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बीमारी लागू पडे तब डॉक्टर के पास दौड़ने से अच्छा है कि बीमारी ही न हो और हो जाय तो प्रारंभिक स्तर पर ही समझकर योग्य उपचार से उसे दूर करने की सूझ सामान्य मनुष्य और कथित पढ़े-लिखे व्यक्तिओं में क्यों नहीं होती है ? उसके बारे में अपनी देखरेख संस्था, समाज जागति संस्था अपनी जिम्मेदारी निभाती है या नहीं ? समाचारपत्र और सामयिक बीमारियों के बारे में वाचकों को माहितगार करने के प्रयत्न करते रहते हैं परंतु कितनी बार उसके उल्टे परिणाम देखने को भी मिलते है । किसी वर्तमानपत्र या सामयिक में आरोग्यलक्षी लेख के लिए निष्णात चिकित्सक को कायमी संपादक या सलाहकार नियुक्त किया गया हो ऐसा आपने सुना या देखा है ?!
ऐसी परिस्थिति में विविध रोगों के बारे में माहिती-पुस्तिका उपलब्ध करवाई जाएं तो एक बड़ी समाज सेवा मानी जाएगी । इसलिए ही मशहूर न्यूरोफिजिशियन डॉ. सुधीरभाई वी. शाह का लिखा हुआ 'मस्तिष्क और ज्ञानतंतु की बीमारियाँ' नाम का यह पुस्तक एक आशीर्वाद समान है ऐसा कहें तो उसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । जब पुरानी बीमारी फिर से उभरे और नई बीमारी फैल चूकी हो तो ऐसे वक्त पर जो चिकित्सक को मरीज़ और उसके कुटुंबीजनों की चिंता हो और जिनके हृदय में मरीजों
और सामान्य जनता का हित बसा हो वही चिकित्सक ही अपनी व्यस्त दिनचर्या में से पुस्तक लिखने के लिए समय निकाल सकता है और रात्रि को जाग कर भी अपना काम पूरा करता है । इससे भी विशेष वह अपने जेब से आर्थिक खर्च करके उसे प्रकाशित करता है । 'मैं अकेला क्या कर सकता हूँ?' ऐसे नकारात्मक, निराशावादी विचार के विरुद्ध 'चल अकेला' के सिद्धांत को अपनाते डॉ. सुधीरभाई ने इस दिशा में प्रथम कदम रखा है।
इस पूर्वभूमिका को समझने के बाद अब पुस्तक की बात करते है । इतना तो नि:संकोच कहना ही पड़ेगा कि मरीज़ों, उनके परिवारजनों और समग्र जनसमुदाय को मस्तिष्क-ज्ञानतंत्र की विविध बीमारियों के बारे में
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