमें भी कितना अंदर और कितने क्षेत्र में ऑपरेशन के लिए जाना पड़ेगा, उसका त्रिपरिमाणिय स्केच बनाकर और निकट में कोई रक्तनलिका को नुकशान न हो उसका ध्यान रखना है। यह सब पहलु का नियोजनप्लानिंग पहले से ही किया जाता है । (१) जैसे कि मस्तिष्क के बाहर के आवरण तक ही जाना हो तो उसे Burr hole (बर होल) कहा जाता है, जिस में खोपड़ी में छिद्र किया जाता है। सबड्युरल हीमेटोमा में ऐसा किया जाता है । (२) खोपडी का भाग काटकर खोलनेवाले ऑपरेशन को क्रेनीओटोमी और क्रेनीएक्टमी कहते है । उसके द्वारा सीधा मस्तिष्क तक पहुँचा जा सकता है। करोड़रज्जु के मणके को आधा खोलें तो उसे हेमीलेमीनेक्टमी कहा जाता है, संपूर्ण खोलो तो लेमीनेक्टमी कहा जाता है । (४) करोड के मणके में छिद्र करके छोटी-मोटी सर्जरी की जा सकती है। मस्तिष्क और करोड़रज्जु जितने नाजुक और संवेदनशील है, उतने ही सुरक्षित है यह आगे बताया गया है। इस वजह से वहाँ पहुँचने के साधन अलग प्रकार से विकसित करने पड़ते है। सुसज्ज ऑपरेशन थियेटर से लेकर योग्य ऑपरेशन टेबल, सुआयोजित प्रकाश व्यवस्था की जरूरत पड़ती है। ज्यादातर ऑपरेशन माइक्रोस्कोप की मदद से अधिक ठीक किये जा सकते है। छिद्र करने के लिए तेज ड्रिल, अच्छे रिट्रेक्टर और योग्य कोटरी (रक्त बंद करने के लिए) की आवश्यकता पडती है। कुछ गांठे पिघालने के लिए तेज अल्ट्रासोनिक सिस्टम का उपयोग होता है। ऑपरेशन दौरान भी अल्ट्रासाउन्ड से मोनिटरिंग करने से मस्तिष्क की गहराई में हुई खराबी और उसकी निश्चित जगह का पता चलता है । स्टीरीओटेक्सी के साधन मस्तिष्क और करोड़रज्जु में गहराई तक की गांठ की बायोप्सी करने और उसे दूर करने के लिए उपयोग में लिए जाते Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ नये संशोधन के अनुसार पार्किन्सोनिझम, एपिलेप्सी जैसी बीमारियों में यह स्टीरीओटेक्सी पद्धतिने कमाल कर दिया है । मस्तिष्क को संपूर्ण खोले बिना खोपड़ी में एक छोटा छिद्र (Burr-hole) करके मस्तिष्क में गहराई तक सूई और इलेक्ट्रोड की मदद से अति जटिल बीमारीयों का इलाज किया जा सकता है । 258 एपिलेप्सी के लिए माईक्रोसर्जरी द्वारा अतिसुंदर परिणाम मिलते है, खास तौर पर टेम्पोरल लोब एपिलेप्सी में ऐसा देखा गया है । उस प्रकार स्टीरीओटेक्सी सर्जरी भी एपिलेप्सी में काम लगती है । वेगल स्टिम्युलेशन भी एक ऐसी ही छोटी प्रक्रिया है, जिसमें माइक्रोइलेक्ट्रोड द्वारा और स्टिम्युलेटर द्वारा मस्तिष्क में होनेवाले विद्युतकिय झटकों को कोम्प्युटराइझड पद्धति से रोका जा सकता है। इसके अलावा आवश्यकता हो तो लोबेक्टमी, कोमीसरोटोमी तथा कोर्पसकेलोझोटोमी जैसी बडी सर्जरी भी की जा सकती है । एक चेतासमूह से दूसरे चेतासमूह तक फैलनेवाले तरंगो को रोकने के लिए की जानेवाली ट्रान्सेक्शन सर्जरी जैसी कई प्रकार की विशिष्ट सर्जरी की जाती है । लेझर : इसका प्रसार क्रमशः बढ़ता जाएगा ऐसा लगता है। जिन अंगो में छेद न किया जा सके, उसे इसके तहत जलाया जा सकता है। प्रोटोनबीम भी ऐसी ही पद्धति है, जिससे रक्त के झुरमुट (A-V Malformation) को जलाया जा सकता है । रेडियोफिकवन्सी लीजन जनरेटर : ट्राइजेमिनल न्यूरोल्जिआ तथा ऐसी अन्य दर्दनाक बीमारियाँ और पार्किन्सोनिझम प्रकार के मुवमेन्ट डिसओर्डर्स में यह पद्धति असरकारक साबित हुई है। जिसमें नाम अनुसार रेडियोफिकवन्सी करन्ट से किसी चेता का कार्य स्थगित करके अथवा जलाकर बीमारी में राहत प्राप्त की जा सकती है । गामा - नाइफ और लीनीयर एक्सलरेटर : ऑपरेशन के बिना गांठ अथवा अन्य ऐसी बीमारीयों को रोकने की यह पद्धति तेजी से फैल रही है । वह अत्याधिक महँगी होने से भारत में कुछ संस्थाओं में ही उपलब्ध हैं । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 259 23 - मस्तिष्क की शस्त्रक्रिया (Neurosurgery) उससे ऑपरेशन के खतरे से ज्यादातर बचा जा सकता है, लेकिन उसमें असफलता की मात्रा भी होती है। मेनिन्जिओमा और श्वानोमा आदि प्रकार की सादी गांठो में यह इलाज खूब प्रचलित है। उसका खर्च लगभग एक से दो लाख रुपये होता है। एन्डोस्कोपिक न्यूरोसर्जरी : यह भी एक प्रकार की मिनिमम ईन्वेझिव सर्जरी है । अर्थात् इसमें मस्तिष्क को संपूर्ण खोले बिना गहराई में आई हुई बीमारियाँ, जिसमें मुख्यतः गांठ, रक्त की नली के एन्यूरिझम (गुब्बारा) को रोका जाता है। इससे ऑपरेशन का खतरा अत्यंत कम हो जाता है। परंतु खूब छोटी जगह में दूरबीन से ऑपरेशन करना होता है, उस कारण उसमें पूरा अनुभव जरूरी है। थर्ड या फोर्थ वेन्ट्रिकल ट्युमर, एन्यूरिझम आदि में इसका व्याप ज्यादा है। इस सर्जरी की हृदय की 'बीटिंग हार्ट सर्जरी' के साथ तुलना की जाती है। उसी प्रकार ओपरेटींग माइक्रोस्कोप की मदद से सर्जरी करने से अत्यंत सावधानी और कुशलतापूर्वक नुकसानीवाला भाग ही दूर किया जाता है । अन्य भागों को नुकसान नहीं होता है । यह सर्जरी दीर्घ समय चलती है। धीरज और कुशलता की उसमें खास आवश्यकता है। उदाहरण-एपिलेप्सी के लिए टेम्पोरल लोब सर्जरी । आजकल बिना एनेस्थेसिआ, बेहोश किए बिना अवेइक (जागृत अवस्था में ) क्रेनिओटोमी द्वारा भी जाग्रत और होश में हो ऐसे मरीजों का ऑपरेशन करने में न्यूरोसर्जनोने निपुणता प्राप्त कर ली है। रोग जब खूब फैल गया हो, काबू में न हो तब होशियारी का उपयोग कर के सर्जन थोड़ा-बहुत भाग निकालकर संतोष लेते है। गांठ का पूरा हिस्सा काटना संभव न हो, ऐसा करने से ऑपरेशन टेबल पर या थोड़े ही वक्त में मृत्यु का डर हो या ऑपरेशन से शरीर के अंगो का ज्यादातर हिस्सा निर्जीव होने का डर हो तो व्यवहारिकता अपनाकर थोड़ा हिस्सा काटकर मरीज़ को मृत्यु से बचाकर थोड़ी राहत देने का हेतु होता है और इसे पेलिएटिव सर्जरी कहा जाता है। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ इस तरह न्यूरोसर्जरी के तीन प्रकार है : (१) रिसेक्टिव सर्जरी : इसमें संभव हो उतना खराब हिस्सा सर्जरी से निकाल दिया जाता है । (२) पेलिएटिव सर्जरी : इसमें उपर बताए अनुसार थोड़ा हिस्सा दूर किया जाता है । (३) फंकशनल न्यूरोसर्जरी : इसमें मस्तिष्क का जो भाग कार्यरत नहीं है, उसे किसी नए उपाय से कार्यरत किया जाता है । उसमें आवश्यकतानुसार नये कोषों का सिंचन (grafting) करने से लेकर मस्तिष्क में स्टिम्युलेटर रखा जाता है अथवा तो केमिकल्स या दवाई का उपयोग किया जा सकता है या छोटे-बडे छेद करके नयें रास्ते बना सकते हैं । यह बताते हुए आनंद होता है कि इनमें से सभी सर्जरी अब भारत में होती है । ९० % सर्जरी अहमदाबाद में हो सकती है। मुंबई और दिल्ली जैसें महानगरो में सभी प्रकार की सर्जरी उपलब्ध है और उत्तम शिक्षित तथा विश्व में जिनका नाम है ऐसे सुविख्यात न्यूरोसर्जनो की सेवा भारत देश को उपलब्ध है । यह अपने देश के लिए गौरव की बात है । ज्यादातर ऑपरेशन का खतरा अच्छे सेन्टरो में सिर्फ २ से ४ प्रतिशत होता है । परंतु यदि मरीज़ वृद्ध हो और साथ में डायाबिटीस, हृदयरोग या ब्लडप्रेशर हो अथवा इमर्जन्सी में ऑपरेशन करना पड़े हो तो खतरा १० से २० प्रतिशत तक रहता है । सर्जन और एनेस्थेटिस्ट को खतरा ज्यादा लगे तो शस्त्रक्रिया की तुलना में सामान्यतः मेडिकल ट्रीटमेन्ट के भरोसे ही मरीज़ को रखना चाहिए ऐसा अभिप्राय मिलता है । फिर भी मरीज के कुटुंबीजनो की इच्छा चान्स लेने की हो तो उसमें सहकार दिया जा सकता है । जैसे कि ब्रेईन एक बड़ा हो और मस्तिष्क में हेमरेज के साथ अधिक सूजन हो, मृत्यु की संभावना अतिविशेष हो तो कभीकभी खोपड़ी खोलकर, मस्तिष्क को बाहर Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 - मस्तिष्क की शस्त्रक्रिया (Neurosurgery) 261 के हिस्से में उभरने का चान्स लिया जाता है, अथवा हेमरेज को खींच लेने की कोशिश की जाती है। इस प्रकार ५ से २५ प्रतिशत अधिक जीवन मिल सकता है, ऐसा व्यावहारिक अनुमान कर सकते है। ऑपरेशन अच्छी तरह पूरा हुआ हो तो ऐसे केस में उस ओपरेशन के प्रमाण में मरीज़ को छुट्टी दी जाती है। मुख्यतः ६ से ९ वें दिन मरीज़ घर जा सकता है। खतरेवाले ऑपरेशन में सामान्यतः विलंब से छटी दी जाती है । घर जाने के बाद मरीज़ को जल्दी से चलने और कार्यरत करने पर विशेष ध्यान दिया जाता है । फिजियोथेरेपी हॉस्पिटल में ही शुरु कर दी जाती है और फिर मरीज़ घर पर भी संपूर्ण ठीक न हो तब तक वह चालू रखना है। ऑपरेशन के बाद फिर से मेडिकल उपचार में न्यूरोफिजिशियन की जरूरत पड़ती है, परंतु प्रत्येक किस्से में ऐसा होना जरूरी नहीं है। सर्जरी से कुछ बिमारीयाँ एकदम ठीक हो जाती है, कुछ में राहत मिलती है, कुछ में ऑपरेशन के बाद थोड़े या अधिक समय के लिए दवाई चालू रखनी पड़ती है । ऑपरेशन के पहले जैसे निदान के लिए सी.टी. स्कैन, एम.आर.आई. की जरूरत पड़ती है, उसी प्रकार ऑपरेशन का परिणाम कैसा आया है वह जानने के लिए कुछ केस में (मुख्यतः गांठ के केसो में) पोस्ट ओपरेटिव सी.टी. स्कैन या एम.आर.आई. की आवश्यकता रहती है। इन सभी प्रक्रिया में मरीज़ और उसके कुटुंबीजनो को परेशान देखा जाता है। आर्थिकसामाजिक प्रश्न उन्हें परेशान कर देते हैं। श्रेष्ठ बात यह है कि ऑपरेशन के पहले और बाद में डॉक्टरो के साथ खुले दिल से चर्चा कर लेनी चाहिए और डॉक्टरो को भी स्पष्ट चित्र पहले से ही पेश करना चाहिए । एक-दूसरे के विश्वास, प्रेम और सहकार से यह कठिन मिशन पूर्ण करना चाहिए । इस प्रकार न्यूरोसर्जरी सिर्फ न्यूरोसर्जन का ही क्षेत्र है ऐसा नहीं है । इसमें न्यूरोफिजिशियन, न्यूरोसर्जन, फिजियोथेरापिस्ट, ओक्युपेशनल थेरापिस्ट, फिजिशियन का टीमवर्क होना चाहिए। यदि ऐसा हो तो ही मरीज़ का संपूर्ण और सही उपचार हो सकता है। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ न्यूरोसर्जरी का खर्च विभिन्न केसो में अलग-अलग होता है । इसमें बीमारी का प्रकार उसकी गंभीरता, इमरजन्सी सर्जरी की आवश्यकता, सर्जन का अनुभव, सर्जरी का शहर - स्थल, अस्पताल की सुसज्जता और एनेस्थेसिआ का ख़तरा (जैसे कि वृद्ध लोगों और हृदयरोग - डायाबिटीस के मरीज़ को ख़तरा ज्यादा होता हैं, ऐसे अनेक प्रकार के परिबलो पर खर्च निर्भर रहता है । परदेश में ज्यादातर खर्च इन्स्योरन्स एजन्सी पर होने से डोक्टर या मरीज़ को इन प्रश्नों पर समय या शक्ति नष्ट नहीं करनी पड़ती हैं । आशा रखें कि हमारा समाज भी इस प्रकार जाग्रत हो । 262 सुर्खियाँ रोड अकस्मात या अन्य तरीके से दिमाग या करोड़रज्जु को ईजा हो तो तात्कालिक न्यूरोसर्जिकल सारखार की जरूरत पडती है । आजकल ब्रेईन ट्यूमर से ले कर नर्व ( चेता) तक की न्यूरोसर्जरी अत्याधुनिक प्रक्रिया से की जाती है और उसके बहोत अच्छे परिणाम पाए जाते है । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर RTERRAHANENERANCE (दीर्घ समय तक उपयोग की जाने वाली न्यूरोलोजी की दवाई संबंधित माहिती (Neurological Medicines to be used for longer duration) ___ आगे के प्रकरणों में हमने देखा कि न्यूरोलोजी के कई रोग लंबीक्रोनिक बीमारी लाते है और उनके उपचार अधिकतर लंबे समय तक अर्थात् ६-१२ महीने या कुछ बीमारियों में जीवनपर्यंत भी करने पड़ते है। इन दवाई के अच्छे प्रभाव के साथ दुष्प्रभाव भी होते है। इन दवाई के विषय में योग्य समज हो तो कई मुश्किलें और दुविधाएँ समयसर हल हो सकती है। यह प्रकरण का उद्देश्य इन दवाइ के प्रभाव और दुष्प्रभाव की सही जानकारी देना है। लेकिन यह स्पष्टतः समज ले कि उपचार करने वाले डॉक्टर की सलाह बिना किसी भी दवाई का सेवन अत्यंत खतरनाक हो सकता है और सभी दवाई डोक्टर की देखरेख में ही लें । • स्टिरोईड दवाई (steroids) : स्टिरोईड दवाई न्यूरोलोजी में कई महत्त्वपूर्ण अथवा गंभीर बीमारियों में उपयोग की जाती है। ये दवाई दोधारी तलवार की तरह है। अर्थात् योग्य तरीके से, योग्य मात्रा में, योग्य समय तक उपयोग करने से अच्छे परिणाम मिलते हैं, यह जीवन बचा सकती है और मरीझ को बीमारी से संपूर्णतः बाहर निकाल सकती हैं। अन्य कोई दवाई इतने सही तरीके से काम नहीं कर सकती हैं। परंतु यदि इसे अयोग्य, अनियंत्रित या डोक्टर की देखरेख बिना लंबे समय तक दि जाए तो गंभीर मुश्किलें भी हो सकती है । दुःखद बात यह है कि अक्सर इसका सही उपयोग करने के बजाय गलत और दुष्प्रयोग (abuse) अधिक होते हुए देखा गया है। स्टिरोईड शरीर की एडिनल ग्रंथि में विटामिन-C से पैदा होते प्राकृतिक अंतःस्राव की श्रेणी की ही है, जैसे कि कोर्टिकोस्टेरोइड, मिनरलो कोर्टिकोस्टेरोईडस । शरीर की ग्रंथियाँ, अंग और सिस्टम (विविध तंत्र) के प्राकृतिक नियंत्रण में तथा मुख्य कार्य बनाए रखने में, रोग प्रतिरोधक शक्ति बनाए रखने में और स्ट्रेस के प्रतिभाव में शरीर को सक्षम रखने में स्टिरोईड Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ की मुख्य भूमिका है । समज सकते है कि स्टिरोईड की कमी से होने वाली गंभीर बीमारियों में बाहर से सिन्थेटिक तैयार किये हुए स्टिरोईड दिये जाते है । ब्लडप्रेशर कम हो जाने से, शॉक होने से लेकर मायेस्थेनिया क्राइसिस तक या विशिष्ट आधाशीशी (क्लस्टर हेडेक) से लेकर मस्तिष्क की सूजन (ब्रेईन इडिमा) तक और न्युरोलोजी की विविध अन्य परिस्थितिओं में स्टिरोइड जरूरत के अनुसार उपयोग करने से अच्छा परिणाम मिल सकता है । कुछ न्यूरोपथी, डिमाइलिनेटिंग बीमारियाँ (मल्टिपल स्क्लेरोसिस), ब्रेईन ट्यूमर, पोलिमायोसाईटिस, टी. बी. मेनिन्जाइटिस के कुछ केस - ऐसी अन्य बिमारीओं में स्टीरोईड दवाई की जरुरत रहती है । स्टीरोइड्स समूह में प्रेनिसोलोन, डेक्सामिथासोन, मिथाईल प्रेनिसोलोन मुख्य है । कुछ टेब्लेट के स्वरूप में, कुछ इंजेक्शन के स्वरूप में, तो कुछ प्रवाही के स्वरूप में मिलते है । जैसा कि आगे बताया है, यह स्टिरोइड्स दवाई का अनियंत्रित उपयोग कुछ गंभीर परिणाम भी ला सकते है । I लंबे समय तक स्टिरोईड दवाई लेने के दुष्प्रभाव : (१) एसिडीटी (पेट तथा छाती में जलन होना) हो और जठर में छाले पड़े और पुराने छाले फिर से उभर आए । (२) रक्त में चीनी (शुगर) का प्रमाण बढ़े, डायाबिटीस हो जाए या बढ़े । (३) ब्लडप्रेशर बढ जाए । (४) फफूंद (फूग), संक्रमण का शीघ्र असर हो और परिणामतः केन्डिडिआसिस और रिंगवर्म इन्फेक्शन जैसी बीमारियाँ हो सकती है 1 (५) अत्याधिक भूख लगना, अनिद्रा होना और स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाना । (६) शरीर फूल जाना, वज़न अत्याधिक बढ़ जाना और मुँह, पेट और गर्दन के पीछे के भाग में चर्बी जमा होना । (७) कमर के और जांघ के भाग में स्नायुओं की कमज़ोरी बढने से ज़मीन पर से खड़े होने में तकलीफ । (८) हड्डीयां नरम हो जाने से मणके और कमर में दर्द होना । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 - दीर्घ समय तक उपयोग की जाने वाली न्यूरोलोजी की दवाई संबंधित माहिती 265 (९) जाँध की हड्डी कमजोर होने से वहाँ दर्द होता है, और कभी फेक्चर होने से सर्जरी आवश्यक हो सकती है। (Avascular Necrosis) (१०) टी.बी., हर्पिस जैसे संक्रमण सरलता से लग सकते है। (११) पेशाब में मवाद हो सकता है। (१२) स्वादुपिंड में संक्रमण हो सकता है । (१३) रक्त में पोटेशियम का तत्त्व कम हो जाना । (१४) स्टिरोईड अचानक बंद करने से बी.पी. बहुत कम हो जाता है। यह कारणों से स्टिरोईड अधिक मात्रा में केवल कुछ हफ्तों तक ही दिया जाता है। यद्यपि कुछ बीमारियों में कुछ ही मात्रा में लाभ होता है और इसलिए कभी लंबे समय तक स्टिरोईड दवाई लेनी पड़ती है। नियमित डॉक्टरी सलाह अत्यंत आवश्यक है तथा निष्णात डॉक्टर की देखरेख तथा नियमित लेबोरेटरी जाँच जरुरी रहती है। ऐसे संजोगों में दीर्घ स्टिरोईड कोर्स में निष्णात डॉक्टर स्टिरोईड के दुष्प्रभाव रोकने के लिए नियमित रुप से केल्शियम, पोटेशियम, विटामिन्स तथा सजन रोकने हेतु डाइयुरेटिक दवाई निश्चित मात्रा में देते हैं । मरीज को संक्रमण न हो इसलिए योग्य सलाह सूचन दिये जाते है । आहार हेतु योग्य मार्गदर्शन दिया जाता है । समय समय पर डायबिटीस की जाँच, केल्शियम, रक्त में पोटेशियम की मात्रा, ब्लडप्रेशर चेकिंग यह सब भी निष्णात डोक्टर करते है और उसमें मरीज़ का सहयोग आवश्यक है। उपरांत अन्य कुछ दवाईयाँ न्यूरोलोजी के केस में लंबे समय तक उपयोग की जाती हैं, जैसे कि एपिलेप्सी (मिर्गी) हेतु उपयोग होती दवाई, सिरदर्द हेतु की दवाई, पार्किन्सोनिझम हेतु की दवाई, इत्यादि... यहां कुछ दवाई के संदर्भ में संक्षिप्त में देखेंगे। (अ) एपिलेप्सी (मिर्गी) : (१) डाइफिनाइल हाइडेन्टोइन (Diphenyl Hydantoin) : __यह दवाई से क्वचित ही अत्याधिक गंभीर प्रकार की एलर्जी शुरु होती है, जिसे स्टीवन्स-ज्होन्सन सिन्ड्रोम कहते है। इससे त्वचा पर चाठे हो कर बुखार आता है । जीवन को खतरा रहता है। इसके अलावा यह दवाई के प्रचलित दुष्प्रभावों में मसूड़ों का खराब होना या सूजन होना, चेहेरे की Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ सुंदरता - नाजुकता कम होना, अनावश्यक बाल उगना, याददास्त कम होना, गले में गांठ होना, छोटे मस्तिष्क को हानि पहुँचना या ऐसी अन्य परेशानियाँ होते हुए देखा जाता है। दवाई की मात्रा अधिक हो तो मरीज़ को एक चीज दो दिखाई देती है, लड़खड़ाहट शुरु हो जाती है । इसलिए यह दवाई रक्त में कितनी मात्रा में है, यह समय समय पर देखना चाहिए । जिसे 'ब्लड फिनाइटोइन लेवल' कहते है । यह रक्त निश्चित समय पर लेना चाहिए, (डोज़ के पहले), वरना उसका कोई मतलब नहीं रहता । गर्भवती महिलाओं को अक्सर अन्य दवाई दी जाती है, क्योंकि इससे कभीकभी (0.7 प्रतिशत) बच्चे विकलांग पैदा होते हैं । (२) कार्बामेझेपिन ( Carbamazepine ) : यह दवाई से भी उपर बताये अनुसार, लेकिन क्वचित देखने को मिलती स्टिवन्स - ज्होन्सन नामक एलर्जी जिंदगी के लिए खतरा बन जाती है। त्वचा और म्युक्स मेम्ब्रेन की गंभीर एलर्जी भी कभीकभी हो सकती है । उपरांत श्वेतकण मुख्यतः न्यूट्रोफिल्स कम हो सकते हैं, जिससे गले में और जिह्वा पर छाले पड़कर संक्रमण हो सकता है । इस कारण यह दवाई लेने वालें मरीज के रक्त की तपास नियमित हर ३-४ महिने में जाँच करवानी चाहिए । यह दवाई गर्भावस्था दौरान निर्दोष या हानि रहित है । बच्चे को किसी प्रकार का दुष्प्रभाव होता हो ऐसा कोई खास रिपोर्ट नहीं है । (३) वाल्प्रोईक एसिड ( valproic Acid ) : यह दवाई विविध प्रकार की एपिलेप्सी में उपयोग की जाती है। उससे वज़न बढ़े, बाल झरे यह सामान्य है, परंतु वह कभीकभी यकृत (लिवर) को हानि पहुँचाती है। इसलिए यह दवाई उपयोग में हो तब तक नियमित ३ से ४ महीने में एक बार एस. जी. पी. टी. नामक ब्लडटेस्ट करवाना चाहिए । यद्यपि इस सलाह में कई दुविधाएँ भी हैं जैसे कि हफ्ते पहले एस. जी. पी. टी. का रिपोर्ट नोर्मल हो और अचानक लिवर बिगड़ने लगे। ऐसा हो तो दुबारा टेस्ट करवा कर दवाई बंद कर देनी चाहिए। गर्भवती महिला को यह दवाई देने से बच्चे को करोड़रज्जु इत्यादि में तकलीफ शुरु होने के रिपोर्ट मिले है। लेकिन इसकी मात्रा प्रत्येक १००० में से १० बालक तक सीमित हैं । यह जानकारी गर्भावस्था दौरान नियमित रूप से सोनोग्राफी और आल्फा-फिटोप्रोटीन नामक Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24- दीर्घ समय तक उपयोग की जाने वाली न्यूरोलोजी की दवाई संबंधित माहिती 267 रक्त टेस्ट द्वारा या एम्निओसेन्टेसिस द्वारा मिलती है । उसमें समस्या हो तो गर्भावस्था ( प्रेगनन्सी) रोकनी पड़ती है। जहाँ तक मुमकिन हो तो गर्भावस्था में यह दवाई नही देनी चाहिए । ( ४ ) फिनोबार्बीटोन ( Phenobarbitone ) : यह दवाई बहुत ही पुरानी और असरकारक और सस्ती है, लेकिन छोटे बच्चों को अधिक समय तक देने से वे जिद्दी और शरारती बन सकते है । कभीकभी इस दवाई से याददास्त भी बिगड़ती है ऐसा माना जाता है, ज्यादा निद्रा आने लगे वह भी इसका एक दुष्प्रभाव है । इसलिए यह दवाई आजकल कम उपयोग की जाती है । अब उसमें बदलाव लाकर युरोप में इटरोबार्बीटोन दवाई प्रयोग की जाती है, जिससे दुष्प्रभाव कम हो जाता है । (ब) पार्किन्सोनिझम रोग की दवाई का दुष्प्रभाव : यह जिद्दी बीमारी की दवाई भी अधिकतर लोगों को आजीवन लेनी पड़ती है । इसलिए इसके दुष्प्रभाव जानना आवश्यक हो जाता है ( १ ) टी. एच. पी. एच. ( पेसिटेन ) - T. H. P.H. (Pacitane) : : यह दवाई ६५ वर्ष से अधिक आयु के व्यक्ति को देने से ख़तरा बढ़ता है । पेशाब में रुकावट, दुविधा (confusion) होना और याददास्त बिगड़ना वह एक बहुत सामान्य दुष्प्रभाव है । इस लिए यह दवाई अधिकांश ४० से ६० वर्ष के प्रौढ़ व्यक्ति और जिसे प्रोस्टेट की बीमारी न हो, वैसे मरीज़ो को ही देनी चाहिए । (२) लिवोडोपा ( Levodopa ) : सिनेमेट, टाइडोमेट और सिनडोपा इत्यादि नाम से प्रचलित यह दवाई पार्किन्सोनिझम बीमारी की मास्टर दवाई है। लेकिन हृदय रोग के मरीज़ो के लिए उपयोग करने में बहुत सावधानी बरतनी चाहिए। मरीज अचानक खड़ा होता है तब उसका बी. पी. कम हो जाता और मरीज गिर जाता है, ऐसा कई बार हो सकता है, जिसे पोस्चरल हाइपोटेन्शन कहते है । क्वचित जातीयवृत्ति बढ़ जाती है। लंबे समय के प्रयोग से हाथ-पैर विचित्र हलचल करते है, जिसे डिस्काईनेसिआ, डिस्टोनीआ या कोरिआ कहते है । ऐसा हो तो यह मास्टर दवाई अलग रुप में देनी पड़ती है, बदलनी पड़ती है या अनिवार्य संजोग में शस्त्रक्रिया करनी पडती है । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (३) एमेन्टिडिन (Amantidine) : मूलतः फ्लू की बीमारी में उपयोग होने वाली यह दवाई आकस्मिक ही पार्किन्सोनिझम में असरकारक है, ऐसा १९३४ में संशोधन हुआ । बाद में निश्चित ही वह बहुत असरकारक है, ऐसा बारबार साबित हुआ है। लेकिन उससे भी पैर में त्वचा के रोग (लिविडो रेटिक्यूलारिस), हृदय की बिमारी, पैर में सूजन, मानसिक दुविधा और डिप्रेशन इत्यादि समस्याएँ होती है, इसलिए यह दवाई बीच में कुछ समय के लिए बंद करनी पड़ती हैं। (४) ब्रोमोक्रिप्टिन (Bromocriptine) : यह एक उपयोगी दवाई है लेकिन इसकी अधिक मात्रा के सेवन से उल्टी -डकार या कम-बी.पी. इत्यादि होता है और लंबे अरसे के बाद दुविधा, भ्रम, पैर में सूजन और लालाश जैसी विचित्र समस्याएँ होती है । नई दवाई जैसे कि प्रेमिपेक्सोल (Pramipexole ), रोपिनिरोल (Ropinirole), टोलकेपोन (Tolcapone) इत्यादि के दुष्प्रभाव कम है और तुलना में अधिक असरकारक साबित हुई है । लेकिन महँगी है, और दीर्घ समय के दुष्प्रभाव के बारे में हमें इस दवाई को बारीक निरीक्षण में रखना पड़ेगा। (क) अन्य दवाईयां : (१) एस्पिरिन : छूट से उपयोग होने वाली मुख्य दवाई में एस्पिरिन ( Aspirin) है, जिसका विशेष उपयोग न्यूरोलोजिस्ट डॉक्टर, मरीज़ का पक्षाघात रोकने, रक्त पतला करने के लिए अधिकतर आजीवन उपयोग करने की सलाह देते हैं। योग्य तरीके से प्रयोग किया जाए तो निश्चित ही यह सबसे अधिक असरकारक है, परंतु उसकी सख्त एलर्जी से मरीज का मृत्यु होने के केस भी क्वचित् देखे गयें है। उल्टी, डकार, एसिडिटी यह सब प्रचलित दुष्प्रभाव है और पेप्टिक अल्सर (होजरी में छाले) होकर रक्त की उल्टी भी हो सकती हैं। उपरांत शरीर में से रक्त बहना, अन्य अधिक दुष्प्रभाव इस दवाई के दीर्घकालीन उपयोग से होते हैं, इसलिए डॉक्टर को बहुत सावधानी बरतनी चाहिए । पक्षाघात रोकने की ऐसी अन्य दवाई टिक्लोपिडिन (Ticlopidine) Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 - दीर्घ समय तक उपयोग की जाने वाली न्यूरोलोजी की दवाई संबंधित माहिती 269 है, जिससे करीबन २ से ३ प्रतिशत केस में श्वेतकण कम हो जाने की गंभीर समस्या होती है। विशेषतः एलर्जी, पेट में तकलीफ और दस्त आदि हो सकते है । I इसी कारण, टीक्लोपिडीन की जगह आजकल क्लोपीडोग्रेल नामक दवाने ले ली है । जो मरीज दुष्प्रभाव के कारण एस्पीरीन नहि ले सकते हैं अथवा एस्पीरीन के उपरांत एक और दवाई की जरुरत दिखती हो तो क्लोपीडोग्रेल का उपयोग किया जाता है । इसके अलावा कुछ खास संजोग में ओरल एन्टिकोएग्युलन्ट (वोरफेरीन, एसिट्रोम) दवाई भी रक्त पतला करने के लिए दी जाती हैं। मरीज का Prothrombin Time यह दवाई देने से पहेले लिया जाता है । उसके बाद हर २-३ दिन पर Prothrombin Time (ब्लड टेस्ट) करवा कर रक्त सही मात्रा में पतला हुआ है वह जांचा जाता है । रक्त अधिक मात्रा में पतला होने से Prothrombin Time जरुरत से ज्यादा बढ़ जाता हैं और कभी कभार तो गंभीर प्रकार का हेमरेज भी हो सकता है, दवाई की जो मात्रा तय होती है वह मात्रा में मरीज को दवाई नियमित लेने का कहा जाता है। डॉक्टर की सूचना अनुसार Prothrombin Time कराते रहना होता है । किसी भी प्रकार की ब्लिडींग हो तो दवाई बंध करनी पड़ती है । (२) सिरदर्द माइग्रेन की दवाई : 1 माईग्रेन रोकने में तथा ब्लडप्रेशर इत्यादि में बहुत उपयोग होने वाली बीटाब्लोकर दवाई प्रोप्रेनोलोल (Propranolol ) (इन्डिराल, सिप्लार) दम के मरीज़ो को दिया जाए तो दम का हमला हो सकता है । कभी ब्लडप्रेशर कम हो जाता है, नाड़ी की धड़कन कम हो जाती है। अधिक मात्रा में लंबे समय तक लेने से पुरुषो में नपुंसकता आ सकती है और पैर की नसो में रक्त का परिभ्रमण कम हो सकता है । इसके उपरांत अन्य असर भी डॉक्टर को देखनी होती है । माईग्रेन में उपयोग होने वाली अन्य असरकारक दवाई फ्लूनारिझिन (Flunarizine ) है। इसके लंबे समय तक प्रयोग से डिप्रेशन, पार्किन्सोनिझम हो सकता है। वज़न बढ़े, बाल झरे तथा महिलाओं में मासिक अनियमित हो सकता है । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (३) एन्टिबायोटिक दवाई : मस्तिष्क की भयंकर संक्रामक बीमारी जैसे कि मेनिन्जाटिस इत्यादि में योग्य मात्रा में आवश्यकता अनुसार उपयोग करने से जीवन बचाने में ये दवाई बेहद असरकारक-उपकारक साबित हुई है। आजकल ऐसा देखने में आता है कि ये दवाई अयोग्य मात्रा में साधारण बीमारी में भी अधिकत्तर अनावश्यक तरीके से उपयोग की जाती है। उनमें से कुछ लिवर (यकृत) अथवा किडनी (मूत्रपिंड) को खराब करती है, जैसे कि एमाईनोग्लाईकोसाईड दवाई । कुछ एन्टिबायोटिक से किसी की श्रवणशक्ति बिगड़ जाती है, और लड़खड़ाहट शुरु होती है (स्ट्रेप्टोमाइसिन), कभी रक्त पतला हो जाने पर ब्लिडींग होता है (सिफेलोस्पोरिन) । पेनिसिलीन समूह की कुछ दवाई से किसी मरीज़ को इंजेक्शन लेने के बाद मिनटो में ही जानलेवा रिएक्शन होता है, और क्वचित डॉक्टर के सामने ही मरीज की मृत्यु हो सकती है। पेनिसिलीन की टेबलेट या मरहम से भी ऐसा एलर्जिक रिएक्शन हो सकता है। इसलिए पेनिसिलीन या उस प्रकार की दवाई का उपयोग करने से पहले मरीज़ को पूछकर जानकारी लेनी चाहिए कि उन्हें भूतकाल में ऐसी कोई एलर्जी हई थी? इस कारण योग्य जगह पर ही ऐसी एन्टिबायोटिक का उपयोग करें और त्वचा पर टेस्टडोज़ देकर आधे घंटे तक रिएक्शन तो नहीं होता, यह देखने के बाद ही पूरा डोज़ दें । सौभाग्य से ऐसे केस अत्यंत कम होते है। अनावश्यक एन्टिबायोटिक दवाई से रेसिस्टन्स हो, तो बाद में भारी दवाई का ही उपयोग करना पड़ता है। (४) क्विनाइन (Quinine) : क्विनाइन जहरी मलेरिया के उपाय हेतु उपयोग होती है। उससे कान में सीटी जैसी आवाज़ आना, घबराहट होना, चक्कर आना, दुविधा से लेकर मिर्गी आना या किड़नी खराब हो जाना (ब्लेकवोटर फिवर) जैसे भयंकर परिणाम आ सकते हैं। सौभाग्य से ऐसी घटना अत्यंत कम होती है। जी.६-पी.डी. नामक ब्लडटेस्ट क्विनाइन देने से पहले करवाना हितकर है। अंत में फिर से एक बार दोहराता हूँ कि उपर्युक्त गई दवाई चिकित्सकीय सलाह और देखरेख बिना कदापि स्वयं न ले । उपर्युक्त माहिती केवल जानकारी हेतु ही है । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्पताल में भर्ती किए हए. संबंधित जरूरी सूचनाएं । (Tips for a hospitalised patient) मरीज़ को न्यूरोलोजिकल या अन्य बीमारी के उपचार हेतु अस्पताल में भर्ती करने के बाद उसकी देखरेख के लिए जो कुटुंबीजन/स्वजन मरीज़ के साथ रहते है, उनका भी कुछ फर्ज बनता है । मुख्यतः मरीज़ बेहोश हो, स्थिति गंभीर हो या अत्याधिक कमजोरी हो तब उसकी विशेष देखभाल करना जरूरी बन जाता है। अस्पताल में ऐसे मरीज़ के निम्न बताए हुए विभिन्न उपचार के संदर्भ में जानकारी सामान्यतः कुटुंबीजन को भी होनी चाहिए, जिससे उपचार में सरलता रहेगी। ऑक्सीजन ट्यूब, नस में प्रवाही देना, युरीनरी केथेटर, नाक द्वारा ट्यूब से फीडिंग इत्यादी नर्सिंग स्टाफ का काम है। फिरभी सगे संबंधी इस पर निगरानी रख कर सहयोग दे सकते है । (१) ओक्सिजन - 02 : मरीज़ को आवश्यकता हो तब लगातार या एक-एक घंटे के बाद ओक्सिजन दिया जाता है। नाक में रखी हुई ट्यूब ठीक है या नहीं यह देखते रहना चाहिए । ओक्सिजन के सिलिन्डर के पास रखी हुई बोतल में दिखने वाले बुलबुले बताते हैं कि मरीज़ को ऑक्सिजन पहुँच रहा है। इसलिए इस बोतल के तरफ बार-बार नज़र रखनी चाहिए। उसके समाप्त होने से पहले अस्पताल के स्टाफ को बता देना चाहिए । अधिकतर स्थान पर अब सेन्ट्रल लाइन द्वारा ओक्सिजन दिया जाता है, जिसमें इस प्रकार की सावधानी की जरूरत नहीं रहती है। (२) प्रवाही (बोतल) देना (IV Fluid) : मरीज़ को अगर बोतल लगाई हो तो मरीज़ के सगे-संबंधी को मुख्यतः निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए : Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ • सगे-संबंधी को मरीज़ के पास बैठकर मरीज़ को जो हाथ या पैर पर सुई (निडल) लगाई हो, वह नलीवाला हाथ-पैर अधिक न हिलाए उसका ध्यान रखना चाहिए । • बोतल में से प्रवाही/दवाई प्रत्येक मिनट में कुछ बूंद टपके ऐसी व्यवस्था की जाती है। इसमें अगर क्षति दिखे तो तुरंत ही नर्स को बुलाएँ। प्रवाही बंद या लीक हो जाए, प्रवाही टपकने की गति बढ़ या घट जाए अथवा जहाँ से प्रवाही शरीर में डाला जा रहा है, वहाँ सूजन हो या चमड़ी लाल हो जाए या मरीज़ को ठंड लगे या बुखार आए तो भी नर्स को बुलाना चाहिए। (३) नाक द्वारा प्रवाही आहार देने की ट्यूब (Ryle's Tube ) : (१) मरीज़ को ट्यूब द्वारा नाक से फीडिंग (प्रवाही आहार) देने का कार्य नर्स करती हैं। कभी मरीज़ के सगे-संबंधियों को यह काम संभालना पड़े तो यह प्रक्रिया स्पष्टतः समझ लेनी चाहिए । (२) डॉक्टर की सूचना के बाद फीडिंग (प्रवाही आहार) शुरु किया जाता है। (३) इस फीडिंग हेतु चाय, दूध, कोफी, नीम्बूपानी, नारियल पानी, इलेकट्राल पाऊडर का पानी, मिकसर में पिसा हुआ चावल, खिचड़ी, प्रोटीन पाऊडर या शक्ति-केलरी हेतु तैयार पेकेट जैसे कि एनश्योर, नरीश, पिघाली हुई दाल का पानी, बेजिटेबल सूप या फूट ज्यूस-फूट शेईक इत्यादि प्रवाही जितनी मात्रा में देना हो उतना ही दो या तीन घंटे के बाद देते रहना चाहिए । इसकी नोंध रखकर डॉक्टर को बतानी चाहिए । (४) मरीज़ को मुँह से या ट्यूब से प्रवाही दिया जा रहा हो, उस वक्त अंतरास आए या श्वास चढ़ जाए तो तुरंत ही प्रवाही देना बंद कर के डॉक्टर को तुरंत जानकारी देनी चाहिए । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25- अस्पताल में भर्ती किए हुए मरीज़ संबंधित जरूरी सूचनाएं । (५) जब प्रवाही देना हो तब सबसे पहले सिरिंज द्वारा पेट में से ट्यूब द्वारा प्रवाही वापस खींच कर चौकसाई कर लेनी चाहिए । अगर प्रवाही ५० CC से अधिक निकले तो उस समय फीडिंग नहीं दी जा सकती है। एक घंटे के बाद फिर से उसी तरह चौकसाई करने के बाद ही फीडिंग देना चाहिए। वापस खींचा हुआ प्रवाही रक्त या कोफी रंग का हो तो तुरंत ही डॉक्टर को बताना चाहिए । (६) कोई भी प्रवाही देने के बाद ट्यूब में १०-१५ ml जितना पानी डालकर उसे बिलकुल साफ करें । 273 (७) ट्यूब हर पंद्रह दिन में बदलना जरूरी है । (८) किसी कारण ट्यूब की पोझिशन बदल जाये या ट्यूब थोडी बाहर आ जाए तो उसे फिर से न डालते हुए ट्यूब बदलकर दूसरी डालनी चाहिए । (९) मरीज़ लंबे समय तक बेहोश या अर्धजाग्रत रहें तो नाक द्वारा ट्यूब फीडिंग देने से कुछ खतरे बढ़ते है । मुख्यतः छाती में न्यूमोनिया होता है, जिसे एस्पिरेशन न्यूमोनिया कहते है । बेहोश मरीज़ की मृत्यु होने के महत्वपूर्ण पांच कारणों में इस प्रकार का न्यूमोनिया मुख्य है, जिसे रोकने के लिए नाक की ट्यूब निकाल कर गेस्ट्रोस्टोमी ट्यूब से फीडिंग देना चाहिए । यह प्रक्रिया में पेट की त्वचा पर टनल बनाकर विशेष प्रकार की लम्बे समय (महीनों तक) चले ऐसी ट्यूब रखी जाती है । सामान्यतः १ से २ हफ्ते से विशेष समय तक मरीज़ बेहोश रहे तो इस प्रकार की गेस्ट्रोस्टोमी टयूब रखकर खतरे का निवारण करके जिंदगी बचाई जा सकती है । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) 274 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (४) पेशाब करवाने की ट्यूब - केथेटर (Urinary catheter) : (१) मरीज़ को चौबीस घंटे में कितना पेशाब होता है, इसका ध्यान रखें और उसकी नोंध डॉक्टर को बताएँ । मरीज़ को चौबीस घंटे में पेशाब २५०० मि.लि. से अधिक हो या १००० मि.लि. से कम हो और पेशाब अत्याधिक पीला (हल्दी के रंग जैसा), लाल या मवाद जैसा दिखें तो डॉक्टर को बुलाना चाहिए। (३) प्रति घंटे मरीज़ को होने वाली पेशाब की मात्रा देखते रहें। अगर यह कम लगे तो डॉक्टर या नर्स को बताएँ । (४) सामान्यत: केथेटर अंदर का हो (Indwelling Catheter) तो उसे पंद्रह दिनों में बदलना चाहिए। अगर वह बाहर का केथेटर हो तो प्रत्येक तीसरे दिन बदलना चाहिए । (५) सिलिकोन का (सिलास्टिक) केथेटर रखा जाए तो वह लंबे समय तक चल सकता हैं । (६) केथेटर लगे हुए भाग को ड्रेसिंग से साफ रखने में सावधानी रखें। (५) मलत्याग ( Motion) : मरीज़ का पेट प्रतिदिन साफ हो वह हितकारक है । लेकिन दो दिनों के बाद भी मलत्याग न हो तो डॉक्टर को बताएँ । डॉक्टर फीडिंग ट्यूब द्वारा दवाई या गुदा मार्ग से एनिमा देकर या सपोझिटरी रखने की सलाह दे तो उसका पालन करें। (६) आँख की दरकार : बेहोश मरीज़ की आँख खुली रहती है तो वह कभी लाल हो जाती है, और कोर्निया के नाजुक हिस्से पर छाले (Ulcer) होने से आँखों में अंधापन आ सकता है। इसलिए डॉक्टर के सूचन अनुसार पेड से आंखे ढाँक दे और Moisol आदि योग्य प्रवाही की बुंद डालें । आवश्यक लगे तो ऐन्टिबायोटिक बुंद डालें। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 275 25 - अस्पताल में भर्ती किए हुए मरीज़ संबंधित जरूरी सूचनाएं । (७) मुँह की दरकार (माऊथ-केर) : मुँह में छालें, परत न हो इसलिये प्रतिदिन मुँह की जाँच करनी चाहिये । दिन में दो बार मेडिकेटेड़ ग्लिसरिन तथा माऊथफेशनर लगाना चाहिए, दांत साफ करना बहुत आवश्यक है। मरीज़ होश में हो तो कुल्ली करानी चाहिए। (८) व्यायाम (Physiotherapy) : मरीज़ को कई बार लंबे समय तक व्यायाम चालू रखना पड़ता है। मरीज़ की वह कार्यविधि में सहायता हो इसलिये और घर जाने के बाद व्यायाम चालू रखने के लिये फिजियोथेरेपिस्ट या डॉक्टर से उस विषय में जानकारी ले लेनी चाहिए । कौन सा व्यायाम कब, कितने समय के लिये करना है, इस संदर्भ में दी गई सूचना का पालन करना चाहिये और उसके मुताबिक ही व्यायाम कराना चाहिये । (१) मरीज़ को पक्षाघात हो तो उस अंग का व्यायाम कराना चाहिये। (२) मरीज़ अगर बेहोश हो तो उसके दोनों हाथ-पैर प्रति दो घंटे पर हिलाकर व्यायाम करवाना चाहिये । (३) सामान्यतः व्यायाम दिन में चार से छ: बार और दस से बीस मिनट के लिये करवाना चाहिए, थकान नहि लगनी चाहिए । (४) मरीज़ के पैर पर सूजन हो, पैर पर लालाश हो तो डॉक्टर को जानकारी दें। कभीकभी वह बहुत ही खतरनाक रोग (DVT) का चिह्न हो सकता हैं। (९) छाती में से कफ निकालना (Suction) : मरीज़ लंबे समय तक सोते रहता है तब श्वसनतंत्र में मुश्किलें आती है। छाती में कफ भर जाना, छाती में से आवाज़ आना । उसमें से न्यूमोनिया होने का डर रहता है। श्वास की क्रिया भी उससे बिगड़ती है। ऐसे मरीज़ को बारबार पतली ट्यूब के तहत गले और छाती में से सक्शन करवा Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ कर श्वासमार्ग स्वच्छ रखना चाहिये । यह क्रिया सामान्यतः अस्पताल का स्टाफ करता है, परन्तु मरीज़ के सजाग सम्बन्धी भी यह अच्छी तरह से सीख के कर सकते हैं । वास्तव में इसके लिए डिस्पोझेबल केथेटर का प्रयोग बहुत ही योग्य है । वह बहुत ही सावधानी से करना चाहिये । मरीज़ को श्वास में परेशानी रहती हो या कफ अधिक रहता हो अथवा बेहोश अवस्था में रहे तो पोर्टेक्ष की एन्ड्रोट्रेकीअल ट्यूब रखी जाती है । वह ७ से १४ दिन तक रखी जा सकती है। उससे सक्शन बहुत अच्छी तरह होता है । श्वासोच्छ्वास में आराम मिलता है । Tracheostomy : मरीज़ को छाती में ज्यादा कफ रहता हो अथवा उसकी बेहोशी शीघ्र ठीक हो जाए ऐसा न लगता हो तो, ऐसे संजोग में डॉक्टर tracheostomy का निर्णय लेते है । इस प्रक्रिया में गले के ऊपर के आगे के भाग श्वासनली में छोटा छिद्र करके प्लास्टिक या मेटल ट्यूब रखकर उसके द्वारा श्वास की प्रक्रिया व्यवस्थित की जाती है । उसका विशेष लाभ यह है कि कफ जमा हुआ हो तो आसानी से निकाला जा सकता है, जिससे न्यूमोनिया का डर नहीं रहता है । श्वसनक्रिया में भी आराम हो जाता है। मरीज़ का श्वासोच्छ्वास सुधरता जाए, उसे होश आने लगे, कफ कम होने लगे, तब छिद्र छोटा करने के लिये ट्यूब की चौड़ाई क्रमशः कम करते रहना चाहिये। अन्ततः छिद्र बन्द हो जाता है और जख्म भर जाता है । श्वासोच्छ्वास अच्छा रहे, कफ न हो तथा हायपोस्टेटिकन्यूमोनिया न हो इसलिये प्रारम्भ से ही Chest Physiotherapy आरम्भ कर देनी चाहिये। आवश्यकतानुसार मरीज़ को नेब्युलाइज़र मशीन से श्वासमार्ग में योग्य दवाई तथा बाष्प पहुँचा कर श्वास मार्ग खुल्ला, स्वच्छ और उष्मायुक्त रख कर कफ को रोका जा सकता हैं । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 277 25 - अस्पताल में भर्ती किए हुए मरीज़ संबंधित जरूरी सूचनाएं । (१०) सामान्य दरकार (Nursing Care) : १. मरीज़ का बिस्तर स्वच्छ रखना चाहिये । बिस्तर में आवश्यकतानुसार पाउडर छिड़कना चाहिये । स्वजनों को मरीज़ के बिस्तर में शक्यतः बैठना नहीं चाहिये । संक्रमण होने की संभावना हो तो स्वजनों को मुँह पर मास्क और सिर पर केप पहनने की डॉक्टर सलाह देते है। २. मरीज़ बेहोश हो तब उसका सिर ३० से ४० डिग्री ऊँचा रहे उस तरह उसे सुलाना चाहिये । ३. मरीज को करवट से एक तरफ सुलाएँ ( lateral semiprone position ) और प्रत्येक एक-दो घंटे के बाद शरीर की करवट बदलते रहना चाहिए । मरीज़ के पीठ और अन्य प्रेसर पोइन्ट्स पर चाठे न पड़े उसके लिए खूब सावधानी रखना चाहिए । ४. मरीज़ को छाले या चाठे न पड़े उसका विशेष ध्यान रखना चाहिये । त्वचा का रंग बदले या त्वचा पर घर्षण हो तो डॉक्टर या नर्स को दिखाना चाहिये । लम्बे समय की बीमारी हो और मरीज़ बिस्तर पर ही रहता हो तो ऐसे संजोग में मरीज़ के लिये पानी भरे बिस्तर ( water-bed) की आवश्यकता रहती है । चिकित्सक की सलाह अनुसार ही मरीज को वोटर-बेड पर सुलाने की व्यवस्था करनी चाहिए। कभीकभी हवा भरा बिस्तर (या इलेक्ट्रीक एअर-बेड) अथवा स्पंजबेड़ भी उपयोग किया जा सकता है। ६. मरीज़ को प्रतिदिन स्पंज (गीले कपड़े से शरीर साफ) करना चाहिये। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 ७. * मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ दिन में दो बार सिस्टर के हाथों मरीज़ का मुँह साफ करवाना चाहिये। उपरांत मरीज़ के रिश्तेदारों के द्वारा भी दो बार साफ कराया जा सकता है । ८. मरीज़ होश में हो तब शक्यतः उसे बैठाकर ही आहार देना चाहिये । ( ११ ) महत्वपूर्ण मुद्दे ( vital points ) : • मरीज़ के हृदय या नाड़ी की धड़कन अधिक लगे तो शीघ्र ही डॉक्टर को बताना चाहिये । मरीज़ के रिश्तेदार कार्डियाक मोनिटर प्राथमिक तौर से देखना और समझना सीख ले तो बहुत अच्छा रहेगा। मरीज़ को श्वास अधिक हो जाए, अथवा वह अचानक फीका या भूरा पड़ जाये तो डॉक्टर या सिस्टर को तुरंत ही जानकारी देनी चाहिये । बुखार आया हो तो डॉक्टर या सिस्टर को बताना चाहिये । परिवारजनों की विशिष्ट जिम्मेदारी : मरीज़ को ठीक करने में बहुत सी चीज़ों का योगदान होता है, जिसमें परिवारजनों द्वारा दी जाने वाली सेवा महत्वपूर्ण है । मरीज़ की चिकित्सा उपरांत प्यार भरी बातें जादूई असर करती है, जिससे मरीज़ का मनोबल बढ़ता है । और उसकी ठीक होने की आंतरिक शक्ति बढ़ जाती है । अस्पताल में रिश्तेदारों को मरीज़ का ध्यान रखने के लिए एकएक करके दिन-रात रहना चाहिये । मरीज़ को कभी अकेला न छोडें । ऐसे समय में कई बार मरीज़ पलंग पर से नीचे गिर सकता है । आवश्यकतानुसार पलंग पर रेलिंग रखी जा सकती है। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25- अस्पताल में भर्ती किए हुए मरीज़ संबंधित जरूरी सूचनाएं । 279 • मरीज़ को शांति और आराम की आवश्यकता होने से उसके बिस्तर के पास शोरगुल नहीं मचाना चाहिये । • कमरें में स्वच्छता रखें । • मरीज़ के पास अधिक भीड़ ना करें। उससे मरीज़ को संक्रमण लगने का डर रहता है। रोगिष्ट स्वजन मरीज़ को मिलने आयें वो ठीक बात नहीं है । मरीज़ का हाल पूछने आये व्यक्ति को मरीज़ सुन सके इस तरह उसकी बीमारी, मृत्यु या दूसरी कोई आघातजनक बातें नहीं करनी चाहिये । ऐसी कोई भी बात मरीज़ के मनोबल को कम करती है। ऐसे लोग मरीज़ के पास न जाये उसका खास ध्यान रखना चाहिये । उसी तरह दर्द, दवाई, डोक्टर या अस्पताल के बारे में सुने हुए खराब अनुभव, मान्यताएँ की बाते मरीज़ को और उसके रिश्तेदारों समक्ष नहीं करनी चाहिये । मरीज़ के रोग के बारे में सूचना, दी जाती दवाई ठीक है या नहीं, डॉक्टर अच्छे है या नहीं - ऐसी सम्बन्धित किसी भी प्रकार की उलटी सुलटी बातें नहीं करनी चाहिये । ऐसा होने से मरीज़ और उनके रिश्तेदार दुविधा में पड़ जाते है, जिससे मरीज़ के स्वास्थ्य उपचार में विक्षेप होता है । एक साथ मरीज़ का हालचाल पूछने जाने की प्रथा में और वहां के वातावरण में बदलाव करने की खास आवश्यकता है। मरीज़ के लिए फल, पुस्तक, Get Well Soon कार्ड अर्पण करके शुभेच्छा दी जा सकती है । घर पर या धार्मिक स्थलों पर जाकर प्रार्थना की जा सकती है। मरीज़ को भी प्रार्थना के लिये समजाया जा सकता है। प्रार्थना में अच्छा करने की बहुत Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ ताकत है। मरीज़ को पसंद हो ऐसी सुमधुर संगीत की केसेट धीरे स्वर में रखी जा सकती है। हमारा दुर्भाग्य है कि मेडिकल इन्स्योरन्स की प्रथा के संदर्भ में भारतीय नागरिक में जितनी चाहिए उतनी जागृति नहीं है। उसके विरुद्ध मेडिकल उपचार दिनप्रतिदिन महँगा होता जा रहा है । ऐसी परिस्थिति में जिसका इन्स्योरन्स नहीं है और मरीज़ आर्थिक तरह से कमजोर हो ऐसे मरीज़ के उपचार के खर्च के लिये आर्थिक मदद की आवश्यकता हो तो, डॉक्टर को इस संदर्भ में बताना चाहिये । उनके मार्गदर्शन से सामाजिक संस्था द्वारा दवाई कम दाम में मिल सकती है। ऐसी संस्थायें बड़े शहरों में कार्यरत है। अस्पताल के सामाजिक कार्यकर्ता यहाँ मार्गदर्शन दे सकते है। कुछ रोगों में विशिष्ट, घनिष्ट और महँगे उपचार की आवश्यकता रहती है। जैसे कि AIDP में प्लाझमा एक्सचेन्ज, AIDP या मायेस्थेनिया में गामाग्लोब्यूलिन, श्वसनयंत्र (वेन्टिलेटर) इत्यादि के लिए खर्च रु. ५० हजार से रु. ३-४ लाख से भी अधिक तक पहुँच जाता है। ऐसे समय में राहत दर से उपचार के लिए, या अधिक जानकारी के लिए या फिर उपचार के खर्च के लिये चिकित्सक शायद मार्गदर्शक बन सकते है । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डॉक्टर के पास जाओ तब ... (१) डॉक्टर के पास जाने से पहले अपनी एपोइन्टमेन्ट (मुलाकात का समय) निश्चित कर लेनी चाहिये । (२) आपकी सभी समस्या की लिस्ट, समयानुसार, निश्चित क्रम में संक्षिप्त नोंध करके ले जानी चाहिये । " (३) डॉक्टर समक्ष आपकी समस्याएँ संक्षिप्त में मुद्दानुसार बतानी चाहिये । डॉक्टर समक्ष आपकी समस्या का वर्णन करें। आपने मान लिया है ऐसा निदान नहीं बताना चाहिए (जैसे कि "मुझे गले में दुःखता है, ' ऐसा कहो । “टोन्सिल हो गया है" ऐसा नहीं कहना चाहिये) । (४) आपके भूतकाल की सभी महत्वपूर्ण बीमारियाँ, उससे सम्बन्धित तबीबी परीक्षण, उपचार, शस्त्रक्रियाएँ इन सभी को ध्यान में रखकर व्यवस्थित फाईल बनाकर साथ में रखनी चाहिये । यदि आपकी वर्तमान समस्या का पिछली बीमारी या बीमारियों से सम्बन्ध हो तो वह डॉक्टर को बताना चाहिए, कभी रक्त लिया हो तो भी अवश्य बताना चाहिए । (५) आपके परिवार में नजदिकी रिश्तेदार को क्षय, हाई ब्लड प्रेशर, डायाबिटीस, हृदयरोग, मिर्गी, यकृत या मूत्रपिन्ड की बीमारी, जन्मगत विकलांगता, अस्थमा, जोड़ो का दर्द या अन्य कोई विशेष बीमारी हो तो यह बात तथा उस व्यक्ति के साथ आपका क्या रिश्ता है वह भी डॉक्टर को बताना चाहिये । (६) दुविधा में रहकर डोक्टर से किसी भी प्रकार की जानकारी छूपानी नहीं चाहिये । मुख्यतः आयुर्वेद, होमियोपथी, यूनानी इत्यादि कोई दवाई चलती हो तो उसकी जानकारी पूरी तरह से डॉक्टर को देनी चाहिये । शक्य हो तो दवाई साथ में ही लेकर जाना चाहिये । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ (७) आपकी मर्जी अनुसार उपचार, दवाई या लेबोरेटरी परीक्षण का आग्रह न रखें । डॉक्टर से मिलने के पहले अपने आप ही किसी प्रकार की दवाई या लेबोरेटरी परीक्षण नहीं करवाना चाहिये । (८) यदि आपको किसी दवाई की प्रतिक्रिया हो (रिओकशन आ रहा हो) तो डॉक्टर को इसकी जानकारी दे । आपकी बीमारी और उसके उपचार के विषय में अपने डॉक्टर के साथ ठीक से और खुले दिल से चर्चा कर लेनी चाहिये । यह जानकारी लेना आपके लिये बहुत उपयोगी होगा। (१०) आपके डॉक्टर पर पूरा विश्वास रखें । निश्चित वजह के बिना डॉक्टर बदलना नहीं चाहिये । यदि आप अपनी बीमारी के संदर्भ में अन्य किसी डॉक्टर का अभिप्राय लेना चाहते हो तो अपने डॉक्टर को बताकर और उनकी सलाह के अनुसार करना चाहिये । हो सके तो उनकी चिठ्ठी ले लेना चाहिये । (११) यदि आपकी समस्या दीर्घकालिन हो तो निम्न लिखित चिह्न, उसके समयानुसार नोंध करें : प्राय: कोई गंभीर रोग हो सकता है - जैसे कि केन्सर वजन कम होना । शरीर में कहीं भी गांठ या सूजन । आवाज़ में बदलाव । शरीर के किसी भी प्राकृतिक मार्ग से रक्त बहना । दीर्घकालिन खांसी । दीर्घकालिन बुखार । ऊपर वर्णित अनुसार जानकारी अपने साथ रखकर डॉक्टर को मिलने से आपकी समस्या का उपचार करने में उन्हें सरलता रहेगी। आपको भी बीमारी का योग्य उपचार मिलेगा । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Patient Information Guide 283 Patient Information Guide ALZHEIMER'S DISEASE Alzheimer's Association 225 North Michigam Avenue Suite 1700 Chicago, IL 60601-7633 312-335-8700 800-272-3900 info@alz.org www.alz.org AUTISM AUTISM Research Institute (ARI) 4182 Adams Avenue San Diego, CA 92116 619-281-7165 www.autismeresearchinstitute.com.or www.austin.com/ari AMYOTROPHIC LATERAL SCLEROSIS BRAIN TUMOR The ALS Association (ALSA) American Brain Tumor Association 27001 Agoura Road 2720 River Road Suite 150 Suite 146 Calabasas Hills, CA 91301-5104 Des Plaines, IL 60018-4117 818-880-9007 847-827-9910 800-782-4747 800-886-2282 info@alsanational.org info@abta.org www.alsa.org www.abta.org ATAXIA National Ataxia Foundation 2600 Fernbrook Lane North Suite 119 Minneapolis, MN 55447-4752 763-553-0020 naf@ataxia.org www.ataxia.org CEREBRAL PALSY United Cerebral Palsy (UCP)/ UCP Research & Education Foundation 1660 L Street, NW Suite 700 Washington, DC 20036 202-973-7140 800-USA-5UCP (872-5827) national@ucp.org www.wcp.org and www.ucpresearch.org ATTENTION DEFICIT DISORDER Attention deficit Disorder Association P.O. Box 543 Pottstown, PA 19464 484-945-2101 mail@add.org www.add.org DISABILITY National Institute on Disability & Rehabilitation Research (NIDRR) Department of Education Office of Special Education and Rehabilitative Services 400 Maryland Avenue, SW Washington, DC 20202-7100 202-245-7460 202-245-7316 (TTY) www.ed.gov/about/offices/list/orders/nidrr Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ of COMA Coma Recovery Association 8300 Republic Airport, Suite 106 Farmingdale, NY 11735 631-756-1826 inquiry@comarecovery.org www.comarecovery.org HUNTINGTON'S DISEASE Huntington's Disease Society America 505 Eighth Avenue Suite 902 New York, NY 10018 212-242-1968 800-345-HDSA (4372) hdsainfo@hdsa.org www.hdsa.org EPILEPSY Epilepsy Foundation 8301 Professional Place Landover, MD 20785-2267 301-459-3700 800-EFA-1000 (332-1000) postmaster@efa.org www.epilepsyfoundation.org INDIAN EPILEPSY ASSOCIATION Indian Epilepsy Association 37, State Bank of India Road, Banglore - 560001 Phone : 080-255 88 274, 255 88 390 ieabir @vsnl.net INDIAN EPILEPSY SOCIETY C-1/10, AIMS Campus Ansari Nagar New Delhi-110029 FIBROMYALGIA American Autoimmune Related Diseases Association 22100 Gratiot Avenue Eastpointe Ease Detroit, MI 48201-2227 586-776-3900 800-598-4668 aarda@aarda.org www.aarda.org LANGUAGE & LEARNING DISABILITIES International Dyslexia Society 8600 LaSalle Road Chester Building, Suite 382 410-296-0232 800-ABCD123 (222-3123) info@interdys.org www.interdys.org HEADACHE MENTAL RETARDATION (see also pain) The ARC of the United States American Council for Headache 500, East Border Street, Suite-300 Education Arlington, TX-76010 19 Mantua Road Contact : Alan Abeson, Ed.D., Executive Director Mt. Royal, NJ 08061 Phone: 817-216-6003, 856-423-0258 TTY : 817-277-055; 800-255-ACHE (2243) Fax : 817-277-3491 achehq@talley.com Website : http/l/thearc.com www.achenet.org Email : thearc@metronet.com Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Patient Information Guide MOVEMENT DISORDERS We move (Worldwide Education & Awareness for Movement Disorders) 204 West 84th Street New York, NY 10024 212-875-8312 wemove@wemove.org wemove@wemove.org MULTIPLE SCLEROSIS Multiple Sclerosis Association America 706 Haddonfield Road Cherry Hill, NJ 08002 856-488-4500 800-532-7667 msaa@msaa.com www.msaa.com MUSCULAR DYSTROPHY Muscular Dystrophy Association 3300 East Sunrise Drive Tucson, AZ 85718-3208 520-529-2000 800-344-4863 mda@mdausa.org www.mda.org MYASTHENIA GRAVIS Myasthenia Gravis Foundation of America, Inc 1821 University Avenue West Suite $256 St. Paul, MN 55104 651-917-6256 800-541-5454 mgfa@myasthenia.org www.myasthenia.org MYOSITIS The Myositis Association 1233 Twentieth Street, NW Suite 402 Washington, DC 20036 202-887-0088 800-821-7356 tma@myositis.org www.myositis.org MYOTONIC DYSTROPHY of International Myotonic Dystrophy Organization P.O. Box 1121 Sunland, CA 91041-1121 818-951-2311 866-679-7954 (toll-free in USA and Canada) mytonicdystrophy@yahoo.com www.mytonicdystrophy.org PAIN Americam Chromic Pain Association P.O. Box 850 Rocklin, CA 95677-0850 916-632-0922 800-533-3231 285 ACPA@pacbell.net www.theacpa.org PARALYSIS American Paralysis Association (APA) 500, Morris Avenue Springfield, NJ-07081 Toll Free: 800-255-0292 Phone: 201-912-9433 Fax: 201-912-9433 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 PARKINSON'S DISEASE Parkinson American Association 135 Parkinson Avenue Staten Island, NY 10305-1425 718-981-8001 800-223-2732 Califormia: 800-908-2732 apda@apdaparkinson.org www.apdaparkinson.org PERIPHERAL NEUROPATHY Neuropathy Association 60 East 42nd Street Suite 942 New York, NY 10165-0999 212-692-0662 info@neuropathy.org www.neuropathy.org SHY-DRAGER SYNDROME Shy-Drager/Multiple System Atrophy Support Group, Inc. P.O. Box 279 Coupland, TX 78615 866-SDS-4999 (737-4999) www.shy-drager.oprg SLEEP DISORDERS American Sleep Apnea Association 1424 K Street, NW, Suite 302 Washington, DC 20005 202-293-3650 asaa@sleepapnea.org www.sleepapnea.org STEM CELL RESEARCH National Institutes of Health 1 Center Drive Bethesda, MD 20892 www.nih.gov/news/stemcell STROKE Disease American Stroke Association : A Division of American Heart Association मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ 7272 Greenville Avenue Dallas, TX 75231-4596 888-4stroke (478-7653) strokeassociation@heart.org www.strokeassociation.org STROKE National Stroke Association 9707 East Eastler Lane Englewood, CO 80112-3747 303-649-9299 800-STROKES (787-6537) info@stroke.org www.stroke.org TRANSVERSE MYELITIS Transverse Myelitis Association 1787 Sutter Parkway Powell, OH 43065-8806 614-766-1806 info@myelitis.org www.myelitis.org TRAUMA Brain Injury Association of America, Inc. 8201 Greensboro Drive Suite 611 McLean, VA 22102 703-236-6000 800-444-6443 familyhelpline@biausa.org www.biausa.org Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ 287 Book Review by International Experts (Neuro Scientists) for the English Edition 2002 Prof. Martin Brown Prof. of Stroke Medicine NHN & N, Queensquare, London, UK. Dear Dr. Shah It was a great pleasure to meet you again at the meeting in Mumbai. Thank you very much for giving me a copy of your excellent book, which I enjoyed reading. It provides an excellent introduction to neurology. I realise you wrote it for the lay person, but I think medical students would also profit from reading it. Prof. Louis R Caplan Prof. of Neurology, Harvard medical school, Director of stroke service: Boston, USA. I liked the book very much. The writing is clear and concise. It was a honor to read and review this book. It is badly needed for the public. Prof. David Bates Prof. of Neurology, Multiple Sclerosis New Castle, UK Dr. Shah, pleasure to meet you last week, I am impressed by your useful little book. “The book is a readable explanation of Neurology which can be easily understood by layman and medical student. The distilled wisdom and explanation in each chapter will help allay worries in the family of those with neurological disorders and in the student fearful of questions in neurological examinations. It provides a succinct summary of the nervous system and its common disorders, Dr. Sudhir V. Shah is to be complemented in the clarity of his writing.” Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ S IMS Prof. James C Grotta Chair, Stroke medicine U.T. Medical School Houston, USA Thank you very much for the book - we will use it for our resident and nursing education. Prof. Amado M. San Luis President, Asia-oceanic association of Neurology Manila, Philipines Your book is very informative, simplified and indeed friendly for medical students and residents who are often intimidated by the subjects, neuroanatomy and neurology. Prof. Mauriedavid Emeritus Clinical Professor of Psychiatry Temple University, Health Science Center Philadelphia, Pa. 19106 This is a book of that times. It is an important book, delivering a message of clear understanding, to the peoples (not only of his country of origin, India) but also in its very clear translation, to the community of the Western World. Importantly, Dr. Shah is a Neurological physician of considerable reputation, This makes his message all the more compelling and significant His work is complete in scope and very, very clear in the messages delivered as to the nature of neurological diseases. These messages are accompanied with advice as to their origins (so far as they are known) and as to their treatment. This is a book, also, which is completely in attune with Dr. Shah's very humanistic desire to help the world. Knowing him as I do, his intention to promote the welfare of all humanity is successfully and well delivered. Maurie D. Pressman, MD. Romeo Chu Philippines Thank you very much for the book you gave me. It is indeed an excellent book ! The topics covered were quite comprehensive and represents the most common cases that are encountered in clinical practice. The clear photographs and illustrations makes it easier for the reader to appreciate the subject matter as well. Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगह जगह पे, बहुत सी भाषाओं में हृदयरोग, ब्लडप्रेशर, मेदस्विता (स्थूलता) और डायाबीटीस के बारे में काफी जानकारी आप देखेंगे, परन जाने क्यूँ मस्तिष्क (दिमाग) और चेतातंत्र के बारे में ऐसा कहीं लिखा नहीं गया है। यह पुस्तक इसी दिशा में किया गया एक नम्र प्रयास है, जिसमें आपको मस्तिष्क और चेतातंत्र की कार्यपद्धति से लेकर उनकी बीमारियाँ, इनके उपचार और अटकाव के लिए सूचन के बारे में चिंतन प्राप्त होगा। प्रथम प्रकरण में मस्तिष्क और चेतातंत्र की प्राथमिक माहिती और उनके रोगों का वर्गीकरण दिया गया है। उसके बाद न्यूरोरेडियोलोजी द्वारा जटिल निदान कैसे सरल बनाया जाता है वह जानकारी दूसरे प्रकरण में है। बाद के आठ प्रकरण से दिमाग के प्रमुख और प्रचलित रोगों के बारे में आपको अधिकृत माहिती मिलेगी। ग्यारहवाँ निद्रा का प्रकरण आपको आश्चर्य के साथ कुछ अजीब जानकारी देगा। बारह से पंद्रह तक के प्रकरण तबीबी जगत के लिए अभी तक मुश्किल कहे जानेवाले रोगों के बारे में हैं। सोलह नंबर के प्रकरण द्वारा करोडरज्जु (Spinal Cord) के रोगों की जानकारी आप प्राप्त करेंगे। 17 से 21 प्रकरण में ऐसे विशिष्ट रोगों के बारे में जागरुकता लाने का प्रयास है, जो कि कम विख्यात है, फिर भी दर्दी को क्रमशः परवश और बेहाल बना डालते है। 22 वें प्रकरण द्वारा आजके विश्व की गंभीर समस्या तनाव और उसके उपचार के बारे में तार्किक और वैज्ञानिक समझ दी गई है। जब कभी दवाई और सारवार से दर्द ठीक न हो और जहाँ जरुरत हो वैसे रोग में शस्त्रक्रिया-सर्जरी की बात आती है - वह न्यूरोसर्जरी के बारे में रसप्रद माहिती प्रकरण तेईस में मिलेगी। प्रकरण 24 और 25 में रोग के सारवार में ली जाती हुई दवाईयाँ की माहिती तथा अस्पताल में की जाती सारवार और खास कर के दर्दी के साथ रहनेवाले रिश्तेदारों को दर्दी की देखभाल में क्या ध्यान रखना उसका अतिमहत्वपूर्ण विवरण किया है। विषय-वस्तु की समझदारी बढे वह हेतुसर, यथायोग्य आकृति का आधार लिया है। जहाँ कहीं सुयोग्य हिन्दी शब्द नहीं मिले है, वहाँ मूल अंग्रेजी (English) शब्द लेने पडे है, जिसके लिए सुज्ञवाचकगण मुझे क्षमा करेंगे। विशेषत: कुछ दवाई जनरिकनाम से ज्यादा बाजारु नाम से प्रचलित है - इसलिए उन नाम का उपयोग मात्र पाठकों की सरलता के लिए करना पड़ा है। इस पुस्तक में अब तक प्राप्य और पर्याप्त माहिती द्वारा विवरण दिया गया है। किन्तु, आप सबको ये बात लक्ष्य में रखना बहुत जरुरी है कि तबीबी शास्त्र में और विज्ञान में अविरत विकास और संशोधन की प्रक्रिया चालु ही रहती है। अंतत: यह पुस्तक समाज के लिए खूब लाभदायी सिद्ध हो, ऐसी परमकृपालु परमात्मा को विनम्र प्रार्थना। प्रो. डॉ. सुधीर वी. शाह एम.डी., डी.एम. (न्यूरोलोजी) न्यूरोलोजी सेन्टर, 206-207-208, संगिनी कॉम्प्लेक्स, परिमल रेलवे क्रॉसिंग के पास, एलिसब्रिज, अहमदाबाद-३८०००६ टे.नं.०७९-२६४६७०५२, 26467467 website : www.sudhirneuro.org Personal use