Book Title: Kuvalayamala Part 2
Author(s): Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुवलयमाला (घ) भेदी आकाशवाणी आचार्य श्री विजयभुवनमानुसूरीश्वरजी ainucation International For Private & Personal s gainelibrary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुवलयमाला (भेदी आकाशवाणी - २) -: प्रवचनकार :वर्धमानतपोनिधि गच्छाधिपति प.पू.आचार्यदेवश्री विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज संकलन प. पू. पंन्यासश्री पद्मसेनविजयजी गणी प्रकाशक अनन्त - संस्कारनिधि फाउंडेशन - श्री आदिनाथ जैन टेम्पल - चिकपेट - बेंगलोर - 00000000000OOOOOOOOood DOOO Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राप्तिस्थान १. अनन्त संस्कारनिधि फाउन्डेशन C/o. श्री आदिनाथ जैन टेम्पल चिकपेट, बेंगलोर - ५६००५३ २. दिव्यदर्शन ट्रस्ट कुमारपाल वि. शाह ३९ कलिकुंड सोसायटी धोलका - ३८७८१० । ३. अशोक जे. संघवी ७०, अम्बिका क्लोथ मार्केट डी. के लेन चिकपेटकोस, बेंगलोर - ५६००५३ प्रकाशन वि. सं. २०५४ आसोज सुदी ६ मूल्य :- रु ३० - कुवलयमाला भाग - १ याने भेदी आकाशवाणी प्रथम भाग दिव्य दर्शन ट्रस्ट - ३९ कलिकुंड सोसायटी - धोलका __ (मूल्य रू. २५=००) से प्राप्त हो सकेगा। मुद्रक :- जीतुभाई शाह (अरिहंत) ६८७/१, छीपापोल, कालुपुर, अहमदाबाद - १.W Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय निवेदन वर्तमान युग में इन्सान हर क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए तत्पर बनता जा रहा है। परन्तु अफसोस की बात यह है कि विविध क्षेत्रों में आगे बढ़ने की धून में वह आध्यात्मिक क्षेत्र में पिछड़ता जा रहा है। टी. वी., वीडियो, ब्ल्यू फिल्म्स व बाह्यलक्षी साहित्य के द्वारा वह अपनी आत्मा से दूर होता जा रहा है। अब तो आवश्यकता है कि वर्तमान पीढ़ी तक ऐसा संस्कारवर्धक स्वस्थ साहित्य पहुंचाया जाय, जो उनमें सदाचार व सुसंस्कारों का दीप ज्वलंत बनाये रखे । इसी उद्देश्य से हमने वर्धमानतपोनिधि परम पूज्य आचार्यदेव श्री भुवनभानुसूरीश्वरजी म. सा. की प्रेरणा व मार्गदर्शन से उन्हीं की पावन निश्रा में सं. २०४७ में इस ट्रस्ट की स्थापना की थी। इस ट्रस्ट का यह द्वितीय प्रकाशन स्व. पूज्यपाद आचार्यदेव श्री भुवनभानुसूरीश्वरजी म. सा. द्वारा लिखित गुजराती पुस्तक 'कुवलयमाला' का हिन्दी अनुवाद आपके करकमलों में समर्पित करते हुए हम गौरव का अनुभव कर रहे हैं। सिद्धांत दिवाकर, गच्छाधिपति परम पूज्य आचार्यदेव श्री जयघोषसूरीश्वरजी म. सा. व प. पू. पंन्यासप्रवर श्री पद्मसेनविजयजी म. सा. ने हमें इस पुस्तक के प्रकाशन का लाभ दिया. अतः हम स्वयं को सौभाग्यशाली मानते हैं। न्यायविशारद - परमाराध्यपाद पूज्य आचार्यदेव श्री भुवनभानुसूरीश्वरजी म. सा. की यह अनमोल कृति हिन्दीभाषी पाठकों के हृदय को अवश्य छूएगी, इसी आशा के साथ... ट्रस्टीगण श्री लक्ष्मीचंदजी कोठारी श्री उत्तम्रचंदजी भंडारी श्री एस. कपूरचन्दजी श्री के. एम. गादिया श्री बाबुलालजी पारेख निवेदक... ट्रस्टीगण अनन्त - संस्कारनिधि फाउंडेशन, बेंगलोर Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका विषय स मान काय मानभट की कथा PRODNA ARTS अभिमान के नतीजे चारित्र में मोह का नाश सरल स्नेह के बन्धन प्रबल होते हैं स्त्री माने क्या ? तांता बहुत नहीं तानना अरिहंत शरण कब आये ? मानभट का पश्चात्ताप ६. ७. SECRETATA AR AA मायाकषाय म .dnstaEASSARKAR हो मायादित्य का द्रष्टांत जंगल से होकर जाने में धन और प्राण दोनो जाएँ सज्जनता टिकाने के लिए ४ विचार क्या सज्जनता बेहद होती है ? लोभकषाय लोभदेव का द्रष्टान्त क्या आज नरक में जाया जाता है ? धर्म से सुख मोह कषाय मोहदत्त का द्रष्टान्त कर्म की विचित्रता परस्त्रीदर्शन खतरनाक मोहदत्त को पश्चात्ताप व वैराग्य १९. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुवलयमाला -२ मान कषाय चरित्रकार विद्वद्-विभूषण आचार्यदेव श्री उद्योतनसूरिजी महाराज ही देवी के आदेश से कुवलयमाला चरित्र की रचना करते हुए, चरित्र में बता चुके हैं कि राजकुमार कुवलयचंद्र बरसों तक एकान्त में गुरु के सान्निध्य में विद्याध्ययन करने के बाद बाहर आने पर पहली घुडसवारी में अश्व के द्वारा आकाश में ले जाया जाता है; दूर जाने पर इसका रहस्य खोजने के लिए अश्व को छुरा भोंकने से अश्व लहूलुहान हो कर एक जंगल में नीचे उतर पड़ा। वहाँ दैवी वाणी से प्रेरित कुमार आगे जाकर ऐसे प्रदेश में आ पहुँचता है जहाँ सिंह, बाघ, हिरन, खरगोश आदि शांति से मित्रता पूर्वक साथ घूमते-फिरते हैं । ऐसी विचित्र मैत्री के कारणस्वरुप आगे बढ़ने पर-एक महर्षि को देखता है। उनके पास एक ओर ओक देव और दूसरी ओर एक सिंह बैठा दिखाई देता है। महर्षि कुमार से इसका रहस्य वर्णन करते हैं कि वह कैसे और किसके द्वारा अपहरण की स्थिति में डाला गया। यह रहस्य बताते हुए वे राजा पुरंदरदत्त तथा वासवमंत्री के अधिकार (कथानक) से शुरु करते हैं। राजा जैन धर्म से नितान्त अपरिचित है। उसे परिचित करवाने के लिए मंत्री उसे अप्रकट ढंग से चतुराईपूर्वक उद्यान में लाकर अवधिज्ञानधारी महर्षि श्रीधर्मनन्दन आचार्य की मुलाकात करवाता है। राजा पुरंदरदत्त आचार्य महाराज से वैराग्य का कारण पूछता है। वे श्रीमान् संसार की चार गतियों में विविध प्रकार के कैसे कैसे दुःख होते हैं सो बताते हैं। तत्पश्चात् वासवमंत्री के पूछने पर ऐसे दुःखद संसार के कारणभूत क्रोध-मान-माया-लोभ और मोह के स्वरुप का वर्णन करते हैं। इसमें क्रोध की भयंकरता, वहीं उपस्थित चंडसोम के जीवन प्रसंग कह कर हूबहू स्पष्ट कह चुके हैं, जिसके अन्त में चंडसोम ने उसी वक्त दीक्षा ले ली वह प्रथम भाग में बताया। अब आचार्य महर्षि आगे कहते हैं - 'हे नरश्रेष्ठ ! अब तुम संसार का दूसरा जो कारण ‘मान कषाय' है सो कितना भयानक है, वह देखो।' माणो संतावयरो, माणो अत्थस्स णासणो भणिओ। माणो परिहवमूलं, पियंवदाण णासणो माणो ॥ (१) मान, संताप करानेवाला है। (२) मान धन का नाश करनेवाला कहाँ गया है । (३) मान अपमान - अवगणना दिलाता है (४) मान प्रिय-स्नेहीजनों को खोने का कारण बनता है। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौन कौन मान करते हैं : जिस अभिमान के पीछे दुनिया मर रही है उसके भयानक परिणामों का विचार कर लेना चाहिए। अभिमान किसे नहीं है ? छोटे बच्चे को भी यह पकड़े हुए दिखाई देता है। माता उसे जरा सा डाँटती है तो उसका चेहरा उदास हो जाता है। उदास क्यों? उसे अपना प्रिय मान घायल होता मालूम होता है; एक भिखारी तक मान-कषाय से मुक्त नहीं । गाँठ में कुछ नहीं है, न घर है न परिवार, पूरे एक जोडी कपडे तक नहीं, फिर भी मान अवश्य है । अतः यदि दूसरा भिखारी रोब दिखाने आये तो उसे यह धमकाता है। और यदि दाता तिरस्कारपूर्वक दे तो बोल नहीं सकता, पर दिल तो आहत होता है। भीतर अभिमान न होता तो धमकाने या दिल आहत होने की बात क्या थी? यह सब मान कराता है। बच्चे से बूढे तक और भिखारी से लगाकर बडे धनवान या राजा तक को यह मान लिपटा हुआ है। फिर चाहे उस मान से कुछ हाथ न आता हो, फिर भी उसे छोडने की बात नहीं ! इसलिए मान कर कर के बरबाद होते जाओ। इस तरह मान के पीछे दुनिया मर रही है। मरना याने और दूसरा क्या? बरबादी पर बरबादी को निमंत्रण देते रहना यही मरना है। कैसी कैसी बरबादी होती है सो बताते हुए आचार्य महाराज कहते हैं कि : (१) मान संताप करवानेवाला है। मन में जब अभिमान सक्रिय होता है तब शांति-स्वस्थता उड़ जाती है, बेचैनी पैदा होती है। कुल का, जाति का, बल का, धन का, विद्या का, अधिकार का,....आदि आदि किसी भी प्रकार का अभिमान मन में आते ही अशांति हलचल करने लगती है। - "मैं कुछ हूँ, मैं क्या कम हूँ ? वह मेरी बेइज्जती कैसे कर सकता है ? वह दूसरा मुझ से बढ़कर कैसे हो सकता है ? लोग क्यों मुझे नहीं मानते?"....यह क्या है ? अशांति, संताप की चेष्टा है। ऐसे ही प्रशंसा सुनकर खुद ही अपने विषय में उन्मादमय विचार करता है - 'बराबर है, मैं ऐसा अच्छा ही हूँ। यह उन्माद भी एक अस्वस्थता है। कोई हमारा न माने तो अशांति आती है कि, 'ऐं ? कैसे नहीं मानता?' यह आक्रोश होता है, यह भी अस्वस्थता है। बड़े राजा रावण ने वाली राजा को कहला भेजा कि 'तू मेरी आज्ञा मान ले।' बाली ने साफ साफ इनकार कर दिया । रावण के पास धन, मान-सन्मान, या सुख की कोई कमी नहीं थी फिर अभिमान-वश मन को लगा कि 'एं? वाली जैसा छोटा राजा भी नहीं माने?' अब यह जलन-अशांति कैसी कि जो पास रही हुई महासुख-समृद्धि में भी चैन न लेने दे । दिन रात हृदय धधकता रहे । अगला भी अपनी किसी शक्ति के आधार पर इनकार करता होगा-इसका भी विचार नहीं आता । अभिमान का संताप चीज ही ऐसी है कि मानो कह रही हो-सब कुछ अच्छा धरा रहने दो, इस वक्त तो बैचेन बनो।' Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारी को मान की विटंबना : I महान रावण की ही क्या बात ? संसारी मात्र को देखें तो दिखाई देगा कि उसे किसी न किसी प्रकार का अभिमान पैदा होने पर अस्वस्थता आ खड़ी होती है। फिर वह न कहने योग्य कहता है - और उधम मचाता है । फलतः कुटुम्ब क्लेश के बीज रोपे जाते हैं । इसीलिए तो समझदार वडिलजन अभिमान को एक ओर रखकर कितना ही सह लेते हैं वरना अभिमान भला कुछ सहने दे ? और गम न खाए तो घर में कटकट किया करेगा और उस कटकट के कारण दूसरों को कितना क्लेश होगा ? अभिमान न हो तो संताप क्यों हो ? “मैं इतना धनवान हूँ। मैं ऐसा बुद्धिमान हूँ, मैं महान हूँ। मुझे तो ऐसा ऐसा चाहिए ही।' इस तरह सब बातों में अहं में ही लगा रहता है, और मानसिक विटंबना भोगता है। मान में खिंचने के कारण ही तो अनेक प्रकार के पाप करता है, कषायों का सेवन करता है, और संताप का अनुभव करता है । (२) अभिमान से धनसंपत्ति का नाश : महर्षि कहते हैं - 'अभिमान न केवल संताप करानेवाला है अपितु धन का नाशक भी अवश्य है ।' घमंड में चढ कर सट्टा खेलने गये हुए कई सटोडिये बरबाद हो गये। पूछो न प्र. लेकिन वे तो लोभ की वजह से न ? उ. वह लोभ भी किस लिए? दुनिया में अच्छे धनवान् के रुप में बड़प्पन पाने के लिए ही न ? 'मैं बडा लखपति बनूँ, करोडपति बनूँ, समाज में मेरा रोब - दबदबा हो, दूसरे लोग मेरी कदमबोसी करें, मुझे सलाम करें' - ऐसे घमंड के पाप के मारे ही धन के लोभ सट्टा करने जाता है और बरबाद होता है । इस तरह घमंड में पड कर, अच्छे दिखने के लिए खूब खर्च निभाने पडते हैं। एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा में उतरते हैं और संपत्ति का नाश होता है। जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर का बडप्पन चाहता है उसे भी ऐसे प्रयत्न करने में बरबादी सहनी पडती है । कोई अभिमान में जरुरत से ज्यादा बोलने गया और पुण्य यदि नहीं है तो सामने से चपत पडेगी । उसका सामना करने में भी कितना ही धन व्यय करेगा। घमंड के कारण कोर्ट अदालत में जाएगा। वहाँ भी कितना ही पैसा खोएगा, फिर भी पीछे मुडने का नाम नहीं। लड़ाई में पड कर मित्र, धन... यहाँ तक कि प्राण आदि को भी आघात लगाएगा। रावण तथा दूसरे भी प्रतिवासुदेव इसी तरह समाप्त हो गये । मान भयंकर है । (( ३ ) अभिमान ऐसे ही अपमान - अवगणना - पराजय का मूल है। झगडा उठ खडा होने पर (१) नम्रता दिखानेवाला शांति करता है और (२) अभिमान दिखानेवाला झगडे के रुप को और बढा देता है, और उसमें पुण्य निर्बल होने से हारना पडता है। युद्धभूमि में घमंडी रावण को बाली के सामने हाथ जोड कर पैरों पडने की Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौबत आयी और उसकी सारी सेना ने उसकी हार देखी । अभिमान अंधापन है। आदमी को इसमें अपनी क्षमता और विरोधी का पुण्य....आदि कुछ भी ध्यान में नहीं आता। अतः अपनी शक्ति के बाहर की दौड लगाता है, और परिणाम में जबरदस्त हार होती है। सोचिये, कितने ही महारथियों, विद्याधर राजाओं पर विजय पानेवाले रावण की उन राजाओं की नजर में कितनी बड़ी बेइज्जती हुई होगी? अभिमान बहुत बुरा है । आज कितने ही लोग अभिमानवश ऐसा वैसा बोल डालते हैं और सामने से पत्नी, पुत्र, पडोसी या मालिक आदि के ताने सहते हैं, अपमानित होते हैं। (४) अभिमान प्रियजनों को खोने का कारण बनता है। अपने घमंड ही घमंड में हर किसी को धमकाता है - सो भी एक बार नहीं, दो बार नहीं, कई कई बार; उसका नतीजा क्या होता है ? या तो वे उसका साथ छोड देंगे, या छोडना संभव न हो तो मन में उसके प्रति दुर्भावना रखेंगे। फिर सगी पत्नी भी चाहे जिंदगी भर साथ रहे लेकिन स्नेह रहित, और आदर-सद्भाव के बिना रहेगी। उसे सन्तान पर जो स्नेह-सद्भाव होगा उतना घमंडी पति पर नहीं । पति ने अभिमान करके क्या सार निकाला? पास में धन होगा तो मन में मानता रहेगा कि 'ये सब मेरे रोब के कारण कैसे दबकर रहते हैं।' परन्तु वास्तव में वे उसकी पीठ पीछे उसके प्रति दिल की आग ही उगलते होंगे। जबकि स्नेह-सद्भावना खोने में मौका आने पर ज्ञात होता है कि 'कौन अपने को-आश्वासन देता है?' अरे ! रो रो कर दिन गुजारने पड़ते हैं, ऐसे अवसर आते हैं। वह आश्वासन आदि मिलने का पुण्य अभिमान के पाप से नष्ट हो जाता है। नहीं तो वे ही स्नेही, जो एक समय बहुत अच्छा आदर देते थे, सद्भाव रखते थे, -सान्त्वना देते थे, वे अब कैसे मुँह फिरा बैठे ? कहिये कि इस अभिमानी के बारबार के वचनों और कार्यों के कारण ही तो। अभिमान गलत करवाता है - अभिमान करने के कारण जीव मानता है कि 'मेरे अभिमान से दूसरे लोग दबकर रहते हैं, और बाजार में अपनी धारणानुसार व्यापार से लाभ होता है' परन्तु यह हिसाब गलत है क्योंकि 'यह सब जो मनमाना अनुकूल बन जाता है उसका असली कारणभूत पदार्थ तो खुद का पुण्य है, अहंत्व नहीं । इसलिए तो जब पुण्य समाप्त हो जाता है तब अहंत्व ज्यों का त्यों खड़ा रहे तो भी सामने थप्पड पड़ता है।' लेने के देने पड जाते हैं। बाजार उलटा पडता है । खुद दुत्कार खाकर पीछे हटना पड़ता है । तो भी खूबी यह कि ऐसा मानने को तैयार नहीं होला कि - 'यह सारा विनाश होने में मेरा अभिमान निमित्त-भूत हुआ।' साथ ही यह भी ध्यान में नहीं आता कि - Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'दुनिया की अनुकूलताएँ तो पुण्य के अनुपात से ही मिलती हैं, अभिमान के आधार पर नहीं।' तात्पर्य - सही हिसाब का ज्ञान नहीं, और उल्टे हिसाब के आधार पर अभिमान में दौड़ लगाता है, और बरबाद होता है। वहाँ भी मानसिक अशांति की सीमा नहीं । तब - पुण्य की गिनतीवाला पहले और बाद में भी शांति पाता है। क्योंकि - (१) पहले वह समझता है कि 'हे जीव ! ध्यान रखना ! यह सब अनुकूल हो जाता है तेरे रोब या लोभ के कारण नहीं बल्कि पूर्व के पुण्य की बचत के हिसाब से होता है। इसीलिए वह बचत समाप्त होने पर अनुकुलता नष्ट होनेवाली है। अतः लोभ - अभिमान के बहुत नखरे करने के बदले पुण्य-वर्धक देव-गुरू -धर्म की सेवा में अधिक लग जाने (२) उसके पश्चात् ? तो यह जानो कि पुण्य पर श्रद्धा रखनेवाले को पुण्य नष्ट होने के बाद ऐसा महसूस होता है कि 'देख ! यह लोभ-अभिमान तो व्यर्थ सिर पर पडे, अब दिखाई देता है कि पुण्य समाप्त हो चुका है अतः शान्त हो कर बैठ ! पुण्य की चिट्ठी पर काम चल रहा था; उसमें भी तू तो पराधीन ही था, तो किसी की मेहरबानी के माल में क्या खुश होना? वह मेहरबानी छोड़ भी जाए तो चिंता नहीं। दोनों स्थितियों में हम तटस्थ रह कर देखा करें। आपत्तिकाल में तो विशेषतः पुण्य के अन्य मार्ग खोलने चाहिए । इस तरह वह शांति-आश्वासन ले सकता है। अतः जो कहता है कि 'पुण्य-पाप क्या करते हो? रोब,- चालाकी,- योजनाएँ अपनाते रहना-तभी बादशाह बन कर फिर सकते हैं।' ऐसा कहनेवाले मूढ़ हैं, अज्ञान हैं। उन्हें पहले उन्माद का, और बाद में क्रोध का पार नहीं होता। ऐसी समझ होनी चाहिए कि, पुण्य-पाप पर रखी हुई द्रष्टिही जीव को शांति, समाधि तथा सच्ची बादशाहत का अनुभव कराती है। अन्यथा रोब, अभिमान, आदि में डूबे हुए लोग तो आक्रोश, अस्वस्थता और अशांति में ही भटकते रहते हैं। अभिमानी को बुरे-भले का विवेक नहीं होता - महर्षि ने कहा - 'घमंड में चढ़ा हुआ व्यक्ति फिर यह नहीं देखने बैठता कि 'मेरे कौन ? और पराये कौन ? कौन सगे? और कौन बेगाने ? कौन मित्र-स्नेही ? और कौन विरोधी ? मालिक कौन ? और नौकर कौन ? उपकारी कौन ? और अपकारी कौन ? नहीं, वह कोई अन्तर नहीं देखता । अभिमान करते वक्त इनमें से कुछ नहीं देखता कि - मैं कहाँ घसीटा जा रहा हूँ क्या मैं लाभदायक गर्व कर रहा हूँ ? मेरा अभिमान-अंधत्व तो नहीं है न? दुराग्रह है क्या? यह कुछ नहीं देखता? बस, अभिमान करता रहेगा सो करता ही रहेगा। ___ अभिमान में दोनों ओर से मार खाता है OOOO 0000OOOOOOK 0000000000000000 OOOOOOOOOOOO Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) सगे-मित्र-सज्जन-मालिक-नौकर-उपकारी आदि के प्रति घमंड कर के उनकी सहानुभूति तथा प्रशंसा खोता है! और (२) पराये-दुर्जन-नौकर मालिक-अनुपकारी आदि की ओर से मौका आने पर चपत खानी पड़ती है! यहाँ भी अभिमान तो अनेक अनर्थ पैदा करता है और परभव में भी अभिमान दुर्गति का मार्ग है.। - यह समझ कर ही साधु-पुरुष अभिमान नहीं करते । लघुता में प्रभुता-लघुता रखकर निर्मल यश प्राप्त करते हैं, चित्त में बादशाही शांति का अनुभव करते हैं। और - यही सच्ची प्रभुता है। आचार्यश्री मान के उपस्थित उदाहरण की ओर इशारा करते हैं - धर्मनन्दन आचार्य महाराज राजा से कहते हैं कि "हे नर श्रेष्ठ ! देखो! अभिमान एक बडे भूत के समान है। इस भूत से ग्रस्त आवश्यकता पड़ने पर अपने माता-पिता को भी जान बूझ कर मौत के मुँह में जाने से नहीं रोकता-यहाँ तक कि अपनी पत्नी को भी आत्महत्या करने से नहीं रोकता! जैसे कि यह पुरुष।" तब राजा पूछता है - "भगवान ! यहाँ तो अनेक बैठे हैं। उनमें वह कौन ? और उसने क्या किया था ?" ज्ञानी महर्षि कहते हैं - यह जो मेरे बाई और बेठा है, जिसने गर्दन ऊँची कर रखी है, चौडा सीना है, भंवें ऊपर उठी हुई हैं, जमीन पर पैर पटकता है और तुम्हारे सामने भी घमंड से देखता है वही आदमी इस स्वरुप में अभिमान की प्रतिमूर्ति है, यह समझ लो । सुनो! इसने क्या क्या किया है ?" ऐसा कह कर आचार्य महोदय अब उसकी कहानी कहते मानभट की कथा अवन्ती नामक एक देश है। उसकी राजधानी उज्जयिनी नामक नगरी है। उसके पडोस में कूपवृंद नाम का एक गाँव है। अतीत में वहाँ जो एक राजवंश चल रहा था, उस वंशमें उत्पन्न अभी क्षेत्रभट नाम का एक ठाकुर रहता था। पहले तो यह वंश बहुत सम्पन्नसमृद्ध था, परन्तु बेचारे इस अभागे के पास इसमें से कुछ नहीं रहा था। दुनिया की संपत्ति का स्वरुप ही ऐसा नश्वर है कि वह सदा के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी नहीं चलती ! अरे! एक पीढ़ी तक भी चले ही ऐसा कोई नियम नहीं । ऐसे भी लोग दिखाई देंगे जिनके बापदादों के पास सम्पत्ति नहीं थी, और खुदने कमाया; फिर भी वापस खुद ही उसे खोकर एकदम कंगाल और ऊपर से कर्जदार भी बन गये ! जब कि ऐसे भी मिलेंगे जिनके पास उनकी मृत्यु तक संपत्ति बनी रही, और बाद में सन्तान के हाथों अस्त-व्यस्त हो गया। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोने वाले कैसे खोते हैं ? - ऐसा न कहना कि उल्टे-सीधे धंधे करें तो गँवाना ही पडे न ? नहीं, यह तो एक निमित्त-मात्र है। सचमुच तो पूर्वकृत अशुभ कर्म ही मुख्यतः काम करता है। इसी लिए सीधा धंधा करने वाले को भी ऐसे कर्मों का उदय होने पर किसी भी राह से सम्पत्ति चली जाती है, अथवा लड़का लुट जाता है या नौकर लेकर भाग जाता है, या आग लगती है, अथवा विदेश से बहुत बडे परिमाण में माल आ जाने के कारण उसके दाम गिर जाते हैं । ऐसी ऐसी बातें हो जाती हैं उसमें उलटे धंधे का प्रसंग कहाँ रहा? फिर भी हो गया यह पूर्व कर्म के कारण हुआ, ऐसा मानना ही पड़ता है। ऐसे ही यदि पूर्व के शुभ कर्मों का उदय प्रबल हो तो उस समय उल्टे धंधे करते हुए भी कमाई होती बताओ, राजा का मुकुट उडाए अथवा राजा को उसकी टांग पकड़ कर सिंहासन पर से नीचे गिरा दे, यह काम कैसा है ? सीधा या उल्टा ? ऐसे उल्टे धंधे में कमाई हो या सजा? लेकिन देखों ! शुभ कर्म शक्तिमान हो तो कैसी कमाई होती है ? उल्टे धंधे में कमाई का उदाहरण : एक राजा था। उसके नगर में एक गरीब आदमी लंबे अरसे से गरीबी का दुःख भोग रहा था। उसे एक ज्योतिषी मिला । उसने कहा "तुम चाहे कितनी ही कोशिश करो, फिर भी तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा। परन्तु एक समय ऐसा आएगा जब तुम बड़े धनाढ्य हो जाओगे, इसलिए धैर्य रखो।' बुरे की कौन आशा रखता है ? : बस, भविष्य में भला होगा इस आशा में उसका सारा दुःख जाता रहा ! दिल हलका हो गया! आशा बड़ी चीज है न? फिर भी खूबी यह कि सब को अच्छे की ही आशा होती है - कि अच्छा होगा, भला होगा; परन्तु बुरे की आशा - अपेक्षा कोई नहीं रखता।' बुरे की आशा करे तो धर्म के दरवाजे खुल जाएँ। बताओ, लक्ष्मी जाती है या नहीं ? जाती तो है ही, फिर भी यह विचार कहाँ आता है कि __ 'कदाचित् यह लक्ष्मी चली जाने की ही संभावना है ! अतः चलो, जब तक हाथ में है तब तक इसका सदुपयोग कर लूँ । भाग्य में होगी तो और मिल जाएगी और शायद न भी मिले तो भी सुकृत तो न खोऊँ ? "ऐसी सम्भावना कौन सोचता है ? तो क्या मौत नहीं आएगी? तो भी कौन सोचता है कि 'शायद मौत जल्दी भी आ जाए, इसलिए जगत की जंजाल कम कर के, रंगराग में कटौती कर के, परलोक-हितकारी दान - शील - तप, देव-गुरु की भक्ति आदि धर्मों में से जो कुछ साध सकूँ सो साध लूँ' कौन ऐसा सोचता है ? कोई नहीं; क्योंकि मृत्यु की Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशा ही नहीं, अपने मन को दंश देने वाली मौत की संभावना ही नहीं मानी। हाँ, 'अभी तो मैं नहीं जाऊँगा,' ऐसी आशा में बह रहा है, लेकिन 'शायद जल्दी मर जाऊँगा यह संभावना नहीं सोचता । भाग्योदय हो तभी अच्छी बात सूझती है । : इष्ट की आशा में तो जीव भौतिक इहलोक सम्बन्धी पाप की कार्यवाही में ही उलझा रहता है, तब यदि अनिष्ट की संभावना करे तब तो परलोक हितकारी सुकृत - साधना की ओर प्रेरित हो । लेकिन अज्ञानी को ऐसी संभावना मन में सूझे कहाँ से ? भावी भाग्योदय हो तो सूझे न ? अन्यथा, जीव इष्ट की आशा में ही खिंचते रहेंगे, पाप करेंगे, और दुर्गति में जाएँगे। फिर भी जीव - विशेष को कभी ऐसी भी होता है कि अच्छी आशा बँधने पर चित्त की व्याकुलता कम करके धर्म में मन लगाए, धर्म की ओर मन को मोड़े । मन को कैसे मोड़ना ? यहाँ इस गरीब आदमी के साथ ऐसा ही होता है। ज्योतिषी के वचनों पर से मन को समझाता है कि, 'चलो ! एक दिन अच्छा आनेवाला है न ? तो अब बहुत विह्वल नहीं बनना है। चालू परिस्थिति को चलने दो जब तक अशुभ कर्मों का उदय है तब तक यह स्थिति निश्चित है।' ज्योतिषी ने उससे कहा है कि 'समय आएगा तब मैं कहूँगा ।' अतः तब तक के लिए यह धीरज रख कर काम चला रहा है । लेकिन अब समय आ गया। एक दिन ज्योतिषी ने कहा, 'देखो भाई ! अमुक दिन को अमुक निश्चित समय पर तुम्हारे ग्रहों का ऐसा योग बन रहा है कि जब तुम जो कुछ भी करो उसमें महान लाभ ही हो ।' गरीब आदमी पूछता है - लेकिन मैं बिल्कुल उल्टा धंधा करूं तो ?' यह पूछता है, "अरे मैं जाकर राजा को लात मारूँ तो ?" ज्योतिषी जरा भी हिचकिचाये बिना उत्तर देता है कि 'तुम जो कुछ करो उससे तुम्हें लाभ हुए बिना नहीं रहेगा। इसमें कुछ गलत निकले तो मैं अपनी संपत्ति हार जाऊँ । कहो, और कुछ कहना है ?" उस गरीब व्यक्ति को विश्वास हो गया। यों वह साहसी था । मात्र अशुभ के उदय में साहस नहीं करना चाहिए ऐसी समझदारी रखता था । यही विवेक है कि 'ललाट देखकर कदम रखना। अब भाग्य का जोरदार उदय होने की बात ज्योतिषी उससे निश्चय पूर्वक कह रहा है। इसलिए उसने सोचा कि 'बडी कमाई राजा के पास से होगी ।' अतः ज्योतिषी का बताया हुआ समय आते ही वह चल पडा राजसभा में I विचित्र ढंग से भाग्य का उदय : राजसभा में जाकर ठीक इष्ट घडी - आते ही वह राजा के पास नमस्कार के बहाने पहुंच कर उसके पैर पर एक लात मार देता है ! उल्टा धंधा ? या, सीधा । कहो कि वह ८ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लात मारने जाता है त्योंही राजा पैर उपर उठा लेता है और तभी जहाँ पट्टे पर पैर रखे थे, उस पर से होकर पीछे से आया हुआ एक बडा साँप सररर कर चला जाता है। जब यह लात मारने गया तब तो वहाँ क्रोध की तिलमिलाहट व्याप गई होगी, परन्तु काला नाग पार हो गया और राजा बच गया - यह देखते ही सब के चेहरे खिल उठे। राजा के दिल की तो धडकन जोरदार बढ गयीं, - आह ! बाप मेरे! मरते मरते बच गया तुरन्त कोषाध्यक्ष को बुला कर कहता है, 'इस पुरुष को एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ दे दो।' स्वर्ण मुद्राएँ देने के बाद राजा उस गरीब से पूछता है - 'तुमने यह हिम्मत कैसे की? क्या तुम्हें साँप के आने का पता था ?' इसने कहा - "नहीं महाराज ! लेकिन मुझे इतना मालूम था कि इस समय मेरा जबरदस्त भाग्योदय है और साहस किये बिना बड़ी उपलब्धि नहीं होती, अत: मैंने ऐसा किया।" बस, स्वर्ण मुद्राएँ लेकर वह राजा को प्रणाम करके पहुँचा ज्योतिषी के पास। उससे सारी बात कही और दस हजार स्वर्ण मुद्राएँ उसे उपहार में दे दी । ज्योतिषी ने मना किया कि 'इतनी सारी मुझे नहीं मिलनी चाहिए, परन्तु इसने कहा, 'आपने यदि भाग्योदय बताया न होता तो मैं कहाँ यह साहस करनेवाला था ? अतः लेनी ही पडेंगी।' ऐसा कह कर आग्रह पूर्वक रकम देकर उसकी कद्र की और कृतज्ञता पालने का आनंद माना। कद्र के सम्बन्ध में दोनों का कर्तव्य :कद्र बड़ी बात है। अवश्य इसमें सामनेवाले का भाग्य भी होना चाहिए। भाग्य न हो तो बहुत भला करने पर भी कद्र नहीं होती। इसीलिए जहाँ कद्र न होती दिखाई दे वहाँ भी अगले का दोष न देखकर अपने कर्मों का ही दोष देखना चाहिए। कद्रदानी से फायदा, बेकदरी से नुकसान । . (१) उपकारी से अच्छा लाभ पाकर भी उपकारी की योग्य कद्र न करना हृदय की धृष्टता है। (२) इस धृष्टता से पुण्य में कटौती होती है, जो आखिरकार रुलाती है। जबकि - (३) अच्छी तरह कद्र करने से अशुभ कर्म का शुभ में संक्रमण हो जाता है। उससे पुण्य की वृद्धि होती है। कद्र करने से और। .. (४) बेकदरी के कारण फिर देव गुरु की भी उतनी कद्र नहीं की जाती । फलतः उनकी सेवा-स्वरूप महान् धर्म से चूक जाते हैं । इस कद्र के द्वारा देव गुरू की सेवा की जाती है, इतना ही नहीं, अपितु .(५) कद्र करना कब चूकते हैं ? जब जड़ माया की अत्यधिक आसक्ति-लंपटता होती है तब । अत: बेकद्री में इन आसक्ति आदि पापों को पोषण मिलता है। देखो! अच्छा Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमाया, लेकिन इसके फलस्वरूप उस बेचारे के लिए वह उबरने के बदले डूबने का साधन बनेगा। __ यह गरीब आदमी कद्रदाँ है अतः ज्योतिषी के यहाँ दस हजार स्वर्णमुद्राओं की रकम रखकर चला गया। पुनः एक समय आया, तब ज्योतिषी ने उससे निश्चित समय बता कर साहस करने को कहा। इसके प्रबल शुभ कर्म का उदय है, इसलिए मस्तिष्क में ऐसी विचित्र स्फुरणा होती है। शुभ मुहुर्त में वह रवाना हुआ राजसभा के लिए, हाथ में डंडा लेकर वैसे हर रोज राजा के पैरों पड़ने आता था, उस तरह से आज भी निश्चित घडी पर पहुँचा राजा के पास । और प्रणाम करके उठते ही राजा के सिर परके मुकुट को ऐसा डंडा मारा कि मुकुट उछल कर दूर गिर पड़ा। यह देखने पर वहाँ शांति रह सकती भला? 'पकड़ो, गिरफ्तार कर लो हरामी को।' इस तरह बोलते हुए सिपाही दौड़ते आये, परन्तु राजा ने एक बार चमत्कार देखा है, इसलिए तुरन्त कहता है, 'अरे, ठहरो ! देखो देखो ! जरा उस मुकुट की जाँच करो।' सिपाहियों ने तलाश की और देखा तो उस मुकुट में एक पतला सँपोलिया छिपकर बैठा दिखाई दिया। सब स्तंभित हो गये । बोल उठे, 'अरे इसने सिर पर चढ़ कर यदि महाराजा साहब को डंस लिया होता तो? राजा ने देखा कि यह आदमी गजब का मालूम होता है। यह प्रवृत्ति तो कैसी उल्टी दिखनेवाली करता है ! फिर भी लाख स्वर्णमुद्राएँ पुरस्कार दिलवाती है। यह बनिया तो कद्रदाँ है न । राजा को नमस्कार कर, ज्योतिषी के पास जा कर उससे सारा वृत्तांत कह कर उसे बीस हजार स्वर्ण मुद्रा इनाम देता है। तीसरी बार उल्टा : तीसरी बार पुनः ऐसा ग्रहयोग आने पर ज्योतिषी ने उसे खबर दी । वह भी चला राजसभा में और इस बार तो राजा के समीप जा कर प्रणाम करके उसी क्षण राजा की टाँग पगड कर उसे नीचे घसीट लिया। सभा में हाहाकार मचे, इतने में तो पीछे की दीवार ही ट कर सिंहासन पर गिर पड़ी। राजा को नीचे घसीटे जाने से अपमान लगा होगा, और दुःख होने के साथ गुस्सा भी आया होगा लेकिन यह देखकर आश्चर्य के साथ छुटकारे का दम लिया होगा कि 'आह ! कैसा बालबाल बच गया। यदि ऐसे घसीटा न जाता तो दीवार ढह जाने से खोपड़ी फूट जाती, और मैं दबकर, कुचल कर मौत के मुँह में पहुँच जाता!' राजा के इस महान् लाभ के अवसर पर इनाम का पूछना ही क्या? . राजा वणिक से कहता है, 'माँगो, माँगो ! जो माँगो सो दूंगा।' . बनिया बोला, 'महाराज ! आपकी कृपा चाहिए।' 'अरे ! कृपा का क्या पूछते हो। वह तो है ही न? सच पूछो तो मुझे तुम्हारी मेहरबानी माननी चाहिए कि तुमने ऐसी हिम्मत कर के मुझे तीन तीन बार जीवनदान दिया है। बोलो ! अब मैं तुम्हारा क्या प्रिय करूँ ? Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनिये ने कहा, "महाराज ! यह उपकार तो ज्योतिषि ने किया । अतः उसे राजज्योतिषि का पद दीजिये।" 'अरे भाई ! यह तो उसका हित हुआ; सो मैं करूँगा ही। परन्तु अभी तुम्हारा क्या भला करूँ सो बताओ।' इसने कहा, 'बस, हजूर ! मेरा भला तो आपने पहले दो बार बहुत किया है। अब मेरा कुछ करना बाकी नहीं रहा।' राजा ने देखा कि यह अब कुछ नहीं बोलेगा। इसलिए उसे तीन लाख स्वर्णमुद्राएँ पुरस्कार दिला कर ज्योतिषि को बुलाया और उसे राज-ज्योतिषि का पद देकर उस के भावी ग्रहयोगों के विषय में पूछा। ज्योतिषि ने उत्तर दिया "महाराज ! इस वणिक ने गरीबी और कठिनाई बहुत देखी है किन्तु इसकी नेकनीयती, निष्ठा, देव-गुरु-धर्म की भगीरथ सेवा.... आदि ने नये पापों का प्रवेश नहीं होने दिया। और अभी के ग्रहयोग ठेठ मृत्यु तक इसकी अद्भुत समृद्धि तथा किसी महान् प्रतिष्ठा के सूचक हैं।" यह सुनकर राजा ने उसी समय बनिये को अपना मंत्री नियुक्त कर दिया। ऐसा अनायास लाभ क्यों जाने दे ? राजा मंत्री रुप में उसकी समृद्धि एवं प्रतिष्ठा के दर्शन करता है। यहाँ स्याद्वाद का सिद्धान्त देखने मिलता है। कोई ऐसे पूछे 'बताओ', (१) लात पडे तो अच्छी या बुरी ? (२) डंडे का वार मिले तो वह अच्छा या बुरा ? (३) टाँग खींचकर नीचे पटक दे तो अच्छा या बुरा ? स्याद्वाद जीता रहे : इसका सहज ही 'बुरा' - ऐसा उत्तर देने को मन करे। लेकिन राजा के इन तीन प्रसंगों को जानने के बाद तो इसे 'अच्छा' ही कहना पड़े। 'अच्छा' सर्वत्र अच्छा नहीं उसी तरह 'बुरा' सर्वत्र बुरा नहीं। अमुक संयोग में अच्छा, किसी में बुरा । एक ही वस्तु या घटना एकान्ततः अच्छी नहीं, एकान्ततः बुरी नहीं । अमुक संयोग-परिस्थिति आदि की अपेक्षा से अच्छी भी है और अमुक की अपेक्षा से वही बुरी भी है। इसका नाम 'स्याद्वाद' हैं। यह जैन धर्म की अनन्य देन है। दुनिया में जैन धर्म के सिवा अन्य किसी ने यह अनेकान्तवाद-स्याद्वाद की भेंट नहीं दी है। दूसरे एकान्तवादी हैं । एक पूँछ जो पकड़ी सो पकड़ी। उसी ओर नजर; कि दूसरी ओर देखना ही नहीं । सोने का जेवर चाँदी की तुलना में अधिक कीमती है परन्तु हीरे के गहने की द्रष्टि से कम कीमती ही कहना पडेगा। एकान्तवाद को पकड़नेवाला ऐसा कैसे कहे ? Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन में स्याद्वाद जीया जाय तो बहुत से प्रश्न हल हो जाएँ :अनेक क्लेश-झगड़े खडे ही न हो। किस तरह ? एक दृष्टि से देखने से बेचैनी होती है दुःख रूप लगता है, उससे अलग दृष्टि से देखने से व्यग्रता का समाधान होता है । क्लेश मिट जाता है । उदाहरणतया :- पत्नी बड़े उल्लास से अच्छी समझ कर ब्याह कर लाये, पर बाद में वह स्वभाव की सख्त निकली, तो मन में उलझन होती है कि 'इसके साथ ज़िन्दगी कैसी बीतेगी ?' दुःख होता है। चूँकि यहाँ केवल अपनी मौलिक सुखसुविधा की द्रष्टि से ही देखा जाता है, इसलिए ऐसा होता है । लेकिन यदि दूसरी द्रष्टि अर्थात् आत्मा की द्रष्टि से देखा जाय तो यह दिखाई दे कि 'इस जीवन में मुझे क्षमासमता - शान्ति का अभ्यास करने का यह सुन्दर अवसर मिला है। अगले का स्वभाव कोमल, नम्र होता तो मुझे कहाँ ये क्षमादि रखने का अभ्यास करना पड़ता ? अतः कोई चिंता नहीं, इस द्रष्टि से यह संयोग भी अच्छा है, अच्छे के लिए है, क्लेश - कलह मिटते हैं। क्योकि यहाँ संभव है कि शुरू में तो पत्नी रोब झाडे, उफनती रहे, परन्तु पति हर बार शांति-समता-रखकर प्रसन्नतापूर्वक उत्तर देता है, कभी भी बोलने में गर्मी - उग्रता बिल्कुल नहीं दिखाता, उल्टे कहता है कि 'तुम्हें धन्य है जो मेरा ऐसा व्यवहार निभा लेती हो, तो थोडे ही समय में पत्नी में परिवर्तन आकर शांति आएगी। यह किसका प्रभाव ? कहना रहा कि पति के स्याद्वाद जीवन का । इस प्रकार यह स्याद्वाद कि राजा को लात मारी, डंडा मारा, टांग खींचकर घसीटा, यह सब समृद्धि कारक सिद्ध हुआ । अब यहाँ यह विचार करो कि तीन तीन बार विपरीत ढंग अपनाने पर भी वह कितना समृद्धिदायक हुआ ? छह लाख सुवर्णमुद्राएँ और ऊपर से मंत्रीपद की प्राप्ति । क्या इसमें पुरुषार्थ मुख्य कारण कहा जाएगा ? यदि हाँ कहें तो इसका यह अर्थ हुआ कि 'राजा लात मारने का पुरुषार्थ करे तो एक लाख सुवर्णमुद्राएँ मिलती हैं, और पैर से घसीट कर नीचे पटकने का पुरुषार्थ करने से तीन लाख स्वर्णमुद्राएँ एवं मंत्रीपद प्राप्त होता है।' क्या पुरुषार्थ का ऐसा नियम बनाया जा सकता है ? प्र. लेकिन ऐसे संयोग- समय के पुरुषार्थ से लाभ मिलता है, यह तो कहा जाय न ? उ. जरा इधर आइये । कहिये, इस पुरुषार्थ के लिए ऐसे संयोग की जानकारी कौन देता है ? आखिर भाग्य पर ही आना पड़ता है । कहो - प्र. ज्योतिषि से पूछताछ करने से तो ज्ञात होता है न ? . उ. परन्तु ज्योतिषि आपकी जन्मकुंडली देखकर ऐसा ग्रह योग अर्थात् उदय में आनेवाला भाग्य देखता है तब कहता है न ? अतः भाग्य की ही प्रधानता रहेगी। हाँ, इसमें कोई भाग्य उलटे पुरुषार्थ का निमित्त पाकर उदय में आये यह संभव है । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेकिन इससे चलते फिरते कभी भी उलटे पुरुषार्थ नहीं किये जा सकते। ऐसे तो कभी जंगल के रास्ते में ठोकर लगने से रास्ते पर से ढेला उखडकर उसके नीचे से धन निकल आए । तो क्या उसके बाद चलते चलते ठोकर मारते चलना? इससे तो धन-प्राति के बदले अंगूठा छिल छिलकर खून से लालसुर्ख हो जाएगा, यही प्राप्त होगा। ऐसे पुरुषार्थ से कोई धन नहीं मिला करता । अतः पुरुषार्थ तो सही दिशा में ही होना चाहिए। बाजार में दो-एक बार ऊपराऊपरी मार खाने - नुकसान होने से मालूम हुआ कि 'भाग्य नहीं था', फिर भी व्यापार खेलने के उलटे पुरुषार्थ कर के कई सटोडिये बरबाद हो गये। सही राह यह है कि ऐसे समय भाग्य को परख कर घर बैठे रहना उचित है। संभव है कि विपरीत निमित्त न मिलने के कारण अशुभ भाग्य को दबे रहना पड़े, अथवा चुपचाप नष्ट ह्ये जाना पड़े। प्रश्न उठता है, - - प्र. क्या अशुभकर्म निश्चित फल नहीं देगा? उ. कर्म दो प्रकार के होते हैं (१) एक निमित्त से उदय पाने वाले (२) दूसरे निमित्त के बिना उदय प्राप्त करनेवाले। खाने में खयाल नहीं रखा और बीमार पड गये, यहाँ निमित्त के कारण अशाता-वेदनीय कर्म उदय में आया। आरोग्य के नियम पालते थे फिर भी टी.बी., केंसर जैसा कोई रोग फूट निकला; यहाँ ऐसे निमित्त के बिना कर्म उदय में आया। अतः खाने-पीने, बोलने-चालने आदि सभी क्रियाओं में उलयपुरुषार्थ न करे तो निमित्त से उदय में आनेवाले कर्मो से तो चाहे जितना सही-पुरुषार्थ करें तो भी बचना संभव नहीं। वह तो बड़े सत्ताधीश राजा को भी भोगना ही पड़ता है। बस, जीवन जीने की खूबी यह कि : (१) अशुभ कर्म उदय में आए, उससे संकट या प्रतिकूलता प्राप्त हो, परन्तु तब अवश्यभावी मान कर "इस प्रतिकूलता के द्वारा कर्म भोगे जा कर, कर्म-मल हमारी आत्मा पर से साफ हो रहा है" इस बात का आनन्द मनाना चाहिए। दुःख, आपत्ति, प्रतिकूलता में विषाद नहीं करना, फलतः इससे किसी पर द्वेष करना, गालियां देना आदि नए पाप नहीं होंगे। (२) विपरीत पुरुषार्थ नहीं करना । विपरीत पुस्वार्थ - अर्थात् अविवेक, लघु द्रष्टि, क्षुद्रता, आकोश, अज्ञानता, छिछलापन, अनधिकार चेष्टा आदि से होनेवाले प्रयत्न । ये सब नहीं करना। उदाहरण के तौर पर - (१) गुरुजन को क्रोध आया; परन्तु उन्हें उद्धत वचन सुनाये-यह अविवेक का पुस्वार्थ कहलाता है। (२) मिष्टान्न खाने बैठे और जीभ को स्वादिष्ट लगने तथा शरीर के लिए पौष्टिक लगने के कारण बहुत अधिक खा लिया गया तो यह लघु द्रष्टि का पुस्त्रार्थ हुआ। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) आश्रित ने प्रेमपर्वक कुछ माँग की उसका तुरन्त अपमान कर दिया - यह क्षुद्र पुत्रार्थ हुआ । (४) क्रोध के आवेश में अंट-शंट बोला या जैसा तैसा व्यवहार कर डाला यह आक्रोश का पुरुषार्थ हुआ । (५) सत्ता, धन, चतुराई या डिग्री आदि के गर्व के कारण वस्तुस्थिति का विचार · किये बिना उलटा-सीधा बक डाला - यह अज्ञानता का पुरुषार्थ है । (६) ऐसे ही किसी और गर्व में गंभीरता भूल कर उछल पड़े और वैसा बर्ताव किया, यह छिछलेपन का पुरुषार्थ हुआ । (७) जहाँ अपना अधिकार नहीं वहाँ जरुरत से ज्यादा होशियारी की तो यह अनधिकार चेष्टा का पुरुषार्थ हुआ कहलाता है । सब विपरीत पुषार्थ हैं । सही पुरुषार्थ के साधन : ऐसे तो कई विपरीत पुरुषार्थ जीवन में चला करते हैं। इन्हें रोकना हो तो अविवेक, लघु द्रष्टि .... वगैरह मूलभूत दोषों को दूर करना चाहिए। हमारी इच्छानुसार होनेवाले स्वतंत्र पुरुषार्थ में इन शठों का हस्तक्षेप क्यों ? इनके स्थान पर पुरुषार्थ को यश दिलाने वाले गुण- विवेक, दीर्घद्रष्टि उदारता, सौम्यता, विचारकत्व, गांभीर्य, तथा अधिकार के अनुसार ही बरतने का निश्चय - आदि आदि सद्गुणों को ही बढ़ाते जाना चाहिए, जिनके आधार पर हम सही पुरुषार्थ कर पाएँ; अच्छे साधन से स्वभावतः अच्छा कार्य होता है । बस, ऐसे पुरुषार्थ सुरक्षित रहें और दूसरी ओर अशुभ भाग्योदय के वक्त पापरुपी. कूडा नष्ट हो रहा है इस बात का आनन्द हो; तथा शुभ भाग्योदय में जरा भी मद-उन्माद-हर्ष नहीं । जीवन को सुन्दर ढंग से जीने के ये साधन हैं 1 हमारी बात चल रही है मान कषाय पर जीवंत उदाहरण की । उसके अन्तर्गत अवन्ती देश की राजधानी उज्जयिनी के निकट कूपवृन्द नामक गाँव का क्षेत्रभट नामक एक ठाकुर है जो स्वजन - संपत्ति से कंगाल हो चुका है। उसकी होशियारी और पुरुषार्थ कितना ही क्यों न रहा हो किन्तु भाग्य की बलवत्ता के कारण ऐसी स्थिति में जी रहे हैं । सम्पत्ति - लक्ष्मी चीज ही ऐसी है कि किसी को पहले से मिली हो और आखिर तक रहे, तो कईयों को मिली हुई भी बाद में नष्ट हो जाय, जब कि अन्य कईयों के पास पहले न हो लेकिन बाद में मिल जाए। तो बहुत से ऐसे भी कि जिनके पास न पहले थी न बाद में हुई। यह सब भाग्य की लीला है । इस क्षेत्रभट के वीरभट नामक एक पुत्र है । गाँव में आजीविका के बिना कैसे गुजारा करना ? अतः उसने सोचा- 'यहाँ पडे रहने से कुछ नहीं बनेगा; परदेश जाऊँ; लेकिन बिना पूँजी के कौनसा धंधा हो ? तो बनिये की नौकरी में छोटापन है और मिलेगा १४ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी कितना ? अतः बड़े राजा की सेवा में लगूँ तो सम्मान के साथ कुछ मिले भी सही' बस, बेटे को साथ लेकर चला उज्जयिनी के राजा के पास । मोक्ष जैसी बड़ी कमाई के लिए भी ऐसा ही है बड़े वीतराग देव के पीछे लगें तो उनके आलम्बन से वीतराग बन सकें, अन्यथा राग-द्वेष-युक्त देव के पीछे लगने से क्या बनेगा ? क्षेत्रभट उज्जयिनी के राजा की सेवा में लग गया । राजाने भी प्रसन्न हो कर उसे कूप वृन्द नामक गाँव इनाम में दिया। फलतः उसकी अपनी कमाई शुरु हो गयी। अब वह देह जीर्ण होने पर पुत्र को यहाँ छोड कर खुद अपने घर गया। यहाँ समय बीतते वीरभट के शक्तिभट नामक पुत्र हुआ। वह भी बड़ा होने पर उसे राजकुल में रख कर वीरभट अपने गाँव गया । यह शक्तिभट स्वभाव से बहुत अभिमानी है, घमंडी और अकडू है । अत: दूसरे राजपुत्र उसे 'मानभट' 'मानभट' कह कर ही पुकारने लगे। इससे उसका नाम ही 'मानभट' पड़ गया। इस मान के पुतले पर इसका कोई असर नहीं हुआ कि जिससे अपना स्वभाव बदले। वह तो अभिमान में ही जीवन हाँकता जा रहा है। एक बार ऐसा हुआ कि उज्जयिनी के राजा अवन्तीवर्धन को नमस्कार करने एक भीलों का राजकुमार राजसभा में आया। अभी तक मानभट सभा में नहीं आया है, अतः उसकी जगह खाली देखकर सहज भाव से वह नवागंतुक भील राजकुमार उस जगह पर बैठ गया । उसे पता ही नहीं है कि यह जगह किसी की हर रोज की बैठक होगी। इतने में वहाँ पीछे से मानभट आया और अपनी सीट पर उसे बैठा देखते ही उसे घमंड चढा ! उसके मन में लगा कि ऐं ! ऐसा तुच्छ व्यक्ति मेरी जगह पर बैठ गया ? अभी इसकी खबर ले लेता हूँ । मानभट उससे कहता है, 'ऐ भील ! यह तो मेरी जगह है, तू कहाँ बैठ गया ? उठ, उठ खड़ा हो। बेचारा भील बोला - 'अरे! ऐसा है ? मुझे मालूम न था । माफ कीजिए। मैं तो अनजान में यहाँ बैठ गया। अब फिर नहीं बैठूंगा।' यह बात चल रही थी, इतने में मानभट की मजाक करते हुए कोई बोला, 'अच्छा हुआ, आज इसकी बेइज्जती हुई । ब....स! इतनी ही देर थी। मानभट के कान में ये शब्द पड़ते ही उसका घमंड फिर उछल पड़ा उसके मन को लगा कि 'ऐं ! भील ने मुझे नीचा दिखाया ? तब मेरी क्या कीमत रही' ? जब तक मनुष्य को बेइज्जती, अपमान - तिरस्कार न देखना पडे तभी तक उसका जीवन सार्थक है। अन्यथा जहाँ बेइज्जती - अपमान से प्रताप नष्ट हो जाए ऐसा जीवन जीने का क्या अर्थ ? जीकर क्या करना ? मनुष्य तभी तक मेरु के समान गौरवशाली है जब १५ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तक उसका पराभव नहीं होता। वैसे पराभव भोग कर, अपमानित हो कर तो एक तिनके समान हलका तुच्छ बन जाता है। अतः अब, ऐसा अपमान पराभव नहीं चलाया जा सकता ।' भील पर हमला : मानभट घमंड पर चढ़ गया। घमंड से बेचारे भील पर रोष में चढा । भील ने तो क्षमा माँग ही ली थी फिर भी इसके दिल का अभिमानरूपी कीड़ा इसे बहका देता है । मनुष्य ज्यादा तो अपनी कल्पना तथा आंतरिक कषायों के कारण दुःखी होता है, दुष्कृत्य करता है, बरबाद होता है । मानभट ने मदान्ध बन कर छुरी निकाली - किसलिए ? भील को लगा देने के लिए ! अभिमान में अब वह (१) 'कार्य क्या अकार्य क्या ?' इसका कोई विचार नहीं करता । (२) 'मैं जो करने जा रहा हूँ सो सुन्दर है या असुन्दर ?' इसे भी ध्यान में नहीं लेता तो साथ ही (३) खुद को भी मौत आएगी या रक्षण मिलेगा ?' इसकी भी उसे परवाह नहीं है। वह तो सीधे छुरी निकालते ही भील - राजकुमार के सीने में भोंक देता है । विचार कीजिये; एक अभिमान भी मनुष्य को कैसे मिटा देता है ! जंगली जानवर काही यह काम है या और कुछ ? बाघ - शेर को यह गर्व है कि 'मेरे सामने कौन टिक सकता है।' इसलिए अब क्या ? तो यह कि 'करो इस पर प्राण घातक प्रहार ।' इसी तरह इस घमंडी को भी लगा कि यह भील मेरा अपमान करनेवाला कौन ? मारो इसे ।' इसमें मानवता कहाँ रही ? नागरिक पशुता भी कहाँ ? आचार्य महाराज धर्मनन्दन कहते हैं ३ अभिमान के नतीजे मानभट भागता है : : - 'न गणेइ परं, न गणेइ अप्पयं, ण य होंत महाहोतं माणमउम्मत्त मणो पुरिसो मत्तो करिवरो व्व ॥ ' अभिमान एवं मद से उन्मत बना हुआ पुरुष मदोन्मत्त महाहस्ति के समान है। वह न तो दूसरे का विचार करता है, न अपना विचार करता है । वह न तो इस बात की परवाह करता है कि क्या होगा और न इस बात की परवाह करता है कि क्या नहीं होगा ? यही हालत मानभट की हुई । छुरी भोंक देने से भील को क्या होगा इसका भी विचार नहीं किया यह भी नहीं सोचा कि इसका खुद के लिए क्या परिणाम होगा ?" एक एक कषाय जीव को अंधा बना देता है । अतः अभिमान ने इसे अंधा कर दिया, इसमें क्या आश्चर्य ? आवेश में आकर छुरी भोंकते भोंक तो दी लेकिन अब क्षणभर वहाँ खड़े रहने की उसमें हिम्मत है ? सामने उस १६ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भील - राजकुमार के साथी भील एवं राजसभा में उपस्थित अन्य भी अब तो यमदूत जैसे बन जाएँ । वे इसे जिन्दा छोड़े ? यह अकेला और वे बहुत से । अतः उन सबके आगे इसकी क्या चले? बस, शीघ्र ही यह वस्तुस्थिति भाँपकर मानभट वहाँ जराभी रुके बिना राजसभा से बाहर निकल जाता है। मान कषाय ने कैसा अंध बनाया? परिणाम सोचने ही नहीं दिया। यहाँ भी भील को छुरी लगते ही साथ के लोग चौंक उठे। किसीको कल्पना ही नहीं थी कि 'मानभट ने रोष प्रकट किया पर भील कुमारने तुरन्त क्षमा माँग ली, इसके बाद भी ऐसा भयानक खून हो सकता है।' उस मजाक करने वाले को भी ऐसी कल्पना नहीं थी। छुरी लगने से भील राजकुमार के नीचे गिरते ही होहल्ला मच गया। सब वहाँ इकट्ठे हो गये। और मानभट को लक्ष कर कहने लगे, 'पकडो, पकडो, इस बदमाश को।' लोग उसे पकड़ने दौड़े। पकड़ा जाए तो क्या हाल हो इसका? फिर वे इसे जिन्दा छोड़े? मृत्यु क्यों आई? कर्म की कैसी विचित्रता है ? बेचारे भील कुमार को यहाँ आते समय क्या जराभी यह कल्पना थी कि 'राजा को नमस्कार के बहाने मौत मुझे बुला रही है ?' नहीं, फिर भी मौत कैसे आई ? देखना - (१) इसकी जरासी गफलत मृत्यु का कारण नहीं है ! ऐसी गफलत तो दुनिया में बहतों को हआ करती है। उससे कोई मौत थोड़े ही आ जाती है? तब (२) काल-समय भी कारण नहीं है, क्योंकि औरों के लिए भी वही का वही समय वहाँ प्रवर्तमान था, फिर भी उनकी मौत नहीं हुई तो (३) अकेली भवितव्यता भी कारणभूत नहीं, क्योंकि ऐसा हो तब तो फिर जीव के सत्कृत्य-दुष्कृत्य व्यर्थ ही जाएँ । अतः यही कहना होगा कि (४) यहाँ भील के पूर्वकृत कर्म उदय में आये, और उन्होंने उस (मानभट) की बुद्धि को बिगाड कर यह जानलेवा प्रहार करवाया। यहाँ प्रश्न होता है। - प्र. क्या किसी के कर्म दूसरे की बुद्धि बिगाड़ते हैं ? उ. हाँ, देखिये ! सीताजी को अपयश नाम कर्म आदि कर्मों का जब उदय हुआ तब उन कर्मो ने सौत-रानियों आदि की बुद्धि बिगाडी न? राम की भी मति फिरा दी न? महावीर प्रभु को कान में कीलें ठोंकने का कर्म उदय में आया तब ग्वाले की बुद्धि बिगाडी नहीं ? सौत-रानियों ने महाजन को सीखा कर राम के पास भेजा, और महाजन ने रामचंद्रजी से कहा कि "लोग बातें करते हैं कि पराये घर रह कर आयी हुई सीताजी को रखना आप जैसे महानुभाव के लिए उचित नहीं।" फिर भी राम सीताजी को लेश मात्र भी असती मानने को तैयार नहीं। तब फिर ऐसी बद्धि क्यों आयी कि - 'तो भी सीताजी का त्याग कर श्रेष्ठ राजा के रुप में अपनी कीर्ति अखंड बनाये रखू ।' सीताजी को निकाल ही देना था तो उनके पिता राजा जनक के यहाँ उन्हें भेज देते । दूर जंगल में क्यों रखवा दिया? Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहना ही होगा कि यह सब सीताजीके ऐसे कर्म ही करवा रहे हैं। ऐसे ही, कीलें ठोकने वाले उस ग्वाले की इतनी हद तक क्रूरता करने की बुद्धि का कारण भी प्रभु महावीर के पूर्व कर्म ही हैं । यहाँ जरा पूछिये कि - प्र. तो फिर क्या ग्वाला निरपराध है ? यहाँ तो प्रभु के कर्म ही ऐसी क्रूरता करवा रहे हैन ? उ. नहीं निरपराध नहीं, क्योंकि ऐसी क्रूरता करने में उसके अपने भी इस तरह के कषाय मोहनीय कर्म और अशुभ मनोयोग तथा काय योग अर्थात् अपना असत् पुरुषार्थ कारणभूत है ही । साथ ही निमित्त रुप में प्रभु के कर्म भी उसमें शामिल होते हैं । अर्थात् अपने काषायिक भाव तथा असत्प्रवृत्तियाँ अपने को दोषी बनाते ही हैं। यह सही है कि इस दुष्टता में दूसरों के उस तरह के अशुभ कर्म निमित्त तो बन जाते हैं, लेकिन मुख्य कारण तो अपना असत् पुरुषार्थ ही है । बुद्धि बिगड़ने के कारण : अतः इस पर से निष्कर्ष निकलता है कि - (१) एक तो खुद की बुद्धि बिगड़े, बुरे भाव जगें उसमें खुद के मोहनीय कर्म कारणभूत हैं । (२) दूसरा यह कि उस बुद्धि पर गलत विचार किये जाएँ, बुरे वचन बोले जाएँ, या अशुभ प्रवृत्ति की जाए, उसमें मुख्यतः अपना असत् पुरुषार्थ ही कारणभूत है । (३) तीसरी बात यह कि इससे जिसका नुकसान होनेवाला होता है उसके भी अपने अशुभ कर्मो का उदय इसमें निमित्तभूत है । इसीलिए तो धवल सेठ की बुद्धि भ्रष्ट हुई और उसने श्रीपाल कुमार को सागर में डाला; कुछ समय के लिए श्रीपाल के जहाज और दो पत्नियाँ छीन ली; इसमें, श्रीपाल कुमार के अपने भी अशुभ कर्मो का उदय कारण अवश्य है । अत: अब समझ में आया होगा कि किसी को नुकसान हो ऐसी दूसरे की बुद्धि बिगडे और वह ऐसा काम करे तो बुद्धि बिगडने में नुकसान भुगतने वाले के अशुभ का उदय निमित्तभूत हुआ । अब परिणाम की दृष्टि से देखें तो दूसरे की बुद्धि बिगड़ने में और अनुचित आचरण करने में किसी का अशुभोदय भले ही निमित्त बना हो और इसलिए आप शायद कहें कि 'यह क्या करे बेचारा ? उस दूसरे के कर्म के उदय से इसकी बुद्धि भ्रष्ट हुई।' तो नहीं यह निर्दोष नहीं है। नियम ऐसा है कि जो कोई अपनी बुद्धि को बिगाड़े वह गुनहगार है, उसे पाप अवश्य लगता है। अशुभ अध्यवसाय अवश्य अशुभ बन्ध कराते हैं। अत एव नुकसान भोगने वाला यदि अपनी बुद्धि को न बिगाड़ें तो नुकसान होने - मात्र से गुनहगार नहीं बनता । तात्पर्य - पहले के अशुभ कर्मों को बुद्धि विकृत किये बिना जो शांति से भोग ले १८ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह बच जाता है और उन कर्मो के निमित्त से बुद्धि को विकृत करनेवाला दंडित होता है। ___हमारी बात यह थी कि बेचारे भील-कुमार के कर्म ही ऐसे होंगे कि उन्होंने मानभट की बुद्धि बिगाड दी और उसने भील कुमार की हत्या की। 'अपने अशुभ कर्म के उदय के बिना अपने को सहने का प्रसंग नहीं आता' यह नियम है । अतः इस समय दूसरे को दोष देना निरर्थक है। उलटे, वहाँ अपने निर्धारित कर्मो का उदय तो सहना ही पडता है, वरन् तदुपरांत दूसरे को दोष देने से कषाय उत्पन्न होता है, बुद्धि विकृत होती है, फलतः नये कर्मों से दंड़ित होना पड़ता है। मानभट को पकड़ने के लिए :. भीलकुमार का खून होते ही शोर मचा कि 'पकड़ो, पकड़ो उस मानभट को,' और लोग दौडे, लेकिन मानभट तो कभी का भाग निकला है, सो भागता हुआ उज्जयिनी में न रहकर सीधा बाहर निकल कर अपने गाँव की ओर दौड़ा जा रहा है। उसे भय तो है कि पीछे से कोई आकर पकड़ लेगा तो? किंतु वह ऐसे गली कूचों की राह से बाहर निकल कर इतने वेग से भागा जा रहा है कि पीछा करनेवालों को उसे पकड़ने में देर हो जाती है। साहस में मूढ़ता : मानभट अपने घर पहुँच कर शान्त कैसे बैठ सकता है ? अभी पक्का डर है कि उस भील के आदमी अथवा अन्य लोग यहाँ आ पहुँचेंगे तो? अतः वह घबराया हुआ है। आवेश में साहस कर डालने के बाद कितनी सारी अस्वस्थता तथा आकुल-व्याकुलता पैदा होती है? तो फिर मनुष्य क्या देखकर साहस करता होगा? परन्तु कहिये कि साहस उसी का नाम है कि 'जिसमें बहुत सोचते बैठना नहीं होता, कि उसका क्या परिणाम होगा?' और एकाएक कर डालना होता है। खतरे का विचार नहीं होता। 'दिमाग तो मिला है, लेकिन उसका उपयोग खतरे का विचार करने में, या भावी परिणाम की संभावना का खयाल करने में नहीं करता, बल्कि आवेश को बहकाने में करता है।' इस मोह का जगत के पामर जीवों पर कितना गहरा प्रभाव है ? सोचने का साधन मिला है, परन्तु उसका अनुचित उपयोग यह कर्म के द्वारा जीवों की भीषण विटंबना है। क्या दिमाग, और क्या अन्य साधन-मोह-मूढता का यह प्रभाव है कि उनका सदुपयोग न करने दे? (मानव-भव, धन, बद्धि आदि का क्या उपयोग ? : बोलिये ! क्या मानव भव स्वयं एक उच्च साधन नहीं ? अवश्य है। उसका सदुपयोग तीर्थंकर भगवान् के वचनों पर अटल श्रद्धा, मैत्री-भाव, दुःखियों के प्रति करुणाई हृदय, गुणानुराग, गंभीरता, उदारता, जिनभक्ति, साधुभक्ति, व्रत नियम-आदि को प्रधानता देकर उनके आधार पर मन-वचन-काया की प्रवृत्ति करने में हो सकता है न? परन्तु मूढता इस साधन का कैसा उपयोग करवा रही है ? कितना विपरीत उपयोग! इसी तरह अच्छी खासी दौलत मिली; यह दौलत क्या अब पाप-व्यापार से निवृत्ति Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेकर हाय-हाय, अशान्ति, आर्तध्यान आदि को एक ओर छोड कर निश्चिंतता-पूर्वक धर्मप्रधान जीवन जीने का साधन नहीं है ? अवश्य है। फिर भी उसका उपयोग कितना उलटा हो रहा है? उलटे अधिक आरंभ-समारंभवाले कारखाने और भीषण विषय-विलासवाले बंगले-मोटर, मौज-शौक के साधन जुटाने में होता है न? इसी तरह प्रतिष्ठा, प्रभाव, सत्ता आदि कितने ही साधन प्राप्त होते हए भी उनका उपयोग स्व-पर के धर्म-पोषण में करने के बदले उलटा उपयोग कैसा चल रहा है, स्व तथा पर दोनों के कषायों की वृद्धि में ही? दुनिया में ऐसे मूढ़ मिलते हैं ? : ज्ञानीजन मनुष्य-जन्म को मोक्ष-मार्ग की आराधना का बेजोड़ साधन कहते हैं, उच्च सद्गति पाने का एवं समस्त भावी काल को उज्जवल बनाने का अद्वितीय साधन कहते हैं, तब बेचारे जीव को इस बात का विचार नहीं हैं कि - 'और कुछ भी दूसरा - तीसरा कले के साधनभूत भव तो बहुत मिलेंगे, परन्तु ऐसा मानवभव व्यर्थ खोने के बाद पुनः कब मिलेगा? और कब इसका ऐसा सदुपयोग करूँगा?' उत्तमोत्तम साधन का यह सुन्दर उपयोग चूकनेवाले हम क्या मूर्ख और मूढ़ नहीं? श्रेष्ठ बावना चंदन का उपयोग बर्तन मांजने की राख बनाने में करनेवाला कैसा लगेगा? बुद्धिमान् या बेवकूफ? विवेकी या मूढ़ ? एक दूसरे की होड पर चढ़ कर हजार रुपयों की करंसी नोट में तमाखू रख, उसकी बीडी बनाकर फूंक दे, वह कैसा माना जाए? बाजार के बीच हज़ारों रुपये मासिक आय करानेवाली दुकान पर जूए का अड्डा जमाए और बाप का धन बरबाद करे, उस बेटे को कैसा कहेंगे? इन सब में मूढता समझ में आती है, किंतु अपने ही मानव-भव, बुद्धिधन - प्रतिष्ठा आदि उच्च साधनों का खुद ही सरासर दुरुपयोग करने में अपनी मूढता नहीं दिखाई देती! धन्य है बुद्धि को! चौंकना चाहिए कि, 'अरे! मैं यह क्या कर रहा हूँ? साधन होते हुए भी उसका तारक उपयोग करने के बदले मारक उपयोग ? बाद में कर्म मुझे इस दुरुपयोग का भयानक दंड नहीं देगा ? वापस ऐसे साधन पाने के लिए मुझे नालायक करार नहीं देगा? किस वस्तु के बदले क्या दिया जाता है ? कैसी दुःखद स्थिति है? जिस बुद्धि तथा अन्य साधनों पर मैत्री - करुणा - प्रमोद आदि को विकसित किया जा सकता है, उन्हीं पर मूर्ख जीव वैर विरोध, स्वार्थ लोलुपता और ईर्ष्या विकसित करता है। जिसके द्वारा साधर्मिक को उपबृंहण, धर्म स्थिरीकरण, और वात्सल्य दिया जा सकता है उसी बुद्धि से उसकी अवगणना, उसकी श्रद्धादि का खंडन Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और उस पर जहर बरसाने का काम करता है ! बुद्धिबल तो वही का वही, परन्तु उस साधन के महामूल्य का ज्ञान नहीं हैं, गँवारपन है, और इसलिए उसका भयानक दुरुपयोग होता है ! इससे क्या मिलता है ? इसमें भी कोई लाभ है ? कोई नहीं, सिवा खुजली खुजलाने का ! 'वैर विरोध की खुजली उठती है और बुद्धि से उसी पर दुर्विचार करने लगना, और अन्तस्तल में धधकना और शरीर पर कुप्रभाव ग्रहण करना' - यही मिलता है। क्या अच्छी प्राप्ति हुई ? कुछ नहीं । तो भी उसी में बुद्धि लगाये बिना नहीं रहा जाता। बाप से निवेदन : मानभट ने बुद्धि का दुरुपयोग किया - मान कषाय का पारा बढ़ा दिया और खूनी बना ! अब डर के मारे घर पहुँचा । आकर पिता के चरणों में गिर पड़ा, और सारा वृत्तान्त निवेदित करता है, फिर पूछता है - 'पिताजी ! अब मैं क्या करूँ ?' पिता के लिए समस्या : बाप से कहे बिना चला जाय ऐसी स्थिति नहीं थी, क्योंकि भीलों तथा राजा के आदमियों का घर आने का डर तो अभी मौजूद ही है, अत: घर में सुख से बैठना संभव नहीं है, तब बाप को अँधेरे में रख कर क्या करे? बाप से वृत्तान्त कह कर अब बचने का उपाय पूछता है। बाप के मन को बहुत दुःख हुआ परन्तु (१) इस समय उलाहना देने डाँटने - डपटने का अवसर नहीं है। साथ ही (२) 'नालायक! ऐसी करतूतें करता है ? निकल जा मेरे घर में से।' ऐसा कह कर बेटे को निकाल देने का भी अवसर नहीं है, क्योंकि अब तो खुद उसे भी डर लगता है कि बेटे को निकाल देने के बाद भी वे लोग आकर खुद को ही सताए कि 'बताओ, तुम्हारा लड़का कहाँ है ?' ऐसे धमकाएँ और यह कोई और जवाब दे तो वे लोग गुस्सा होकर इस पर वार करें तब क्या हो? अतः (३) बाप को डर है। भय संज्ञा में मनुष्य उचित-अनुचित का विचार करने कहाँ बैठे? (लड़के क्यों बिगड़ते हैं ? साथ ही यह बात भी है कि बाप को बेटे से मोह है, अत: बेटा कैसा भी अनुचित कर आया है तो भी बाप उसे पी जाता है। यदि यह मोह न रहता हो तो दुनिया में कितने ही माँ - बाप जो अपने पुत्रों के आत्मिक जीवन बिगाड़ते हैं सो न बिगाड़ते होते । अयोग्य को चलने दे कर बेटे को कोई डाँट फटकार या सजा नहीं देते फलतः उसे ऐसा लगता है कि 'ऐसे चल सकता है।' फिर सुधार क्यों करे? सद्भाव बनाये रखना आवश्यक है :प्र. तो क्या बार बार टोका करने से सुधरते हैं ? क्या इससे ढीठ नहीं बन जाएँगे? उ. कुशलता न हो तो ऐसा हो भी जाए । अन्यथा, (१) उलाहने कड़वे भी हों और मीठे भी। (२) सीधे शब्दों में कहने योग्य हों और तिरछे ढंग से भी कहे जाएँ (घूमा फिरा Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर भी) (३) अधिकार तत्काल न कह कर बाद में शांति से कहने लायक होते हैं। (४) दोष की खराबी तुच्छ हानि की द्रष्टि से बताने के बदले किसी महान हानि को आगे करके भी बतायी जाए। उलाहना कैसे दिया जाय? इसका भी एक साइन्स है। उलाहना देने में (१) सामनेवाले के दिल के नाजुक तार टूट न जायँ, (२) वह उलाहने को सहर्ष झेल ले, (३) उस पर विचार करे, (6) दोष का परिष्कार करे, यह सब खयाल रखना होता है। कहने की कुशलता-चतुराई न हो तो कहनेवाले पर उसे जो सद्भाव था वह उठ जाए और दुर्भावना पैदा हो जाय तो मामला खत्म । अब वह फिर से उलाहना सुनने - को तैयार ही नहीं होगा। अत: उलाहना - (या डाँट-फटकार) जैसे तैसे और जब चाहो तब नहीं दिया जाता। अगले की सद्भावना उठ जाने के बाद तो दूसरे भी नुकसान होंगे; क्योंकि अब तो 'पेट का जला गाँव जलाए' जैसी बात होगी। दुर्भावना के कारण बाहर बाप की निंदा करेगा: अत. लड़के की सद्भावना बनी रहे, यह भी माँ बाप को देखना रहा। उलाहने के बाद कैसे बरतना ? : उलाहना देने के बाद भी व्यवहार करने की खूबी है (१) उलाहना देने के बाद विशेष प्रेम दिखाना चाहिए । (२) संतान को डर भी लगना चाहिए कि 'हमारा अनुचित व्यवहार माता पिता को पसंद नहीं है। और उन्हें जो पसन्द न हो ऐसा हम यदि बार बार करें तो वे कुछ चला लेनेवाले नहीं ।'. ऐसा भय भी पैदा करना चाहिए; और (३) आकर्षण ही बना रहना चाहिए कि 'हमारे माता पिता हमारे पर बहत प्रेम रख कर हमारी बहुत अच्छी चिंता-फिकर करते हैं और हमारे लिए बहुत बलिदान देते है। हमारी भूलों को गाँठ से नहीं बाँध लेते या बदला नहीं लेते।' उलाहने का बाद के व्यवहार पर भी अगले को सद्भावना - दुर्भावना का आधार है। लाड-प्यार या गंभीरता कहाँ तक? : तात्पर्य - उलाहना देने में बहुत ध्यान रखना होता है लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि उलाहना देना ही नहीं । न देने से बहुत से बालकों के जीवन बरबाद होने के उदाहरण आज देखने को मिलेंगे। लाड़ के कारण नहीं डाँटे; परन्तु फिर उसे सुधरने का अवकाश कहाँ से मिले? यदि पिता की ओर से सर्व-सामान्य रुप से कहा जाय तो उसमें से सन्तान में अपने लिए हित-शिक्षा प्राप्त करने की न तो बुद्धि है, न गर्ज है; साथही जागृति का भी अभाव है; फिर दो के प्रति ऐसा द्वेष भी नहीं है। ऐसी स्थिति में वह कैसे सुधरे? शांति से व्यक्तिगत रुप से अकेले में बिठा कर कहा हो तो फिर भी उसके कान खुल जाएँ, वह विचार करने लगे, पुनः भूल न करने का निश्चय करे, अतः सुधारने के लिए कहना तो चाहिए ही। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाप मार्ग निकालता है : यहाँ मानभट की गंभीर भूल के बावजूद उसके पिता के उलाहने की बात उससे कहने का अवसर नहीं है; क्योंकि अपनी जान को भी खतरा है 'मानभट ने भील राजकुमार का खून किया है, उसके प्रतिशोध-रुप में उसके आदमी मुझसे वैर लें तो ?' यह सोच कर वह मानभट से कहता है, 'बेटा! अब तो हम सबको यहाँ से शीघ्र भाग निकलना चाहिए, और किसी अनजाने निर्जन प्रदेश मे जाकर रहना चाहिए। इसलिए जल्दी से गाड़ी तैयार करके उसमें सारभूत सामान ले लें जिससे हम तुरन्त रवाना हो जाएँ । एक भव के लिए; तो भवोभव का क्या ? : बस पिता के वचन पर गाड़ी तैयार कर मानभट और परिवार के लोग परदेश रवाना हुए। एक भव के प्राण बचाने के लिए मनुष्य घर भी छोडता है। किंतु भवोभव की रक्षा के लिए घर नहीं छोडना है ! मिथ्यात्व की गिरफ्त ऐसी होती है। तब; जिन्हें भावी जन्म-मरण के चक्कर का डर लगा है, ऐसे पूरे के पूरे भाग्यशाली परिवार आज भी संसार - त्याग करते देखने को मिलते हैं। बाकी तो जीवों की यह अज्ञानदशा है, नादानी है कि इस जन्म के मान-‍ - मर्तबे से लेकर प्राणों तक की रक्षा हेतु सब कुछ कर लेंगे परन्तु जन्म-जन्म के बचाव के लिए कुछ भी छोड़ने को तत्त्पर नहीं हैं सांसारिक घटना से तुलना कीजिये 1 आज भी सुनने में आता है कि कर्ज बढ़ जाने के कारण तथा समाज या सरकार का भय आ पड़ने से मनुष्य अकेला ही सारे परिवार को छोड़ कर भाग गया, तो बरसों बीत जाने के बाद भी पुनरागमन हुआ ही नहीं। परिवार ने सारा जीवन उसके बिना बिताया और फिर भी छुटकारे की साँस ली कि, 'चलो, अच्छा हुआ, वे यहाँ की आफत से तो बच गये ।' तो क्या परलोक का खयाल कर यह विचार नहीं आना चाहिए कि 'भले ही हमें छोड़कर चारित्र - जीवन स्वीकार करें और हमें उनके बिना कष्टमय जीवन बीताना पड़े, फिर भी वे तो दुर्गति की आफत से बच जाएँगे ।' नहीं, यह विचार ही नहीं है, क्योंकि परलोक द्रष्टि समक्ष नहीं है, गृहवास तथा आरंभ विषय परिग्रह की अंधी लंपटता के फलस्वरुप संसार की दुर्गतियों में परिभ्रमण होता है, यह दिखाई नहीं देता, अतः उसका डर नहीं है । तब क्यों अपने या अगले के उससे बचने का मार्ग खोजे ? किसलिए बचने की कामना करें ? हाँ, प्रियजन पर यहाँ कोई विषम आक्रमण होता है तो उससे रक्षा करने में स्वयं अपना कितना ही स्वार्थ छोड़ देगा । किन्तु परलोक हित और धर्म के लिए कोई बात ही नहीं । मिथ्यात्व झलकता हो वहाँ ऐसा ही होता है । मानभट और उसका समस्त परिवार प्राण बचाने के हेतु परदेश रवाना हुआ। वह भी २३ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसे अनजाने जंगल के रास्ते से कि ठेठ नर्मदा के किनारे पहुँचे, और वहीं डेरा डाला। पुनः भीलों से भेंट : अब यहाँ ऐसा होता है कि मानभट बाहर घूमने निकलता है; परन्तु तकदीर दो कदम आगे है; अत: वहाँ भील राजकुमार के आदमियों का झुंड आ पहुँचता है! वह इसे देख कर क्रोधित होता है और 'मारो! मारो इसे, ऐसे चिल्लाते हुए उसके पास आता है। मानभट ने देखा कि "अब इस तरह खड़े रहने से रक्षा नहीं हो सकती। तो क्या भाग जाना? भाग भाग कर कितनी दूर भागा जाए? वे पीछा करेंगे ही न ? उपरान्त वे इसमें हमारी कायरता देखकर तो पीछा ही नहीं छोडेंगे। और हमारा दिल भी आगे चलकर पैर ढीले पड़ जाने से इतना शूरवीर नहीं होगा कि जिससे अपनी रक्षा का जोरदार प्रयत्न हो सके। तो क्या, इन लोगों से यहाँ दया की भीख माँगे? ये तो भील हैं ! इनको दया करने की क्या समझ? ये तो सीधा वार करते हुए कहेंगे कि 'ले, यह दया।' "इसलिए इसमें तो दोनों तरह से मरना ही होगा परन्तु इस तरह सीधे सीधे कोई मौत के मुँह में जाया नहीं जाता। अतः अब तो इन लोगों से लड़ना होगा; जितनी रक्षा हो उतनी ही सही।" जन्मोजन्म की मृत्यु के सामने अडियल : मौत के सामने रक्षा की कितनी मेहनत मनुष्य करता है ! परन्तु वह यहाँ की मृत्यु के सामने ! लेकिन यहाँ भी खेद की बात यही है कि जन्मोजन्म की मृत्यु से बचाव का विचार नहीं आता । फलत: बड़ी उम्र में धर्म करने की बात आने पर जीव अडियल बन जाता है कि - 'अब क्या हो सकता है ? अब उम्र बीत गयी। साथ ही, हम तो बुरी आदतों के आदी हो गये, अब कैसे छूट सकती हैं ? छोटी उम्र में धर्म की कोई पढ़ाई नहीं की कुछ जाना नहीं, अब क्या सीखा जाय? शरीर शिथिल पड़ गया है। अब कौन से त्याग और तप हो सकते हैं ?..... लेकिन यहाँ सोचना चाहिए कि, 'कुछ नहीं करने से तो लेश मात्र रक्षा नही मिलेगी और अब भी जो समय जो सामग्री और जो तन - वचन -मन हाथ में हैं उन्हें धर्म में न जोड़ा गया तो ये सब पाप के मार्ग में खर्च होंगे। और उनका कणकण का हिसाब आत्मा की कर्म-बही में बढनेवाला है! जिसे पूर्णतः भरपाई करना पड़ेगा । आगामी जन्मों में कहाँ छूटना संभव है अतः बुद्धिमत्ता इसमें है कि अब शेष बचे हुए थोडे से भी समय-सामग्री तथा तन-वचन-मन-इन्द्रियों को पापवृद्धि से बचाने हेतु भी उन्हें धर्म में लगा दो। और - इससे दूसरा खास फायदा यह होगा कि न केवल इस जन्म के, अपितु पूर्व जन्मों के भी कितने ही पाप - कुसंस्कार खत्म हो जाएंगे। इससे भावी जन्मोजन्म की मृत्युओं से कुछ काल के लिए थोडी भी रक्षा मिलेगी। धर्म ऐसी वस्तु है कि, 'नहाया उतना पुण्य' के Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय से धर्म जितना साधे उतना आत्मा को लाभ ही है, पाप और भावी दुःख के विरुद्ध उतना बचाव प्राप्त होता है। इतना ही नहीं, बल्कि सच्चे दिल से किये गये इतने थोडे धर्म के भी द्रढ संस्कार भविष्य में फलदायक बनते हैं और पाप बुद्धि में से अंशतः ही सही पीछे हटाते हैं, और ज्यादा धर्म की तमन्ना जाग्रत करते हैं। अत: जन्मों-जन्म की मृत्युओं के विरुद्ध यहीं पर जब जगे तब से सुबह मान कर रक्षा-रुप धर्म में लग जाना आवश्यक है, क्योंकि रक्षा का श्रेष्ठ अवसर इस मानव-भव में ही है। ऐसा सुंदर भव गँवा देने के बाद मानवेतर भव में क्या कर सकेगा? यहाँ बुढापे में धर्म के साधारण - से कष्ट से घबराता है, लेकिन परलोक में इससे कई गुने कष्ट पडेंगे, वे कैसे सहे जाएँगे? भीलों के साथ लडाई : मानभट आती हुई मौत के सामने कायरता-वश यथासंभव बचाव करने कटिबद्ध हो गया, और इतने में ही भील भी आ पहुँचे और इसे मारने दौडे। यह भी बचने के लिए उनके सामने प्राण हथेली में लेकर मारामारी करने लगा। वे इसे अकेला देखकर मारने आये थे परन्तु यह प्राणों की परवाह छोडकर चोट खाकर भी सामना करता है। ऐसा करते हुए वह घायल होकर नीचे गिर पड़ा। इसके बाद भील उसे ऐसे ही छोडकर लौट पडे। मानभट काफी चोट खाकर भी जिंदा बच गया ! बाद में वह अपने मुकाम पर लौटा। सोचने लगा कि 'यदि भीलों के आगे कायर बनता या शरण में जाता तो बचना मुश्किल था। (१) मोह के आगे कायरता : मोह के विरुद्ध होनेवाले युद्ध में यही बात है। (१) यदि उससे डर कर भागने लगें तो वह पीछा करेगा । उदाहरणत: घर में क्लेश होता है, सबका सुनना पडता है, इसलिए विचार आया कि 'इस के बजाय दीक्षा ही ले लें जिससे किसीका कुछ न सुनना पडे।' ऐसा सोच कर दीक्षा ले तो उसमें उसका टिकना कठिन है,क्योंकि यहाँ भी गुरु से या किसी साधु या श्रावक से अच्छी न लगनेवाली बात सुनने के प्रसंग तो बनेंगे। तब स्वभावत: फिर आकुल-व्याकुल होगा। यह क्या हुआ? मोह पीछे पड गया । अब बचने का सामर्थ्य नहीं है। मोह का सामना करने की ताकत नहीं है, अत: उससे पछाडा जाएगा। रोगिष्ट मन कहेगा - 'हाय ! यहाँ भी आफत है। हमने तो सोचा था कि साधुजीवन में किसी का कुछ सुनना नहीं पडेगा। लेकिन घर में तो अमुक - कुछ इनगिने - ही सुनानेवाले थे जबकि यहाँ तो कोई भी सुनाता है, अतः इससे तो घर बेहतर है, चलो घर। ' बस, हो गया बेचैन । अब यह क्या टिक सकता है ? और शायद टिके भी तो अन्तर में सच्चे चारित्र के भाव कैसे रहें ? मोह के साथ युद्ध : इसके बदले यदि सामना करे किसके सामने ? सुनानेवाले के सामने नहीं, बल्कि अपने मोह के सामने; किस तरह ? तो ऐसे - (१) उत्तम उच्च कोटि की क्षमा-सहिष्णुता Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि के महान् लाभ की भावना अपना कर साथ (२) महापुरुषों के द्रष्टांत याद कर उन में से प्रेरणा-प्रोत्साहन पाकर यदि मोह से लडे तो फिर मोह को ही पीछे हटना पड़े। दीक्षा किस तरह ली जानी चाहिए ? प्र.- तब तो इसका यही अर्थ हुआ न कि बैठे - बैठे ऐसे क्लेश का मुकाबला करना, लेकिन दीक्षा न लेना ? उ.- यह बात नहीं । दीक्षा के बिना तो छुटकारा ही नहीं है लेकिन दीक्षा क्लेश से उकता कर न ली जाए बल्कि मन को समझाना कि 'ऐसे क्लेशमय संसार से कष्टमय चारित्र धर्म श्रेष्ठ है। यहाँ के लोगों का सुनूँ उससे गुरु का - मुनियों का सुनना क्या बुरा? जिससे कि कितने ही लाभ तो हों । अत: चलो, अब कडवी हित-शिक्षा सुनने के लिए भी दीक्षा ग्रहण करूँ।' चारित्र -'जीवन में कटु वचन सुनने के फायदे : (१) एक तो 'यह समता से सुनना मेरे हित में हैं।' इस विचार से सुन ले उससे कर्म-क्षय होता है। १२) दूसरा यह कि इस तरह समतापूर्वक सुनते सुनते और अपनी ही त्रुटि देखते देखते क्षमा और सहिष्णुता का सुन्दर अभ्यास होता है और सहिष्णुता सुगठित होती है जो आगे चलकर परभव में उत्तम फल देती है। (३) अनेक बार सुन ले, और सामने रोब-रोष न बताए, उससे गुरु एवं मुनियों पर सुन्दर छाप पडे, प्रतिष्ठा में वृद्धि हो, और गुरु से सुन्दर ज्ञानादि सम्पत्ति प्राप्त हो, साथ ही साधुगण अनुकूल बन जाएँ। (४) सहिष्णुता के अभ्यास से और भी कई लाभ होते हैं। इसका प्रभाव अन्यत्र भी पडता है। उससे त्याग में आगे बढने और तप में आगे बढ़ने की शक्ति मिलती है। नाजुक मनवाला तो सब जगह नाजुक ही रहेगा। जब जरासी त्याग करने की बात आएगी तो मन कहेगा, 'अपने से नहीं होगा।' जरा सा क्लेश - कष्ट आने पर मन आकुल-व्याकुल हो जाएगा "अपने से यह कैसे सहन होगा?" सहिष्णु मनवाला इस तरह नहीं उकताएगा, बल्कि आराधना को आगे बढाएगा। अतः दीक्षा तो लेनी ही चाहिए, लेकिन मोह के आगे डरपोक बन कर नहीं; वरन् लड लेने के लिए । क्षमा, सहिष्णुता, निर्लोभता, तत्त्वद्रष्टि, निरभिमानता आदि मोह से लडने के शस्त्र हैं। 0000000000Oldacododon Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ minine AMER the 3gy HAMAR H IVERY-28030INAGAR चारित्र में मोह का नाश सरल गृहवास में मोह के विरुद्ध युद्ध क्यों कठिन है ? :प्र.- तो क्या घर में रहकर मोह से लडना संभव नहीं ? उ.- संभव है; परन्तु मामूली क्योंकि (१) इन शस्त्रों को आजमाने के लिए जो शास्त्र बल जरुरी है, उनका अध्ययन करने के लिए घर में अवकाश ही नहीं है, फिर घर में रहकर ये आगम-शास्त्र पढने का अधिकार ही नहीं है, वह साधुपन में ही है। तदुपरान्त (२) ऐसा संसार ही ले बैठा है कि उसमें कितनी ही आवश्यकताएँ रहती हैं । स्वार्थ सुरक्षित रखना होता है, अनिवार्य प्रसंग निभाने होते है; वहाँ जीव को रोब, रोष आदि बताये बिना नहीं चलता, चलाने का ऐसा धैर्य ही नहीं रहता। जबकि साधु-जीवन में ऐसा परिवार सम्हालने का काम नहीं है, पैसे नहीं रखने हैं, घरेलु सामान आदि की जरुरत नहीं, और कोई ऐसे सांसारिक स्वार्थ नहीं जिनके कारण रोब-रोष करने पडे।। (३) घर में स्त्री-पुरुष, दुकान-मकान, धन-दौलत, आदि निमित्त ही ऐसे हैं जो राग कराते हैं। ये साधु-जीवन में नहीं, अतः राग के खेल का स्थान नहीं। (४) सोचेंगे तो दिखाई देगा कि कितने ही पाप स्थानक, कषाय, मलिन लेश्याएँ, दुर्ध्यान और संकल्प-विकल्प गृहवास के कारण ही होते हैं, करने पड़ते हैं । वहाँ उन्हें रोकने के लिए मोह के विरुद्ध कितना लडा जा सकता है ? साधु-जीवन में ही मोह के खिलाफ लड लेना संभव है। और वे रुक जाएँ इस तरह की अनुकूलता वहाँ है । यह तो हुई मोह के आगे डरपोक न बन लड लेने की बात । (२) मोह की शरणागति अब दूसरी बात । मोह की शरण में जाए तो बचें या नहीं बचें? मानभट यदि पहले से ही भीलों की शरण में जाता तो बचता? कम संभावना है। मोह में भी यही बात है। शरणागति में रक्षा नहीं होती। उदाहरण के तौर पर - एक व्यक्ति से तपस्या नहीं होती, या रसत्याग नहीं होता । अब यदि वह ऐसा माने कि 'मुझ से इस जीवन में कुछ नहीं हो सकता' और ऐसा करके मोह की शरण में ही पड़ा रहे, अर्थात् खान-पान-रस आदि का निरंकुश भोग करे तो जीवन के अन्त तक उसे मोह से बचने का अवसर नहीं मिल सकता । ऐसी अन्य बातों में भी शरणागति-जैसे कि 'मुझसे किसीका बरदाश्त नहीं हो सकता, मुझ से जरा भी प्रतिकूलता सहन नहीं होती, मुझे तो यह अनुकू लता अवश्य चाहिए। आँख-कान वगैरह मिले हैं तो सिनेमा, रेडिओ आदि कैसे छूटें ? ऐसी सब मोह की शरणागतियाँ स्वीकार कर ही बैठ जाय तो उसमें से बचाव कैसे मिल सकता है ? Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये मोह की वस्तुएँ हैं ही ऐसी कि इनका स्वागत करने से इनकी रुचि और पराधीनता बढती जाए । तब ये राग- आसक्ति, लोभ-लालसा - लंपटता कब कम हों ? जिंदगी के अंत तक भी नहीं । शरणागति में मोह के द्वारा कुचले जाता रहना पडे । अनन्त भवों में जीव इसी तरह पिसता चला आया है । 1 त्याग के अभ्यास से मोह के खिलाफ ताकत बढती है । जबकि यदि शरणागति छोड दें, अर्थात् थोडा मन को मार कर मोह का मुकाबला किया जाय, थोडा थोडा भी त्याग, तप, संयम का अभ्यास किया जाय तो इस अभ्यास के प्रभाव से आन्तरिक बल बढता जाय, आदत होती चले और आगे आगे और अधिक त्याग तपस्या हो सके । आज ऐसे कितने ही उदाहरण मिलेंगे कि जिनके जीवन में इस मोह का । मुकाबला तथा त्याग - तप आदि नहीं था, तब कुछ नहीं था परन्तु किसी सद्गुरु के समागम के फलस्वरुप मोह की सर्वेसर्वा शरणागति छोड कर वे मोह का सामना करने लग गये । पहले अल्प त्याग, फिर अधिक त्याग, पहले छोटी तपस्या फिर कुछ अधिक तपस्या आदि करने लगे, तो अकल्पित प्रगति हुई । असंभव था तो संभव बना, और अब आसानी से उत्तम धर्म साधना कर सकते हैं । अन्यथा मोह की सर्वतः शरणागति में तो मार ही खानी होती है । मानभट का दूसरे गाँव जाना मानभट घायल होकर अपने मुकाम को लौटा। बाप ने देखा कि घाव बहुत लगे हैं, वे यहाँ जंगल में ठीक नहीं होंगे। किसी गाँव जाकर इलाज कराना होगा । अतः सब वहाँ से नजदीक के गाँव रवाना हुए। वहाँ मानभट को वैद्य से मरहमपट्टी करवाई । अच्छा होते देर लगी परन्तु गाँववालो से ऐसे हिल गये कि अब निश्चित होकर भीलों का डर रखे बिना वहीं रह गये, और वहीं से आजीविका का साधन पाने लगे । - धर्म-साधना के तीन साधन : जैसे जंगल में मरहमपट्टी नहीं हो सकती, वैसे इस संसार रुपी अटवी में, आत्मा पर पडे घावों का इलाज नहीं हो सकता । इसके लिए धर्म रुपी औषधालय जाना होता है, साधु-रुपी वैद्य खोजने पडते है, साधु सेवा करनी पडती है । अतः हरिभद्रसूरिजी महाराज ने 'शास्त्र वार्ता - समुच्चय' नामक शास्त्र में लिखा है : 'साधु सेवा सदा भक्त्या, मैत्री सत्त्वेषु भावतः । आत्मीयग्रहमोक्षश्च धर्महेतुप्रसाधनम् ॥' धर्म क्या है ? आन्तरिक अहिंसा सत्य आदि तथा क्षमा, नम्रता आदि की परिणति । उसके हेतु अर्थात् कारणभूत साधनाएँ अच्छी तरह सिद्ध करनी हों तो ३ साधन जरुरी हैं : २८ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) सदा भक्ति पूर्वक साधु की सेवा करें। (२) जीवों पर भावपूर्वक मैत्री स्नेहभाव रखे। और (३) पौद्गलिक वस्तुओं पर ममता की गिरफ्त न रखे । ये साधन साथ में हों तो अहिंसादि एवं क्षमादि धर्म की साधनाएँ अच्छी तरह की जाएँ । यदि इनमें विघ्न आए तो साधना में विघ्न आएंगे। पौद्गलिक वस्तुओं पर यदि अंध ममत्व होगा तो उसके मोहवश वे साधनाएँ एक ओर रख दी जाएँगी अथवा जैसे तैसे की जाएँगी। वैसे ही यदि जीवों के प्रति मैत्री न हो, स्नेह न हो तो, वैरविरोध पैदा होगा, फलत: अहिंसा-सत्य-क्षमा आदि की साधना कठिन होगी । धर्म का औषधालय - साधु : यदि साधु-समागम नहीं हो तो इन अहिंसादि धर्मो की साधना की प्रेरणा- प्रोत्साहनसमझ वगैरह कहाँ से मिले ? साधु महाराज शास्त्र सीखे हुए होते हैं और स्वयं अपने जीवन में उच्च कोटि की साधनाएँ करते होते हैं अतः उनके विशाल अनुभव एवं ज्ञान में से बानगी मिल सकती है, और उसका असर भी होता है । अत: जैसे दवा के लिए डॉक्टर के पास जाना पडता है वैसे धर्म के लिए साधु के पास जाना पडता है। पिता ने मानभट को गाँव लाकर वैद्य से दवा करवा कर उसे स्वस्थ किया । मानभट के गाँव में गीत-गान धर्मनन्दन आचार्य महाराज राजा पुरंदरदत्त से वहाँ सभा में बैठे हुए मानभट के घमंडीपन की कहानी कह रहे हैं। अब आगे वर्णन करते हुए वे फर्माते हैं कि मानभट अच्छा होने के बाद उस गाँव में अपने माता-पिता तथा पत्नी के साथ रहता है। इस बीच गीत - गान और मौज के दिन आते हैं अतः हर गाँव की तरह यहाँ भी मानभट के साथ जवान लोग अपनी पलियों सहित गाँव के बाहर एकत्रित होते हैं । मधुर पेय पीकर तरह तरह के मजे उडाते हुए एक ऐसी क्रीडा शुरु करते हैं कि 'पेड की डाली पर एक झूला बाँध कर बारी बारी से एक एक युवक बैठ, और अपनी पत्नी को ही लक्ष्य कर कविता गाना गाए, दूसरे को लक्ष्य कर नहीं। उसमें भी पत्नी को संबोधन करके गाना गाए और झूला झूले । 1 ऐसा तय करने का कारण यह है कि इससे इस बात की परख हो कि अच्छे भाग्य के मद से उन्मत्त युवक को अपनी पत्नी पर कितना सद्भाव है ? उसमें पत्नी के सौभाग्य की परीक्षा दिखाई दे । उत्तम सौभाग्यवाली हो तो पति के मन में उसे अच्छा स्थान मिला हो अतः पति उसे सुन्दर सुन्दर विशेषणों से संबोधित करके गाए । जबकि यदि ऐसा न हो तो पति हृदय में दुर्भाव होने के कारण ऐसे विशेषण न बोले और सामान्य अथवा तुच्छ विशेषण बोले । हृदय में हो वैसा होठ पर आए न ? मन में सो मुँह पर। यहाँ पूछिये न कि Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुटुंबी का बुरा क्यों बोला जाता है ? प्र. लेकिन मन में अरुचि होत हुए भी यहाँ लोगों के बीच उसे छिपाने और शाबाशी पाने के लिए तो अच्छे विशेषण इस्तेमाल करने का दम्भ करें न? फिर हृदय में हो वैसा होंठ पर कहाँ आया? उ. परन्तु मानव हृदय की एक बात समझना जरुरी है कि हृदय में यदि किसीके प्रति विरोध की भावना हो तो उसकी हलचल और असूया असहिष्णुता उसे चैन नहीं लेने देती। वह 'बाहर बुरा दिखाई देगा तो?' - इसकी परवाह मिटा कर जिसके प्रति विरोध है, जिस पर अभाव-दुर्भाव है उसके विषय में बुरा बोलने को बाध्य करती है। इसीसे आज देखते है न कि घर के व्यक्तियों की बुरी बातें पडोसी या मित्र सगे-स्नेहियों के सामने कितनी भरपूर होती है ! बाप बेटे की और बेय बाप की निंदा करता है। भाई भाई की, सास बहू की, और बहू सास की निंदा करती है। यह चल ही रहा है न? इसलिए युवकों ने मौज की मौज और परीक्षा की परीक्षा इस तरह झूला झूलने और गीत गाने का कार्यक्रम बनाया है। इस तरह गाना शुरु हुआ। हर एक आदमी अपनी पत्नी के सामने ही गीत गाता है। उसमें कोई 'गोरी' कह कर तो कोई 'श्यामलागी' कह कर संबोधित करता है। कोई 'कोमल अंगवाली कोमलांगी' तो कोई दूसरा 'नील कमलाक्षी - नील कमल जैसे नेत्रोंवाली' कह कर संबोधित करता है। इस तरह क्रम में मानभट की बारी आई । वह झूले पर चढ कर गाता है - 'मधुर ध्वनि से कुपित हुए भौंरों की झंकार से मनोरम बनी हुई इस वसन्त ऋतु के समय कमल के समान नयनोवाली मुग्धा-श्यामा से मिलन हो तो कैसा? अर्थ का अनर्थ : ज्योंही उसने ऐसा गाया त्यों ही हर आदमी क्या बोलता है, यह सुनने के लिए ताक कर बैठी हई स्त्रियों ने यह सुनते ही मानभट की स्त्री की ओर देखकर हँस दिया और उसकी तर्जना-तिरस्कार करने लगी कि - _ 'अरी! अरी! ओ. ले देख! त तो गौर वर्ण की है, और तेरा पति 'श्यामा' कहता है, इससे लगता है कि इस के मन में कोई अन्य श्याम वर्णवाली प्रिय बन कर बैठी हुई, इसलिए तेरी कोई कद्र नहीं है, तू इसे प्रिय नहीं लगती, अत: तुझे भूल कर उसको मन में रख कर यह गाता है। अतः तुझे तो ऐसा देखना पडे इससे मरना बेहतर है।' स्त्रियों की इन वचनों से मानभट की पत्नी को बहुत बुरा लगा। उसके मन को हुआ. कि 'अरे! मेरे पति ने सखी-जनों के सामने मेरी शोभा नहीं रखी। ओह ! कैसी इनकी निर्दयता? कैसी कठोरता ? कैसी स्नेहहीनता ! कैसी निष्ठुरता ! यदि ऐसा ही है तो मुझे भी जीकर क्या करना है ? भाड़ में जाए ऐसा जीवन ! तो अब मैं आत्महत्या ही कर लूँ।' अर्थ के अनर्थ में से कुमत :कैसी गलतफहमी ! दरअसल मानभट को न तो पत्नी से मनमुटाव है न उसके Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन में कोई अन्य स्त्री है। तो फिर यह 'श्यामा' क्यों बोला? इसलिए कि 'श्यामा' का अर्थ पत्नी भी होता है । अत: यह अपनी पत्नी को लक्ष्य कर के ही यह शब्द बोलता है। फिर भी यहाँ भोली स्त्रियों ने अलग ही अर्थ लगाकर कैसा अनर्थ मचा दिया? अब अनर्थ की परंपरा कैसी जारी रहती है सो आगे देखने में आएगी। लेकिन देखने की बात यह है कि केवल एक शब्द का अनुचित अर्थ ले कर कितना अनर्थ मचता है। अर्थ में से अनर्थ इसी का नाम है। इसमें से तो कितने ही कुमत प्रस्फुटित हुए। दिगम्बर मत कैसे निकला और कहाँ भूला? शास्त्र के शब्दों के भी अनुचित अर्थ लेने से महा-अनर्थ मचते हैं । शिवभूति शास्त्र में लिखित 'जिनकल्पी' मुनि के आचार की बात का अर्थ 'सब मुनियों के ऐसे आचार' ऐसा कर के 'महामुनि नग्न रहते हैं वैसे सभी मुनि नग्न क्यों न रहे? यह मुद्दा आगे कर के गुरु से लडा! और स्वयं नग्न होकर निकल गया तथा दिगम्बर मत का प्रवर्तक बना! यह अर्थ में से अनर्थ ! उसने यह नहीं देखा कि जिनकल्पी मुनि तो उत्कृष्ट संघयण और वैसी शक्तिवाले होने से इस तरह उत्कृष्ट चारित्र पाल सके, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि उस से नीचे का मध्यम और जघन्य स्तर का चारित्र ही न हो। जैसे संसार के पाप व्यापारों का द्विविध - त्रिविध त्याग करने से कामचलाऊ सामायिक-देशचारित्र आ सकता है, जैसे जीवन भर और त्रिविध-त्रिविध त्याग करने से जीवन पर्यंत का सर्वविरति सामायिक-सर्वथा चारित्र बन सकता है, ऐसे आगे श्राक्क के लिए हिंसादि पापों का अंशतः त्याग एकविध एकविध, एकविध द्विविध... आदि प्रकारों से अणुव्रत रुप में हो सकता है तो फिर उन पापों का सर्वथा त्याग त्रिविध त्रिविध करे, उसके लिए वह महाव्रत रुप में क्यों नहीं हो सकता? अलबत्ता, इसमें वह उसमें वह थोडे से सादे वस्त्र और पात्र रखे परन्तु यह कोई परिग्रह नहीं बन जाता । अन्यथा दिगंबर मुनि के भी कमंडल और मोरपिच्छी और आखिर काया भी होने के कारण यह भी परिग्रह गिना जाने पर उसका भी चारित्र कहाँ रहा! अरे! अगर वस्त्र-पात्र रखने मात्र से मूर्छा करानेवाले माने जाएँ, और उन्हें परिग्रहरुप कहें तो स्व-शरीर भी रखने मात्र से मूर्छा का कारण माना जाय, और परिग्रह रुप हो। और इस तरह तो दीक्षा लेते ही आत्महत्या करनी पडे। नहीं तो फिर चारित्र ही नहीं। शिवभूति ने अप्रस्तुत अर्थ कर के कितना अनर्थ सिर पर लिया कि चारित्र में वस्त्र नहीं, और स्त्री से वस्त्र के बिना नहीं रहा जा सकता अतः चारित्र नहीं । फलतः सारी साध्वी-संस्था उडा दी। नतीजा ? भगवान का संघ तो चतुर्विध-साधु-साध्वी श्रावकश्राविका, लेकिन इस नूतनपंथी दिगम्बरों के त्रिविध संघ रहा। उपरांत वस्त्र-पात्र उडा देने से आचारांग आदि सब आगम उडाने पडे - सो अलग। अर्थात् उन के लिए गणधर वचन झूठे और इनके नये रचे हुए सच्चे। कैसा न्याय ? गलत अप्रस्तुत -अर्थ लेने से अनर्थ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैदा होते हैं । कानजी स्वामी का मत यह देखना भूल गया कि व्यवहार नय को असद्भूत कहा है सो निश्चय नय की तुलना में वैसे निश्चय नय के धर्म तक पहुँचाने वाला तो व्यवहार धर्म ही है । व्यवहार से रसत्याग करते जाओ तो एक दिन अन्तर से रस का राग छूटेगा। घीकेले और मेवा मिठाई उडाते रहो और मान कर चलो कि 'यह तो पुद्गल पुद्गल को खाता है, आत्मा पर उसका कोई प्रभाव नहीं पडता ।' एक द्रव्य दूसरे द्रव्य को कुछ नहीं कर सकता इतनी मान्यता मात्र से कोई राग नहीं छूट सकता। राग है इसीसे तो नीरस को छोड रसमय को पकडते हो । इस तरह व्यवहारतः त्याग करते करते अन्तर से नीराग - दशा आएगी; इस द्रष्टि से व्यवहार मार्ग असद्भूत - झूठा नहीं, निकम्मा नहीं, बल्कि सद्भूतसच्चा उपयोगी नय है । कहा है कि उचित व्यवहार आलंबने, स्थिर करी मन परिणाम रे सांसारिक जीवन में कितने ऐसे उदाहरण मिलते हैं कि व्यवहार का अभ्यास करते करते आन्तरिक मन स्थिर बनता है। लडका जबरदस्ती से भी स्कूल जाने लगे तब बादमें उसके अन्तर में विद्याभ्यास की रुचि जागती है । कुमित्र के आग्रह से पहले बीडी - शराब की आदत डालने के बाद भीतर उसकी तलब पैदा होती है। वैसे ही बाह्य त्याग क्रियाएँ - आदि व्यवहार अपनाने से मन में निश्चय नय के मोक्षमार्ग की झलक उठती है। अर्थ का अर्थ करने से कैसी बड़ी गलती हो जाती है ! मानभट की पत्नी को अर्थ का अनर्थ : ... कहिये, शास्त्र के गलत अर्थ - अघटित अर्थ करने से कितने कितने अनर्थ पैदा होते हैं ? यहाँ भी मानभट के 'श्यामा' शब्द का अनुचित अर्थ कर गाँव की स्त्रियों ने उसकी पत्नी को बहका दिया तो अब देखना कि कैसी अनर्थ की परंपरा शुरु होती है । यहाँ एक प्रश्न उठता है कि प्र. स्त्रीयाँ बेचारी भोली, अतः 'श्यामा' का उन्होंने सीधा अर्थ 'काली' किया । इसमें अनुचित किया कैसे कहलाएगा ? उ. लेकिन यहाँ यह समझना है कि ऐसा अर्थ कर के झूठा बहकावा देने में केवल भोलापन नहीं काम करता, किन्तु उपहास करने - मजाक करने मजाक उड़ाने की मन दुष्ट वृत्तियाँ काम करती हैं । कुमत गढनेवालो ने भी ऐसी मलिन वृत्ति से प्रेरित होकर ऐसे गलत अर्थ - अप्रस्तुत अर्थ किये हैं। इसकी जाँच करें, तो पता चलेगा । मताग्रह के पीछे कौन सी वृत्ति ? शिवभूति ने वस्त्र पात्र से रहित चारित्र का ही आग्रह क्यों रखा ? कारण, उसकां प्रिय रत्नकंबल गुरु ने राग का कारण देख कर फडवा डाला । यह बात उसे खटकी। वह ३२ - Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छिद्र खोजता था । रोष और अभिमान काम कर गये । मूर्ति उड़ानेवाले को नये मत का प्रणेता बनने का लोभ जगा था गौतम बुद्ध को पहले ग्रहण किया हुआ जैन चारित्र और तप कठिन लगा; अब उसे छोड़ कर कष्टरहित ससम्मान जीवन कैसे जीना ? अतः कमत खोज-निकालना ही रहा । निश्चय पंथी को भी चारित्र-तप आदि के कष्ट अच्छे नहीं लगे, नहीं पाले जा सके, अतः उन्हें छोड़ कर समाज में बुद्धिमान् विद्धान कैसे कहलाना ? तो निकालो कुमत । जान बूझकर-सोद्देश्य - अर्थ के अनर्थ करने में दुष्ट वृत्तियाँ काम कर रही होती हैं। मानभट की पत्नी आगे बढ़ती है। . मानभट की पत्नी को गांव की औरतों के उकसाने से ऐसा प्रतीत हुआ कि 'मैं गौर वर्ण की हूँ तो भी पति 'श्यामा' संबोधन कर किसी अन्य काली स्त्री को प्रिय बना रहा है, सो यह निर्दय है, नि:स्नेह है। ऐसी स्थिति में जीना व्यर्थ है।" ऐसा मान कर, जरा अँधेरा होने पर वह वहाँ से उठ कर चली । सोचती है कि - 'कहीं आत्महत्या कर के शांति पाऊँ ?' इधर देखती है, उधर देखती है, लेकिन वहाँ बहुत लोग इकट्ठे हुए हैं, अतः एकान्त स्थल नहीं मिलता, तो कोई वहाँ देख ले तो वह कैसे फाँसी खाने देगा? अतः 'यहाँ तो फाँसी खाना संभव नहीं, आगे जाकर 'यहाँ भी नहीं' और आगे जा कर - 'यहाँ भी नहीं' ऐसा करते करते आखिर हारकर घर पहुंची। __घर के आगे के हिस्से में सास है। वह पूछती है 'बेटी ! अकेली कैसे? तेरा पति कहाँ हैं? यह कहती है - "वे आ रहे हैं।' बस, यह कह कर वह दूर - पीछे के हिस्से में सोने के कमरे में घुसी। अन्दर जा कर गले में फाँसी डालती है। पीछे धीरे से घोषित करती है -' हे लोकपालकों ! सुनो ! मैंने आज तक अपने पति को छोड़कर अन्य किसी भी पुरूष की मन से भी इच्छा नहीं की है; जबकि पति ने मेरे प्रति ऐसा बर्ताव किया है, अत: अब मैं आत्महत्या करती हूँ। और कृपा कर आप मेरा यह साहस मेरे पति से कह दीजिएगा।' इतना कह कर उसने गले में फाँसी खींची, साँस रूकी, गात्र शिथिल पड गये। फाँसी क्यों खायी? कितना साहस ? ऐसा क्यों? मानभंग खटका। मैंने इतना अखंड प्रेम धारण किया, दूसरे किसीसे प्रेम न कर अकेले इनसे प्रेम किया, और इन्हें इसकी कद्र नहीं ?' कद्र न होने की यह भावना उभर आयी। यह एक कारण । दूसरा कारण यह कि 'इतने सारे लोगों के बीच मैं तिरस्कृत हुई ?' यह मानभंग का प्रसंग उपस्थित हुआ। अपने त्याग का मूल्य नहीं, और लोगों में अप्रतिष्ठा, इन दोनों के विचार इतने प्रबल हो गये कि उसने इस मूल्यवान् जीवन को भी निकम्मा करार दे दिया। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनुष्य प्राणों की रक्षा सगी पत्नी या पुत्र की कीमत पर भी करता है। मकान में आग लगी हो, पत्नी और पुत्र के जल मरने का डर हो क्योंकि वे चौथी मंजिल पर सोये हुए हों और खुद पहली मंजिल पर सोया हो, और बीचकी सीढियों में तथा मंजिलों में आग फैल गयी हो, तो स्वयं क्या करेगा! चौथी मंजिल पर उठाने जाएगा? नहीं बाहर निकलकर रास्ते पर गदेला का ढेर लगाकर जोर से चिल्लाएगा, 'अरे जागो ! कूद पडो ।' क्यों लेने नहीं जाता? अपने प्राण ज्यादा प्यारे हैं। उन्हें खोकर बेटे-बेटी या पत्नी की रक्षा करने नहीं जाना है। लेकिन यहाँ प्राण खो कर भी यह बेकद्री और अपमान न देखना पड़े सो करना है। मूल्यवान क्या है ? प्राण मूल्यवान हैं या मान और कद्र का अहंत्व ? कहिये कि, मान के गुलामों के लिए मान का मूल्य अधिक है, जबकि जीवन सुकृतों से भरा-पूरा बने इसकी महत्ता को ज्यादा आँकनेवालों को मान से बढ कर प्राण अधिक मूल्यवान् लगते हैं, इसलिए तो देखिये - श्रीपालकुमार के साथ युद्ध में उनके चाचा अजितसेन की हार हुई तो मान भंग हुआ क्योंकि चाचा ने प्रपंच रचकर बालक श्रीपालकुमार का राज्य हथिया लिया था, परन्तु जब श्रीपाल. वयस्क हो कर आये हैं और दूत के द्वारा आदरपूर्ण शब्दों में चाचा को संदेशा भिजवाया है कि - 'चाचाजी ! आपने अब तक राज्य सम्हालने का कष्ट उठाया सो आपका मैं उपकार मानता हूँ। अब मैं बड़ा हो गया हूँ - अतः आपको कष्ट मुक्त करता हूँ। राज्य मुझे सोंप दीजिये । आप शान्ति से बैठिये ।' चाचा का अभिमान लेकिन घमंड में चढ़े हुए चाचा भला यह माने ? उन्होंने तो श्रीपाल को तुच्छ मान कर, निर्बल मान कर दूत को दुत्कार दिया । और युद्ध हो तो श्रीपाल को चुटकी में हराकर दूर निकाल देने की सोची। सोचिये, दिमाग में कितनी राई भरी होगी अब तुच्छ माने हुए श्रीपाल से ऐसे घमंडी को हार खानी पडी; तब उस चाचा को मानहानि कितनी अखरती होगी? उसके मन को ऐसा लगे कि - 'अररर ! इतने सारे राजाओं के सामने मैं अपमानित हुआ। तो अब मैं क्या मुँह दिखाऊँ ? इस अपमान में अब कैसे जीना ? इससे तो बेहतर है कि आत्महत्या ही कर लूँ। मानहानि से तो प्राणहानि अच्छी, जिससे मरने के पश्चात् मेरे प्रति लोगों की तिरस्कारपूर्ण द्रष्टि का सामना तो न करना पड़े। चाचा की विवेकपूर्ण बुद्धि लेकिन चाचा अजितसेन ने विचार की दिशा बदल दी; क्योंकि अब वे समझते हैं . कि 'मान-रक्षा के मूल्य से मानव-जीवन बहुत अधिक मूल्यवान है, अतः मान की रक्षा के लिए जीवन का नाश नहीं होना चाहिए। क्योंकि अनेकानेक सत्कृत्य महात्याग, महान तप, Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महान संयम - आदि करने का विश्व में एक अनन्य साधन है । आत्महत्या बुरी क्यों ? मानव जीवन सुकृतों की बुवाई के लिए विश्व में बेजोड क्षेत्र है । साथ ही एक मानवजीवन ही जबरदस्त पापों के निराकरण के समर्थ - श्रेष्ठ पुरूषार्थ स्थान है। ऐसा अद्भुत जीवन तुच्छ मान की कल्पना में कैसे खो डालें ? 'हाय ! मेरी बेइज्जती हुई, अब जिंदा रहकर लोगों को क्या मुँह दिखाऊँ ? अतः मर जाऊँ ! ऐसी अज्ञान मान्यता में मरजाने से तो जीवन को सुकृतों से पूर्णतः भर देने का स्वर्णिम अवसर ही जाता रहा। और बाद में तो उत्तम मानव-भव मिलना कहाँ रास्ते में पड़ा है ? मानरक्षा तथा आत्महत्या परलोक में कोई सुफल नहीं देती। ये तो असंख्य निम्न कोटि के जन्म दिलाती है और मान में मरने का कारण बनती हैं। जब कि जीवन बचा कर उसमें पापों का निष्कासन और सुकृतों का संचय साधा गया हो, वह भविष्य के अनन्त काल को सुधार देता है । अतः यह जीवन बचाये रखना चाहिए । फिर उसमें मानहानि भोगनी पडे तो हर्ज नहीं, उसका कोई महत्व नहीं । जीवन साधु का बना देने के बाद तो मानापमान में समबुद्धि आ जाती है। देवगुरू धर्म और स्वात्मा के महत्व आगे अपने मान या अपमान की कोई महत्ता नहीं लगती ।' पराजित चाचा चारित्र में : अजितसेन को ऐसी बुद्धि आयी, फलतः उन्होंने उसी समय संसार - त्याग कर अनगार- मुनित्व अंगीकार कर लिया, और ध्यानस्थ खड़े रहे गये । मान के कारण जीवन नाश अधम कक्षा में धक्के खाने बाल अज्ञानी जीवों का तरीका है । जीवन को सुरक्षित रखकर तप - संयम आदि की साधना करने की पद्धति उच्च कक्षा के सुबुद्ध जीवों की है । संयमादि मानवभव में ही : क्योंकि ये सुबुद्ध जीव समझते हैं विशाल जगत में द्रष्टि फैलाए तो दिखाई देता है कि मानव भव के सिवा दूसरा कौनसा अवतार है जिसमें तप, त्याग, संयम, तत्त्वचिंतन देव - गुरु भक्ति आदि अनेकानेक साधनाएँ हो सकती है ? कौन यह करता दिखाई देता है ? . पशु.... पक्षी - कीडे ? नरक के जीव ? कोई नहीं। यह संयमादि तो मनुष्यों को हीरा है। .... देवता अधर्मी नहीं हैं, किन्तु..... प्र. - तो क्या देव आदि अधर्मी ही हैं ? ३५ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. - नहीं, ऐसा नहीं कह सकते। इससे धर्मात्मा देवों की आशातना लगती है। देवता भी सम्यक्त्व-धर्म तक चढ़ सकते हैं । पर उसके आगे विरति - धर्म में नहीं, जबकि पशु-पक्षी पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीव देशविरति धर्म तक चढ़ सकते हैं, परन्तु सर्व विरति - धर्म में नहीं, तब क्या यहाँ का, सर्वविरति धर्म तक चढने में समर्थ, मानव जीवन खोकर, उस के बाद देवभव या तिर्यंच-भव में जाकर धर्म करने की आशा रखें? पर यह तो कहिये कि यहाँ धर्म की साधना किए बिना किस बते पर देवभव मिलेगा? अतः हाय! हाय ! मानहानि का विषाद आदि से यदि तिर्यंच का भव मिला तो क्या वहाँ जातिस्मरण ज्ञान होनेवाला है ? और सद्बुद्धि आनेवाली है ? या फिर ऐसे ही अज्ञानी विवेकहीन पशुजीवन में अपने आप पाप-अधर्म सूझेंगे? यहाँ समझाने वाले गुरु हैं, समझने योग्य बुद्धिबल है, धर्म-साधना करनेवाले अनेकों के उदाहरण-आलंबन रुप द्रष्टि समक्ष दिखाई देते हैं, फिर भी धर्मबुद्धि स्फुरित नहीं होती तो बाद में इन से रहित पशु अवतार में कहाँ से स्फुरित होगी? जीते, जागते सोते क्या करते रहना ? :__ अर्थात बुद्धि तो यह होनी चाहिए कि 'सुकृतों से जीवन को पूर्णतः भरने और पापों को बड़ी मात्रा में निकालने के लिए इस जीवन जैसा श्रेष्ठ दूसरा जीवन नहीं है। अत एव जीवन जीकर यही काम कर लेना है। प्रति दिन सुबह होने पर जागते ही यह करने की योजना की जाए, दिनभर में इसे साधने के लिए जागृति, सावधानी और पुरुषार्थ जारी रहे, रात होने पर आत्मा की तहकीकात की जाय कि कितना साधा? सुबुद्ध-अबुद्ध का अन्तर : जीवन के इन मूल्यों को समझने वाले को मान से प्राण ज्यादा प्यारे हैं, अत: मानहानि होने मात्र से वह प्राणत्याग नहीं करेगा। वह तो उलटे यह निमित्त पाकर अब जीवन में धर्म को और अधिक जगमगाएगा। जबकि इसे न समझनेवाला अबुद्ध जीव-प्राण से मान को ज्यादा कीमती समझता है, अत: मानहानि होने पर प्राणों का त्याग करने की हद तक पहुँच जाता है। मानभट की पत्नी की ऐसी हालत है। उसे यह अखर गया कि 'बस! पति ने सब के बीच मेरा मान खंडित किया? मेरी इज्जत नहीं रखी? तो अब ऐसी मानहानि को देखते रहकर क्या जीना ? इससे मरना बेहतर है।' अतः फाँसी खा ली। संसार के दो आधार :____मान मानव को कैसा मारता है ? अनन्त काल से जीव अहंत्व एवं ममत्व ('मैं और मेरा') में मरता आया है। एक तरफ दुनिया की चीजों की तृष्णा और दूसरी तरफ 'मैं पना' । इन दो मूलभूत दोषों की नींव पर जीव का संसार अखंड धारारुप चलता आ रहा है। खासियत यह है कि मौत आने पर, जिनकी तृष्णा-ममता की है, उन्हें छोडना ही पड़ता Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है और मृत्यु के सामने अहंत्व भी नहीं किया जा सकता । अन्त में तृष्णा-ममता दोनों जाती हैं, यह जानते हए भी बेबस जीव जीते जी तृष्णा-ममता, अहंता छोड़ने को तत्पर नहीं। अहंत्व की रक्षा और मान प्राप्त करने के लिए वह क्या क्या नहीं करता? मान पाने के लिए लाखों रुपये होते हैं, अहंता की सुरक्षा-रुप अपनी जिद पूरी करवाने के लिए कितना ही झूठ बोला जाता है । अहंत्व और मान ऐसा खतरनाक है कि मुनि भी सावधान न रहें तो उन्हें भी यह पछाडता है। यह अहंता और मान तभी मिटें जब हम जिनाज्ञा एवं गुर्वाज्ञा को समर्पित हो जाएँ। मानभट घर पर कब? मान में मानभट की पत्नी घर में फाँसी लगा कर मर रही है, जब कि यहाँ मानभट की झूलने-गाने की बारी पूरी हुई तब वह नीचे उतर कर अपनी पत्नी को ढूँढता है, इधर देखता है, उधर देखता है, लेकिन जब कहीं दिखाई नहीं दी तब सीधा घर आया। माता से पूछा 'यह आयी है?' माँ कहती है हाँ, वह सोने के कमरे में गयी है। अभी रात कुछ इतनी नहीं बीती है तो अकेली क्यों आ गयी होगी? और आ ही गयी तो बाहर न बैठ कर अकेली भीतर क्यों चली गयी?' ऐसा विचार आने से उसके मन को एकदम घबराहट हुई कि इसे कुछ बुरा तो नहीं लग गया? शीघ्र ही कमरे की ओर दौड़ा । जाकर देखता है तो वह गले में फाँसी खाकर बेहोश हो कर पड़ी है। उसने उसी क्षण फाँसी का फन्दा खोल दिया । उसे पुकारता-बुलाता है, हिलाता है, परन्तु वह तो न बोलती है न हिलती है। साँस जाँची तो साँस भी चलती नहीं लगी। देखते ही मानभट के होश उड गये। - 'क्या यह मर गयी? लेकिन अभी अब की ही तो बात है, अत: मर तो कैसे जाए?' इस आशा से उस पर पानी के छींटे देता है, और पंखा झलता है। मन अत्यन्त आकुल-व्याकुल है, चिंतित है कि 'अरे ! इसके ऐसा करने की वजह क्या है ? और यह जिन्दा है या मर गयी ? चित्त में जबरदस्त विषाद उत्पन्न हुआ। PROUG0000 0000000 M astome स्नेह के बन्धन प्रबल होते हैं :भले-चंगे और सुख-चैन से बैठे हुओं को भी स्नेह आखिर बेचैन बना देता है। स्नेह की अपेक्षित प्रतिध्वनि न हुई तो दुःख और स्नेह पात्र में कुछ इधर उधर हो गया तो भी मुसीबत । यहाँ पत्नी को अपने स्नेह की विपरीत प्रतिध्वनि मिलने का भास हुआ तो फाँसी ले ली; और पति को यह देखकर मानसिक क्लेश का पार नहीं है। उसे अब अपना जीवन निरर्थक प्रतीत होता है । उसको विचार आता है कि.... 'अरेरेरे ! यह बेचारी मर गयी है तो Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब मुझे भी जीकर क्या करना है ? दोनों को अस्थिर अस्वस्थ किसने बनाया ? अन्तर के स्नेह ने । स्नेह बुरा ! बडे उल्लास के साथ स्नेह करते समय चाहे मिष्ट-मधुर लगे, फिर भी स्नेह बुरा है, क्योंकि इस दुनिया में जिन्दगी जीते हुए ऐसा थोड़े ही है कि सब तरह से बराबर ही चलता रहे । सांसारिक जीवन के बीच कोई न कोई अकल्पित शब्द उपस्थित हो ही जाते हैं। ऐसा कुछ भी घटित न हो तो जगत का जीवन ही क्या ? संसार वास काहेका ? मोक्ष ही न होता ? नहीं, बहुत - बहुत पुण्य की राशि हो तो शायद जीवनभर कुछ अनिच्छनीय न बने; लेकिन मौत तो आएगी ही न ? ऐसे वक्त स्नेह से ठसाठस भरे हुए की कैसी हालत ? मानभट की दुर्दशा दिखती है न ? मान का पुतला बना था, लेकिन फिर भी अब कैसी निर्माल्य - दीन दशा हो गयी है ? पत्नी मर जाए उसमें पत्नी को कुछ मिलता है ? तो पति उसके पीछे मर जाए तो इसमें उसे कुछ मिलता है ? नहीं; चाहे कुछ मिलनेवाला न हो, लेकिन स्नेह अंधा है। वह ऐसा कुछ देखने ही नहीं देता। वह तो व्यक्ति को घडीभर ऐसा मूर्ख बना देता है, इस हद तक मूर्ख कि स्नेही के सुख को छोड, जीवन के बाकी सभी सुखों की ओर से आँखें मुँद जाती है। साथ ही, इस जीवन से जो अनेक सत्कृत्य किये जा सकें उनकी ओर भी आँखें बन्द ! कहिये, क्या स्नेह में आत्मा की उच्च दशा है या दुर्दशा ? ज्ञानियों ने स्नेह को -- प्रेम को - राग को बुरा यों ही कहा है ? नास्तिक की द्रष्टि से जीवन के दूसरे सुख खोये, चाहे आस्तिक की द्रष्टि से इसी जीवन से संभव होने वाले सुकृतों का उपार्जन खोया, उसमें अच्छी दशा कैसी ? महा दुर्दशा ही है । स्वार्थ त्याग की खोखली चतुराई : : मानव इसमें अपनी चतुराई - खूबी समझता है कि 'मै अपने स्नेही के हेतु कैसा त्याग कर रहा हूँ ?' पूछो न - प्र. - तो क्या मात्र अकेले अपने स्वार्थ में रत रहना ? 1 उ. - स्वार्थ में रत रहने की बात ही नहीं है । स्नेही के लिए आप स्वार्थ त्याग करें इसकी कद्र तो करते हैं परन्तु फिर उस पर सवाल उठते हैं, उनके जवाब दीजिये । सवाल ये हैं स्नेही के लिए स्वार्थ त्यागा करनेवाले को प्रश्न : (१) आपके स्वार्थ त्याग में स्नेही की ओर से कोई बदला पाने की अपेक्षा है या नहीं ? (२) स्नेही बदला न चुकाए तो भी आपका स्वार्थ त्याग आनन्दपूर्वक जारी रहेगा ? (३) आपकी सेवा तथा स्वार्थ-त्याग की कद्र स्नेही न करे, आपका उपकार न माने तो भी आप उत्साहपूर्वक त्याग करेंगे ? ३८ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) स्नेही आपकी सेवा की प्रशंसा तो करे लेकिन वह आपके किसी अवगुण, दोष, सख्त मिजाज आदि की निंदा भी करें, तो भी क्या स्वार्थ त्याग में आपकी रुचि उमंग पूर्ण बनी रहेगी ? (५) स्नेही आपकी सेवा का उपकार तो माने, परन्तु वह संग्रहणी- पक्षाघात जैसे किसी असाध्य रोग से ग्रस्त हो, अथवा कई कई महीने आपको उसकी गन्दगी उठानी पड़ें तो क्या आप नहीं चाहेंगे कि 'प्रभु अब इसे इस रोग से शीघ्र मुक्त करे तो अच्छा ? क्या आप इनमें से किसी एक प्रश्न के उत्तर में भी ऐसा कहने को तैयार हैं कि 'हम तो सेवा, स्वार्थ त्याग, खुशी खुशी करते ही रहेंगे या नहीं, ऐसा ही कहेंगे कि यदि ऐसा ही हो तब तो रस और उमंग कहाँ से रहे ?' यदि ऐसा ही है तो स्नेही के लिए जो बलिदान देते हैं, जो स्वार्थ त्याग करने की होशियारी मानते हैं वह शुद्ध स्नेह की खातिर कहाँ रहा ? सामने से भी कुछ बदले की अपेक्षा तो रखी ही न ? तब यह भी एक प्रकार का व्यापारी सौदा ही हुआ कि और कुछ ? व्यापारी माल दे, ग्राहक सामने से पैसे दें; इस तरह आप त्याग करें, और स्नेही भी आपकी कोई सेवा करें, आदर करे, गुण एहसान माने आदि आदि ! यह भी सौदा ही है न ? अतः 'हम स्नेही के लिए कितना त्याग करते हैं, यह होशियारी मानना गलत है । इसका एक और प्रबल प्रमाण यह है कि क्या देव गुरु आप के स्नेही हैं ? यदि आप स्नेह के लिए जबरदस्त त्याग करने को तत्पर हैं तो देव गुरु का आपके प्रति स्नेह है या नहीं ? भगवान् आपके स्नेही हैं ? साधु आप के स्नेही हैं ? (१) यदि नहीं तो आप उन के पास किस लिए जाते हैं ? कोई माल झपट लेने के लिए ही न ? उनकी कितनी सेवा कर के कितना माल झपटना चाहते हो ? यह लुटेरापन - या ठगबाजी ही है न ? (२) यदि आप ऐसा कहते हैं कि 'हाँ, हम देव गुरु को अपने स्नेही मानते हैं, तो यह बताइये कि इन उच्च स्नेहियों के लिए कितना बलिदान देते हैं ? कितना स्वार्थत्याग करते हैं ? पत्नी, पुत्रों पुत्रियों के लिए जितना करते हैं उतना ? इनमें से एक के लिए करते है उतना ? जवाब में गड़बड़ी हैं, मौन है। तो फिर 'हम स्नेह के लिए तथा स्नेही के लिए कितना सारा त्याग करते हैं, ऐसा बडप्पन मारते हो यह गलत साबित होता है न ? इसीलिए सोचनेसमझने की बात तो यह है कि - 'मैं जो हृदय में यह लौकिक स्नेह रखकर इतना बलिदान देता हूँ उस स्नेह में मेरी दुर्दशा है या उन्नति ? मैं अपने ही हाथों अपने काले भूतकाल को ताजा कर रहा हूँ ? या ३९ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके गहरे प्रभावों को हलके बना रहा हूँ ? यदि यह समझने में देर लगे तो फिर संसार के स्वार्थी, खोखले, अल्पजीवी और विश्वासघाती स्नेह-प्रेम- राग के प्रति तिरस्कार पैदा होने की तो बात ही कहाँ रही ? यदि ऐसा नहीं तो उसे छोड़ने के मनसूबे, अरमान और पुरुषार्थ कहाँ से होंगे ? पूछिये: प्र. स्नेह में दुर्दशा है यह कैसे समझा जाय ? उ. समझा जाय; इस तरह समझा जाय (१) पहली बात यह कि संसार का स्नेह जिनेश्वर देव एवं मुनि पर ऐसा स्नेह नहीं होने देगा, इसलिए वह झूठा है। देव गुरु पर प्रेम को रोकनेवाला ऐसा संसार के प्रति प्रेम दुर्दशा ही है । (२) स्नेही आप पर स्नेह करता है, इससे आप आकर्षित होते हैं और उसे स्नेही मानते हो, इसीलिए आपको ऐसा हृदयस्पर्शी अनुभव नही होता कि देवगुरु आपके स्नेही है और बार बार यह याद नहीं आता । फलतः देवगुरु के लिए ऐसा त्याग नहीं किया जाता । अतः दुनिया का स्नेह दुर्दशा है । ― (३) प्रेम का प्रारंभ करने के पश्चात् उस प्रियजन के पीछे कितनी चिंता - संतापअशान्ति और दौडधूप आदि रहा करते हैं यह सूचित करता है कि प्रेम दुर्दशा है । (४) कितने भारी परिश्रम से पूर्वभवों के स्वयं के द्वारा उपार्जित करके लाए हुए पुण्य को स्नेह की खातिर व्यय कर देना पड़ता है, ऐसा यह स्नेह आत्मा की दुर्दशा नहीं है ? स्नेह न होता तो पुण्य व्यय करके मिला हुआ माल देवाधिदेव के चरणों में न रखते ? परोपकार में खर्च न करते ? बाज़ार में कमाई करके सोने की या मोती की कंठी मालाखरीद लाओ तो उसे किसके गले में पहनाने की इच्छा होती है ? गृहिणी के या प्रभु महावीर के ? कितना अन्याय ? पुण्य दिया धर्म ने, और अब उसका माल अर्पित करना धर्म को नहीं, बल्कि प्रेमपात्रों को? (५) स्नेह के पीछे पापारंभों तथा अठारह पापस्थानकों का कितना भरपूर सेवन किया जाता है ? सारी ज़िन्दगी ! यह स्नेह क्या आत्मा की उन्नति है या अवनति ? दुर्दशा ? और भी देखिये - (६) स्नेह नश्वर पर करते हो । फिर वह स्नेह-पात्र छूट जाने पर क्या स्थिति होगी ? आपको जब उसे छोड़ जाना पड़े तब क्या हालत ? प्रेमी टेढ़ा चले तब कैसी दशा ? देखो, मानभट की पत्नी ने क्या किया ? खुद ने प्रेम किया था इसलिए फाँसी खाने तक की नौबत आयी न ? और कोई उल्टा बोला होता तो क्या वह फाँसी खाती ? नहीं, जिससे प्रेम किया वह बेकदर लगा अतः फाँसी खाई । स्नेह का ही अनुगामी परिणाम विटंबना है न ? अब मानभट उसे फाँसी खायी हुई देखकर आकुल-व्याकुल है, तो स्नेह जीव की अच्छी दशा कही जाए या दुर्दशा ? ४० Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) मतलब, सांसारिक प्रेम का परलोक में कितना कटुफल मिलता है ? देवशर्मा ब्राह्मण अपनी पत्नी के प्रति अति स्नेह में मरकर पत्नी के सिर के बालों में जू बना । ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती मरकर सातवीं नरक में गया । वहाँ भी अपनी पटरानी को 'हे कुरुमती ! हे कुरुमती!' पुकारकर याद करता है। प्रेम के पीछे जीव पापमय विचार-वाणी-व्यवहार से मानव-भव से भ्रष्ट होकर चौरासी लाख योनिमय संसार में भटकते हैं । सांसारिक प्रेम आत्मा की दुर्दशा है। स्नेही के पीछे त्याग करने में बद्धि : इसलिए 'क्या प्रेमी के लिए त्याग करना ही नहीं ?' इस प्रश्न का उत्तर यह कि 'त्याग स्नेह के लिए नहीं बल्कि सिर पर आये कर्तव्य-भार का वहन करने के लिए एक धर्मात्मा के तौर पर औचित्य हेतु, और उसको धर्म में जोड़ने के लिए करना चाहिए। अन्यथा सांसारिक स्नेह अन्तर में धारण करने योग्य नहीं है। कहते हो न? समकित-द्रष्टि जीवड़ो, करे कुटुंब-प्रतिपाल ___अन्तर से न्यारो रहे, जिम धाव खेलावत बाल क्या धाय माँ राजपत्र को नहीं पालती? फिर भी उस पर अपने पत्र जैसा स्नेह नहीं होता । केवल आजीविका के हिसाब से नौकरी करती है। स्वावलंबी बनने पर छोड़ने में जरा भी झिझक नहीं, हिचक नहीं । ऐसे सम्यक-द्रष्टि जीव बनना चाहते हो? तो कुटुंब का भरण-पोषण करते हुए भी अन्तर में स्नेह नहीं रखना । स्नेह वीतराग से, त्यागी गुरु से, संघ साधार्मिक से करो । शक्ति आने पर स्नेह के बिना पाले हुए उस परिवार को छोड़ जाने में कोई हिचक नहीं होंगी। ऐसे स्नेह-रहित पालन में कुटुंब को आत्मकल्याण में जोड़ना ही प्रधान उद्देश्य बन जाएगा। मानभट की पत्नी जीवित है : पत्नी को निश्चेष्ट देखकर मानभट का चित्त व्याकुल हो रहा था, लेकिन आशा तो मरी नहीं थी। वह पानी छाँटता है, हवा करता है, और शरीर को दबाता है,- ये क्रियाएँ जारी हैं। इस बीच थोड़ी देर में पत्नी का अंग फड़का। वह मर नहीं गयी थी। साँस सँध गयी थी, और अंग शिथिल पड गया था। लेकिन अभी भीतर प्राण विद्यमान थे। ठंडक तथा हवा मिलने से चेतना धड़कने लगी, साँस चलने लगी, होश आ गया। यह देख मानभट के जी में जी आया । लगा 'अहा ! जीवित है, यह अच्छा हुआ वरना मैं जरा सा देर से आता तो आज काम तमाम हो ही गया था। पत्नी भी मर जाती और उसके बाद मैं भी मर जाता । ऐं ! क्षण भर की देर में काम तमाम ? : हाँ, बाज़ार में भाव में तेजी आते ही सौदा पटा दिया तो वाह वाह ! और क्षणभर सोचता रहा और इतने में भाव गिर गये तो खेल खतम ! ऐसा होता है न ? घर पर जरा सोच-विचार में रह कर स्टेशन पर क्षणभर देर से पहुंचे और गाडी चल दी तो रह जाना पडे Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न? या आप को लेने गाडी वापस मुडे ? यह मानव जीवन का समय भी अनन्त काल के बीच क्षण के समान है। उसमें 'धर्म आज करता हूँ, कल करूँगा' ऐसे सोचते रहे और जीवन समाप्त हो गया या किसी दुर्घटना आदि के शिकार हो गये तो खेल खतम । मौका हाथ से निकल गया। अब, बूँद की बिगड़ी, हौज से नहीं सुधरती । ऐसे अल्प मानव-काल में भी जो बिगाड़ा सो अन्य जन्म के दीर्घ काल में भी नहीं सुधरता । धर्म के बिना किस आशा में बैठे बैठे जीवन व्यर्थ खो रहे हो? तन-मन-धन तथा वचन के दुष्कृत खूब करते जाना है, और थोड़े से सुकृतों का भी अवकाश नहीं है? मौत नहीं आएगी? भवान्तर में ले जाने के लिए सुकृतों की जरुरत नहीं है ? (१) तन से सेवा, कृतज्ञता, दया, त्याग-तप-व्रत-नियम, देवगुरु भक्ति; (२) मन से सद्भावनाएँ, सुविचार, विराग-उपशम; (३) धन से दान-परोपकार, सात-क्षेत्रों की भक्ति और (४) वचन से दूसरों का गुणानुवाद, परमात्म गुणगान, सत्य, सहानुभूति, शास्त्र-स्वाध्याय, स्तोत्र, आदि सुकृतों के लिए जीवन में फुरसत नहीं, परवाह नहीं, और दुष्कृत्य सतत, लगातार करते ही जाना है । क्षण भर देर की और यहाँ से रवाना हो गये तो फिर खेल कैसे खतम हो जाएगा? आगे परलोक का काल कैसा है ? कितना अंधकार पूर्ण ? कितना दुर्दशापूर्ण ? मानभट पूछता है, परन्तु : मानभट को लगता है कि 'यदि जरा सा देर से आता तो यहाँ मामला खत्म ही था। चलो, अच्छा हुआ कि वक्त पर आ गया, और यह जी गयी।' वह पछता है पत्नी से 'सुन्दरी ! इतना सारा साहस करने की क्या वजह? किसने तेरा क्या कसूर किया है?' पत्नी, रोष में भर कर बोली, 'मुझ से क्या पूछता है ? वहाँ जा, जहाँ तेरी श्यामांगी रहती हो।' मानभट कुछ समझा नहीं 'कौन श्यामांगी?' अत: बोला - 'अरे! मैं तो जानता ही नहीं, कि कौन है यह श्यामांगी? - श्याम अंग वाली ?' पत्नी कहती है 'ए ! नहीं जानता ? तो क्या आज गीत में व्यर्थ ही उसका नाम लिया था?' __ इतना कह कर वह चुप बैठी। वह बहुत स्पष्टीकरण करता है - "नहीं, नहीं. मेरे मन में दूसरी कोई स्त्री नहीं है । गीत में मैने किसी अन्य को संबोधित नहीं किया । तुझे ऐसा वहम कहाँ से हआ?' लेकिन इसके मन में तो 'श्यामा' शब्द घुस बैठा था, और गाँव की स्त्रियों से भी उसे यही अर्थ 'श्यामवर्णवाली' - ऐसा मिला था, अत: निश्चित मान रही है कि, 'अब यह अपनी बात छिपाता है, मन में किसी दूसरी पर राग है; फिर भी कबूल नहीं करता और बातें बनाता है। इसलिए कोई उत्तर नहीं देती, चुपचाप उदास बैठी है। अब एक शब्द भी नहीं Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोलती । स्नेही से बढ़कर लोगों का कहा विश्वसनीय ! प्र. तो क्या मानभट यह स्पष्टीकरण न दे कि मैंने 'श्यामा' कहा था सो सिर्फ स्त्री के अर्थ में तुझे ही संबोधित कर कहा था ? उ. स्पष्टीकरण दे तो भी क्या ? इसके मन में गाँव की स्त्रियों का लगाया हुआ अर्थ पहले ही जमा बैठा है सो कैसे निकले ? ऐसा तो कितनी ही बार बनता है कि लोगों के वचनों पर विश्वास बैठता है उतना स्नेही के स्पष्टीकरण पर नहीं । यह मोह की कुटिलता है कि वह भले आदमी का भी सिर फिरा देता है तो सामान्य आदमी का तो बूता ही क्या ? रामचंद्रजी तक भूल कर बैठे थे न ? उन्होंने सीताजी को पवित्र होते हुए भी लोक वचन के कारण ही वन भेज दिया था न ? तो जब इतने बड़े भी भूल करते हैं तब यह मानभट की पत्नी भूल न करे ? वह पति का स्पष्टीकरण मानने को तैयार नहीं है और रोष में चुपचाप बैठी है। अतः मानभट को ऐसा मालूम हुआ कि 'आह ! यह कोपायमान हो गयी है। अब यह कोप कैसे उतारा जाए ? क्या करूँ ? यहाँ नीतिशास्त्र कहता है कि 'बहुत क्रोधित हुई युवती - पत्नी को पैरों पड़कर भी मना लेने में हर्ज़ नहीं ।' अतः मानभट पत्नी से कहता है - मानभट मान छोड़ता है : 'ले, ले, अब मेहरबानी कर । मेरी स्वामिनि ! दया कर! क्यों व्यर्थ वहम कर मुझ पर क्रोध करती हो ? देख, यह गर्व से अकड़ा हुआ मेरा सिर तेरे चरणों में झुकता है।' ऐसा कहते ही वह पत्नी के पैरों पर सिर रख देता है। ग्रन्थकार निम्नलिखित शब्दों में मानभट की प्रार्थना लिखते हैं : 'दे पसिय पसिय सामिणि ! कुणसु दयं कीस में तुमं कुविया ? एयं माणत्थद्धं सीसं पायेसु ते पडड़ ॥' मानभट पैरों पड़ता है फिर भी पत्नी दुगुने रोष से मौन धारण करती है, तब मान का पुतला यह मानभट घमंड में चढ़कर सुना न दे ? क्या सुनाए ? आपको आता है न ? 'ऐ ! मैं अपना कोई कसूर न होते हुए भी इतना इतना गिड़गिड़ाता हूँ, पैरों पर सिर रखता हूँ और तुझे कुछ नहीं पड़ी है ? चल, उठ, खड़ी हो जा, कोई अच्छा पति ढूँढ ले.... ।' ऐसा ही कुछ न ? लेकिन नहीं, इसके जाने के बाद मेरा क्या होगा ? ऐसी स्वार्थ की लार टपकती है। न ? इसलिए कैसे सुनाया जाय ? मानभट भी ऐसे ही किसी विचार से अब भी पुनः पत्नी के आगे गिड़गिड़ाता है 'मानिनी ! मैंने बड़े बड़े राजाओं को भी यह सिर नहीं झुकाया। युद्ध में तलवार ४३ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाले के घाव से अंग जर्जरित होने पर सिर नहीं झुक पड़ा। आज तुझे तिगुना झुक रहा है । सुन्दरी ! समझ ले कि तेरे सिवा किसी और के पैरों पड़ कर मैं नहीं झुका, वह मैं तुझे झुकता हूँ । अतः गुस्सा भूँक दे ।' क्या सचमूच देवगुरु को हृदय - पूर्वक गिड़गिड़ाते हो ?: संसार की लीला कितनी विचित्र है ? किसी को नहीं झुकनेवाला मानभट पत्नी के पैरों पड़ता है । इतना हृदयपूर्वक प्रभु के आगे झुकना - गिड़गिड़ाना, और गुरु के आगे झुकना, गिड़गिड़ाना आपको आता है ? आप झुकते हैं, यह मुझे मालूम है, लेकिन दिल से ? मानभट कैसे दिल से झुकता है । 'मैं पत्नी प्रेम के बिना बहुत दुःखी हो गया ।' ऐसा उसे लगा इसलिए नम्र बना है ? प्रभु का प्रेम प्राप्त न होने का खेद है ? क्या हमें कभी इस बात से बहुत दुःखी होने का अनुभव हुआ है कि हम पर प्रभु का प्रेम नहीं है । गुरु प्रेम के अभाव में ऐसा लगा है ? लगा होता तो देवाधिदेव के आगे और गुरु के आगे कैसे दीन हृदय से गिड़गिड़ा कर प्रार्थना करते ? प्रभु के सामने चैत्यवन्दन, स्तवन, स्तुति करते हो तब क्या सचमुच ऐसे दिल से करते हो ? इसमें भी ये स्तुतियाँ आदि सब कवियों की रचनाएँ, अतः किसीके काव्यमय शब्द बोलते हो, परन्तु अपनी चालू भाषा में - रोजमर्रा की बोली में - अपने हृदय के ऐसे वेदनामय गद्गद् उद्गार क्या प्रभु को सुनाते भी हो ? गुरु के आगे भी ऐसा करते हो ? इसमें परीक्षा होती है कि हमारे हृदय को देव गुरु के प्रेम के अभाव में दुःख - दैन्य जैसा लगा करता है या नहीं ? प्र. क्या देव गुरु प्रेमरहित होते हैं ? उ. देवाधिदेव और गुरु-साधु तो सब जीवों पर कृपा करुणा, प्रेम वात्सल्य वाले ही होते हैं । लेकिन जब तक हमारा दिल न कहे कि 'अहा...हा हा हा ! मुझ पर देवगुरु की तो कितनी सारी कृपा - वत्सलता और मेहर बरस रही है !' दिल में ऐसा न लगे तब तक उनकी विद्यमान वत्सलता भी हमें क्या काम लगेगी- क्या समझ में आएगी ? हमारे हृदय में इसकी संवेदना होनी चाहिए। यह न हो तो उसकी आशंसा के रुप में हम आजीजी करें - गिड़गिड़ाएँ कि 'प्रभु! मुझ पर कृपा कीजिए। मैं आपकी कृपा के बिना मर रहा हूँ । दया पात्र हूँ दया कीजिए।' 'लोगस्स' सूत्र में 'चउवीसं पि जिणवरा तित्थयरा मे पसीयंतु' बोलते हो न ? वह क्या है ? प्रभु के प्रसाद, प्रभु की कृपा के लिए हमारे हृदय की तीव्र आशंसा-अपेक्षा-अभिलाषा की अभिव्यक्ति । बात यह है कि हमारे मन को लगना चाहिए कि 'प्रभु के प्रसाद अर्थात् प्रभाव के बिना कुछ नहीं होगा। मोक्ष तो दूर रहा, एक शुभ भाव भी नहीं आएगा। उस प्रभाव को पाये बिना मैं कितना पीड़ित हूँ- दूःखी हूँ । बस, इस हेतु से दिल के दर्द के साथ प्रभु की दया की, प्रेम की रोते हुए हृदय से प्रार्थना है। दुनिया की कितनी ही वस्तुएँ न मिलने पर पीड़ा ४४ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होती है, परन्तु उससे कई गुनी वेदना इसकी होनी चाहिए । प्रभु की दया के अभाव में दुःख लगे बिना प्रभु के साथ दिल कैसे मिले? संसार की चंचलता : मानभट पत्नी के आगे गिड़गिड़ा रहा है, पैरों पड़ने तक पहुँच गया, फिर भी जब वह नहीं बोली और मौन लेकर बैठी रही तब अति नम्र बने हुए मानभट का मान उछल पड़ा। संसार है ही ऐसा। 'क्षणं रुष्ट, क्षणं तुष्ट, क्षणं क्रुद्धः क्षणं क्षमी' घडी भर में रोष तो घड़ी में तोष, घड़ी में गुस्सा तो घड़ी में शान्त । संसार जीव को भावों में चंचल बनाता है, और जीव की यही कमजोरी, विटंबना है और इसीसे संसार असार है, निंदनीय है। 3780030050000 स्त्री माने क्या ? मानभट विचार करता है कि 'अरे! मैं इसे इतना इतना मना रहा हूँ, आजीजी करता हूँ, फिर भी यह मानती ही नहीं। सचमुच स्त्रियाँ होती ही ऐसी हैं। 'खणरत विरताओ, खणस्सण खणपसज्जणाओ य । खणगुणगेण्हण मणसा खणदोसग्गहण तल्लिच्छा ॥ विज्जुलइयाणं पिव दुव्विलसियं इमाणं ।' । 'स्त्रियाँ क्षण में रागमय और क्षण में विरागमय बनती हैं। क्षण में रोष करती हैं और क्षण में प्रसन्न होती हैं, क्षण में गुण मानने के मनवाली और क्षण में दोष-दर्शन में तत्पर होती हैं, इनका आचरण बिजली की तरह दुःखद होता है।' स्त्री क्षण में रागी और विरागी क्यों ? अभिमान के नशे में रहनेवाले मानभट ने मान छोड कर समझाया तो भी पत्नी नहीं मानी अतः अब उसे स्त्री के इस स्वरुप का ज्ञान होता है कि स्त्रियाँ पुरुष पर क्षण में राग करती हैं तो क्षण में विराग करती हैं। अभी उनका मनचाहा हो गया तो वल्लभ बहुत अच्छा लगता है। लेकिन संसार एक आइटम से, एक ही मुद्दे से, एक ही बात से कहाँ चलता है ? कोई न कोई बात आया ही करती है। अत: एक मनचाहा होने के बाद दूसरा मुद्दा उपस्थित होने पर उसमें यदि इच्छा विरुद्ध हो गया तो वही वल्लभ अरुचिकर लगता है। ऐसा पुण्य लेकर कौन आयी होती है कि जिसकी मनचाही सभी बातें हो? बडी इन्द्राणी - को भी किसी अवसर पर इच्छा विरुद्ध हो जाता है। अतएव शास्त्रों में सुनते हैं कि इरियावहियं काउस्सग्ग - में अवधिज्ञान पाये हुए उस मुनि ने उसी समय अवधिज्ञान का उपयोग लगा कर देखा तो पहले देवलोक का इन्द्र इन्द्राणी को मना रहा था। इन्द्राणी को कब मनाना पड़े? उसके मन को अनुकूल न हुआ हो, कुछ इच्छा विरुद्ध हुआ हो तो, और Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिए वह इन्द्र पर कुद्ध या अरुचिवाली बनी हो तभी न? यह क्या? क्षण पूर्व इन्द्र पर रागवाली थी सो अब विरागी बनी इन्द्राणी की भी यह स्थिति है तो दूसरी स्त्रियों का तो पूछना ही क्या? तब पूछिये न? प्र. क्या पुरुषों को ऐसा नहीं होता? उ. चाहा-अनचाहा होने की बात तो पुरुषों पर भी लागू होती है। लेकिन पुरुषों का पेट बडा है, अतः वे इच्छा विरुद्ध बने उसे भी पचा लेते हैं; मानसिक समाधान कर लेते हैं। अनचाहे पर मन का समाधान :(१) 'होता है, संसार है, इसलिए ऐसे भी बन जाता है।' अथवा (२) 'अगले के कोई कारण आ पड़ा होगा इसलिए ऐसा हुआ होगा।' या (३) 'उनके अन्य अच्छे तत्त्वों के सामने यह न आनेवाली बात हो गयी सो किस बिसात में है कि उस पर नाराज़ हुआ जाय ?' (४) 'अगले का प्रेम-सद्भाव कायम रखना हो तो ऐसी प्रतिकूल बातें जो हो जाएँ उन्हें पी जाना चाहिए लेकिन क्रोध कर के सामने से दोषारोपण नहीं करना चाहिए, अन्यथा प्रेम-सद्भाव आहत होगा।' मन में ऐसा कोई न कोई समाधान आ जाने से पुरुष को क्षण में विराग करने की जरुरत नहीं रहती। स्त्रियाँ बेचारी स्त्रीत्व के पाप के साथ उसके मित्रसमान दूसरे भी पाप लेकर आयी हैं, अत: ऐसा बड़ा पेट कहाँ से लाएँ ? ध्यान रहे कि पूर्व भव में स्त्रीत्व का पाप उपार्जन करते समय मन के अध्यवसाय मलिन थे। अच्छे होते तो पुरुषत्व न ले · आते ? अब ऐसे मलिन अध्यवसायों के संस्कार यहाँ पर छिछला पेट ही देंगे न ? सामान्यतया बहुत दुःखी मनुष्यों में दूसरी तुच्छताएँ क्यों अधिक पायी जाती है ? कारण यह है कि यहाँ वे जो पाप भोगते हैं, पाप उपार्जन करते समय मैले भावों में उपार्जन किया था। उनके संस्कार भी यहाँ साथ आये हैं। अत: वे आत्मा में तुच्छताएँ उत्पन्न करें यह स्वाभाविक है। यह सामान्य नियम हैं। वैसे अपवाद हो सकते हैं कि दुःखी होते हुए भी आत्मा में इतनी अधिक तुच्छताएँ न भी हों । ऐसी अच्छी स्त्रियाँ भी दुनिया में दिखाई देती हैं जो स्त्रीत्व लायी हैं तो भी अनेक गुणों से भरी हैं। फिर भी अधिकांशत: यही होता है कि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों के दिल छिछले होते हैं, अतः वे क्षण में प्रेम दिखाने लगती है, और क्षण में उदासी। मानभट सोचता है कि स्त्रियों को घड़ी घड़ी रोष से तोष में और तोष से रोष में बदलते देर नहीं लगती । उसका मन ऐसा है; जरा जरा सी बात से प्रभावित होते देर नहीं लगती। फिर चाहे उसकी कितनी ही सम्हाल रखी हो, तो भी उसके मन को यदि लगे कि 'अमुक वस्तु ठीक नहीं हुई तो तुरन्त मन पर उसका प्रभाव ग्रहण कर लेगी और रोष-रीस Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने लगेगी । कौशल्या को रोष : राजा दशरथ ने भगवान का स्त्रात्र महोत्सव करवाया और उसका स्नात्रजल बाद में अलग अलग नौकरों से अलग अलग रानियों को भिजवाया। इनमें कैकेयी आदि अन्य रानियों को जल्दी पहुँच गया, परन्तु रानी कौशल्या को जल्दी नहीं पहुँचा। हालाँकि उसका कारण यह था कि उसके पास ले जाने वाला नौकर बूढ़ा था, वह धीरे धीरे चलता था, तो भी कौशल्या को ऐसा लगा कि 'राजा के मन दूसरी रानियों का मूल्य है सो उन सब को स्नात्रजल भेजा लेकिन मेरा कोई मूल्य नहीं अतः मुझे नहीं भेजा । इसलिए उसे गुस्सा आया और वह कोप भवन में जा बैठी। बताइये, इतनी सी बात में राजा पर क्रोध ? जरा भी धीरज न रखी, या अपनी कल्पना के सत्यासत्य की जाँच भी नहीं करवायी । यह तो ऐसा हुआ कि बाद में राजा ने आकर गुस्से का कारण मालूम होने पर स्पष्टीकरण किया और उतने में वृद्ध सेवक भी स्नात्रजल लेकर आ पहुँचा, और उसने देर होने का कारण अपनी शारीरिक दुर्बलता को बताया, तब जाकर कौशल्या का मन स्वस्थ हुआ, लेकिन एक बार तो गुस्सा चढ़ा ही था । संसार असार कैसे ? ऐसे ऐसे चंचल मनवाली स्त्रियों को अभी अभी तो पति का गुण मानने की इच्छा हो और जरा सी देर में पुनः उसकी त्रुटियों पर नजर आए इसमें कोई आश्चर्य नहीं । अरे! यदि त्रुटि तब तो उसे देखने की बात भी हो, परन्तु यह तो त्रुटि खोजने की वृत्ति बन जाती है । वह बारीक निगाह से देखा करेगी कि पति कहाँ भूल करता है। लड़के की गलती कारण माँ का मन खिन्न हुआ हो, उसका गुस्सा पति पर उतारती है । वह खोजती है कि 'पति किस बात में भूल करता है ? उसे पकड़ कर सुना दूँ।' ऐसे अनेक दोष-ग्रहण चलते हैं फिर स्वार्थ हो तब गुण मानने लग जाती है । स्त्रियों की ऐसी चंचल वृत्ति के बीच पुरुष को उसके साथ जिन्दगी निभानी पडती हो ऐसे संसार में सार कहेंगे या असारता ? ज्ञानियों के निष्कर्ष बुद्धिपूर्ण और यथार्थ होते हैं। उन्होंने स्त्रियों के विषय में बहुत लिखा है । यह लिखने की वजह यह है कि जिससे स्त्रियों पर अन्धा प्रेम करने से रुक सकें, और ज्यादा तो यह कि इस राग के पाप से संसार में जो फँसे रहना पड़ता है उसमें से शक्ति प्रस्फुटित कर के निकल सकें, और मानव जीवन का असली साररुप चारित्र प्राप्त हो सके । मानभट बाहर जाता है -- मानभट ने सोचा स्त्रियों की चेष्टाएँ समझी नहीं जा सकती, अतः अब इस पत्नी को समझाना निरर्थक है। घर से बाहर ही चला जाऊं। मुझे जाता देख शायद यह मान जाय या नहीं । देखूँ यह क्या करती है।' ऐसा सोच कर वह बाहर चला गया । ४७ - Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्नी का हृदय-परिवर्तन : पत्नी देख रही है कि 'वह बाहर जा रहा है। लेकिन बोलती नहीं, जाने देती है। लेकिन बाद में धैर्य कैसे रहे ? क्योंकि रात का वक्त है। अतः इस समय किसी मित्र से मिलना नहीं होता, तब यह कहाँ जाएगा, इस बात की उसे चिंता लगी। 'अरे ! मैं कैसी वज्र से भी कठोर हृदयवाली कि पति पैमें पड़ा तो भी मैं नहीं मानी? मैंने प्रसन्नता नहीं दिखायी? तब यह बेचारा इतना इतना कर के भी मेरी प्रसन्नता न मिलने से विवश होकर न जाने कहाँ चला गया। जैसे पहले मुझे होने से मैं आत्महत्या करने यहाँ आ गयी थी वैसे अब वह हताश होकर कहीं आत्महत्या करने न गया हो ?' मन में यह विचार आते ही जैसे बिजली चमकी, वह एकदम उठी, और सास के पास आयी। सास से कहने लगी 'ये आपके पुत्र क्रोध में भर कर कहीं निकल गये हैं। मैं जाती हूँ उनके पीछे । ऐसा कहते ही उसके पीछे चली। मानभट ने जब यह विचार किया कि 'अब तो मैं जरा बाहर चला जाऊं और देखू कि मुझे चला जाता देख अब भी यह प्रसन्न होती है या नहीं।' और ऐसा सोचकर वह उठ कर वहाँ से चल दिया। उस समय यदि पत्नी ने समझदारी रखी होती तो अब जो अनर्थ होनेवाला है, वह न होता । लेकिन अभागों और अक्ल के बीच दूरी होती है। अभागों से अक्ल दूर रहती है। इसीलिये वहाँ स्त्री नहीं बोली लेकिन उसके जाने के बाद उसे पश्चात्ताप होता है और उसके पीछे लगती है। जीवन में एक समझदारी : भाग्य निर्बल हो तो सीधी बात सूझती नहीं, और वक्त पर नहीं सूझती । इससे प्रकट होता है कि जब बुद्धि किसी ऐसे हठाग्रह पर चिपकी रहे तब समझना कि 'भाग्य निर्बल है, तो उसे बहुत खिलने देना उचित नहीं, आग्रह छोड़ देना चाहिए, मति बदलनी चाहिए।' जीवन में यह एक समझदारी है। जिसे यह समझदारी आती है वह अनिष्ट से बच जाता है, जिसे नहीं आती वह बड़ी मुसीबत में पड़ जाता है। शायद यह मुसीबत ऐसी हो कि फिर कभी उसका निराकरण न हो, कभी उसका विषाद न मिटे। . . OOOOOOO OOOOOOOOK Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Stdoodibiyanloginakari ProraRTMNIGHem | ताता बहुत नही तानना जिस लड़के का पढ़ने का रस मर चुका हो, और जो आवारा बन गया हो उसे पढ़ाने का बहुत आग्रह रखने वाले पिता को ऐसा विषाद भोगने की नौबत आती है। क्योंकि लड़का पढ़ता तो नहीं है, ऊपर से बाप के प्रति द्वेषी बनता है, जो बड़ा होने पर बाप के कहे में नहीं रहता । जबकि समझदारी के साथ चेतकर, हठ छोड़कर यदि पिता लड़के की पसंद के किसी रोजगार में लगा दे तो उसे ऐसा पश्चात्ताप का मौका नहीं आएगा और लड़का पिता पर उलटे सद्भावपूर्ण बना रहेगा। __व्यवहार में भी आखिर तक ताँता तानना छोड़ कर जो अवसर को पहचान लेता है वह लोकप्रिय बनता है, जब कि बहुत तानने वाले अप्रिय हो जाते हैं। अजी ! बातचीत में नहीं देखते ? किसी किसी को बाल की खाल खींचने, की आदत होती है। अपना कथन अपना 'मैं पना' ही घिसते रहते हैं। इतना ही नहीं, ऊपर से इसमें अपने मन से वाहवाही मानते हैं कि मैंने कैसे अच्छी तरह समझा दिया? गले उतार दिया?' लेकिन उसे पता नहीं कि समझाना-गले उतारना तो न जाने अगले ने स्वीकार किया कि नहीं? परन्तु तुम्हारे लिए 'जिद्दी ऐसी राय तो पैदा हो ही गयी । शायद अगला अब से यह निर्णय कर बैठा हो कि तुम्हारे साथ जबान लड़ाने में या बातचीत में पड़ना ही नहीं। इसमें तांता खींचने का क्या अच्छा फल मिला? बहु-सास-ससुर की दौड़धूप : मानभट की पत्नी ने भी आखिर तक जिद पकड़ रखी तो अब दिल में जबरदस्त घबराहट लिए पति के पीछे भागना पड़ा। ज्यों ही यह कहकर भागी त्यों ही सास को भी हुआ कि कौन जाने ऐसी क्या बात हुई होगी कि बेटा इस हद तक रोष में आकर निकल पड़ा? तब उसकी पत्नी भी पीछे भागी । ऐसी अँधेरी रात में क्या पता कहीं ये दोनों कुछ जीव को जोखिम कर बैठें तो? अतः वह भी मानभट के पिता से कहती है। - 'देखो जी ! यह लड़का गुस्से में बाहर चला गया है, तो बहु भी उसके पीछे दौड़ी है? कौन जानता है ये दोनों क्या कर लें ? अतः मैं भी जाती हूँ उनके पीछे। ऐसा कहते ही वह भी बहू के पीछे भागी।। पिता वीरभट को भी हुआ कि 'अरे! आखिर ऐसा क्या है कि ऐसी रात के समय ये सब निकल पड़े? तब मैं भी कैसे बेठा रहूँ।' ऐसा सोचकर वह भी अपनी पत्नी के पीछे भागा। आप बुद्धि और मूढ़ता के कारण विपरीत आयोजन :एक एक व्यक्ति आगे है; चारों गाँव के बाहर जाते हैं। एक एक के पीछे थोड़ी 000000000000 0000000000000 DOO 0000 100OOOOOOOOOOOO Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोडी दूरी पर एक एक है। देखो, भवितव्यता क्या घाट गढ़ती है। एक क्षण बाद के भावी में क्या है सो भी हम भाँप नहीं सकते; फिर भी आपमति या मूढ़तावश ऐसे उलटे ढंग अपनाते हैं कि क्षण भर बाद उनके अति दुःखद, विषम परिणाम आ खड़े होते हैं । यहाँ मानभट आपमति या अभिमान में और पीछे के तीन मूढ़ता में कैसे भयंकर अनर्थों का निर्माण करते हैं, यह देखिये। गाँव के बाहर मानभट क्या करता है? पहला आगे जाता हुआ मानभट कोई सीधा सीधा तो भाग नहीं जाता। उसे भी देखना है कि पीछे पत्नी क्या करती है ? अतः उसने भी कान तो सावधान रखे हैं । रात्रि शान्त है । अत: पीछे तेजी से आती हुई पत्नी के पैरों की आहट दूर से भी सुनाई देती है। अब वह गाँव के बाहर निकलने के बाद एक कुएँ के पास पहुँचा। वहाँ पीछे मुड़कर देखा तो पनी आती दिखाई दी। अब पत्नी का स्नेह कितना है ? यह परीक्षा करने की उसे इच्छा हुई। सोचा 'मैंने इसके पैरों पर सिर रख कर अनुनय-विनय किया फिर भी यह नहीं मानी । तो अब देखू कि इसे मुझ पर कोई प्रेम है भी सही? और है तो कितना?' यह विचार करके उसने एक बड़ा पत्थर उठा कर कुएँ में डाला, और यह देखने के लिए कि पत्नी यहाँ आकर क्या करती है, खुद तुरन्त एक पेड़ की आड़ में छिप कर खड़ा हो गया। अनजाने में कर लेश्या : यह एक जहरीला प्रयोग है। ऐसा करने के पीछे क्रूर लेश्या काम कर रही है, यह बात वह नहीं समझ पाता। क्योंकि कुएँ में पत्थर डाल कर क्या करने की धारणा है ? यही न कि 'पत्नी को ऐसा आभास कराया जाय कि पति ने कुएँ में छलांग लगायी है। और बाद में खुद भयंकर दुःख में जले और कुछ का कुछ करे। यह कितनी क्रूर लेश्या है? स्नेह की परीक्षा करने के लिए ही न ऐसा ? तो क्या यह जीवन जीने में उपयोगी तत्व है ? ऐसी विषमय परीक्षा के बिना और क्रुर लेश्या के बिना क्या जीवन नहीं निभ सकता? सब निभ सकता है। आप पूछेगे। प्र. लेकिन स्नेह को परख लिया तो पीछे जीवन में तदनुसार व्यवहार रखा जाय न? उ. तो क्या यह परख ऐसे जहरीले प्रयोग और काली लेश्या से की जाए? स्नेह को परखना हो तो जीवन की रोजमर्रा की प्रवृत्ति में अगले की बोल चाल कैसी है, हमारा कैसा आदर करता है, उसकी मुखमुद्रा कैसी रहती है, आदि पर से भी नाप सकते है। प्रेम कम मालूम हो और उसे बढ़ाना हो तो उसके लिए उचित कदम उठाये जा सकते हैं। सांसारिक जीवन में सच्चा कर्तव्य तो यही है कि अपने पर दूसरे का स्नेह-सदभाव बढ़ाने के लिए उचित रीति नीति, तौर-तरीके अपनाएँ, सही व्यवहार रखें, ठीक कोमल Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा का उपयोग करें। परन्तु यह करना नहीं आता और सिर्फ जाँच-जाँच ही करना आता है। जाँच कर कितनी शोभा की? क्या भला किया? जीवन की जाँच करो तो दिखाई देगा कि 'कितना बेढंगा जीवन बीत रहा है?' ऐसे कितने ही तत्त्वों के सेवन हो रहा है जो जीवन के लिए उपयोगी नहीं है; ध्यान रखकर देखो तो यह दिखाई देगा। इसकी परीक्षा और उसकी परीक्षा; लेकिन परीक्षा करने के बाद भी जीवन को अच्छा बनाने वाली उचित प्रवृत्तियों की बात ही नहीं। इसकी जिज्ञासा और उसकी जिज्ञासा; फलाँ बात कैसे हुई ? अमुक क्या? यह कौन गया? ऐसी कुछ न कुछ फूटकर इधर उधर की बातें देखने परखने के लिए व्यर्थ हैरान होना, ताक-झाँक करना, जैसा-तैसा पढ़ना, ऐसी ही व्यर्थ की आतुरता रखना यहाँ तक कि शास्त्र की बातों में भी 'इसका क्या? वैसा क्यों?' आदि कोरी जिज्ञासाएँ उपस्थित करना और उन्हें तृप्त करने इन्द्रियों और शरीर को दौड़ाते रहना - यही जीवन है न? जीवन जीने-निभाने के लिए है, तो उसका कोई उपयोग? हाँ जीवन को अशांति और विह्वलता से पूर्ण बनाने का विचार रखा है। कैसा अज्ञान ? ढ़ेरों आतुरताओं, जिज्ञासाओं को पालने के बाद उसका नतीजा रागादि और काम क्रोधादि की बहुतायत के रुप में होता है। तो जीवन को सुन्दर बनाने की कोई प्रवृत्ति ही नही? दुनिया में देखेंगे तो दिखाई देगा कि अधिकतर कोरी-निरुद्देश्य चर्चाएँ, भाषणबाजी, गलत जिज्ञासाएँ, और अपनी राय प्रकट करने की चाल सी पड गयी है। लेकिन यह सब सिर्फ शब्दों और बातों में ही कुछ भी सुधारने का सक्रिय प्रयत्न ही नहीं । बरसों बीत गये, वही चीख पुकार वही शिकायतें । वही के वही भाषण और सफेद पर काली लिखावटे इतना सब करके भुना हुआ पापड भी टूट सका? ऐसी शक्ति नहीं है। निपुणता नहीं है, जरुरत नही है। निपुणता है केवल मन से फूस फटकारने की, तामसी कषाय करने की और मुँह से बकवास करने की । जीवनोपयोगी संगीन कुछ करना नहीं है, और अनुपयोगी ढेर सारी प्रवृत्ति करनी है। ___मानभट को ऐसी ही निरर्थक इच्छा हुई, खुजली सी उठी कि 'पत्नी के प्रेम की परीक्षा करूँ। और वह कुएँ में शिला फेंककर खुद पेड़ के पीछे छिपकर खड़ा हो गया। देख रहा है कि पीछे से आती हुई पत्नी यहाँ आकर क्या करती है ? कितना विकट साहस! मनुष्य को भान नहीं होता कि 'मैं जरासी खजली पैदा कर उसे खुजलाने जाऊंगा, उससे कितना बड़ा अनर्थ खड़ा होगा? यह खयाल नहीं होता और साहस कर बैठता है। लेकिन उससे भयंकर अनर्थ हो जाता है। मानभट की पत्नी जो अब कुएँ में पत्थर गिरने की आवाज की प्रतिध्वनि उठी सो सुनी, सुनते ही उसके मन को भय लगा कि 'हाय ! पति ने कुएँ में छलांग लगा दी है, उसकी वह आवाज उठी है।' उसके रोंगटे खडे हो गये, साँस जोर से चलने लगी। शीघ्र कुएँ के निकट पहुँची। वहाँ आसपास Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहीं मानभट नहीं दिखाई दिया। मन को लगा कि, 'यहाँ तक वे दूर भी मेरे आगे आगे चल रहे थे, जो अब इससे आगे, या यहाँ इधर उधर नहीं दिखाई पडते, तो हाय ! अवश्य उन्होंने कुएँ में छलांग लगायी है। पत्नी का विलाप और.... 'हाय ! वे मेरी प्रसन्नता न मिलने से निराश होकर दूसरी पत्नी करने का भी विचार न कर के यहाँ आकर कुएँ में गिर पडे? मुझ जैसी अभागिन पर उनका इतना अंधा प्रेम? नहीं तो, उन्हें-पुरुष को क्या मुश्किल थी? एक स्त्री वक्र बनकर माने ही नहीं तो दूसरी ब्याहते क्या देर लगती है ? लेकिन ऐसा न कर एक मेरे प्रति प्रेम के कारण कुएँ में गिर पडे! तो अब मेरी क्या हालत? दुनिया में स्त्रियों को परिवार में अपमानादि मिलते हों, या दौर्भाग्य के कलंक के कारण औरों की ओर से दुर्भावना पाती हों, और उसके दुःख में जलती हो ऐसी स्थिति में भी उसे एक मात्र सहारा पति का ही होता है। लेकिन यहाँ मेरा तो वह सहारा भी गया । तो अब मेरे जीवन का क्या प्रयोजन?' ___ मन में ऐसा विचार आते ही पति तो अभी सोच ही रहा है कि देखू यह क्या करती है. उतने में वह कएँ में कद पड़ी। देखो विषमता । पति एक शब्द गलत बोला है ऐसा इसे लगने पर बाद में उस बेचारे ने माफी भी मांगी, स्पष्टीकरण भी किया, और चरणों में सिर रख कर बहुत मनाया भी, फिर भी इस ने उसकी कीमत नहीं की, सो अब इतनी बडी कीमत मानती है कि 'पुरुष जैसा पुरुष दूसरी स्त्रियों से ब्याहने की क्षमता वाला होते हुए भी ऐसा न कर एक ही स्त्री पर अनन्य प्रेम में प्राण त्याग देता है, यह उसका कितना भारी बड़प्पन है ?' अब पति का बडप्पन देखती है ? कब उसका मूल्य-बडप्पन माना ? जब उसके खत्म हो जाने का मालूम हुआ तब । लेकिन अब मूल्य आँकने से क्या ? कहते हैं न कि जीते जी नहीं पहचाना, और मरने के बाद रोना धोना, क्या फायदा? उलटे, वह तो सचमुच नहीं मरा, बरबाद नहीं हुआ, लेकिन यह तो सचमुच कुएँ में गिर कर मर गयी। समझदारी थोडी पहले आयी होती तो? पति के मनाने से मान जाती तो? तो क्या? कहिये कि न पति को खोना पडता, न अपने आप को खोने की नौबत आती। जीवन कला:- अवसर पर समझ लेना :' बस जीवन जीने की कला यह है कि वस्तु का तन्त बहुत नहीं खींचना । अवसर पर समझ जाना चाहिए । कदाचित् क्षण भर ऐसा लगे कि 'हमें हारना पिछड़ना पडा' तो कोई चिंता नही । बड़े अनर्थ से तो बच जाएँ नियति पर छोड़ दें कि इसी में कुछ शुभ संकेत होगा, भविष्य में इस से भला होने वाला होगा।' हमारे हठाग्रह छोड देने से प्रत्यक्ष में अगले की सद्भावना मिलती है, और हमारे हृदय के कोमल हलके होने का भी लाभ होता है। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झूठा हठ और मिथ्यात्व तथा कषाय के घर की हठ पकड़ रखने से मन कठोर और भारी बनता है । अभिनिवेश दुर्गुण है: : 1 अभिमान, मानाकांक्षा, वैर-विरोध, तीव्र लोभ..... आदि कषाय गलत हठ पकड़ने को बाध्य करते हैं, मार्गानुसारी के गुणों में इस दुर्गुण के त्याग रुप अभिनिवेश का त्याग करना' यह गुण है | अभिनिवेश का अर्थ है गलत हठ, झूठी पकड़ यह खतरनाक है । राजा नल ने जुए में जीतने की हठ पकड़ी तो दमयन्ती के बहुत मना करने पर भी दाव लगाते लगाते हारते ही गये, हारते ही गये....सो सारा राज्य हार गये, और रानी दमयंती के साथ बीहड वन में भटकना पड़ा । कुछ लोगों का खयाल है कि 'ऐसे किसी तरही की पकड़ न रखें तो जीवन व्यवहार सीधा कैसे चले ? सब हम पर सवार ही हो जाएँ न ?' लेकिन यह देखना चाहिए. की पकड़ की हद होती है । बालक हठ पर चढे तब माता-पिता को अपनी जिद छोड कर कभी झुक जाना पड़ता है, उसे मना लेना पड़ता है। इसी तरह स्वजन स्नेही के साथ अमुक हद तक हठ हो तो नुकसान न भी करे, परन्तु हठ बेहद हो जाय तब नुकसान आ खड़ा होता है। पहले तो जिसके साथ जीवन का सम्बन्ध है उसकी सद्भावना खो देनी होती है । हठ छोड़ने से होनेवाले नुकसान का क्या ? एक सुन्दर समझ : तो....पकड़ छोड़ देने में हठ का त्याग करने में कभी बाद में कुछ नुकसान जैसा प्रतीत हो तो भी मन का समाधान कर लेना चाहिए कि 'यह नुकसान तो कर्म के कारण है। अशुभ कर्म का उदय होता तो एक नहीं तो दूसरा निमित्त पाकर नुकसान होता है, अतः उसे त्याग के साथ जोड़ने की जरुरत नहीं है । यह विचार करना कि 'हमारे और अगले के कर्मानुसार अलग अलग घटनाएँ होती रहती हैं, और होती ही रहेंगी। लेकिन हम यह 'अभिनिवेश त्याग का गुण' अपना लें, कमाई क्यों छोड़ें? और क्यों नाहक मान- कषाय को पोसें ? सही खतौनी का विवेक : गुणोपार्जन पर अधिकार रखना हो तो गुण की रक्षा करते हुए आनेवाली आपत्तियों को अवश्य ही कर्मोदय के खाते में डालिए । ऐसा करने से बाद में पिछड़ना नहीं पड़ेगा । 'दुःख विपत्ति आयी ? सो तो मेरे कर्मों | गुण से दुःख - विपत्ति नहीं आती। वैसे, दोष- दुष्कृत्य से लाभ दिखाई दे तो भी लाभ तो शुभ कर्मोदयं के प्रभाव से है, दोष- दुष्कृत्य के प्रभाव से नहीं। शुभोदय बंद हो जाने के बाद तो दोष- दुष्कृत्य के कारण लातें ही खानी पड़ती हैं। गुणोपार्जन के लिए विचारणा : बाह्य नफा - नुकसान, बाह्य आपत्ति - सम्पत्ति तो शुभाशुभ कर्म के अधीन है। ५३ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेकिन मूर्ख जीव इन्हें गुण-दोष के साथ जोडता है। उदाहरण के तौर पर, झूठ बोले तो पैसे मिले, सच बोलते तो न मिलते। ऐसा नादान हिसाब लगाते है। लेकिन देखिये कि जगत में झठ बोलने वाले तो बहुत है। पर धन कितनों को मिलता है ? धन तो पुण्य पहुंचता हो तो ही मिलता है। सो भी उतनी ही मात्रा में। झूठ तो यों ही भार बनानेवाला है। प्रकट भले यह दिखाई दे कि झुठ नहीं बोला और पैसे मिलना रुक गया, उसमें भी नियति का कोई शुभ संकेत समझिए कि 'ऐसा धन न मिलने में ही मेरा भावी शुभ होनेवाला होगा। ऐसे धन में न जाने कोई दूसरी भविष्य की हानियाँ छिपी हों तो?' मन में ऐसा समाधान करना आना चाहिए, जिससे गुणोपार्जन की क्षमता बनी रहे, उसमें दुराग्रह छोड़ देना पड़े। . मानभट की पत्नी ने पति के अनुनय-विनय को न मानने का दुराग्रह रखा तो अब वह स्वंय पश्चाताप कर ठेठ कुएँ में गिरने तक पहुँची । जब वह गिरी ऐसा पीछे आती हुई सास ने देखा कि वह भी चौंक कर आगे आ कर सोचती है कि "अरे! मेरे बेटे ने और बहू ने कएँ में छलांग लगा दी तो मुझे तो सारी जिन्दगी संताप ही रहा । तो अब मैं ऐसा दुःखमय जीवन कैसे बिताऊंगी? अत: मैं भी इसी में गिर जाऊं।" ऐसा सोचकर मानभट की माँ भी धमाक से कुएँ में गिर पड़ी। - दो दीर्घ विचार : लम्बा विचार करना है। नहीं, 'जीवन भर इसके दुःख में जलते रहना, इससे तो मरना बेहतर । बस इतना ही अल्प विचार है। लेकिन - (१) मरने के बाद परभव में कैसा जीवन मिलेगा इसका विचार ही नहीं; उसी तरह, (२) अब यहाँ यदि इस बहुमूल्य जीवन को सर्वनाश के पथ पर ले नहीं जाता है तो बुद्धिमानी इसमें है कि 'इस जीवन को कायम रख कर - मरने के कष्ट के स्थान पर अच्छेखासे तप-त्याग-आराधना के कष्टों द्वारा भराभरा क्यों न बना लूँ। शरीरको मृत्यु में खोने के बदले त्याग-तप में क्यों न लगा दूँ ? मूर्ख को यह विचार ही नहीं आता। निराशा के सन्ताप के बदले बुद्धिमत्ता क्या है ? । दुनिया में बहुत से लोग किसी निराशा के दुःख में जला करते हैं, लेकिन उन्हें यह समझदारी नहीं सूझती कि 'इस आग से तो अच्छा है कि अब प्रभु की शरण ग्रहण कर लूँ । दुनिया की शरण लेने का सार तो देख लिया । इससे तो अच्छा है कि अब अपना चित्त प्रभु में ही और प्रभु की आज्ञा में ही लगा दूँ जिससे यहाँ भी प्रफुल्लता मिले और परलोक भी सुधर जाय।' दुनिया की ठोकरें खाने के बाद भी यदि अक्ल नहीं आती तो उस बेचारे के फूटे हुए भाग्य में नयी ठोकरें खाना लिखा हुआ रहता है । जब कि प्रभु के सच्ची शरण लेने से तो अशुभ नष्ट होकर, आगामी (भावी) अनर्थ-आपत्ति रुक जाती है, साथ ही वर्तमान में भी चित्त को कितनी शांति मिलती है। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328988 इतना ध्यान रहे कि प्रभु की सच्ची शरण ग्रहण करने के लिए पहले नंबर में जीवमात्र के प्रति मैत्रीभाव पैदा करना पडता है। मतलब ? यही कि अब जिनकी ओर से हमें आपत्ति आयी, निराशा मिली, उनके प्रति भी विरोध की गाँठ छोड दी जाय । और 'तुमने मेरा कुछ नहीं बिगाडा, मेरा जो बिगाडा सो मेरे अशुभोदय से बिगडा है। अन्यथा, तुम तो मेरे शत्रु नहीं, स्नेही हो । मेरे हृदय से तुम पर प्रेम बरसता रहे, तुम्हारा भला हो ।' यह भावना बनानी पडे। उसके प्रति स्नेह उभारना पडता है। उसके प्रति मैत्री भाव अपनाना पडता है, तभी प्रभु की सच्ची शरण स्वीकार करना और चित्त को सच्ची शांति मिलना संभव है । वैर-विरोध अमैत्री की गाँठ रख कर भगवत शरण स्वीकार नहीं किया जा सकता । पूछिये - उ. अरिहंत शरण कब आये प्र. - प्रभु की शरण के साथ मैत्री का क्या सम्बन्ध ? सम्बन्ध ऐसे कि - 'हम प्रभु की शरण स्वीकार करते है अर्थात् क्या करते है ? पहले इस का विचार करो । शरण माने त्राण, त्राण-शरण का अर्थ : आधार । आचारांग सूत्र में कहा है कि 'नालं ते ताणाए वा, सरणाए', अर्थात् धन-माल परिवार तेरे त्राण में समर्थ नहीं । तेरी शरण के लिए समर्थ नहीं । 'त्राण' अर्थात् परलोक दुर्गति के दुःख-आपत्ति - विटंबनाओं में से तुझे उबारने में शक्तिमान् नहीं हैं। वैसे ही 'शरण' अर्थात् "तुझे सुख-संपत्ति-स्वस्थता देने की इनमें ताकत नहीं है। सूत्र के टीकाकार महर्षि ने त्राण और शरण में यह अन्तर बताया है। अब यहाँ हम 'प्रभु की शरण हो' इसमें 'त्राण' शब्द न लेकर अकेला 'शरण' शब्द लेते हैं । अत: इस 'शरण' शब्द से त्राण और शरण दोनों का अर्थ लेना है। तात्पर्य यह निकला कि 'प्रभु' की शरण स्वीकार करना' अर्थात् हृदय में यह बसाना कि : शरण की भावना : 'हे प्रभु! सब प्रकार के दुःखों, आपत्तियों, विटंबनाओं में से बचानेवाले मेरे लिए एक मात्र आधार तू ही है ! और सब सुख, संपत्ति, स्वस्थता देनेवाले भी तू ही है । मुझे अटल विश्वास है कि तू परम आत्मा है, अतः शुद्ध अनन्त ज्ञान दर्शनवान् है । अनन्त शक्तिमान है, अनन्त लब्धिवान है, वीतराग-निर्विकार है। तुझे यह सब प्रकट है, और यही अपनी आत्मा का मुझे प्रकट करना है यह तेरे आलम्बन द्वारा ही, तेरी शरण से ही होनेवाला है । तुम्हारे इस निर्मल स्वरुप के साथ मेरा लक्ष्य बँध जाय तो फिर कोई दुःख, आपत्ति, विटंबना लगे ही नहीं, सुख, संपत्ति-स्वस्थता ही है, ऐसा लगे । इसलिए मेरे तो हे प्रभु ! Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक तू ही आधार, त्राण, शरण हो।' अरिहन्त-शरण की रहस्य : वीतराग प्रभु की शरण ग्रहण करना मतलब उन के निर्मल, भव्य, आत्मस्वरुप पर लक्ष्य केन्द्रित करना है। अब यदि दिल में हम किसी के भी प्रति अमैत्री, वैर-विरोध भाव, और द्वेष-ईर्ष्या-भाव आदि गाढ मैल-मालिन्य रखें तो प्रभु के निर्मल स्वरुप के प्रति आकर्षण-खिचाव कहाँ से पैदा हो ? एक भी दोष जिनमें नहीं, ऐसे अरिहंत से कहना है कि 'मेरे लिए तू ही शरण, तू ही त्राण है।' इस तरह यह शरण चित्त की स्वस्थता - स्वच्छता के लिए ग्रहण करना है, और दूसरी ओर मन में वैर विरोध भाव आदि ज्यों का त्यों - अखंड - रखना हैं, ये दो बातें कैसे बन सकती हैं ? जिसके पास जाते हैं, और जैसा बनने जाते हैं, उससे बिल्कुल विपरीत भाव मन में अखंड रखने हैं तो क्या यह नाटक नहीं ? ढोंग नहीं ? तो क्या इसलिए अरिहंत की शरण मे जाते हैं कि 'वे प्रभु हमें हमारे वैर विरोध, ईर्ष्या-द्वेष, तानाशाही जहाँगीरी में विजय दिलाएँ ?' वीतराग प्रभु के आलंबन में यह हो ही नहीं सकता। अतः अरिहंत की शरण अमैत्री - अकरुणा, आदि के त्याग के लिए ही होती है। इनका त्याग हो जाय तभी माना जाय कि अरिहंत देव की सच्ची शरण ली, पकडी, स्वीकार की है। वीतराग भगवान् की शरण वीतराग बनने के लिए ली जाती है, और वीतराग बनने के लिए बुनियादी बडे दोष अमैत्री-वैर-विरोध, निर्दयता-निष्ठुरता, ईर्ष्यागुणद्वेष और परचिंता-परदोषद्रष्टि दूर करने ही होते हैं। और वह सब दिल में मैत्री-करुणा प्रमोद और माध्यस्थ भाव बसाने से होता है। इस प्रकार जगत के जीवमात्र पर मैत्री भाव-प्रेम-स्नेह आदि को मन में जगमगा कर बारबार वीतराग भगवान् की शरण ली जाय तो जीवन में किसी अवसर पर सख्त निराशा होने पर जीवन नाश और आत्महत्या के विचार करने के बदले विवेक पूर्वक जीवन को अरिहंत की आज्ञा की आराधना में लगा देने की संभावना होती है। मन को लगता है कि 'मरना ही है ? तो विधिपूर्वक क्यों न मरें?' भली भाँति जिनाज्ञा पालते पालते काया को कस कर अंतिम अनशनादि आराधना से क्यों न मरे?' मानभट की पत्नी और माता में यह विवेक नहीं था इसलिए बेचारे मानभट को कुएँ में गिर कर मरा समझ कर एक के बाद एक कुएँ में गिर पड़ी। तब मानभट के पिता वीरभट ने क्या किया? वह भी जल्दी जल्दी पीछे आ रहा था; इतने में उसने दूर से दोनों को कुएँ में गिरते देखा । इसलिए बड़े भारी आघात के साथ सोचने लगा - मानभट के पिता की दशा : 'अरे ! मेरा बेटा पतोहू और पत्नी तीनों कुएँ में पड़े । फलत: मेरे कुल का तो उच्छेद ही हो गया न ? दुश्मन के हाथी के दन्तशूल पर मैं बड़े मजे से झूले झूला ! नतीजा? आसानी से शत्रु के हाथ मे पकड़े जाने या हाथी के पैर तले कुचले जाने के लिए Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही न ? इसी तरह इतने उत्साह से घर-गृहस्थी जमायी सो अब बैठ कर रोने के लिए ही न? इससे ता मर जाऊँ ताकि रो रो कर जिन्दगी न बितानी पड़े' यह सोच कर पिता वीरभट ने भी कुएँ में छलाँग लगायी। धैर्य और विवेक दुर्लभ क्यों ?: कहो कि वीरभट उम्र में बुजुर्ग ओर मर्द तो उसमें भी विवेक न रहा? धीरज रहा? धीरज कहाँ से लाए? क्योंकि अधिकांश में अधीरता से भरी दुनिया के बीच रहा है, अतः जैसा देखता है वैसा सीखता है। इस न्याय के अनुसार अवसर पड़ने पर मन में अधैर्यअधीरता ही आ खड़ी होगी न ? पूछिये कि - पागल दुनिया के बीच कैसे बचना ?: प्र०. यों तो हम सब ऐसी ही दुनिया में रह रहे हैं, तो क्या धैर्य आए ही नहीं ? सदा के लिए ललाट में अधैर्य ही लिखा है ? उ०. अकेला अधैर्य ही क्यों ? दूसरे अनेकानेक दोष-दुष्कृत्य भी ललाट में लिखे हुए हैं । लेकिन देखना ये सब हैं असावधान के लिए ! हाँ जो सावधान है, और जिसने समझ रखा है कि दुनिया में ज्यादातर तो अधीरता आदि दोष ही और व्यर्थ आक्रन्द आदि दुष्कृत्य ही और अध: पतन ही देखने मिलेंगे, किन्तु यदि तुम इनकी तरह अध: पतन नहीं चाहते, और विकास साधन चाहते हो तो - (१) दुनिया की इस रीतिनीति को पागलपन ही मानो, और (२) अपने लिए धैर्यादि गुणों का ही विकास करो, तथा (३) बेकार का रोना छोड़कर कर्म के नाटक का चिन्तन आदि सत्प्रवृत्ति ही जारी रखो। (४) दुनिया की यह पागल स्थिति देख देख कर, दुनिया पर दया करने के साथ साथ तुम अपनी सावधानी पूर्ण बुद्धि को द्रढ करते जाओ। (५) गुणों और सत्कृत्यों का पक्षपात प्रबल बनाते रहो । जिसने ऐसा समझ रखा है वह तो जो दिखा सो सीखनेवाला न बन कर विवेक पूर्वक सीखने वाला बना रहेगा । दुनिया में चलनेवाले उलटे खेल देख कर तो उसे ऐसा ही लगेगा कि, 'यह संसार ही ऐसा है, कि अज्ञानी ऐसे ही विपरीत आचरण करें।' प्र०. क्या सारी दुनिया दीवानी है? उ०. अधीर क्यों होते हो? यदि ऐसा न होता तो अधिकांश जगत कभी का जन्ममरण की आपत्ति को पार कर गया होता, लेकिन उलटी चाल में ही पिटकर मरता है। वैसे दुनिया में ही कुछ अच्छे भी हैं, लेकिन तुम्हें बहुमति को देखना है न ? अत: अच्छे पर निगाह ही कहाँ पड़ती है ? नहीं तो वे अच्छे तुम्हें उदाहरणरुप न बनें । उन्हें देखकर धैर्यादि को बढ़ाने का प्रोत्साहन न मिले? दुनिया को अज्ञान-पागल कह कर उसे गाली देने का Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इरादा नहीं है, परंतु उस पर दया कर के स्वंय के लिए सावधान बनना हैं कि हम अंधानुकरण करके ऐसी अज्ञान दशा में न पड़े और अधीरता आदि दोषों और दुष्कृत्य को स्थान न दें।' ज्ञानदशा कैसी? प्र०. लेकिन अधिकतर ऐसी अज्ञानदशा ही देखने मिले तो उसका असर तो होता ही है न ? इस असर में से किस तरह छूटा जाय ? . उ०. किस तरह क्या ? ज्ञानदशा के द्वारा छूट सकते हैं । ज्ञानदशा यह है कि उदाहरणतया अधैर्य के विषय में यह विचार करें कि अधीरता करने से क्या मिलेगा? कोई वस्तु खो जाए ,बिगडे, या नष्ट हो, तो वह अब लौट आए; या सुधरे, यह संभव नहीं, भले ही लाख अधैर्य करें और लाख चीख-पुकार करें । तो फिर अधीर-बावरा व्याकुल क्यों होना? (१) अब तो आगे नये नुकसान न आवें,-. (२) चीज बिगडने से आत्मा का कुछ न बिगड़े, (३) चीज-वस्तु खो जाने से आत्मा का कुछ न खो जाए।... यही देखना रहा। यह करना तभी संभव है कि धैर्य रखें, धीरज-हिम्मत से काम लें। बाह्य इष्ट जड़ या चेतन के खो जाने के पीछे अपने महामूल्यवान् जीवन को क्यों खो दें? इष्ट के वियोग का सच्चा शोक यह है कि जीवन को उच्च साधना में लगा दें। यह ज्ञानदशा का विचार है। इसे अपनाने के बाद अज्ञान दुनिया की अधीरता, शोक, विलाप आदि में डूबना नहीं होगा, उसका अनुकरण नहीं होगा, अज्ञानमूढ दुनिया का हम पर प्रभाव ही नहीं पडेगा-यह ज्ञानदशा का परिणाम है। बेचारे मानभट के पिता में यह ज्ञान दशा नहीं, फलतः दुनिया के प्रभाव में वह भी अधीर बन कर कुएँ में गिरता है! दूसरा कारण, इसमें विवेक नहीं, कैसे भला? इसीलिए कि विवेक सामान्यतः सहजरुप से तो अति अल्प व्यक्तियों को ही उत्पन्न होता है। अन्यथा, सत्समागम से ही विवेक आता है। संत पुरुषों का बार बार समागम करे, और उनकी उपदेश -वाणी बार बार ग्रहण करे तब जीवन के अन्तश्चक्षु खुलते हैं, वह विचार करने लगता है और विवेकशक्ति प्रकट करता है । सार-असार, कर्तव्य-अकर्तव्य, वाच्य-अवाच्य, भक्ष्य-अभक्ष्य आदि को अलग कर, अन्तर समझे और असारादि को त्याज्य मान कर यथाशक्ति उनका त्याग भी कर के सार, कर्तव्य आदि को अपनाए -इसका नाम है विवेक शक्ति प्रकट होना । ऐसा विवेक अर्थात् पृथक्करण कि 'सार क्या है ? असार क्या है ? कर्तव्य क्या है ? अकर्तव्य Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या है ? वगैरह उस संत की वाणी से जानने मिलता है। मानभट क्यों भूला? मानभट ऐसा कर के ही ऊपर उठने वाला है, लेकिन अब तक तो अविवेक में डूबता रहा है, सो अभिमान रहे इसमें आश्चर्य क्या? अरे! ऐसा घातक-पापी-अभिमान के सगे माता-पिता-पत्नी को इस तरह मरने दे ? हाँ । क्रोध, मान आदि कषाय तो भयंकर कोटि का अंधापन है। कषाय को सिर चढाया सो अन्धापन ही चढाया । अब यह अंधा बनकर ही काम करेगा। अजयपाल का अभिमान : देखिये, राजा कुमारपाल ने तो जगह जगह सुन्दर जिनमंदिर निर्माण किये; किन्तु उनके अनुगामी राजा अजयपाल ने तो अभिमान में अंधा होकर उनसे भी सुन्दर नये बनाने के बदले उन्हें तोडने का ही धंधा शुरु किया, कितने ही मंदिर तुडवा दिये । भवैये का तमाचा पर, अब तारंगाजी का मंदिर तोडने जानेवाला था, उतने में नट ने उसे मार्मिक शब्दों का ऐसा थप्पड मारा कि इससे अब मंदिर तोडने से रुका। बात यों हुई कि पाटण के नगरसेठ ने भवैये को तैयार किया, और भवैये ने राजा अजयपाल से चालाकी से अपने लिए अभयदान लिखावा लिया और उसके बाद नाटक देखने बुलाया । नाटक में भवैया मृत्युशैया पर पड़ा और उसके बाद नाटक देखने बुलाया। नाटक में भवैया मृत्युशैया पर पड़ा हुआ चारों पुत्रो से कहता है, 'यह मेरे घर के अन्दर का देवमंदिर, इसका पूजा-पाठआरती-सब अच्छी तरह सम्हालना । तीनों ने ता मान्य कर लिया, लेकिन सबसे छोटा लड़का बूढ़े के बार बार कहने के बावजूद नहीं मानता, और ऊपर से सोटा लेकर छोटे से मंदिर को तोड़ डालता है। उसी समय बूढा बाप झुंझला कर उससे कहता है - भव्य उपदेश : 'हे नालायक! यह तूने क्या किया? मंदिर को पूजना-मानना या मंदिर बनवानां तो दूर रहा, बल्कि मेरी मौजूदगी में ही तू मंदिर तोड डालता है ? मूर्ख ! तुझ से तो राजा अजयपाल अच्छा जिसने कुमारपाल के जीते जी एक भी मंदिर नहीं तोडा, लेकिन उसके मरने के बाद तोड़ता है। जब कि तू बडा नालायक है कि मेरे जीते जी ही मेरा मंदिर तोड़ रहा है ? बेवकूफ ! तुझ में इतनी हिम्मत तो नहीं कि 'नया मंदिर खड़ा करूँ', और किसी के शुभ कार्य का ध्वंस करने की पिशाची लीला और कायरता ही तुझे आती है ? कौन सी नरक के मेहमान बनने की सोची है? संसार में मनुष्यों के चार प्रकार हैं : (१) एक उत्तम, . जो अच्छे काम करते हैं (२) दूसरा मध्यम, जो खुद करने में असमर्थ होते हुए भी अच्छे काम की भरपूर प्रशंसा करता है। (३) तीसरा अधम-जिसे न तो अच्छे काम करने हैं, न अच्छे कामों की कद्र करता है। (४) चौथा अधमाधम तो आगे बढ़ कर दूसरों के भले Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामों को तोड़ने में ही लगा होता है, तू किस कोटि का है ? सो विचार कर । तेरा यह अभिमान परलोक में तेरी रक्षा नहीं करेगा, और यहाँ भी सज्जनों की दुनिया में यश नहीं दिलाएगा । फिर भी ऐसा पवित्र मंदिर तोडने की प्रवृत्ति करता है जो नरक में घसीट ले. जाएगी। यहाँ जी कर आखिर तू कितना जियेगा? बाद का क्या? अजयपाल लौट जाता है : राजा अजयपाल यह सुनकर तिलमिला उठा । भवैये को चाहे जैसा नाटक दिखाने की छूट और उसमें चाहे कुछ भी आए उसकी आजादी दी हुई है यह उसके ध्यान में है। अतः यहाँ क्रुद्ध होने के बदले अपनी अधमता देखता है; और वही खड़ा हो कर भवैये से कहता है शाबाश! शाबाश है तुझे ! आज तूने मेरी आँखें खोल दीं। तूने मेरे अभिमान को,गला दिया है। मैं आज से प्रतिज्ञा करता हूँ कि राजा कुमारपाल का कोई भी मंदिर वगैरह नहीं तोडूंगा।" कषाय अविवेक आदि के अंधापे पर पिता-पुत्र : बस, यहाँ से राजा अधम कृत्य से अटक गया। परन्तु ऐसा कब हुआ? भवैये की चपत पड़ी और गर्व गला तब । गर्व कब गला? कुछ तात्त्विक वाणी सुनने मिली तब । तब तक तो अभिमान के अन्धपन में राजा कुमारपाल के सुन्दर कलामय, अति पवित्र जिन-मंदिरों को तोड़ने के पीछे पागल हो रहा था। इस तरह मानभट ने भी अभिमान के अन्धत्व में अपनी पत्नी और माता-पिता को कुएँ में गिरते देखा फिर भी नहीं रोका। जब कि उसके पिता वीरभट में अविवेक का अंधापन ऐसा था कि उसने अपने शेष बहुमूल्य जीवन का, उसमें साधी जा सके ऐसी प्रभुभजन, परोपकार आदि साधनाओं का मूल्य नहीं पहचाना, और जीवन भर के दुःख-संताप से घबरा कर कुएँ में छलाँग लगा दी। इसलिए - कहना रहा अविवेक, कषाय, तथा मिथ्या मान्यता आदि का अन्धापन बहुत बुरा कि जो इससे उत्पन्न होने वाले अनेक जन्मों के सत्यानाश को देखने नहीं देता। आभ्यंतर संयोगो में 'अनित्यता' की भावना : मानभट तब तक तो देखता रहा जब तक तीनों कुएँ में गिर पड़े; वह अभिमानरुपी महाराक्षस के बस में था। अतः रोकने की कोशिश नहीं की। परन्तु अब तीनों निर्दोष और प्रेमीजनों की दारुण मृत्यु हो गयी उस पर विचार करते हुए कायम नहीं रख सका। अनित्यता की भावना के चिन्तन में शास्त्र कहते हैं कि अनित्यता बाह्य एवं अभ्यन्तर दोनों प्रकार की परिस्थितियों की सोचनी चाहिए। जिस तरह बाहर के कंचन-कुटुम्ब-कीर्ति आदि के संयोग अनित्य हैं, नश्वर हैं, सदा के लिए टिकनेवाले नहीं है, उसी तरह, आभ्यन्तर मलिन भावनाओं के संयोग भी विनश्वर हैं।' मनुष्य एक बार कितने ही क्रोध में भर जाय परन्तु वह क्रोध ज्यों का त्यों कायम ही नहीं Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहता । क्रोध में से अभिमान में, अभिमान में से लोभ में या शोक में उतर जाता है । क्रोध-‍ -मान को रोकने के लिए क्या विचार करना ? : इसीलिए बुद्धिमान मनुष्य यह सोचता है कि 'यदि मैं क्रोध या अभिमान को कायम रख ही नहीं सकता तो ऐसे क्रोध या अभिमान करने की मुझे क्या आवश्यकता है ? प्र०. - क्षण भर के लिए ही करना है, ऐसा मानकर करे तो ? उ०- वह भी किस लिए ? जिस लाभ हेतु कषाय किया जाय वह लाभ भी अनित्य है । वह लाभ भी कोई कायम नहीं रहेगा।' तो क्षणिक लाभ के लिए कषाय करना ही क्यों ! क्षणभर के लिए भी आत्मा को काली करने की क्या आवश्यकता ? यह विचार इसलिए है कि आत्मा हमारी अविनाशी है; शाश्वत - सनातन काल रहनेवाली है । वह अनित्य संयोगों पर क्यों आस्था रख कर उनकी शरण ले ? रेलगाडी के सफर में एक डिब्बे में मिले हुए लोग अच्छा बोलने वाले, अच्छी बातें करनेवाले, और चाय भी पिलानेवाले हों, तो भी लंबे सफरवाला उस पर कोई आस्था नहीं रखता, या वह बीच के स्टेशन पर उतरे तो उसके साथ उतर नहीं जाता। यह तो समझा ही हुआ है कि इस प्रवासी का संयोग कामचलाऊ; अतः वह आए जाए उससे कोई खुश - नाखुश नहीं होना ।' बस, इसी तरह बाहरी एवं भीतरी संयोग भी कामचलाऊ हैं तो उनके गमनागमन पर कुछ भी नाखुश-या-खुश होने की जरुरत नहीं। 'अरे ! बाह्य संयोग कर्माधीन हैं, किन्तु आभ्यन्तर संयोग तो मैं पैदा करूँ तभी हो सकते हैं । तो मन को जहरीले साँप की तरह डँसनेवाले ऐसे कषायों के या मलिन भावनाओं के चंचल जहरीले सापोलियें पैदा ही क्यों करूँ ? क्षणभर भी इनसे हृदय को क्यों काला करूँ ? यह विचार सदा जाग्रत रहे तो बहुत सुरक्षा मिले, कितनी ही आन्तरिक मलिन भावनाओं - वृत्तियों की उत्पत्ति ही रुक जाए । धन की तरह धन का मोह अनित्य : धन के संयोग को तो अनित्यरुप देखना ही, बल्कि उसके प्रति मोह के आन्तरिक संयोग को भी अनित्य ही देखना, और यह देख कर ऐसे सोचना कि 'ऐसा अनित्य मोह करने की मुझे क्या आवश्यकता ? ठीक है इन्हें कामचलाऊ निभाना जरुरी है तो निभा लेता हूँ यह जान-समझ कर कि ये नाशवंत हैं, इनका मोह भी नाशवंत है । जरा-सी परिस्थिति बदलने पर, जैसे कि जिस धन पर मोह किया था उसी धन के कारण कोई गुप्त धमकीपत्र आया, अथवा परिवार में कोई भारी संघर्ष पैदा हुआ अथवा सरकारी परेशानी आ पड़ी, आदि आदि तो फिर उसी धन से मोह होने के बदले तिरस्कार होने लगता है अत: पहले से ही मोह नहीं करना । मानभट में यह विवेक ही कहाँ था कि 'अभी जिस अभिमान में अक्कड़ बन रहा ६१ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हूँ, उसी अभिमान का संयोग कायम रहनेवाला नहीं है । तो मैं पहले ही उसे पैर क्यों जमाने दूँ। यह विवेक नहीं है , अतः अभिमान में चढ़ा तब तो आँख मूंद कर चढा । परन्तु अब उसे छोड कर भीगी बिल्ली बन गया, दीन-लाचार बन गया; क्योंकि निर्दोष, प्रेममय माता-पिता, पत्नी की एक साथ ऐसी भीषण कुमौत मेरे ही कारण हुई है यह उसकी समझ में आया । यह देखकर कँपकँपी छूटने लगी। ARNESSMS Bl L AMREN 20RSAMIRECE00580000MAMINAger's Horseenetwentungenimams Media | मानभट का पश्चात्ताप मानभट का पश्चात्ताप :उसके मन को भयानक आघात लगा और वह विलाप करने लगा कि 'हाय ! मैं मूर्ख यह क्या कर बैठा? इन तीनों को झूठे भ्रम में डालकर मरने दिया? लेकिन मैंने परलोक का विचार ही नहीं किया कि ऐसे घोर पाप के फलस्वरूप भवान्तर में मेरी कैसी भयानक दुर्दशा होगी? यहाँ तो क्षणभर का कषाय का आवेश लेकिन परभव में इसकी सजा दीर्घकालीन होगी! हाय ! तो क्षणिक कषायावेश से क्या सार पाया ? (१)धर्म को भूला :. 'अरे! मैने अपना पुत्रधर्म या पतिधर्म भी नहीं सोचा? ये लोग चाहे भ्रम में खिंच रहे हो लेकिन क्या मेरा फर्ज नहीं था कि इन्हें रोकूँ ? यदि ऐसा कोई फर्ज़ न हो तो मुझमें और एक पशु में क्या फर्क रहा ? खोल मानव का परन्तु दिल जनावर का, जिससे इतने निकट-सम्बन्धियों के प्रति भी धर्म का विचार ही नहीं करने दिया। मनुष्यता तो यह है जो हर एक धर्म को ध्यान में लेकर उस के पालन में सावधान रहे, जाग्रत रहे। धर्म के ख्याल और पालन के बिना मानवता ही क्या? (२) उपकार को भूला : मानभट पश्चात्ताप कर रहा है कि 'अरे! मैं कैसा मूर्ख कि माता-पिता के उपकार की भी परवाह नहीं की। उनके असंख्य उपकारों के बदले में मुझे इतना भी नहीं सूझा कि 'जरा पेड की ओट से निकल कर उनकी निगाह में जाऊं, जिससे ये मुझे जिन्दा जानकर कुएँ में न कद पडें? एक जानवर भी उपकारी के प्रति इतना निर्दय नहीं होता। (३) प्रेम को भूला : 'जब कि मैंने तीनों के साथ के अपने प्रेमसम्बन्ध की भी परवाह नहीं की? परलोक, धर्म और उपकार भूल गया, लेकिन प्रेम भी...भूल गया? जिससे ऐसा अत्यंत निष्ठुर, निःस्नेह बनकर उन्हें भ्रम में कुएँ में गिरने दिया-सो भी अपनी नजर के सामने ? (४) भक्ति को भूला :'तो क्या मुझ नराधम को गुरु भक्ति भी याद नहीं रही? कि अपने ऐसे पूज्य माता Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिता के प्रति भक्तिरुप में भी उन्हें अनजाने में ही साहस करने से रोकूँ? शायद अनार्य भी भक्ति-हीन तो नहीं बनते होंगे। तो क्या मै उनसे भी गया-बीता? (५)शर्म को भूल गया : 'तो मुझे इन तीनों के प्रति क्या दाक्षिण्य भी नहीं रहा ? और मैं निर्लज्ज हो गया? एक पुत्र या पति के तौर पर कोई शर्म भी रुकावट बनकर नहीं आयी ? कि ऐसा बेशर्मढीठ बन कर अपनी आँखों के सामने तीनों की कुमौत होने दी। (६) दया को भूल गया : 'हे जालिम जीव! तुझे दया भी न आयी कि कभी कोई सम्बन्ध या उपकार न भी हो तो भी भ्रम ही में ये कुएँ में गिर रहे हैं तो एक मानव-दया या जीव दया के तौर पर इन्हें बचा लूँ । किस हद तक मेरी निर्दयता? कैसी पिशाची लीला? (७) विनय को भूल गया : 'हे अधम जीव ! तेरा विनय भी कहाँ चला गया? कि गुरुजन अज्ञानता में ठोकर खाते हों तो उन्हें आगाह कर दूं। मैं निपट अविनयी उद्धत बना? 'हे मेरी पुत्र-वत्सल माता ! मैंने तेरी कोख से जन्म पाते हुए तुझे पीड़ा क्यों दी? तेरी कितना बडप्पन कि मुझे मेरा जान तू मेरे पीछे मरी? जब कि मैं अब भी एकदम काले पाषाण-सा निष्ठुर, जीवित खड़ा हूँ। मुझे धिक्कार है कि मुझे बहुत प्रेमपूर्वक आदरसहित पालनेवाली माँ के प्रति मैंने ऐसा भयंकर बर्ताव किया? उसने तो ठेठ अपनी वृद्धावस्था में भी उपकार किया, और मुझ पापात्मा के द्वारा ऐसा निर्दय कृत्य हुआ। __ 'और हे प्रेममयी पत्नी ! मेरे प्रेम को जरा सा भी खंडित, टकराया हुआ देखकर तू तो गले में फाँसी लगाने तक पहुँच गयी भी। और मैंने ऐसी सुयोग्य पत्नी के प्रति क्या यह सत्पुरुषोचित आचरण किया कि तुझे भ्रम में डालकर कुएँ में छलांग लगाने दी? ____ 'सचमुच ही मेरा हृदय वज्र के समान कठोर है कि मैं यह मृत्यु देखता रहा? तो अब मुझे जाकर क्या करना है ? मैं भी कुएँ में गिर पडूं ?'. मानभट पश्चात्ताप की चोटी पर पहुँच गया है। उसे अपनी नजरों के सामने दिखाई .. दे गया है कि अभिमान कितना घातक ? 'एक क्षण अभिमान ने परलोक, धर्म, उपकार, स्नेह, दाक्षिण्य, दया, विनय, वगैरह कितना कितना भुला दिया ? यह सब भुलानेवाला अभिमान कितना क्रूर, घातक ?' गुणरत्नों की सारी की सारी मंजूषा को गुम करवा दे, वही यह अभिमान है न? क्या आपको ऐसा अभिमान चाहिए ? यदि नहीं तो प्रभु से प्रतिदिन प्रार्थना कीजिए कि, 'हे प्रभु! मेरा अहंत्व तोड़िये ..... Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'हे नाथ ! कापो आ अभिमान मारूं। जे मानथी हुँ धर्मो विसारूं; माने चढ़ी भूलूँ कृतज्ञता ने, लज्जा, वली स्नेह-दया-लताने ।' प्रार्थना से इष्ट-सिद्धि होती है : क्योंकि हर रोज प्रार्थना करते करते (१) प्रार्थित वस्तु द्रष्टि-सम्मुख रहती है। (२) अन्तर में उसकी तीव्र आशंसा-अभिलाषा रहती है। (३) प्रार्थ्य परमात्मा का जीवन तथा गुण नज़र के सामने रहते हैं । (४) अतः उनके आलंबन से प्रार्थित वस्तु के लिए प्रयत्न होता है। (५) यहाँ अहंत्व, अभिमान हटाने की बात है, तो उसके पाप के कारण भूले जानेवाले धर्मों, कर्तव्यो, कृतज्ञता, लज्जा-दाक्षिण्य, प्रेम, दया आदि का प्रार्थना के कारण आचरण किया जाता है। इसलिए, इस आचरण में विघ्न बनने वाला अभिमान सहज ही एक तरफ हटाना पड़ता है, ऐसे प्रतिदिन प्रार्थना और प्रतिदिन उससे जगनेवाला खयाल तथा सतत स्वप्रयत्न करते-करते इष्ट रुप 'अहंत्व-नाश' आदि सिद्ध होता है। विवेक पैदा हुआ : आत्महत्या व्यर्थ प्रतीत हुई : मानभट देखता है कि इस अतिक्रूर अभिमान ने तो मुझे अनेक गुण भुला कर मुझसे भयंकर आचरण करवाये, तो अब मेरे जीने का क्या प्रयोजन ? मैं भी कुएँ में गिर पडूं।' आत्महत्या का विचार तो आया लेकिन इसकी भवितव्यता अच्छी थी, अत: उन तीनों की तरह इसने तुरन्त अविचारी कदम नहीं उठाया, वरन् विवेक पैदा होने के फलस्वरुप आगे विचार करने लगा : 'नहीं, नहीं, इस तरह कुएँ में गिरकर मर जाने से 'मेरे' पाप नष्ट नहीं होंगे, क्योंकि:'जलणंमि सत्तहुत्तं जलम्मि बीसं, गिरिमि सयहत्तं, पक्खिते अत्ताणे, तह वि सुद्धी महं नस्थि ।' । "अर्थात् मैंने ऐसे भीषण पाप किये हैं कि अब मैं सात बार अग्नि में, बीस बार पानी में और सौ बार पहाड़ पर से गिर पडूं तो भी मेरी शुद्धि नहीं होगी।" । जीवन में दो बडे अविवेक (१) भूल और (२) उसके बाद आत्महत्या । ____ मानभट को लगता है कि इस तरह आपमति से एक नहीं, अनेक आत्महत्याएँ करने से पापों का नाश नहीं होगा, क्योंकि यह सब अविधियुक्त है । अब मानभट में विवेक जगा है । (१) भयानक भूलें की यह प्रथम अविवेक और (२) भूलों के बाद आत्महत्या का विचार आया। यह दूसरा अविवेक है। परन्तु अब विवेक का प्रकाश हुआ है, इसलिए जीवन सुधारने और पापनाश करने के उचित मार्ग लेने की ओर मुड़ता है। बेचारे माँ-बाप ने अविवेक से आत्महत्या ही अपना ली, अत: मानवजीवन के सत्पुरुषार्थ के बहुमूल्य अवसर ही खो दिये । सो अब क्या हो? Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (आत्महत्या-भयंकर अपराध क्यों ? आत्महत्या के विषय में सोचना चाहिए कि यदि जीवन में ऐसे बहुमूल्य एक दो धर्म-पुरुषार्थ के अवसर खोना भी गुनाह है तो सभी अवसर जानबूझकर एक साथ खो डालने में कितना भयंकर अपराध ? अतः अयोग्य आत्महत्या अति भयानक अपराध है। पूर्व के प्रबल पुण्य कर्मों ने यह एक ऐसा सुन्दर धर्म पुरुषार्थवाला जीवन दिया है कि इसमें बुद्धिबल और विवेकशक्ति के साथ धर्मसाम्रगी मिलने के कारण अनेक अनेक प्रकार के धर्म के तथा गुण के सत्पुरुषार्थ करने के अमूल्य अवसर मिले हैं । इसको जो ऐसे पुरुषार्थ करके सफल नहीं बनाता वह कर्मसत्ता का बड़ा गुनहगार बनता है; क्योंकि कर्म ने हमारी शुभसामग्री सत्पुरुषार्थ के बिना बरबाद कर दी, इसलिए भावी कितने ही भवों तक ऐसे अवसरों वाला मानव-जीवन पाने के लिए अयोग्य बन जाता है। अतः बुद्धिमत्ता इसमें है कि आत्महत्या भी न करना और सत्पुरुषार्थ को भी हाथ से न जाने देना । मानभट में अब यह समझदारी जाग्रत होती है। अत: वह सोचता है: मानभट का भावी मार्ग : 'यों ही व्यर्थ मर जाने से क्या लाभ? अब तो यही युक्ति युक्त है कि कुएँ में गिरे हुए इन सब की लाशें बाहर निकाल कर सत्कारपूर्वक अग्निसंस्कार करके फिर वैराग्य की राह लूँ और देशविदेश, शहर, गाँव, मठ-मंदिर आदि में पर्यटन करूँ इससे कहीं ऐसे गुरु मिलेंगे जो बताएँगे कि इन पापों की कैसे शुद्धि हो । तब मैं उनके इंगित किये हुए मार्ग से प्रायश्चित्त करूँगा।' बस, जैसे हि विचार आया वैसे ही अमल शुरू । मानभट ने तीनों मृतकों की लाशें बाहर निकाली, उनका सत्कार किया और उनके आगे अश्रुपूर्ण नेत्रो से अपने भयंकर अपराध की क्षमा माँगी, उनका अग्निसंस्कार किया। तत्पश्चात वह वैरागी का वेश धारण कर घुमने निकल पड़ा । घूमते घूमते वह मथुरा गया। गुरु की खोज किसलिए? देखिये ! चूँकि पापशुद्धि की लगन लगी है, अब वह इसी को जीवन का मुख्य कर्तव्य बनाकर उसके लिए कितना कितना करने को तत्पर है। वह कैसा इसके पीछे लग गया है। उसने एक यह महत्व की बात समझ ली है कि 'पापशुद्धि करनी हो तो योग्य गुरु के पास ही हो सकती है। गुरु से ही उसका उचित-सही-उपाय जानने मिलता है और गुरु ऐसे घर बैठे नहीं मिल सकते, उनकी तो खोज करनी पड़ती है। __यदी एक जन्म का शरीर सुधारने के लिए ऐसे अच्छे वैद्य-डाक्टर की तलाश करनी पड़ती है तो भवोभव की आत्मा का सुधार करने के लिए योग्य गुरु की खोज नहीं करनी होगी? मानभट को अपने द्वारा किये गये अपराध भीषण आत्म-रोग रुप मालूम होते हैं। अतः अब रोग भयानक लगने से स्वात्मा को चुभने लगा। फिर उसके निवारण की तमन्ना Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगी, निवारण हेतु, योग्य गुरु प्राप्त करने की तड़पन हुई, अतः अब उसके कारण गाँवगाँव खोज करने का प्रयत्न होना स्वाभाविक है । शरीर के रोग शीघ्र ही रोगरुप प्रतीत होते हैं, लेकिन आत्मा के रोग देर से भी रोगरुप नहीं लगते। फिर उनकी चुभन क्यों रहे ? उसे हटाने की तमन्ना ही कैसे हो ? और उसके लिए योग्य गुरू की तलाश, या गुरू - प्राप्ति का मूल्यांकन कैसे हो ? जीवन में बहुत कुछ लगेगा, बहुत कई अभिलाषायें जगेगी, इस हेतु, परिश्रम भी किया जाएगा, लेकिन वह सब बाह्य वस्तुओं के लिए जो इस जीवन के अन्त में अवश्य यहीं रहनेवाले हैं, और आत्मा स्वयं परलोक में फेंकी जाएगा । कीड़े-मकोडे, पशुपक्षी आदि को भी जीवन मिला है वे जीते है, लेकिन यह आत्मरोग पहचानने की बात उन में कहाँ है ? यही नहीं, तो उसे दूर करने की तमन्ना भी कहाँ ? और उसे हटानेवाले गुरु का उसके मन मूल्य क्या ? एक मानव का जीवन ही ऐसा हैं कि इसी में यह चुभन और तमन्ना, और गुरु की कद्र हो सकती है । फिर यहाँ भी हृदय को निःशल्य बनाकर और यह समझकर ही कि सच्ची स्वस्थता देनेवाले और भवांतर में सद्गति एवं समृद्धि देनेवाले गुरु ही हैं, मानभट गुरु की खोज में घूमता है। घूमते घूमते वह मथुरा जा पहुँचा । • मानभट गंगा-संगम की ओर : यहाँ मथुरा में एक अनाथ मंड़प था, उसमें गाँव गाँव के कुष्टादि के मरीज, - अंधे, और घोर पापी इकट्ठे हुए थे, और यह चर्चा करते थे कि यह रोग, यह शारीरिक खामी, यह महा पाप किस तरह दूर हो ? मानभट वहाँ जाकर बैठ गया और चर्चा सुनने लगा । उसमें चर्चा के बीच यह सुना कि, 'माता-पिता की हत्या के समान भयंकर पाप भी गंगा-यमुना के संगम में स्नान करने से नष्ट होता है।' नभ को लगा कि 'यह सुन्दर बात कही सो मैं जाता हूँ; गंगा के संगम में नहा लूँ और उसके बाद अपने आप को किसी खाई में फेंक दूँ।' ऐसा कह कर वह रवाना हुआ और यहाँ कोशाम्बी में आया है । 'कुवलयमाला' चरित्र में राजा पुरंदरदत्त को धर्म प्राप्त करवाने के लिए वासवमंत्री उद्यान में ले गया कि जहाँ धर्मनन्दन आचार्य देव के शुभागमन के समाचार मंत्री को उद्यानपालक से मिले थे । वहाँ वासवमंत्री के पूछने पर आचार्य महाराज संसार की दुःखमय स्थिति का वर्णन कर उसके कारणभूत क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मोह - इन पाँच कारणों में से क्रोध का स्वरुप चंडसोम के जीवन्त दृष्टान्त के द्वारा बताकर अब मान का स्वरुप मानभट्ट के जीवन्त दृष्टान्त से बता रहे हैं । जीव की मूढ़ मान्यताएँ क्यों खोखली है ? यहाँ आचार्यदेव श्री धर्मनन्दन राजा पुरन्दरदत्त से कहते हैं कि जीव की यह कैसी मूढ़ता है कि 'वह मानता है कि गंगा में स्नान करके पहाड़ पर से खाई में कूद पड़ने से पाप नष्ट होते हैं ।' अरे ! गंगा के स्नान से तो शरीर को पानी का स्पर्श होने के कारण जड़ शरीर ६६ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का मैल धुलता है, किन्तु आत्मा के जो पाप है वे किस तरह धुलें? वैसे ही पर्वत पर से छलांग लगाने से हड्डियों का चूरा हो जाय लेकिन पापों का चूरा कैसे हो? पाप तो जीव के साथ परलोक में जाते हैं, क्योंकि पाप तो आत्मा की वस्तु है, न कि शरीर की। अतः शरीर टूटने से पाप कैसे टूट सकता है । इसलिए प्रश्न यह है कि 'ऐसा कौनसा कारण है भला कि जिससे पहाड़ से गिरने के फलस्वरुप पाप का नाश हो जाय ?' (१) कहिये कि 'ऐसा स्वभाव ही है; यही कारण है कि ऐसा होता है।' यदि ऐसा कहते हैं तो प्रश्न यह है कि ऐसा होना किसने देखा है ? क्योंकि प्रत्यक्षतः कुछ नहीं देखा जा सकता । आत्मा तो अमूर्त-अरुपी है। यह आत्मा ही यदि प्रत्यक्षतः दृश्यमान नहीं तो उस पर लगे हुए पाप रहे है, या नष्ट हुए, यह तो दिख ही कैसे सकता है ? (२) तब यों कहिये कि 'शास्त्रों से ज्ञात होता है कि पर्वत पर से पतन द्वारा पाप नष्ट होते हैं।' तो शास्त्र भी किसके बनाये हुए ? रुपी, अरुपी सब कुछ जो प्रत्यक्ष देख और जान सकते हैं ऐसे सर्वज्ञ के रचे हुए या न देख सकनेवाले अल्पज्ञ के रचे हुए ? यदि अल्पज्ञ के कहे हुए हैं तो वे प्रमाणभूत किस तरह से माने जाएँ ? जिसने प्रत्यक्ष नहीं देखा कि पाप-नाश इस तरह होता है वह ऐसा कहे तो उस पर क्या विश्वास रखा जाय? तब यदि कहते हैं कि सर्वज्ञ रचित शास्त्र ऐसा कहते हैं तो वह झूठ है; सर्वज्ञ ऐसा कभी नहीं कहेंगे। शास्त्र तो सर्वज्ञ रचित ही प्रमाणभूत माने जा सकते हैं, और वे तो ऐसा कहते हैं पडण पडियस्स धम्मो न होइ, अह मंगुलं हवइ चित्तं । सुद्धमणो उण पुरिसो घरे वि कम्मख्यं कुणइ ॥ | तम्हा कुणह विसुद्धं चित्तं तव-णियम-सील जोएहिं । आंतरभावेण विणा सव्वं भुसकुट्टियं एयं ॥ 'अर्थात किसी पहाड़ पर से गिरने में धर्म नहीं होता, वरन् चित्त उलटे मलिन, अशुभ विचारवाला बनता है क्योंकि एक तो चित्त ने यह नहीं देखा कि ऐसे शरीर फेंक देने से वह जहाँ गिरेगा वहाँ यह शरीर कोई सूक्ष्म जीव जन्तु मारेगा तो? अत: ऐसा चित्त शुद्ध नहीं । दूसरा यह कि, गिरने मे भीषण वेदना होने पर चित्त में 'हाय हाय' उठे वह अशुभ ही है। तब चित्त बिगड़ता हो उसमें पाप शुद्धि कैसी? और यदि चित्त शुद्ध हो तो वह मनुष्य घर में भी कर्मक्षय करता है। अत: ऐसी पहाड से गिरने जैसी अज्ञानमूढ प्रवृत्ति करने के बदले तपस्या, नियम, शुभ ध्यान एवं शील के योगों से मन को शुद्ध करो; क्योंकि इससे अन्तःकरण के भाव शुद्ध होते है। अन्यथा जिससे अंतःकरण के भाव शुद्ध न बनें ऐसी चाहे जितनी प्रवृत्ति करना भी फूसा फटकने के समान है। धान के ऊपर का भुसा लाख मन कूटा जाय तो भी उससे क्या? पाव भर भी चावल थोडे ही निकलेंगे? Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसे पाप के मूल में मलिन मन होता है वैसे पापनाश के मूल में शुद्ध मन होना चाहिए। आचार्य महाराज ने बराबर युक्तपूर्ण मार्ग दिखाया! पाप मलिन अर्थात् बिगड़े मन से हुए हैं, इनका निष्कासन करना हो तो सबसे पहले मन को ही स्वच्छ करना पड़े। जब तक मन मैला तब तक पाप का नाश कैसा? और पाप नाश के बिना प्रगति कैसे हो? अतः पहले यह देखना चाहिए कि मन किस तरह शुद्ध, पवित्र उज्ज्वल बने। __आचार्य महाराज ने यह दर्शाया कि मन को भी निर्मल बनाना हो तो यह मनचाही खान पान की प्रवृत्तियाँ साथ ही मनचाही इन्द्रिय-विषयों की प्रवृत्तियाँ तथा चाहे जैसे हिंसा असत्य आदि पापाचारों के सेवन से संभव नहीं, क्योंकि ये प्रवृत्तियाँ ही ऐसी हैं कि मन मलिन हो तो ही इन में प्रवर्तमान रहे, तदुपरान्त इनके सेवन से चित्त और अधिक मलिन भी बने। हिंसा झूठ वगैरह के विचार मलिन मन में से उठते हैं और हिंसादि करने से मन अधिक मलिन होता है। 'जड़ जड़ को खाता है' ऐसा दम्भ : इस तरह खाते-पीते दीवाली मनानी है; और उसमें ऊपर से ढोंगी भाव रखना कि 'पुद्गल पुद्गल का भक्षण करता है, आत्मा को इससे क्या?' यदि सचमुच चित्त को ऐसा प्रतीत हुआ हो कि आत्मा को अच्छे रुप के साथ कोई सम्बन्ध नहीं तो फिर आत्मा क्यों इस में प्रवृत्त हो ? गर्म पानी या चिरायते का पानी आत्मा क्यों न पीए ? शरीर जड़ है और खान-पान जड़ है - यह सच है; किन्तु आत्मा की इच्छा वीर्य-स्फुरण और प्रयत्न के बिना शरीर थोडे ही अपने आप प्रवृत्त होता है ? ऐसे तो फिर शब भी प्रवृत्त होने लग जाए ? लेकिन नहीं, इच्छा, वीर्यस्फुरण और प्रयत्न तो आत्मा के धर्म हैं, और उनके बिना शरीर प्रवर्तमान हो ही नहीं सकता। अतः जड़ की ओर जड़ शरीर यों ही नहीं दौड़ता, दौड़ती तो आत्मा है, तभी उसके साथ शरीर दौड़ता है। आत्मा के प्रयत्न से शरीर प्रवृत्ति करता है। रेलगाड़ी के इंजिन जैसी बात है। ड्राइवर कोशिश करता है तभी इंजिन दौड़ता है और वह दौड़ता है तभी रेलगाडी दौडती है। सारांश, जब आत्मा खान-पान, विषयों तथा हिंसादि के लिए प्रयत्न करे तभी शरीर अपनी प्रवृत्ति कर सकता है। इसलिए कहा जाता है कि आत्मा को ये मनभावन खान पान ग्रहण करने में मन मैला करना ही पड़ता है। इस पर से सिद्ध होता है कि - मन को स्वच्छ करना हो तो - (१) मनभावन खान पानादि छोड़ कर त्याग-तपस्या में प्रवृत्त होना चाहिए। (२) इन्द्रियों के विषयों की प्रवृत्ति जिनसे रुक जाए, ऐसे कठोर व्रत, नियम, अभिग्रह धारण करें। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (३) हिंसा वगैरह पापाचारों को रोकने के लिए, अहिंसा, सत्य आदि के प्रतिज्ञा बद्ध शील-महाव्रत का पालन करना । इस महाव्रत को पुष्ट करने वाले समिति गुप्तिस्वाध्याय ध्यान आदि के आचार-अनुष्ठान में लगे रहना चाहिए। तप आदि से मन स्वच्छ किस तरह ?: ऐसा करते करते मन मलिन भावों में रमण करने से हटेगा । मन क्यों मैले भाव धारण करता है ? खान पानादि के कारण, इन्द्रियों के विषयों के कारण और हिंसा-झूठ आदि पापाचारों के कारण । अब यदि तप-नियम-शील की ही प्रवृत्ति रहे, मन उसमें रत होने के कारण मन को अशुभ भावों में रमना रहता ही नहीं, फलतः इस तरह से मन स्वच्छ, निर्मल, विशुद्ध होता जाता है। अतः कहा है कि, 'तप, नियम, शील के योगों द्वारा मन को विशुद्ध करो।' आचार्य महाराज धर्मनन्दन के यह कहने पर वहाँ आकर बैठे हुए मानभट को महसूस हुआ कि 'मैं अब तक ठगा गया, मन शुद्ध किये बिना पाप-नाश नहीं होता, और तप-नियमादि के बिना मन शुद्ध नहीं होता।' महापापात्मा ऐसे मानभट के हृदय का परिवर्तन हुआ! और भ्रान्ति-अज्ञान, मूढ़दशा छूट गयी। जिन शासन की ठोस टॅकसाली सच्ची बातों का यह प्रभाव है कि जीव के मिथ्यात्व-अज्ञान-भ्रान्ति आदि का वमन करा दे। मूल मल है राग द्वेष : जिन शासन के सिवा और कौन यह मेल बैठा सकता है कि मलिन मन से पाप होता है और मन को भानेवाले खानपान से मन मलिन बनता है ? भूख लगना प्राकृतिक क्रिया है, शरीर को टिकाने के लिए खान-पान आदि जरुरी हैं। अब यदि शरीर टिके तो ही धर्म साधना हो सकती है। तब फिर मनचाहे खान-पान लेते गये तो इसमें क्या दोष? पाप काहे का? मन कैसे मैला होता है ? परन्तु जिनशासन समझाता है कि मनभावन खान पान खोजने - जाने में खूब खूब रागद्वेष का पोषण होता है। रागवश अमुक अमुक वस्तुएँ पसंद आती हैं, तो द्वेषवश अन्य वस्तुएँ नापसंद होती है। रागद्वेष जिसे नहीं, उसे पसंद-क्या ? और नापसंद क्या ? रागद्वेष से ही पसंद-नापसंद होती है। और रागद्वेष ही आत्मा का कहिये या मन का मूल बुनियादी दोष है, मन का मैल है। मन चाहे खानपानादि के माध्यम से यह मैल इकट्ठा करना जारी हो और ऐसा माने कि केवल प्रभु-भजनादि अन्य धार्मिक प्रवृत्तियों द्वारा मैं तर जाऊंगा तो वह भ्रम में पड़ता है - भूलता है। धार्मिक प्रवृत्ति से धर्म होता है, लेकिन उन खानपानादि के रागद्वेष का मैल और उससे उत्पन्न होनेवाले पाप कहाँ जाएँ ? तो जब तक मैल है तब तक तरना कैसे हो? तरने का अर्थ है आत्मा को सर्वथा शुद्ध करना, किन्तु मैल विद्यमान हैं तब तक सर्वथा शुद्ध कैसे होगा? राग द्वेष का मूल मैल दूर करना तो इतना अधिक आवश्यक है कि पू. उपा. श्री Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यशोविजय जी महाराज ने अपने 'उपदेश रहस्य' नामक ग्रन्थ में उपदेश की उपदेश के पदार्थो की व्यवस्था बताकर अन्त में कहा है कि सारे उपदेश का सार यह है कि 'रागद्वेष त्यागने योग्य हैं, जिस से रागद्वेष घटते रहें ऐसी प्रवृत्ति अपनानी चाहिए ।' अर्थात जैन शासन का अन्तिम आदेश रागद्वेष के त्याग का है, और यह त्याग करानेवाली प्रवृत्ति करने का ठहरता है। . राग द्वेष कैसे दबे ?: (१) इस लिहाज से रागद्वेष को पोसनेवाले मनभावन खान पानादि में कमी कर के तप और त्याग की प्रवृत्ति भरपूर करनी चाहिए, जिससे रागद्वेष का पोषण रुके, राग द्वेष दबते जाएँ। (२) वैसे ही मन चाहे विषयों में इन्द्रियों की प्रवृत्ति से रागद्वेष पोसे जाते हैं। अतः इनके विरुद्ध इन्द्रियों पर निग्रह और व्रत नियमों का पालन भलीभाँति करना चाहिए । इनसे भी रागद्वेष का पोषण एकेगा। (३) इसी तरह हिंसा, असत्य आदि के सेवन से तो रागद्वेष का अत्यधिक पोषण होता है अत: उसे रोकने के लिए शील अर्थात उन 'हिंसादि का त्रिविधे-त्रिविधे त्याग' का आचरण करना चाहिये। आचार्यदेव धर्मनन्दन ने इस तरह संक्षेप में ही तप, नियम तथा शील का आचरण, भौतिकता तथा बाह्यभाव में पापमल की ओर दुर्लक्ष करने से पापमल कम होना समझाया ! क्या हम भी चाहते तो हैं न कि हमारे पापमल कम हों ? क्या कम होने के बदले बढ़ जाएँ तो कोई विरोध नहीं? पापमल कम करने की दिशा में विचार ही नहीं है, यह आज के समय के केवल भौतिक और अति बाह्य भाव के जीवन की बलिहारी है। आज का मानव सुबह जगता है तब से लगा कर नींद लगने तक सिर्फ काया, माया और व्यर्थ पंचायत की पीड़ा ही ढोता है। किन्तु कहीं भी अन्तरात्मा का तथा ऊपरवाले परमात्मा का और बादवाले परलोक का विचार तक नहीं करता। दो व्यक्ति इकट्ठे हुए कि देख लो, वही परायी पंचायत की ही चर्चा शुरु हो जाती है। 'अरे तुम तो आस्तिक हो या नास्तिक ? आर्य हो या म्लेच्छ ? उच्चकुल के हो या जन-जाति के ? नास्तिक-म्लेच्छ-जनजाति का रहन-सहन जैसा क्या वैसा ही आस्तिकआर्य-कुलीन का भी?' यह इन्हें कौन कहनेवाला है ? यह खाने की बात और वह खाने की बात । यह देखने और वह देखने की बात । पांचों इन्द्रियों के तो क्या, केवल एक चक्षुरिन्द्रिय के विषय भी कितने अपरंपार । उनकी-एक एक की बात और विचार जारी है । 'यह तो अच्छा दिखाई देता है लेकिन वह बुरा। यह रंग में अच्छा है पर शकल खराब ।' 'मकान सुघड है परन्तु रंगों का ढंग नहीं ।' ऐसी ऐसी न जाने कितनी टीका Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणियाँ-चर्चाएँ केवल नेत्रेन्द्रिय के एक एक विषय पर चलती हैं। इनमें आत्मतत्त्व का विचार कहाँ ? परलोक का भान कहाँ ? संसार के पदार्थों की विनश्वरता का ख्याल कहाँ ? बाह्य वस्तुओं का कूडा जल्दी ध्यान में आता है, जब कि आत्मा में पापमल के स्तर पर स्तर जमे हुए हैं सो नहीं दिखाई देते । फिर वे अखरे कैसे? अखरते ही नहीं, तो उन्हें साफ करने के लिए तप-नियम-शील के भव्य उपायों को अपनाने की बात ही क्या? आज क्या चल पड़ा है ? :- अष्टमी-चतुर्दशी जैसी महापर्व तिथियों को भी सुबह हुई तब से खाऊँ, पीऊँ खानेपीने का खुला हुआ। हरी सब्जी का कुचलना, रौंदना रोज चालू । रात्रि भोजन जरा भी अंकुश के बिना जारी ! मावा वगैरह बासी, अभक्ष्य का पूछना ही नहीं ! इस तरह इन्द्रियविषयों के पोषण में तो आधुनिक नारियाँ खुद अपने अंगोपांग पब्लिक के देखने के लिए खुले-रखती हैं, फिर देखनेवाले देखने से क्यों चूकें ? पिक्चर,- उनके पोस्टर, हररोज असंख्य वनस्पति-जीवों को रौंदना, कुचलना होता है ऐसे बाग-बगीचे, कपड़ों के फेशन, समाचार पत्रों के भौतिक एवं कामोत्तेजक समाचार तथा बीभत्स-अश्लील कहानियाँ आदि कितना चल पड़ा है ? जीवन में भौतिकता का पार नहीं है ! इसमें फिर जिससे अपना जरा भी सम्बन्ध नहीं ऐसी पराई पंचायत कितनी ? जिस बात में से कुछ भी सिद्ध होनेवाला नहीं, कोई लाभ नहीं, उसमें कितनी दिलचस्पी ? जहाँ अपना कुछ चलनेवाला नहीं, दूसरों से कुछ करवाना संभव नहीं, उसकी जलन और हायहाय कितनी ? जो जरा भी प्रशंसनीय नहीं उसकी भी कितनी प्रशंसा ? ऊपर से बहती हुई भौतिकता और लबालब भरे हुए बाह्यभाव ने आज आर्य-मानवों को भी अच्छी तरह घेर लिया है। इसीसे वे धर्मविहीन पशुजीवन जीते हैं। मानवजीवन आत्मा में लगे हुए युग युग के पाप मल को धोने के लिए है। मानभट के हाथों घोर पाप हुए, उसके बाद उन्हें धोने की लगन लगी, और गुरु महाराज से उसका असली स्वरुपदर्शन एवं मार्गदर्शन मिला कि पर्वत-पतन से पाप के मैल नहीं धुलते, इससे तो चित्त का मैल बढ़ता है। चित्त का मैल तप-नियम-शील के योगों से साफ होता है। ऐसे मैल को धोकर चित्त को शुद्ध किया जाय तभी ऊंचा चढा जाता है। मलिन चित्त के भाव से तो पहाड़ पर से झंपापात करे तो भी वह फूस फटकने के समान है।' यह सुनकर मानभट के दिल में यह अच्छी तरह घर कर गया। मानभट पैरों पड़ता है : मानभट तत्क्षण खड़ा होकर आचार्य भगवान् के चरणों में मस्तक झुकाता है, और कहता है, "भगवान् । मैंने आपके चरणयुग्म को पकड़ा है। आपने जो कहा उसमें जरा भी गलत नहीं है। अतः अब मुझ पर कृपा कीजिये, मैं क्या करूँ सो फरमाइये।" आचार्य भगवन्त कहते हैं : Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "हे मानभट ! तुम ज्ञान-तप-संयम सहित सम्यक्त्व को धारण करो; मोक्ष-मार्ग के यात्रियों के लिए साधना के ये चार अंग है। (१) सम्यक्त्व में गुरु ने जैसा उपदेश दिया हो वैसा स्वीकार करना होता है। (२) निर्मल ज्ञान के दीपक से 'क्या करणीय है क्या अकरणीय है' इस की जानकारी होती है। (३) तप के द्वारा जो पूर्वकृत पाप होते हैं वे सभी तप कर खाक हो जाते हैं। (४) संयम से नियंत्रित मुनि दूसरे नये कर्म नहीं बाँधता। इस तरह सम्यक्त्व-ज्ञान-तप-संयम की आराधना करते करते जब जीव सर्वथा शुद्ध हो जाता है, किसी मल का, किसी कर्म का लेप नहीं रहता, तब वह ऐसे 'सिद्धि' स्थान पर पहुँचता है जहाँ कोई दुःख नहीं, सांयोगिक सुख नहीं, जहाँ कोई रोग नहीं, पीड़ा नहीं। (सम्यक्त्व उन्नति का पहला पग (चरण) है : आचार्य भगवन्त ने रागादि पापमल तथा कर्म का मल धोने के सर्वज्ञ द्वारा प्ररुपित सुन्दर और अमोघ उपाय बता दिये । प्रथम सम्यक्त्व आया, अतः गुरु द्वारा उपदेश दिया हुआ सब कुछ 'तहत्ति' कर के स्वीकार कर लेना आया । इस पर कोई शंका-कुशंका नहीं। देख लिया कि गुरु स्वयं भी भवभीरु हैं, पापमय संसार के त्यागी हैं, और पापमल धोने के सर्वज्ञ-कथित सभी उपायों में लगे हुए हैं, अत: उन्हें असत्य बोलने का कोई कारण नहीं । आज हमारे सामने सर्वज्ञ मौजूद नहीं हैं, तो गुरुने कहा सो सर्वज्ञ-वचन मानकर उसका हृदयपूर्वक स्वीकार ही करना होता है कि 'यह सर्वथा सत्य है, ग्राह्य है, एकान्ततः कल्याणकर है।' यह स्वीकार अर्थात् यह श्रद्धा न हो तो कोई भले इन वचनों में से कुछ साधना करें तो भी वह डगमगाते हृदय से होगी, साथ ही हृदय में दूसरी स्वीकार नहीं की हुई साधना या स्वीकार नहीं किये गये तत्व के प्रति अरुचि रहेगी। जबकि सर्वज्ञकथित, गुरु प्रतीत टंकसाली सत्यस्वरुप एक भी तत्त्व या वस्तु के प्रति अरुचि रहे तो वह जीव को मिथ्यात्व से वासित रखती है। ऐसे अरुचि मिथ्यात्व से वासित हृदय में, अन्य साधनाओं के बावजुद उन्नति-उत्कर्ष संभव नहीं । सम्यक्त्व अर्थात् गुरु कथित संपूर्ण तत्त्वों का स्वीकार उन्नति का पहला पाया है, इसके आने के बाद तो साधनाएँ कोई दूर नहीं, उन्नति बहुत बिल्कुल निकट ही है। अभी साधनाओं में प्रमाद क्यों है ? कहो कि इन पर अभी तक उतनी ज्वलंत श्रद्धा नहीं है इसलिए । सम्यक्त्व का महत्त्व : सुलसा, रेवती, श्रेणिक,- कृष्णजी आदि इस सम्यक्त्व के बल पर महान् बन गये, तीर्थंकर बनने की मुहर लगा ले गये। अंबड़ परिव्राजक विद्याधर और महान् श्रावक Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होते हुए भी इस सम्यक्त्व की विशेषता समझे इस हेतु से, उसे सुलसा का सम्यक्त्व देखने मिले ऐसी स्थिति में रखा। सुलसा में देखने को मिला उसे । क्या ? वीतराग सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवान् ने जिसे कुलिंग कुवेश कहा है उसे धारण करनेवाले को परछाई से भी दूर रहना, उसका परिचय नहीं, सत्कार नहीं, और प्रशंसा भी नहीं । फिर चाहे उसका विद्याबल कितना ही हो या वह संसार त्यागी जैसा दिखता हो, फिर भी उसका परिचय आदि कुछ करना नहीं-इस भय से कि कहीं सम्यक्त्व रत्न को दाग लग जाए तो?' सर्वज्ञ ने ही ऐसे परिचयादि की मनाई की है, तो उस वचन को बराबर स्वीकार कर ऐसों से दूर ही रहना चाहिए ‘ऐसों में भी कुछ तो अच्छा होगा न ? अत: चलो, देखने में क्या हर्ज़ है?' ऐसे जहरीले प्रयोग नहीं करना। अन्यथा बाद में इसमें से यह भी कुछ ठीक है, इसका मार्ग भी नितान्त फेंक देने लायक नहीं है'.... आदि मिथ्यामार्ग का आकर्षण अर्थात कांक्षामोहनीय का जन्म होगा। इससे तो सम्यक्त्व रत्न को मैल लगता है। सर्वज्ञ वीतराग को शिरसा स्वीकार्य मानने के बाद तो उन्हें यदि समझकर स्वीकार किया हो तो असर्वज्ञ, अज्ञानी, अधूरे ज्ञानवाले, मिथ्यामति... वगैरह पर से मन ही उचट जाए: उनके मार्ग या वचन पर से दिल पूरी तरह से उठ जाए । हृदय जरा भी उनकी ओर आकर्षित ही न हो। मन को ऐसा लगता है कि 'हाय! यहाँ जब मूल में जिस वस्तु का प्रत्यक्ष दर्शन नहीं है, और उसके विषय में गप्पें हाँकी जाती हैं, तो वहाँ क्या सार होगा? ऐसे से क्या आकर्षित होना?' साधना का प्रथम पाद है सर्वज्ञ वचन का सांगोपांग संपूर्ण स्वीकार। यह हो तो साधना में तात्त्विक उत्साह रहता है। सर्वज्ञ वचन को बतानेवाले सद्गुरु हैं, अत: सद्गुरु का कहा सब कुछ स्वीकार करना चाहिए। ज्ञान, तप, संयम क्यों आवश्यक है ? : आचार्य महाराज इस सम्यक्त्व के साथ ज्ञान, तप और संयम साधने को कहते हैं। अकेला वचन का स्वीकार कर लिया, लेकिन बाद में उसे समझने और व्यवहार में प्रयुक्त करने की बात न हो तो पापमल का अन्त और आत्मा पर रहे संसार का अन्त नहीं आता। गुरुवचन से समष्टि रुप में स्वीकार तो कर लिया कि 'सारा ही पापमल त्याज्य है' परन्तु बाद में यदि हरएक पापमल को अलग अलग नहीं समझे तो उसका त्याग भी किस तरह कर सकता है ? यह समझने ही के लिए ज्ञान चाहिए । अतः यह ज्ञान प्राप्ति की साधना प्रथम आवश्यक है। और, गुरुवचनों को स्वीकार किया समझा किन्तु खान-पान, ऐश-आराम वगैरह प्रवृत्तियाँ ज्यों की त्यों बनी रहें तो उनसे कर्मबन्ध होता ही आया हैं, कर्ममल बढ़ता ही रहा है, साथही पूर्व के अनन्त कर्म शेष बचत में हैं ही तो उनको किस तरह खत्म किया जाए ? अतः कर्ममल को खत्म करने के लिए उसके विपरीत तपमार्ग की साधना करनी चाहिए । तपमार्ग में अनशन उपवासादि तपस्या, रसादित्याग, कायकष्ट-सहन, स्वाध्याय Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान आदि का समावेश होता है। ये बंधे हुए कर्मों का नाश करने वाले हैं । यह दूसरी साधना। इसके साथ संयम आवश्यक है। प्रतिज्ञा पूर्वक हिंसादि से निवृत्ति इन्द्रियों पर संयमन, कषाय-जय आदि चाहिए, जिससे नया कर्ममल न बढे । तपमार्ग का सेवन तो किया जाय किंतु साथ में असंयम अर्थात् हिंसादि खुले हों, इन्द्रियों के विषय-भोग जारी हों, कषाय भभकते रहते हों, तो तप के द्वारा पुराने कर्ममल का नाश तो होता रहेगा, लेकिन इस असंयम द्वारा नया कचरा-मैल इकट्ठा होता रहेगा, अतः ऐसा क्षण कभी नहीं आएगा जब सर्वमलत्याग अर्थात् सर्वशुद्धि प्रकट हो । अतः तप के साथ संयम भी उतना ही आवश्यक है। चारित्र की याचना : आचार्य महाराज धर्मनन्दन ने ज्यों ही यह मार्ग बताया कि उसी समय मानभट ने उनके चरणों में गिरकर कहा - 'प्रभो! आपने इस सेवक पर बड़ा उपकार किया कि पापमल साफ करने का और अंतिम सिद्धि प्राप्त करने का यह प्रभावशाली मार्ग बताया। अतः अब मुझ पर मेहरबानी कीजिए और यदि मैं आपको योग्य लगता होऊँ तो मुझे यह मार्ग दीजिए। चारित्र की योग्यता है, कषाय-शान्ति : आचार्य महाराज ने देखा कि मानभट के कषाय शान्त हो गये हैं; अतः उसे चारित्र के लिए योग्य मानकर साधु-दीक्षा दी। चारित्र के लिए कषाय की शान्ति योग्यता का लक्षण है। चारित्र ग्रहण करनेवाले के दिल में यदि क्रोध की आग सुलगती हो, अभिमान का पारा चढ़ा हुआ रहता हो, माया की गिंडली बनी रहती हो या कोई सांसारिक लोभ, ममता, आसक्ति न छूटती हो तो वह चारित्र लेकर क्या पाल सकेगा? चारित्र में तो क्षमा आदि दस प्रकार का यतिधर्म पालना मुख्य होता है। जहाँ कषाय धधकते हों वहाँ यह संभव नहीं। अतः कषायों की शान्ति चारित्र की योग्यता का लक्षण है। मानभट ने कषाय शान्त कर के चारित्र अंगीकार किया, और मुनि बने । - कथासार : कथानायक कुवलयानंद राजकुमार दिव्य घोडे के द्वारा हरण किया जाकर जंगल में विशिष्ट ज्ञानी महामुनि के पास पहुंचा था। 'घोडा कौन है ? क्यों हर कर लाया?' आदि के समाधान में राजा पुरन्दरदत्त का अधिकार कथानक कहते हैं। वह राजा पुरंदरदत्त जैन मंत्री वासव की चतुराई से आचार्य महाराज धर्मनन्दन के संपर्क में आता है। आचार्य महाराज ने तब संसार के कारणभूत क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह इन में से प्रत्येक की भयंकरता बताते हए क्रोध पर जीवन्त उदाहरण के रुप में चंडसोम की और मान पर मानभट की जीवन-कथाएँ बताकर उन दोनों को दीक्षा दी। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SOCTestsit: tasvAccmmeences मायाकषाय परम उपकारी आचार्य भगवान श्री उद्योतन सूरीश्वर महाराजने ही देवी के कहने , से 'श्री कुवलमाला चरित्र' की रचना की। इस में हम यह देख आये हैं कि चरित्र नायक राजकुमार श्री कुवलयानन्द दिव्य घोडे के द्वारा जंगल में छोड गया, दैवी वाणी से वह आगे बढ़ा और एक कोस आगे उसने एक ऐसे महायोगी को देखा जिन की सिद्ध अहिंसा के फलस्वरुप उधर के भूभाग में वैरी पशु जैसे सिंह और हिरन, साँप और मोर. आदि भी मैत्रीभाव, प्रेम, सौम्यता, और निर्भयतापूर्वक साथ घुमते थे। साथ ही यह भी देखा कि ऐसे महायोगी-महर्षि के पास एक देवता और एक सिंह बैठा हुआ है। वहाँ कुवलयानन्द को महर्षि 'वह घोडा कौन है ? तुझे उठाकर आकाश में क्यों उडा?' आदि का वृत्तान्त कह रहे हैं। इस अधिकार में यह बात आयी है कि पुरन्दरदत्त नामक एक राजा को जैनधर्म की प्राप्ति कराने के शुभ हेतु से उसका प्रधानमंत्री वासव तरस रहा है। इस बीच वसन्त ऋतु का आगमन होने पर उसे देखने के बहाने राजा को उद्यान में अवधिज्ञानी महर्षि श्री धर्मनन्दन आचार्य के पास ले आता है। राजा की जिज्ञासा के कारण आचार्य महाराज श्री अपने वैराग्य का कारण बताते हुए संसार की चारों गतियों की भीषण यातनाओं का वर्णन करते है। मंत्री द्वारा ऐसे संसार का कारण पूछे जाने पर आचार्य भगवान् मुख्य कारणों में क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह (अज्ञान) को बताकर इन के खेल कितने भयानक हैं, इस विषय पर वहीं बैठे हुए व्यक्त्यिों की जीवन-कथाएँ कहते हैं । इन में हम क्रोध पर चंडसोम का और मान पर म. भट का जीवन-वृत्तान्त देख आये हैं । अब माया पर उसका स्वरुप और उसकी भयानकता बताने के साथ, मायादित्य का कैसा जीवन-वर्णन करते हैं सो देखें। माया उव्वेययरी, सज्जणसत्थम्मि निंदिया माया । माया पावुप्पत्ती वंकविवंका भुयंगीव्व ॥ अर्थात् माया उद्वेग करानेवाली है। सज्जनों के वर्ग में माया निदित है। माया से पापों की सृष्टि होती है, माया नागिन की तरह अत्यन्त वक्र है। माया माता कैसे ? : 'माया' शब्द के प्राकृत भाषा में दो अर्थ हैं एक माया, और दूसरा माता। अतः शास्त्र माया को संसार की माता कहते हैं। माया संसार के अनेक भवरुपी बच्चों को जन्म देती है, इसलिए माता है। वैसे ही, माता जिस तरह बच्चों के अवगुणों-दोषों को ढंक देती है, उस तरह माया जीव के दोषों को ढंकती है। इन दो अपेक्षाओं से माया माता के समान है। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माया से जन्मों की सृष्टि होती है शास्त्रकारों का यह वचन सूचक है; क्योंकि यों तो क्रोध, मान, माया-लोभ इन चारों कषायों को संसारवृक्ष का मूल कहा गया है, अर्थात् क्रोधादि सभी कषायों से संसार के भवों की उत्पत्ति होती है, अतः वस्तुतः कषाय संसार के जनक हैं, फिर भी माया की बात आयी तब उसे खास तौर पर संसार की जननी-माता कहा गया। यह माया की विशेष भयानकता बताता है। __माया विशेष भयावह होने का कारण यह कि वह गुप्त छुपी रहती है। क्रोध फिर भी मुँह की रेखाओं से वाणी से तथा बर्ताव पर से पहचान लिया जाता है। क्रोध में आँखें लाल होती हैं, धमधमाट के शब्द निकलते हैं, बोलचाल बन्द की जाती है, या हाथ पैरों की विशिष्ट हरकतें की जाती है, आदि सब होता है। इसी तरह अभिमान में भी सीना तानना, सिर और कंधे उचकाना, भौहें चढ़ाना, वचनों में अभिमान टपकना... ऐसे ऐसे प्रकट लक्षण बाहर दिखाई देते हैं, तब लोभ में भी क्या है ? लोभ, राग, ममता का बातचीत में कामकाज में पता चल जाता है; और वस्तु की तीव्र लालसा के कारण काया की तदनुसार दौडधूप की प्रवृत्ति रागवश प्यार-दुलार की प्रवृत्ति या अधिक सम्हालने की प्रवृत्ति से भी लोभ, राग, ममता प्रकट दिखाई देते हैं। (१) क्रोध के उदाहरण में देखिये-अग्निशर्मा : तापस तीसरा पारणा चूक जाने पर राजा गुणसेन पर क्रुद्ध हुआ, तो तपोवन को लौटते समय उसके धमाधम भरे वचन, गुरु को नकद जवाब, राजा की अतिशय निंदा.... आदि ऐसा आचरण करने लगा कि इससे उसका क्रोध प्रकट हआ, स्पष्ट दिखाई दिया। दूसरों ने देखा कि उसे गुस्सा चढ़ा हुआ है, परन्तु प्रकटता इतनी अच्छी तो है कि क्रोध को जानकर कुलगुरु तथा तापसों ने उसे क्रोध छोड देने को समझाया । "देखो ! हम लोग तपोधर्म वाले हैं, हमें क्रोध नहीं करना चाहिए। हमें तो सामना नहीं, सहन ही करना चाहिए । सहन करने से हमारे धर्म में वृद्धि होती है। राजा तो शुभभाववाला है। वह किसी भी कारण से भूल गया होगा। उस पर द्वेष नहीं, दया ही रखनी चाहिए।' आदि आदि समझाया। निःसन्देह अग्निशर्मा अति क्षुधा के कारण, आहार-संज्ञा में और अज्ञान दशा में दबा होने से समझा नहीं, परन्तु हमारी बात यह है कि गुस्से के चिह्न बाहर दिखाई देते हैं। अतः यह देखकर गुस्से से पीछे हटने की सलाह देनेवाला कोई सज्जन मिलने की संभावना रहती है। जब कि माया के तो कोई लक्षण ही बाहर नहीं दिखते, तब उसमें से पीछे हटने का समझाने वाला कौन मिले? इसीलिए तो माया, क्रोध से अधिक भयावह है। (२) तो अभिमान में क्या होता है ? इसमें लक्षण बाहर प्रकट हो जाते हैं। रावण सीता का अपहरण कर जाता है। उसके बाद सीता उसका कहना मानने से साफसाफ इन्कार करती है तब रावण सभा बुलाकर Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंत्रणा करता है। उसमें उसने जो बात प्रस्तुत की उसमें उसके वचन ऐसे थे जिनमें उसका अभिमान प्रकट होता था। इसलिए उसके भाई विभीषण ने उसका यह अभिमान देखकर, उठकर नम्रता और विनयपूर्वक कहा : ___ 'भाई साहब ! यों भी पर स्त्री का अपहरण करना हमारे उच्च कुल के लिए शोभास्पद नहीं है। तदुपरान्त अब तो जब सीता ही मानने को तैयार नहीं, तो अच्छा यही है कि उसे वापस सौंप दिया जाए । व्यर्थ युद्ध होगा; और राम-लक्ष्मण भी बल में कुछ कम नहीं हैं; तो क्यों व्यर्थ जिद पकड़ कर हम विनाश को मुफ्त का आमंत्रण दें? विभीषण ने इतनी सलाह दी सो भी कब? भाई रावण का अभिमान उसके वचनों में प्रकट हो गया तब ! बोलने-चालने में अभिमान दिखाई दे जाता है, अतः भाग्य हो तो कोई सलाहकार मिल जाता है। परन्तु मायावी विनयरत्न :___ माया तो अपना कोई लक्षण ही प्रकट होने नहीं देती। तब मायावी जीव को उससे वापिस लौटाने कौन मिले ? विनयरत्न कालिकसूरिजी महाराज के पास बारह साल रहा; था पक्का मायावी परन्तु आचार्य महाराज जैसे भी उस की माया को पहचान नहीं सके इसलिए वह उदायी राजा का खून करने में सफल हुआ। अन्यथा, वह पूर्ण विनयी होते हुए भी यदि आचार्य भगवन्त जानते कि वह जरा भी मायावाला है तो राजा को पौषध में धर्म-चर्या देने के मौके पर उसे राजमहल में क्यों ले जाते? लोभ में लक्षण प्रकट होते है : इसीलिए बहुत सावधान रहना चाहिए कि, जिससे हम माया के सेवक न बनें। क्रोध, मान के वैसे ही लोभ के भी लक्षण बाहर दिखाई देंगे, और भाग्य जाग्रत हो तो कोई उसमें लौटने का उपदेश देनेवाले भी मिल जायें। हाँडा और वस्तुपाल वस्तुपाल को सिद्धगिरि की पहली यात्रा में तंबू तानने की कील गाडते वक्त धन से भरा हाँडा मिला। उसका लोभ जगा, ममता जगी, वह शब्दों में प्रकट हो गयी। क्योंकि जब इस विषय में छोटे भाई की पत्नी अनुपमा देवी से पूछा कि 'यह हाँडा कहाँ गाडें, जिससे यात्रा से लौटने पर काम लगे? तब अनुपमा ने इन वचनों में ममता परख ली। तभी तो उसने सलाह दी कि 'नीचे गाडकर क्या कीजिएगा? जिसे नीचे जाना हो वह ऐसा करे। ऊँचे चढ़ने वालें तो ऊँचे गाड़ते है। अतः गाड़ना ही हो तो ऐसे ऊँचे गाड़ो कि सारी दुनिया इसे देखे फिर भी इसमें से लेशमात्र भी चुरा न सके। 'बात तुम्हारी सच्ची है पर ऊँचे कहाँ गाड़ें? ' 'वहाँ-तीर्थाधिराज के शिखर पर, जहाँ जा रहे हैं। मंदिर एवं शिखर में जहाँ टूटफूट हुई हो अथवा धुंधलापन आया हो वहाँ लगा दिया जाए।' मंत्री ने कहा - 'समझ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया। ठीक है, प्रभु के मंदिर के जीर्णोद्धार में यह धन लगा देना। बहुत सुन्दर सुझाया किसे मालूम है, वापस अवश्य आएँगे या नहीं ? आएँगे भी तो भाग्य साथ में ही रहनेवाला है । ' कैसी, अनुपमा ? उसे हीरे माणिक के अधिक गहनों की ख्वाहिश नहीं होगी ? नयी नयी साडियों से सन्दूक भरने की इच्छा नहीं होती होगी तो इन के लिए धन रख छोडने का क्यों नहीं कहा ? कहिये, समझ ही ऐसी कि अनुपमा की समझ : जिसे पुन: शरीर में कैद होना हो वह धन दौलत को शरीर पर लगाता है । परन्तु जिसे परमात्मा बनना हो, वह उसे परमात्मा पर लगाता है। अनुपमा देवी में यह समझदारी थी, अतः उसने उल्टी सलाह न दी, अहित की नहीं दी, बल्कि हित की शिक्षा दी। इतना करने का भी मौका उसे कब मिला ? वस्तुपाल का लोभ देखा तब । क्रोध, मान, लोभ ऐसे हैं कि बाहर दिखाई पड़ जाते हैं, और इसलिए भाग्य हो तो उनसे पीछे हटानेवाला कोई न कोई कल्याणमित्र मिल जाता है । माया कैसी चालाकी करवाती है ?: 1 माया बहुत ही बुरी है। बाहर प्रकट होती ही नहीं, अकेली स्वंय बाहर नहीं दिखती, इतना ही नहीं वरन् दूसरे दोषों को भी बाहर प्रकट न होने देने की चालाकी करवाती है कहिये, बात का अनुभव क्या ? मिसाल के तौर पर, हँसी-मजाक में झूठ बोला, और विनोद हो गया फिर क्या यह सचमुच कबूल किया जाता है कि 'नहीं, यह तो झूठ ही गपलगायी थी।' नहीं, ऐसा करने में अपना छोटापन महसूस होता है। 'मैं झूठ नहीं बोलता, ऐसी होशियारी, चेहरा ऐसा गंभीर और जबान में ऐसी खूबी रखी जाती है। यह क्या है ? माया ! झूठ-दोष को बाहर प्रकट न होने देने की चालाकी माया करवाती है । इस तरह के खानपान की लोलुपता, मान की आकांक्षा, स्वार्थीपन, और ऊपर से प्रकट उपकार में से भी अपना फायदा उठा लेना,... आदि आदि कितने ही दोषों को बाहर कोई जान न ले, माया इसकी बहुत सावधानी रखती है । बाहर ऐसा दिखालाएगा कि, 44 'अपन तो जिस समय जो भी खाने को मिले इसे चला लेते हैं, इस बात की बहुत चिंता नहीं रखते कि ऐसा ही चाहिए और वैसा ही चाहिए ।" किन्तु यह सब बाहर से दिखाना करना इतना ही; जबकि भीतर तो अच्छे की ही लगभग खोज होती है । और अच्छा मिलने पर खुशी की सीमा नहीं होती । अच्छा हो तो चालाकी से ज्यादा उडाना... ऐसी चालाकी है। माया के अजब खेल ! खुद को मान की इच्छा होती है, परन्तु दिखावे मे मान की परवाह नहीं है ऐसा दिखाती है। मसलन, कहेगा महाराज ने व्याख्यान में अठ्ठाई के लिए बहुत कहा परन्तु अपना कोई बूता है, अपन तो अठ्ठम में बैठ गये । ざ क्या है यह ? बोलने की होशियारी । 'मैंने अठ्ठम किया है,' यह बात खूबी के साथ ७८ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जतलाने की यह कुशलता मान की आकाक्षा सूचित करती है, लेकिन उसे गुप्त रखने का प्रयत्न है, यह माया का पराक्रम है। आप अपने संसार के संचालन में तलाश कीजिए कि कितना माया-चरण होता है ? _ 'माया' अर्थात् प्राकृत भाषा में माता ! यह अपनी संतान जीव के दोषों को ढंकती है। दोष को बाहर दूसरों की द्रष्टि में आने नहीं देती, अत: यह माता है। बाद में ये दोष इसी तरह आत्मा में शल्य-रुप रह जाने से अनेक भवों का सर्जन होता है। इस तरह माया भवों का उत्पन्न करनेवाली बनती है। इसलिए भी यह संसार की माता के समान है। माया से सन्ताप क्यों ? राजा पुरन्दरदत्त आदि पर्षदा के सामने श्री धर्मनन्दन महाराज अब माया को उदाहरण के द्वारा समझाने के लिए कहते हैं कि माया उद्वेग करवाती है क्योंकि माया में अपने दोष छिपाने की बात होने के कारण वह अन्तर में शल्यरुप में चुभती रहती है। ऐसे कितने ही जीव होते हैं जिन्होंने अतीत में ऐसे पाप किये हैं जिन्हें कि वे खुद ही जानते हैं; किन्तु अब वे उन्हें मानाकांक्षावश गुरु के आगे प्रगट नहीं कर सकते और न उसकी शुद्धि ही कर सकते हैं, इसलिए माया के द्वारा अच्छे पन की दिखावट करते समय वे पाप उनके अन्तस्तल में शल्य की तरह चुभते रहते हैं। इस तरह माया से चित्त संतप्त रहता है। यदि माया की भयावहता से डर कर गुरु के सम्मुख जैसे है वैसा दिखाई देने के लिए पापों की आलोचना-प्रकाशन कराले, तो खेद से बच सकता है। यथास्थित भव-आलोचना करनेवाले को उसके सन्ताप से बचने का अनुभव होता है। जबकि जिसे पाप का कोई डर ही नहीं और माया करता है, उसे भी जिस स्वार्थ हेतु माया करता है, उसकी प्राप्ति या सुरक्षा के विषय में चिंता रहा करती है। पत्नीपुत्रादि परिवार के साथ माया, पडोसी या स्नेही-सम्बन्धी के प्रति माया या ग्राहक, दलाल, व्यापारी आदि से माया-इस तरह माया खेलनेवाले अपने हृदय में ऐसे किसी न किसी उद्वेग-सन्ताप का अनुभव करते रहते हैं । माया से सच्ची सुख-शान्ति-स्वस्थता नहीं मिलती। माया से होनेवाले अन्य अनर्थ : आयार्च महाराज फरमाते हैं कि सज्जन लोग माया को बहुत बुरी मानते हैं। कोई भी बुद्धिमान आदमी माया को अच्छी नहीं कहेगा। माया अनेक पापों का उद्गम-स्थान है। एक झूठ छिपाने के लिए जीव अनेक झूठ बोलेगा। माया टेढी-मेढी नागिन के समान है; उसे सीधी करना कठिन है ! अर्थात् माया को छोड़ कर सरलता लाना कठिन है। और जब तक यह रहती है तब तक नागिन की तरह अशुभ कर्म तथा कुसंस्कार का विष आत्मा में डालती रहती है। देखिये मल्लिनाथ प्रभु के जीव ने पूर्व भव में राजर्षि के भव में - दूसरी आराधना के साथ तप तो उग्र किया; तीर्थंकरपने का पुण्य दे ऐसा उग्र तप ! लेकिन तप Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में जरा सी माया की, तो उस माया ने स्त्रीवेद का अशुभ कर्म पैदा कर स्त्री का अवतार दिलाया ! आचार्य महाराज कहते हैं : माया सज्जनों के प्रति भी ठगबाजी के विचार करवाती है । मायावी को कुछ भी अच्छा देखना, आचरण करना, बोलना, चालना आता ही नहीं। अंधा आदमी अच्छा नहीं देख सकता, लंगडा ठीक से नहीं चल सकता, बहरा नहीं सुन सकता, चुगलखोर अच्छा नहीं बोल सकता, भूत से आविष्ट अथवा उन्मत अच्छा बर्ताव कर नहीं सकता। बस ! इस तरह मायावी अर्थात् अंधा, लंगडा, बहरा, चुगलखोर, भूताविष्ट ! ऐसी स्थिति मायावी की होती है। ऐसे वक्र आचरण से वह मित्र स्नेही-सम्बन्धियों आदि का आदर खोता है। माया के ये अनर्थ डायरी में लिख रखिये, और प्रतिदिन एक बार पढ़ कर ध्यान में लेते जाईये। HIRH | मायादित्य का द्रष्टांत :आचार्य महाराज कहते हैं, कि माया कैसी खतरनाक है वह देखना हो तो देखिये आपकी बायीं ओर तथा मेरे पीछे बैठे हुए इस मायादित्य को । देखिये, इस की देह कितनी संकुचित हो गयी है ? इसमें कैसी कायरता आयी हुई दिखाई देती है। इसकी आँखें कितनी छोटी हो गयी हैं । बैचारा माया का मंदिर बन बैठा था ! माया का कुलगृह हो गया था। माया पिशाची से ग्रस्त होकर इसने बहुत किया, किन्तु अन्त में हारकर अब आया है यहाँ।' आचार्य महाराज ने क्या कहा? मायादित्य संकुचित, कायर, छोटी आँखों वाला हो गया है, क्यों भला ? (१) माया से मन संकुचित-छोटा बनता है। (२) माया से मन शक्की बन कर कायर बनता है। (३) माया से स्वभाव क्षुद्र-तुच्छ-अकल्याणदर्शी बनता है। अकल्याणदर्शी अर्थात् कुछ भी अच्छा देख न सके। श्रेष्ठ से श्रेष्ठ गुरु मिले हों, भले स्नेह सम्बन्धी मिले हों, फिर भी उनसे माया करने के कारण उनके सद्गुण, उत्तम सुकृत या उत्तम परोपकार की प्राप्ति उसे नहीं हो सकती । उसको तो एक ही बात !'चालाकी से अपना स्वार्थ साध लूँ। अगले को बनाकर अपनी अच्छाई दिखा दूं माया के कारण मन संकुचित बनता हैं क्योंकि ठगने की, वृत्ति रही हुई है; स्वार्थ के लिए छिपी चाल चलने की वृत्ति है; और इसमें मन उदार-विशाल नहीं बन सकता। इसलिए दूसरे के पास से अच्छे की प्राप्ति कैसे कर सकता है? जिसका हृदय विशाल हो वही दूसरे के पास से कुछ अच्छा पा सकता है। OOOOOOOOO DOOOOOOOOOOOOO OOOOOOOOOO 000000000OOOOOOOL Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु ने भरत-बाहुबली के जीव-बाहु-सुबाहु मुनि के भक्ति-वैयावच्च की प्रशंसा की; उसे ब्राह्मी-सुन्दरी के जीव-पीठ-महापीठ मुनि सह नहीं सके। उन्हें ईर्ष्या हुई। गुरु ने कहा है अतः सामने विरोध तो नहीं कर सकते, हाँ में हाँ मिलानी पडे, अत: उसमें माया का खेल करना पड़े। अब उस गुरु के प्रति की गयी माया के कारण, खुद को जो 'ईर्ष्या हुई है, उसे मिटाने की गुरु के पास से सलाह लेने की बात ही कहाँ रही ? गुरु कौन है ? आदीश्वर भगवान का जीव-चक्रवर्ती मुनि, चौदह पूर्वो के ज्ञाता, महा तपस्वी तथा अचिन्त्य लब्धियों से युक्त ! साथ ही उनके उपकारी । ऐसे गुरु पर भी गुस्सा आया, तब उनका आदर करना कहाँ रहा? उपरान्त, वह गुस्सा छिपाने में माया हुई इसलिए ऐसे समर्थ गुरु के पास ईर्ष्या-क्रोध का प्रायश्चित भी कहाँ से लें ? और उस दोष को दूर करने की हितोपदेश भी कहाँ लेना रहा? माया के सेवन में बहुतसा भला-अच्छा चूक जाते हैं, अकल्याणदर्शी बनते हैं । सरलता-शुद्धता हो तो अच्छा देख सकें और अच्छा प्राप्त कर सकें। माया से मन शक्ती बन जाता है। माया क्यों करता है ? इसीलिए कि मन को ऐसा लगता है कि 'यदि माया न करूँ तो अच्छा नहीं दिखूगा- तो क्या होगा? मेरा मन चाहा न हुआ तो? अगले का प्रेम टूट जाय तो? ऐसे ऐसे डर हैं, वहम हैं इसलिए मायाचरण करता है। यदि माया छोड दे, सरल-स्वच्छ बने तो भाग्य पर भरोसा रख, ऐसे भय और शकको दूर कर सकता है। समझ में आए कि 'यश मिलना, अगले का प्रेम मिलना - यह सब तो मूल निहित भाग्य के अनुसार होनेवाला है। अपन सीधी सरल रीति से सन्मार्ग पर चले, बेकार में मन को माया से बिगाड़ना जरुरी नहीं है। एक व्यक्ति जवहिरात का दलाल था । दलाली शुरु की तब से ईमानदारी का मुद्रालेख जीना निश्चित किया था। न व्यापारी से माया न ग्राहक से। व्यापारी का दिया हुआ भाव ग्राहक से कह देना, ग्राहक की माँग व्यापारी से कहना । दोनों के बीच जो रकम बने सो ग्राहक के पास से लाकर व्यापारी को दे देना, खुद को सिर्फ थोडी सी दलाली मिलती थी, उसमें सन्तोष था। इस बीच उस के साथ के अन्य दलाल कहते : 'भले आदमी ! ऐसे तो क्या कमा सकोगे? बंबई जैसे शहर में आये हो तो खूब जेबें भरने के लिए? या सिर्फ रोटी कमाने ? यहाँ तो इधर से - उधर से - जो भी चुरा सको सो चुराओ । रोटी तो अपने गाँवमें कहाँ नहीं मिलती?' हैं न दुनिया में उचक्के - उठाइगिरे ? __ यह उतर देता - 'ऐसी माया, दगा बाजी कितने भवों के लिए? और इस एक भव में भी कैसे हो हथकंडे कर के कुछ कमा लिया तो वह पास में रहेगा ही, या भोगा ही जाएगा, ऐसा भी निश्चित कहाँ है ? पांना, बचना-भोगना तो भाग्य के अनुसार होता है। न्यायनीति-प्रामाणिकता जो दीर्घ कालीन भावी को उज्ज्वल बनाती है, माया खेलने जाने में ऐसा सब कमाना चूक जाता है, अत: मुझे अनीति-ठगबाज़ी नहीं चाहिए।' Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कितना सरल कल्याणदर्शी जीव ! परिणाम यह आया कि वे अनीतिखोर उस समय तो छल कपट कर के दलाली में दूना - चौगुना कमाते दिखाई दिये सही; परन्तु व्यापारियों को यह ईमानदार दलाल मिलने से उन दलालों पर से विश्वास उठ गया, अतः वे इस नीतिमान् दलाल को ही माल देने लगे । इस तरह आखिर इसकी दलाली और कमाई बढ़ गयी ! जबकि उन लोगों में से किसीके घर में अन्य अन्य खर्च आने से पैसे गये; तो किसी को पुरानी कमाई खाने की नौबत आयी; बेचारे चिंता में पड़े। सरलता से सत्पथ पर चलनेवाले को चिन्ता नहीं करनी पड़ती । मायादित्य का वृत्तान्त : अब आचार्य महाराज मायादित्य का जीवनवृत्तान्त बताते हुए कहते हैं देखो, राजा पुरन्दरदत्त ! काशी के निकट शालिग्राम नामक एक गाँव है । वहाँ का निवासी है यह । इसका मूल नाम गंगादित्य है। लेकिन मधुर भाषी, भले लोगों के साथ भी टेढा बोलने की इसकी आदत ! व्यवहार इसका मायावी, सो बात बात में माया करता । इस से युवकों ने इसका नाम मायादित्य रख दिया । उसके बाद तो यह इसी नाम से पहचाना जाने लगा। फिर भी इसके मन में कोई दुःख नहीं - माया वक्रता- कुटिलता छोडने की कोई बात ही नहीं । तब इस में क्या आश्चर्य कि वह माया के नशे में उपकारी के प्रति भी कृतघ्नता ही का दाव खेले ! अगले के उपकार को भूल कर उस के साथ भी दावपेंच, धोखाघडी करता । दरिद्र फिर भी माया से चोलीदामन का साथ । उसी गाँव में स्थाणु नामक एक बनिया रहता था । उसकी इसके साथ किसी अवसर पर दोस्ती हो गयी थी । स्थाणु बेचारा भलामानुस, सरल हृदयवाला, कोमल स्वभाववाला और कृतज्ञ था । वह दूसरे के थोड़े से उपकार को भी ध्यान में रख कर, मौका पड़ने पर उसका बदला चुकाने का प्रयत्न करता उतना ही दीन-हीन जनों पर प्रेम रखता था। सो वह तो मायादित्य से शुद्धप्रेम के साथ सरलता का व्यवहार करता, लेकिन वह शठ इसके साथ भी माया - पोलिसी खेलता । वह मायादित्य इसे हृदय की बात नहीं बतलाता था, जबकि वह स्थाणु उसे दिल दे देता । जन्म की गुप्त बात कह देता । क्योंकि खुद सज्जन था अतः भला दिल सर्वत्र भला देखता है। इस न्याय से वह मायादित्य के प्रपंची मन को नहीं पहचानता । आप भला तो जग भला : दीक्षार्थिनी बहन की मौलिक बुद्धि : T 'आप भला तो जग भला' ऐसी कहावत है न ? एक बहन दीक्षा लेने को तैयार हुई, अमुक साध्वीजी के पास। उनसे पूछा गया कि 'आप उन साध्वीजी के पास दीक्षा लेना चाहती हैं। लेकिन आपका उनसे परिचय है ? ८२ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्योंकि उनका स्वभाव वगैरह अनुकूल न हो तो कैसे चलेगा ? यहाँ तो चारित्र लेकर सारी जिन्दगी बितानी है ।' वह बहन अच्छे उच्च कुलीन सुखी घर की कन्या थी । क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि उन्होंने क्या उत्तर दिया ? बहन ने एक ही वाक्य में कहा - 'मुझे ऐसा परिचय नहीं है, लेकिन आप भला तो जग भला ।' 'आप भला तो जग भला' की कैसी सुन्दर मौलिक समझ है ? जहाँ यह सिद्धान्त ग्रहण कर लिया तो फिर तो किसी के साथ कुछे टेढ़ा बर्ताव करने का सवाल ही नहीं और किसी की कोई बात वक्र ढंग से लेने का भी प्रश्न नहीं। आप अर्थात् 'स्वयं' भले बने रहना है न ? फिर भलाई अर्थात् अच्छापन, सज्जनता, सद्गृहस्थता; ये सब सरलस्वच्छ, तथा मैत्री-करुणा भरे हृदय से आकृति और प्रवृत्ति पर निभती हैं। भीतर से हृदय शुभ भावों से भरा हो, मुखाकृति चक्षु आदि भी सौम्य और स्नेह सौहार्दपूर्ण हैं, साथ ही वाणी भी मधुर, सरल, सहृदयतापूर्ण हो, तब वक्रता, कठोरता, स्वार्थमूढता कैसे टिक सकती हैं ? 1 अपने दिल की ऐसी भलाई अगले के साथ के व्यवहार में भी कुछ टेढापन नहीं देखेगी । अगले ने सरासर कुटिल, क्रोधपूर्ण या स्वार्थी बर्ताव किया होगा तो उसमें से शुभतत्त्व ही ग्रहण करेगी। दूसरा कपट से दुखियारेपन की दिखावट करें तो भी उस कपट की कल्पना किये बिना सहानभूति दिखाएगी। दूसरे ने गुस्सा दिखाया होगा तो भी यह सज्जन हृदय उस के प्रति कारुण्य रखकर शांति रखेगा। वह लोभवश स्वार्थ-साधन करता होगा तो भी यह मानो परोपकार - भलाई करने का मौका मिला समझ कर सहायता करेगा । बस, जो आप भला हो उसे जीवन के सभी प्रसंगों में (१) अच्छा ही देखना (२) अच्छा ही करना और (३) अच्छा ही कमाना प्राप्त होता है। (श्रीपाल की भलाई धवलसेठ ने बहुत कुटिलता की, परन्तु श्रीपाल कुमार के भले दिल ने अच्छा ही देखना, अच्छा ही करना और अच्छा ही कमाना ऐसा ध्येय रखा, अतः एव वे इतिहास के पृष्ठों में अमर हो गये न ? क्या माया और शठता से जीवन में सफलता मिल सकती है ? संकुचित द्रष्टि से मत देखिये; वरना जीवन की भलाई, जीवन का अर्क, जीवन की सुगन्ध हाथ नहीं आएगी। अल्प बुद्धि से सोचने पर तो ऐसा लगेगा कि ऐसी भलाई करने जाएँ तब तो शठ को शठता करना आसान बन जाए और हम तो लुट जाएँ । परन्तु इस अल्प विचार में तो संपूर्ण कर्म सिद्धान्त ही भुला दिया जाता है, और ऐसा मान लिया जाता है कि 'जो कुछ सफलता मिलती है, कुटिलता, माया, वक्रता से और टेढे के साथ टेढा, नंगे के प्रति नंगा बनने से मिलती है।' किन्तु यह मान्यता गलत है । ८३ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण यह कि इस दुनिया में बाह्य वस्तुओं में सफलता मिलना या खोना होता है तो वह मुख्यतः अपने शुभाशुभ कर्मों के आधार पर निर्भर है न कि कषाय करने पर । 'हम क्रोध करें तो अगला हम से दबेगा । 'हम दावपेंच खेलें तो हमारा मनचाहा हो जाएगा ?' क्षणभर ऐसा प्रतीत होगा लेकिन वास्तव में इसके पीछे हमारा पुण्योदय काम करता होता है। शुभ कर्म -- - पुण्य का उदय पहुँचता है वहाँ तक तो सामने वाले पर गुस्से का प्रभाव पड़ता है, और माया से मनपसंद सिद्धि भी मिल जाती है, परन्तु जहाँ पुण्य पूरा हुआ कि उसके बाद उसी गुस्से के बदले थप्पड़ पड़ता है और उन्हीं दावपेंचों से अकल्पित, भारी आपत्ति में गिरना पड़ता है । यह बात धवलसेठ के जीवन में दिखाई देती है । श्रीपाल से उनकी भलाई के कारण अपने जहाज मुफ्त में चलवाये, उस में अपनी सफलता देखी, लेकिन बब्बर द्वीप में गिरफ्तार किया गया। आगे चल कर उसने श्रीपाल को समुद्र में गिराकर माना कि उसके जहाज और दो राजकुमारियाँ हाथ आ गयीं। लेकिन थाना बंदरगाह के राजा के सामने गुंडे के रुप में खुला पड़ गया। अन्त में अंधेरी रात में 'श्रीपाल को निद्रित अवस्था में मार कर परदेश में उसकी सारी जायदाद का मालिक बनने में सफलता मिलेगी' इस तरह छलकपट करके सफलता पाने की मान्यता से वह रात को श्रीपाल का वध करने उसके महल की सीढियों पर चढ़ा; जैसे कि अभी ऊपर पहुँच कर सोये हुए श्रीपाल का कटारी से 'खून कर डालेगा । लेकिन उपर से ऐसा नीचे गिरा कि वही कटारी उसके बदन में घुस गयी, और खुद धवल ही मरण की शरण में चला गया । सफलता का आधार दाव पेंच - चालाकी पर नहीं, बल्कि अपने शुभकर्मों के उदय की पहुँच पर है। पुण्योदय जहाँतक पहुँचे वहाँ तक सिद्धि दिखाई देती है । उसके पलायन के बाद सिद्धि के स्थान पर मार पडती है। आज भी दुनिया में सरल हृदयवाले सज्जन का काम अच्छी तरह चलता है; और उसके सामने दावपेंच, रोषरोब करनेवाले पछाड खाते हैं। क्यों ? बाहर की सफलता अथवा मार के सम्बन्ध में शुभाशुभ कर्म काम करते हैं । जबकि 1 अन्तरात्मा के गुण-दोष की कमाई का आधार सत्-असत् पुरुषार्थ पर है । अच्छा उद्यम करें, तो गुण आते जाएँ; बुरा उद्यम करें तो दोष बढ़ते जाएँ। बात यह है कि आप भला तो जग भला ।" हम स्वयं भलाई अपनाएं तो हमारे लिए दुनिया भी भला ही करती है । ज्यों ज्यों श्रीपाल भलाई रखते गए त्यों त्यों (प्रतिपक्षी) धवल सेठ की मायावी कारवाई भी उनके लिए शुभ सिद्ध होती गयी। आवश्यकता केवल धैर्य की है। ८४ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'आप भला' सम्बन्धी सासबहू का द्रष्टान्त : एक परोपकारी सज्जन किसी गाँव में गये। वे एक ऐसे घर उतरे जहाँ सास - बहु की खटपट चालू थी । इन महानुभाव को अधिक ठहरना नहीं था, अतः घर के पुरुष के साथ बातचीत कर अब जाने की तैयारी कर रहे थे कि लडके की पत्नी आकर उन्हें देख कर धीरे से कहने लगी, 'जा तो रहे हैं, लेकिन मेरी सासजी को जरा अच्छी सलाह देते जाईये। इन्हें बात बात में किटकिट करने को चाहिए ।' ये परोपकारी सज्जन बोले 'ठीक है। उन्हें बाहर आने दो, ताकि दो शब्द उचित कहूँ किन्तु तुम जरा इतना करना कि जब वे कुछ बोलें तब तुम मात्र ये दो शब्द ... कहना' ऐसा कह कर क्या बोलना, यह बताया । उसके बाद थोड़ीसी राह देखी। लेकिन सास जल्दी बाहर नही आयी, इन साहब को जाने की जल्दी थी, अतः उन्होंने बहू से कहा- 'मैं महीने बाद फिर आऊँगा तब कहूँगा' ऐसा कह कर वे तो वहाँ से चले गये । अब एक महीने बाद उक्त सज्जन का पुनः उस गाँव में आगमन हुआ। वे किसी घर उतरे तो सास ने आकर उनसे पूछा, 'आप पहले यहाँ आये थे, उस वक्त मेरी बहू को आप कौनसा मंत्र दे गये थे कि जिससे यह तो देवी जैसी बन गयी है।' उस सज्जन ने पूछा 'क्यों ? किस तरह दैवी जैसी बन गयी ? सास ने कहा, 'आप के आने से पहले तो बहू की कुछ भूल चूक हो और मैं जरा गुस्से में भरकर उसे जरा उलाहना दूँ तो उसकी डेढ गज लंबी जुबान मुझे कितना ही सुना देती । लेकिन आपके आ जाने के बाद आप न जाने कौनसा मंत्र पढ़ा गये जिससे ऐसा चमत्कार हुआ कि मैं उसपर सच्चा या झूठा जब जब गुस्सा कर उस से कठोर वचन भी कहती हूँ तब यह हाथ जोडकर नरमी से कहती है, 'माताजी ! मैं जैसी हूँ वैसी हूँ, आपको बेटी की तरह मुझे निभाना है।' बस ! इतना कहने के सिवा और कुछ नहीं बोलती, और इसके इन मृदु विनयपूर्ण वचनों से मेरा क्रोध शान्त हो जाता। बाद में दो बार, चार बार, ये के ये शब्द सुनने को मिलने के कारण मुझे भी महसूस होने लगा कि 'मैं ही बुरी हूँ जो बात-बात में गुस्सा करती हूँ? अपनी पुत्री पर जरा जरा में गुस्सा कहाँ करती हूँ ?' उसे मैं ऐसे तीक्ष्ण हृदयवेधक वचन कहाँ सुनाती हूँ ? बस, तब से मेरा भी हृदय पिघल गया, परिवर्तित हो गया। फिर तो बहू एक देवी - सी लगती है। आपका बड़ा उपकार मानती हूँ ।' यह क्या हुआ ‘आप भला तो जग भला' यह सूत्र बहू ने अपना लिया। सास के अकारण क्रोध में भी और हृदयवेधक वचनों में भी बहू ने नम्रतापूर्वक एक ही आपको बेटी की तरह मुझे निभाना है' इन शब्दों द्वारा सूचित किया कि 'आप बहुत भली हैं, मेरी ही ८५ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गलती है, मुझ जैसी दोषभरी को भी निभाने की आपसे प्रार्थना करती हूँ। (१) अपनी दोषयुक्त स्थिति को स्वयं कबूल करना यह अपनी सुजनता है। (२) सामने गुरुजन को श्रेय देना, उनकी कृपा माँगना- यह भी सुजनता है। इसमें अगले को भला देखा जाता है। इस तरह आप भला तो जग भला' वस्तुतः हो जाता है। बहू के ऐसा करने पर आखिर सास को पछताने का समय आया। मायावी को चिंताएँ और पश्चाताप : यहाँ स्थाणु भला आदमी है। आगे मालूम होगा कि मायादित्य उस के साथ ऊपराऊपरी - बार बार माया खेलता है, परन्तु आखिरकार स्थाणु को नहीं बल्कि खुद मायादित्य को ही पछताना पड़ता है। आप भला' वाले का तो मन मस्त रहता है, जबकि मायावाले को तो माया करते वक्त भी कई चिंताएँ और आखिरी परिणाम में भी पश्चाताप ही हाथ लगता है। फिलहाल तो दोनों अपनी अपनी विशेषताओं के रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं। मायादित्य छलभरी प्रीति में और स्थाणु सहज सरल स्नेह में आगे बढ़ता है। एक बार स्थाणु कहता है- 'दोस्त ! हम यहाँ दरिद्रता में कितनी विटंबना भोग रहे हैं ? लेकिन यह हमारी अकर्मण्यता प्रमाद - के कारण है ! शास्त्र कहते हैं कि जिसमें धर्म, अर्थ, काम इन तीनों में से एक भी पुरुषार्थ नहीं हैं, जो आलसी है, उसका जीवन अजागलस्तन-बकरी के गले में लटकते स्तन-के समान निरर्थक है। हम में न धर्म-पुरुषार्थ है, न अर्थ-पैसे कमाने का पुरुषार्थ । और धन के अभाव में दुनिया के सुख-भोग भोगने का भी कोई पुरुषार्थ नहीं है। हमारी भी कोई जिन्दगी है ? अत: मुझे विचार आता है कि चूंकि यहाँ तो कोई व्यापार-धंधा हाथ नहीं लगता, इसलिए हम परदेश जाएँ और धंधा करें। __मायादित्य के दिल में क्या होता है ?: मायादित्य इस सुझाव का स्वागत कर कहता है, 'दोस्त ! तुम्हारी बात सही है। तो हम काशी चलें । वहाँ देश-विदेश के मुसाफिर आते हैं, अतः हमें चोरी अनजान का माल उडा लेना ठग बाजी, जुआ आदि, काम करने में आसानी होगी और पैसे भी काफी मिलेंगे।' यह सुनते ही स्थाणु चौंक पड़ा । कहने लगा, 'अरे! तुम यह क्या कहते हो? हम लोग उत्तम कुल में उत्पन्न मानव, हम से तो चोरी-उठाईगिरी का विचार तक नहीं हो सकता, अमल करने की बात कैसे हो? मायादित्य तो बेईमान है ही। उसने देखा कि स्थाणु मेरी बात से नाराज हो गया है; अतः आगे पटरी नहीं बैठेगी - अतः उसने तुरन्त बात बदल दी;-कहा, _ 'भाई स्थाणु ! तुम इस तरह आकुल व्याकुल मत हो । क्या मैं ऐसा करूँगा? यह तो मैंने जरा मजाक में कहा था। स्थाणु संस्कारी है; वह कहता है, 'अरे ! मजाक में भी ऐसा नहीं बोलना Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिए । ये तो अधम पुरुषों के वचन हैं । भला आदमी तो मन में भी ऐसी बात नहीं ला सकता । ऋषि-महर्षि इसमें बहुत दोष कहते हैं । पैसा ही चाहिए न ? शास्त्रों ने बहुत से सीधे उपाय बताये हैं । (१) किसी राजा या बड़े सेठ की सेवा करें, व्यक्तिगत मानापमान की परवाह न कर वहाँ वफादारी और निष्ठा के साथ खिदमत करें अथवा (२) कोई अच्छा मित्र बनायें, तो उसके सहारे से भी धंधा हाथ लगे अथवा (३) धातु वाद, मंत्रवाद, देवता की आराधना आदि कोई भी काम हाथ में लें, अरे! (४) सागर के उस पार जाएँ या (५) रोहणाचल में घूमें या (६) कोई व्यापार, कला-रोजगारी-दलाली करें तो पैसे मिलने में क्या कठिनाई है ये उपाय स्वीकार्य कहे जाते हैं । इन में कहीं निंदा के पात्र नहीं होना पड़ता, और पैसे मिल जाते हैं। पैसे पाना ही प्रयोजन है न ? अधम उपायों से पाने की अपेक्षा अच्छे उपाय करके पाना क्या बुरा? इससे यहाँ बदनामी नहीं मिलेगी, न जेल जाने, पकडे जाने की कोई आपत्ति आएगी। साथ ही परलोक में पाप की भयानक सजा भी नहीं भोगनी पडेगी। आदमी को दिमाग लडाने की ही जरुरत है। कितनी ही बार वह मान लेता है कि 'कोई उपाय नहीं है अतः पैसे के लिए चोरी करो, अनीति करो, ठगी करो।' फिरे सो चरे। उपाय बहुत से हैं । सोचे, भले आदमी की सलाह ले, धंधे में पडे हुए से पूछताछ करे, तो रास्ता मिल सकता है। चोरी, अनीति, जुआ आदि का क्या काम? और क्या चोरी धोखेबाजी से मिला हुआ अच्छी तरह भोगा जा सकता है ? नहीं, मन के परिणाम अत्यंत संक्लेशपूर्ण हो जाते हैं, उसे शांति स्वस्थता गठरियाँ बंधती हैं सो अलग। इस में निंदा पात्र भी बने, कभी बुरी तरह फंस भी जाय, मार खानी पड़े, उसके आदि आदि अनर्थ उपस्थित हों सो अलग। स्थाणु की बात सीधी राह की थी। अत: मायादित्य दूसरा क्या कहे? फिर यह भी देख लिया था कि यह कोई गलत काम करने के लिए एक कदम भी बढानेवाला नहीं। और परदेश तो जाना ही है। अतः उसने स्थाणु की बात का बड़ी खुशी के साथ स्वागत किया। कहा - 'भाई ! तुम ने एकदम सही कहा है। मैं तो जल्दबाज ठहरा, इसलिए कैसे ही विचार किये लेकिन तुमने बहुत ठीक कहा । मायादित्य - स्थाणु का विदेश-गमन बस, फिर तो दोनों पाथेय साथ लेकर दक्षिण दिशा की ओर रवाना हो गये । चलते चलते प्रतिष्ठानपुर नगर में पहुँचे। वहाँ एक या दूसरा - कोई न कोई व्यापार करते है, और सेवा चाकरी मिले तो वह भी करते हैं। इस तरह समय बीतते एक एक ने पाँच पाँच हजार स्वर्ण मुद्राएँ कमाई। ___स्थाणु बोला - 'देखो ! मायादित्य ! आवश्यकतानुसार कमाई हो गयी है, अतः अब हम घर चलें । बहुत लोभ का क्या प्रयोजन ? घर पर बेचारा कुटुंब व्यर्थ हैरान होता Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होगा ।' भले हृदय को लोभ से तथा पाप से घबराहट होती है। हमारी अच्छाई का नाप इस पर से निकलता है; कि लोभ तथा पाप से हमें कितनी घबराहट होती है । मायादित्य ने कहा - 'अरे भाई ! यहाँ आने से तो हमारा नसीब खुल गया है ! तो अब साथ साथ ज्यादा कमाई कर लें। खुलते हुए भाग्य को बन्द करने से क्या मतलब ?' देखा ? धन में आगे बढ़ना ही इसके लिए जीवन है ! और ऐसा करने में कहीं चपत पड़ी तो ? स्थाणु बोला - 'महानुभाव ! अति लोभ पाप का मूल है। अति लोभ तो पापोदय को जगानेवाला है। क्या तुम देखते नहीं कि जुआरी लोग इसी तरह बरबाद होते हैं ? कितने 8 ही अच्छे व्यापारी भी अति लोभ से नष्ट हो गये। देखो ! यह बहुमूल्य मानव जीवन व्यापार धंधे के लिए नहीं है। नि:संदेह जीवननिर्वाह के लिए व्यापार की आवश्यकता होती है सो तो अब जिन्दगी चल सके उतना पर्याप्त मिल गया है। अब इस के आधारपर थोडे व्यापार की जरुरत होगी तो अपने देश में भी किया जा सकेगा। अतः सन्तोष धारण करो ।" मायादित्य को बोलने का अवकाश ही नहीं रहा । अतः उसने स्वीकार किया, लेकिन अब जंगल के रास्ते से होकर जाना है तो इतना सारा धन लेकर सही सलामत देश में कैसे पहुँचा जाय यह चिंता लगी । हाय रे पैसा ! नहीं था तब तक पाने की आग लगी थी ! और मिल गया तो उसकी रक्षा करने की चिंता । यहाँ कमाने के बाद उसे देश पहुँचाने की चिंता हुई । बात तो सच है कि जंगल के रास्ते माल लेकर जाय तो शायद माल ही क्या जान भी जाने का अवसर आ सकता है। क्यों ? सही है न ? (१२ जंगल से होकर जाने में धन और प्राण दोनों जाएँ : हाँ, यह तो समझ में आता है, लेकिन यह समझ नहीं पडती कि यह संसार भी एक अटवी है । इसमें यहाँ मरते दम तक धन की माया दिल में रखी तो उसे साथ लेकर संसाररूपी अटवी से गुजरते वक्त जबरदस्त खतरा है। ऐसी ममता करते करते मृत्यु हो गयी तो बुरे हालों मरे ! और परलोक में दुर्गति में भटकना पड़े। अतः भाग्य पर और देवगुरु की कृपा पर भरोसा रखकर पैसे का ममत्व छोड़ देना उचित है। अन्यथा, अन्त समय चित्त में समाधि नहीं रहेगी। चित्त अत्यंत दुर्ध्यान में और संभवतः प्रसंगवश कृष्ण लेश्या में चढ़ जाएगा तो उसका फल मालूम है न ? तिर्यंच गति या नरक गति में प्रयाण । मम्मण सातवी नरक में सड़ा रहा है। उसे ऐसे पाँचवे आरे के २१००० वर्ष जितने तो असंख्य टप्पे बिताने होंगे। E A ८८ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ स्थाणु और मायादित्य ने धन साथ लेकर सही-सलामत घर पहुँचने का उपाय ढूंढ निकाला। कमाये हुए धन से दस रत्न खरीद लिए। हर एक को पाँच पाँच रत्न ही ले जाने रहे। वे भी यदि भले सद् गृहस्थ में वेश में ले कर जाएँ तो चोर डाकू का उपद्रव होने की संभावना है; इसलिए उन्होंने कार्पटिक - योगीबाबा का मैला - कुचैला दरिद्रवेश पहना । हाथ में एक दंड लिया, उसके सिरे पर एक तुंबा बाँध दिया; मानो खुद बाबा लोग हैं और भीख माँग कर पेट भरते हैं !' वेश भी थोड़ा सा भगवे रंग का कर डाला। सर मुंडवा लिये, और रत्नों को मैले कपडे में गाँठ बाँध कर छिपा लिया। भीख माँगनेवाले योगी बाबा का वेश पसंद है ? नहीं, किन्तु पैसों के कारण, पसंद है। चाव से ऐसा वेश किया जाता है। हाय पैसा ! पैसे की इस जीव को कितनी चिन्ता है । कमाने की भी उतनी उमंग चिन्ता, मेहनत ! और कमाये हुए की सुरक्षा में भी उतनी उमंग चिन्ता, और मेहनत ! यदि इतनी चिंता, उमंग और मेहनत धर्म कमाने और कमाये हुए धर्म तथा गुणों की रक्षा करने में होती हो तो? तो क्या ? बेड़ा पार हो जाय । सोचिये, हमारे कौन से एकाध धर्मानुष्ठान के लिए भी, या एकाध सुकृत के लिए अथवा एकाध गुण-सिद्धि के लिए भी ऐसी चिंता होती है ? उमंग होती है ? मेहनत होती है ? नहीं होती तो समझना रहा कि अभी तक उस के प्रति इतना ममत्व नहीं जगा है, भूख नहीं जगी है, महत्ता नहीं समझी गयी है। धर्म की भूख और उमंग केसे पैदा हो ? प्र. यह सब जानने के बावजूद सुधार क्यों नहीं होता? क्यों एकाध धर्म साधना की भी ऐसी भूख नहीं लगती? उ. (१) पेट में दोष हों तो भूख नहीं लगती। इसके लिए दोष दूर करने पड़ते हैं। इसी तरह यहाँ पाप के साधन तथा पापसाधना की जबरदस्त भूख - चिंता - उमंग आदि है सो दोष है। इन्हे यदि दबाया जाय तो धर्म-साधना की भूख आदि जाग्रत हों। पत्नी-पुत्र का मुँह देखने में बहुत रस आनन्द-तन्मयता होती हो तो देवाधिदेव के दर्शन करने में रसआनन्द-तन्मयता नहीं आएगी। रुपये गिनने में बहुत खुश होता हो तो नवकारमाला गिनने में आनन्द कैसे अनुभव होगा? पाप के रसों को मारने से धर्म के रस जाग्रत होंगे। (२) दूसरा उपाय यह कि यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि जितना समय धर्म प्रवृत्ति-धर्मवाणी-धर्म विचार मे बितेगा उतने समय तक पाप प्रवृत्ति से बचा जा सकेगा। 'पाप संसार के घर की वस्तु है, धर्म प्रभु के घर की वस्तु है। धर्म कर पाप से जितना बचे उतने भाग्यवान् ।' यह खयाल रखने से धर्म की भूख-रुचि जागेगी। (३) दुनिया में जिसकी अभिलाषा रखता हूँ उसकी संभावना का मूल तो धर्म में निहित है। क्यों कि धर्म से अन्तराय कर्म टूटे तभी यह संभव हो सकता है। जब तक अन्तराय कर्म का उदय जारी रहे तब तक अपना चाहा सिद्ध करने के सभी बाह्य साधन Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेकार हैं । अतः असल में मूलभूत जो धर्म है उसमें ही रस लूँ।' इस भावना से धर्म रस जागेगा | (४) फिर, अपने सम्बन्ध में यह विचार करो कि 'मैं आस्तिक हूँ ? या छिपा हुआ नास्तिक ? आस्तिक को आत्मा में रस होता है? या शरीर में ? जो कहता है कि मुझे आत्मा में रस नहीं है उसे मैं नास्तिक कहता हूँ, तो यदि मैं हृदय से आत्मा में रस न रखूँ तो क्या मैं नास्तिक नहीं ? अतः यदि हृदय से आस्तिक बने रहना है तो मैं आत्मा में रस रखूँ ।' इस का प्रतीक यह कि धर्म से लगाव होना ही चाहिए। धर्म-साधना से आत्मरस का पोषण होता है। ये चार मुद्दे हैं : (१) पाप-रस दबे तभी धर्म रस जाग्रत होता है । * (२) धर्म करते हुए पाप से बच सकते हैं। (३) अनुकूल की प्राप्ति के लिए भी धर्म से अन्तराय को तोड़ना - नष्ट करना आवश्यक है। अतः धर्म ही मुख्य है । (४) आस्तिकता आत्मा के रस से द्रढ़ होती है और यह रस धर्म साधना से ही द्रढ T इस तरह ये चार बातें बार-बार मन में लाते रहने से धर्म की भूख, धर्म का रस आसानी से जगेगा | मायादित्य और स्थाणु को पैसे में रुचि है, अतः खूब परिश्रम किया, पाँच-पाँच रन कमाने के लिये; और अब उन्हें सम्हाल कर घर ले जाने के लिए जोगी बाबा का वेश बनाकर आगे बढ़ रहे हैं । इस गाँवों गाँव कहीं दानशाला में तो कहीं अतिथिरूप में, तो कहीं खरीदकर भोजन करते हुए आगे चलते हैं । चलते चलते एक नगर में पहुँचे। वहाँ स्थाणु कहता है - ' भाई ! एक तो ऐसे गाँव दर गाँव चल कर आते हैं और फिर थके हारे वापस भीख माँगने निकलते हैं, हररोज यह अनुकूल नहीं आता । आज तो यहाँ पैसे देकर रोटी बनवा कर खाएँ ।' मायादित्य कहता है 'यदि ऐसा है तो इस बात से मैं सहमत हूँ; किन्तु देख भाई ! मैं क्रय-विक्रय में कुछ नहीं समझता; तू तो व्यापारी है इसलिए समझ सकता है। अतः रोटियाँ बनवा कर लाना तेरा काम है । 'ठीक है ! लेकिन इन रत्नों का क्या हो ? अनजाने शहर की स्थिति न जाने कैसी हो ? - मायादित्य का रत्नों पर लगाव ( मायादित्य रत्नों की घात में ) :यह सवाल सुनते ही मायादित्य भीतर खुश होता है लेकिन ऊपर से मुख पर गंभीरता धारण कर कहता है, 'बात तो सच ही है। शायद इस शहर में चोर - उचक्के बहुत Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हों, अथवा परदेशी या बाबाजोगी की कोतवाल तलाशी लेता हो, और माल निकलने पर शक करें तो आफत में फंस जाना पड़े। तो तू ऐसा कर-रत्न बाँधा हुआ कपड़ा यहीं रख जा।' स्थाणु तो सरल-हृदय है। अत: उस पर विश्वास रख कर रत्नों की गठरी उसे सोंप कर बाजार में गया। कहते हैं न कि 'सोना देख मुनिवर डिगें!' मतलब? वैसे देखा जाय तो हुए बडे योगी में माया नहीं होती, फिर भी सोना देखकर उसमें लोभ जाग्रत हो सकता है, और लोभ जगने के कारण माया कर उसे प्राप्त करने को ललचा जाय । जब कि यह मायादित्य तो मूर्तिमान् माया ही है। उसे स्थाणु के रत्न हाथ में आने पर माया खेलने का मन हो इस में आश्चर्य ही क्या ? देखिये, इन रत्नों के लोभ में वह कैसा दगा खेलता है। (रत्न, सोना, पैसा खतरनाक चीजे है : इनके बिना आप को चलता न हो तो भी उन्हें अच्छी वस्तु न समझे । दीर्घकालीन रोगी को कई महीनों तक दवाई के बिना न चले तो भी क्या वह ऐसा मानेमा कि 'दवाई बहुत सुन्दरं- खाने योग्य है ?' विश्वासघातक या घमंडी नौकर निकाला न जा सके, और उसे रखे बिना न चलता हो, उससे काम भी लेना पड़ता हो, फिर भी क्या वह अच्छा लगता है ? या खतरनाक लगता है ? पैसे के विषय में भी यह समझ रखिये : पैसा खतरनाक न लगने से होने वाले नुकसान :पैसा खतरनाक नहीं मालूम होता इसी कारण, (१) इसके लिए अनीति की जाती है। (२) झगड़े किये जाते हैं, (३) उनके ब्याज से आराम से जीया जा सके, फिर भी उन्हें बढ़ाने के लिये पाप किये जाते हैं। पैसे खतरनाक नहीं लगते, इसीलिये (४) दया - दान - सुकृत - परोपकार के सुअवसरों पर चेहरा बिगड़ जाता है। (५) सुकृत में से छूटने का मौका खोजा जाता है। (६) जिस धर्म-कार्य में पैसे खर्च करने पड़ते हों, उसके लिये कहा जाता है - 'इसकी क्या आवश्यकता है?' हो सके तो वह धर्म - कार्य उड़ा दिया जाता है और दूसरों को भी वह कार्य करने से रोकने में निमित्त बना जाता है। (७) अवसर आने पर विश्वासघात भी किया जाता है और मानवता भुलाकर जंगली बाघ जैसी माया भी की जाती है। (८) कर्मादान के भयंकर धंधे किये जाते हैं। इसके ढेर सारे उदाहरण आपको मिलेंगे। आज पैसों की खातिर अनीति, अन्याय, टेक्स-चोरी आदि कितना चल रहा है ? रिश्वतखोरी कितनी बढ़ गयी है ! विद्यालयों में अध्यापक ठीक से पढ़ाते नहीं, परन्तु पैसों के खातिर प्राइवेट ट्यूशन में एकदम अच्छी Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरह से पढ़ाते हैं । पैसों के लिये पिता से अलग होते हैं, या पिता बदलते हैं (९) पैसों के लिये झगडे होने के कारण तो आज कोर्टोमें बहुत केस रहते हैं । हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट तक केस लड़े जाते हैं। ऐसे झगडों में निकट के स्वजनों के साथ झगड़ने में या उनसे अलग होने में भी धक्का नहीं पहुंचता । (१०) पैसों के लिये अच्छा कमाऊ बेटा पत्नी को लेकर पिता से अलग रहने चला 1 उस मन्दिरवाले सेठ के बारे में आपको पता है ? निजी खर्चसे मन्दिर बनवाया और बाद में भी पूजा - भक्ति के प्रसंग अवसर रखते गये व पैसे खर्च करते गये । हालांकि इससे उन्हें कोई खास फर्क नहीं पड़ता था, फिर भी - चार पुत्रों व उनकी माता को लगा कि 'ये तो बहुत खर्च कर रहे हैं.' । बेचारे सेठ पर पाबंदी लग गयी । वे बहुत समझाते कि 'देखो, इससे तो पुण्य बढ़ता है, इससे तो कमाई चालु रहती है और पूर्व भव में भी धर्म करके आये हो, इसीलिये तो यहां जन्म मिला है । तो फिर धर्म के प्रति ऐसी नफरत क्यों ?' लेकिन पुत्र माननेवाले थे ? आखिर पुत्रोंने कह दिया.. 'इस घर में इस तरह बेकार खर्च करना हो, तो चलेगा नहीं । किसका घर ? किसके पैसे ? फिर भी सेठ बिना कुछ बोले घर छोडकर खाली हाथ निकल पड़े। पुत्रों व उनकी माता ने राहत की सांस ली। पैसे खतरनाक न लगे, इसीलिये पुत्र झगड़ा करके उपकारी पिता के प्रति कृतघ्न बने 1 (११) राजस्थान में एक भाई ने एक लड़के को गोद लिया । पैसा एक ऐसी खतरनाक चीज है, जिसके लिये बाप भी बदले जाते हैं। लाखों की जायदाद के लोभ में लड़का गोद गया। एक बार बाप-बेटे के बीच ऐसी नोक-झोंक चली कि एक-दूसरे पर जानलेवा प्रहार करके दोनों मरे । (१२) पैसे खतरनाक नहीं लगते, इसीलिये तो आज कैसे-कैसे घोर जीवहिंसक साधनों के धंधे चलने लगे हैं। बंबई में एक नवयुवक दवा की दुकान पर नौकरी करता था। उसने मुझे बताया.. 'साहेबजी ! मेरा सेठ जैन है, परन्तु उसका दिल कितना निष्ठुर होगा ? 'मुझे एक बार कहा कि 'ले, यह चूहे मारने की दवा का बंडल 'फलां जगह पहुंचाकर आ ।' मैंने कहा - 'सेठजी ! यह तो मुझसे हर्गिज नहीं हो सकेगा। यदि आपको न चले, तो मैं दूसरी नौकरी खोज लुंगा ।' बाद में सेठ ने मुझसे आग्रह नहीं किया, क्योंकि उन्हें मेरी नेकी की निष्ठा पर भरोसा था । परन्तु गौर करने की बात तो यह . है कि पैसों के लिये कैसा क्रूर धंधा ! जिसे पैसे खतरनाक लगे, वह तो तुरन्त सोचेगा कि 'क्या खतरनाक पैसों के लिये ऐसे जीवनाशक साधनों का व्यवसाय किया जाय ? नहीं चाहिये ऐसे पैसे ! कई व्यवसाय ९२ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। यदि नसीब अच्छे होंगे तो कैसे भी पेट भर जाएगा।' पैसे खतरनाक लगने के बाद अन्याय कैसे ? झगड़े कैसे ? विश्वासघात कैसे ? मायादित्य की माया :- मायादित्य को पैसे खतरनाक नहीं लगे, इसीलिये स्थाणु के पांच रत्न देखकर कपट करने का मन हुआ। वह सोचने लगा कि 'स्थाणु अभी तो गया है, इसलिये उसके पांच रत्न मेरी गठरी में बांध ढुं और उसकी गठरी में कंकर बांध दुं । दोनों गठरी के बांधे हुए चीथड़े एक जैसे ही हैं। वह आयेगा, तब कंकर की गठरी उसे सौंप कर कोई भी बहाना निकालकर मैं १० रत्नों की गठरी लेकर चल पडुंगा ।' अब भला देर कैसी ? बाहर जाकर वह रत्नों के माप के पांच कंकर लाया । स्थाणु की गठरी में से पांच रत्न निकालकर उसमें पांच कंकर बांध दिये व स्वयं की गठरी में पांच रत्न बांध दिये । परन्तु इतने में तो स्थाणु को दरवाजे में प्रवेश करते देख वह घबरा गया । घबराहट व हड़बड़ी में वह भूल गया कि कंकर की गठरी कौन-सी है और रत्नों की गठरी कौन-सी है ? कंकरवाली गठरी उठाकर जल्दी से कमर पर बांध दी। उसका व्याकुल ! चेहरा देखकर स्थाणु ने पूछा- 'क्यों भाई, मुझे देखकर इतने घबरा क्यों गये ?' वह तो लुच्चा था, इसलिये कहने लगा, 'माफ करना, यह धन ही भय का कारण है। मुझे लगा, कोई चोर तो नहीं आया न ? इसीलिये मैं घबरा उठा ।' सरल हृदयी स्थाणु बोला, 'अरे भले आदमी ! इस तरह डरने की क्या आवश्यकता है ? स्वस्थ बनो, भगवान का नाम लो, कुछ नहीं होगा ।' तब कपटी मायादित्य बोला, 'भाई! तुम्हारी बात बिल्कुल सही है । परन्तु मुझे तो यह संपत्ति पास में होने से भय सताया करता है। एक काम करो, हम दोनों की रत्नों की गठरी तुम्हीं संभालो, जिससे मैं निश्चिन्त रह सकुं ।' ऐसा कहकर स्वयं के मन से जिसे कंकर की गठरी समझा था, वह दे दी। लेकिन वास्तव में हुआ ऐसा कि स्थाणु के अचानक आ जाने सेउतावल में मायादित्य गठरी को पहचान न पाया और भूल में सच्चे रत्नों की गठरी कंकर की गठरी मानकर स्थाणु को दे दी व कंकर की गठरी स्वयं छुपाकर रखी । पाप कहां तक साथ देता है ? कहीं न कहीं गफलत कराके वह भारी नुकशान में उतार देता है । कोर्ट में गवाही देने में गड़बड़ करनेवाला कहीं न कहीं तो पकडा ही जाता है । पडौसी को कोई चीज लाकर देने में गोलमाल करनेवाला एक दिन जरुर पकड़ा जाता है। दूसरों का माल हड़पनेवाले का पाप भी एक दिन अवश्य प्रगट होता है । अनीति का धन कुदरत छीन लेती है : मन को ऐसा ही लगता है कि 'ऐसे कोई पाप थोड़े ही प्रगट होता है ? सावधानी रखी जाय, तो न पाप प्रगट हो और न ही कोई नुकशान हो ।' परन्तु यह गणित गलत है । पाप उजागर होने के कई रास्ते हैं। यदि कोई माने कि, 'मैं किसीसे न कहुं, सगी पत्नी या Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्र से भी छुपाकर रखूं, तो पाप कहाँ प्रगट होनेवाला है ?' फिर भी पाप की कमाई से कई गुणा अधिक कुदरत छीन लेती है। कुदरत इसी ताक में रहती है कि, 'अनीति-अन्याय करके ५०० रु. कमाकर लाया है न ? ले, अब तो तेरी बीबी या बच्चे को ही ऐसा बीमार कर दुं कि तेरे हजार रुपये साफ हो जायें या बेटा ही कहीं तेरे हजार रुपये खोकर आये !' अब आप ही कहिये, चाहे पाप गुप्त रहा, परन्तु नुकशान कितना हुआ ? कपट करके कमानेवाले चैन से नहीं जी सकते । मायादित्य का पलायन : मायादित्य ने माया तो की, कंकर की बनावटी गठरी बनायी, परन्तु पाप कहाँ तक चलेगा ? भ्रम में रहकर असली रत्नों की गठरी स्थाणु को दे दी और कंकर की गठरी स्वयं छुपाकर रख ली। अब उसे वहाँ से भागने की उतावल हुई। लेकिन यकायक भागा कैसे जाय ? तो अब नयी योजना बनाता है । मायादित्य स्थाणु से कहता है - 'भाई ! क्या लेकर आये ? सिर्फ रोटी ? अकेली रोटी तो कैसे गले उतरेगी ? लाओ, मैं उसके साथ कुछ खट्टा- तीखा ले आऊं ।' स्थाणु तो दिल का साफ था । उसने कहा, 'कोई बात नहीं, ले आओ। लेकिन जल्दी आना ।' मायादित्य को सहजता से भागने का मौका मिल गया। वह तुरन्त उठकर बाहर निकला । बाजार में किसे जाना था ? वह तो सीधा गाँव से बाहर निकलकर आगे चल पड़ा । हृदय में पक्का विश्वास है कि स्वयं के पास जो गठरी है, वह दस रत्नोंवाली ही है । तो दूसरे गांव जाकर खोलकर भी क्यों देखे ? वह तो चलते चलते कहीं भी किसी भोजनालय या सदाव्रत में खाना खा लेता, थोड़ा बहुत आराम कर लेता और फिर से आगे चल पड़ता। उस पर तो बस एक ही धून सवार थी, 'जल्दी से जल्दी घर पहुंच जाऊं ।' जीव की अनन्त निष्फल लगन : कैसी लगन है ? घर जाकर गठरी खोलेगा, तो उसमें से क्या निकलेगा ? कंकर ! तब क्या होगा ? हार्ट फेइल ? रो-रोकर छाती व सर पीटेगा ? क्या फायदा हुआ ? फिर भी फिलहाल तो लगन ऐसी है कि खाया न खाया, सोया न सोया और फिर से चलने लगा खुद के गांव की ओर ! अनंत जन्मों में ऐसी तो अनंत लगन रखी, खाने-पीने की परवाह किये बिना अर्थ व काम के लिये दौड - धूप की, परन्तु सब निष्फल गई। फिर भी अभी भी यही पागलपन ? मूर्ख जीव को अपने सच्चे घर - मोक्ष में पहुंचने की ऐसी कोई लगन नहीं लगती । मायादित्य को तो कंकर मिलनेवाले हैं, जबकि यहां तो जो दर्शन - ज्ञान - चारित्र रुपी रत्न लेकर दौड़े, खाने की या सोने की कोई परवाह न की, उन्हें अन्त में कंकर-वंकर Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं, परन्तु जो ज्ञानादि रत्न लेकर दौडे, उनसे अनन्त गुणा रत्न मिलनेवाले हैं। जीवन जीना है न? दोनों तरीकों से जीया जा सकता है। बुरे की लगन में अन्त में रोना पड़ता है; अच्छे की लगन में अनन्त मौज । लगन तो ज्ञानादि की चाहिये, धर्म की चाहिये, परन्तु वह लगन कैसी? खाया न खाया, सोये न सोये और दौडे धर्म-साधना में। ___ मायादित्य को चलते-चलते बारह दिन बीते । अब उसे उत्सुकता जगी कि देख तो लुं, मेरे हाथ में आये हुए दसों रत्न कैसे है ! एकान्त में बैठकर गठरी खोली । अन्दर से क्या निकला? कंकर ! अन्दर जो होगा, वही दिखेगा न ? कंकर ही हों, तो रत्न कहां से दिखेंगे? इन्द्रियों के विषयों में, संपत्ति-सन्मान में, कुटुंब-परिवार में ऐसा ही है। इनमें वास्तव में शांति नहीं, सुख नहीं । इनमें तो है - दुःख, चिन्ता, संताप की आग । अनंत तीर्थंकर ऐसा कहते हैं । अनंत मानवों के अनुभव हैं । हमारे स्वयं के अनन्त पूर्व भव भी यही बताते हैं। तो फिर यहाँ के विषय, संपत्ति, सन्मान, परिवार से भी दूसरा क्या मिलनेवाला था? कंकर देखते ही मायादित्य बेहोश हो गया । होश में आने पर जोरों से रोता है 'हाय । मैं ठग गया। हाय। मैं लुट गया। मैं कैसा बदनसीब!' इतना बीतने पर भी उसे यह भान नहीं आता कि - मियां की जती मियां के ही सर: जो मूढ मनवाला बनकर किसीके प्रति हृदय से भी बुरा सोचता है, उसीसे वह स्वयं मरता है। जैसे कि शिला के सामने छोड़ा गया बाण टकराकर वापिस उसीकी तरफ आता है। यहाँ मायादित्य के साथ भी ऐसा ही हुआ है। स्थाणु के पास कंकर ही रहें, ऐसा सोचा, तो बुरा उसीसे आकर टकराया। दूसरे के सर पर कंकर लादने गया, तो स्वयं के सर पर ही पड़े। स्वयं का शस्त्र स्वयं के ही सर पर लगा। समझना हो, तो यह दुनिया एक बोधशाला है। हृदय की धृष्टता खतरनाक : कुदरत बहुत कुछ सिखाती है, परन्तु जो सीखना चाहे उसे । मायादित्य के खुद के सर पर कंकर लगे, फिर भी उसे सीखना नहीं है, इसलिये उसे ऐसा नहीं होता कि, 'अब से कभी किसीको ठगुंगा नहीं और यदि स्थाणु मिल जाय, तो उसके आगे मेरी धोखेबाजी कबूल करके क्षमा मांगुं।' वह तो ऐसा सोचता है कि, 'इस बार धोखा खाया है, परन्तु अब कोई ऐसा नया दाँव डालुं व स्थाणु के पास से दसों रत्न हडप हुँ ।' हृदय कैसा ढीठ है ! कुदरत ने सीख लेने का अवसर दिया, परन्तु वह लेनी हो, तो? क्या आपके जीवन में कुदरत ने प्रहार नहीं किये? 'सीख भला कैसी?' हृदय की कैसी धृष्टता ? जीवन के अन्त तक ऐसी धृष्टता बनाये रखी, तो फिर भवान्तर में क्या होगा? Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाणु का क्या हुआ ? उस तरफ स्थाणु धर्मशाला में मायादित्य के इंतजार में बैठा था कि 'मित्र अभी आयेगा, अभी आयेगा' । वह बेचारा दस मिनट, बीस मिनट, एक घंटा, दिन-भर राह देखता रहा। फिर भी मायादित्य के न आने पर उसके मन में कई संकल्प - विकल्प उठने लगे कि 'क्या हुआ होगा? मित्र कहाँ गया? क्या कोई उसे उठाकर ले गया? क्या उसके साथ कोई दुर्घटना घटीं ? चलो, अब इन्तजार में बैठने के बजाय तलाश करूँ।' स्थाणु मित्र की तलाश में निकल पड़ा। शहर में मन्दिर, मठ, चौक, चौपाल आदि स्थानों में ढूंढता है, परन्तु कुछ पता न लगा। मित्र के प्रति स्नेह होने से उसे रोना आ गया कि 'अरे अरे दोस्त ! निष्कपट प्रेमवाले मित्र ! तू कहाँ गया ? तुझे क्या हुआ? तू सौ बरस जीना । मुझे तेरे दर्शन दे। परदेश में तेरा क्या हुआ होगा?' स्थाणु का दिल सरल सज्जन का दिल है । मित्र की आपत्ति की कल्पना से वह दुःखी हो रहा है। इसे पूछता, उसे पूछता, परन्तु कोई पता नहीं लगता। अब वह सोचता है कि 'इस तरह कब तक बैठे रहुंगा? सिर्फ खेद करके रोते बैठने का काम तो स्त्रियों का है। मर्द तो उपाय करते हैं । शास्त्रों में भी कहा गया है...' (मर्द कौन? पियविरहे अप्पियदंसणे य, अत्थक्खए विवत्तीए । जे ण विसण्णा ते च्चिय, पुरिसा इयरा पुणो महिला ॥ - अर्थात प्रिय के वियोग में, (२) अप्रिय के योग में, (३) पैसे गंवाने में, व (४) किसी आपत्ति में जो खेद करके बैठे न रहे, (परन्तु सत् उपाय करें) वे मर्द हैं, बाकी तो स्त्री ही हैं। (१) प्रिय के वियोग में धर्म की ५ समझ : क्या कहा? मर्द को प्रिय के वियोग में रोते नहीं बैठना चाहिये। तो क्या करना चाहिये ? सद् उपाय करना चाहिये । कैसा उपाय ? ऐसा उपाय कि जिससे प्रिय के वियोग का दुःख हल्का हो, नष्ट हो जाय । यदि फिलहाल वियोग टले, ऐसा नहीं लगता और प्रिय की स्मृति में हृदय भर जाय, तो फिर क्या किया जाय? क्या हो सकता है? धर्म की शरण ही लेनी पड़ती है। धर्म के बिना यह दुःख कोई मिटा नहीं सकता । धर्म की शरण लो, तो धर्म ऐसे महापुरुषों के चरित्र हमें बताता है, जिन्होंने अति प्रिय के वियोग होने पर बहत धीरज, बहुत समझ व समता रखी। सगर चक्रवर्ती के ६० हजार प्रिय पत्र एक साथ दैवी कोप के शिकार बने । क्षण भर के लिये आघात पहुंचा, परन्तु बाद में स्वस्थ बन गये, क्योंकि, सगर चक्रवर्तीने धर्म की समझ ली कि (१) 'इस जगत में ऐसा कोई नियम नहीं कि छोटे हों, वे देर से मरते हैं और बड़े हों, वे पहले ही मरते हैं ?' (२) हम जैसे सोते Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुओं को मरनेवाला तो झकझोरकर जगा देता है कि 'एक दिन इसी तरह तुम्हें भी यहीं से रवाना होना पड़ेगा, जाने से पहले आत्मा का साधना हो, वह साध लो।' (३) मरनेवाले का मोह हमें सताता है, परन्तु मरनेवाले को यहाँ किये हुए मोह व मोह भरे पाप के फल भुगतने शुरु हो गये हैं, यह बात कहाँ दुःख पहुंचाती है ? विचार तो ऐसा करना चाहिये कि मुझे उसके वियोग का दुःख है, उससे अधिक दुःख तो उस जीव को अब मेरे वियोग में होता होगा ! तो भला मुझे वियोग के मेरे दुःख पर क्यों रोना चाहिये ? (४) यह भी हकीकत हैं कि मेरे इस प्रिय से तो परमात्मा महावीर या कोई आचार्य, मुनि महाराज खूब प्रिय, तो उनका वियोग मुझे कहाँ सताता है ? बाकी तो (५) सांसारिक प्रिय के वियोग में अत्यन्त आर्तध्यान करके तिर्यंचगति में ले जानेवाले पाप का संचय किया जाय ? ऐसे दुःख में दुःखी बनने से क्या फायदा? ऐसी समझ धर्म देता है। मर्द इन्सान धर्म की शरण लेता है, अर्थात प्रियवियोग में रोते नहीं बैठता, परन्तु सद् उपाय में प्रवृत्त रहता है। रोते बैठे रहना तो स्त्रीत्व है। (२) अप्रिय के योग में : इस प्रकार मर्द तो अप्रिय के योग में भी रोते नहीं बैठता । वह तो सद् उपाय ढूंढता है। 'हाय ! नौकर चला गया', ऐसा कहकर रोता नहीं, परन्तु (१) दुनिया में पैसोंसे नौकर तो कई मिल जायेंगे! वास्तव में तो (२) नौकरों से काम लेने की पराधीनता ही बुरी है। कोई बात नहीं, नौकर गया तो आप-मेहनत जिंदाबाद सीखने को मिला। इस प्रकार कुछ भी अप्रिय मिलने पर मन को तालीम देनी चाहिये कि दुनिया में सब कुछ अनुकूल मिलता रहे, इस अपेक्षा से तो इन्सान सत्त्वहीन-व कायर बन जाता है। इसीलिये ऐसे अप्रिय का योग होने पर चित्त विह्वल, व्याकुल व बेचैन हो जाता है। वास्तव में देखा जाय, तो ऐसे अनिष्ट का योग होने पर आत्मा को स्थिरता-धीरता रखकर सत्त्वशाली बनने का अवसर मिलता है। यह सत्त्व ही आत्मा का ओजस बढ़ाने में, गुणस्थानक के सोपान चढ़ाने में, यावत् क्षपकश्रेणी कराके वीतराग-सर्वज्ञ बनाने में प्रधान कारण है। यदि इस पर ध्यान दिया जाय, तो अप्रिय अनिष्ट का योग होने पर वह कैसा आशीर्वाद रुप साबित होता है ? धर्म की शरण यह सिखाती है। (३) पैसे खोने पर :- भी मर्द रोते नहीं बैठता । ऐसे समय में भी वह धर्म की शरण लेता है, यह सद् उपाय है। धर्म की शरण सिखाती है कि "(१) पैसे जाने से तेरा क्या गया ? पैसे मिले, तब पूर्व का पुण्य तो गया ही था, परन्तु ममता, अभिमान, विषयपोषण, आरंभ-समारंभ आदि पापों ने प्रवेश किया, जिससे सद्बुद्धि-सत्प्रवृत्ति भी चली गयी थी। अब पैसे जाने से वे पाप तो कम होंगे। तेरा क्या गया? (२) पैसे गये, इससे सूचित होता है कि तूने पूर्व में धर्म नहीं किया। तो अब धर्म बढ़ा। इसने तो तुझे चेतावनी दे दी है कि पूंजी इकट्ठी कर । (३) बाकी, पैसे को प्राण मानने से ही रोने Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की नौबत आती है । तू आस्तिक है न? आस्तिक तो आत्मा के बारे में विचार करनेवाला होता है, काया के बारे में नहीं । पैसे तो काया की चीज हैं। पैसे जाने पर सावधान होकर यह देख कि पैसे थे, तब तक आत्मा के पक्ष में सुकृत नहीं किये। अब भला रोने से क्या फायदा? अब तो एक तरफ के नुकशान की भरपाई दूसरे में कर देनी चाहिये । दान के संयोग गये, तो शील बढा, तप बढा''। धर्म यह सिखाता है और यही सद् उपाय है। (४) किसी आपत्ति में :- भी मर्द का बच्चा रोते नहीं बैठे रहता, सद् उपाय अपनाता है। धर्म यह उपाय बताता है कि 'आपत्ति में (१) पहले तो संसार को पहचान लो। संसार उसीका नाम, जिसमें हो-संसरण, फिसलन, व परिवर्तन ! इसमें संपत्ति के साथ आपत्ति भी आती है, तो फिर संसार के ऐसे स्वभाव के अनुसार कुछ आपत्ति आने पर खेद कैसा ? (२) इस दुनिया में यदि आप गहराई से देखेंगे, तो पता चलेगा कि संसार के असंख्य जीवों पर तो हमारे से भी बडी-बडी आपत्तियों के ढेर हैं । नरक के जीव बेचारे कैसी दारुण यातनायें सह रहे हैं ? गरीबों की भी आज कैसी करुण दशा है? आपत्ति में तो आत्मसुवर्ण तपने से उसका सत्त्व व तेज बढ़ता है। (४) आपत्ति में वास्तव में तो यह देखना है कि जड़ पर आपत्ति यानी जड़ की लाश । इसमें हम कहीं आत्मा का हित भुला न दें।' बस, मर्द इन्सान धर्म में से यह समझ लेकर प्रियवियोग आदि में सहन करने के बदले कमाई कर लेता है। स्थाणु ने क्या किया ? मित्र मायादित्य के वियोग में अब स्थाणु रोना बन्द करके सोचता है कि 'चलो, अब घर पहुंच जाऊं। यदि मायादित्य जिंदा होगा, तो घर पर आयेगा ही। वह मिलेगा, तब मैं उसे उसके पांच रत्न लौटा दूंगा। यदि वह न आया, न मिला, तो उसके स्वजनों को उसके पांच रत्न दे दंगा।' कितनी सरलता व ईमानदारी ! उसने ठीक ही सोचा कि सिर्फ खेद-विषाद करके बैठे रहने से क्या फायदा? ऐसा खेद तो स्त्रियाँ करती हैं, पुरुष नहीं । कोई प्रियजन मरा, भाग गया, गुम हो गया या कुछ अनचाहा मिला, पैसे चले गये अथवा दूसरी कोई आपत्ति आयी, संकट आया, तो रोते बैठे रहने का क्या अर्थ ? कर्म के पराधीन हैं, तब तक और पुण्य कमजोर है, इसलिये ऐसा तो होने ही वाला है। ऐसे समय में रोते बैठे रहने से क्या मिलेगा? सद् उपाय करना चाहिये । आप पूछेगे कि प्र. - उपाय करने से कर्म को टाला जा सकता है ? उ. - यहां कर्म को टालने की बात ही कहाँ है ? कर्म ने तो उसका फल बता दिया, प्रिय का वियोग करा दिया या उनसे दुश्मनी करा दी, पैसे चले गये या कोई संकट Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ पडा । यह सब अशुभ कर्म से ही होता है । अशुभ कर्म उदय में आने से ऐसा हुआ, इसमें कर्म तो भुगते गये। सम्यग् उपाय क्या करता है ? अब सवाल यह है कि क्या किया जाय ? यदि वहाँ अच्छा उपाय किया जाय, तो निमित्त पाकर उदय में आनेवाले शुभ कर्म हमारे पास होंगे, तो वे उदय में आकर अच्छा फल दिखायेंगे और यदि नहीं होंगे, तो भी हमारा सम्यग् उपाय का प्रयास दिल को जो विशुद्धि देगा, वह महान लाभ है I पुत्र की मौत पर उपाय : यह बात बहुत ही ध्यान में लेने जैसी है। समझो कि पिता का कमाऊ, नौजवान पुत्र मर गया। अब वह क्या करे ? यदि रोते बैठा रहे, तो माँ के दुःख का कोई पार नहीं रहेगा । तब पत्नी को हिम्मत देने के लिये भी (१) ऐसे अवसर पर पति को चाहिये कि वह तीर्थंकर परमात्मा आदि के महान चरित्र पढ़कर सुनाये, जिससे मन को स्वस्थता मिले। (२) स्वयं यह विचार भी करे कि पुत्र कमाता था, तो छूट से जीवन जीते थे । अब पुत्र गया, कमाई घटी, तो थोड़ी करकसर करके जीयेंगे। चलो, इस बहाने भी थोड़े त्याग का लाभ मिलेगा, सहन करने का मौका मिलेगा। व्यवहार में ज्यादा पांव नहीं पसारेंगे, तो इतने पाप से बचेंगे। (३) आपत्ति आयी है, तो धर्म बढ़ाओ । पुण्य पाप को दूर धकेलता है। भगवान की भक्ति, साधुसेवा, धर्मसाधना, परोपकार आदि बढ़ाओ । (४) पुत्र यकायक विदा हो गया, तो उसका उपकार मानो कि उसने जीवन खोकर हमें जगाया कि उठो, यह वैभव-विलास व ऐश-आरामवाला जीवन जीना छोड़ दो । सिर्फ दुनिया - दुनिया न करो, अपनी आत्मा की ओर नजर करो, परमात्मा व महापुरुषों को जीवनी पढ़िये, उन पर चिन्तन कीजिये व धर्म में लग जाईये । सद् उपाय तो वह है, जिसमें दिल विशुद्ध बने : I इस प्रकार सद् उपाय में प्रयत्न हो, तो दिल में कितनी विशुद्धि आती जाय ! यहाँ असद् उपाय की बात नहीं है । 'कमाऊ पुत्र मर गया, इसलिये व्यापार बढ़ाऊँ, दूसरों की गुलामी, खुशामद या आजीजी करूं, पाताल फोड़कर भी पैसे लाऊं... ऐसी कोई बात नहीं । इसमें दिल विशुद्ध नहीं बनता । यहाँ तो सम्यग् उपाय की बात है । ऐसी प्रवृत्ति करे कि जिससे दिल विशुद्ध बनता जाय और मन का झुकाव भी अच्छे की ओर हो, विचारधारा भी ऐसी निर्मल हो कि जिससे दिल विशुद्ध बनता जाय। 'हाय ! बेटा मर गया, बहुत बुरा हुआ...' यह भी मन का झुकाव है और 'पुत्र ने जीवन खोकर हमें जगा दिया'... यह भी मन का एक झुकाव है, विचार है । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन के दो विचार हैं, परन्तु दोनों में फर्क कितना? पहले में शोक की गंदगी है, तो दूसरे में धर्मस्फूर्ति की विशुद्धि है। अप्रिय के योग में, पैसों के नुकशान में या किसी भी संकट में सीधा विचार भी किया जा सकता है, और चित्त को समाधि मिले, ऐसे सम्यग् उपाय किये जा सकते हैं। कोई दुश्मन पैदा हुआ हो, तो सरल जीवन जीने की सावधानी बढ़ानी चाहिये, पैसे गये, तो साहस, अतिविश्वास, लोभ आदि पर काबू रखना चाहिये, संकट आने पर धर्म बढ़ाना चाहिये। ऐसे - ऐसे सम्यग् उपाय किये जायें, तो चित्त असमाधि में न पड़े और संभव है कि अच्छे कर्म उदय में आयें । ऐसा न हो, तो भी कम से कम हृदय में विशुद्धि - निर्मलता बढ़ती जाय। स्थाणु यही विचार करता है कि अब घर पहुंच जाऊं और मित्र मिले, तो उसे, नहीं तो उसके कुटुंब को उसके रत्न दे दूं।' बस, विचार करके वहां से चला खुद के गांव की ओर चलते - चलते नर्मदा नदी के किनारे अचानक मायादित्य दिखा। स्थाणु मायादित्य से मिलता है : मायादित्य आगे चल रहा है और पीछे से स्थाणु आ रहा है। मायादित्य को देखते ही स्थाणु एकदम हर्षित हो उठा । दौड़कर पीछे से आकर स्थाणु ने उसे गले लगा दिया और रोते हुए कहने लगा - 'अरे दोस्त! दोस्त! तू कहां गया था? हे सरल, सज्जन, गुणभूषण मित्र! तुझे क्या हुआ था? तू कहां चला गया था ?' ___ मायादित्य भी कहां कम है ? वह भी कपट करके रोने लगा, उसने भी स्थाणु को गाढ़ आलिंगन में ले लिया । स्थाणु ने उसे नीचे बिठाया, और पूछा-'बोल, तू कहां गया था? क्या किया इतने दिन?' । ___मायादित्य तो रंगा सियार था ही । स्थाणु के सरल, संवेदनशील दिल व स्नेह का फायदा उठाकर देखता है कि 'मौका अच्छा है, मेरा कोई ऐसा भयंकर दुःख बता दूं, जिससे इसको मेरे प्रति सहानुभूति हो और मुझे विशेष आश्वासन देकर मुझ पर भरोसा रख दे।' इस दुनिया में सज्जनों की सज्जनता का दुर्जन इसी तरह गैरफायदा उठाने का प्रयास करते हैं। सज्जन सहज में ही दूसरे का दुःख देखकर द्रवित हो जाते हैं, संवेदनशील होने से स्नेह दर्शाते हैं, सहायता करते हैं; जबकि मायावी ऐसे वक्त भी ऐशो-आराम करता है। तो फिर सवाल यह उठेगा कि... प्र. - तो क्या सज्जन की ऐसी सज्जनता रखने में मूर्खता नहीं, जिससे सामनेवाले को नाचने का अवसर मिले और स्वयं आपत्ति में पड़ जाय? Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Parliamsin FResumerNarsamactereemastraMARCamunarwasowaiswewwMIKA HNIPASANGAMRIDING.MPMK: सज्जनता टिकाने के लिये ४ विचार उ. - सिर्फ स्थूल बाह्य दृष्टि से विचार करने पर ऐसे सवाल उपस्थित होते हैं । परन्तु सोचने की बात तो यह है कि (१) क्या जीवन में हमें बाहर का सब कुछ अनुकूल ही रहा, प्रतिकूल कुछ न आया, जिससे जीवन सफल है ? अथवा अपनी आत्मा में कोई शुभ भाव, सज्जनता, उत्तमता बनायें, तो ही सफलता है ? (२) क्या सामनेवाला माया करे, उससे उसे सब जगह लाभ ही होगा और हमें नुकशान ही होगा? (३) जैसे के सामने तैसे बनेंगे, तो इस दुनिया में सज्जनता, उत्तमता आदि का प्रवाह कौन अखंड रखेगा? (४) चंदन, सोना आदि जड़ पदार्थ भी भारी आपत्ति में अपना उच्च स्वभाव नहीं छोडते, तो क्या आत्मा के लिये यह जसी नहीं ? . ये चारों विचार मन पर लाने की खूब आवश्यकता है। ये विचार करने पर मन को लगता है कि अनुकूल बनना तो अपने भाग्य के अनुसार है, मायादि के अनुसार नहीं । वैसे इसका कोई खास महत्त्व भी नहीं, क्योंकि जीवन की उत्तमता अनुकूल बनने पर आधारित नहीं, परन्तु मायादि के त्याग पर आधारित है। पहले से ही महापुरुष उत्तमता रखते चले आये हैं। आगे भी यह उत्तमता का प्रवाह अखंड बनाये रखना हमारा फर्ज है, क्योंकि हमने उत्तम कुल में जन्म लिया है । आपत्ति में भी स्वभाव को निष्कपट, निरभिमानी व अक्रोधी बनाये रखें, तो चन्दन, सोने आदि की तरह अपनी उत्तमता बनी रहती है, इसीमें हमारी शोभा है। यहाँ पर स्थाणु इतनी सज्जनता, निष्कपटता रख रहा है, इसमें उसकी उत्तमता है। इसमें उसे कोई नुकशान नहीं होनेवाला । मायादित्य कपट कर रहा है, तो अन्त में उसे नुकशान होने ही वाला है। मानव के चोले में पशु-हृदय रखकर बेचारा मार खाने पर भी आगे ही आगे दौड़े चला जा रहा है। स्थाणु को मिलने पर मायादित्य कपट-रुदन करने लगा। उसे गले से लगा दिया। फिर स्थाणु ने पूछा - 'अरे भाई ! तू कहाँ गया था? तुझे क्या हुआ था ?' उसके जवाब में मायादित्य नीचे बैठकर रोते-रोते कहता है। (मायादित्य की मायावाणी : _ 'भाई ! तुझे क्या बताऊँ? भयंकर आपत्ति आ पड़ी थी। कुछ नमकीन, तीखा लेने के लिये गया तो था, परन्तु दो-चार घरों में मांगने पर मिला नहीं । वहाँ एक अच्छा घर Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 देखकर उसमें घुसा । अन्दर किसीको न देखर मैंने सोचा कि एकदम से अन्दर कैसे घुसा जाय ? वहाँ किसीके आने के इन्तजार में खड़ा रहा। वापिस बाहर निकल रहा था, इतने में तो पीछे से चौकीदार आया और कहने लगा 'चोर ! ऐसे धंधे करता है ?' और मुझे लकड़ी से दो-चार फटके लगा दिये। मैंने कहा- 'मैं चोर नहीं, परन्तु वह तो कहने लगा - 'सफाई देने की कोई जरुरत नहीं। हमारी मालकिन के कुंडल खो गये हैं, तूने ही चुराये हैं। खड़ा रह, सेठ के पास ले जाता हूं।' ऐसा कहकर ले गया सेठ के पास और कहा 'सेठजी ! कुंडल चुरानेवाला चोर यही है।' सेठ ने कहा- 'तब तो राजदरबार में फरियाद करके आता हूं । तू इसे यहीं पकड़कर रखना । अब तो इसे पकड़कर राजदरबार में ही ले जाना पड़ेगा ।' चौकीदारने फिर से दो-चार डंडे मार दिये ।' - तब मुझे लगा कि 'इस दोस्त को छोड़कर निकला व थोड़ा नमकीन, तीखा खाने के लोभ में पड़ा, तो कैसी सजा हुई ? हे भगवान! यह तो राजदरबार में ले जाने की बात कर रहा है । मैं तो ठहरा परदेशी ! यहाँ कौन मेरा पक्ष लेगा ? कौन है मुझे बचानेवाला ? ऐसा विचार करते हुए राजा की ओर से मिलनेवाली भयंकर सजा की कल्पना में शायद कंपकंपी छूटने लगे ! परन्तु हे मित्र ! उस वक्त तेरे वियोग की चिन्ता से मैं सिहर उठा ।' - मैं सोचने लगा- 'अरे अरे! सज्जन मित्र का कैसा भयंकर वियोग ! मित्र के योग में सब दुःख सहा जा सकता है, परन्तु मित्र का वियोग कैसे सहा जाय ?' तब मुझे लगा 'अरे यमराज ! तुझे मुझे एक बार मौत देनी ही है, तो अभी ही दे दे न ! विलंब क्यों करता है ? मित्र का वियोग सहने से तो मौत सहना बेहतर है, क्योंकि मौत में तो कुछ देर के लिये ही दुःख सहना होता है, मरने के बाद कुछ नहीं । यह वियोग तो न जाने कितने दिनों, महीनों या वर्षों तक जलाया करेगा। अरे अरे ! मेरा सज्जन, सरल, प्राण - प्यारा मित्र मुझे कब व कहाँ मिलेगा ?'..... ऐसा बोलते-बोलते वह रो पड़ा । स्थाणु ने कहा - 'रो मत, अब तो मैं मिल गया हूँ न ? हां बता, आगे क्या हुआ ?' मायादित्य ने कहा - 'बस, मुझे वहीं रोककर रखा। रात पड़ी, मुझे नींद आ गयी। नींद में संपने आने लगे, तेरे मिलन की कल्पना के ! अब मेरा प्यारा मित्र मुझे कब व कहाँ मिलेगा ? लेकिन मैं तो ऐसा फंसा हुआ था कि, मत पूछो बात ! सुबह में वहाँ एक स्त्री आयी, वह मुझे भली लगी। मैंने उससे पूछा कि - 'मुझे क्यों इस तरह परेशान किया जा रहा है।' उस स्त्री ने मुझे बताया कि 'आज से नौवें दिन यहाँ पर देवता की आराधना होनेवाली है और उसमें तुम्हारी बलि दी जानेवाली है । इसीलिये चोरी का आरोप रखकर तुम्हें पकड़ा गया है।' - यह सुनते ही मेरे तो होश उड़ गये । क्या मुझे जिंदा काट देंगे ? अग्नि में होमेंगे ? दोस्त ! मेरी आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा। मैं सर से लेकर पांव तक कांप १०२ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उठा। हाय ! अब मेरा प्रिय मित्र कभी नहीं मिलेगा?' देखिये, मायादित्य कितनी बनाकर बात कर रहा है। बारह दिन का अन्तर पड़ा, उसका हिसाब देने के लिये नौ दिन की कथा तो मन से बनाकर कह दी। उसमें भी बीचबीच में ऐसी बात करता है, मानों मित्र के वियोग में तड़प रहा हो । स्थाणु भला आदमी है, वह उस पर विश्वास रखकर यह सब सच मानकर दुःख व्यक्त करता है। 'अरे मित्र ! तुझे इतना दुःख सहना पड़ा? हाँ, यह बता, तू वहाँ से छूटा कैसे?' मायादित्य ने बताया - 'दोस्त ! यह समझ कि शायद तुझसे मिलना नसीब में लिखा होगा, इसीलिये वहाँ से छूट पाया । परन्तु वह भी कुछ आसान नहीं था। मैंने उस अच्छी स्त्री से पूछा - है इसमें से छटने का कोई उपाय?' तब उस स्त्री ने बताया, 'एक उपाय है। नौंवें दिन के पहले वे सब नदी पर नहाने के लिए जायेंगे। सिर्फ एक चौकीदार रहेगा। उस वक्त यदि कोई न देखे, इस तरह तुम भाग सको, तो बच जाओगे।' यह सुनकर मैंने राहत की सांस ली कि 'चलो, चाहे जैसे भी उस दिन यहां से भागने का अवसर मिलेगा।' फिर तो कैदखाने में ज्यों-त्यों आठ दिन बिताये । तेरे बिना सब कुछ खाने को दौड़ रहा था। नौवां दिन आया । सब नहाने के लिए गये। पहले तो मैंने चौकीदार की द्रष्टि पड़ने पर ऐसा ही दिखावा किया, मानों मैं निश्चिन्त होकर वहीं पड़ा रहनेवाला होऊं। उसे भी मेरे प्रति कोई शंका नहीं थी, इसलिये वह थोड़ा इधर-उधर हुआ कि मैं तुरन्त वहां से भाग गया। फिर तो जैसे मुझे नवजीवन मिल गया हो, इतना आनंदित हुआ ! परन्तु तेरे बिना चैन कैसे पाना? तूने भी मेरी तलाश तो की ही होगी, न मिलने से निराश होकर तू चला गया होगा। इसलिए मैं भी तुझे खोजते-खोजते, हर गांव में पूछताछ करता, छान-बीन करता । इतने में किसीने मुझे बताया कि 'ऐसा-ऐसा एक आदमी इस रास्ते से गया है।' इतने समाचार पाते ही मैं उतावले कदमों से चलने लगा और मेरे अहोभाग्य से तू मुझे यहाँ मिल गया। तेरे मिलने से मुझे मानों सब कुछ मिल गया।' तुच्छ स्वार्थ-लालसा : कितना दंभ ! कितना बनावटीपन ! कितनी माया ! माया के साथ बोला गया झूठ बेबुनियादी महल बनाकर महल जैसा दिखावा करता है। मायादित्य जो कुछ भी बोला, वह सरासर झूठ ही था। ऐसा कुछ हुआ ही नहीं था, परन्तु वह मायावी तो स्थाणु के दिल में यह बात जमाना चाहता था कि 'मैं कोई बुरे इरादे से भाग नहीं गया था, परन्तु विकट संयोग के पराधीन बनकर बहुत दुःखी हुआ । इसलिये उसने माया से मृषाभाषण किया। थोड़े-से स्वार्थ की लालसा में इन्सान कैसे घोर माया-मृषा के पाप करता है !' जगत के पदार्थों की स्वार्थ-लालसा ही बुरी है कि जो ऐसे दीर्घ दुर्गति की परंपरा का सर्जन करनेवाले मायामृषा के पाप कराती है। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानी संसार को असार क्यों कहते हैं ? इसका एक कारण यह भी है कि संसार के पदार्थ झूठी स्वार्थ-लालसा जगाकर माया-मृषा के घोर पाप कराते हैं, अज्ञान से अंध बने जीव को इसकी सूझ नहीं पड़ती। बिल्ली दूध का कटोरा देखती है, परन्तु पीछे कोई लाठी लेकर खड़ा है, यह नहीं देखती। इसी तरह अज्ञानी जीव तात्कालिक तुच्छ स्वार्थपूर्ति देखता है, परन्तु पीछे दीर्घ दुर्गति के भय नहीं देखता । इसका नतीजा क्या? वहाँ बिल्ली को थोड़ा-सा दूध चाटने तो मिलता है, परन्तु बाद में डंडा ऐसा पड़ता है कि बेचारी की कमर ही टूट जाय या सर फूट जाय। इसी प्रकार यहाँ माना गया स्वार्थ पुण्य-बल से सध जाय, परन्तु परलोक में भयंकर दुःख व विडंबना से भरे तिर्यंचगति के अवतार मिलते हैं। अरे! इस जीवन में भी सच्चा सुख कहाँ है ? माया-मृषा का सेवन करनेवाले को कितनी चिन्ता रहा करती है ! क्योंकि उसे इस बात का भय होता है कि कहीं मेरी कपटलीला कोई जान न पाये ! किसीको पता न चल जाय कि मैं कैसे खेल खेल रहा हूं! इस चिन्ता के साथ ही साथ यह चिन्ता भी लगी रहती है कि बातें कैसे बनायी जाय ! कहने का तात्पर्य यह है कि झूठ-कपट करनेवाला कभी चैन से नहीं जी सकता । शायद उसका दांव सफल हो जाने से, वह चैन की सांस भी ले, परन्तु याद रखिये कि - माया की कमाई स्वच्छ सुख भोगने नहीं देती। अभिमान का बाह्य व आभ्यन्तर असर : अभिमान आदि कषायों के दीर्घ परिणाम परलोक में तो बुरे हैं ही, परन्तु यहाँ भी इनके परिणाम खतरनाक हैं । इस जीवन में ही आपको दिखेगा कि अभी किये गये अभिमान का क्या फल मिलता है ! परन्तु यह तो कोई बाह्य दुःखद प्रसंग उपस्थित होने पर ही हमारी नजर में आता है । वास्तव में तो अभिमान का आभ्यन्तर असर भी बुरा ही है। अभिमान का नशा चढ़ने के बाद तत्त्व-चिन्तन का दरवाजा बन्द हो जाता है । उस वक्त कोई उसे तत्त्व की बात समझाने बैठे, तो उसके गले नहीं उतरती । क्योंकि अभिमान ने दरवाजा ही बन्द कर दिया है। जमालि को अभिमान चढ़ा था कि 'मुझे जो सच लगे, वही सच' । स्वयं गौतम गणधर ने समझाने का प्रयास किया, परन्तु वह कहाँ समझनेवाला था? इसी प्रकार माया में सच बात समझने का दरवाजा ही बन्द हो जाता है। मायादित्य ने पछाड़ तो जोरदार खायी। माया करने गया, तो स्वयं के पास दस रत्नों के बदले दस कंकर आये । क्या यह पछाड़ कुछ कम है ? फिर भी माया कषाय कुछ समझने नहीं देता। मायादित्य ने कपट-रुदन करके एकदम बनावटी बात की, तब सरल-हृदयी स्थाणु उसे सच मानकर हमदर्दी जताता है कि - 'भाई ! क्या सचमुच तुझे इतना दुःख सहना पड़ा? चल, अब इसमें से छूटकर मुझे मिल तो गया! अच्छा हुआ! चल, अब हम घर जायें।' क्या मायादित्य को यह बात अच्छी लगेगी ? नहीं ! क्योंकि मायाने हृदय में Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समझदारी देने का दरवाजा ही बन्द रखा है। हृदय में सच्ची समझदारी प्रवेश न कर पाये, इसके लिये कषाय दरवाजा बन्द रखते हैं। कोणिक अभिमान व लोभ में चढ़ा, जिससे उसके मन में यह महसूस ही न हुआ कि पिता उपकारी हैं, मुझे राज्य भी देने ही वाले हैं। इसीलिये पिता को कैद किया। . अग्निशर्मा गुणसेन राजा पर क्रोध करता है, द्वेष धारण करता है। इसीलिये तो अपने गुरु कुलपति समझाने आते हैं, फिर भी समझने के लिये तैयार नहीं। संभूति मुनि को चक्रवर्ती की ऋद्धि पाने का लोभ जगा । चित्त मुनि कितना समझाते हैं, फिर भी समझने को तैयार नहीं । वह आखिर ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती बना तो सही, परन्तु नियाणे के साथ चारित्र का माल था न? वह नियाणा भयंकर पापोंमें डूबानेवाला बना और अन्त में सातवीं नरक में जाना पड़ा । हृदय में कषाय उठने पर समझदारी को घुसने नहीं देते । क्या शास्त्र व गुरु हित की साफ-साफ बातें नहीं कहते? वे क्यों हृदय में नहीं उतरती ? प्रमाद का सेवन क्यों हो जाता है ? इसका कारण यही है कि श्रावक के या साधु के हृदय पर किसी लोभ, अहंकार आदि कषाय ने कब्जा किया हो, फिर हित की बात कैसे गले उतरेगी ? - इसीलिये बार-बार यह ध्यान रखना है कि 'मैं जो कुछ बोलता हूँ, सोचता हूँ, उसमें कोई कषाय तो काम नहीं करता न?' यदि यह कषाय का काम होगा, तो शास्त्रों की हितवाणी गले नहीं उतरेगी। कषाय का जोर तो यही मनायेगा कि शास्त्र ने जो कहा है, उसकी कौन मना करता है ? लेकिन वह तो कुछ संयोगों में ही संभव है। मेरे संयोग तो अलग हैं।' यह मानने का क्या मतलब ? यही कि अपने माने हुए संयोगों में मनमानी की जानेवाली प्रवृत्ति को गलत न मानना, इसमें सम्यक्त्व रहता है या चला जाता है ? श्रावक के लिये शास्त्रों में कहा गया है कि वह रात्रिभोजन नहीं करता, क्योंकि रात्रिभोजन अभक्ष्य है। परन्तु स्वयं को पैसे का लोभ लगा हो या शरीर की ममता ज्यादा हो, तो रात्रिभोजन-त्याग की बात गले नहीं उतरती। इसीलिये तो मजे से रात्रिभोजन होता है। हित की बात गले उतरी हो, लेकिन बाद में शायद आचरण में न आये व पाप करना पडता हो, तो कम से कम हृदय को चोट पहुंचती है, हृदय में वेदना होती है कि 'अरे अरे! मुझे यह रात्रि भोजन का घोर पाप करना पडता है ? जिन्होंने अभी तक धर्म नहीं पाया है, धर्म को नहीं समझा है, उनसे मैं कितना अधम हूँ! ओ रात्रिभोजन करनेवालों ! बोलो, रात्रिभोजन का पाप, क्या आपको घोर पाप लगता है? आप चौंक उठेगे! 'क्या कहा? यह घोर पाप?' 'मांसाहार का पाप घोर है या रात्रिभोजन का?' ऐसा आपको लगता होगा, परन्तु ऐसा लगना चाहिये कि 'आर्य के जीवन में मांसाहार घोर पाप,' ऐसा लगे, तो पाप का भय रहेगा और पाप से बचा जा सकेगा। यदि Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य पाप लगे, तो यह पाप कभी छूटेगा ही नहीं। उसे तो यही लगेगा कि 'संसार में बैठे-बैठे दूसरे पाप भी करने ही तो पड़ते हैं। उनके साथ एक यह भी।' - श्रावक के आचार से विरुद्ध पापों को घोर पाप माने बिना वे पाप नहीं छूटते और आचार की पकड़ नहीं रहती। __ आर्य के लिये मांसाहार-त्याग आचार है, श्रावक के लिए आगे बढ़कर २२ अभक्ष्यों का त्याग आचार है । अर्थात् आर्य मांसाहार करे तो घोर पाप, श्रावक कंदमूल खाये, बासी खाये, रात्रि-भोजन करे, तो उसके लिए घोर पाप है। . आर्य के लिये परस्त्री-त्याग आचार है, तो श्रावक के लिए स्व स्त्री-संतोष आचार है। आर्य परस्त्री में आसक्त बने तो घोर पाप, जबकि श्रावक स्वस्त्री में अंध बने, तो घोर पाप है। यदि इतनी समझ हो, तो तिथियों में, छ अट्ठाई में, चातुर्मास के दिनों में वह ब्रह्मचर्य पालने के लिये तत्पर हो जाय, रोज की शय्या अलग कमरे में रखे, मोहोत्पादक बुरी चेष्टायें न करे । स्व-स्त्री में भी लंपटता घोर पाप है, ऐसा समझे बिना कहाँ से बचा जाय । क्या आप श्रावक जीवन को पशुजीवन -अनार्य मनुष्य जीवन व आर्य जीवन से ऊंचे स्तर पर लाना चाहते हैं ? तो मन में इतना निश्चित कीजिये कि 'श्रावक के पवित्र आचार से विरुद्ध दिखनेवाला छोटा-सा पाप भी घोर पाप है', तभी इससे बचने का पहला प्रयत्न रहेगा। पैसे कमाने की बात बाद में, पहले रात्रि-भोजन से बचने का प्रयास होना चाहिये। फिर शायद लोभ नहीं छूटने से रात्रिभोजन करने पर हृदय को धक्का पहुंचेगा। आंखों में अश्रु आयेंगे कि 'मैं लोभ में कैसा पापी बनता हूँ ?' फिर रात को सिर्फ थाली पर बैठकर भोजन करूं, इतनी ही बात, बाकी पानी के सिवाय कुछ नहीं लुंगा', इतनी अटलता रहेगी। इसमें भी रविवार - व छुट्टी के दिनों में तो रात्रिभोजन पूर्णतया बन्द, ऐसा कड़क पालन रहेगा। कैसे वर्तन घोर पाप हैं ? • कहने का तात्पर्य यह है कि आचार-विरुद्ध सेवन घोर पाप लगना चाहिये । आज स्त्रियों ने वस्त्र पहनने में सारी शर्म छोड़ दी है। 'श्राविका का आचार है - मर्यादावाला वेश, इससे विरुद्ध उद्भट वेश पहनना घोर पाप है' - ऐसा वे समझती ही नहीं। नहीं तो घर से एक बार व्यवस्थित वस्त्र पहनकर बाहर निकलने के बाद भला कपडा खिसक सकता है? सिनेमा देखने क्यों खुशी-खुशी जा सकते हैं ? श्रावक को स्व-स्त्री में भी संतोष रखने को कहा गया है। स्व-स्त्री के सामने भी बार-बार देखना नहीं, यह उसका आचार है। परस्त्री के सामने देखना आचार से विरुद्ध है। वह उसे घोर पाप ही न माने, तो सिनेमा में खुशी से स्त्रियों के हावभाव क्यों न देखेगा? सड़क पर तो दुनिया के डर से परस्त्री को एकटक नहीं देख सकता, परन्तु सिनेमा में तो किसकी रोक-टोक ? वहाँ बैठकर आंखें फाड़-फाड़कर, एकटक परस्त्री को देखे, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं । हाँ, परस्त्री सेवन में घोर पाप माना Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होगा, इसलिये उससे बचेगा, परन्तु परस्त्री-दर्शन में ऐसा कोई घोर पाप माना ही नहीं, फिर कैसे बचे? स्पसेन का घोर पाप : परस्त्री-दर्शन में घोर पाप न होता, तो रुपसेन के सुनंदा के एक भव में सात भव क्यों होते ? उसने सिर्फ क्या किया था? रोज सुनंदा को देखा करता था। एक दिन सुनंदा से मिलने जा रहा था। रास्ते में ही कोई दीवार उस पर गिर पडी, वह मर गया । मरकर उसके ही गर्भ में जन्म लिया, वह दूसरा भव । बाद में क्रमशः सांप, कौआ, हंस, हिरण व हाथी बना। सुनंदा का तो अभी तक वही भव है, उसके सात भव हो गये। जंगल का हाथी बनने पर भी सुनंदा को देखने में आसक्त । क्यों ? परस्त्री-दर्शन को उसने घोर पाप माना ही नहीं था, इसीलिये बड़े मजे से परस्त्रीदर्शन में आसक्त था। वे ही संस्कार यहाँ पशु के भव में भी आये । इसीलिये मनुष्य-स्त्री को देखते ही नाचने लगता है, 'वाह ! कितना सुन्दर चेहरा !' अवधिज्ञानी मुनि के मुख से रुपसेन की करुण कथा सुनकर सुनंदा ने वैराग्यवासित होकर दीक्षा ले ली। संयम व तप के प्रभाव से वह भी अवधिज्ञानी बन गयी। वह हाथी के सामने खड़ी है और हाथी से कहती है, 'बुज्झ बुज्झ स्पसेण, बुज्झ बुज्झ स्पसेण ! अभी तक मोह ? सांप बना, कौआ बना, हंस बना, हिरण बना ! सब जगह मुझे देख-देखकर वाह ! कैसा सुन्दर मुख!' ऐसा ही करते रहा । इसीसे हर जन्म में मौत की सजा मिली, फिर भी फिर से वही हाल ! मूर्ख ! सुन्दर चेहरा देखता है, मौत को क्यों नहीं देखता?' इस प्रकार परस्त्रीदर्शन के पाप से हाथी को वापिस मोड़ा, तब उसका उत्थान हआ। घोर पाप समझकर वह उसके साथ ही अन्य पापों का भी त्याग करके व्रतधारी बना, तपस्वी बना व अन्त में आठवें देवलोक में देव बना। सिनेमा देखनेवाले क्या कमायेंगे? आचार-विरुद्ध पापों से बचना है ? तो उन पापों को घोर पाप मानिये । (मायादित्य का क्या हुआ? मायादित्य माया को पाप ही नहीं मानता, फिर वह माया करने में भला क्या बाकी रखेगा? मार खाने पर भी कुत्ते की दुम सीधी नहीं होती, इसी प्रकार उसकी वक्रता नहीं जाती । स्थाणु को बनावटी बातों से वश में करके उसके साथ आगे चला। नर्मदा नदी पार करके आगे चलते हुए दोनों रास्ता भूल गये व एक बडे जंगल में उतर पडे। रास्ता भूलने के बाद ऐसे जंगल में जल्दी रास्ता मिलेगा? जिन-मार्ग भूला हुआ वापिस कब मार्ग पाता है ? जिनमार्ग मिलने पर भी प्रमाद से उसकी आराधना न करनेवाला जिसप्रकार लाखों Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भव बीत जाने पर भी संसार - अटवी में जिनमार्ग को नहीं पा सकता, उसी प्रकार इस महा अटवी में स्थाणु और मायादित्य को मार्ग नहीं मिलता। आगे-आगे चलते ही जा रहे हैं। ग्रीष्म ऋतु की तेज धूप पड़ रही है । स्थाणु बहुत घबरा रहा है । वह मायादित्य से कहता है, 'भाई। भूख तो ऐसी जोरदार लगी है कि पेट पाताल में चला गया है। अब तो ऐसा लगता है कि यह कमर में खोसी हुई रत्न- पोटली नीचे ही गिर पड़ेगी। इसलिये ऐसा कर, यह रत्न की पोटली तेरी कमर पर ही बांध दे ।' ऐसा कहकर रत्नों की पोटली उसे दे दी । मायावी को रत्न मिले : बिल्ली को दूध संभालकर रखने का काम सौंपा। फिर बिल्ली के आनन्द का तो पूछना ही क्या । मायादित्य बिल्ली जैसा ही है । रत्न - पोटली मिलने पर एकदम खुश हो गया । वह सोचता है, 'वाह । मेरे नसीब कैसे प्रबल । मैं जो चाहता था, वही मुझे बिना किसी प्रयास से मिल गया । न कुछ बोलना पड़ा, न कुछ करना पड़ा और सामने से मुझे यह रत्न सौंप रहा है। बस, अब कोई चिन्ता नहीं । जंगल बड़ा है, रास्ते में कोई भी उपाय कर लुंगा । जिससे इसके पांच रन भी मेरे ही बन जायें ।' महामूल्यवान मन का दुरुपयोग कितनी भयानक विचारधारा ! कहीं पाप का थोड़ा भी भय दिखता है ? वाघ- -चीते के अवतार से कोई विशेषता नजर आती है ? मूर्ख जीव को इतना विचार नहीं आता कि 'जिसके खातिर यह विचार कर रहा हूं, वह चीज तो किसीको मिली या नहीं ? टिकी या नहीं ? मेरा सोचा हुआ होगा कि नहीं ? तुरन्त मनचाहा हो भी गया, परन्तु बाद में क्या ? कुदरत ने दीर्घ काल का विचार करने के लिए महामूल्यवान मन दे दिया, परन्तु इसी मन से तुच्छ विचार कर बैठते हैं। यह महाकीमती मन का कैसा दुरुपयोग ! इसमें जीवन की कैसी बरबादी ? कुदरत फिर से ऐसा सुन्दर भव व सुन्दर शक्ति-संपन्न मन देगी भला ? हाथ में न आ जाने से, मायादित्य मन में खुश होकर स्थाणु के साथ चल रहा है। गर्मी बहुत पड़ रही है, प्यास लग गयी है। स्थाणु ने कहा- 'अब तो पानी पीये बिना आगे 'चलना मुश्किल है।' मायादित्य ने कहा ' 'चलो, हम आगे जाकर देखते हैं, कहीं कोई कूँआ दिखाई दे तो ! वह देखो, दूर तक बरगद का वृक्ष दिख रहा है, वहां जाकर बैठें व छानबीन करें ।' दोनों वृक्ष की दिशा की ओर मुड़े। आगे चलने पर रास्ते में ही एक कूंआ दिखा । आसपास घास उगी होने से कुंआ दूर से न दिखा, नजदीक पहुंचने पर नजर आया । ( मायावी का नया षड्यंत्र : कूँआ देखकर मायादित्य कैसा भयंकर विचार करता है । 'वाह । कितना बढ़िया • अवसर मिल गया। अब किसी भी तरह स्थाणु को कुँए में गिरा दूं, तो इस सुनसान जंगल. में कौन देखनेवाला है । और घर पहुंचकर तो बादशाह हूँ। जोर-जोर से रोकर उसके १०८ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिश्तेदारों से कह दंगा - 'हम परदेश गये थे। कैसा परदेश कि वहां से लौटते हुए रास्ते में स्थाणु को बड़ी बीमारी ने घेर लिया और वह बच नहीं पाया। हाय । हाय । कैसा क्रूर काल ।' बस, एक ही बात है कि बाहर आबरु न जाय, इस तरह मित्र के रत्नों का मालिक बन जाना, इसमें सिर्फ ठगाई ही नहीं, किन्तु मित्र को मारना पड़े, तो मायावी को ऐसा करने में भी शर्म नहीं आती। 'मित्र को कूँए में फेंका : जड़ पदार्थ के मोह में मायादित्य ने कूँआ दिखने पर स्थाणु का पता साफ करने का विचार किया। सिर्फ विचार करके बैठे नहीं रहता । स्थाणु से कहता है - 'मित्र ! देख तो सही, इस कुँए में पानी कितना गहरा है। गहराई के माप से छाल के रेशों से लंबी रस्सी बना खें, उसकी मदद से पानी निकालकर प्यास बुझायें ।' बेचारा स्थाणु तो था भोला व भद्रिक। एक तो मायादित्य की पहले की बनावटी दुःख की दास्तां सुनकर उसके प्रति उसे हमदर्दी हो ही गयी थी। जैसे ही कूँआ देखने गया, पीछे से मायादित्य गया। शर्म, लोकलाज, मित्र-प्रेम, परलोक या नीति का विचार किए बिना नराधम मायादित्य ने झुककर कूँए में झांकते हुए सज्जन स्थाणु को पीठ से धक्का मार दिया। स्थाणु कुँए में गिर गया। विश्वास रखनेवाले भले मित्र को कुँए में धकेलने का कैसा क्रूर कृत्य! न मित्र की लाज-शर्म रखी, न आज तक उसके द्वारा की गयी भलाई का दाक्षिण्य रखा। फिर मित्र के स्नेह-प्रेम को बनाये रखने की तो बात ही कहां? लक्ष्मी की माया बुरी है। परलोक में ऐसे कृत्य के फल-स्वरुप कैसे भयंकर दुःख झेलने पड़ेंगे ऐसा विचार भी नहीं आया। सज्जन स्थाणु की विचारधारा : मायादित्य ने मित्र को कुँए में धकेला, परन्तु जिसका नसीब जोरदार हो, उसका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। मायादित्य का भाग्य प्रबल था । वह जिस कूँए में गिरा, उसमें एक तरफ वृक्ष के पत्तों व डाल का एक ढेर था, दूसरी ओर थोडा पानी और थोडी काई थी। स्थाणु पत्तों के ढेर पर गिरा, जिससे वह बच गया । वह सोचने लगा - 'अरे! यह क्या? दरिद्र इन्सान का पीछा जैसे परिभ्रमण नहीं छोड़ता, उसी प्रकार मित्र का वियोग मुझे नहीं छोड़ता। विधि है ही विचित्र व टेढ़ी ! निर्धन को भटकाती है, इसी तरह मुझे बार-बार मित्र का वियोग कराती है। मुझे कुँए में किसने धकेला था? मायादित्य के अलावा कोई और तो वहां था नहीं ! अरे ! यह मैं क्या सोच बैठा ? चाहे मेरु चलायमान हो, परन्तु मेरा सज्जन मित्र मायादित्य हर्गिज ऐसा नहीं कर सकता। जरुर किसी भूत, राक्षस या बेताल ने मुझे कुँए में धकेला होगा। अब इस भयानक जंगल.में बेचारे मायादित्य का क्या होगा? उसे कौन समाचार देने जाय कि तेरा अभागा मित्र तो कुँए में पड़ा है। इतनी दूरी से यहाँ से मेरी आवाज भी उसे कैसे सुनायी दे। फिर भी कोशिश तो करूं।' ऐसा सोचकर मायादित्य Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने - दो-चार बार आवाज दी, परन्तु जवाब कहाँ से मिले? स्थाणु जंगल में मित्र के अकेले पड़ जाने का दुख कर रहा है। कितनी सज्जनता ! आप कहते हैं न कि सज्जनता की भी हद होती है। क्या यह सच है? चंदन के द्रष्टान्त से फलित होता है कि सज्जनता की हद नहीं होती। उदारता की मर्यादा नहीं होती कि निश्चित सीमा तक ही वह रहे। इसीलिये तो कवि उसे चन्दन की उपमा देते हैं। चन्दन को घिसने पर आखरी कण तक शीतलता देता है व जलाने पर आखरी कण तक सुगन्ध फैलाता है। परन्तु क्षुद्र हृदयवालों के दिमाग में यह बात नहीं बैठती । इसीलिये उन्हें एक ही तुच्छ विचार आता है कि 'क्या हम सज्जनता व उदारता रख-रखकर साफ ही हो जायें ?' उन्हें कौन समझाये कि 'अरे पगले ! इसमें साफ होने की बात ही कहाँ ? इसमें तो जबरदस्त कमाई है ! बाकी तो, चाहे जितना संभालकर रखो, मृत्यु होने पर तो सफाया होने ही वाला है। हाँ, सज्जनता-उदारता कमाने का अवसर आप जरू खो बैठेंगे । और इसका फल परलोक में क्या होगा? 'पुण्य विना जीव परभवेजी, नोंधारो अथडाय....' । यहाँ हो या परभव में, सज्जनता-उदारता न रखी, तो 'जैसा दो-वैसा पाओ' 'जैसी करनी. वैसी भरनी'.. कुदरत के इस कानून के अनुसार दूसरों की ओर से हमारे प्रति सज्जनता-उदारता का व्यवहार कैसे मिलेगा? स्वयं ने यहाँ पर खुशी-खुशी व्यवहार में लायी हुई स्वार्थान्धता, दुर्जनता, कृपणता का परभव में गुणाकार होने से वहाँ ये जालिम दोष हमारे गले पड़ेंगे। - कहने का तात्पर्य यह है कि दूसरों की ओर से हमें दुर्जनता-भरा वर्तन न मिले, स्वयं को भी दुर्जनता करने का मन न हो, इसके लिये यहाँ कष्ट सहकर भी सज्जनता-उदारता आचरण में लानी चाहिये। स्थाणु सज्जन है, इसलिये मित्र का विचार करते हुए उसके दुःख में दुःखी होता है। दूसरी तरफ मायादित्य को देखिये, उसके विचार देखिये। आखिर दुर्जन जो ठहरा ! वह तो मन ही मन खुश हो रहा है - 'चलो, अच्छा हुआ ! स्थाणु की झंझट से तो छुटकारा मिला! अब मैं दस रत्नों का आनंद उठा सकुंगा।' धर्मनन्दन आचार्य महाराज राजा पुरंदरदत्त से कहते हैं कि 'राजन्! देखो, सज्जनता व दुर्जनता के बीच कितना अन्तर है ! सज्जन स्वयं को कुँए में धकेलनेवाले मित्र की चिन्ता कर रहा है कि 'बेचारे का इस घने जंगल में क्या होगा?' दूसरी ओर दुर्जन सोच रहा है, 'अच्छा हुआ। मित्र की बला टली। उसके रत्न भी अब मेरे हो गये!' . दुनिया में सोना व पीतल, दोनों मिलेंगे, हंस व कौए दोनों मिलेंगे, इसी तरह सज्जन-दुर्जन.. दोनों मिलेंगे। हमें तो यह देखना है कि 'हमें अपना नंबर किसमें रखना है? सोने जैसे में, हंस जैसे में ? अथवा पीतल जैसे में या कौए जैसे में ?' Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोने का मकट सर पर चढता है : सोने व हंस जैसे बने रहना हो, तो भी सहन तो करना ही पडेगा । राजा सर पर सोने का मुकुट चढ़ाते हैं, पीतल का नहीं। भला क्यों ? क्योंकि सोना तेजस्वी है, अग्नि का ताप सहन करके भी तेज नहीं छोड़ता। ऐसा सोने का मुकुट देवों के व देवाधिदेव के मस्तक पर भी चढता है। आर्य मानव-जीवन पाने की विशेषता यह है कि यह जीवन जीते-जीते सोने जैसा सज्जनता का तेज कष्ट में भी अखंडित रखें और हंस जैसी उदारता, उज्ज्वलता, उत्तमता सदा बनाये रखें । सबके प्रति न हो सके, तो कम से कम स्नेही-स्वजनों के प्रति तो इतना कर सकेंगे। मायादित्य संकट में :- आचार्य महाराज ने राजा से कहा - 'देख, राजन् ! मायादित्य रत्न लेकर आनंद में आगे तो चला, परन्तु कुछ दूर जाने पर देखा, तो एक भीलों का टोला 'मारो, मारो, पकड़ो, पकड़ो' कहते हुए उसकी ही ओर आ रहा था। उसके तो होश-हवास उड़ गये। अन्दर घबराहट होने लगी कि अब रत्न तो क्या. प्राण भी गये ही समझो।' वह दूसरी ओर दौड़ने लगा। आप कहेंगे कि 'प्यास लगी थी, फिर कैसे दौड़ पाया?' तो सुनिये ! जहाँ प्राण बचाने की बात आती है, वहाँ भूख-प्यास, थकावट-सुकोमलता कुछ नहीं नजर आता। .. कलकत्ता में पहली बार पाकिस्तानियों का हमला होने पर कई सुकोमल सेठानियाँ चार-पांच मंजिलवाली इमारत की छत से दूसरी ऊंची इमारत में कूद पड़ी। दो इमारतों के बीच ३-४ फूट जितनी खाली जगह थी, जो गहरी खाई जैसी थीं, उसका भी भय नहीं रखा कि 'इसमें गिर गये, तो क्या होगा?' क्योंकि सामने गुंडों द्वारा निर्दयतापूर्वक छुरी से काटे जाने का भय दिख रहा था। उससे बचने के लिये सुकोमलता भुलाकर कूदने का साहस किया। आत्मार्थी जीव आत्मा को बचाने के लिए यही सोचता है कि 'भूख-प्यास, थकावट-सुकोमलता सब कुछ भुलाकर किसी भी तरह मेरा आत्म-हित साध लुं ।' मासक्षमण, डेढ मास, दो मास के उपवास करनेवाले के लिए आपको लगता है न कि 'ये किस तरह इतने दिन बिताते होंगे?' परन्तु आत्मार्थिता लगने के बाद पाकिस्तानियों के आतंक से बचने के लिये जो साहस किया जाता है, वैसा ही साहस अनायास हो जाता है। अन्तर में आत्मार्थिता नहीं लगने पर कायरता के ही विचार आते हैं कि 'बाप रे। इतना कैसे सहन किया जाय? इतने सारे रुपये कैसे दे दिये जायें ?' आत्मार्थिता जगाओ, फिर ऊंचे दान-शील-तप-भाव सुलभ बन जाते हैं। खुद की आत्मा को बचाने के लिये ढील कैसी ? मायादित्य प्राण बचाने के लिए दौड़ा चला जा रहा है । दूर से दौड़कर आते हुए भील के येले ने देखा कि शिकार तो भाग रहा है, इसलिये बाण छोड़े। परन्तु मायादित्य Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीलों के बाण आते देख टेढ़ा-मेढ़ा दौड़ने लगा, जिससे बाण उसे नहीं लगते थे। बाणों की वर्षा होते देख मायादित्य घबरा गया। परन्तु प्राणों का सवाल था । 'ऐसा ही कोई बाण आकर मेरा काम तमाम कर देगा तो?' जान बचाने के लिये तेज गति से दौडने लगा। यहां ज्यादा चिन्ता किसकी ? रत्नों की या प्राणों की ? महाराजा कुमारपाल नवरात्रि में बकरे की बलि देने के लिये तैयार नहीं थे। कंटकेश्वरी देवी बोली - 'बकरे की बलि देनी है या नहीं? नहीं तो इस त्रिशूल से खत्म कर दूंगी।' इतनी धमकी देने पर भी राजा बलि देने के लिये तैयार न हुआ। देवी ने सर में ऐसा त्रिशूल भोंका कि भयंकर वेदना होने लगी। शरीर कुष्ठ रोगी जैसा हो गया, फिर भी वेदना से बचने के लिये दयाधर्म छोड़ने के लिए तैयार नहीं । क्योंकि दया प्राण है, इस प्राण को बचाने के लिये सब कुछ सहन करने की तत्परता है। उदायनमंत्री को बुलाकर कहा - 'देखो, ऐसी स्थिति है। मेरे लिए तो दीवाली आयी है। इतना सहकर भी दयाधर्म के पालन का अवसर मिला। परन्तु अज्ञानी लोग सुबह मेरा ऐसा शरीर देखकर कहेंगे कि 'देखा? बकरे का बलिदान नहीं दिया व धर्म की पूंछ पकड़कर रखीं, तो यह हालत हुई।' इस तरह दयाधर्म की निंदा होगी । इसलिये एक चिता तैयार करो, मैं चिता में जलकर मर जाऊंगा। लोगों को पता ही नहीं चलेगा कि देवी ने क्या किया था और राजा को क्या हुआ था? यह क्या है? धर्म के लिये चाहे प्राण जायें तो जायें, परन्तु धर्म का भंग करके प्राण बचाने का प्रयास न होना चाहिये। मायादित्य फंस गया : धर्म ही सच्चे प्राण लगने के बाद उसकी रक्षा के लिये संसार की प्रत्येक प्रवृत्तियों में कम से कम मानसिक धर्म को तो प्रवेश दिया जा सकता है। बाह्य प्राण बचाने के लिये मायादित्य दौड़ा चला जा रहा है, परन्तु जंगली लूटेरे भील उसका पीछा कहाँ छोड़नेवाले थे? वे भी दौड़े चले जा रहे हैं और मायादित्य पर बाण बरसाते जा रहे हैं। एक बाण मायादित्य के पांव पर जोर-से लगा। मायादित्य गिर गया। इतने में तो वह टोला उसके पास आ पहुंचा। भीलोंने उसके कपड़ों की तलाशी ली, उनमें १० रत्नों की पोटली मिल गयी। वह ले जाकर अपने सेनापति को दी। मायादित्य का थोड़ा-बहुत नसीब जागता होगा, इसलिये सेनापति ने अपने सैनिकों से कहा - 'इसे मारना मत, परन्तु इसे बांधकर कहीं बांस के जाल में डाल दो।' . सेनापति के हुकम की ही देर थी। लूटेरों ने मायादित्य को घुटनों पर बिठाकर, हाथपांव बांधकर गठरी की तरह उठाकर एक बांस के जाल में बंधे सर रख दिया । बेचारा मायादित्य वहाँ से निकले कैसे? हाथ ऐसे बांधे हुए हैं कि थोड़ा-भी खिसक नहीं सकता, Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो बन्धन कैसे छोड़े ? ऐसे घनघोर जंगल में कौन मुसाफिर आनेवाला है, जो उसे जाल में से छुड़ाकर उसके बन्धन तोड़े ? मायादित्य को बांस के जाल में डालकर भील आगे चले गये । इतने में सेनापति को प्यास लगी । दो भील आजुबाजु पानी की तलाश करने गये । कुछ दूरी पर वह कूँआ नजर आया, जिसमें स्थाणु गिरा था । दूर से देखते ही सेनापति को आकर कहा 'आगे कूँआ है ।' कुछ दूर जाकर सेनापति एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगा व भीलों से कहा - 'जाओ, पानी ले आओ।' भील कुँए के पास : सेनापति के आदेश से भीलों ने तुरन्त कुँए में से पानी निकालने के लिए पत्तों का एक बड़ा दोना सी डाला और वृक्ष की लताओं से रस्सी बनायी । पानी लेने के लिये जैसे ही दोना कँए में डाला, अन्दर रहा हुआ स्थाणु आवाज करता है, 'भाईओं । मैं कँए में गिर गया हूँ, मुझे बाहर निकालेंगे ?' आवाज सुनकर भील चौंक उठे। जाकर सेनापति से बात की। सेनापति को दया आ गयी। उसने कहा - 'बेचारा कोई कूँए में गिर गया है। पानी की बात बाद में, पहले उसे बाहर निकालो। यहाँ सवाल उठता है कि प्र. - ऐसे निर्दय लूटेरे भील को दया ? उ. - हां, मानव बनने का पुण्य लेकर आया है, इसलिये संभव है कि अन्तर की गहराई में कहीं दया आदि गुण रहे हुए हों। इसमें कोई आश्चर्य नहीं । एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय व तिर्यंच पशु-पक्षी की तुलना में बहुत ऊंचा पुण्य लेकर आया हो, तब कुछ अच्छाई जरुर होने की संभावना है। शायद वह बहुत भारीकर्मी न भी हो। इस आर्य देश के कसाई कूत्ते को रोटी डालते और वेश्यायें सती को महान मानतीं, यह भी आपने सुना ही होगा न ? अति अल्पांश में भी अच्छाई रही हुई हो, तभी इतनी भी दया या गुणानुराग आता है। बुरे वक्त में बचने के लिये क्या किया जाय कहते हैं न कि इन्सान में यानी अन्तरात्मा में अच्छाई बसी हुई है। हम स्वयं अपने अन्तर में झांकें, तो महसूस होगा कि बुरे काम करते हुए अन्तर में कहीं खटकता तो जरुर है। हां, लोभवश, अभिमानवश या ऐसे ही किसी अन्य कारण से अन्तर की इस चुभन को महसूस न करें, तो और बात है । वास्तव में तो, यदि ऊपर चढ़ना हो, आत्म-विकास साधना हो, तो दुष्कृत्य के प्रति अन्तर में ऐसी चुभन होनी ही चाहिये, जिससे ऐसा बल मिले कि दुबारा दुष्कृत न करने में द्रढ़ रहा जाय । आज बहुत बुरा वक्त आया है । वातावरण इतना भौतिक व अनात्मज्ञ बन गया है कि पूर्व भव से कुछ अच्छाई लाये हों, तो भी वह भूला दी जाती है। ऐसी स्थिति में यह ११३ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवश्यक है कि दुष्कृत को दुष्कृत के रुप में स्वीकारें व उसके प्रति अन्तर में जो खटका है, उसे विशेष गर्हा-निंदा-संताप रुप बनायें । 'यह पाप बहुत बुरा है, मैं कहाँ इसको अपना बैठा ? ऐसा पापघृणा व संताप का भाव जोरदार बनायें। फिर इसका ऐसा प्रभाव पड़ता है कि जीवन में से पाप-दोष - दुर्गुण कम होते चले जाते हैं, कम करने का पुरुषार्थ होता है और अन्तर में अच्छाई विकसती है । लूटेरे ने स्थाणु को बाहर निकाला : सेनापति के आदेश से लूटेरों ने स्थाणु को कूँए से बाहर निकाला व उसे सेनापति के पास ले आये । सेनापति पूछता है - 'भाई। तुम कौन हो ? कुँए में कैसे गिर गये ।' स्थाणु तो बेचारा भोला व भद्रिक था । सामने लूटेरे खड़े हैं, यह न जान पाया। उसने आप-बीती सुनाते हुए कहा 'हम दो मित्र धन कमाने के लिये दक्षिणापथ गये थे । वहाँ दोनों पांच-पांच रत्न कमाकर स्वदेश की ओर लौट रहे थे। उसमें हम रास्ता भूल गये व इस जंगल में आ पहुंचे। गर्मी बहुत होने से प्यास लगी। इतने में यह कूँआ नजर आया। पानी कितना गहरा है, यह देखने के लिये मैं अन्दर झांकने लगा। इतने में तो न जाने किसी प्रेत या पिशाच ने मुझे अन्दर धकेल दिया। तब से मैं इस कूँए में गिरा पड़ा हूं । - स्थाणु की भलमनसाहत : सेनापति पूछता है - 'तुम्हारा मित्र तो तुम्हारे साथ ही था । वह कहाँ गया ? उसने तुम्हारी तलाश न की ?" स्थाणु ने कहा - 'यह तो मैं नहीं जानता । वह भी बेचारा मेरे बिना दुःखी होता होगा ।' 'अरे भोले भाई । तुम दोनों साथ में ही तो थे । तुम कूँए में गिर पड़े, तो उसने तुम्हें बाहर निकालने के लिए कुछ नहीं किया होगा । यहाँ खडा भी न रहा। मुझे तो लगता है कि जरुर उसने ही तुम्हें कुँए में धकेला होगा । रत्न उसके पास थे न ? जरुर रत्न हथियाने के लिए ही उसने ऐसा किया होगा । 1 स्थाणु ने कहा - 'अरे । शान्तं पापं । ऐसा मत बोलो। मैं तो उसे कितना प्रिय हूं। वह भला मुझे कुँए में गिरायेगा ? नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता ।' यह सुनकर चोरों को हंसना आ गया। वे तो समझ गए कि यह बेचारा ब्राह्मण भला आदमी है, सरल हृदयवाला सज्जन है, इसीलिए उस दुष्ट के दुष्ट भाव को नहीं जान पाया । सेनापति ने पूछा - 'वह कैसा था ? ' स्थाणु ने पहचान देते हुए कहा 'थोड़ी पीली आंखवाला...' सेनापति बोला- 'भले आदमी। हमें रास्ते में जो मिला, वह तुम्हारा मित्र ही होगा । ११४ 888 - Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परन्तु उसने तो हमसे तुम्हारे कुँए में गिरने के बारे में कुछ नहीं बताया। मित्र कुँए में गिर जाय तो स्वयं रो-रोकर पुकारते हुए मित्र को बाहर निकालने के लिये किसीको बुलाये नहीं ? कोई मिलने पर कहे भी नहीं ? खैर, क्या तुम अपने रत्न पहचानते हो?' स्थाणु ने कहा – 'हाँ'। सेनापति ने दस रत्न उसे दिखाते हुए पूछा – 'बोलो, इसमें तुम्हारे रत्न हैं ?' स्थाणु ने अपने पांच रत्न पहचानकर अलग करके दिखाये - 'ये पांच रत्न मेरे हैं व पांच मेरे मित्र के हैं। स्थाणु ने सही बात तो कही, परन्तु मित्र के प्रति उसकी श्रद्धा अभी भी उसे ऐसा नहीं लगने देती कि मित्र ने ही मुझे कुँए में गिराया होगा। मित्र पर अत्यन्त स्नेह होने से उसे शंका हुई कि कहीं मेरे मित्र को कुछ करके रत्न न छीन लिए हों । इसीलिये पूछता है - 'ये रत्न तुम्हारे पास कहाँ से आ गये ?' स्थाणु को उसके रत्न वापिस मिले : सेनापति ने कहा - 'हमने उस धूर्त के पास से रत्न छीन लिये हैं। उसे बांस के जाल में डाला, परन्तु ले अब तेरे पांच रत्न । तू सज्जन है, इसलिये तेरे पांच रत्न तुझे लौटाता हूं, परन्तु उस धूर्त के रत्न को हर्गिज नहीं लौटाऊंगा।' इतना कहकर स्थाणु के पांच रत्न उसे दिये और रास्ता दिखाते हुए कहा - 'देख, वह रहा जंगल में से बाहर निकलने का मार्ग।' इतने में एक भील बोला - 'दुनिया में तो जैसे को तैसा मिलता है। परन्तु उस दुष्ट को ऐसा सज्जन मित्र मिला है। खैर । देख भाई ! उग्र जहरवाले फणिधर जैसे ऐसे लोगों से दूर ही रहना।' सेनापति ने कहा – 'जा, अब इस रास्ते से बाहर निकल जा। देखना, अब दुबारा कभी ऐसे धूर्त की संगत मत करना।' [DOTCONCERulem aniaaaaaaASSAIDsianRACE BSRRINuwaamRRORSCR क्या सज्जनता बेहद होती है। स्थाणु की भव्य उदारता - सज्जनता : लूटेरे की इस सलाह का क्या अर्थ है ? यही कि 'द्रोही-मायावी-विश्वासघाती किसी भी व्यक्ति का अब से संग न करना, अर्थात् इस मायादित्य का संपर्क तो अब भूल से भी मत करना ।' फिर भी देखिये तो सही, स्थाणु का उदार, दयालु सज्जन दिल कहाँ जाता है ? स्थाणु वहाँ से आगे बढ़कर जंगल में बांस की घनी झाडियों में मित्र को ढूंढने लगा । न जाने मित्र किस बांस के जाल में फंसा होगा? उसे बाहर निकालकर उसके बन्धन तोडकर अपने साथ ले चलुं व निकट के किसी गांव में पहुंचकर उसके जख्म के लिये उपचार करा दूं।' कैसी उदारता ! कैसी सज्जनता ! कैसी दया भावना ! Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वार्थ के कारण सज्जनता मर्यादित : शायद आप सोचेंगे कि क्या वह फिर से ऐसे दुष्ट मित्र के योग में आना चाहता है ? क्या सांप कभी जहरीलेपन का स्वभाव छोड़कर अमृतवाले बन सकते हैं ? यह मायावी मित्र कभी मायावी-द्रोही मिटकर सज्जन बननेवाला है ? फिर से ऐसे ही मित्र का संग करके पछताया जाय?' गहराई से विचार करने पर आपको लगेगा कि ऐसा लगने के पीछे कारण है - स्वार्थ का विचार व मर्यादित सज्जनता ! 'मर्यादित सज्जनता' इसलिए कि 'यदि सामनेवाला सज्जन हो, तो उस पर तो दया करना, उसके प्रति तो हमदर्दी रखना, परन्तु जिसने हमें नुकसान पहुंचाया हो, उसके प्रति दया रखना तो व्यर्थ है, उसके प्रति सज्जनता रखने का कोई मतलब नहीं । इसका नाम है - 'मर्यादित सज्जनता' । 'अपना नुकसान न हो, यह पहले देखना, इसका नाम है - 'स्वार्थ' । इसके कारण 'दुष्ट जन मरने पड़ा हो, तो भी उसकी दया के बारे में न सोचना' । 'सज्जन का सब करने को तत्पर, परन्तु दुर्जन का कौन करे?' यह स्वार्थ के साथ मर्यादित सज्जनता है। इससे बुरे इन्सान की दया का विचार दब जाता है। स्वार्थ व मर्यादित सज्जनता अवसरोचित दया को भूलाती है। स्थाणु का दिल ऐसा नहीं । उसमें स्वार्थ बहुत कम है और सज्जनता अमर्यादित है। आगे भी हम देखेंगे कि मायादित्य के प्रति वह कितनी सज्जनता दिखाता है। पहले तो वह बांस के झूरमूट में ढूंढता फिरता है, वहीं उसने एक झुरमुट में मायादित्य को देखा । वह कैसी अवस्था में था? गठरी की तरह हाथ-पांव व शरीर बांधा हुआ व औंधे माथे लटक रहा था। स्थाणु द्वारा मायादित्य की सेवा : मायादित्य की हालत देखते ही स्थाणु रो पड़ा। आंखों में अश्रु-धार के साथ कहने लगा – 'हाय मित्र ! तेरी यह दशा ?' उसके बन्धन छोड़कर बाहर निकाला। उसका शरीर जकड़ा हुआ होने से शरीर दबाकर उसे स्वस्थ किया। बाद में सब बात याद करके कहा - 'दोस्त ! जो होना था, सो हो गया। चिन्ता मत कर । मेरे पास मेरे पांच रत्न तो वापिस आये हैं। इनमें से ढाई रत्न तेरे व ढाई मेरे।' इस प्रकार आश्वासन देकर, हाथ पकड़कर धीरे-धीरे चलाया और नजदीक के गांव में पहुंचकर घाव पर मरहमपट्टी आदि करायी। दिल अच्छा हो, तो मर्यादा बंधने में दुर्दशा है : बाह्य स्वार्थ का विचार मुख्य हो, उसमें कोई हद नहीं कि 'वह कितना ज्यादा से ज्यादा स्वार्थ साधेगा' । दिल की अच्छाई में मर्यादा बांधना, दिल की दया-उदारता रखने में हद निश्चित करना! यह है, हमारी दुर्दशा । . मानव जीवन में दिल की मुख्यता है, बाह्य स्वार्थ सधने की नहीं । मानसशास्त्री भी । कहते हैं कि 'A human being is not a body or a belly, but a brain' Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मानव कोई पशु की तरह एक शरीर या पेट नहीं, परन्तु दिमाग है, दिल है। __ महत्त्व पेट या पैसे का नहीं, दिल का है :- पेट चाहे जैसे ऊंचे पकवानों से क्यों न भरता हो, चाहे जितने पैसे क्यों न मिले हों, परन्तु दिल यदि अभिमान से पीड़ित हो, ईर्ष्या से जलता हो, क्षुद्रता-दीनता से दुःखित हो, तो जीवन एक निरभिमानी संतोषी गरीब से भी बदतर है। स्थाणुने स्वयं को कूँए में धकेलनेवाले मायादित्य को जंगल से बाहर निकालकर गांव में ले जाकर मरहमपट्टी आदि करायी व जब तक पूर्ण रुप से स्वस्थ न हुआ, उसकी पूरी सेवा की । मायादित्य को अपने रत्न चले जाने का अफसोस न हो, इसके लिये उसे आश्वासन देता है कि 'भाई । घबराना मत । ये मेरे पांच रत्न हैं। इनमें से ढाई तेरे और ढाई मेरे । चलो, अब घर चलें।' कहिये, सज्जनता की कोई हद है ? हो भी कहां से? दुर्जन को यदि दुर्जनता की हद न हो, तो सज्जन को सज्जनता की हद कहाँ से हो ? थोड़े से भी सुकृत का महत्त्व : आपने कभी सज्जनता का ऐसा प्रयोग किया है ? क्या करने लायक नहीं ? क्या मन में ऐसा नहीं होता कि 'ऐसा सुन्दर मानव जीवन व इसमें अति उत्तम जिनशासन पाया है, तो पूर्व जीवनों में की हुई बेहद दुर्जनताओं के पाप मिटाने के लिए एकाध भी बेहद सज्जनता का प्रयोग करूं?' इससे कम से कम अंत समय में इतना आश्वासन तो रहे कि 'ठीक है, इतनी तो सज्जनता कमायी है। इतना प्रयत्न भी बुनियाद रुप बनेगा, उस पर आगे बड़ी इमारत बनाने के लिये जगह हो गई । बुनियाद ही नहीं, तो आगे इमारत कैसे बने?' . स्थाणु की इतनी सज्जनता देखकर मायादित्य को विचार आया कि अरे ! हिमसियचंदविमलो पए पए खंडिलो तहा सुयणो । कोमल मुणाल सरिसो, सिणेहतंतू ण उक्खुडइ ॥ बर्फ, शक्कर व चन्द्र जैसा निर्मल सज्जन पुष्प के डंठल की तरह कोमल होता है। कदम-कदम पर संकट आने पर भी वह स्नेह के तार नहीं तोड़ देता । डंठल को चाहे जहाँ से तोड़ो, उसमें से सुकोमल, स्निग्ध रेशे निकलते ही हैं। इसी प्रकार सज्जन को कोई एक प्रसंग में या दूसरे प्रसंग में विकट संयोगों में रखे, फिर भी उसके दिल में से स्नेह के ही तार निकलते हैं, स्नेह का ही व्यवहार दिखता है। क्योंकि वह दिल हिम जैसा उज्ज्वल होता है, शक्कर जैसा श्वेत व चन्द्र जैसा निर्मल होता है। यहाँ आपको सवाल उठेगा कि.... चित्त की निर्मलता के साथ स्नेह का संबन्ध कैसे ? प्र. - दिल निर्मल हो, तो उससे स्नेह के तार क्यों रहा ही करते हैं ? सामनेवाला बहुत ही दुष्टता करे, तो तार क्यों टूट नहीं जाते ? स्नेह क्यों सूख नहीं जाता? . उ. - निर्मलता एक ऐसी चीज है कि उसकी उपस्थिति में न स्नेह सूखता है, न स्नेह Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के तार टूटते हैं। इसका कारण यह है कि... . निर्मल दिल में मद-मायादि के मैल नहीं होते, जिससे वस्तुस्थिति को अहंत्व से या टेढ़ी रीति से देखना नहीं होता, परन्तु निरभिमान, सरल या विवेकी रीति से देखा जाता है। इसलिए ऐसा लगता है कि निर्मल दिल की दृष्टि : (१) मेरे प्रति सामनेवाले का जो भी वर्ताव दिखायी देता है, वह तो मेरे भाग्य के कारण ही है। इसमें सामनेवाले को दोषित गिनने की या उसके प्रति मन बिगाड़ने की जरुरत नहीं है। दोष कर्म का है और ये कर्म मेरी पूर्व की भूल के कारण ही आये हैं। दोष तो भूल से भरे मेरे स्वयं का है, और किसीका नहीं । ऐसा विचार करने पर सामनेवाले के प्रति स्नेह कभी सूखेगा नहीं। यह है - निर्मल द्रष्टि की चाबी । (१) आपत्ति में स्वयं के दुर्भाग्य को ही दोष देना। (२) अन्दर की सफाई पर द्रष्टि रखकर स्नेह-भंग का कचरा कभी न डालना। निर्मल दिल कभी भी अपने अन्दर कचरा या भूसा भरना पसंद नहीं करता । स्नेह तोड़कर दिल में वैमनस्य रखना, इसे वह कचरा मानता है और कचरा उसे पसंद है नहीं। फिर भला क्यों उसे अपने में भरे ? बाहर की भी सफाई का आग्रह रखनेवाला आदमी अपने घर या दुकान में भला थोड़ा भी कचरा रहे, यह पसन्द करेगा? गंदगी दिखते ही एक क्षण का भी विलंब किए बिना वह स्वयं ही सफाई करने लगता है या नौकर के पास भी करवाता है। इसी प्रकार अन्दर की सफाई के आग्रहवाले को अन्दर वैर-वैमनस्यविरोध आदि का कचरा सहन ही नहीं होता, तो भला अन्दर कैसे रहने दे? नया कचरा भी अन्दर क्यों घुसने दे ? अन्दर की सफाई की द्रष्टि ही न हो, अन्दर के कचरे की समझ ही न हो, या कचरे को ही सफाई समझता हो, अथवा समझ होने पर भी कचरा खटकता ही न हो, वह भला क्यों अन्दर का कचरा निकालेगा ? या कचरा अन्दर न घुसे, इसकी सावधानी रखेगा? जो इस कचरे से घबराता है, वह तो सामनेवाले को दोष देने के लिए तैयार नहीं होगा, इसीलिये वह उसके प्रति स्नेह नहीं तोड़े, यह स्वाभाविक है। (३) सामनेवाले के चित्त की निर्मलता का विचार रखना। (३) निर्मल द्रष्टि में एक विशेषता यह भी है कि वह स्वयं के चित्त की निर्मलता की तरह दूसरे के भी चित्त की निर्मलता चाहती है। इसलिए वह देखती है कि यदि मैं सामनेवाले के प्रति स्नेह तोड़कर दिल में अभाव-दुर्भाव-वैर-विरोध पैदा करूं, तो सहज में ही वह मेरे चेहरे पर, मेरी आंख में और मेरे वर्ताव या बोल में उतर पड़ेगा, वह देख-सुनकर सामनेवाले के दिल में खराब भाव जगेगा या बढ़ेगा। तो वह बेचारा चित्त-निर्मलता से बहुत दूर पड़ जाएगा। इसीलिए मुझे स्नेह रखना चाहिये, जिससे मेरा चित्त भी निर्मल रहे व Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामनेवाले का चित्त भी निर्मलता से दूर न रहेगा। संभव है कि सामनेवाले को अपना चित्त निर्मल बनाने का अवसर मिले। पार्श्वनाथ प्रभु के अखंड स्नेह को देखकर, उपसर्ग करनेवाले कमठजीव- मेघमाली देव का हृदयपरिवर्तन हुआ और उसमें स्नेह जागृत हुआ । ऐसे निर्मल चित्त के महान लाभ को समझनेवाला सज्जन स्नेह के तार तोड़कर क्यों चित्त बिगाड़ेगा ? इसीलिए कवि कहता है, 'कमल के डंठल को तोड़ने पर भी उसमें से स्निग्ध, सुकोमल तार निकलते ही रहते हैं, इसी प्रकार दुर्जन चाहे सज्जन के दिल को तोडता ही रहे, फिर भी सज्जन के दिल में से स्नेह के तार निकला ही करते हैं, स्नेहतंतु टूट नहीं जाते, स्नेह सूख नहीं जाता। स्थाणु की भी यही स्थिति है । माया को सजा, सज्जनता को सहायता : देखिये तो सही ! लूटेरे तो किसीका छीनते हैं या किसीको स्वेच्छा से राजी-खुशी माल वापिस लौटाते हैं। यहाँ लूटेरों ने मायादित्य से तो छीन लिया और स्थाणु को उसका माल वापिस लौटाया । क्या मायादित्य का मायावी कृत्य उसे लाभदायी सिद्ध हुआ या स्थाणु की सज्जनता उसे लाभदायी सिद्ध हुई ? न जाने कुदरत ने कैसे लूटेरे की दरवलबाजी कराके मायादित्य की माया को सजा देकर स्थाणु की सज्जनता को सहायता दी । यह तो समझ ही रखो कि कुदरत नजदीक या दूर जाकर मायावी को सजा देती है : कुदरत कहो या कर्म कहो, ये किसीको दूर जाकर या किसीको नजदीक में उसकी माया, द्रोह या विश्वासघात की सजा दिए बिना नहीं रहते । अकेली माया ही क्या ? ऐसे दूसरे भी मद, ईर्ष्या, निन्दा, गुणी की अवज्ञा आदि दोष- दुर्गुणों को अपनानेवाले भी सजा पाते ही हैं, फिर चाहे तुरन्त हो या जरा दूर जाकर हो ! महावीर प्रभु को तीसरे मरीचि के भव में किए गये मद की सजा मिली न ? वे ही नहीं बच पाये, तो दूसरों की तो बात ही क्या ? इसीलिये खूब सावधान बनने जैसा है और इस उच्च कक्षा के जीवन के ओहदे पर बैठने के बाद मद, माया, ईर्ष्या, निंदा, अवज्ञा आदि अधमता थोड़ी भी सेवन करने जैसी नहीं । स्थाणु की बेहद सज्जनता का प्रभाव देखिये कि इससे मायादित्य की बाहर की व्याधि तो गयी, परन्तु अब अन्दर की आत्मा की व्याधि भी जाती है । उसके मन में लगा कि मायादित्य को पछतावा : 'अरे! यह क्या ? मैं स्थाणु के साथ कपट कर-करके उसे कष्ट में डालता हूँ । यहाँ तक कि मैंने इसे कुँए में धकेलने जैसा अधम कृत्य किया, फिर भी यह मुझे हर बार बचाता है ! ऊपर से खुद की कमाई का आधा भाग मुझे देने के लिये तैयार है! सचमुच चन्द्र ११९ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कभी अंगारों की वर्षा नहीं करता। इसी तरह यह स्थाणु कभी दुर्जनता का व्यवहार नहीं करता । इसने सज्जनता रखने में कोइ हद न रखी, और मैंने दुर्जनता की कोई हद न रखी। अब मेरा क्या होगा? अब मैं जीने के लिए लायक नहीं। इसीलिये अब अग्निस्नान ही करूं।' अब मायादित्य का हृदय-परिवर्तन हो गया। स्थाणु की सतत सज्जनता से उसके हृदय पर बहुत असर पड़ा । सज्जनता, उदारता, गंभीरता, सहिष्णुता आदि गुणों को संभालने के लिए धीरज की आवश्यकता है। कई बार विघ्न या संकट आते दिखायी देते हैं, सामने से दुर्जन व्यवहार आता दिखता है, परन्तु हमें धीरज रखकर ये सज्जनता के गुण नहीं छोड़ने चाहिये । तो आप पूछेगे - प्र. - इससे क्या सामनेवाले का हृदय पलटता ही है? उ. - ऐसा कोई नियम नहीं कि हृदय-परिवर्तन हो ही। शायद न भी हो। फिर भी हम तो लाभ में ही हैं । तुच्छ हिसाब में मत पड़ना कि 'इस तरह करने से तो हम पैसे गंवा बैठेंगे या व्यवहार में दब जायेंगे।' बडा हिसाब तो यह है कि इस प्रकार (१)शायद गंवाना भी पड़े, तो इसका कारण सज्जनता नहीं, वास्तव में हमारे पूर्व कर्म ही हैं। श्रीपाल ने ऐसे कर्म के उदय के वक्त गंवाया, परन्तु कर्म का उदय सुधरने पर उससे भी अधिक प्राप्त किया। कर्म के हिसाब तो चलते ही रहते हैं, परन्तु हमें सज्जनतादि गुण नहीं गंवाने चाहिये, धीरज नहीं खोनी चाहिये। दूसरी बात यह है कि, (२) पैसे या सन्मान व सुविधा गंवाकर भी यदि सज्जनता-उदारतासहिष्णुता आदि गुण कमाये जायें, तो इसके जैसी धन्य घड़ी दूसरी कौन-सी ? यह सूत्र बहुत याद रखने जैसा है, (१) नाशवंत संपत्ति खोकर अविनाशी संपत्ति मिलती हो, (२) मिट्टी की माया जाने देकर आत्मा की समृद्धि आती हो, (३) पर का माल बिककर स्व का महामाल मिलता हो, तो वह अवश्य स्वीकारने जैसा है। शान्तिनाथ प्रभु के जीव मेघरथ या वज्रायुध राजा ने शरण में आये हुए कबूतर की बाज पक्षी से रक्षा की। वह दैवी परीक्षा थी। बाज पक्षी बोला - 'मुझे तो जीवित प्राणी का कटा हआ ताजा मांस चाहिये। राजा ने तराजु मंगवाकर कबूतर के वजन जितना मांस स्वयं के शरीर में से काटकर दिया । वैसे तो कबूतर का वजन कितना? परन्तु यह तो देवमाया है न ? राजा स्वयं के शरीर में से मांस के टुकड़े काट-काटकर दूसरी ओर के पलड़े में रखते ही जाता है, परन्तु कबूतर का पलड़ा नीचे ही रहता है। आखिर में राजा ने अपना सारा शरीर पलड़े में रख दिया और कहा - 'ले, इस पूरे शरीर से तेरा पेट भर, परन्तु कबुतर को मत मारना।' Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ यह देखना है कि अपने शरीर में से मांस के टुकड़े काट-काटकर डालने की कैसे हिम्मत हुई होगी ? कैसी विचारधारा पर खुशी-खुशी घोर पीड़ा स्वयं ने ही पैदा करके सहर्ष कैसे सही होगी? देखिये, सामने तो एक बाज पक्षी यानी पक्षी ही है न ? क्या उसे दुत्कारा नहीं जा सकता कि 'चल, चल, तू तो दूसरे निर्दोष जीवों की हिंसा करनेवाला पक्षी ठहरा ! क्या मैं तुझे मेरे पास आये हुए कबूतर की हिंसा करने दूं ? चल हट यहां से ।' ऐसा कहकर उसे क्यों न दुत्कारा ? अथवा आप कहेंगे कि “पक्षी होने पर भी मनुष्य की भाषा में बोलता है, इसलिए लगा हो कि 'वास्तव में यह कोई पक्षी न हो, परन्तु कोई देवमाया या योगि- माया हो,' इसीलिए भी न दुत्कारा हो ।" तो शायद दुत्कारे नहीं, परन्तु सीधा इन्कार तो कर सकता है न कि 'यहाँ शरण में आया हुआ कबूतर नहीं मिलेगा। यह थोड़े ही तेरा माल है ?' यहाँ देखने की बात तो यह है कि सिर्फ इन्कार न करके बाजपक्षी को अपने देह के मांस से संतुष्ट किया। दिल की कितनी उदारता ! कैसी न्यायप्रियता ! कबूतर की दया के लिए आत्म भोग देने के पीछे कैसी विचारधारा ? (१) असार को खोने से सार कमाया जा सकता है। यदि नाशवंत, पराये व असार देह से अविनाशी, स्वकीय और महासारभूत दयास्वरुप आत्मसंपत्ति कमाई जा सकती हो, तो उसके जैसी दूसरी धन्य घड़ी कौन-सी ? इसीलिये वह तो कमा ही लेने दो, चाहे इसके लिये शरीर का थोड़ा भाग भी क्यों न देना पड़े? शरीर जाने पर भी दया की आत्मसंपत्ति तो आती है न ? यह तो कोयले गंवाकर हीरे कमाने जैसा है। शरीर तो नाशवंत है, एक दिन अवश्य जाना है, चिता में जलकर राख होना है। जबकि जीव की की हुई दया का संस्कार चिरंजीवी बनकर साथ में आनेवाला है। वह तो बीजरूप बनकर अनन्त दया में परिणाम पायेगा, इससे अविनाशी समृद्धि की कमाई होगी। ( २ ) इसी प्रकार देह तो पर वस्तु है । आत्मा की स्वयं की चीज नहीं। क्योंकि देह तो जड पुद्गल है, जबकि आत्मा तो अरुपी चेतन वस्तु है। जड़ कभी चेतन की वस्तु नहीं बन सकता। जड़ व चेतन के माल-मालिकी भाव कहां से हो ? इसीलिए तो चेतन आत्मा को पाप से पिंड़ बड़े करने के बाद भी वे पिंड खोने पड़ते हैं और फिर से नये की तैयारी करनी पड़ती है। खुद की मालिकी का माल हो, तो खोने की बात कहां ? इसीलिए पिंड़-देह-कलेवर आत्मा की चीज नहीं है, वह तो पर माटी है। दया के लिए पर माटी को जाने देकर भी अपना माल यानी दयागुण पैदा होता हो, तो क्यों न ऐसा किया जाय ? दया तो ऐसा अपना गुण है कि जो आत्मा के साथ मजबूती से लग जाता है, और होशियारी व पुरुषार्थ हो, तो अनन्त दया तक विकसित होता है । (३) 'इसी प्रकार, देह असार है, वर्तमान में भी असार है, क्योंकि मलिन पदार्थों Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का संचय मात्र है और अन्त में भी असार है, क्योंकि जलकर राख ही होनेवाली है। पशु के मरने के बाद उसके शरीर की चमड़ी तो काम आती है, परन्तु मनुष्य की काया का तो कोई उपयोग नहीं। ऐसी असार काया का मोह क्यों ? इस मोह में ही आत्मा भूला दी जाती है, आत्मा का दीवाला निकलता है । इसीलिये असार काया से दया की कमाई करना महा सारभूत है । क्योंकि दया सामनेवाले जीव को समाधि देकर दुर्गति के पाप से बचाती है और आगे जाकर जीव को महाअहिंसा आदि सारभूत संपत्ति की कमाई करके देती है ।' 1 राजा ने यह सोचा इसीलिये नश्वर, पर व असार देह की परवाह न करके अविनाशी, स्वकीय व सारभूत दया कमाने का काम खुशी से किया। हमें भी नश्वर शरीर हो या लक्ष्मी, संसार - सुख हो या सुविधा... इन्हें खोकर भी अविनाशी सुकृत, सद्गुण कमाने का अवसर मिलता हो, तो इसे हाथों से जाने न देना चाहिये। वहाँ मन को क्यों दुःख लगना चाहिये कि 'अरे अरे ! यह मेरा सुख या मान जायेगा, तो क्या होगा ?" क्षमा के लिए विचार :- उदाहरण के लिये :- किसी प्रसंग में क्षमा करने जायें, क्रोध न करें, तो सामनेवाला हमें दबाता हो या दूसरे हमें कायर - नामर्द कहते हों, तब यही विचार करना चाहिये कि 'सामनेवाले से दबना और दूसरों की दृष्टि में कायर - नामर्द दिखना, यह तो एक नाशवंत वस्तु है । हमारा पुण्य जोरदार हो, तो हमेशा के लिए दबकर नहीं रहना पड़ेगा। शायद इस तरह पुण्य चमकता न हो, तो क्रोध करने पर भी दबकर तो रहना ही होगा । तो फिर क्षमा गंवाकर क्रोध किया, इससे क्या मिला ? वास्तव में देखा जाय, तो दिखता है कि, सहन करने का वर्तमान द्रष्टान्त: सुन्दर भावना : पू. गुरुदेव श्री आचार्य भगवंत विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराज को आप पहचानते हैं न ? उन्होंने अपने जीवन में सहने का मुद्रालेख रखा था। किस विचारधारा पर ? यही कि सहने से आभ्यन्तर में अच्छी कमाई होती है। दर्द सहे, कष्ट सहे, प्रतिकूलतायें सहीं । बहुत कुछ सहन किया, कभी कोई नादान जीव आवेश में आकर नादानी से उन पर गुस्सा करता, तो भी वे शान्ति से सब कुछ बर्दास्त कर लेते। किस विचारधारा पर सहन किया जाय ? सहन करते वक्त यह विचार रखना कि मेरे सर पर कर्मों का व कषायों का बहुत दबाव है, वह भी अनन्त काल से चला आ रहा है, तो अब उसे बढ़ाया क्यों जाय ? उसे ही दबाया जाय । सामने वाला जीव बेचारा कर्मवश है। 'सव्वे जीवा कम्मवस चउदह राज भमंत' ऐसी दया का विचार करूं । प्रभु का शासन मिलने से सुन्दर समझ व अवसर मिला है, तो क्षमा, साधु- वात्सल्य, सर्वजीव स्नेह रूपी मैत्रीभाव व करुणा रखकर इन कर्मों व कषायों का जोर कम करूं, जिससे क्रमशः उनके दबाव का हमेशा के लिये अन्त आ जाय । पूज्यश्री ने यही पद्धति अपनायी थी, इसीलिये आवेशवाले जीव को पीछे से १२२ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पछतावा होता व वह उनके पास जाकर माफी मांगता । तब वे इतना ही कहते, 'भाई ! कषाय न करो । कषाय से आत्मा का बिगडता है।' खुद के ३०० ही साधु उनके प्रति खूब सद्भाव रखते और उनके बिदा होने पर अश्रू बहाने लगे, वे आज भी उनके विरह में दुःख महसूस करते हैं कि 'हमारे तारणहार गये, हमने अपना महान आलंबन खो दिया।' हमारी तुच्छ बुद्धि से हम सामनेवाले हमें दबाये, यह सहन करने के लिए तैयार नहीं होते । परन्तु आज के काल की ऐसी महान विभूतियों के आलंबन लेने जैसे हैं। पूर्व के महापुरुषों के द्रष्टान्त आने पर हम तुरन्त कहने लगते हैं - 'ये तो चौथे आरे की बातें हैं। आज तो घोर कलियुग है। इसमें इस तरह दूसरों से दब जाने से काम नहीं चलता।' परन्तु ऐसे द्रष्टान्त इस विषम कलियुग में ही मिलते हैं, तो उनका आलंबन क्यों न लें 2 । स्थाणु की सलाह :- देख भाई मायादित्य ! यह तेरी उत्तमता है कि तुझे पाप का पश्चाताप होता है। तेरे जैसे उत्तम इन्सान को इस तरह क्यों मरना चाहिये ? देख भाई, जागे तबसे सबेरा । अभी भी जीवन की बाजी हाथ में है, तो सुकृत साधने का महान अवसर हाथ में है। जीवन खोने से तो इस अवसर का काम तमाम हुआ समझ। इसीलिये मेरे भाई! मरने की बात रहने दे और जीवन जीकर उसे महान सुकृतों से सुशोभित कर ले।' मायादित्य कहता है - 'अरे भाई । पाप से पत्थर जैसे मुझमें सुकृतों की योग्यता ही कहां है?' यों ही मर जाने पर अच्छा जन्म मिलता है ? 'अरे भाई । तू इतना तो सोच कि क्या यहाँ पर यों ही मरने के बाद फिर से जन्म नहीं लेना पड़ेगा? क्या वह जन्म इतना ऊंचा मिलेगा कि जिसमें कुछ अच्छा काम किया जा सके ? सुकृत करने के लिये श्रेष्ठ जन्म मनुष्य-जन्म है और यह जन्म वारंवार मिलना अति दुर्लभ है । यहां यह जन्म मिल गया है, तो इसे असमय नाश न करते हुए ऐसे ही जन्म में हो सके, उतने सुकृत कर ले।' क्या पापी सुकृतों के लिए लायक है? तब मायादित्य कहता है, "परन्तु अति भयंकर पापों से भरे हुए ऐसें मुझमें सकत कर सकने की योग्यता ही कहाँ है ? 'सौ चहे मारके बिल्ली हज करने चली' जैसी मेरी हालत होगी।" मायादित्य समझता है कि 'सुकृत करने के लिए एक विशेष प्रकार की योग्यता चाहिये, महापापी जीव तो नालायक बना होता है, उसके कौन-से सुकृत गिने जाते हैं? सौ चूहे मारकर बिल्ली यात्रा करने चली, तो क्या वह सचमुच यात्रिक बन गयी? इसी प्रकार पाप करते वक्त पीछे मुड़कर नहीं देखा और अब चले सुकृत करने ! इसका क्या महत्त्व?' परन्तु स्थाणु कहता है - 'देख भाई मायादित्य ! पहले पाप धो ले। ध्यान रखना कि पाप धोने के लिए भी मानव अवतार ही श्रेष्ठ है। इसीलिये असमय जीवन का Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्त लाने का विचार त्यागकर जो सीधा जीवन चल रहा है, उसीमें पापों का अन्त करने लग।' तब मायादित्य पूछता है कि 'फिर भी पाप तो इतने भयंकर हैं। वे किस तरह धोये जाये?' स्थाणु ने कहा - 'इसमें कौन-सी बड़ी बात है। चल, हम गांव के किसी समझदार सज्जन अथवा कोई साधुसंत मिले, तो उन्हें पूछ लें कि ऐसे-ऐसे पाप धोने के लिए क्या करना चाहिये?' यह बात मायादित्य के गले उतर गयी । उसे लगा कि स्थाणु की दोनों बातें सही हैं। पापों का नाश करने के लिये और ऊंचे सुकृत करने के लिए उत्तम भव तो सिर्फ एक मनुष्य का ही है। इस भव में ये काम किए बिना जीवन का अन्त लाना तो मूर्खता है। जब यहाँ पाप की भयंकरता समझ में आ ही गयी है, उनके प्रति तिरस्कार जगा ही है, पाप से पीछे हटने का अवसर मिला ही है, तो अब पूर्व के पापों का नाश करने के लिये पुरुषार्थ ही करना चाहिये । पूर्व के पापों का नाश किए बिना जीवन का नाश करना मूर्खता है, इससे वास्तव में पापनाश का अवसर हम खो बैठते हैं। ऐसे अवसर को क्यों व्यर्थ जाने दिया जाय? आत्महत्या करने से तो सुन्दर अवसर का नाश होता है। आत्महत्या करने से दोनों अवसर हाथ में से जाते हैं - पापों का नाश करने का व सुन्दर सुकृत साधने का। हमें जीवन की कितनी कीमत है ? जिसके जीवन में कोई भयंकर पाप हो रहा हो, उसके मन को ही यह बात लगती है, हमें लगती है ? क्या कभी हमें जीवन की कीमत के बारे में यह विचार आता है कि 'यह उत्तम जीवन असंख्य जन्मों के पापों के नाश के लिये है ? और उत्तमोत्तम सुकृत करने के लिए है ?' यदि ऐसा लगे, तो उसका पुरुषार्थ जोरदार चले? और नये पाप कितने रुक जायें? प्रत्येक पल यह नजर के सामने रहना चाहिये कि 'मैं जी रहा हूं, यह पापक्षय व सुकृतों का अवसर चल रहा है।' जीवन में बाहर दिखनेवाला ऐसा कोई भयंकर पाप नहीं हुआ है ! न जाने क्यों एक त्रुटि रह गयी है, जो एक विचार ही नहीं आने देती कि 'पापों के नाश के लिए व सुकृतों के संचय के लिए ही यह भव है, इसीलिए यही श्रेष्ठ है ! इसमें कुछ साधना कर लुं। जीवन में पाप कितने ? जीवन में कितने पाप हुए हैं, गिनिये तो सही ! जीवन में कदम-कदम पर राग-द्वेष के पाप और उनके पीछे दूसरे पाप क्या कम हुए हैं ? पापों में धन की लालसा व ममता के पाप, व्यवसाय के लिए किए गए पाप, झूठ-कपट, विषयों की आसक्ति, पत्नी-पुत्र का मोह, षट्काय जीवों के संहारमय आरंभ-समारंभ, नाम की भूख, मान की भूख, अच्छे Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिखने की इच्छा... इन सबसे अभी भी कहाँ पीछे हटे हैं ? फिर भी क्या ऐसा लगता है कि जिंदा हूं, तो पापों का नाश कर दूं? अभी तो जल्दी लगती है न? अभी तो बहुत जीना बाकी है, पहले पाप-भरा जीवन जी लं, बाद में पापों को खत्म कर दूंगा।' यही धारणा रखी है न? लगता है, आप भटक गये हैं ? पापनाश व सुकृत को मुलतवी रखनेवाले दो बातें भूलते हैं :- (१) एक तो यह कि आयुष्य का भरोसा नहीं और (२) दूसरी बात यह कि पापों का प्रमाण व कुसंस्कारों का प्रमाण इतना ज्यादा है कि उनको निकालने के लिए तथा सुकृतों के भारी संचय के लिये दीर्घकाल की साधना चाहिये। __ आज तक किए हुए क्रोध के पाप, अभिमान के पाप, माया के पाप, लोभ के पाप, ईर्ष्या के पाप, निंदा के पाप कितने सारे लगे हुए हैं ? क्या वे सब एक पल में धोये जा सकेंगे? इसी प्रकार आरंभ-समारंभ, खान-पान, विषय, संपत्ति-स्त्री-सत्ता के पाप कितने? क्या वे सब क्षण भर में धोये जा सकेंगे? या उन्हें धोने के लिये दीर्घकाल की साधना चाहिए? अथवा दीर्घ काल तक काया, इन्द्रियों व मन को कसना पड़ेगा? । क्रोधादि के एकदम जगे हुए संस्कारों के ढेर क्या जिंदगी के अन्त में अल्प काल में मिटाये जा सकेंगे? क्या सिर्फ यहाँ पर ही सेवन किये गये क्रोधादि के संस्कार पड़े हैं ? या अनंत-अनंत काल के भी संस्कार चले आ रहे हैं ? तो उन्हें मिटाने के लिये कितनी लंबी संयम-क्षमादि गुणों की साधना चाहिए? हमारा कौन-सा सुकृत जोरदार? क्या कोई एक भी सुकृत इतना जोरदार करने का हमारा सामर्थ्य है कि आखरी समय में थोड़े सुकृत करके भी भारी पुण्य कमा सकें ? थोड़े भी ऐसे ठोस सुकृत्य करने की शक्ति ही कहाँ है कि थोड़ा भी ठोस पुण्य उपार्जन किया जा सके व परभव में इसका ठोस परिणाम मिले? हमारी शक्ति के अनुसार दीर्घ काल के सुकृत इकट्ठे हों, उनसे ही परभव में कुछ अच्छा मिलने की आशा रखी जा सकती है। . . ___ 'इस प्रकार, पापनाश, कुसंस्कारनाश व पुण्यसंचय के लिए दीर्घ काल की साधना चाहिये, वह करने का मौका यहाँ जब तक जीवित है, तब तक है। इसीलिये इस मौके का फायदा उठा लुं।' भयंकर पाप होने से आत्महत्या करने के लिये तत्पर बने हुए को हितैषी की ऐसी सलाह लगती है, तो क्या हमें नहीं लगती? मायादित्य गांव के अग्रणियों की सलाह लेता है : स्थाणु ने यह सूझ दी, इसलिये मायादित्य गांव के आगेवानों को एकत्र करता है। उनसे कहता है, 'देखिये, मैंने इस प्रकार मित्र का भयंकर द्रोह किया है, इसीलिये मैं सुलगती हुई चिता में जलकर मरना चाहता हूँ। परन्तु यह मेरा चन्द्र जैसे उज्ज्वल दिलवाला मित्र मुझे रोक रहा है। मैं क्या करूं? Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (मन का दोष : एक आगेवान कहता है - 'यह सब कुछ तूने जो किया, वह बिगड़े हुए मन का ही कार्य है। इसमें तेरा कोई दोष नहीं। अब तुझे पछतावा भी हो रहा है, अत: मन शुद्ध हो गया है। अब मन का दोष भी निकल गया है।' भाग्य का दोष : दूसरा कहता है - 'अरे भाई। मन भी इस तरह कब बिगड़ता है? भाग्य रुठ गया हो तो! इसीलिए दोष तो दुर्भाग्य का है। यह उसीका काम है। अतः तेरा कोई दोष नहीं । तू क्यों जलकर मरना चाहता है ? और अब तो द्रोहबुद्धि भी गयी। इससे सूचित होता है कि तेरा सद्भाग्य जगा है, जिससे दुर्भाग्य गया!' जीव का दोष :- गांव का विशेष वृद्ध आगेवान कहता है, 'देखो, इस तरह मन या दुर्भाग्य का ही दोष हो, तो कोई भी जीव पापी नहीं कहा जा सकता। फिर वह चाहे जितने पाप क्यों न करे? फिर तो हर किसीको चाहे जैसे पाप करने की छूट मिल जाती है। इसीलिये वास्तव में तो जीव ही पापी बनता है। यह जीव का ही दोष है, अत: उसे प्रायश्चित करना ही चाहिये। तभी उसके पाप धुल सकते हैं। मायादित्य ने मित्र-द्रोह का, मित्र को मारने के प्रयत्न करने तक का घोर पाप किया है, तो अब इसे सर्वस्व त्यागकर संन्यासी बनकर भिक्षा पर गुजारा करते हुए, सर्व तीर्थों में भटकना चाहिये और अन्त में गंगाजी पहुंचकर वहाँ आजीवन अनशन स्वीकार लेना चाहिये । सुवर्ण तपती हुई आग में शुद्ध होता है, इसी प्रकार पापी जीव भी अग्नि जैसे कठोर व्रत से निर्मल बनता है। मायादित्य सन्यासी बनता है : सबके दिल में यह बात बराबर जंच गयी। सबने यही मार्ग निश्चित किया, इसीलिये मायादित्य ने भी यही पसंद किया । स्थाणु की इज़ाजत मांगी। हमेशा से सज्जन दिलवाले स्थाणु को बहुत दुःख हुआ, परन्तु मित्र का भला होता हो, तो उसमें बाधा न पहुंचाना, इस आशय से रोते हुए उसे बिदा किया। मायादित्य कापालिक-संन्यासी का वेश धारण कर वहाँ से निकल पड़ा। वह घूमते-घूमते यहाँ आ पहुंचा, वह यहाँ बैठा है। अज्ञानदशा भयंकर है : धर्मनन्दन आचार्य महाराज पुरन्दर राजा को समझा रहे थे कि माया के साथ अज्ञानदशा किस प्रकार संसार-भ्रमण का कारण है ! उसीके अन्तर्गत मायादित्य का द्रष्टान्त बताकर कहा, 'देखो, अज्ञान दशा कैसी काम करती है कि माया को भयंकर पाप समझने के बाद भी अब पापों से आत्मा का किस प्रकार उद्धार किया जाय, इसका ज्ञान नहीं, इसीलिये अज्ञानियों के बताये हुए उपाय में अमूल्य जीवन नष्ट होता है और पापों का ढेर पडा रहता है। आचार्य महाराज समझाते हैं :'हे राजन् । क्या मन का दोष जीव का दोष नहीं ? मन जीव ने ही बनाया है या किसी और Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने? खराब मन भी स्वयं ही बनाता है, क्या इसमें जीव का दोष नहीं? यह कैसा अज्ञान? यदि भाग्य ही सब कुछ करे, तो उद्यम की आवश्यकता ही न रहे : 'हे नरोत्तम । यदि भाग्य खराब कराने के लिए आता हो, इसलिये भाग्य का दोष मानें, तो जीव को कभी भी अच्छा बनने की स्वतंत्रता ही नहीं रहेगी। इसके लिये उसे कुछ भी उद्यम करने का अधिकार ही न रहेगा। सब कुछ भाग्याधीन ही हो, तो फिर जीव को इसके लिए कुछ उद्यम करने का अधिकार ही न रहे ! सब कुछ भाग्याधीन हो, तो फिर जीव को कुछ करने की जरुरत ही क्या ? जीव को अच्छा करने के लिये ज्ञानियों का उपदेश व मार्गदर्शन भी व्यर्थ व निरुपयोगी ठहरेगा । वास्तव में देखा जाय, तो भाग्य तो सिर्फ संयोग उपस्थित करता है, परन्तु बाद में अज्ञानदशा से बुद्धि बिगाड़कर असत् पुरुषार्थ करना या ज्ञानी के वचनानुसार सत् पुरुषार्थ करना, इसमें जीव स्वतंत्र है और यह करने पर ही अवनति या उन्नति निर्भर है। वहाँ भाग्य को ही दोष देते रहना, यह अज्ञानदशा 'तो हे नरपति ! ज्ञानियों के वचन की विशेषता है। उद्धार व उन्नति का मार्ग वे ही बताते हैं । इससे छोटे-से भी जीवहिंसादि पाप चालु रखकर स्वमति से भिक्षा के लिये भटकना, तीर्थ यात्रा करना व अन्त में भूखे मर जाना, यह भी अज्ञानदशां है।' मायादित्य खड़ा होकर आचार्यदेव के चरणों में गिरकर कहता है - 'प्रभु । आपके सिवाय कौन मेरा जीवन अन्तर के भावों सहित जान सकता है ? प्रभु ! दया करके अब मुझे प्रायश्चित्त दीजिये।' आचार्यदेव कहते हैं - 'हे भाग्यवान ! पाप से उद्धार का सही उपाय सर्वज्ञ भगवान श्री जिनेश्वर देव की आज्ञा में है, आज्ञा का पालन करने से ही उद्धार होता है। सर्वज्ञ संपूर्ण ज्ञानी हैं, इसीलिये उद्धार का सच्चा उपाय वे जानते हैं व कहते हैं। इसीलिये, सर्व आपत्ति में जिनाज्ञा ही शरण: जे पिययं-गुरु-विरह-जलण-पज्जलिय-ताव-तवियंगा। कत्तो ताणं ताणं , मोत्तुं आणं जिणिदाणं ॥ जे जम्म-जरा मरणोह-दुक्खसय-भीसणे जण जीवा । कत्तो ताणं ताणं, मोत्तुं आणं जिणिदाणं ॥ संसारम्मि असारे, दुहसय-संवाह-वाहिया जे य । (मोत्तुं ताणं ताणं, मोत्तुं वयणं जिणिदाणं ॥ अर्थात् (१) अत्यन्त प्रियजन के वियोग-अग्नि के सुलगते हुए ताप से जो तपे हुए अंगवाले हों, उन्हें जिनेश्वर देव की आज्ञा छोड़कर दूसरा रक्षण-शरण कहाँ से हो? Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) जो अत्यन्त भारी गरीबी से पीडित हों, अर्थात् जिनका सब धन व वैभव नष्ट हो गया हो, उन्हें जिनाज्ञा के सिवाय कहाँ रक्षण-शरण मिले ? (३) दुर्दशा के कीचड़ की शंकावाले तथा किसी कलंकमल या पाप से दुःखी जीवों को..... (४) सर्व जन से निंदित व स्वजन-संबन्धी के तिरस्कार- दुःख से तप्त जीवों को....... (५) अनेकानेक बार जन्म - जरा - मृत्यु के सैकड़ों दुःखों से भयंकर जग में जो जीव पीड़ित हैं, उन्हें..... (६) दहन, दागना, ताडना आदि के महादुःख- समुद्र में जो पड़े हैं, ऐसे जीवों को...... (७) असार संसार में सैंकड़ों दुःख- दुष्कृत्य की पीडा से जो दुःखी हैं, उन्हें भगवान जिनेश्वर देव के वचन सिवाय दूसरा रक्षण-शरण कहां से मिले ? इसीलिये इस वचन की आराधना करके जहाँ जरा नहीं, किसी भी प्रकार का दुःख नहीं, ऐसे शाश्वत शिव - सुख की आत्मस्वस्थतावाले मोक्ष को तू शीघ्रता से प्राप्त कर सकेगा।" तब मायादित्य कहता है - 'प्रभु । तो महापापी हूं। मुझे तो ऐसा लगता है कि जिनवचन मुझ जैसे घोर पापी को किस प्रकार शरण देगा ? किस प्रकार बचायेगा ?' आचार्य महाराज कहते हैं, 'तेली के घर का तेलवाला चिकना, एकदम मैला कपड़ा भी क्षार व पानी से साफ होता है न ? इसी प्रकार जिनवचन चिकने पाप- मैल को धोने का असरकारक उपाय बताता है। जिन पापवृत्तियों व प्रवृत्तियों से जीव एकदम मैला बना, उनसे विपरीत धर्मवृत्ति प्रवृत्तियों से मैला मिटकर वह उजला क्यों नहीं होता ? घास का बडा गंज आग की एक चिनगारी से जलकर साफ हो जाता है, इसी प्रकार पापों का बड़ा ढेर भी जिनवचन के कहे हुए उपाय से जलकर साफ हो जाता है।' मायादित्य कहता है, 'भगवंत । मुझे भी वह उपाय बताईये। यदि मैं उसके लिए योग्य होऊँ, तो मुझे वह देकर कृतार्थ कीजिये, यही मेरी आपसे नम्र विनंती है।' इतना कहकर वह आचार्य महाराज के चरणों में गिरता है। आचार्य महाराज ने उपाय के रुप में सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तप व क्षमादि धर्म बताये और देखा कि 'मायादित्य के कषाय शान्त पड़े हैं, अब वह उपशम भाव में आया है,' इसलिए उसे साधु दीक्षा दी। माया पर मायादित्य का अधिकार पूर्ण होता है । १२८ - - - Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोभ कषाय (चरित्रनायक कुवलयचन्द्र राजकुमार जंगल में पहुंच गया। वहाँ महर्षि के पास 'स्वयं अश्व के द्वारा आकाश में क्यों ले जाया गया? वह अश्व कौन?'... आदि प्रश्नों का खुलासा पाया, इसमें यह बात आयी कि राजा पुरंदरदत्त को वासव मंत्री जैनधर्म की प्राप्ति कराने के लिये तरकीब आजमाकर उद्यान में धर्मनंदन आचार्य महाराज के पास ले गया और वासवमंत्री द्वारा प्रश्न पूछे जाने पर आचार्य महाराज ने संसार के पांच कारण बतायेक्रोधादि चार कषाय तथा मोह । क्रोध पर चंडरुद्र, मान पर मानभट्ट व माया पर मायादित्य के द्रष्टान्त बताये।) अब लोभ का अधिकार बताते हुए आचार्य महाराज फरमाते हैं कि - लोभ संसार का इतना जबरदस्त कारण है कि (१) ज्यों ही स्वजन-संबंधी में, किसीमें भी लोभ घुसा, त्यों ही वह लोभ अन्य स्नेहीजनों के साथ स्नेह का भेद कराता है, भंग कराता है। (२) लोभ प्रिय मित्र के प्रति मित्रता को तुडवाता है। (३) लोभ के कारण काम बिगड़ता है। (४) लोभ सर्वनाश करता है। आचार्य महाराज द्वारा करायी गयी लोभ की यह पहचान जगत में सर्वत्र अच्छी तरह से द्रष्टिगोचर होती है। (१) लोभ से स्वजनों के स्नेह का भंग पिता-पत्र, दोनों साथ में रहते हों व पुत्र स्वतंत्र व्यवसाय करता हो, उसे यदि लोभ जगे, तो वह मन में सोचता है कि 'मेरी कमाई में से घर-खर्च देकर शेष अलग जमा करूँ । नहीं तो, इसमें से भाईयों के हिस्से में जाएगा।' पिता यदि ज्यादा खर्च करे, तो अच्छा नहीं लगता। पिता के प्रति प्रेम घट जाता है। अथवा पिता को पता चलने पर स्वतंत्र जमावट न करने के लिए दो शब्द कहे, तो अच्छा नहीं लगता। इससे प्रेम कम • हो जाता है। इसी तरह पति-पत्नी में भी एक को लोभ जगने पर गुप्त रुप से जमावट करने पर प्रेम टूटने की नौबत आती है। फिर चाहे पत्नी कपड़े आदि में अधिक खर्च करती हो या खर्च के पैसे लेकर उसमें से बचाव करने के लिए आवश्यकताओं में कटौती करती हो, या पति नये-नये मेहमान लाता हो अथवा फिजूलखर्ची करता हो । यदि पत्नी को लोभ हो, तो पति चाहे जितना क्यों न कमाता हो, पति का खर्च उसे अखरेगा। इससे पंति पर प्रेम थोड़ा-बहुत तो कम होगा ही। इसी प्रकार भाई इकठे रहते हों, उनमें से यदि एक को लोभ जगे, तो दूसरे भाई पर प्रेमभंग हुए बिना नहीं रहेगा। इन Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबका कारण यही है कि लोभ अर्थात् पैसों पर ज्यादा प्रेम, जिससे स्वजनों के प्रति प्रेम घटता है । पैसों का अधिक प्रेम दूसरे प्रेम तोड़ता है। (२) लोभ मित्रता में भी हानि पहुंचाता है, इसीलिये कहा जाता है कि 'यदि मित्रता बनाये रखनी हो, तो बीच में पैसों का व्यवहार नहीं लाना चाहिये।' परन्तु मित्रता एक ऐसी चीज है, जिससे एक-दूसरे के दाक्षिण्य या शर्म के कारण भी पैसे मांगने पर दिये जाते हैं । बादमें लौटाने में विलंब होने पर देनेवाले के मन में उद्वेग होता है। यदि देनेवाला लोभ न रखे व भेंट दिया है, ऐसा मान ले, तो हर्ज नहीं। परन्तु लोभ किसका छूटता है? शायद एकाध बार भेंट मान भी ले, परन्त मित्र बार-बार पैसे मांगा ही करता हो और लौटाने का कोई ठिकाना न हो, तो मित्रता टूटकर ही रहती है। शायद ऊपरी तौर पर मित्रता हो, परन्तु पहले जैसे मधुर संबन्ध नहीं रहेंगे । इसी प्रकार साझेदारी में भी दिखता है कि एक का लोभ बढ़ते ही आपसी संबंध टूटते हैं। लोभ में मित्रता टूटने के उदाहरण दुनिया में कई जगह देखने मिलेंगे। पूर्व के द्रष्टान्त में उदाहरण के तौर पर देखें, तो कोणिक को राज्य का लोभ लगने पर पिता श्रेणिक के प्रति प्रेम टूट गया और उसने उन्हें जेल में डाला। राजा कनककेतु आजीवन स्वयं ही राजा बना रहे और स्वयं के जीते जी पुत्र को राज्य न देना पड़े, इसलिये जन्मते पुत्र के किसी अंगोपांग का छेदन कराता, जिससे वह राजा बनने के लायक न रहे। इसमें पुत्र पर प्रेम कहाँ रहा? चुलणी विषयसुख के लोभ में पड़ी, तो उसने पुत्र ब्रह्मदत्त को जिंदा जला मारने का पेंतरा आजमाया। __ अरे ! रामचन्द्रजी जैसे को भी स्वयं अच्छे, लोकप्रिय राजा कहलाने का लोभ जगा, तो मूर्ख लोगों के मुख से सीता की निदा सुनकर, सीता को निष्पाप व निष्कलंक जानते हुए भी उसे गर्भिणी अवस्था में जंगल में अकेली छोड़ दी । कहाँ रहा सीतां पर प्रेम? सीता को सती तो मानते ही हैं, परन्तु लोग यदि कहते हैं कि 'इतने बड़े राजा को रावण के घर रहकर आयी पत्नी को घर मे रखना उचित नहीं।' तो ऐसे मूर्ख लोक में बड़े राजा के रुप में ख्याति बनाये रखने के लोभ में सीता को छोड़ा। लोभ बुरा है, इसीलिये तो आज विषयसुख आदि के लोभ में बाप-बेटे में पटती नहीं, भाई-भाई में झगड़े होते हैं, भागीदारों में धोखेबाजी चलती है। लोभ में शिष्य गुरु के प्रति वफादारी छोड़ देता है, लोभ के कारण स्वतंत्र विचरण करता है। लोभ भक्तों में पक्षपात कराता है। लोभ से अपना काम कर देनेवाले साधु अच्छे लगते हैं व त्यागी साधु इतने अच्छे नहीं लगते । इस प्रकार लोभ प्रेम का नाशक है। (३) लोभ से कार्य भी बिगड़ता है :- व्यवसाय बराबर चलता हो, परन्तु लोभ बढ़े, तो ऐसा अघटित साहस करवाता है, जिससे लाभ के बदले नुकसान होता है, धंधा है, Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाजार में साख कम है, तो दिखावा अच्छा करने के लिये दूसरा बिगाडना भी पडता है। जीवन के दूसरे मामलों में भी यदि लोभ सताने लगता है, तो लोभ के अंधापे में इन्सान ऐसा कुछ कर बैठता है, जिससे कुछ उल्ट-सीधा होकर रहता है। रावण को वाली राजा पर हुकूमत जमाने का लोभ जगा। वाली ने मित्रता रखने का मंजूर किया, फिर भी वर्चस्व जमाने के लोभ में रावण वाली के साथ लड़ने के लिये तैयार हो गया। इसमें उसे हार खानी पड़ी । अपनी विशाल सेना व कई सामंतों व राजाओं के देखते ही देखते रावण को वाली के हाथों पराजय झेलनी पड़ी। भरत चक्रवर्ती को भी विशाल सेना के देखते हुए भाई बाहुबलि के हाथों परास्त होना पड़ा । यह क्या है ? स्वयं के सम्राटत्व को ही बट्टा लगा न? लोभ कार्य का नाशक इस प्रकार बनता है कि लोभ में इन्सान का हृदय मनपसंद वस्तु पाने व संभालने के लिये इतना उतावला व विह्वल बन जाता है कि उसे दूसरा भान नहीं रहता । उतावल में अनुचित साहस करने पर कार्य को बिगाड़ देता है। मान पाने के लोभ में दौड़ता हुआ इन्सान ऐसा कर बैठता है, जिससे वह उल्टा हल्का बन जाता है। पैसों के लोभ में व्यापार में ऐसा उल्टा-सीधा रास्ता अपनाता है, जिससे कमाने के बदले गंवाता है। (४) आगे बढ़कर लोभ सर्वस्व नाश करता है, सर्व गुणों का नाश करता है। शास्त्र कहते हैं कि (१) क्रोध से प्रीति का नाश होता है (२) अभिमान से विनय का नाश होता है, (३) माया से दूसरों के विश्वास का नाश होता है, परन्तु (४) सर्व गुणविनाशको लोभः'.... क्योंकि लोभवश बना जीव इच्छित वस्तु पाने व संभालने के लिये इतना अंध बनता है कि वहाँ प्रेम, विनय, विश्वास आदि गुणों को बचाने की कोई परवाह नहीं होती। राग लोभ के कैसे अनर्थ ? राग लोभ बुरा है। वह जिनवचन भुलवाता है, गुरु की शर्म छुड़वाता है, श्रावकत्व - साधुत्व भुलवाता है, स्नेहीजनों के स्नेह व विश्वासुओं के विश्वास का भंग कराता है। इस दनिया में चलने वाले पापों व दोषों का साम्राज्य किस कारण से? राग के कारण, लोभ के कारण । लोभ में पड़ा हुआ पिता अपना पितृत्व भूला बैठता है, भाई भाईचारा भूला बैठता है, गुरु अपना गुरुत्व खो बैठते हैं, पुत्र पुत्रत्व तथा शिष्य शिष्यत्व को भूला बैठता है। .. धर्मनन्दन आचार्य महाराज राजा से कहते हैं - 'हे नरेन्द्र! लोभ एक महा ग्रह है। शनि आदि ग्रहों की पीड़ा की तरह लोभ की पीड़ा भी भारी है। जिस प्रकार अंध मनुष्य चलते वक्त ऊंची-नीची जमीन नहीं देख सकता, इसी प्रकार लोभी इन्सान जिस तरफ चलना चाहता है, जो कार्य करना चाहता है, उसमें ठीक से चला जायेगा या ठीक से काम किया जा सकेगा या ठोकर खानी पड़ेगी, यह नहीं समझ सकता । लोभ अंधापा है। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोभ की व्यापक भयंकरता के लिये उपमायें :लोभ की चारों ओर से भयंकरता समझाने के लिये सुन्दर उपमायें दी गयी हैं। (१)अंध की तरह लोभग्रस्त इन्सान सम-विषम काल, स्थान या संयोग नहीं देख सकता। (२) बहरे की तरह लोभी इन्सान हित-अहित सुनने में अशक्त होता है। बहरे को चाहे जितना समझाया जाय कि "देख, इसमें तेरा हित है, इसमें तेरा अहित है। परन्तु वह सुनेगा भला? नहीं । बहरा है, क्या सुनेगा? लोभ में पड़े हुए को हित-अहित की बात चाहे जितनी सुनायी जाय, वह थोड़े ही सुननेवाला है ? चित्तमुनि का हितोपदेश संभूति मुनि ने सुना ही नहीं। आज कई पुत्र जमाने की बात या वस्तु के लोभ में मां-बाप का सुनते नहीं । इसी प्रकार बाह्य के लोभ में पड़ा हुआ शिष्य भी गुरु का अथवा शास्त्र का सुनने के लिये तैयार नहीं। रोहगुप्त मुनि को राजसभा में वाद में विजय मिली, मान मिला। इस मान के राग में वे फँस गये। बाद में गुरु ने बहुत कहा कि 'देख, मिथ्यात्वी को हराया और जिनशासन की वाहवाह करायी, यह तो अच्छा किया, परन्तु इसमें जीव-अजीव-नोजीव.. इन तीन राशियों की स्थापना की, यह तो सिद्धान्त विरुद्ध हुआ, उत्सूत्रभाषण हुआ । इसीलिये राजसभा में जाकर घोषणा कर दे कि 'राशि तो दो ही है - जीव व अजीव । नोजीव नामक कोई तीसरी चीज दुनिया में नहीं।' गुरु की यह हितवाणी रोहगुप्त ने न सुनी । क्यों ? मानसन्मान मिलने का लोभ है, जो बहरे की तरह हितवाणी नहीं सुनने देता।' राग को एक ओर रखा जाय, तभी जिनवाणी असर कर सकती है : आप व्याख्यान सुनते हैं न? परन्तु यदि उस वक्त आप किसी लोभ में, राग या आसक्ति में फंस गये, तो उपदेश आपको कोई असर नहीं करेगा। क्या शास्त्र नहीं कहते कि 'पैसे-परिवार आदि सब कुछ असार है।' परन्तु यह सुनते वक्त जिसके दिल में पैसों के प्रति जोरदार ममता है, वह कहता है तो क्या पैसों को या परिवार को फेंक दिया जाय?' इसमें क्या दिखता है ? राग में फंसे हुए होने से असारता की हितवाणी सुनाई नहीं दी। इसीलिये अनन्त कल्याणकारिणी जिनवाणी सुननी हो, सुनकर हृदय में बसानी हो, तो लोभ को-राग को एक बाजु रख दो, कहीं बीच में आने मत दो। (३) लोभ उन्माद है - उन्मत्तता है :- जिस प्रकार उन्मत्त इन्सान चाहे जैसी बकवास करता है, उसी प्रकार लोभी इन्सान भी मनचाहे शब्द बोलता है। लोभग्रस्त होने से उसे न शर्म है, न लाज ! व्यवसाय करते हुए इन्सान दो पैसे कमाने लगे, तो लोभ बढ़ने पर वह ऐसे मनोरथ करने लगता है व परिवार जनों तथा औरों के आगे कहने लगता है कि 'पैसे कमाना कौन-सी बड़ी बात है ? बस, अब तो इतने कमा ही लेने हैं। एक कारखाना शुरु कर दूं, तो फिर बस जिंदगी भर आराम ही आराम !' भाग्य न हो और कुछ हाथ में Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनेवाला भी न हो, और इस तरह बोलना यह बकवास ही है न ? यह कौन बुलवाता है ? लोभ ! पगले की तरह लोभी को बोलने का भान नहीं होता । (४) लोभी को पूछो कुछ तो उत्तर देगा कुछ और ही : आचार्य भगवंत फरमाते हैं, 'लोभ तो इन्सान को छोटे बच्चे की तरह ऐसा नादान बनाता है कि उसे पूछो कुछ और जवाब देगा कुछ। बच्चा ऐसा करता है, तब तो माना जा सकता है कि इसकी बुद्धि का विकास अभी तक हुआ नहीं, इसीलिये ऐसा कहता है । परन्तु लालच तो बडे, समझदार, परिपक्व इन्सान को भी भान बिना का बना देता है । लोभ की धून सवार है न ? इस धून में उसे क्या पूछा जाता है, इसका ध्यान ही नहीं रहता, इसीलिये जवाब कुछ और ही देता है । व्यापारी दुकान पर बैठा हो, उस वक्त कोई परदेशी आकर पूछे कि 'यह रास्ता कहाँ जाता है ?' तब लोभ की धून में वह कहता है - 'यह कपड़ा सस्ता है। ले जाओ।' मरीज डॉक्टर से पूछता है - 'क्या मैं यह चीज खा सकता हूँ ?' तब डॉक्टर दवा के पैसों के लोभ में कहता है - 'दवा के पैसे जल्दी भेजना।' माँ पुत्र से कहती है- 'मौसी के घर जाकर आया ?' तब पढ़ने के लोभ में पड़ा हुआ पुत्र कहता है, 'मास्टरजी लेसन बहुत देते हैं, लेकिन मैं बराबर करता हूं। (५) लोभ से इन्सान अनेक धर्म गंवा बैठता है : : लोभ एकेन्द्रिय बनाता है। - सिर्फ एक विषय की ही लेश्या, इसीका भान । ऐसे लोग सांसारिक पदार्थों में भी भान भूला बैठते हैं, तो फिर आत्महित की वस्तु तो उनके ध्यान में आये ही कहां से? शरीर के मोह रखनेवाले को सुबह दो घंटे घूमने जाने का सूझता है, परन्तु दो घड़ी सामायिक प्रतिक्रमण नहीं सूझता । आरामपसंद आलसी को सोते रहना या पड़े रहना अच्छा लगता है, परन्तु अच्छा धार्मिक वांचन या सत्संग करना अच्छा नहीं लगता । बातों का रसिया रात को आठ बजे से ग्यारह बजे तक बातों में बैठा रहता है, परन्तु एक घंटा नवकार मंत्रका जाप नहीं करता । दुनिया में अनेकों के साथ संबन्ध रखने के लोभ में पड़ा हुआ आदमी सांसारिक काम बिगाड़कर भी अथवा काम निपटाकर किसी-किसीसे मिलने जाता है, बाजार में चक्कर मारता है, परन्तु घर में आधापाव घंटा अपनी संतानों के साथ बैठकर आत्महित की बातें नहीं करता । फिर संतानें बिगड़ जायें, इसमें भला क्या आश्चर्य ? कई प्रकार के धर्म साधने की संभावना होने पर भी लोभ के कारण वे धर्म हो नहीं पाते । (६) लोभ इन्सान को मछली की तरह समुद्र में घुमाता है : लोभ के कारण समुद्र का प्रवास वारंवार करना पड़ता है। आज आप देखते हैं न कि शक्तिसंपन्न लोग थोड़ा कुछ काम आते ही विदेश दौड़ते हैं । फिर शायद उसे समाचार भी मिले कि 'इस विमान की दुर्घटना में इतने लोग गिर गये, उनका कोई पता नहीं ।' फिर १३३ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी वह तो यही मानेगा कि 'इससे क्या ? सब विमान थोड़े ही दुर्घटनाग्रस्त होते हैं।' है कोई भय ? है कोई मानव-जन्म की कीमत ? अनेकानेक भव्य सुकृत-सत्कार्य करने के लिये समर्थ मानव जन्म को लोभ में गंवा बैठता है। (७) लोभ बुरा है, महा कर्मादान के महा-पाप के धंधे कराता है, जीवों के प्रति निर्दय बनाता है। आज हिंसक धंधे कितने बढ़ गये हैं ? श्रावक ऐसे हिंसक धंधे करता है ? परन्तु लोभ में वह अपने श्रावकत्व को भूला बैठता है। पेथडशा ने लोभ को परखकर सुवर्ण-सिद्धि को भी छोड़ दिया : पेथडशा को कहीं से सुवर्णरस सिद्ध करने का नुस्खा मिल जाने से लोभ जगा । पेथड़ आबू पर गया। वहाँ कई प्रकार की वनस्पतियाँ उगती थीं। पेथड़ ने आबू के जंगलों में घूमफिरकर कई प्रकार की वनस्पतियाँ तोड़-तोड़कर उनके रस निकाले । रस निकालकर, उनका संयोजन कर-करके सुवर्णरस बनाने का प्रयत्न शुरु कर दिया। सुवर्णरस बनाना कोई मामूली बात थोड़े ही है ? रसशास्त्र में कहे हुए लक्षणोंवाली वनस्पतियाँ बराबर ही मिलें, ऐसा नियम नहीं। अंदाज से सोचा हो कि ऐसे ही लक्षणवाली है, परन्तु वह वनस्पति ऐसी न भी हो, ऐसा हो सकता है। पहले का कोई अनुभव न हो, लिखे हुए अक्षरों पर से जानकारी मिले और कुदरत के सर्जन में ऐसी ही मिलती-जुलती वनस्पतियाँ मिलती हों, जिससे अंदाज लगाकर आजमाइश करने के लिये कई हरी वनस्पतियों का नाश किया जाता है। पेथडशा को सुवर्ण रस सिद्ध करने के लिये ढेर सारी वनस्पतियों की विराधना करनी पड़ी । इसमें कई वनस्पतियाँ तो व्यर्थ गयीं । इस प्रकार करते-करते अन्त में सुवर्णरस सिद्ध हुआ। पुण्यशाली है न ? इसीलिये ऐसी महान सिद्धि हुई न? करोड़ों रुपये बनाने का उपाय हाथ में आया। अब कितना आनन्द होगा? हृदय कितना आनंदविभोर होगा? परन्तु इसके बाद पेथडशा आबू के जिनमन्दिर में जाते हैं। वीतराग प्रभु के दर्शन करते हुए उसका हृदय द्रवित हो उठा । वनस्पतिकाय जीवों की इतनी विराधना करने का अत्यन्त पश्चाताप होता है। प्रभु के आगे रोते हुए कहते हैं - (सवर्णसिद्धि होने पर भी पेथडशा का पश्चाताप : 'प्रभु । यह मैंने लोभ में आकर क्या किया? खुद-खुद के स्थान पर उगकर आनंद से रहनेवाले वनस्पतिकाय के कितने जीवों का मैंने संहार कर दिया ! उन्हें तोड़ा, छेदन किया, पीसा, घोटा । इसमें कहाँ रही दया की परिणति ? कहाँ रहा मेरा श्रावक-धर्म ? पेट भरने का तो प्रश्न था ही नहीं। पिटारा भरने की मन की भूख मिटाने के लिये इतने जीवों का संहार? इसमें मेरा श्रावक का कोमल दिल कहाँ रहा? मन की भूख कभी मिटती भी है ? हाय ! इन निर्दोष जीवों का संहार करके कितने पाप बांधे? परभव में मेरी कौन-सी Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गति होगी? इस तरह से धन हासिल करके खुश होऊ,तो जीवसंहार की वारंवार अनुमोदना होने से दया का अंश भी कहाँ से रहेगा? इस अनुमोदना के चालु रहने से नये-नये पापकर्मों का थोक भी कितना इकठ्ठा होता जायेगा ! धन की ममता भी कितनी बढ़ेगी? धिक्कार है मेरे लोभ को ! धिक्कार है मुझ जैसे लालची को ! प्रभु ! इतना ऊंचा मनुष्य भव, जैन धर्म व श्रावकत्व पाकर यह मैंने क्या किया? इतने ऊंचे संयोग मिलने पर भी हृदय को निर्दय व धीठ बनाने के बाद कितने पापी भवों की परंपरा ! इन भवों में धर्म तो हृदय में बसे ही कैसे? फिर ऐसे क्रूर पाप-भरे जीवन जीना? नाथ! तू और तेरा शासन पाने पर भी यह लोभ व यह निर्दयता करने में मैंने तेरी व तेरे शासन की कितनी अवगणना की? कितना बड़ा अपराध मैंने किया है ?' पेथडशा को पाप का जबरदस्त पछतावा होता है। प्रभु के आगे अश्रू की धारा बहा रहे हैं । यह पश्चाताप अन्तर की गहराई से किया था, इसीलिये अब इस पाप, लोभ व निर्दयता को बन्द करने का निश्चय करते हैं, प्रतिज्ञा करते हैं कि 'अब मुझे यह सुवर्णरस नहीं चाहिये।' पेथडशा ने पाप के पश्चाताप में क्या-क्या देखा ?) (१) यदि पुण्य होगा, तो धन तो दूसरे सद्-उपायों से भी मिल जाएगा। (२) ऐसे अनिच्छनीय उपाय में तो धन के लोभ की कोई हद नहीं रहेगी, जिससे मन की भूख बढ़ती जायेगी। (३) अति लोभ सर्व गुणों का नाश करेगा। (४) लोभ से दूसरे सैकड़ों पाप-कृत्य पैदा होंगे। (५) बेशुमार वनस्पति के संहार में उन जीवों के प्रति निर्दयता का पोषण किया। (६) ऐसी निर्दयता में श्रावकत्व का दयालु दिल गंवा दिया। (७) ऐसे धन-लाभ में जब-जब खुश हुआ, वैभव की रक्षा व उपभोग किया, तबतब जीव-संहार की अनुमोदना से नये-नये पाप-कर्मों का बन्ध किया व निर्दयता के कुसंस्कारों की वृद्धि की। (८) यह सब करने में वीतराग प्रभु व उनके शासन की अवगणना की, बेवफाई की। (९) भावी अधम भवों की परंपरा का सर्जन किया, निर्दयता की परंपरा बढ़ायी व जैनधर्म की अप्राप्ति को निमंत्रण दिया। ___ (१०) ऐसे असद् उपाय से पैसे मिले, वहाँ पापानुबंधी पुण्य ही होगा म? इससे सिर्फ पुण्य बेचकर पाप खरीदने का काम किया। पेथडशा ने ऐसे कई अनर्थ देखे । इन सब अनर्थों का मूल है - 'लोभ'। ऐसे अनर्थों को दूर करने के लिए पेथडशा को एक ही उपाय दिखा व प्रतिज्ञा की कि ऐसा Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवर्णरस मुझे नहीं चाहिये। (लोभ महा भयंकर : लोभ से अग्नि-प्रवेश : धर्मनंदन आचार्य महाराज कहते हैं, 'लोभवश जीव पतंग की तरह अग्नि में भी प्रवेश करता है और मछली की तरह समुद्र में भी प्रवेश करता है।' लालची लोग जहाज लेकर समुद्र में सफर करते हैं । लोभवश कई इन्सान जान की बाजी लगाकर रत्न लाने के लिये समुद्र में डूबकी लगाते हैं । लोभ ऐसा तो कितना कुछ करने को इन्सान को मजबूर करता है। इसीलिये मुनि लोभ से बचने के लिये चारित्र लेकर एकान्त अनर्थकारी लोभ के अंश को भी मन में घुसने नहीं देता । चारित्र पालना है न? चारित्र अर्थात् सर्वत्याग, इसका पालन करना हो, तो थोड़ा भी लोभ-राग-ममता कैसे रखा जाय? इन्हें मन में कैसे प्रवेश करने दिया जाय? धर्मनंदन आचार्य महाराज राजा से कहते हैं - 'लोभ तो द्रव्य का भी नाश कराता है और मित्र का भी घात कराता है, दुःख में गिराता है। इसीका यह जीता-जागता द्रष्टान्त है।' राजा पूछता है - 'प्रभु ! कौन है वह मनुष्य?' आचार्य महाराज ने कहा - 'यह तेरे पीछे व वासवमंत्री की बायीं और बैठा है न? वह अति दुर्बल कायावाला लोभदेव ।' JAMONOMIRROWANORAMAYA लोभदेव का द्रष्टान्त राजा ने उसका वृत्तान्त पूछा, तब आचार्य महाराज फरमाते हैं : इस जंबूद्वीप में भरत क्षेत्र में बीच में वैताढ्य पर्वत है । उसके दक्षिण भाग में मध्यरवंड़ में उत्तरापथ देश है। इसमें तक्षशिला नामक नगरी है। ऋषभदेव भगवान के समवसरण से पवित्र बनी हुई इस नगरी में कोई कायर, लालची, दुष्ट, मूर्ख, ईर्ष्यालु नहीं दिखता। नगरी गंभीर और बाहर से किसीको अन्दर घुसने के लिये मजबूत होने से सज्जन जैसी है। सज्जन के दिल गंभीर होते हैं और दूसरों के रहस्य उसके पेट में इस तरह से उतरे होते हैं कि कोई उसमें उतरकर उन रहस्यों को पा नहीं सकता। ऐसी इस नगरी के नैऋत्य कोने में उच्चस्थल नामक गांव है। उसमें यह धनदेव एक सार्थवाह-पुत्र के रुप में जन्मा था। बड़ा होने पर वह बहुत लोभी, मायावी, असत्यप्रेमी व परद्रव्य हरण करनेवाला चोर बन गया। उसके लोभ को देखकर गांव के युवकों ने उसका नाम लोभदेव रखा। देखिये तो सही ! बड़े सेठ का पुत्र है, पिता, अच्छे हैं, फिर भी पुत्र ऐसा लालची है और लालच के साथ ही माया-झूठ-चोरी के पाप भी करता है। आप पूछेगे कि... प्र. - आम में से आम व बबुल में से कांटे उगते हैं, तो यहाँ अच्छे पिता का पुत्र बुरा कैसे पका? Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. - उसी आम में से फीके पत्ते व उसी बबुल में से अच्छा गोंद व दांत साफ करने का दातुन भी तो पकता है न ? जिस तालाब में कमल खिलता है, उसी तालाब में कीड़े भी पैदा होते हैं न? तो अच्छे में से अच्छा ही पैदा हो, यह नियम कहाँ रहा ? (असमानता क्यों ? वास्तव में देखा जाय, तो आम में से आम यह तो एक प्रकार का समान शरीर हैं। इसी प्रकार यहाँ भी पिता के मानव शरीर में से मानव शरीर के रुप में समान तो पुत्र जन्मा ही है, अर्थात् आम की तरह मनुष्य के रुप में समान उत्पत्ति तो हुई ही है। अब जो विषमता है, असमानता है, वह तो गुणों की है और वे गुण शरीर के नहीं, परन्तु आत्मा के हैं । पुत्र की आत्मा और आत्मा के वे गुण पिता की आत्मा या शरीर में से उत्पन्न नहीं होते, जिससे समान ही उत्पन्न होने का प्रसंग आये । बेचारा लोभदेव पूर्व जन्म से ऐसी पूंजी लेकर आया है कि पिता अच्छा व सद्गुणी होने पर भी वह स्वयं लालची, मायावी, झूठा व चोर बना है। लोभ महा डाकू है। एक लोभ दूसरे कितने सारे पापों का पोषण करता है ! दिल में लोभ को प्रवेश दिया, तो समझ ही रखिये कि कई अधम पापों, चिंताओ, अनर्थो व आपत्तियों को आमंत्रण दिया ! कोणिक को राज्य का लोभ जगा, तो पिता श्रेणिक राजा के साथ कपट करके उन्हें कैद में डाला। बाद में उसे हल्ल-विहल के पास रहे हुए कुंडल व सेचनक हाथी का लोभ जगा और हल्ल - विल्ल ये चीजें न देकर चेडा महाराजा की शरण में गये । तब कोणिक ने चेडा महाराजा के साथ भयंकर युद्ध किया । कौन हैं चेडा राजा ? कोणिक के नानाजी ! कोणिक की माता चेलणा के पिताजी ! उनके साथ घोर हिंसामय युद्ध किया। लोभ कौनसा अधम कृत्य नहीं करवाता ? I धनदेव लोभ से डरा : जीव लोभ से ही बनता है । इसीलिये तो पूर्वकाल में समझदार धर्मी जीव इस लोभ- चंडाल का स्पर्श तक नहीं करते थे । पूजा की ढाल में यह पंक्ति आती है न ? धनदेव धरी धनमान, चित्रावेलीने परिहरी रे', " इस धनदेव श्रावक के घर के चौक में पक्षी ने आकाश में से चित्रावेली नामक वनस्पति फेंकी । इस चित्रावेली का ऐसा प्रभाव होता है कि इसकी इंडुरी (इंढोणी) पर घी का घीयांडा (घी का बर्तन) रखकर उसमें से घी खाली किया जाय, तो घी के होज़ भर जायेंगे, परन्तु उसमें से घी खाली नहीं होगा। धनदेव उस वनस्पति को पहचानता है, परन्तु वह लोभ से घबरा गया कि 'इसका लोभ दिल में घुसाने से जीवन में पाप बढ़ जायेंगे तो ? पहला तो परिग्रह-परिमाण का व्रत टूटेगा और फिर दूसरे पापों व अनर्थों की फौज उतर पड़ी तो ?' इसीलिये उसने चित्रावेली के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। किसी और के हाथ में, १३७ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आने पर उसके जीवन में कंहीं अनर्थ न कर दे, इस आशय से पूरी तरह से उसे नष्ट कर दिया । किसीको ऐसी चीज का दान भी नहीं। ऐसी भारी वस्तु पचानेवाले कहां से लाये जायें ? इससे पहले यही धनदेव एक बार नदी के किनारे के पास से गुजर रहा था, वहां एक गिरिखंड़ टूट पड़ा, वहां एक कोटर में रत्न का चरु गड़ा हुआ देखा। धनदेव लोभ से घबरा उठा, 'शायद यहाँ खड़ा रहुं और लोभ जगा तो ?' वह वहाँ से चल पड़ा। घर आकर शाम को श्राविका से बात की कि मैंने तो इस तरह रत्न का चरु देखा, परन्तु वह लाऊं, तो परिग्रह परिमाण व्रत तो टूटे ही, इसके लोभ के पीछे कई पाप, संताप व अनर्थों का पार न रहे । इसीलिये ऐसे ही रखकर जल्दी आ गया । श्राविका भी कैसी पापभीरु होगी कि उसने पति की त्याग की बात का समर्थन किया । 'आपने वह न लाकर बहुत अच्छा किया ।' श्रावक-श्राविका लोभ से न डरे, तो और कौन डरेगा ? मानव भव में से भव-परंपरा का सर्जन न करना हो, तो लोभ से घबराते रहना पडता है । मानव भव में जिन की आज्ञा को अपना मुख्य धन व मुख्य स्वामी बनाना हो, तो बाह्य लोभ से डरते रहना पड़ता है । यदि धन या मान-सन्मान का लोभ आ गया, तो स्वयं के मन में जिनाज्ञा सर्वस्व नहीं लगेगी और ऐसे आचरण होंगे कि जिनसे भव-परंपरा बढ़ जाय । अन्दर घुसा हुआ लोभ ऐसा बुलवायेगा व मनवायेगा कि 'प्रभु की आज्ञा तो ठीक, परन्तु यहाँ लोक के बीच जीना है या मर जाना है ? अच्छा मान मिले, पैसे मिले, खाने का मिले, तो जीना सफल है। नहीं तो जीते हुए भी मृत जैसे हैं'। बस, लोभ के इस हिसाब में न्याय-नीति, अच्छाबुरा, भक्ष्य - अभक्ष्य, पेय-अपेय, किसीका विचार नहीं आता। जिनाज्ञा की कोई परवाह या विचार किये बिना झूठ - अनीति, माया-विश्वासघात, अभक्ष्य भक्षण, अगम्य गमन आदि खुशी से करेगा। जीवन में लोभ को प्रधानता देने पर जिनाज्ञा गौण बन जाती है । जिसको पैसे ही प्राण लगें, मान-सन्मान प्राण लगें, वे भला जिनाज्ञा को प्राण मानेंगे ? उन्हें इसी बात का भान नहीं कि 'धन-सन्मान - खानपान - रंगराग को तो अनन्त बार प्राण माना, जिनाज्ञा को प्राण बनाने का यह अति दुर्लभ अवसर यहाँ मिला है। यह अवसर खोकर मरने के बाद फिर से कहाँ मिलनेवाला है ? जिनाज्ञा को प्राण माने बिना सम्यक्त्व नहीं पाया जा सकता। फिर ऊपर के धर्म की तो बात ही क्या ? जिनाज्ञा को जीवन - सर्वस्व मानना हो, तो लोभ - डाकू को हृदय में घुसने मत देना । नहीं तो यह लोभ यह हाल बनायेगा कि आप भान भूला बैठेंगे 1 देखिये, लोभदेव लोभ के कारण जिस प्रकार भान भूला बैठा है और कैसे भयंकर १३८ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापाचरण व अनर्थ में उतरता है। एक बार उसे विचार आया कि मैं अच्छे घोड़े लेकर परदेश जाऊँ, वहाँ उन्हें ऊंचे दाम में बेचकर नफा कमाऊँ। वहां से कोई अच्छा सस्ता माल लेकर यहां ऊंचे दाम में बेचुं, जिससे जोरदार कमाई हो ! बाद में थोड़ा दान दूं, जिससे सर्वत्र मेरा नाम हो जाय। लोभदेव की परदेश जाने की तैयारी : इस तरह विचार करके पिता को स्वयं का विचार बताया, तब पिताने कहा - 'भाई ! यहाँ अपना व्यवसाय चालु है, वही तू संभाल और मनचाहा दान दे। परदेश जाने का साहस क्यों करता है?' लोभदेव कहता है, 'देखिये पिताजी ! आप-कमाई के बिना इन्सान की कोई कीमत नहीं । दान भी आप-कमाई में से दिया जाय, तो महालाभदायी बनता है। पिता के धन से दान दिया जाय, तो उसकी क्या कीमत ? इन्सान परदेश जाकर अकेला विचरण करे, तभी कुछ सीख सकता है ! साहस किये बिना सत्त्व भी कहां से खिलेगा? और महान सिद्धियाँ भी कहां से हासिल होंगी? इसीलिये कृपया मुझे परदेश जाने की व्यवस्था कर दीजिये, यह मेरी आपसे विनंती है। लोभदेव के पिता ने देखा कि पुत्र को परदेश जाकर स्वयं व्यापार के लिये पराक्रम । करने का उत्साह है, तो अब इसका उत्साह तोड़ना ठीक नहीं । इस पराक्रम से इसे जीवन में नये अनुभव मिलेंगे और नया तेज आयेगा । इसीलिये उसने पुत्र को सम्मति दी ! घोड़े, नौकर-चाकर, वाहन, साधन-सामग्री तैयार करके दी ! शुभ मुहूर्त में जब रवाना होने का वक्त हुआ, तब लोभदेवने स्वजनों से बिदा मांगी, वडिलों को नमस्कार किया और पिता के चरणों में गिरकर आशीष मांगी। परदेश जाते हुए पुत्र को पिता की सीख : 'देख वत्स ! परदेश का पंथ विषम होता है, वहाँ पर यहाँ जैसी सब सुविधायें नहीं मिलतीं । अपरिचित लोग मिलते हैं। उन्हें दयालु मत समझना, वे निष्ठुर होते हैं। दुनिया में सज्जन बहुत कम होते हैं, दुर्जन ज्यादा होते हैं। इसीलिये ऐसे लोगों के साथ व्यवहार में . एकांत मार्ग नहीं रखना चाहिये । हमेशा के लिये सज्जन, दयालु, शर्मिला, दानवीर, नम्र बनकर नहीं रहना चाहिये । इससे तो लोग हमारा गैरफायदा उठाते हैं और हमें मुसीबत में गिरना पड़ता है। इसीलिये विविध प्रकार के लोगों के साथ व्यवहार करते हुए अनेकान्त मार्ग अपनाना चाहिये । जैसे कि कभी समझदारी दिखानी, तो कभी मूर्खता-अज्ञानता दिखानी ! कभी सज्जन बनना, तो कभी दुर्जन बनना ! कभी दयालु बनना, तो कभी निष्ठर बनना ! कभी उदार दानेश्वरी बनना, तो कभी कृपण । कभी साहसी बनना, तो कभी कायर ! कहने का तात्पर्य यही है कि सज्जनता-दुर्जनता मिश्रित आचरण रखकर काम Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना । सामने कैसे संयोग हैं, कैसे लोग हैं, यह परखकर योग्य बर्ताव करना । परदेश जाते हुए लोभदेव को पिता कहते हैं - 'कभी तो लाज-शरम रखना, परन्तु हमेशा शर्म में दबकर मत रहना !' 'कई प्रकार के लोग मिलेंगे । अवसर पहचानकर कभी अच्छा दयालु, दानी व परोपकारी बनना, तो कभी निष्ठुर, कृपण, स्वार्थतत्पर रहना।' पिता की यह सीख भी पुत्र को व्यवहार में कुशल रखने के लिये है। जीवन में स्याद्वाद: प्र. - क्या निष्ठुरता, कृपणता, स्वार्थतत्परता अच्छी है ? उ. - हां, सापेक्षवाद है। संयोग व समय पर निर्भर है। हालांकि अन्तर में मैत्री, करुणा जीवंत रखनी पड़ती है, परन्तु ऐसे संयोग या ऐसे वक्त पर निष्ठुरता भी बतानी पड़ती है। सांसारिक जीवन में ऐसे दुष्ट व्यक्ति के संपर्क में आना पड़ा और वह दुष्ट लुच्चाई से हमें निचोने के लिये बनावटी रुप से गिड़गिड़ाकर पैसे आदि मांगता हो, तो वहाँ दया नहीं की जाती । की जाय तो सब कुछ गंवाकर असमाधि मोल लेनी पड़ती है। ऐसे के सामने तो निष्ठुरता ही बतानी पड़ती है। कोई लुच्चा-लफंगा सती स्त्री से बुरी नीयत रखकर दया की भीख मांगता हो, अथवा ऐसा भी कहता हो कि 'तू नहीं मानेगी, तो मेरी मौत होगी', इसलिये दया कर।' ऐसे वक्त में सती स्त्री क्या करे? पहले तो उसे समझाये, भरसक प्रयत्न करने पर भी न समझे, तो दया न रखे, किन्तु निष्ठुर ही बने ! रावण ने महासती सीता के आगे बहुत आजीजी की, उसकी मंदोदरी आदि रानियोंने भी विनंति की, फिर भी सीताजी ने उन्हें निष्ठुर शब्दों में दुत्कार दिया; तो शील की रक्षा हुई। इसी प्रकार संयोग देखकर कभी कृपणता भी रखनी पड़ती है। किसी अवसर पर कोई हमें चढ़ाकर दान में अच्छी रकम देने को कहे, परन्तु हमारे ऐसे संयोग या परिस्थिति न हो, तो देने में कृपणता भी रखनी पड़ती है। नहीं तो कर्ज के भार में दबना पड़ता है। ऐसा मानिये कि धन का संयोग तो हो, परन्तु उडाऊ लोग फिजूल खर्ज करने को मजबूर करते हों, तो भी भविष्य का विचार करते हुए कृपणता दिखानी पड़ती है। इस प्रकार जीवन में बहुत स्याद्वाद-सापेक्षवाद जिया जाता है। - स्वार्थपरता में भी ऐसा ही हैं। व्यापार के समय कोई गप्पबाज आकर गप्पे मारने लगे, तो उसे अच्छा लगाने के लिये उसके साथ बातों में दिलचस्पी नहीं रखी जाती । उस वक्त तो स्वयं का आजीविका का स्वार्थ ही लक्ष्य में रखना पड़ता है। आप जीवन में गहराई से देखेंगे, तो नजर आयेगा कि कुछ अवसरों पर दया, करुणा रखी जाती है, तो कुछ प्रसंगो पर निष्ठुरता भी रखी जाती है। इसी प्रकार उदारता के प्रसंगों पर उदारता रखी जाती है, और कभी अवसर आने पर कृपणता भी रखनी पडती है। इसी प्रकार परार्थ-परायण होने पर भी कभी ऐसा अवसर उपस्थित होने पर Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वार्थ भी देखना पड़ता है। इस प्रकार अनेकान्त भरा जीवन जीया जाता है, एकान्त द्रष्टि का नहीं । संयोग, समय, परिस्थिति, स्थान व सामनेवाला व्यक्ति कैसा है, यह सब नजर में रखना पड़ता है। ___ इस प्रकार अनेकान्त द्रष्टि का जीवन जीने के पीछे कारण एक ही है कि एकान्त दया, उदारता, परार्थपरता रखने से चित्त को बाद में खेद-संक्लेश-असमाधि न हो, आर्तध्यान न हो। आप शायद पूछेगे कि... प्र. - परन्तु भाग्य पर भरोसा रखा जाय, तो क्या हर्ज है? उ. - समझने की बात यह है कि कुछ भाग्य ऐसे होते हैं कि जो द्रव्य-क्षेत्र-कालभाव का अनुसरण करते हैं। यदि अनुचित द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव का सेवन किया जाय, तो अच्छा भाग्य दब जाता है और दुर्भाग्य बन कर उदय में आता है। उदाहरण के लिये :सीढियाँ सीधी उतरने के बदले ऊपर से छलांग मारे, तो हड्डी-पसली टूट जाय । कमजोर शरीर से ज्यादा श्रम ले, ठंडकवाली जगह में सोये, विषयांध बने, इससे कमजोर भाग्य उदय में आता है और बीमार पड़ता है। व्यापार भी संभालकर, समझदारी के साथ करे, तब तो गाड़ी ठीक-ठीक चलती है, परन्तु उसमें ध्यान न रखे, तो दुर्भाग्य अपना जोर आजमाता है। कहते हैं न कि 'लंबे के साथ ठिगना जाय, तो न मरे तो बीमार पड़े । इसीलिये तो शास्त्रों में दानादि धर्म भी यथाशक्ति करने का कहा है। 'यथाशक्ति' अर्थात् शक्ति छुपाकर नहीं, किन्तु अपने सामर्थ्य से भी अधिक नहीं । शक्ति, सत्त्व, वीर्योल्लास न हो और बड़ा दान करने जाय, शीलव्रत या तप की प्रतिज्ञा ले, तो बाद में प्रतिज्ञा भंग - दुर्ध्यान - असमाधि आकर उपस्थित रहती है। परदेश जाते हुए लोभदेव को पिता ने अच्छी सीख दी। इसमें मुख्य बात एक ही थी - अनेकान्तमय बर्ताव रखना। द्रव्य और भाव स्याद्वाद : यह अनेकान्त पैसे-टके, शरीर, मन आदि ठीक-ठीक चले, इस द्रष्टि का होने से द्रव्य अनेकान्त है। जबकि भाव-अनेकान्त आत्मा की द्रष्टि का है । आत्मा किस प्रकार स्वस्थ रहे, राग-द्वेष आदि विषमता व हर्ष-खेद आदि असमाधि में न पड़े, शक्य पापस्थानक से बचे, अनौचित्य-क्षुद्रता-दीनता-असहिष्णुता आदि दोषों तथा इन्द्रियों के वश न बने, तत्त्वद्रष्टि सतत जागती रहे। इस द्रष्टि से जीवन में अनेकान्त जीया जाय, अनेकांत भरे वाणी-विचार-बर्ताव रखे जाय, यह भाव-अनेकान्त है। वहाँ पर कोई उपद्रव करने आया, तो उसके प्रति क्षमा व स्वयं में उठनेवाले गुस्से के प्रति गुस्सा रखना पड़ता है... इस पर बहुत कुछ विचार किया जा सकता है। अस्तु । लोभदेव परदेश जाता है :पिता की हितशिक्षा सुनकर लोभदेव सर-आंखों चढ़ाता है ; पांवों में गिरकर नमस्कार Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करके कहता है, 'आपने बहुत अनमोल शिक्षा देकर मुझ पर बहुत उपकार किया है। मैं इसे बराबर ध्यान में रखुंगा।' इतना कहकर लोभदेव घोड़े आदि लेकर परदेश की ओर रवाना 1 हुआ प्रवास करते-करते वह सोपारक नगर पहुंचा । वहाँ उसने छान-बीन की कि 'इस नगर में कौन ईमानदार, पुराना सेठ है, जिससे मैं ठगा न जाऊँ ।' कोई नया-नया सेठ बना हो, तो संभव है कि लालच में पड़कर वह किसीको ठगे । पुराना सेठ होने पर भी ईमानदार न हो, तो भी दगा होने की संभावना रहती है। इसीलिये पुराने, ईमानदार सेठ को छान-बीन की, तो एक भद्र नामक सेठ ऐसा मिला। लोभदेव भद्र सेठ के वहाँ गया । स्वयं का परिचय दिया और कहा 'मैं यहाँ व्यापार करुंगा, उसमें तुम्हें दलाली दुंगा। मुझे तुम्हारे यहाँ थोड़े दिन रुकना है।' भद्र सेठ ने एक समृद्ध, अच्छा व्यापारी जानकर उसका सत्कार किया और अपने घर में ही ठहराया । वहाँ रहकर लोभदेव ने ऊंचे दाम में घोड़े बेचे । कमाई अच्छी हुई । 'अब यहाँ से कौन-सा माल लेकर स्वदेश में लौटुं, जिससे वहाँ इससे अच्छा नफा कमाया जा सके।' इस विचार में है, वहाँ एक घटना घटी, जिसमें लालच के कारण उसका विचार पलट गया और अनजान में पतन के मार्ग की ओर मुड़ गया । इस संसार में ऐसी विविध प्रकार की घटनायें घटती हैं कि जिनसे इन्सान लोभ आदि के अधीन बनकर पतन के मार्ग की ओर घसीटा जाता है । इसीलिये ऐसे अवसरों पर सावधान बनना जरुरी है । अवसर आने पर जो सावधान न बना, वह डूबा ही समझो। आत्मा में काम- -क्रोधलोभ आदि अनादि काल से अड्डा जमाकर बैठे हैं। जीव को इनका अभ्यास अनन्त काल से है । इसीलिये तो ज्यों ही निमित्त मिला, वे हृदय में खलबली मचाने लगते हैं। फिर वहाँ कौन बचे? (१) तो ऐसे प्रसंग में आये ही नहीं, और (२) यदि आना भी पड़ा हो, तो तुरन्त सावधान हो जाय व काम-क्रोध-लोभ आदि को उठते ही रोक दे, वही भाग्यशाली बच सकता है। हुआ ऐसा कि उस नगर में एक ऐसा रिवाज है कि " जो भी व्यापारी बाहर जाकर बड़ा व्यापार करके कमाई करके आये, अथवा बाहर से माल लाकर यहाँ अच्छी कमाई करे, वे सब इकठ्ठे होकर सभा में अपने-अपने अनुभव सुनायें, किस माल के व्यापार में कैसी कमाई हुई, यह कहे, जिससे दूसरे को उस उस दिशा में हुए कड़वे-मीठे अनुभव के बारे में पता चले ।" ऐसे रिवाज के कारण वहाँ एक सभा आयोजित हुई । भद्रसेठ के साथ लोभदेव भी उसमें गया । इस सभा में सब व्यापारी अपने-अपने अनुभव सुनाने लगे। उसमें एक व्यापारी बोला-- 'देखो भाईयों ! मैं छोटे घोड़े लेकर कोशल देश में गया था । वे घोड़े वहाँ बेचकर १४२ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहाँ से मैं बड़े घोडे व उनके छोटे बच्चे लेकर यहाँ आया और यहाँ बेचने से मुझे अच्छा लाभ हुआ।' दूसरे व्यापारी ने यहाँ से सुपारी लेकर उत्तरापथ में जाकर बेची व वहाँ से घोड़े खरीदकर यहाँ बेचकर नफा कमाया, यह अनुभव प्रस्तुत किया । दूसरे एक व्यापारी ने कहा 'मैं यहाँ से मोती लेकर पूर्व देश में गया । वहाँ उन्हें अच्छे दाम से बेचकर वहाँ से चामर खरीदकर यहाँ बेचे व अच्छी कमाई की।' तो अन्य व्यापारी ने द्वारिका जाकर वहाँ से शंख लाकर मुनाफा कमाने की बात की। एक व्यापारी ने बताया- 'मैंने यहाँ से कपड़ा खरीदकर बब्बर द्वीप में जाकर बेचा व वहाँ से मोती लाकर यहाँ बेचकर अच्छा लाभ पाया ।' दूसरे एक व्यापारी ने सुवर्णद्वीप में यहाँ से पलाश - पुष्प ले जाकर बेचकर वहाँ से सोना लाकर व्यापार में अच्छा कमाने का अनुभव कहा, तो एक व्यापारी ने भैंसे महा चीन देशमें बेचकर वहाँ से वस्त्र लाकर व्यापार में अच्छा कमाने की बात की। किसी अन्य व्यापारी ने कहा 'मैं स्त्रिया राज्य में यहाँ से पुरुष ले उनके बदले में उनके वजन के बराबर सोना तुलवाकर लाया ।' तो एक बोला- 'अरे! ऐसा व्यापार किस काम का ? मैं तो यहाँ से नीम के पत्ते लेकर रत्नद्वीप गया और वहाँ से उनके वजन के बराबर रत्न तोलकर लाया व भारी मुनाफा कमाया।' गया, (रत्नद्वीप में कमाई जोरदार, परन्तु जाना कठिन : यह सुनकर अन्य व्यापारी कहने लगे - 'भाई ! सचमुच यह तो सुन्दर व्यापार है कि नीम के पत्तों के बदले में रत्न मिले ! ऐसा व्यापार हाथ में आ जाय, फिर किसी अन्य व्यापार की आवश्यकता ही क्या ?' तब इस व्यापारी ने कहा- 'भाई ! व्यापार अच्छा तो उसे लगे, जिसे अपने प्राण प्यारे न हों। क्योंकि समुद्र लांघना मुश्किल है। दूर- सुदूर रत्रद्वीप तक जाने में महासागर के बड़े-बड़े मगरमच्छ, महामत्स्य, सूंसुमार आदि महाकाय जलचर प्राणियों का भय है, तो प्रचंड तूफान, आंधी आदि का भी भय है। इन सबको पार करते हुए ठेठ रत्नद्वीप जाना व इन भयों के बीच में से सही-सलामत यहाँ वापिस लौटना, इसमें जान का पूरा खतरा है।' यह सुनकर सब बोले - 'भाई ! तब तो रत्नद्वीप जाना बहुत ही मुश्किल है । परन्तु दुःख के बिना सुख कहाँ ?' लोभदेव द्वारा मित्र को रत्नद्वीप जाने की प्रेरणा : यह बात लोभदेव के मन में बराबर जंच गयी कि 'कष्ट के बिना सुख नहीं, और यदि रत्नद्वीप का कष्ट उठाया जाय, तो लाभ का पार नहीं ।' व्यापारियों की सभा बर्खास्त हुई । घर आकर लोभदेव ने भद्र सेठ से कहा 'मित्र ! स्त्रद्वीप के लाभ के बारे में तुमने सुना न ? तो फिर रत्नद्वीप जाने का उद्यम क्यों न किया जाय ?' - १४३ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्र सेठ एक विचारक आत्मा है। वे लोभदेव से कहते हैं - 'भाई! अर्थ व काम ऐसी चीज है कि इनके जितने मनोरथ किये जायें, उतने संकल्प-विकल्प उठते हैं। ऐसे मनोरथ किये ही क्यों जायें ? यहाँ आकर तूने अच्छी कमाई की है, तो अब स्वदेश में जाकर अच्छा दान दे, स्नेही वर्ग को संतोष दे। इतना सारा कमाने के बाद अब लोभ क्यों करता है?' __ लोभदेव कहता है, 'भाई ! आलसी व्यक्ति बैठा रहे, तो अपार लक्ष्मी भी कम हो जाती है ; अन्त में तिजोरी का तल ही दिखने लगता है। उद्यम व साहस करते रहें, तो लक्ष्मी टिकती है। ऐसा कहा जाता है कि लक्ष्मी सदा विष्णु के संग रहती है, फिर भी यदि विष्णु आलसी बने, तो लक्ष्मी उसे भी छोड़ देती है। जिस प्रकार स्त्री डरपोक व निरुद्यमी पति पर नाराज होती है, उसी प्रकार लक्ष्मी भी ऐसे व्यक्ति पर प्रसन्न नहीं रहती। इसीलिये चलो, हम रत्नद्वीप चलें।' ___ 'बंध ! चाहे जितना साहस व उद्यम करें, पाताल में उतर जायें, परन्तु नसीब में जितना हो, उससे अधिक कुछ नहीं मिलता । देख, मैं सात बार समुद्र में उतरा, प्रवास किये, परन्तु भाग्य से अधिक कुछ न मिला। इसीलिये अब लोभ छोड़ दे।' लोभदेव को लोभ ऐसा जगा है कि इतना समझाने पर भी अन्तर की कुलबुलाहट नहीं मिटती। उसे तो रत्नद्वीप की कमाई ही नजर आ रही है, इसीलिये उसे तो अब रत्रद्वीप की और दौड़ना है। बेचारा यह नहीं जानता कि 'लंबू के साथ दौड़ने जाय, वह मरे नहीं, तो बीमार हुए बिना नहीं रहता।' उस पर तो एक ही धून सवार हो गयी है कि मैं भी इस तरह क्यों नहीं कमा सकता? तब भद्र सेठ को कहता है कि, 'आपकी बातसही है कि आप सात बार समुद्री-सफर करके आये, फिर भी अधिक नहीं मिला । परन्तु क्या पता आठवीं बार में भाग्य लाभ देनेवाला हो, तो? इसीलिये भाग्य खुलने के लिए भी उद्यम चाहिये । घबराओ मत, अब तो मेरा भाग्य भी आपके साथ है न? तो चलो, रत्नद्वीप चलें।' . लोभदेव ने भद्र सेठ को लालच दिखाकर तैयार कर दिया। भद्रसेठ ने कहा - 'तो ठीक है। परन्तु मेरा नसीब कम है, इसलिये जहाज में मालिक तो तू ही बनना।' लोभदेव ने मंजूर किया। जहाज तैयार करके उसमें माल-असबाब भरा, अच्छे निमित्त देख, इष्टदेव की पूजा-भक्ति की, ब्राह्मणों को भोजन कराया, काष्ठ लिये, पानी के भाजन भरे और जहाज चलाया। उस वक्त वार्जित्र बजने लगे, शंख फूंके गये, मांगलिक किया गया, 'जय हो, जय हो', ऐसे आशीर्वाद दिये गये। पाल (सढ) में हवा भरी गयी और जहाज चल पड़ा महासागर में। सागर में जहाज चला जा रहा है। लोभदेव के लोभमूढ़ मन में विचार आता है कि 'वाह ! लाभ तो जोरदार होगा। चलो, मैंने जो सोचा था, वह हो गया । रत्नद्वीप पहुँचकर व्यापार करने से अच्छी कमाई हुई। वापस सोपारक नगर आते समय लोभदेव को विचार आया कि कमाई तो बहुत हुई Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है परन्तु यह भद्रसेठ भागीदार बनकर आधा हिस्सा ले लेगा, यह तो ठीक नहीं । इतनी सारी लाखों की संपत्ति जाने कैसे दे दं? यहाँ सागर के बीच तो ठीक मौका है। यदि उसे चाहे जिस तरीके से समुद्र में गिरा दूं, तो इस सारे धन का मालिक मैं अकेला ही बन जाऊं' । कैसी अधम विचारधारा ? इसका कारण है - लोभ । । लोभ की आज्ञा में रहनेवाले पामर जीव खराब आचरण तो फिर भी कम करते होंगे, परन्तु खराब विचार तो ढेर सारे करते हैं । इसीसे भारी पापसंस्कारों की विरासत जमा होती है। यह बात भूलने जैसी नहीं कि लोभ से प्रेरित होकर जितने पाप-विचार किये जाते हैं, उतने पाप-कर्म बंधते चले जाते हैं। साथ ही साथ पाप-संस्कार भी बढ़ते ही जाते हैं। इसीलिये भवान्तर में पापकर्म के फल के रुप में दुःख तो मिलेगा ही, परन्तु पाप संस्कारों की जो विरासत वहाँ ले गये, उसके फल स्वरुप पापी विचार-वर्तन व वाणी कैसे व कितने चलेंगे? इतने विचार से ही वह रुका नहीं। वह उठा व भद्रसेठ के पास जाकर कहने लगा, 'भाई ! अपना व्यापार तो काफी हो चुका । अब एकान्त में बैठकर थोड़ा हिसाबकिताब कर लें। कहाँ बैठेंगे?' __ भद्रसेठ सरल हृदयवाला है। वह कहता है - 'हाँ, चलो न! कहाँ बैठेंगे? लोभदेव कहता है - 'देखो, वह पांव धोने का झरोखा है न, वहाँ बैठेंगे?' भद्रसेठ को इसमें लोभदेव के कुटिल हृदय की कोई भनक न आयी । क्योंकि आज तक लोभदेव को पैसों का लोभ था, इसमें भद्रसेठ के सहयोग की जरुरत थी, इसीलिये उसके साथ सरलता से व्यवहार करता था। इसीलिये कपट की गंध कहाँ से आये ? परन्तु अब लोभदेव को पैसे मिल गये, खुद का काम हो गया, इसलिये अब तो भद्र सेठ के हिस्से के पैसों का भी लोभ जगा है, तो भला क्यों सरलता रखेगा? अपने हिस्से में भी कोई कम नहीं मिला है ? फिर भी मित्र के साथ धोखा ! सचमुच, लोभ भयंकर है। लोभ इन्सान को गुंडा बनाता है : भद्रसेठ सागर में .... लोभदेव द्वारा बिछाये गये जाल में भद्रसेठ फंस गया। ज्यों ही वह झरोखे पर बैठा, लोभदेव ने पीछे से धक्का दिया । भद्रसेठने कटहरे को कसकर नहीं पकड़ा था, इसलिये सीधा गिरा समुद्र में । देखिये लोभदेव की दुष्टता ! उसे बिल्कुल दया न आयी। उसने सेठ के प्रति कृतज्ञता भी न दर्शायी । अति निर्दय व कृतघ्न बनकर मित्र का विश्वासघात करके उसे समुद्र में गिराया। भला क्यों ? लोभ के कारण ! लोभ निर्दय बनाता है :(१) अच्छा खाने के लोभ में आज अनंत जीवमय आलू, प्याज आदि कंदमूल Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खाये जाते हैं न? कहाँ रही अनन्त जीवों की दया ? अब तो अंड़े भी खाये जाने लगे हैं। ईरानी होटलों में अब जैन भी जाने लगे हैं। कहाँ रही पंचेन्द्रिय जीवों की दया? जैन के रुप में जन्म लेने की क्या सार्थकता? एक मात्र जैनधर्म ही कंदमूल में अनंत जीव बताता है। ऐसा ज्ञान मिलने के बाद भी उन जीवों की दया नहीं ? कारण? खाने का लोभ । (२) पैसों के लोभ में आज महा पापमय कर्मादान के धंधे, कारखाने व उद्योग कितने चल रहे हैं ? इनमें जीवों के प्रति दया भाव कहाँ रहा? आज तो स्वयं की आर्थिक शक्ति न होने पर भी लोगों को ऐसे धंधे करने का शौक लगता है और ऐसे कारखानेवाले या व्यवसायवालों को देखकर कहते हैं - 'कितने पुण्यशाली हैं ये ! इसमें निर्दयता-भरे व्यवसाय की अनुमोदना ही हुई न ? क्या ऐसे धंधों में डूबे हुओं को पुण्यशाली कहा जाय ? या पुण्य के भंडार को खाली करके पाप की तिजोरी भरनेवाले कहा जाय? भयंकर जीवहिंसा के धंधे करनेवाले पाप के संचय के सिवाय और क्या पायें ? पुण्य पूरा करके पाप की खरीदी ही न? ऐसे धंधे देखकर खुशी व्यक्त करें व ऐसा धंधे करनेवाले को पुण्यशाली मानें, तो भी पाप का संचय ही होगा न? वहाँ जीवों की दया का विचार ही कहाँ रहता है ? कौन करता है यह? पैसों का लोभ । लोभ तो कई प्रकार के होते हैं ; वह एक या दसरी रीति से निर्दय बनाता है। वहाँ पर सामनेवाले के प्रति एक जीव के रुप में दया न रहे, तो भाई, पिता या मित्र के रुप में स्नेह तो रहे ही कहाँ से? आज घर-घर में लोभ के कारण स्नेह चूरचूर हुआ नजर आयेगा। (लोभ से कृतघ्नता : लोभ खतरनाक है। वह जीव को कृतघ्न बनाता है और विश्वासघात भी करवाता है। भद्रसेठ ने लोभदेव को आश्रय व सहयोग देकर कितना उपकार किया था ! परन्तु लोभदेव लोभ में पड़कर इस उपकार को पूरी तरह से भूला बैठा व ऊपर से भद्रसेठ का अहित करने में कोई कसर न रखी । कैसी कृतघ्नता ! आजकल जो लड़के माँ-बाप से विभक्त होकर उनके सामने नहीं देखते, वे क्या कर रहे हैं ? मां-बाप के उपकार को भूल रहे हैं या और कुछ ? जिस भागीदार के सहयोग से दुकान जमी, व्यापार बना, उसे ही कोई बहाना बनाकर साझेदारी से अलग किया जाय, इसमें कृतज्ञता कहाँ रही? (जीवन में दो सावधानियाँ : उपकारी की कृतज्ञता व उपकृत की मैत्री-कस्गा : 'लोभ के कारण इन्सान कृतज्ञता भूल बैठता है व कृतघ्न भी बन जाता है' -- यह समझनेवाला दो प्रकार से सावधान रहता हैं, (१) एक तो, स्वयं उपकारियों के उपकार को नहीं भूलता, और (२) स्वयं के उपकारों को भूलनेवाले के प्रति मैत्री व करुणा का चिन्तन करता Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । उसके प्रति स्वयं का स्नेह नहीं सूखता और 'इस बेचारे को सद्बुद्धि मिले', ऐसी करुणा पैदा होती है। जगत के जीवन में यह सावधानी रखने की आवश्यकता है, क्योंकि दुनिया के बीच रहना पड़ा है, इसलिये विविध जीवों का संपर्क तो होने ही वाला है । इसीलिये लोभवश उपकारियों को नहीं भुलाया जाय, स्वयं से जो उपकृत हो, उसकी ओर से उपेक्षा देखकर दिल में से मैत्री व करुणा का झरना नहीं सूख जाय . यह सावधानी रखनी है । लोभदेव लोभ में भान भूल बैठा है। वह मित्र भद्रसेठ की कृतज्ञता तथा उसके प्रति मैत्रीभाव भी भूल गया, निर्दय व कृतघ्न बना और समुद्र में गिरा दिया । ... लोभदेव का ढोंग : जहाज तेज गति से चल रहा है । थोड़ी देर में तो काफी आगे निकल गया । अब लोभदेव चिल्लाने लगा 'अरे ! दौड़ो, दौड़ो । भद्रसेठ समुद्रमें गिर पड़े है, और अब मगरमच्छ उन्हें अपने मुंह में निगल गया है। अरे दौड़ो, दौड़ो । ' यह चीख-पुकार सुनकर लोग दौड़े आये और देखने लगे, क्या हुआ, कहाँ से गिरे ? नीचे समुद्र में देखने पर दूर एक मगरमच्छ भी देखा और लोभदेव से पूछा 'कहाँ से गिरे ?' - लोभदेव रोते-रोते बोला- 'इस झरोखे के पास खड़े थे । न जाने क्या देखने गये कि नीचे गिर गये ! मेरा इतना अच्छा मित्र गया, अब मैं भी जीकर क्या करूं? मैं भी गिर जाऊं समुद्र में'.. इतना कहकर लोभदेव जहाज के झरोखे की ओर दौड़ने का ढोंग करता है । ढोंगी को क्या नहीं आता ? सच्चे से भी ज्यादा दिखावा आता है । इसीलिये ऐसा नाटकीय दिखावा करनेवाले को देखकर सावधान बनना पड़ता है, नहीं तो ठगे जाने का अवसर आता है। आत्मविकास-अध्यात्मभाव दंभत्याग से शुरुहोता है । इसीलिये 'अध्यात्मसार' शास्त्र में पहले दंभत्याग का उपदेश दिया गया है और बाद में मिथ्यात्व-त्यागादि बताये गये हैं। सच्चा अध्यात्मभाव जगाने के लिये दंभ - माया-कपट को छोड़ना ही पड़ता है । 'अध्यात्म' की व्याख्या करते हुए कहा गया है - 'गंतमोहाधिकारणामात्मानमधिकृत्य या प्रवर्तते क्रिया शुद्धा, तदध्यात्मं जगुर्जिनाः अर्थात् ‘स्वयं के ऊपर के मोह के वर्चस्व को हटाकर यानी मोह के अधिकार को दूर करके आत्मा के उद्देश्य से जो शुद्ध क्रिया प्रवर्ते, उसे जिनेश्वरदेव अध्यात्म कहते हैं',... इसमें क्रिया का उद्देश्य कोई सांसारिक सुख-संपत्ति, मान-सन्मानादि लूटने का नहीं, किन्तु आत्महित साधने का बताया गया है । यदि वह रखा हो, तो वहां दंभ - कपट किस प्रकार टिक सकता है ? दंभ-कपट में तो सांसारिक आशंसा है, वहाँ आत्महित का लक्ष्य १४७ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहे ही कैसे ? इसीलिये यदि अध्यात्म भाव की जरुरत हो, आत्मविकास साधना हो, तो दंभ छोड़ो । लोभदेव का समुद्र में पड़ने का दंभ : पहले तो लोभदेवने दंभ करके भद्रसेठ को समुद्र में धकेला और अब दंभ से शोक करता है - 'हाय ! मेरा मित्र गया ! अब मैं भी समुद्र में गिरकर मर जाऊंगा।' कौन पहचान सकता है इस दंभ को ? लोग तो सच ही मान बैठे कि 'मित्र वियोग के दुःख से यह जरुर समुद्र में छलांग मार देगा।' लोगों ने उसे पकड़ा व कहा अरे भाई ! ऐसा करने से भद्रसेठ थोड़े ही लौट आयेंगे ? 'इसीलिये अब तो तुम धीरज धरो, हिम्मत रखो। मरने की बात मत करो । एक तो भद्रसेठ गये और अब हम तुम्हें भी खो बैठें ?' इस प्रकार समझाकर लोगों ने लोभदेव को रोका | बस, दंभी लोभदेव को इतना ही चाहिये था कि खुद साहुकार दिखे व लोगों को लगे कि 'भद्रसेठ ऐसे ही अचानक गिर पड़े और मित्र के गिरने से दुःखी होकर यह भी गिरने जा रहा है।' जो चाहता था, वही मिल गया, इसलिये लोभदेव अन्दर से तो खुश हो रहा है कि 'वाह! काम बढ़िया हो गया ! भद्रसेठ मर गया ! अब उसका सारा माल अपना ही है ! दोनों ओर से कमाई ही कमाई !' लोभदेव को कितने पाप ? लोभदेव ऐसे अधम विचारों से क्या कर रहा है ? घोर पाप की अनुमोदना, काली लेश्या, रौद्रध्यान, धन का राग, मन में तनिक भी दुष्कृत गर्हा नहीं, ऐसे कई अनर्थों को वह बुलावा दे रहा है । आप ही गिनती कीजिये कि उसने कितने पाप किये ? (१) मित्र का भयंकर द्रोह, विश्वासघात, (२) मित्र मर जाये, इस इरादे से समुद्र में धक्का मारना, (३) मौत भी कैसी ? मगरमच्छ के मुंह में चबाये जाने की भयंकर वेदना के साथ ! (४) जहाज के यात्रियों के साथ ठग-बाजी, (५) ऐसे घोर कुकृत्य से मिले धन पर अति राग, (६) इन सब पापों की जोरदार अनुमोदना (७) इसका अर्थ यह है कि पूर्व में पाप करके तो घोर कर्म बांध लिये, परन्तु अब उनकी वारंवार अनुमोदना से ऐसे ही नये-नये घोर कर्मों का उपार्जन कर रहा है। कितने अनर्थ ! दूसरों के पाप की हमारे द्वारा अनुमोदना : सिर्फ स्वयं के लोभ से ही नहीं, परन्तु दूसरों के लोभ की हम अनुमोदना करें, तो भी उसके पाप-उपायों की अनुमोदना के कर्म हमें बंधते हैं । उदाहरण के तौर पर, किसीने झूठ - अनीति करके आरंभ-समारंभमय कारखाने लगाकर लाखों-करोड़ों कमाये, अभी भी रोज दो-पांच लाख रुपये कमा रहा है, उसे देखकर हमें लगे कि 'कितना नसीबदार है ! इतने पैसे कमाये, अभी भी कितना कमा रहा है !' हम जानते हैं कि वह किस तरीके से कमाई कर रहा है, फिर भी उसकी कमाई की अनुमोदना करते हुए हम उसके पीछे सेवन १४८ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किये गये झूठ, अनीति व हिंसा की भी छुपे ढंग से अनुमोदना कर रहे हैं । उसकी कमाई में से हमें थोड़े ही कुछ हिस्सा मिलनेवाला है ? फिर भी हिंसादि की अनुमोदना का पाप हम अपने सर पर लेते हैं । उदाहरण के लिये :- हमने देखा कि किसी आदमी ने अपने भाई या दूसरे के साथ झगड़ा करके जमीन हडप ली व उस पर बंगला बनवाया । वह देखकर यदि हमें ऐसा लगे कि - ___'वाह ! कितना भाग्यशाली है ! कितना आलीशान बंगला बनवाया है !' इस अनुमोदना में हमारे सर पर क्रोध, कलह व बंगला बनवाने के महा आरंभ-समारंभ की अनुमोदना का पाप भी छुपे ढंग से चढ़ता है ! 'पापों की अनुमोदना से स्वयं पाप का आचरण करने जितने अशुभ कर्म बंधते हैं ।' विचार कीजिये कि किसीके बंगले की अनुमोदना करने से उसके पीछे किये गये पापों की अनुमोदना और कर्मबंध हमें कितने लगते हैं ? बंगले के साथ हमें कुछ लेना-देना है ? सिर्फ एक दिन के लिए भी क्या वह हमें उसका बंगला रहने के लिए देता है ? नहीं, फिर भी कितने अनर्थ स्वयं के सर पर हम ढोते हैं ! मूर्खता की कोई हद भी है ? । 'दूसरों को हुए लाभ की अनुमोदना करने पर इस लाभ के पीछे किये गये ढेर सारे पापों की अनुमोदना छुपे ढंग से हो जाती है और इससे स्वयं पाप करने जितने कर्मबंध होते हैं।' ___यह विचार यदि हमेशा रखा जाय, तो ऐसे लाभ की अनुमोदना करने से बचा जा सकेगा । ऐसी अनुमोदना में यह मूर्खता दिखती है कि 'इस लाभ से मुझे तो कुछ मिलनेवाला नहीं है, तो मैं इसकी अनुमोदना करके नाहक क्यों इसके पीछे किये गये ढेर सारे पापों को अपने सर पर ढोऊ ?' स्वयं की ऐसी कमाई में यह मूर्खता भी दिखती है कि एक बार तो पाप करके यह लाभ पा लिया, परन्तु अब इसकी अनुमोदना कर-करके, वारंवार पाप-सेवन से नये-नये पाप लगते हैं, इस प्रकार वारंवार नये-नये पाप मोल लुं?' . कहने का तात्पर्य यह है कि पापाचरण से स्वयं को अथवा दूसरे को धन आदि का लाभ होते दिखा, इस लाभ को देखकर बार-बार अनुमोदना करने जैसी नहीं, क्योंकि ऐसे लाभ की अनुमोदना अर्थात् उसके असत् उपाय की अनुमोदना और उससे बेहद कर्मबंध । जीव असंख्य वर्षों के नरकादि जैसे पाप कर्म का क्यों उपार्जन करता है ? इसमें यह भी एक जबरदस्त कारण है कि इस छोटे-से जीवन में भी स्व अथवा पर के धनलाभ पर जीव को वारंवार खुशी होती है और उसके लिये किये गये पाप-उपायों की छुपे रुप में अनुमोदना कर-करके प्रति समय अपार कर्मबंध करता है। आप सोचिये कि ये सांसारिक धन-लाभ आदि कैसे बड़े राक्षस हैं कि जो जीव को लुभाते हैं कि 'तू आ जा, फंस जा', फिर जीव के पुण्य को निचोकर कैसी ढेर सारी कर्मबंध की पीड़ा होती है ? Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र. - ऐसा हारे जीवन में कदम-कदम पर चलता है, तो इससे किस प्रकार बचा जाय ? बत्तने का एक महान उपाय यह है कि सम्यग धर्मशास्त्रों का वारंवार श्रवण, अध्ययन व रतन-मनन करना चाहिये । इससे, (१) जीव को अन्दर से ही धनलाभ के प्रति जाती है, वैराग्य जग जाता है, जिससे धनलाभ की अनुमोदना नहीं होती । ( २ ) पाप - उपायों के प्रति अत्यन्त ग्लानि रहा करती है, जिससे उसकी भी अनुमोदना का नहीं रहता तथा (३) चित्त शास्त्र की बातों में लगा रहने से पापअनुमोदना आदि के विचार करने के लिये उसे फुरसत ही नहीं मिलती । उ. - वारंवार चलनेवाली याप अनुमोदना से बचने के लिए तीन बातें हैं - ९. वैट, २ पाल उपायों के प्रति अत्यन्त ग्लानि, व ३. शास्त्र-रटन । भद्रसेर लोग देव के धक्के से समुद्र में औधे सर पड़ा। महासागर में इस तरह गिरना यानी ? बहुत गहराई में जा फिर से ऊपर आया, वापिस डूबा व ऊपर आया, सागर की लहरों के धर-उधर उछलने लगा । इतने में तो एक विशालकाय मगरमच्छ ने उसे निगल लिया ! अर में इतनी ताकत नहीं रही थी कि मगरमच्छ का स्पर्श होते ही तैरकर दूर भागे ! मगर के मुंह में जाते ही बेचारा भद्रसेठ उसकी दाढ़ के बीच जकड़ गया व चबाया जाने लगा। उस वक्त असह्य वेदना होने लगी। गाड़ी का दरवाजा बंद करते हुए सिर्फ अंगुली का अग्र भाग भी उसमें दब जाय, तो कितनी वेदना होती है ? तो पूरा का पूरा शरीर, मुंह. सर व मर्मस्थान मगरमच्छ की दाढ़ के बीच अमरुद की तरह चबाया जाय, उसकी वेदना कैसी दारुण होगी ? मगरमच्छ की दाढ़ के बीच घूरे के पूरे चबाये जाने की पीड़ा तो मृत्यु न आये, तब तक चंद मिनिटों की ही है, परन्तु यह सुनते हुए भी हम कांप उठते हैं, तब विचार कीजिये कि नरक गति में असंख्य वर्षों तक सतत ऐसे चर्वण- छेदन - दहनादि सहते हुए जीव को कितनी भयंकर वेदनायें हुई होंगी ! ऐसी नरक की वेदना हमें कभी न भुगतनी पड़े, ऐसी इच्छा तो सब रखते हैं, परन्तु इस बात की सावधानी रहती है भला? ऐसे कार्य व विचारों का त्याग किया है भला ? ५ क्या आज नरक में जाया जाता है ? नरकगति के कारण :- यह मत भूलियेगा कि सिर्फ नरक में जाने की इच्छा न होने मात्र से काम नहीं चलता, परन्तु नरक में ले जानेवाले आश्रवों से दूर रहने की सावधानी भी रखनी चाहिये । वे आश्रव हैं... महा- आरंभ की बुद्धि, महा परिग्रह की बुद्धी, हिंसा- झूठ - चोरी - संरक्षण का रौद्रध्यान, तीव्र कृष्णलेश्या, अनंतानुबंधी के क्रोधादि कषाय, १५० Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंत जीव होने का ज्ञान होने पर भी खुशी-खुशी अनन्तकाय का भक्षण, मांसाहार, घोर विषयान्धता... आदि नरक के द्वार हैं। इसके द्वारा नरकगति में सहन करने पड़े ऐसे पाप उपार्जित होते हैं । ' नरक में न जाने की सावधानी अर्थात् इन आश्रवों का सेवन न करने की सावधानी । एक-एक आश्रव से नरक के उदाहरण : आप रखते हैं न यह सावधानी ? ध्यान में रखिये कि ये सब आश्रव इकठ्ठे होकर ही नहीं, किन्तु इनमें से किसी एक की उपस्थिति भी नरक के कर्म बंधाने में समर्थ है । (१) मम्मण सेठ महापरिग्रह बुद्धि से सातवीं नरक में गया, (२) राजगृही का भिखारी हिंसा के रौद्रध्यान से वहीं गया । (३) चक्रवर्ती का स्त्रीरत्न घोर विषयान्धता से छठी नरक में जाता है! (४) तंदुलिया मच्छ, महा आरंभ का सेवन नहीं करता, परन्तु सिर्फ उसके विचार से नरक गति का पाथेय इकठ्ठा करता है । (५) सुभूम चक्रवर्ती अनन्तानुबंधी लोभ कषाय से सातवीं नरक में गया। (६) ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती अंध था, गूंदे के चिकने बीजों को ब्राह्मणों की आंखे समझकर उन्हें दो हाथों से मसलने की तीव्र कृष्णलेश्या में पड़ा, और दूसरी ओर अंध बना हुआ वह पट्टरानी कुरुमती के तीव्र राग में फंसकर 'हे कुरुमती ! हे कुरुमती !' करते हुए नरक में ले जाने योग्य कर्म बांधता है। (७) वसुराजा जान-बूझकर झूठ बोलने से देवता के द्वारा सिंहासन से नीचे गिराया गया तथा मरकर नरक में पहुंचा। (८) नागदत्त सेठ का बाप बकरा बना, दुकान व पुत्र को देखने से उसे जातिस्मरण ज्ञान होता है, परन्तु धर्म की सूझ नहीं । पुत्र के द्वारा न बचाये जाने व कसाई के द्वारा मारे जाने से रौद्रध्यान में चढ़कर वह पहली नरक में गया । नरक के आश्रव आज कहाँ गये ? आपको कितने उदाहरण चाहिये ? गृह-कार्य में, व्यापार में, परिवार के साथ, मौज-शौक में, बाहर के व्यवहार में या दुनिया के प्रसंगों में कोई रौद्रध्यान, कोई काली लेश्या, कोई महाआरंभ की अनुमोदना बुद्धि, महापरिग्रह की अनुमोदना बुद्धि, कोई क्रोधादि अनंतानुबंधी कषाय, तीव्र कामराग आदि लगने की संभावना पैदा होती है, वहां इसमें बिल्कुल न फंसने की सावधानी कितनी रहती है ? आज के चलचित्र व अखबार नरक के आश्रव सेवन की भरपूर सामग्री देते हैं। बारीकी से व मानसिक लगाव के विश्लेषण से जांच करने पर पता चलेगा कि यदि नरक में जाने की इच्छा नहीं है, तो इन आश्रव - स्थानों से बचने की सावधानी कितनी है ? सावधानी न हो, तो नरक की घोर वेदना से कैसे बचा जायेगा ? कर्म को शर्म नहीं है । बेचारा भद्रसेठ पूरा का पूरा विशालकाय मगरमच्छ के गुफा जैसे मुंह में दाढ़ के १५१ -- Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीच चबाया जाता है। वेदना का कोई पार नहीं ! परन्तु कर्म द्वारा दी गयी पीड़ा से कौन बचाये ? दुर्जन मित्र के संग से दाक्षिण्य व लोभ में पड़ा, पुण्य कमजोर हुआ व घोर पाप उदय में आया। मित्र के द्वारा समुद्र में धक्का मारने से मगरमच्छ की दाढ़ के बीच चबाया जाकर मरा। भद्रसेठ मरकर कहाँ गया ? फिर भी भद्रसेठ इतना नसीबदार था कि ऐसी वेदना के वक्त भी उसे रौद्रध्यान नहीं हुआ, काली लेश्या नहीं हुई, नहीं तो यहाँ भयंकर वेदना सहने पर भी मरकर उस बकरे की तरह नरक में जाता। इसी प्रकार ऐसी कोई ऊंची शुभ लेश्या नहीं, स्वयं के दुष्कृत की गर्दा, उच्च क्षमाभाव व अन्तिम आराधना नहीं की, जिससे ऊंचे वैमानिक देवलोक में जाय। फिर भी भद्रक भाव से अकामनिर्जरा बहुत की, जिससे मरकर व्यन्तरनिकाय में अल्प ऋद्धिवाले राक्षस के रुप में जन्मा। 'अकामनिर्जरा' अर्थात् सहने का अवसर आये, तब स्वेच्छा से निर्जरा यानी कर्मक्षय करने की कामना नहीं, परन्तु सहन करने का अवसर आया, ऐसे तीव्र दुर्ध्यान के बिना पराधीनता से चुपचाप सहन कर ले, ऐसी अकामनिर्जरा की भी कैसी महिमा है ? परन्तु वहाँ यदि तीव्र हाय-हाय का आर्तध्यान या सामनेवाले को मारने का रौद्रध्यान आया, तो तिर्यंच-नरकगति स्वागत के लिए तैयार ही समझो। यहाँ कोई वेदना, अपमान, अपयश सहन करने का चाहे बहुत ज्यादा न हो, किन्तु मन यदि हाय-हाय, हिंसादि के दुर्ध्यान में पड़े तो कर्म को शर्म नहीं, तिर्यंचगति-नरकगति के कर्म चिपके ही समझो और कर्म भी वहीं घसीटकर ले जाता है। इसमें किसीका कुछ नहीं चलता। जीवन जीते हुए प्रति क्षण इस हाय-हाय व हिंसा आदि के चिन्तन, दुर्ध्यान से बचने के लिए सावधान रहना है। भद्रसेठ तीव्र वेदना में भी ऐसे दुर्ध्यान से बचा और मरकर राक्षस हुआ । राक्षस अर्थात् देवता, उसे जन्म से ही अवधिज्ञान या विभंगज्ञान होता है। इस ज्ञान से उसने देखा कि 'मैं कहाँ से आया?' इसमें उसने देखा कि 'लोभदेव ने द्रोह-कपट करके स्वयं को समुद्र में धकेला व मगरमच्छ के जबड़े में क्रूरता से चबाये जाने की घोर वेदना सहन करते हुए मरकर यहाँ आया हूं'। इससे उसे लोभदेव के प्रति जोरदार गुस्सा चढ़ा । मैंने उसे इतना स्नेह दिया, उसकी भी उसने परवाह न की? मेरे उपकार याद न किये? मेरी सज्जनता की ओर भी न देखा? सचमुच, सज्जन दुर्जन पर चाहे जितने उपकार क्यों न करे, दुर्जन का स्नेह तो हल्दी के रंग जैसा है, धूप आयी नहीं कि उड़ा नहीं ! इस दुष्ट की कृतघ्नता व द्रोह तो अक्षम्य है !' भद्रसेठ राक्षस की क्रोधाग्नि जोरदार भड़क उठी। वह सोचता है - अरे ! इस पापी ने सोचा कि मैं इसे समुद्र में धकेलकर अकेला ही सारा धन ले लुं । अब मैं ऐसा करूं कि Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस अनार्य के पास इसमें से कुछ न रहे । उसने दिव्यशक्ति से जोरदार तूफान पैदा किया। समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें उछलने लगीं। ऊपर बादल गड़गड़ा रहे हैं । तूफानी हवा बड़े-बड़े मत्स्य, मगरमच्छ व जहाजों को उछालती है। जहाज समुद्र में झोले खा रहा है। सढ फट गया, खंभे टूट गये, ऊपर से पत्थर गिर रहे हैं, बिजली चमक रही है, घोर गर्जना हो रही है, आकाश तो जैसे फट रहा है। तूफान में चढ़े हुए महासागर ने प्रलयकाल का विकराल रुप धारण किया। जहाज में बैठे हुए लोभदेव व उसके आदमियों के हृदय भय से कांपने लगे। घबराहट तो कैसी? बिजली का चमकना, बादलों की बड़ी शिला गिरने जैसी गडगडाहट, समुद्र की लहरों का पहाड़ जितना ऊपर उछलकर नीचे गिरना, इसके साथ ही जहाज का भी ऊपर उछलकर फिर से नीचे गिरना ... मानों प्रलयकाल आया ... प्राण तो जैसे सूखने लगे। ‘रक्षण की प्रार्थना :- अब वहाँ कोई मानवी शक्ति तो बचा सके, ऐसी संभावना नजर नहीं आती, तो अब क्या करे? सार्थवाह लोभदेव खिन्न बन गया। लोग तो अशरणअनाथ-निराधार जैसे हो गये। कोई नारायण का स्तवपाठ बोलने लगा, तो कोई चंडिका की स्तुति करने लगा, कोई शंकर की यात्रा की मनौती करने लगा, कोई ऐसी मन्नत मानता है कि 'यह उपद्रव टल जाय, तो इतने ब्राह्मणों को भोजन कराऊंगा।' कोई आकाश के सामने देखकर डाकिनी, शाकिनी आदि माताओं, सूर्य, यक्ष आदि को संबोधित करके दीनता से हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए कहता है, 'हे देवों ! हे दानवों! हमसे क्या पाप हुआ है? आप क्यों कोपायमान हुए हैं? हम तो आपकी मेहरबानी मांगते हैं। आपकी मेहरबानी की ही एक आशा है। हम अशरण हैं, निराधार हैं। हमें बचाईये, बचाईये! हे देवताओं ! हमारी रक्षा कीजिये !' परन्तु जहाँ कर्म ही बिगड़े हो, वहाँ देव को भी कैसे दया आये ? देव दयालु नहीं हैं, ऐसी बात नहीं ! किन्तु इस लोभदेव व उसके साथीदारों के अशुभ कर्म का उदय देव को भी दया नहीं करने देता । इसीलिये जब ये लोग गिड़गिड़ाकर करुण स्वर से अर्जी करते हैं, तब देवता और भी अधिक उत्पात मचाता है। कैसे-कैसे भयंकर उत्पात होते हैं ? आज तो मानव का शिकार खाने मिलेगा, इस हर्ष से बेताल खिलकर हँस रहे हैं, योगिनियाँ नाच रही हैं । बड़ी डाकिनियां मुंह की गुफा में से अग्नि की ज्वालायें निकाल रही हैं। उनके बड़े-बड़े मुंह की करवत जैसी दंत-पंक्ति 'अभी तुझे खाऊं, खाऊ' ऐसी विकरालता बता रही है । ये डाकिनियाँ भूखी मांसखाऊ सियारनी जैसी भयंकर आवाजें कर रही है, तो दूसरी ओर गिद्धों की फौज मूर्दे मिलने के आनन्द में नाचती-हँसती दिख रही है! आकाश चारों ओर अग्नि की ज्वालाओं से व्याप्त हो गया है, मानों उसने तो रास्ता Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही रोक रखा है । चारों ओर ऐसे भयानक द्रश्य ही नजर आ रहे हैं । 'क्या होगा, क्या होगा' ऐसी घबराहट में पड़े हुए उन लोगों को देव आकाश में महा-राक्षस का रुप बताकर प्रलयकाल की भयकर मेघ गर्जना के साथ कहता है..... राक्षस की भयंकर वाणी : 'अरे अरे दुराचारी ! पापी ! क्रूर कर्म करनेवाले निर्दय लोभदेव ! ऐसे सरल, , उपकारी सज्जन के साथ ऐसा भयंकर विश्वासघात ! हिसाब करने का बहाना बनाकर बेचारे भद्रसेठ को झरोखे पर चढ़ाकर समुद्र में धकेला ? चंडाल ! ले, अब तेरे कुकर्म का फल देख ले ।' इस प्रकार महाकाय राक्षस गुस्से में जोर से चिल्लाया । अपने भारी व मोटे हाथ से उसने जहाज को उठाकर गगन में इतने जोर से उछाला कि आकाश में जहाज सौ योजन की ऊंचाई तक उछला ! मानों पाताल में से किसी असुर का विमान ऊपर चला ! फिर उसे नीचे धकेला, तो जैसे सागर पर कोई शिलाखंड़ गिरे, इस तरह जहाज सौ योजन की ऊंचाई से नीचे समुद्र के साथ टकराया। जहाज के पूर्जे -पूर्जे उड़ गये। नाविक व उनके परिवार नष्ट हो गये । दैवी प्रकोप में कोई बचे भी कैसे ? जगत की संपत्ति क्यों असार ? मद्रसेठ को सुन्दर देवभव मिला, दिव्यज्ञान मिला, परन्तु उसने यह घोर हत्याकांड़ मचाया । दिव्यज्ञान से सब बात जानने से उसे गुस्सा चढ़ा और दैवी शक्ति से जहाज का भयंकर रूप से विध्वंस किया। सोचने की बात यह है कि जगत की महान संपत्ति प्राप्त हो, ऐसी सद्बुद्धि व कल्याण मार्ग ही सूझे, यह भी कहाँ रहा ? यहाँ तो उल्टे इसके ही द्वारा अत्यन्त गुस्सा व भयंकर हिंसा के दुष्कृत्यों का सेवन हुआ । इसीलिये ज्ञानी फरमाते हैं कि संसार की संपत्ति असार है, यह अन्तर में दुष्ट- बुद्धि जगाती है और इसके कारण तन व मन दुष्ट काया में प्रवृत्त होते हैं। इससे जीव को इस प्रकार उपार्जित किये गये पापानुबंधी अशुभ कर्मों के कारण दुर्गति के अनेक दुखद भवों में भटकना पड़ता है, तो फिर (१) ऐसा परिणाम लाने वाली सांसारिक संपत्ति - होशियारी मान सन्मान आदि में क्यों लीन बना जाय ? क्यों खुश हुआ जाय ? (२) क्यों इसकी इच्छा की जाय ? और (३) दूसरों को ये चीजें अच्छी मिलीं, परन्तु हमें न मिलीं, तो मन में क्यों लगाया जाय ? किसीकी गाडी, किसीका बंगला व किसीका जोरदार धंधा चलता देखकर आप दुबले पड़ते हो न ? उसे भाग्यशाली व स्वयं को बदनसीब मानते हो न ? स्वयं को नहीं मिला, इसलिये मन को कम लगता है न ? इसीलिये तो उसकी संपत्ति का वर्णन करते हुए आप विस्मित हो जाते हो न ? स्वयं को दीन व कंगाल समझने लगते हो। क्यों इस तरह दुबले पड़ते हो ? जो पापसंपत्ति उसके मालिक को श्रापस्प बन रही है, उस पर फिदा होकर १५४ - Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयं को क्यों दीन समझते हो ? सांसारिक संपत्ति की भयानकता : सांसारिक संपत्ति (१) जहर के लड्डू जैसी है । (२) म्लेच्छ के घर के बकरे को दी जानेवाली पौष्टिक खाद्य सामग्री जैसी है । (३) मक्खी को चिपकानेवाले मीठे श्लेष्म जैसी है। (४) उड़ते हुए जीवों के ललचानेवाले मीठे शहद जैसी है। जहर का लड्डू खाया, तो मरे समझो। म्लेच्छ के घर अच्छी तरह से पुष्ट किये गये बकरे के एक बार कटकर बेहाल ! श्लेष्म में फँसी हुई मक्खी की मौत! शहद में चिपके हुए जीवन का सर्वनाश ! इस प्रकार सांसारिक संपत्ति में फँसनेवाले का पुण्य खत्म, क्षभादि गुणा का दिवाला, दुष्कृत्यों की श्रृंखला व अन्त में दुःखद मौत। बाद में क्या ? चौरासी लाख के चक्कर में घूमना। ऐसी संपत्ति की न तो आसक्ति करने जैसी है, न ही अभिमान ! न ही इस संपात की चाह रखने जैसी हैं और न ही इसके न मिलने का दुःख करने जैसा है ! - प्र. - परन्तु संपत्ति हो, तो अच्छे सुकृत होते हैं न ? उ.- सुकृत कैसे व कितने होते हैं, यह तो किसे पता है? बाकी इस संपत्ति पर तो अनादि सिद्ध रौब- रोष - आसक्ति व महा आरंभ - संमारंभादि दोष- दुष्कृत्यों की फौज उतर पड़ेगी । भद्रसेठ देव बना । उसे दिव्यज्ञान व दैवी शक्ति का संपात मिली। इससे उसने क्या किया ? लोभदेव पर गुस्सा आने से उसने जहाज को भयंकर ढंग से तोड़कर उसके निरपराधी परिवार व नाविकों को भयविह्वल करके समुद्र में डूबाया । लोभदेव के पाप से आश्रितों के कैसे बेहाल ? पाप करते वक्त विचार होना चाहिये कि पाप से मैं तो मरुंगा ही, परन्तु इसके छींटे उड़ने से बेचार दूसर भी मरेंगे । इसीलिये दूसरों की रक्षा खातिर भी पाप का सेवन न करूं!' परन्तु मूढ़ता यह विचार नहीं आने देती । कई मूढ़ मां-बाप स्वयं के तीव्र संसार रस के पाप में संतानों की भी बर्बादी करते हैं 1 लोभदेव का परिवार मरा, लेकिन लोभदेव को तो अभी भी बहुत कुछ सहना बाकी है व तिरना बाकी है। समुद्र में गिरते वक्त उसके हाथ में कहीं से एक तख्ता आ गया ! तख्ता पकड़ने से वह डूबा तो नहीं, परन्तु इससे समुद्र कैसे पार उतरे ? अब उसे विचार आता है कि ... बचे हुए लोभदेव की विचारधारा 'अरे! मुझे कैसा भयंकर नतीजा मिला ? मैंने भद्रसेठ को सागर में फेंका, तो मेरा कैसा सर्वनाश हुआ ? सचमुच 1 जं जं करेंति पावं, पुरिसा पुरिसाणं मोहमूढमणा । तं तं सहस्सगुणियं, ताणं देवो पणामेइ ॥' अर्थात् लोग दूसरों के प्रति जो-जो पाप करते हैं, उनसे हजार गुणा फल दैव उन्हें ily देता है। १५५ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसका अर्थ यह है कि दूसरे के प्रति द्रोह, विश्वासघात, अपमान, तिरस्कार, लूटपाट आदि करने में सोये हुए सांप को जगाने जैसा है, सोये हुए दैव को हमारे प्रति ही द्रोह - अपमान – पीड़ा आदि पैदा करने के लिये जगाने जैसा है। वह भी हमने जो पीड़ा उन्हें दी, उससे कई गुणा पीड़ा ! कुदरत का कानून है कि एक गेहूं का दाना बोओ, तो २५-५० दाने मिलेंगे। इसी प्रकार विषवृक्ष के एक बीज से ढेर सारे विषफल उपजते हैं। अब पछताये होत क्या, जब चिड़िया चुग गयी खेत : लोभदेव भी सागर में पड़ा तो सही, परन्तु अभी उसे यहीं पर भयंकर दुःख देखने बाकी हैं, इसलिये वह डूबकर न मरा, परन्तु उसके हाथ में एक तख्ता आ गया, तो जीने की आशा से उसे पकड़ लिया। अब उसे विचार आता है कि 'अरे ! मैंने भद्रसेठ का बुरा किया, तो मुझे यहाँ इसका कैसा बदला मिला? उसकी जायदाद मिलनी तो दूर रही, परन्तु मेरी स्वयं की संपत्ति भी नष्ट हो गयी। जहाज टूट गया व मेरी भूल के कारण बेचारे नाविक व उनके परिवार भी समुद्र में डूब गये। 'सचमुच ! दूसरों के प्रति किये गये पाप का हजार गुणा फल जीव के सर पर दैव थोप देता है।' उसे बहुत खेद हुआ, परन्तु विधवा बनने के बाद समझदारी आने से क्या फायदा? 'हाय ! मैंने पति की सेवा ठीक से न की, पैसों के लोभ में किसी अच्छे वैद्य या डॉक्टर की दवा न करायी, सचमुच, यह कितना बुरा हुआ!' पति के मरने के बाद स्त्री में इस प्रकार समझदारी आये, तो उसका मरा हुआ पति वापिस थोड़े ही आनेवाला हैं ? इसीलिये बुरा परिणाम आने से पहले ही इन्सान को समझदारी रखनी चाहिये। (समद्र में कौन राखनहार? तख्ते के सहारे लोभदेव समुद्र में लहरों के कारण यहाँ से वहाँ थपेड़े खा रहा है। मगरमच्छों की पूंछे उसके शरीर से टकरा रही हैं । अन्य जलचर जंतु उसे चाटते हैं, काटते हैं। समुद्र का कचरा उसके शरीर पर लग रहा है ; शंख - कौड़ी - प्रवाल आदि के झुंड टकराने से वह परेशान हो गया है। जलचर सर्प के फुफकारने से उनका जहर भी उस पर उडता है, जलचर प्राणियों के नाखून उसके शरीर को चुभते हैं। ऐसी कई पीडायें वह झेल रहा है। यहाँ कौन उसे बचाये? संसार-समुद्र में भी ऐसा ही है। बेचारा लोभदेव अशरण, बलहीन बनकर छटपटा रहा है। 'अब मेरा क्या होगा? इस अथाह जलराशि से छूटकर मुझे किनारा मिलेगा या नहीं ?' ऐसी भावी की चिन्ता उसके दिल को खाये जा रही है। यहाँ शरीर का बल क्या काम करता है ? चाहे जितनी बुद्धि व होशियारी क्यों न हो, परन्तु ऐसे घोर सागर में वह किस काम की? यहाँ कौन रक्षा करे? सात-सात रातें व दिन बीते । परन्तु कहीं किनारा नजर नहीं आता। कोई लहर उसे थोड़ा किनारे की ओर खींचकर ले जाये, इतने में तो दूसरी लहरें उसे पुनः किनारे से दूर, Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्र के अन्दर खींचकर ले जाती हैं। न खाना-पीना, न नींद ! एक झोंका भी आ जाय, तो हाथ ढीला पड़ते ही पकड़ा हुआ तख्ता हाथमें से छूट जाय न? मूर्ख को स्वात्मा का हित साधने की बात आये, वहाँ तो खाने-पीने व आराम करने का सझता है। 'मुझसे तो भूखा नहीं रहा जाता, कंदमूल-अभक्ष्य नहीं छूटता, दस तिथि ब्रह्मचर्य का पालन नहीं होता। सुबह में जल्दी उठकर सामायिक - प्रतिक्रमण नहीं होता, दो पैसे धर्म में खर्च नहीं होते।' ऐसे बहाने बनाते वक्त क्या यह विचार आता है कि इस लोभदेव जैसी कोई आपत्ति में मैं पड़ जाऊं, तो क्या ये बहाने काम आयेंगे? सात दिन व रात बीतने पर भूखा-प्यासा, थका-हारा, अनेक कष्टों से परेशान लोभदेव को किनारा नजर आने लगा। एक लहर उसे किनारे तक खींचकर ले गयी। किनारे पर पहले तो वह अस्वस्थ होकर गिरा। उंडी हवा बहने से कुछ स्वस्थता आने पर वह खड़ा हुआ। उसने देखा, तो उसे वह कोई अनजान द्वीप लगा। मन में ऐसा होता है कि 'चलो, समुद्र में डूब रहा था, अब बच तो गया। अभी भी भाग्य प्रबल है। धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।' आशा के दास की दुर्दशा : आशा के तंतु से मानव पर्वत चढ़ना चाहता है। परन्तु वह यह नहीं जानता कि यह तंतु टूटते देर नहीं लगती। पूर्व के जीवनों में कई आशा के तार टूट गये और इस जीवन में भी कई तार टूटने के अनुभव होंगे, फिर भी अज्ञानी जीव अभी भी आशा छोड़ने के लिये तैयार नहीं । आशा की गुलामी में ऐसी दौड़ होती है कि फिर से उसे पछाड़कर रहती है। परन्तु यह सब कौन सोचे? इसीलिये तो आशा के मारे को ऐरे-गैरे की खुशामद करनी पड़ती है। आनन्दघनजी कहते हैं, |'द्वार द्वार भटके लोक नकुं , कृ कर आशाधारी, आशा दासी के जे जाया, ते जन जग के दासा') कुत्ता रोटी के टुकड़े की आशा रखकर एक-एक घर, एक-एक द्वार पर भटकता है, दीनता बताता है। आशाधारी इन्सान की भी ऐसी दशा होती है ... आशा को तो विवेकी की दासी बनना पड़ता है। विवेकी इन्सान मनचाहे वैसे आशा को चला सकता है, परन्तु अविवेकी इन्सान ऐसी आशादासी के भी गुलाम पुत्र बनते हैं । वे आशा को क्या चलायें ? आशा उन्हें नचाती है। परिणामस्वरुप उसे बेचारे को जगत का दास बनना पड़ता है। दासी के पुत्र की कीमत कितनी? आशा-दासी का गुलाम बना जीव स्वयं की कीमत गंवा बैठता है व दुनिया में नीच लोगों की भी चापलूसी करता हैं । आशा अच्छे-अच्छे महारथियों को भी कई बार असंभव स्थानों में दौड़ाती है। लोभदेव तार द्वीप पर :लोभदेव समुद्र में डूबकर मरने से बचा । वह तारद्वीप पर उतरा । अब अच्छा होने Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की आशा में था कि इतने में तो नयी आपत्ति आ पड़ी । यमदूत जैसे कुछ काले आदमी आकर उसे पकड़ते हैं । लोभदेव ने कहा- 'क्यों भाई ! मुझे क्यों पकड़ते हो ?' उन लोगों ने कहा - 'भाई, धीरज रख । चिन्ता मत कर। हमारे यहां रिवाज है कि तेरे जैसे कोई यहां आ पहुंचे, तो उन्हें घर ले जाकर स्नान कराके भोजन कराना । इसलिये तू चिन्ता मत कर ।' इतना कहकर वे लोभदेव को द्वीप के अन्दर ले गये। अपने घर ले जाकर तेल से मालिश करके उसे नहलाया, भोजन कराया । लोभदेव भी सात दिन का भूखा था, इसलिये डटकर खाया । वह सोचने लगा कि 'यहाँ के लोग बहुत भले लगते हैं । मेरे साथ कोई संबन्ध नहीं, फिर भी कैसा निःस्वार्थ भाईचारा ! लोभदेव पर दुष्टों के जुल्म की कोई हद ? लोभदेव का महा आनन्द महा दुःख में पलटने का कारण यह है कि वह ऐसे दुष्ट लोगों के शिकंजे में फँसा है, जो शरीर से मानव होने पर भी दिल से पिशाच जैसे हैं। उनमें दया जैसी तो कोई चीज ही नहीं। ऐसे लोगों के शिकंजे में फँसने के बाद छूटने की आशा ही कहाँ से हो ? अरे ! ऐसे लोग जुल्म बरसाने में क्या कमी रखेंगे ? लोभदेव तो यही सोच रहा था कि 'ये लोग कैसे निस्वार्थ भाईचारा रखनेवाले हैं !' इतने में तो वे लोग दौड़ते हुए 1 आये । उसके हाथ-पांव रस्सी से कसकर बांध दिये। उसके शरीर के पुष्ट भागों में से मांस काटने लगे। एक तरफ मांस के टुकड़े काट-काटकर इकठ्ठे करते हैं, तो दूसरी ओर शरीर के कटे हुए भागों से जो खून छूटता है, उसे बर्तन में इकठ्ठा करते हैं । अत्याचार की कोई सीमा ? इन्सान पाप के विचारों में हद् रखे, तो कर्म के जुल्म में हद हो । लोभदेव को अपार वेदना हो रही है। वह जोरदार चीख रहा है, परन्तु इस प्रदेश में कौन उसकी चीख या पुकार सुने ? ऐसा कसकर बांधा हुआ है कि थोड़ा भी खिसक नहीं सकता । दुष्ट तो बड़े फल में से टुकड़े काट-काटकर लेते हों, इस तरह उसके शरीर में से मांस टुकड़े काटते हैं । नरक की अपार वेदना : चमड़ी पर थोड़ी-सी खरोंच आने पर भी जलन होने लगती है, तो मांस के टुकड़े काटने पर कितनी वेदना होगी ! वह भी शरीर के एक भाग से ही नहीं, किन्तु अनेक भागों से ! वेदना की कोई हद ? फिर भी यहाँ तो इतना ठीक है कि एक बार छेदन- भेदन होने के बाद तुरन्त ऐसे छेदन-भेदन की पीड़ा नहीं सहनी पड़ती। परन्तु नरक गति में तो ऐसे छेदन होने के बाद तुरन्त पूरा शरीर अखंड़ हो जाता है । इसीलिये तुरन्त ऐसे छेदन-भेदन चालु ही रहते हैं। शरीर तुरन्त अखंड़ बन जाता है और उसमें से मांस के टुकड़े काटे जाने का शुरु हो जाता है। इस घोर जुल्म से मांस के टुकड़े काटे जाने का शुरु हो जाता है। इस १५८ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घोर जल्म में एक क्षण भी विश्राम नहीं। सिर्फ छेदन ही नहीं, भाले से भेदन भी होता है, फल की छाल की तरह पूरी चमडी छीली जाती है, यंत्र में पीसा जाता है, शिला के नीचे कुचला जाता है, पत्थरों की वर्षा से सर व अंग टूटते हैं, भट्टी में जलाया जाता है, उबलते हुए धातु के रस या तेल में तला जाता है। इन सबसे नरक का जीव सतत भयंकर यातना सहन करता है। नरक की वेदना से देवता भी नहीं बचा सकते :-. यदि यह बात लक्ष्य में रहे, तो मन को ऐसा होता है कि यदि भूल से भी रौद्रध्यान, कृष्णलेश्या, कषाय या मम्मण सेठ जैसी भारी धन-मूर्छा में नरक का आयुष्य बंध जाय, तो जीव की क्या दशा हो? वहाँ कौन बचानेवाला है ? बलदेवजी देव बने । कृष्णजी को नरक से बचाकर बाहर निकलने के लिये गये। उन्हें उठाया, परन्तु उनके नारकीय शरीर से नरम गुड़ हाथ में लेने पर बूंदें टपकें, इस तरह मवाद टपकने लगा। इसकी इतनी भयंकर वेदना होने लगी कि कृष्णजी को कहना पड़ा - 'भाई ! मुझे यहीं रहने दो। यह वेदना सही नहीं जाती।' और उन्हें वहीं रखना पड़ा ! कहने का तात्पर्य यह है कि... नरक की अति घोर वेदनाओं से कोई बचानेवाला नहीं है। दुनिया में ज्यादा से ज्यादा दर्शन होते हैं - पाप के फलस्म दुःखों के। ये देख-देखकर अपने दुःख में मन को न बिगाड़ना, नये पाप न करना और धर्म के लिये कष्ट अच्छी तरह से उठाना ! लोभदेव के मांस के टुकड़े क्यों काटे जा रहे हैं ? जब धर्मनंदन आचार्य महाराज ने कहा कि लोभदेव के शरीर में से दुष्ट आदमी मांस के टुकड़े काटते हैं और खून इकठ्ठा करते हैं । तब पुरंदरदत्त राजा का वासव मंत्री पूछता है कि भगवन् ! ये लोग मांस व खून क्यों ले रहे होंगे? __ आचार्य महाराज इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं - वहाँ समुद्र के तट पर एक ऐसा सर्प होता है कि जो समुद्र में घूमता है व लाल वर्ण का होता है। उसे आकर्षित करने के लिये आदमी सर पर शहद मिश्रित किया हुआ धान्य व गंध की टोकरी लेकर घूमता है, जिससे वह सर्प आकर्षित होकर किनारे पर आता है ; तब वे दुष्ट पुरुष उसे पकड़ लेते हैं और उसके आगे ढेर सारा मांस, खून व जहर धरते हैं। उन्हें खा-पीकर सांप तगड़ा होता है। फिर वे लोग उसे मारकर उसके शरीर के हजारवें अंश से धातु में मिलाकर सोना बनाते हैं। बड़े शहर के बाजार में सोना तो जितना चाहो उतना आसानी से बिक जाता है, इसलिये इन द्वीपवासियों का इस रीति से सोना बनाने का धंधा जोरदार चलता है। इन्सान को विशिष्ट बुद्धिशक्ति मिली है, तो इस बुद्धिशक्ति का उपयोग वह कहाँ व किस हद तक करता है ? बुद्धि का उपयोग आत्मा के हित के लिए नहीं करना है । जीवों की वैज्ञानिक तरीके से हिंसा कर-करके भौतिक सुख-समृद्धि व सुविधायें बढ़ानी हैं। इस बुद्धिशक्ति को क्या कहा जाय ? अर्थ-काम की ही लालसा हो, वहाँ जीवों पर दया कहाँ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से आयेगी? 'अरे भाई! यदि तुझे मरकर सर्प बनने का अवसर आया, तो तेरी क्या दशा होगी?' इसका तो कोई विचार ही नहीं, तो फिर सामनेवाले जीव के दुःख या उसकी दया का तो विचार ही कहाँ से होगा? आज की खोजों में क्या चल रहा है ? लोभदेव ऐसे दुष्टों के हाथ में फँसा है, जो उसका मांस व खून निकालते हैं। मनुष्य के मांस व खून से समुद्री सांप को पुष्ट करके उस सांप के द्वारा सोना बनाने का धंधा वे दुष्ट लोग करते हैं। कोई भूला-भटका इन्सान हाथ में आये, इसी ताक में वे लगे रहते हैं। वह हाथ में आते ही जुल्म शुरु हो जाते हैं। लोभदेव भी इन्हीं दुष्टों के चंगुल में फँसा है। वह एक बार में न मर जाय, इतनी सावधानी रखते हुए वे लोग उसके शरीर से मांस के टुकड़े काटते हैं व खून इकठ्ठा करते हैं। उसके शरीर में जलन का पार नहीं ! बाद में वे लोग उसके घावों पर मरहमपट्टी करते हैं व दवाई देते हैं। उसे अच्छा-अच्छा खिलाते हैं। छ महीनों में तो लोभदेव पुनः स्वस्थ हो जाता है। अब तो छुटकारा मिलेगा न? (जीते जी कितनी बार मांस काटा जाता है? कहाँ से मिले छुटकारा ? फिर से वही मांस निकालने का सिलसिला शुरु हो जाता है । वे दुष्ट फिर से लोभदेव को जकड़कर बांधकर उसके शरीर में से मांस निकालते हैं व खून इकठ्ठा करते हैं । फिर से छ महीने इसी तरह दवा-दारु, अच्छे खानपान से चंगा करते हैं और फिर से मांस व खुन निकालने का क्रम जारी रखते हैं। इस प्रकार करते हुए बारह वर्ष बीत गये । शरीर तो हाड-पिंजर जैसा हो गया था, लेकिन छुटकारा कहाँ मिलनेवाला था ? उस प्रदेश में दुःख से छुड़ानेवाला कोई नहीं और लोगों को बिल्कुल दया नहीं। छूटे कहाँ से? . वक्त की आवाज सुननी चाहिये । आज हमें कौन-सा समय मिला है ? आज भी पशुओं की क्रूर कत्ल चल रही है। यह हमें सूचित करता है कि ऐसे काल में भी हमें ऐसी कोई भयंकर पीड़ा नहीं और ऐसा भव्य धर्मशासन मिला है, तो इसकी आराधना के सिवाय और क्या अच्छा लगे? आत्मा पर शासन का रंग चढ़ाने व आराधना में मग्न रहने के लिये सचमुच आज का वक्त प्रेरक है, यदि इसे इस तरीके से पहचाना जाय तो। वैसे तो अज्ञानी को यह समय रोने का लगता है। परन्तु रोना किसे होता है ? जिनशासन न पाये हुओं को ! हमें नहीं ! शासन तो कहता है कि 'समय के सूचन को परखो ! यदि अच्छे वक्त मैं आराधना न की, तो फिर बुरे वक्त में तू क्या कर पायेगा? . . बेचारा लोभदेव १२ वर्ष तक हर ६ महीने में एक बार छेदन की भयंकरे पीड़ा भुगतते हुए क्या आराधना कर पायेगा? मरना चाहता है, पर मौत नहीं आती। लोभदेव यही सोचता है कि 'इतनी पीड़ा सहने से तो मरना भला ! इस दुःख से तो छुटकारा मिले!' दुख Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के पहाड़ टूट पड़ने पर इन्सान मौत मांगता है, परन्तु कर्म की लीला निराली है ! मांगने से मौत नहीं मिल जाती । बंधन से जकड़ा हुआ लोभदेव मरने कहाँ जाय? मरना भी आसान नहीं : आप ऐसा मत मान बैठना कि ऐसे अवसर पर मरना भी आसान है ! कर्मयोग से ऐसी पराधीन दशा हो, तो मरा भी नहीं जा सकता । नरक के जीवों को नारकीय पीड़ा से छूटने के लिये मरने की बहुत इच्छा होती है, फिर भी वे ऐसा कर नहीं पाते । वहाँ आयुष्य कर्म बलवान है। निरुपक्रम आयुष्य होने से बीच में आयुष्य टूटता नहीं। यहाँ दुष्ट लोग इतनी सावधानी रखते हैं कि मांस व खून निकालते हुए कहीं लोभदेव मर न जाय । उसे इस तरह से कसकर बांध रखा है कि वह कहीं भागकर भी न जा पाये ! सचमुच संसार में कर्म की विडंबना पर विचार करने जैसा है ! कर्मसत्ता का प्रमाण :- कर्म बांधते वक्त इन्सान यह विचार नहीं करता कि हँसते-हँसते ये पाप तो मैं कर रहा हूं, परन्तु इन कर्मों का फल जब भुगतना पड़ेगा, तब किस प्रकार सहन होगा? क्या कर्म बांधने जैसी चीज नहीं है ? तो फिर यहाँ इस दुनिया में सब जीवों पर इतने अत्याचार, दुःख, संकट बरस रहे हैं। किस कारण से ? किसीका सोचा हुआ कुछ नहीं होता और न . सोचा हुआ, दुःख आ पड़ता है। किस कारण से ? बांधे हुए कर्मों का यह फल है। इसीलिये कर्म बांधने से पहले सोचिये । 'बंध समय चित्त चेतीये रे, . उदये श्यो संताप .... सलुणा' । कर्म उदय में आये, वे तो सहन करने ही पड़ेंगे । वहाँ हाय-हाय करने से क्या फायदा? व्यर्थ ही नये कर्म बंधते हैं। कर्म बांधते वक्त ही चेतने जैसा है। कर्म बांधने के बाद तो तीर्थंकर की आत्मा को भी नहीं छोड़ते । लोभदेव १२ वर्ष तक इस प्रकार अंगछेदन व जलन की अपार वेदना भुगतता है, परन्तु उसे मौत नहीं आती। उसके दुःख के बारे में आप सोचिये व उसी पर रहम खाने के बजाय स्वयं के बारे में सोचिये कि क्या पता मुझे भी इस जन्म में अथवा आगामी जन्म में ऐसा दुःख देनेवाले मेरे कोई कर्म कहीं छुपे हुए होंगे तो? इसीलिये मुझे वर्तमान में सुख मिला है, तो इसका अभिमान करने जैसा नहीं है और न ही संतोष मानकर बैठने जैसा है । मैं किस प्रकार कर्मनाशक उपायों का सेवन करूं? जीवदया, जिनभक्ति, रसत्याग, सतत तपस्या आदि के लिये मैं उद्यम व पुरुषार्थ किया करूं ।' दूसरों का दुःख जानने-सुनने के बाद यही करने जैसा है। यदि सिर्फ दूसरों का दुःख देखकर सोचें – 'बेचारा कितना दु:खी है!' इससे स्वयं को क्या प्रेरणा मिली? स्वयं तो एकदम खाली ही रहे न ! लोभदेव का शरीर हाड-पिंजर जैसा बन गया है। वह सोचता है कि 'अरे! अब तो यह वेदना सही नहीं जाती और यहाँ से छुटकारा मिले, ऐसा Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं लगता। अब तो मौत आ जाय और इस घोर पीड़ा का अंत आ जाय, तो अच्छा हो । परन्तु ऐसे मौत कहाँ सस्ती पड़ी हैं ? भारंड पक्षी लोभदेव को उठाता है : एक दिन लोभदेव के शरीर में से मांस व खून निकालनेवाले दुष्ट पुरुष किसी काम में लगे हुए थे, उस वक्त लोभदेव झोंपडी से बाहर आता है। उसी समय आकाश में उड़ता हुआ एक भारंड पक्षी उसे देखता है। कटे हुए अंग व लहू से सना लोभदेव का शरीर देखकर भारंड पक्षी ललचा गया। भारंड पक्षी इतना बड़ा होता है कि उसके पांवो पर कोई आदमी पूरा लटक जाय, तो भी वह पक्षी उसे आसानी से उठाकर आकाश में उड़ता है। भारंड पक्षी तेजी से नीचे उतरा, लोभदेव को अपना भोज्य समझकर उठाया व तुरन्त आकाश में उड़ा। जैसे ही उन दुष्टों ने अन्दर से देखा, तो शोर मचाते हुए बाहर आये। परन्तु पक्षी तो लोभदेव को लेकर ऊंचाई पर पहुंच गया था। अब क्या किया जाय? बहुत कोलाहल मचाया, आवाजें दीं, परन्तु पक्षी तो चला गया। इस प्रकार लोभदेव ६-६ महीनों में एक बार काटे जाने की पीड़ा में से १२ वर्ष के बाद छूटा । परन्तु दु:ख का अन्त आया ? नहीं ! कर्म मजबूत हों, वहाँ तक पीडा का अन्त नहीं । लोभदेव के अशुभ कठोर कर्म का उदय अभी भी चालु ही है। इसीलिये संयोग बदलने पर भी पीड़ा तो सामने उपस्थित ही है। भारंड पक्षी उसे पांव से उठाकर आकाश में उड़ रहा है और साथ ही साथ चोंच से उसके कटे हुए अंगों में से मांस नोचता है। खन के चूंट-घुट चूसता है। शरीर के किसी भाग में फोड़ा फूटने के बाद डोक्टर उसे साफ करता है, तो भी कितनी जलन होती है ! यहाँ तो कटे हुए भागों में पड़े हुए बड़े जख्मों में पक्षी चोंच से नोंच-नोंचकर मांस के टुकड़े तोड़ता है व खाता है, तो कितनी वेदना होती होगी ! उन दुष्टों के आगे तो दया की भीख मांगता था - 'भाई साहब ! अब मुझे छोड़ो।' परन्तु यहाँ पक्षी के आगे क्या कहे ? दो पक्षीयों के बीच खींचातानी : पक्षी उसे लेकर उड़ते हुए समुद्र पर है, वहीं एक दूसरे भारंड पक्षी ने उसे देखा। वह भी शिकार देखकर ललचा गया । वह भी इसी तरफ बढ़ने लगा । पहला पक्षी छूटने की कोशिश करता है, परन्तु दूसरा पक्षी जल्दी से निकट पहुंच गया । लोभदेव के शरीर को उसने दूसरी ओर से पकड़ा और उसके कटे हुए अंगो पर चोंच मारकर मांस काटने लगा। पहला पक्षी भला यह सहन करेगा? दोनों पक्षियों के बीच लोभदेव के शरीर के लिये खींचातानी चली। दोनों पक्षी चोंच मारते हैं और उसे पांव से पकड़कर खींचते हैं। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ धर्म से सुख सुख चाहिये, उसका उपाय धर्म चाहिये : बेचारे लोभदेव ने १२ वर्ष तो पीड़ा सहन की ही थी ! उस पीड़ा में कुछ कमी रह गयी होगी, तो ये पक्षी उसे पीड़ा दे रहे हैं। कौन बचाये इस पीड़ा से ? पाप करते वक्त इन्सान विचार नहीं करता और पाप के फल स्वरुप दुःख भुगतने का अवसर आये, तब चिन्ता से जला करता है। जगत के जीवों की इस विषमता पर किसीने लिखा है कि 'धर्मस्य फलमिच्छन्ति, धर्मं नेच्छन्ति मानवा: 1 फलं पापस्य नेच्छन्ति, पापं कुर्वन्ति सादरा: 11 अर्थात् लोग धर्म का फल (सुख) चाहते हैं, परन्तु धर्म को नहीं चाहते । पाप का फल (दुःख) नहीं चाहते, और आदर - पूर्वक पाप करते हैं। कैसी विचित्र स्थिति है ! सुखचाहिये, परन्तु सुख देनेवाला धर्म नहीं चाहिये । दुःख नहीं चाहिये, परन्तु दुःख का कारणभूत पाप तो खुशी से करना है ! इस प्रकार सुख मिलेगा ? दुःख टलेगा ? यदि ऐसा होता हो, तो दुनिया में धर्म करनेवाले व पाप छोड़नेवाले बहुत कम हैं। ज्यादातर लोग धर्म से पराङ्मुख व पापाचरण में मस्त होते हैं। वे सब सुखी व दुःख-रहित होने चाहिये। परन्तु ऐसा नजर नहीं आता । अधिकांश लोग दुःख के लिये रोते हैं, सुख को चाहते हैं, परन्तु जिंदगी भर दुःख में तड़पते हैं, सुख देखने को नहीं मिलता। इसीसे सूचित होता है कि पाप से दुःख व धर्म से सुख मिलता है । सुख में भी धर्म क्यों सूझता है ? 'दुःखं पापात् सुखं धर्मात् सर्व शास्त्रेषु संस्थितिः ।' सर्व धर्मशास्त्रों की यह व्यवस्था है कि दुःख पाप से व सुख धर्मसे मिलता है। पूर्व के पाप-सेवन से यहाँ तो दुःख मिला ही है, परन्तु भविष्य में दुःख न चाहिये, तो पाप छोडो । दुःख के वक्त मन से कह दो कि 'यहाँ दुःख सह लुंगा, परन्तु नये पाप नहीं करूंगा ।' पूर्व के किसी धर्मसेवन से सुख मिला हो, तब भी मन से यही कहना कि 'यह सुख तो भोगने से पूरा हो जायेगा, इसके साथ ही साथ इसके पीछे रहा हुआ धर्मबल - - पुण्यबल भी समाप्त हो जाएगा । अब यदि यहाँ पापों का सेवन किया, तो फिर से दुःखों की फौज टूट पड़ेगी । इसीलिये मुझे पापों से कुछ लेनादेना नहीं, सुख में भी धर्म करूंगा ।' - जागता हुआ इन्सान तो दुःख व सुख, दोनों स्थितियों में पाप का त्याग व धर्म का सेवन ही चाहता है। सोये हुए इन्सान को, अज्ञान व मूढ़ इन्सान को सिर्फ पाप-सेवन ही १६३ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिये । ऐसी निद्रा, अज्ञानता, मूढ़ता टालने के लिये दुनिया के दुःख में तड़पते हुए जीवों के सामने देखिये कि उन्हें कैसी असह्य पीड़ायें हैं! ऐसी पीड़ा जो हम पर आ पड़े, तो सह नहीं पायेंगे और ओ बाप रे! कहकर पुकारने पर भी उसमें से छुटकारा नहीं मिलेगा । पाप दूसरों को दुःख देता है, तो क्या हमें नहीं देगा ? पाप हमें तो क्या बड़े से बड़े राजा व चक्रवर्ती को भी नहीं छोड़ता । लोभदेव पर नयी आफत :- उन दुष्टों के चंगुल से छुटा, तो दो बड़े भारंड पक्षियों की नोंक-झोंक में बीच में फँस गया है। जलन हो रही है, सही न जाये ऐसी दारुण वेदना है। हड्डियां टूटती हों, ऐसा लग रहा था, परन्तु छूटे कैसे ? आखिर दो पक्षियों की खींचातानी से उसका शरीर छूटा व आकाश में से सीधे गिरा समुद्र में ! में कैसी वेदना ? समुद्र जैसे ही लोभदेव समुद्र में गिरा, उसके ताजे जख्मों पर समुद्र का खारा पानी छूने से जलन बढ़ गयी । छोटे-से घाव पर थोड़ा-सा खारा पानी छूने पर कैसी जलन उठती है ? यहाँ तो सारे कटे हुए अंग पूरी तरह से खारे जल में डूबे हुए हैं। न तो मरा जाता है और न ही सहा जाता है । जलचर जंतु काट-काटकर पीड़ा में और अभिवृद्धि करते हैं । कवि कहता है कि वैसे तो वह समुद्र में डूब जाता, परन्तु शायद ऐसे विश्वासघाती घोर पापी जीव को रखने के लिये समुद्र भी तैयार नहीं। एक बड़ी लहर से उसे उछालकर किनारे पर फेंक देता है । लोभदेव किनारे पर: कर्म की महिमा : लोभदेव समुद्र में गिरा, परन्तु उसके नसीब जोरदार होंगे, जिससे समुद्र की लहरों ने उसे किनारे पर धकेल दिया । परन्तु यहाँ पर जंगली लोगों की बस्ती नहीं थी । यह सब कौन कराता है ? कर्म ! इन्सान की होशियारी व उद्यम कुछ काम नहीं आते। समुद्र की लहरों ने उसे असुरक्षित स्थान में न छोड़ा, यह भी कर्म की ही महिमा है न ? किनारे पर आने के बाद लोभदेव उठा व अन्दर की ओर गया । वहाँ उसे चन्दन के वृक्ष मिले। उनकी कोंपलों का रस निकालकर अपने घावों पर लगाया और फलों का आहार भी ग्रहण किया। आगे बढ़ने पर एक बड़ा बरगद का वृक्ष नजर आया और कुछ आगे बढ़ने पर आकाश का भाग रत्नों के फर्श जैसा नजर आया। बहुत बड़े संकट में से छूटा है, इसीलिये यह देखकर उसे विचार आता है कि 'वाह ! कितनी बढ़िया जगह है! ये देव क्यों इतनी सुन्दर जगह छोड़कर स्वर्ग में जाकर बसे होंगे ? क्या उन्हें सुन्दर - असुन्दर का पता नहीं चलता ? अथवा यह भी संभव है कि स्वर्ग में तो इससे भी कई बढ़िया स्थान, बढ़िया सामग्री व बढ़िया सुख होंगे। दुनिया में जरुर धर्म व पाप जैसी चीज है, नहीं तो धर्म के बिना वे देव ऊंचे सुख कैसे पाते ? इसी प्रकार पाप के बिना हम जैसे जीवों से भी अधिक भयंकर दुःखों में नरक के जीव क्यों तड़पते ? १६४ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोभदेव को लगता है कि 'सचमुच ! दुनिया में धर्म जैसी चीज भी है और पाप जैसी चीज भी है। इसीसे सुख-दुख मिलते है। अरे! मैंने तो कितने पाप किए हैं ! बेचारे भद्रसेठ को मैंने निर्दयता से समुद्र में धकेला और वहां उसे मगरमच्छ के मुंह में चबाया जाता हुआ देखकर मैं खुश हुआ। मेरे इस पाप के कारण निर्दोष परिवार को भी मौत मिली । धिक्कार है मुझ जैसे पापी को ! अब मैं जीकर भी क्या करूं ? किसी तीर्थस्थान में जाकर आत्महत्या करूंगा ।' इस निर्जन स्थल में अकेला लोभदेव धर्म व पाप के अस्तित्व के बारे में सोच रहा है । बहुत कुछ देखकर आया है, इसलिये गहराई से सोचता है । अपने पापों के प्रति उसे तिरस्कार होता है, परन्तु अज्ञान के कारण यही मानता है कि तीर्थस्थान में जाकर आत्महत्या करने से पापों का बोझ उतर जाता है। अब किस तीर्थस्थान में जाया जाय ? (पिशाचों का आगमन : थका हुआ होने से विशाल बरगद के वृक्ष के नीचे वह सो गया। बरगद के उपर पिशाच इकठ्ठे होकर बातें कर रहे थे । आवाज से लोभदेव जाग पड़ा। वह सोचने लगा कि किस भाषा में बातें चल रही हैं ? संस्कृत भाषा तो नहीं लगती, क्योंकि संस्कृत भाषा तो अनेक प्रकार के विभक्ति - लिंग प्रत्यय आदि से समझनी कठिन है, जब कि यह भाषा तो समझ में आ जाय, ऐसी है ! क्या यह प्राकृत भाषा होगी ? नहीं, नहीं, प्राकृत भाषा तो अमृत के प्रवाह जैसी मधुर भाषा है, यह भाषा तो ऐसी नहीं लगती। तो अपभ्रंश भाषा है ? नहीं ! क्योंकि यह तो संस्कृत - प्राकृत दोनों का मिश्रण लगता है, परन्तु इसमें तो शुद्धअशुद्ध पद हैं, मनोहर है ! बस, यह तो पैशाची भाषा लगती है। यहाँ पिशाच आये लगते हैं। सुनुं तो सही, वे क्या बातें कर रहे हैं ? जागता हुआ पड़े पड़े बातें सुन रहा है । पिशाच परस्पर बातें कर रहे हैं । एक पिशाच पूछता है - 'बोलो, कौन-सा प्रदेश रमणीय है? तब एक ने जवाब दिया, 'जहाँ आम्र वृक्ष में नयी मंजरी आयी हो और अच्छी हवा बहती हो, वह ।' इतने में दूसरा बोला, 'नहीं, नहीं ! सुन्दर तो वह मेरुपर्वत है, जहाँ देवांगनायें घूमती हैं ।' तीसरा कहने लगा, 'अरे ! वह भी नहीं ! जहाँ मनोहर देवियां झूले में झुलती हुई गाती हो, वह मधुर स्वर से गूंजता हुआ नन्दन वन का प्रदेश मनोहर है । चौथा कहता है, 'अरे! रमणीय-अरमणीय का फर्क ही तुम नहीं जानते। रमणीय तो हिमवंत पर्वत है।' वहीं पर एक बोला- 'रहने दो, रहने दो! समस्त रमणीय प्रदेशों में सर्वश्रेष्ठ तो गंगा नदी कहलाती है, जहाँ पर मित्र- वध से लगे हुए पाप भी धुल जाते हैं।' इस प्रकार बातें करके पिशाच तो वहाँ से चले गये । १६५ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोभदेव सोचने लगा कि 'मैं भी गंगा के पास जाकर मेरी आत्मा की शुद्धि करूं।' लोभदेव चल पड़ा गंगा की ओर ! धर्मनंदन आचार्य महाराज पुरंदरदत्त राजा को कह रहे हैं कि 'लोभदेव को अब शुद्धि की लगन लगी, तो गंगा की ओर चल पड़ा ! फिरते-फिरते वह यहाँ आ पहुंचा है।' आचार्य महाराज के श्रीमुख से स्वयं का जीवन-वृत्तान्त लोभदेव बराबर सुन रहा है। कथन पूरा होने पर वह खड़ा हुआ । उसके दिल में भारी मंथन चल रहा है, इसलिये अत्यन्त गद्गद् होकर आंख में अश्रूओं के साथ आचार्य भगवंत के चरणों में पड़कर निवेदन करता है, - तीव्र पाप-संताप में आत्म हत्या की तैयारी : 'हे उत्तम यशस्वी भगवंत! आपने जो कुछ भी कहा, वह पूर्णतः सत्य है, इसमें रत्ती भर भी झूठ नहीं ! अब मैं क्या करूं? मेरे महापापों को धोने के लिये सुलगती हुई चिता में जल मरुं ? या गंगा में डूब जाऊं? अथवा पर्वत पर से छलांग लगाऊं? क्या करूं?' उसे पाप का जोरदार पश्चात्ताप व शुद्धि की तीव्र लगन लगी है। इसीलिये उसका हृदय रो रहा है और वह भयंकर दुःख सहन करने के लिए भी अपनी तत्परता बताता है। कर्म व कुसंस्कारों का भारी मल साफ करना हो, तो यह जरुरी है कि (पापों-कुसंस्कारों को निर्मल करने के लिए ३ उपाय : (१) पाप चाहे छोटे हों या बड़े, उनके लिए अन्तर में जोरदार पश्चात्ताप-खेद-संताप होना चाहिये, वह भी ऐसा हो कि बिल्कुल चैन न पड़े। नजर के समक्ष उनके कटु विपाक के रुप में दुर्गति के दुःख भरे जन्म दिखते रहें और इनका भय रहा करे, तथा उन पापों व पाप करनेवाली स्वयं की आत्मा के प्रति घृणा-जुगुप्सा रहे। (२) दूसरा यह जरुरी है कि पापों से लगी हुई अशुद्धि मिटाकर शद्धि करने की तीव्र तमन्ना व लगन हो, वहाँ स्वाभिमान बीच में न आये कि 'मैं तो इतना प्रख्यात, होशियार व बड़ी उम्र का हूं, मैं गुरु से कैसे कहुं कि मैंने ऐसा अधम पाप किया था?' मन में ऐसा कोई विचार नहीं आना चाहिये । शुद्धि करनी हो, तो मान, माया, बडप्पन, सब कुछ बाजु में रख देना पड़ता है। तभी गुरु के आगे बालक की तरह बिना कुछ छुपाये सही कबुलात हो सकती है। मोहनीय कर्म की कैसी खूबी है कि 'वह जीव को यह नहीं देखने देता कि दिल में पाप के गुप्त शल्य रखे व बाहर बड़े होकर फिरे, तो भवांतर में यह शल्य नहीं निकलेगा, पापवृत्ति की परंपरा चलेगी । वहाँ कैसी भयानक दुर्दशा ? इससे तो यहाँ योग्य गुरु के आगे पापों की आलोचना करके शल्य हटा देना क्या बुरा है ?' पापों के प्रति हृदय-सदन का महत्त्व : (३) तीसरी यह बात जरुरी है कि उन पापों के लिए हृदय रोना चाहिये । सिर्फ पश्चात्ताप करके बैठे, तो मन में इतना ही होता है कि 'यह पाप मैंने बहुत बुरा किया। यह Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठीक नहीं हुआ।' इससे पश्चात्ताप तो होता है, परन्तु दिल में हलचल कहाँ मचती है ? सिर्फ पश्चात्ताप करने से पाप के अनुबन्ध नहीं टूटते । इसके लिए तो अन्तर्वेदना हो, दिल रो पड़े, पारावार खेद हो, हृदय बार-बार गद्गद् हो उठे, स्वयं पर इस पाप के लिये नफरत हो, यह जरुरी है। झांझरिया मुनि के घातक राजा ने ऐसे उत्कृष्ट हृदय-रुदन के साथ पापघृणाआत्मघृणा की, तो इससे पापानुबंध, पाप व देहासक्ति-देहाध्यास आदि ऐसे टे कि वीतराग बनकर उन्होंने केवलज्ञान पाया। समवसरण से देर से लौटने पर गुरुणी द्वारा दिये गये उपालंभ से मृगावती साध्वी को ऐसे द्रवित दिल, अन्तर्वेदना व हृदयरुदन के साथ पापघृणा व आत्मघृणा हुई कि तुरन्त केवलज्ञान पाया। अत: पापपश्चात्ताप के साथ हृदय का रुदन जरुरी है। इसमें से नया सत्पुरुषार्थ अद्भुत जागता है। लोभदेव को ऐसी तीव्र अन्तर्वेदना व हृदय-रुदन के साथ पाप का पछतावा जगा है, इसीलिये आचार्य भगवंत के आगे पापों के नाश के लिये अग्नि में जल मरने, गंगा में डूब मरने या पर्वत पर से छलांग लगाने की तैयारी बताता है। परन्तु आचार्य भगवंत कहते हैं, - 'महानुभाव! सुलगती हुई चिता में तो शरीर जल जाये, यानी शरीर का कचरा जले, परन्तु आत्मा का कर्म का कचरा किस प्रकार जले? पानी में डूबने से शरीर साफ होता है, परन्तु आत्मा कैसे स्वच्छ हो? पर्वत पर से गिरने पर हड्डियां टूट जाती हैं, परन्तु आत्मा के पाप व कर्म कैसे टूटें? इसीलिये यह तो तेरी भ्रमणा है कि ऐसा कुछ करके पाप की शुद्धि करूँ।' आचार्य महाराज के कहने का तात्पर्य यह है कि जिस वस्तु में शुद्धि-निर्मलता करनी हो, उसीमें शुद्धि के प्रयोग किये जाने चाहिये । दायाँ पांव गंदा हो व साबून बायें पांव पर लगाया करे, तो उससे दायाँ पांव थोड़े ही साफ होता है ? आत्मा की मलिनता निकालनी हो और इसके लिये शुद्धिप्रयोग शरीर पर किया करे, तो आत्मा की मलिनता थोड़े ही चली जाती है ? आत्मा के कर्म तोड़ने हों और शरीर को खाई में पटके, इससे तो शरीर की हड्डियाँ टूटती हैं, आत्मा के कर्म नहीं टूटते । लोभदेव पूछता है, 'प्रभु ! तो फिर मैं पाप तोड़ने के लिये क्या करूँ ?' घोर काले पापों को भी तोड़नेवाले १० उपाय : आचार्य महाराज कहते हैं, 'देख, देवानुप्रिय ! आत्मा पर जो गाड़े, काले पाप-कर्म पहले जमा किए हुए हैं, वे सम्यक्त्व सहित तप करने से अवश्य साफ हो जाते हैं। इस तप में अनेक बातें आती हैं । इसीलिये यदि तू ऐसे पाप-कर्मों को तोड़ना चाहता है, तो (१) लोभ छोड़ दे, (२) गुरु का परम विनय धारण कर के, (३) साधुसेवा-वैयावच्च तथा (४) शास्त्र-स्वाध्याय में लग जा, (५) क्षमा को धारण कर, (६) कायोत्सर्ग-ध्यान कर, (७) दूध-दही-घी-शक्कर आदि विगईयों का त्याग कर; (८) भोजन के द्रव्यों में Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षेप कर, (९) अहिंसादि महाव्रतों का निरतिचार पालन करते-करते आत्मा को उससे भावित कर दे। और अन्त में (१०) अनशन से इस शरीर का त्याग करके पंडित मरण साध । बस, इस तरह करने से एकदम काले पाप कर्मों का भी नाश होगा । कर्म किससे आते हैं और किससे टूटते हैं ? आचार्य महाराज ने ये ऐसे उपाय बताये, जो कर्म बंधवानेवाले कारणों से एकदम विरुद्ध है । इसीलिये सहज है कि इन उपायों से कर्म नष्ट हो जायें । (१-२-३) लोभ, अभिमान व स्वार्थ-माया से कर्म बंधते हैं, तो लोभत्याग, गुरुविनय व सेवा से कर्म टूटते हैं। (४) मोह की बातों से कर्म बंधते हैं, तो शास्त्र- स्वाध्याय से कर्म टूटते हैं। (५-६-७) कई बार खानपान, विगई रस व जितनी चीजें मिले, उतनी चीजें खाने की छूट के कारण आत्मा में कर्म का प्रवाह आता रहता है। इसके बजाय तप, रसत्याग व द्रव्य-संक्षेप से कर्म नष्ट होते जाते हैं। 1 (८) बहुत बोलने से कर्म बंधते हैं, तो काउस्सग्गध्यान से कर्म टूटते हैं। (९-१०) हिंसादि से व क्रोध की गर्मी से कर्म का लेप लगता है, जब कि अहिंसादि व क्षमा, उपशम, संलीनता, तप से कर्म का लेप निकलता जाता है । ' लोभदेव को दीक्षा : आचार्य महाराज के द्वारा दर्शाया गया उपाय लोभदेव के हृदय में उतर गया, यह जानने से दिल नाच उठा, हृदय में शान्ति हुई कि 'चलो, मेरे भयंकर काले पाप भी इन उपायों से नष्ट होंगे !' बस, आचार्य महाराज के आगे इन उपायों की याचना की, और आचार्य भगवंत ने देखा कि 'अब इसके कषाय शान्त हुए हैं, इसीलिये चारित्र के योग्य हैं', अतः लोभदेव को दीक्षा दी। राजा पुरंदरदत्त व वासवमंत्री आदि तो देखकर चकित ही रह गये कि 'वाह ! क्रोध-मान- माया - लोभ के ज्वलंत उदाहरण बने हुए ये व्यक्ति एक ही देशना में संसार छोड़कर साधु बन रहे है । ' १९ मोह कषाय परम उपकारी महाकवि आचार्य भगवंत श्री उद्योतनसूरिजी महाराज ने ही देवी के आदेश से प्रौढ़ प्राकृत भाषा में श्री कुवलयमाला चरित्र रचा, उसमें संसार के पांच कारणों में क्रोध - मान-माया - लोभ, इन चार कारणों पर जीवंत दृष्टान्त देकर संसार की बेहूदा स्थिति का वास्तविक वर्णन किया। अनंतानंत काल से संसार में भटकता हुआ जीव अपार दुःख व दुर्दशा का अनुभव कर रहा है। फिर भी ऐसे संसार के प्रति उसे अभाव नहीं होता, ग्लानि नहीं होती । आचार्य महाराज ने इन द्रष्टान्तों के द्वारा संसार के मलिन भावों का जो 1 १६८ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णन किया है, वह सहृदय श्रोता को संसार और उसके कारण क्रोधादि पर खेद - ग्लानि पैदा करा दे, ऐसा है। वर्णन भी इतना रोचक है कि बार-बार पढ़ने को दिल करे । और पुनः पुनः पढ़ने से वैराग्य में अभिवृद्धि हो, ऐसा है। अब धर्मनंदन आचार्य महाराज पुरंदरदत्त राजा के आगे संसार के पांचवें कारण 'मोह' का वर्णन करते हुए कहते हैं, मोहे कज्जविणासो, मोहो मित्तं पणासए खिव्वं मोहो सुगई रुंभइ, मोहो सव्वं विणासेइ 11 गम्मागम्म-हियाहिय-भक्खाभक्खाण जस्स ण विवेगो बालस्स व तस्स वसं मोहस्स ण साहुणो जंति ॥ · अर्थात्, मोह में कार्य-नाश होता है, मोह से मित्रता नष्ट होती है, मोह सद्गति को रोकता है, मोह सर्वनाश करता है, जिसमें गम्य- अगम्य, हित-अहित व भक्ष्य - अभक्ष्य का विवेक नहीं, ऐसे मोह - सर्प के वश साधुजन नहीं बनते । मोह अर्थात् अज्ञान - अविवेक- मूढ़ता, ऐसी कि जिसके कारण जीव अगम्य परस्त्री के भोग में पड़ता है, अहितकारी हिंसादि प्रवृत्ति करता है, अभक्ष्य, मांस-मदिरा आदि उड़ाता है । काम वासना, विषयवासना, रसवासना आदि वासनायें अनादि काल से सही हैं । परन्तु मानव जैसे उच्च भव में विवेक आने के बाद जीव अनुचित भोग का त्याग करता है, अनुचित प्रवृत्ति बंद करता है, अभक्ष्य खान-पान से दूर रहता है, परन्तु विवेक जगा हो, तभी यह होता है। विशिष्ट प्रज्ञा आयी हो, वहाँ स्वयं पर यह नियंत्रण होता है कि 'मुझे यह - यह चीज तो खानी ही नहीं चाहिये, ऐसा तो मुझे करना ही नहीं चाहिये ।' यदि ऐसा विवेक, ऐसी प्रज्ञा न हो, तो यह मोह है, मूढ़ता है, संज्ञावशता है, अज्ञानदशा है। मोहवाली बुद्धि संज्ञा है, तो विवेकवाली बुद्धि प्रज्ञा है । कुदरत ने जो भी बनाया है, वह सब खाना, भोगना जरुरी है ? अज्ञानी-मूढ़ जीव तो यही मानता है कि 'सब कुछ खाया जा सकता है, सब कुछ भोगा जा सकता है, सब कुछ किया जा सकता है।' ऐसे लोग दलील करते हैं कि 'यदि कोई चीज खायी नहीं जाती है, भोगी नहीं जाती है, तो भगवान ने या कुदरत ने बनाया ही क्यों ? अंडे-मांस-कंदमूल आदि खाद्य पदार्थ बनाये हैं, इसीलिये खाये जा सकते हैं, परस्त्रियाँ बनायी हैं, इसलिये भोगी जा सकती है, हिंसादि आचरण की वस्तु हैं, इसलिये इनका सेवन किया जा सकता है 1 कहिये, यह कैसी दलील है ? मूर्खता - मूढ़ता भरी ही न ? कहते हैं, 'आलू बनाये ही क्यों ? खाने के लिए ही न ? इसीलिये आलू खाने में कोई हर्ज नहीं।' अरे भाई ! वैसे देखा जाय, तो अफीन व सोमल जहर भी बनाया है, तो यह भी खाया जा सकता है न ? तेरे शरीर में मांस बनाया है, तो वह भी खाया जाना चाहिये न ? कुदरत तो विष्ठा भी बनाती है, १६९ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो क्या आप वह भी खाने लगोगे? 'बनाया है, इसलिये खाया जा सकता है, भोगा जा सकता है', यह भी कोई दलील है ? यह दलील करनेवाला क्या अपनी माता को भोगेगा? क्या दूसरों को अपने शरीर का मांस खाने देगा? अपनी पत्नी का सेवन करने देगा? अपने पैसे लूटने देगा? दूसरे को स्वयं के सामने झूठ बोलने देगा? अपने प्रति माया-द्रोह-विश्वासघात करने देगा? नहीं, वहाँ तो कहेगा कि 'मेरा मांस, मेरी स्त्री, मेरे पैसे, दूसरों के लिये भक्ष्य, सेव्य, ग्राह्य नहीं', तो फिर 'बनाया उतना खाया जा सकता है, लिया जा सकता है', यह दलील कहाँ रही? अंतर में लालसा व मूढ़ता भरी है, यथेच्छ खान-पान आदि करने हैं, इसीलिये बेबुनियादी दलीलें करता है। मियाभाई बकरीईद करते हैं, दलील ? यह दलील करते हैं कि, 'खुदा को उसकी बलि देने से वह स्वर्ग में जाता है।' अरे भाई ! तो तेरे पुत्र की बलि क्यों नहीं देता? तब कहता है कि 'खुदा ने पुत्र का भोग तो मांगा था, परन्तु वह बलि देते हुए बीच में बकरा आ गया, इसीलिये बकरे की बलि दी और खुदा प्रसन्न हुआ।' इस दलील पर विचार कीजिये कि पहले तो यह खुदा ही कैसा? एक तरफ कहता है कि सब जीव खुदा का सर्जन है, सब जीव खुदा के पुत्र हैं, और दूसरी तरफ खुदा उसीकी बलि मांगता है ? बकरा बनाया भी खुदा ने और खुदा अपने पुत्र तुल्य बकरे की बलि से प्रसन्न होता है ! यह खुदा तो कैसा? क्या इसे एक अच्छा बाप भी माना जाय?' देव अपने बच्चे जैसे पशु का भोग ले, तो एक अच्छे पिता से भी खराब नहीं ? प्रसूति पायी हुई कुतिया को दूसरा कुछ खाने को न मिले, तो वह अपने नवजात पिल्ले को खाकर खुश होती है। क्या ऐसी माता अच्छी कही जाय? नहीं; इसी प्रकार अपनी संतान की बलि से प्रसन्न होनेवाला खुदा एक अच्छा पिता भी नहीं कहलाता, तो महापिता तो कहा ही कैसे जाय ? देवी-देवता को पशु की बलि दी जाती है, वे देवी-. देवता कैसे ? देवी-देवता जीवों के दयालु रक्षक होते हैं या बाघ-चीते की तरह क्रूर भक्षक होते हैं? खुदा व देवी-देवता कल्पनामात्र हैं : वास्तव में सही बात तो यह है कि खान-पानादि के लंपट मूढ़ जीवों ने ऐसे खुदा व देवी-देवता बनाये हैं। वे सिर्फ कल्पना के घोड़े हैं, कोई वास्तविकता नहीं, नहीं तो यदि सचमुच कोई ऐसे जीवभक्षी खुदा या देवता होते, तो वे महाशक्तिमान स्वयं ही जीवों को नहीं खा लेते ? इन्सान के द्वारा बलि क्यों दिलवाते ? क्या उनकी स्वयं की खाने की Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्ति नहीं ? यदि शक्ति नहीं है, तो उन्हें सर्वशक्तिसंपन्न माना, इसका अर्थ ही क्या? कहने का तात्पर्य यही है कि मोहमूढ़ता से ऐसे देव या खुदा की कल्पना करके उनके नाम पर सिर्फ अपनी लालसा-लंपटता का पोषण होता है। (मांसाहार क्यों गैरकानूनी है ? 'कुदरत ने बनाया, इसलिये खाया जा सकता है, भोगा जा सकता है',- यह भी कुदरत की बनावट की कल्पनामात्र है। ऐसी कुदरत जैसी कोई चीज ही नहीं. जो एक इन्सान की तरह सब कुछ इच्छा से बनाने बैठी हो। जीवों के कर्म ही ऐसे-ऐसे हैं, जो जीव के लिये ऐसे शरीर आदि बनाते हैं। फिर चाहे वह पशु-शरीर हो या कंदमूलरुप वनस्पतिशरीर हो ! प्रत्येक जीव के कर्म से उसे उस-उस प्रकार का शरीर मिला है, उस पर दूसरे जीव को क्या अधिकार है कि वह उसे खा सके? खुद के शरीर पर किसीको खाने का अधिकार नहीं, इसी प्रकार दूसरे के शरीर पर स्वयं को भी खाने का अधिकार कहाँ से हो? सारांश में, सब कुछ भक्ष्य नहीं, सब कुछ भोग्य नहीं, सब कुछ आचरणीय नहीं, यह वही समझ सकता है, जो मोहमूढ़ न हो। धर्मनंदन आचार्य महाराज कहते हैं कि मोह ऐसा दोष है कि जो अगम्यगमन, अहिताचरण व अभक्ष्यभक्षण कराता है । जीव मूढ़ता से ऐसा सब करने जाता है, इसका परिणाम क्या? (१) कार्यविनाश, (२) मित्रविनाश, (३) सद्गतिनाश,-व (४) सर्वनाश. (१) मोह से कार्यविनाश :- मोहमूढ़ इन्सान कुछ भी कार्य करने लगता है, तो ऐसा उल्टा कर बैठेगा कि इससे कार्य बनने के बदले बिगड़ेगा । कई व्यापारी व्यापार में मूढ़ता से ऐसा कुछ करके तबाह हो गये। कई शादीशुदा आदमी मूढ़ता के कारण शादी के बाद ऐसी कडवी जुबान व ऐसा धूल जैसा क्षुद्र स्वभाव रखते हैं, जिससे उनका दांपत्यजीवन कडवा बन जाता है। मोह-अविवेक अच्छा सूझने नहीं देता, वह उल्ट आचरण कराता है और परिणाम स्वरुप नुकशान व तबाही आकर उपस्थित हो जाती है। कई बार मोहवश अनुचित कार्य हाथ में लिया हो और ऐसा लगे कि यह कार्य हो रहा है, परन्तु वास्तव में तो वह कार्य कार्य नहीं, परन्तु स्वयं का ही विनाश है। क्योंकि ऐसे कार्य से स्वयं को महा अनर्थ का भोग बनना पड़ता है। अतः मोह से कार्यविनाश ही कहलाता है। (२-३-४) मोह से मित्रनाश...सर्वनाश इस प्रकार : राजा कोणिक ने अपनी रानी पद्मावती के मोहवश होकर भाई हल्ल-विहल्ल के पास कुंडल व सेचनक हाथी की मांग की। हल्ल-विहल्ल ने कहा - "पिताजी के राज्य में से हिस्सा दो, तो हम ये चीजें देंगे।' कोणिक मोहवश विचार करता है कि 'राज्य तो मैंने मेरी शक्ति से पाया है। वह देकर कुंडल व हाथी क्यों लुं ? बल से लुंगा।' वहाँ सलामती न होने से हल्ल-विहल्ल अपने नानाजी चेडा महाराज के पास गये । कोणिक ने मोहवश बनकर Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नानाजी पर चढ़ाई की। खूब लड़ा, परन्तु जीत नहीं मिल रही थी । तब पतित कूलवालक मुनि के प्रपंच द्वारा चेड़ा राजा की नगरी विशाला में स्थित मुनिसुव्रतस्वामी भगवान का स्तूप नष्ट कराया। फिर जीत तो हासिल हुई, परन्तु मोहवश किये हुए ये सब पाप और फिर विशाला का नाश, क्या इसमें कार्यसिद्धि हुई ? नहीं, अन्त में मरकर छठ्ठी नरक में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार मोहवश सर्वविनाश का सर्जन होता है, सद्गति के द्वार बन्द हो जाते हैं। आचार्य महाराज कहते हैं कि, - मोह से मित्रनाश, सद्गति का नाश तथा सर्वनाश होता है।' आज कई लोग अच्छे मित्रों व स्नेहीजनों के साथ ऐसा खेल खेलते हैं व अपने अच्छे मित्र व स्नेहीजन को खो बैठते हैं। मोह के अनेक प्रकार हैं, जैसे कि अज्ञानता, अविवेक, कामवासना की परवशता, खान-पान की लंपटता, अहंत्व का अतिरेक, ईर्ष्या... आदि । इनमें से एक के भी वश पड़े, तो ऐसे आचरण होते हैं, जिनसे अच्छे मित्र को खो बैठते हैं। कोणिक महान श्रावक चेडा राजा जैसे अपने नाना को गंवा बैठा । वर्तमान काल में आठवें एडवर्ड ने लेड़ी सीम्पसन के मोह में ब्रिटिश सल्तनत का आधिपत्य गंवाया व कई अच्छे-अच्छे स्नेही हितैषियों को गंवाया । राजा चंडप्रद्योत के ज्येष्ठ पुत्र अवंतीवर्धन ने छोटे भाई राष्ट्रवर्धन की पत्नी के मोह से छोटे भाई का वध किया और भाई की पत्नी ने तो भागकर चारित्र ले लिया । अवंतीवर्धन इस प्रकार भाई व भाभी दोनों खो बैठा I राजा सोदास खान-पान के लोभ में मोहमूढ़ बनकर जिंदे बालकों का मांस खाने लगा। मंत्रियों को पता चलने पर राजा को निकाल दिया व उसके पुत्र नघुष को राजा बनाया । इस प्रकार सोदास ने मोह में सर्वस्व गंवाया व सर्वनाश को निमंत्रण दिया । यह तो हुई इस लोक की द्रष्टि से बात ! परन्तु परलोक की द्रष्टि से भी मोह से सद्गति बन्द हो जाती है। मोहमूढ़ विषयलंपट सत्यकी नरक में गया। चक्रवर्ती का गाढ़ विषयासक्त स्त्रीरत्न मोह के प्रताप से छठ्ठी नरक में जाता है। चक्रवर्ती की पट्टरानी को कहाँ महाआरंभ, महा परिग्रह संचय, झूठ, चोरी, दुराचार आदि पाप करने पड़ते हैं ? परन्तु तीव्र विषयासक्ति उसे नरक में ले जाती है। मोह की कैसी विडंबना ? मोह के कैसे दुःखद परिणाम ? धर्मनंदन आचार्य महाराज कहते हैं कि मोह सद्गति को रोकता है और सर्वनाश को न्यौता देता है। मोहमूढ़ता ऐसी चीज है कि जिसमें गम्यागम्य, हिताहित व भक्ष्याभक्ष्य का विबेक नहीं रहता । १) मोह गम्यागम्य का विवेक भूलाता है : विश्वामित्र ऋषि मेनका में आसक्त हुए थे। आज की कोलेज के युवक-युवती मोहवश अनाचार की राह पर जाने लगे हैं, कई मोह-मूढ़ श्रीमंत पैसों के जोर पर गम्यागम्य का विवेक भूलकर गुप्त पापों का सेवन करते हैं । १७२ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि एक मोह पर अंकुश रखा जाय, इतना चिन्तन किया जाय कि, ऊंचे मानवभव में यह कुत्ते-गधे जैसी दुर्दशा कैसी ? इसमें कहाँ मोह घटनेवाला है ? अनाचार के सेवन से तो उल्टा मोह की वृद्धि होती है और अन्त में हाथ में कुछ नहीं आता। (२) मोह हिताहित का विवेक भूलाता है : मोहमूढ़ को अपना हित किसमें व अहित किसमें है, इस बात का कुछ भान नहीं होता। चलो, अहित का त्याग करुं और हित का आचरण करूं, यह तमन्ना भी नहीं होती। कनककेतु राजा को राजगद्दी का मोह सता रहा था । पुत्र बड़े होकर राजगद्दी न हड़प ले, उन्हें राजगद्दी न देनी पड़े, इसके लिये जन्म लेते ही अपने पुत्रों के अंगुली, कान या कोई भी अंग में छेदन करा देते, जिससे वे राजा बनने के योग्य न रहे। इसमें हिताहित का भान कहाँ रहा? आप ही विचार कीजिये कि एक या दूसरे प्रकार के मोह में कितना अहित का आचरण होता है ? और कितने सुलभ हितकार्य भी हम खो बैठते हैं ? शरीर की सुखशीलता का मोह सताता है, तो आलसी बनकर माता-पिता, वडिल या गुरुजनों की सेवा से भी वंचित रहना पड़ता है न? राजन् ! मोह से मूढ़ चित्तवाला बना हुआ इन्सान ऐसा विवेकहीन बन जाता है कि वह बहन को पत्नी बनाता है और ईर्ष्या से पिता की हत्या कराता है, जैसे कि यह पुरुष।'.. राजा ने हाथ जोड़कर पूछा - 'भगवंत ! कौन है यह?' । आचार्य महाराज ने उसका परिचय देते हुए बताया - 'वासवमंत्री की दायीं और बैठा है न, वही आदमी!' तब राजा पूछता है, 'प्रभो ! उसने मोह के वश बनकर ऐसा क्या किया, मुझे बताने की कृपा करेंगे? तब आचार्य महाराज कहते हैं - 'महानुभाव ! वह अब भारी पश्चात्ताप के साथ शुद्ध होने के लिए निकला है। अब उसे अपने स्वाभिमान की रक्षा की भी कोई परवाह नहीं, इसीलिये इसकी जीवन-कथा का वर्णन करने में कोई हर्ज नहीं । मोह ने इस पर भारी जुल्म किया है, मोह से यह पागल जैसा उन्मत्त बन गया था। क्योंकि मोह का नशा ही ऐसा है कि इसके नशेवाला किसीकी कुछ नहीं सुनता, यदि सुना हो, तो बराबर समझता नहीं। मोह के नशे में इन्सान को कार्य, संयोग, स्थान कुछ नजर नहीं आता। हारे हुए जूआरी की तरह उल्टे विचार ही करता है। फिर वह न करने योग्य कार्य कर बैठे इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। इससे ऐसे ऊंचे मानव-जीवन में भी वह घोर पतन पाता है। इस बेचारे के जीवन में मोहवश आयी हुई उन्मत्तता के कारण किस प्रकार बहन को पत्नी बनाने व पिता की हत्या करने की घटना घटी, वह हम देखें। . OOL 200000 OOOOOOOOOOOOOO OOOOOOOOOOOOOD 00000000000OOOOODolar Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ o मोहदत्त का द्रष्टान्त इस भरतक्षेत्र में कोशलपुरी नगरी है, जो प्राचीन काल में कोशला कहलाती थी। उस नगरी में कोशल नामक राजा था। उसका अनुशासन कडक था । अपराधियों को ऐसी उग्र सजा देता कि देखकर दूसरे भी कांप उठते । इसीलिये कोई अपराध करने की किसीकी हिम्मत नहीं चलती थी। इसमें भी खास करके परस्त्रीगामी के प्रति तो राजा इतना कठोर था कि उसे कड़ी से कड़ी सजा देता ! किसीकी मजाल नहीं थी कि व्यभिचार के मार्ग पर चल सके । नयी प्रजा का पतन क्यों ? अनादि की वासना व विकारों के गुलाम बने हुए जीव की दशा ही ऐसी होती है कि उसे यदि उग्र अनुशासन का भय न हो, तो वासना - विकारों के उन्माद करने में वह दूसरा कोई विचार नहीं करता और न ही पीछे मुड़कर देखता है। इसीलिये तो आज यह प्रत्यक्ष नजर आ रहा है कि आज से कुछ वर्षों पूर्व पुत्र पर मां-बाप व शिक्षक ऐसा कठोर अनुशासन करते थे, जिससे नयी प्रजा अपराध नहीं कर पाती थी । आज समाज की व्यवस्था इतनी बिगड़ गयी है कि माँ-बाप तथा शिक्षकों का ऐसा कडक अनुशासन नहीं रहा, जिससे नयी प्रजा में अपराधों का प्रमाण बढ़ गया है। आज के युवकों में अनुशासनहीनता, उच्छृंखलता, आलसीपन, व्यभिचार, विलासिता, झूठ, अनीति आदि कितना फैला हुआ दिखता है ? 'बच्चों को डांटो मत, उसकी कोमल भावनाओं को कुचलो मत, समझाबुझाकर उनसे काम लो ।' आदि नये जमाने के नाद शुरु हो गये हैं, परन्तु अनादिकाल से गुनाह - प्रिय जीव-दोषप्रिय जीव, यदि छूट मिले और दोष का सेवन करने में कुछ भय न हो, तो दोष - सेवन करने में कुछ बाकी नहीं रखता, चाहे उसे लाख क्यों न समझाया जाय । नादानी के कारण भावी महान अनर्थों का विचार करने जैसी स्थिति नहीं है और वर्तमान में कोई कडक शिक्षा या सजा नहीं है, फिर शराबी को लगे शराब के व्यसन की तरह जीवों को जिनकी लत पड़ गयी है, वे दोष के व्यसन कैसे छूटें ? उनसे वह पीछे कैसे हटे ? इसीसे आज नयी प्रजा महापतन के मार्ग पर जा रही है । राजा कोशल यह समझता है, इसीलिये उसने कठोर अनुशासन से प्रजा को अंकुश में रखा है, जिससे गुनाह करने से सब डरते हैं । राजपुत्र तोशल गलत राह पर : राजा के तोशल नामक पुत्रने युवावस्था में कदम रखा है। वह नगर में मनचाहे ढंग से घूमता है। भविष्य में उसे राजा बनाना है, इसलिये कोशल राजा यही समझते कि घूमने-फिरने से अनुभव मिलेगा, नया-नया जानने व सीखने मिलेगा। एक बार ऐसा 888888 १७४ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ कि घूमते-घूमते तोशल की नजर एक सेठ की सफेद हवेली पर पड़ी । उस हवेली के झरोखे में एक चांद जैसी मनोहर मुखवाली कन्या नजर आयी । एक तो जवानी, उसमें वासनायें उछल-कुद कर रही हों, वहां अचानक ऐसा अनिच्छनीय दर्शन हो जाय तो समझदार इन्सान को क्या करना चाहिये ? सामने से जोरदार हवा के झोंके से धूल उड़ने लगे व. उससे आंखें एकदम बन्द हो जाती हैं और मुंह फिर जाता है, उसी प्रकार नजर फिरा देनी चाहिये । परन्तु तोशल यहाँ भूला । उस कन्या पर द्रष्टि पड़ते ही मुंह फेरने के बजाय द्रष्टि वहीं स्थिर रखी । कन्या का ध्यान भी राजकुमार के मुख पर गया। परस्पर नजर से नजर मिली व राग पैदा हुआ। बाला से आकर्षित तोशल वहाँ खड़ा रह गया और कामराग से विह्वल बन गया। यदि कन्या ने द्रष्टि का संयम रखा होता व मुंह फिरा दिया होता, तो शायद तोशल आगे नहीं बढ़ता, परन्तु कन्या भी राग में फँसी थी । वह स्वयं बचे कैसे व तोशल को बचाये कैसे ? निमित्त मारता है, निमित्त तारता है। बुरे निमित्त मिलने पर अच्छे इन्सानों का भी पतन होता है । व संतसमागम, वाणी-श्रवणादि अच्छे निमित्त मिलने पर बुरे जीव भी अच्छे बनते हैं। " तोशल व कन्या के संकेत : तोशल को पता चल गया कि यह कन्या भी मुझ पर आकर्षित हुई लगती है, मौका बराबर है। परन्तु इसके साथ मिलन कैसे हो? हाँ, कुछ इशारा करूं और इशारे से जवाब मिले, तो रास्ता निकले । ऐसा सोचकर उसने दायें हाथ से छाती मसली व बायें हाथ की पहली अंगुली ऊँची की। कन्या ने इसके जवाब में अपने दायें हाथ से कुमार की तलवार की म्यान की ओर इशारा किया। अनंत काल से अर्थ-काम में कुशल जीव को ये कलायें सिखानी नहीं पड़ती। सिखाने योग्य तो धर्मकला है। बिना सीखे भी छोटे बच्चों को पैसे चुराने की कला आ जाती है और जवान को काम-विलास की कला भी आ जाती है। नहीं आती है, तो एक धर्मकला। क्या आज के मां-बाप श्रावक-श्राविका हैं ? धर्मकला सिखाते हैं ? आजकल के माता-पिताओं को अर्थकला सिखानी आती है। बच्चों को कहते हैं - 'पढ़ो, पढ़ो ! नहीं पढ़ोगे, तो कमाओगे कैसे? खाओगे कैसे ? पढ़ोगे तो चार पैसे कमाना सिखोगे, भूखे नहीं मरोगे।' इसी प्रकार मातायें पुत्रियों को पाक-कला सिखाती हैं और आगे बढ़कर 'डिग्री न हो, तो लड़की को कौन ले जायेगा?' इस भय से लड़कियों को स्कूल-कॉलेज में पढ़ाते हैं, परन्तु धर्मकला सिखाने की तो बात ही कहाँ है ? कॉलेज पढ़े हुए युवक-युवतियों को सामायिक-चैत्यवन्दन की एक छोटी-सी क्रिया भी नहीं आती। कहाँ से आये बेचारों को? माता-पिता धर्मकला सिखाने को प्रधानता दे, तो न? Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु के श्रावक-श्राविका अपनी संतान को प्रभु की पहचान नहीं कराते ? प्रभु के मार्ग को नहीं समझाते ? फिर भी वे प्रभु के श्रावक-श्राविका कहलाते हैं ? उन्हें जैन कहा जाय या जन ? संतान को प्रभु का मार्ग यानी धर्मकला सिखाने की फर्ज न निभानेवाले व अर्थकाम में उन्हें आगे बढ़ानेवाले माता-पिता प्रभुमार्ग के द्रोही बनते हैं व प्रभु के प्रति कृतघ्न बनते हैं। क्योंकि उन्हें प्रभु का मार्ग कैसे मिला ? पूर्वज इस मार्ग को अविच्छिन्न् रुप से चालू रखते आये, इसलिये मिला। अब आगे नयी प्रजा में यह मार्ग आगे चले; ऐसा प्रयास नहीं करना ? या इस मार्ग को यहीं बन्द कर देना है ? क्या अर्थ- कामकला ऐसी सीखायी जाय कि नयी पीढ़ी धर्म को ही भूल जाय ? वहाँ प्रभु के मार्ग का लोप होता है। क्या यह प्रभु - मार्ग के प्रति द्रोह नहीं ? प्रभु के प्रति कृतघ्नता नहीं ? तोशल व कन्या, दोनों ने परस्पर इशारे किये, इससे तोशल को लगा कि, 'वाह! इस कन्या का जैसा सुन्दर रुप है, वैसी ही होशियारी भी है।' इस प्रकार विचार करते हुए वहाँ से आगे चला व अपने घर पहुंच गया। अब उसे चैन कैसे पड़े ? बस रह-रहकर कन्या काही विचार ! एक ही तन्मयता उसके रुप-कौशल आदि की। योगी का मन परमात्मा में लीन रहता है, योगी को एक मात्र परमात्मा की लगन लगी होती है, उसी प्रकार तोशल को सिर्फ एक कन्या की ही लगन लगी है। अन्य किसी विचार को अवकाश नहीं । ज्यों-त्यों दिन तो पूरा किया, परन्तु अब रात पडी । रात कैसे गुजारी जाय ? तोशल सोचने लगा, 'कन्या से मिलना तो है, परन्तु घनघोर अंधेरा छा गया है, रात में तो चौकीदार भी घूमते रहते हैं । कैसे पहुँचा जाय ? परन्तु काम मुश्किल है, ऐसा सोचकर बैठे रहने से तो काम नहीं हो पायेगा । 'दुःख के बिना सुख नहीं'... यह बात मैं क्यों नहीं सोचता ?" 1 कैसा सूत्र लगाया ? इन्सान को जहाँ दिलचस्पी हो, वहाँ उसे मनचाहे सूत्र लगाना आता है और जहाँ दिलचस्पी न हो, वहाँ उल्टे सूत्र लगाता है। व्यापार में दिलचस्पी हो और यात्रा की बात आयेगी, तो यही सूत्र लगायेगा कि 'यात्रा - वात्रा तो अच्छे पैसे हों, तो होती है । व्यापार के बिना पैसे कहाँ मिलते हैं ?' और यदि यात्रा में दिलचस्पी हो, तो यह सूत्र लगायेगा कि - 'सिर्फ पैसे-पैसे करने से क्या फायदा ? पैसे सुख के लिए ही हैं न ? चलो, थोड़े दिन बाहर घूम-फिरकर आयें ! धर्म में दिलचस्पी हो, तो ऐसे सूत्र लगाता है। तोशल को कन्या से मिलने में दिलचस्पी है, इसलिये यह सूत्र लगाता है कि... 'दुःख के बिना सुख नहीं' सूत्र कितना बढ़िया है ! परन्तु यह जीव पगला है, संसार की बातों में उसे यह सूत्र लगाना आता है, धर्म की साधना में नहीं। स्त्रियाँ वैशाख जेठ मास की गर्मी में रसोई बनाने के लिये तीन-तीन घंटों तक चूल्हे के पास बैठती हैं, गर्मी सहन करती हैं। क्योंकि पता है कि 'गर्मी सहन करने के दुःख के बिना कुटुंब को समय पर भोजन कराने का व स्वयं १७६ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोजन करने का सुख नहीं मिलेगा।' तोशल ने तलवार लेकर म्यान में लगा दी व चला कन्या की सफेद हवेली की ओर ! छलांग लगाकर झरोखे पर चढ़ा । खिड़की में से अन्दर प्रवेश किया और देखा कि कन्या अकेली है, उसके पास कोई नहीं है और वह गुमसुमसी चिंता करते हुए बैठी है। यह देखकर तोशल को लगा कि इसे भी मेरी तरह चैन नहीं पड़ रहा । यह भी मेरा ही रटन करती हो, ऐसा लगता है। अब कोई चिन्ता की बात नहीं । यहाँ तो कोई है नहीं ! ऐसा सोचकर उसने तलवार की म्यान कन्या की पीठ के पीछे से उसके सिर के आगे रखी । कन्या ने इसीका संकेत किया था, इसीलिये यह देखते ही वह तुरन्त समझ गयी कि प्रेमी कुमार आया लगता है। अत्यन्त हर्ष में उसके रोमांच खड़े हो गये। प्रभु-दर्शन से रोमांच कब ? कहते हैं कि अरिहंत के दर्शन से रोमांच खड़े होते हैं। परन्तु कब? दिल को यह प्रेमी मिलने का अत्यन्त हर्ष हो तो! परन्तु अफसोस की बात यह है कि प्रभु ऐसे प्रेमी लगते ही नहीं ! तोशल की म्यान देखकर कन्या समझ गयी कि प्रेमी आया लगता है। वह मन में अत्यंत हर्षित होती है । कुमार के सामने देखकर कहती है, 'मनमोहन' ! खड़ी होकर कुमार को आसन पर बिठाकर उसके सामने बैठती है। राजकुमार अब उसे कहता है, 'स्वामिनी ! तुझे मेरी कसम! सच बता, तू क्या सोच रही है?' देखिये कन्या क्या जवाब देती है! . 'सीलं सलाहणिज्जं , तं पुण सीलाओ होज्ज दुगुणं व । सीलेण होइ धम्मो , तस्स फलं तं विय पुणो वि ॥' अर्थात् 'शील प्रशंसनीय है और शील तो शील से दुगुना होता है। शील से धर्म होता है और उसका फल भी शील ही है।' कितनी सुन्दर बात की? (१) शील से शील बढ़ता है, क्योंकि शुरुआत में कुछ प्रसंगोंमें कसौटी आने पर शील को टिकाये रखनेवाले को इसकी दिलचस्पी जगती है, जिससे बाद में कई प्रसंगों में वह शील को टिकाये रखता है। शील-भंग करनेवाले को न संकोच होता है, न शरम ! इसलिये बाद में धर्म-भ्रष्ट ब्राह्मणी शूद्र से भी ज्यादा नीचीवाली बात होती है। अधिकाधिक शीलभंग होता है, तब शील को बचाकर रखनेवाले को बहुत संतोष होता है कि 'चलो, अच्छा हुआ। बच गये ! इसके बाद आगे भी शीलरक्षा करने के लिये शूरता पैदा होती है। इस प्रकार शील से शील बढ़ता है। (२) शील से ही धर्म है। शील के बिना अन्य व्रत-नियमों की कोई कीमत 8888888888868686868686 १७७ 888888888886868686868 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं । कहा गया है कि.. 'मूल विना तस्वर जेहवा, गुण (दोरी) बिना लाल कमान रे, शील विना व्रत एहवा, भाखे श्री वर्धमान रे' 'साधु अने श्रावकतणा, व्रत छ सुखदायी रे, शील विना व्रत जाणजो, कुशका सम भाई रे. - शील समो व्रत को नहि.' . शील की इतनी कीमत क्यों ? इसका यही कारण है कि शील का भंग करनेवाला, . शील की परवाह नहीं रखनेवाला, अपनी आत्मा को स्पर्शनेन्द्रिय के विषय में इतना अंधा बनाता है कि फिर वह अन्य व्रतों का पालन करते हुए भी उनके मर्म को नहीं पा सकता। (३) शुद्ध धर्म के फल में भी शील है । (A) यहाँ आत्म- रमणता बढ़ने से,-व (B) परलोक में असंक्लिष्ट भोग से।। अर्थात् फल दो प्रकार से है - (A) एक तो, शील के साथ दूसरी व्रत-नियम की साधना करने जाता है, जिससे आत्मरमणता बढ़ती जाती है। इससे ऐसी आत्म-रमणता के महान विकास से शील का भी विकास होता है। (B) परलोक की द्रष्टि से, शुद्ध शील के साथ धर्म की साधना करते हुए जो पुण्यानुबंधी पुण्य पैदा होता है, उससे परलोक में असंक्लिष्ट भोग की सामग्री मिलती है। असंक्लिष्ट भोग : अर्थात् जो वैभवादि प्राप्त हों, उनके भोग चित्त के संक्लेश से रहित होते हैं। चित्त का 'संक्लेश' अर्थात् चित्त में गाढ़ राग-मोह । भरपूर सामग्री होने पर भी ऐसे राग व मोह न हो ! इससे कुशील की कल्पना तक नहीं आती, विचार तक नहीं आता, फिर कुशील के आचरण की तो बात ही कहाँ ? इससे शील चमक उठता है। इस प्रकार परलोक की द्रष्टि से भी धर्म के फल में शील आता है। संक्लिष्ट भोग खतरनाक हैं । चक्रवर्ती की पट्टरानी संक्लिष्ट भोगों में डूबकर नरक में जाती है। जैन धर्म समझने पर भी संक्लेश वाले भोगों के कारण वासुदेव नरक में ही जाते हैं। भोग खराब हैं, परन्तु इनके कारण चित्तमें रहनेवाला संक्लेश, राग, मूढ़ता व आसक्ति का चित्त परिणाम महा खराब है। भोग में चित्त-संक्लेश कैसे आता है ? पूर्व में जो धर्म किया, वह शील-भंग के साथ किया होने से ऐसी धर्मसाधना से पापानुबंधी पुण्य पैदा होने से संक्लेश आता है। इस प्रकार शील की लापरवाही से (A) आत्मरमणता के बदले विषय- रमणता का पोषण होता है, इससे दूसरा धर्म भी दम बिना का रहता है, व (B) चित्तसंक्लेश पुष्ट होता जाय, जिससे परभव में उसकी परंपरा चले, और परभव में Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी मौत होती है। शीलपूर्वक धर्म व धर्म का फल शील :___ इसीलिये कोई भी धर्मसाधना शील के पालन के साथ करनी चाहिये । यह करके भी क्या इच्छा रखनी चाहिये ? शील का विकास ! 'शीलपूर्वक धर्म व धर्म का फल भी शील' । अर्थात् ज्यादा शीलविकास यानी विशेष विषयविरति के लिये धर्म साधा जाता है। इससे जो पुण्य उपार्जित होकर आगे भोग-सामग्री देता है, उसमें संक्लेश-आसक्ति नहीं होगी। कुछ लोग कहते हैं - धर्म नरकदायी भोगसामग्री क्यों देता है ? प्र. - धर्म ऐसी भोगसामग्री क्यों देता है कि जिससे बेचारा जीव उसका उपभोग करके दुर्गति में जाता है ? ___उ. - यहाँ समझने की बात यह है कि धर्म-साधना संपूर्ण रुप से नहीं की, इसलिये मोक्ष न दे सका । तो क्या देगा? दरिद्रता या समृद्धि ? समृद्धि ही देता है। लेकिन शीलविकास के लिये यदि धर्म किया होता, तो ऐसे धर्म से जो समृद्धि मिलती है, उसमें भी शीलविकास होता है, संक्लेश-आसक्ति-लुब्धता नहीं होती। इससे समृद्धि का त्याग व उच्च शील तथा उच्च धर्म मिलता है। इस प्रकार करते हुए आगे बढ़ते-बढ़ते उत्कृष्ट संपूर्ण धर्म तक पहुंचा जाता है, इससे वीतराग, सर्वज्ञ बनकर मोक्ष पाया जा सकता है। कहने का तात्पर्य यही है कि धर्म के फल में भी शील के विकास की ही इच्छा रखी। अब तोशलकुमार से कन्या क्या कहती है, यह देखें। शीलप्रेमी कन्या राजकुमार के प्रति क्यों आकर्षित हुई ? "शील के बिना जीने से क्या फायदा? इसी प्रकार तुम्हारे बिना जीने से भी क्या फायदा? इस प्रकार विचार करते हुए मेरा दिल बेचैन है।' देखिये, शील का इतना महत्त्व समझने पर भी कन्या राजकुमार के प्रति आकर्षित हुई है। शील-विहीन जीवन की कोई कीमत नहीं । शील तोड़ने से तो बेहतर है जीवन समाप्त कर देना ! ऐसा मानने पर भी जिस राजकुमार के संबन्ध से शीलभंग होने की संभावना है, उसका तो त्याग करना ही चाहिये । साथ ही साथ वह यह भी कहती है कि 'तुम्हारे बिना जीने से भी क्या फायदा? अर्थात् तुम न मिलो, तो मरण ही शरण है।' इस प्रकार मन शील व राजकुमार दोनों के बीच झोले खा रहा है। 'शील की रक्षा करुं या राजकुमार को पाऊँ ?' शील का इतना महत्त्व समझने पर भी ऐसा क्यों? आप कहेंगे, 'मोह का उदय होने से सही समझने पर भी गलत राह अपनाने का मन होता है', परन्तु मोह का उदय क्यों हुआ ? यह तो बताईये ! राजकुमार पर नजर ही न डाली होती, कुलीनता की मर्यादा के पालन के लिये मन को कडक रखा होता, 'परपुरुष के दर्शन बुरा निमित्त है', ऐसा Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समझकर दिल में उतारा होता, तो मोह का उदय कहाँ से होता ? जीवन में झाँकने पर दिखेगा कि, (१) कई प्रसंगों पर मोह व क्रोधादि कषाय का उदय होता है, वह असत् निमित्त का स्वागत करने से होता है । (१) राह चलती स्त्री के अंग पर नजर डाली तो मरे ही समझो, अन्तर में राग का विकार जागा ही समझो। (२) ऐसी कथा, उपन्यास या समाचार पढ़ने गये, तो राग मोहनीय उदय में आया ही समझो। (३) अखबार में कुछ ऐसा-वैसा पढ़ा, तो अपना अनचाहा करनेवाले के प्रति द्वेष जगा ही समझो। (४) किसीने हमारा अपमान किया, इसे यदि मन पर लिया, महत्त्व दिया, तो मन में अभिमान आया ही समझो। (५) दीवाली का बाजार या ऐसा ही कोई बाजार सिर्फ देखने गये, कुछ खरीदने की इच्छा न थी, फिर भी देखा न ? तो बस, किसी न किसी चीज का लोभ जगा ही समझो। पैसों को बहुत माना, तो धर्म को भूले ही समझो। इसका अर्थ क्या ? जीने से देखना भला नहीं, परन्तु देखा व रोये । नहीं देखा, नहीं सुना, मन में विचार नहीं किया वहाँ तक सुखी ! बाकी ऐसे श्रवण, दर्शन या स्मरण के असत् निमित्त का सेवन किया, तो अन्तर में चोर जागेंगे ही, मोह व कषाय के उदय जागेंगे ही। इसलिये यह महान चाबी है कि, यदि मोह व कषाय को जागने न देना हो, तो असत् दर्शन, श्रवण या स्मरण न करो । असत् निमित्तों का सेवन न करो। ऐसा निमित्त आने पर उसे तनिक भी महत्त्व न दो । उस कन्या ने खराब निमित्त का सेवन किया है, राजकुमार को खुशी से देखा है, फिर भला मोह का उदय क्यों नहीं जगेगा ? हाँ, कुलीनता के कारण शील की महत्ता समझती है, इसीलिये जब वह कहती है कि 'शील के बिना क्या जीना व तुम्हारे बिना भी क्या जीना ? इसी भ्रमणा में मन झोले खा रहा है,' तब राजकुमार क्या प्रत्युत्तर देता है, वह देखें राजकुमार की उत्तमता : राजकुमार कहता है, 'सुंदरी ! यदि ऐसा ही है, तू शीलवती है, तुझे शील भंग के प्रति नफरत है, तो तू आराम से रह ! तेरे शील की रक्षा कर, मैं जाता हूँ।' इतना कहकर राजकुमार उठा ! राजकुमार भी कुलीन है, दूसरे के पवित्र विचारों की कद्र करनेवाला है, इसीलिये ऐसा नहीं करता कि 'चाहे इस कन्या को शील की इच्छा हो, परन्तु मेरे प्रति आकर्षण भी तो है न ? इसे कुछ और तडपने दुं, जिससे पिघल जायेगी ।' कुलकी व शील की कद्र है, इसलिये चाहे स्वयं बुरे इरादे से आया है, फिर भी कहता है, 'बैठ, तू आराम से शील का पालन कर । मैं जाता हूँ ।' १८० Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज तो ऐसा जमाना आ गया है कि सुशील कन्याओं व स्त्रियों को बहलाफुसलाकर शीलभंग के मार्ग में खींचा जाता है। राजकुमार जाने लगता है कि कन्या उसे पकड़कर कहती है, 'मेरे हृदय के चोर! मेरा दिल चुराकर कहां चले ? मेरी बात तो सुनो।' कन्या अपनी कथा सुनाने लगी। 'मैं इस नगर के नंद सेठ व रत्नवती की पुत्री सुवर्णदेवी हूं। एक श्रेष्ठिपुत्र हरिदत्त के साथ मेरी शादी हुई। मेरा पति व्यवसाय हेतु लंकापुरी गया। उसे जाकर आज १२ साल हो गये, परन्तु कोई समाचार नहीं। यह जवानी महासागर जैसी है, इसमें सैकड़ों कुविकल्पों की लहरें उछलती हैं,- विषय रुपी मछलियाँ कूदती हैं, इन्द्रिय रुपी बड़े मगरमच्छ हैं, कामवासना के आवर्गों से जिसे पार करना मुश्किल है, ऐसे जवानी के महासागर में मेरा ज्ञान नष्ट हो गया, वडिलों का विनय चला गया, विवेकरत्न चोरी हो गया, गुरुवचन विस्मरण हो गया, धर्म का आदेश भूल गयी। अधिक तो क्या कहुँ ? कुल का गौरव, लज्जा, दाक्षिण्य, शील... सब कुछ मैं खो बैठी। कामदेव अब राजा बन बैठा। वासना के जोर में विवेक नष्ट : कामवासना को निरंकुश रखने से कैसी दशा होती है, यह यहाँ देखा जा सकता है। सुवर्णदेवी स्वयं ही कहती है कि पति के विरह में बारह बरस बीतने पर वासना के जोर से ज्ञान नष्ट हो गया, विवेक चला गया, धर्म का आदेश विस्मृत हो गया।' स्त्री सुशील व सुसंस्कारी है, इसीलिये उसे स्वयं का इतना भान होता है कि वासना के जोर में ज्ञान, विवेक, धर्म की मर्यादायें भुला दी जाती हैं। अब सवाल यह उठता है कि इतना भान है, तो वह विवेक को क्यों खो बैठी? इसका जवाब यह है कि उसने स्वयं ही वासना को पुष्ट किया है, इसीलिये विवेक नहीं टिकता। जीवन की कीमत वासनातृप्ति के मूल्य से करने पर जीवन में इसीका लक्ष्य प्रधान बन जाता है। चाहे वासना को संतुष्ट करने की सुविधा हो, परन्तु यह आर्य मानवदेह इस काम में नष्ट करने के लिये नहीं है। काम से विडंबना पाने की काया तो देवभव में, पशु अवतार में व अनार्य मानवजीवनों में भी बहुत मिली, वहाँ भी यही काम व यहाँ सुन्दर मानवभव में भी यही काम करना हो, तो इस विडंबना से रहित काया कहाँ मिलेगी? इन्सान ऐसा सोचता है कि प्र. - काया योग्य उम्र में आने के बाद उसे काम का भाव जगेगा ही न? यह तो सहज भाव है। इस भाव का पोषण करने में अनुचित क्या है ? सारी दुनिया यह करती ही है। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ. - परन्तु यह विचारधारा ही गलत है। क्योंकि यह विचारधारा सिर्फ संसारद्रष्टि विचारधारा है। क्योंकि इन्सान यह मान बैठा है कि 'जन्म लेना, बड़े होना, वासनाओं का पोषण करना व आयुष्य पूर्ण होने पर मर जाना, यही सब कुछ है। विचार कीजिये ! 'सारी दुनिया वासना का पोषण करती है और वासना तो सहज है, इसलिये इसका पोषण करने में कुछ अनुचित नहीं', यह हिसाब रखा हो, तो इसके पीछे द्रष्टि कैसी होती है ? सिर्फ शरीर के सुख ही देखने की या और कुछ ? सिर्फ शरीर - सुखों पर नजर रखने से कामसेवन में कुछ अयोग्य नहीं लगता । परन्तु यह समझने की बात है कि मानवदेह में सुख-सन्मान मानवदेह की विडंबना है । इसके तीन कारण हैं : (१) देह के सुख-सन्मान में आत्मा का भान भूला दिया जाता है । ( २ ) इस सुख-सन्मान में दुश्मन कर्म का दयापात्र बनना पड़ता है । (३) मजे से इसका उपभोग करने में वासना का रोग बढ़ता है । कहिये, ये तीन बातें नजर के समक्ष हों, तो विषय सुख विडंबनारुप न लगेंगे ? 'मानव भव में देह के सुख-सन्मान देह की विडंबना है', यह न समझने से सुवर्णदेवी पति के विरह में वासना के विचार पर अंकुश नहीं रखने से कहाँ पहुंची ? वह राजकुमार से कहती है.. 'बारह - बाहर वर्ष बीत गये, परदेश गये हुए पति का कोई अतापता नहीं, इसलिये शील के विचार छूट गये । खानदान, वडिल, धर्म-आज्ञा सब कुछ भूला बैठी और मन में होने लगाकि क्लेश भरे संसार में प्रिय-समागम के बिना दूसरा सुख क्या है ? सुख तो सिर्फ प्रिय के समागम में है, परन्तु मैं बदनसीब हूं, के वह सुख मुझे कहाँ से हो ? सचमुच मेरा जीना निरर्थक है। इस तरह जीने से क्या फायदा ? वासना के गुलाम बने हुए जीव की कैसी कंगाल दशा है ! उसे संसार में प्रियसंयोग सुख लगता है। 'शील में सुख नहीं, धर्म में सुख नहीं, परोपकार में सुख नहीं और सुख वासना की तृप्ति में !' कैसी लालसा ? हाथ में आये हुए अनमोल मानवजीवन की यही कीमत आंकी है ? बेचारी सुवर्णदेवी भटक गयी है, इसलिये सुख-साधन रुप प्रिय-समागम न मिलने से स्वयं को बदनसीब मान रही है व दुःख-भरे संसार में सिर्फ प्रिय-समागम में सुख मान रही है । इन्सान वासना का गुलाम बनने के बाद कितना नीचे गिर जाता है ? कैसी पागलपन - भरी मान्यताओं का शिकार बनता है ! कैसे नीचे स्तर पर उतर जाता है ? कन्या को अब धीरज न रही। मन में लगा कि 'प्रिय-समागम न मिले, तो जीने से क्या फायदा ? वह कुमार से कहती है, कन्या का आगे का वक्तव्य :- 'इस तरह विचार करके जीवन लीला समाप्त १८२ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने का विचार करके 'जाते-जाते एक बार तो यह दुनिया देख लुं' इस इरादे से गवाक्ष पर चढ़ी, वहीं आपको देखा । देखने के बाद तो मन में न रही कोई शंका, न कोई भय या न ही लाज ! मैं तो एकदम मूढ़ बन गयी, मैं सुधबुध खो बैठी। आपको जब अपनी छाती को हाथ से छूकर अंगुली ऊंची करते देखा, तो मैं आपका इशारा समझ गयी कि यदि तुझे यह हृदय ठीक लगता हो, तो एक बार तेरा संगम होने दे। तब मैंने भी तलवार की म्यान की ओर निर्देश करके संकेत किया कि यदि तलवार का सहारा लो, तो मुझे आप पा सकोगे, इसके सिवाय नहीं । आप तो चले गये । वक्त गुजरने लगा, आप मुझे न दिखे, मुझे मेरी आशा टूटती हुई नजर आयी। अच्छा हुआ, इतने में तो आप आ पहुंचे। यह घर तो ऊंचे कुलवाले का है, इसमें आपको अपमान की चिन्ता न हो व लोकापवाद की परवाह न हो, तो मेरी तैयारी है। मुझे तो अब आपकी ही शरण है। एकान्त में युवक-युवती का मिलन खतरनाक है। राजकुमार तोशल व सुवर्णदेवी, दोनों कुलीन खानदान के हैं, शील के प्रेमी हैं, परन्तु सिर्फ द्रष्टि से भी दोनों का एक बार मिलन हुआ, तो अनर्थ का रास्ता खुल गया। अब एकान्त में मिलन हो और स्त्री कुमार के आगे दीनता दिखाये, फिर कैसा भयंकर अनर्थ होगा? दोनों अनाचार के मार्ग पर चढ़ गये। बाद में राजकुमार चला गया। परन्तु एक बार अनाचार का चस्का लगा, तो चलने लगे रोज के पाप! अनाचार में गर्भ : सुवर्णदेवी से भूल हुई। उसे गर्भ रह गया। गर्भ का विकास होने पर गुप्त थोड़े ही रह सकता है ? उसके पिता नंदसेठ को पता चलने पर चौंक उठा । मन में लगा - 'अरे! इसने तो कुल को कलंक लगाया ! ऐसे सुरक्षित घर में कौन आता होगा?' सेठने राजा से बात की - 'महाराज ! मेरी पुत्री का पति तो परदेश गया है। बारह वर्ष हुए, अभी तक लौटा नहीं । परन्तु मेरी पुत्री को गर्भ रह गया है। जरुर किसी पुरुष के साथ इसके नाजायज संबन्ध हैं। आप जांच-पड़ताल करवा दीजिये, तो पता चले।' (तोशल पकडा गया : राजा ने तुरन्त मंत्री को बुलाकर छान-बीन करने की आज्ञा दी। मंत्री ने रात-दिन के गुप्त पुलिसों को नियुक्त किया। एक बार रात में सुवर्णदेवी के पास आता हुआ तोशल पकड़ा गया। मंत्रीने राजा से बात की। शील के पक्के हिमायती राजा के गुस्से का पार न रहा । तुरन्त ही मंत्री से कह दिया - 'तोशल का वध करवा दो।' राजा की न्याय-प्रियता तो देखिये ! तोशल स्वयं का पुत्र है। आज तक उस पर खूब प्रेम रखा है व भविष्य में उसे राजगद्दी देनी है; फिर भी राजा यह सब भूला बैठा। मन में हुआ कि 'ऐसा शीलहीन पुत्र कुल का नाम कैसे रोशन करेगा? ऐसा कुशील पुत्र तो मेरे नाम को बट्टा लगायेगा । एक दुःशीलता अन्य सारी योग्यताओं को धूल में मिला देती है। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसे यहाँ से निकालने पर और कहीं जाकर भी अपनी कुशीलता से अनर्थ मचायेगा, इसीलिये इसे तो जिंदा रखना ही नहीं चाहिये । अनाचार के भयंकर गुनाह की सजा भी भयंकर ही करनी चाहिये, चाहे वह स्वयं का पुत्र भी क्यों न हो ! इससे प्रजा भी अनाचार करने से डरेगी। कहीं पर अनाचार चल ही नहीं पायेगा।' इसी आशय से राजा ने वध की सजा का आदेश दिया। अब मंत्री क्या बोले? इस आज्ञा का पालन होने पर तोशल को क्या मिलेगा? मन में पैदा की हुई वासना की तृप्ति की अयोग्य वृत्ति का क्या अंजाम आया ? मंत्री उसे नगर के बाहर ले गया। तोशल का हृदय तो भय के मारे जोरों से धड़क रहा है... हाय ! अब तलवार के एक झटके से गर्दन उड़ी ही समझो !' अब अत्यन्त पछतावा होने लगा, 'हाय ! यह मैंने क्या किया? मैं अनाचार के मार्ग पर दौड़ा ही क्यों? क्षणिक सुख के लोभ में मैं क्यों अंध बना?' इस तरह पछतावा करने से भी क्या फायदा? फिर भी पुण्य थोड़ा प्रबल है। देखिये मौत से कैसे वह बचता है? मंत्री तोशल को बचा लेता है : मंत्री तोशल को वध हेतु श्मशान में ले तो गया, परन्तु वैसे उसे तोशल के प्रति आदर था, इसलिये विचार आता है कि 'यह तोशल योग्य राजकुमार है, परन्तु जवानी के उन्माद में बेचारा भटक गया व अकार्य में चढ़ गया। ऐसे अच्छे युवक की जिंदगी क्यों नष्ट की जाय ?' इसलिये वह तोशल से कहता है - 'कुमार ! पिताजीने तो तुझे शीघ्र मार डालने का मुझे आदेश दिया है। परन्तु तू मेरा स्वामी है, आशास्पद नौजवान है । तुझे मैं किस प्रकार मरवा डालुं ? ऐसा करने में मेरा दिल नहीं चलता। तू जीवित रहेगा, तो फिर कभी अच्छे सकतों से इस पाप को धोकर जीवन को उज्ज्वल बना सकेगा। मर जायेगा, तो सुकृत करने का अवसर खो बैठेगा।' अतः मैं तुझे छोड़ देता हूं। तू यहाँ से परदेश चला जा और ऐसे देश में जाना कि कोई तुझे खोज ही न पाये और यह बात किसीसे कभी मत करना । उड़ते-उड़ते भी यह खबर यदि राजा तक पहुंच गयी, तो मुझे मौत के घाट उतरवा देगा। जा, सुकृतों से अपने जीवन को उज्ज्वल बनाना।' मंत्री कैसा गंभीर, दीर्घदर्शी व युवक की जिंदगी की कीमत आंकनेवाला मैत्रीभावयुक्त दिलवाला था! राजकुमार तोशल ने मंत्री का खूब आभार माना व वहाँ से गुपचुप निकल गया । सीधा पहुंचा पाटलिपुत्र ! राजकुमार को तो जैसे नवजीवन मिला ! वह भी कितनी बड़ी ठोकर खाकर! स्वयं राजा बनने का हकदार था। राज्य तो गया ही, परन्तु राज्य के खजाने की एक फूटी कौड़ी भी न मिली। राज्य के सिपाहियों-या नोकरों में से उसे एक सिपाही या नौकर न मिला । खाली हाथ घर से निकलना पड़ा । किस कारण से ? सिर्फ एक परस्त्री में आसक्त बनकर शील की मर्यादा का उल्लंघन किया, इसीलिये । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि शील-भंग की इस पृथ्वी पर इस जन्म में भी इतनी बड़ी सजा हो, तो भवान्तर में कितनी बडी सजा होगी ! शील भंग करके ऐसे कौन-से अमर सुख के सागर मिल जाते हैं कि वह करके बड़ी सजा को निमंत्रण दिया जाय ? ऐसा परस्त्री के क्षणिक आनंद का लोभ छोड़ देना चाहिये । शीलधारी गृहस्थ को स्वस्त्री में संतोष रखना चाहिये। समझना चाहिये कि 'विभिन्न रंगों के गिलास में पानी तो वही का वही है, तो फिर गिलास पर मोह कैसा? भविष्य में दीर्घ काल तक वासना की आग भड़काये, ऐसे कुसंस्कार पैदा ही क्यों किये जायें ? ऐसे कुसंस्कार पोषक दर्शनवांचन या श्रवण-स्मरण किये ही क्यों जायें ? ब्रह्मचारी गृहस्थ या साधु को यह सोचना चाहिए कि 'यदि मैं स्वेच्छा से एकदम निर्मल ब्रह्मचर्य का पालन करूंगा, तो उसके अभ्यास में भोग की खुजली की ज्वाला न सुलगने देने से अन्तर में ऐसी तृप्ति व निर्विकारता का महान आनंद पैदा होगा, जिसके आगे विकार का कृत्रिम आनन्द असह्य दाह जैसा लगेगा। यह तो सीधी-सी बात है कि क्या विकार का पोषण करके कभी ऐसा हुआ है कि फिर से विकार ही न जगे व फिर से यह बला पीछे ही न पड़े ! यदि इसका अन्त ही न आये, तो विकारों का पोषण करके आनन्द क्यों माना जाय? इसके बजाय इसे दबाकर नित्य तृप्ति का आनन्द क्यों न माना जाय? राजकुमार तोशल पाटलिपुत्र पहुंच गया व वहां के राजा जयवर्मा की सेवा में लग गया। सुवर्णदेवी को उसके परिवारजन धिक्कारने लगे। इस बीच उसे पता चला कि 'राजा के हुकम से मंत्री ने राजकुमार तोशल का वध कर डाला' । इससे उसे बहुत संताप हुआ कि 'अरे अरे ! मेरे कारण बेचारे तोशल को ऐसी भयंकर मृत्युदंड की सजा हुई ! मैं कैसी अभागिन?' कुटुंब की ओर से धिक्कार, तोशल का वध.. इस दुःख से परेशान होकर एक रात वह घर से भागी व नगर के बाहर निकलकर उसने पाटलिपुत्र का रास्ता लिया। जंगल से होकर जाना था, इसमें उसे एक व्यक्ति का साथ मिल गया, इससे वह कुछ आश्वस्त हुई। परन्तु भाग्य उल्टा है, उसे शान्ति कहां से मिले? स्वयं गर्भवती है, प्रसूति के दिन निकट हैं, इसलिये वह तेजी से चल नहीं सकती और उसका साथी तो बहुत तेज गति से चल रहा है, वह पीछे अकेली रह गयी। जंगल के रास्ते में रात पड़ी। चारों ओर बाघ-चीतों व जंगली प्राणियों की भयंकर आवाजें सुनायी दे रही हैं, इससे भय व घबराहट का कोई पार नहीं । भय के मारे कांपती है व रोने लगती है - 'हे तात ! बाल्यावस्था में आपको अति प्रिय इस पुत्री को आज आपका वियोग क्यों हुआ? हे माता ! तू मुझे आज क्यों बचाने नहीं आती? हे नाथ ! आप कहाँ गये? हे Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाई ! हे सखी ! हे वृक्ष ! मेरा कौन आधार? मैं क्या करूं? कहाँ जाऊं?.....' रोते-रोते वह बेहोश हो गयी। प्रसूति का दुःख :- ठंडी हवा बहने से सुवर्णदेवी होश में आयी । घबराती हुई, धीरे-धीरे आगे बढ़ी। प्रसूति का समय निकट आने से पेट में दर्द होने लगा। परन्तु वह समझ नहीं पायी कि यह दर्द प्रसूति के कारण है, इसलिये मन में खेद करती है कि 'यह दर्द कहाँ से आया?' थोड़ी देर में तो कुख में से गर्भ बाहर आने लगा। वह तुरन्त सावधान हो गयी। वहाँ न कोई दायी माँ थी, न ही कोई अन्य स्त्री और गर्भ में एक नहीं, दो-दो जीव थे। प्रसूति की पीड़ा का कोई पार नहीं । स्त्री चाहे बड़ी राजा की रानी हो, तो भी उसे यह कैसा दुःख? शास्त्र कहते हैं - स्त्री को प्रसूति की वेदना इतनी भयंकर होती है कि उस वक्त तो उसे वैराग्य आ जाता है कि 'नहीं चाहिये यह विषय-सेवन का सुख ।' परन्तु यह अल्पकालीन दुःख से उत्पन्न वैराग्य लंबा थोड़े ही चलनेवाला है ? वेदना मिटने पर ही फिर से विषय की आसक्ति तैयार ही समझो। सोचने की बात तो यह है कि ऐसे भयंकर दुःख से मिश्रित सुख पर कायमी वैराग्य न आये, तो देवलोक में, जहाँ प्रसूति आदि की पीड़ा ही नहीं, वहाँ विषय-सुख पर वैराग्य आयेगा ही कहां से? फिर तो विषयासक्ति के पाप से कैसे दीर्घ दुर्गति के भवों में भटककर मरने का दुःख? युगल का जन्म : सुवर्णदेवी का स्दन : सुवर्णदेवी ने एक बालक व एक बालिका को जन्म दिया। देवकुमार-कुमारी जैसे इस युगल को देखकर उसे रोना आ गया। रोते-रोते वह बोलने लगी, . 'हे पुत्र ! तू कैसा नसीबदार है कि तूने मेरा रक्षण किया ! तू गर्भ में था, इसीलिये इस भयंकर जंगल में मेरी मृत्यु नहीं हुई। नहीं तो जहाँ बाघ-चीते आदि भयंकर जंगली जानवर घूमते हों, वहाँ बलवान भी नहीं बच सकते, तो मैं अबला बचूं ही कैसे? पुत्र ! मैं कैसी अभागिन कि तेरा जन्मोत्सव भी नहीं मना सकती। हे वत्स! पति, पिता आदि सबसे मैं त्यागी हुई हूं, तू ही मेरा नाथ है, तू ही मुझे शरण रुप है, तू ही मेरा आसरा है, सहारा है।' . इन्सान को भाग्य की पराधीनता सहनी पड़ती है, परन्तु बुरे काम की पराधीनता तो नहीं न? भाग्य जो कुछ भी बुरा दे, वह सहना पड़ता है, किन्तु बुरे काम करने का पुरुषार्थ भी करना ही पड़े, ऐसा तो नहीं है न ? या अपकृत्य भी भाग्य ने करवाया? नहीं! बुरे काम भाग्य से नहीं, परन्तु विपरीत पुरुषार्थ से : ऐसा मत समझियेगा कि बुरे काम भाग्य कराता है। यदि ऐसा हो, तो भाग्य तो साथ में ही रहनेवाला है। क्योंकि पूर्व के भाग्यवश यहाँ के बुरे कामों से ऐसे नये भाग्य पैदा होंगे, जिससे फिर से ऐसे बुरे काम होंगे ! इसका तो कभी अन्त ही नहीं आयेगा और कभी मोक्ष भी नहीं होगा ! वास्तव में तो भाग्य यानी मोहनीय कर्म तो अन्तर में रागादि भाव जगाता है, Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतना ही है, परन्तु बाद में बुरे काम, बुरे विचार, बुरे वर्तन व बुरे भाषण तो आत्मा के स्वतंत्र प्रयत्न के कारण ही होते हैं । आत्मा के चैतन्य में ज्ञान व वीर्य हैं । यह वीर्य कैसा प्रगट किया जाय, इस मामले में आत्मा स्वतंत्र है। यदि जीव कर्म के उदय का मूर्ख गुलाम बने, तो वीर्य उल्टे रास्ते मैं स्फुरित होगा। परन्तु ऐसी मूर्खता न करे, गुलामी मोल न ले, तो अन्य अच्छे विचार-वाणी-वर्तन में वीर्य स्फुरित करने में आत्मा स्वयं स्वतंत्र है, ऐसा समझकर यही करना चाहिये। आस्तिक भ्रमणा में गुलाम : आज कई आस्तिक गिने जाने वाले भी भूलते हैं । मादक, उत्तेजक खानपान, वारंवार खानपान, वासनोत्तेजक वांचन-दर्शन-चिन्तन, स्त्रियों का अति संसर्ग आदि करके भोंग की लालसा जीवंत रखता है व भोगों में लीन बना रहता है, फिर मानता है कि 'क्या करूं? मेरे भोगावलि कर्म ही ऐसे हैं, उनके कारण ही यह सब भुगतना पड़ता है; नहीं तो भोग की भावना व प्रवृत्ति कहां से हो ?' इस भ्रमणा में पड़े उसका उद्धार किस प्रकार हो ? ऐसे लोग यह नहीं देखते कि ऐसे कर्म के उदय भी तेरे खराब निमित्त-सेवन से मोल लिये गये हैं। नहीं तो, कर्म तो कई ऐसे हैं कि निमित्त अच्छे रखे हों, वीतराग की वारंवार भक्ति, स्मरण, जाप, स्तवना रखी हो, साधु सेवा - जिनवाणी श्रवण, सादे खान पान, अल्प बार खान-पान, आध्यात्मिक वांचन-चिंतन आदि किये जायें व बुरे निमित्तों से दूर रहना हो, तो वे कर्म तीव्र विपाकोदय बताने के बदले मंद उदय बताकर चले जाते हैं। इस प्रकार पहले कहा गया, इस तरह मोहनीय कर्म तो अन्तर में खराब भाव ही जगाता है, परन्तु बाद में बुरे विचार-वाणी-वर्तन चले, यह तो आत्मा के स्वतंत्र वीर्य के दुरुपयोग के कारण ही है। यह न समझने के कारण जीवन की पिछली अवस्था में भी वासना की गुलामी नहीं छूटती। कर्म के उदय को मानने से आधे नास्तिक तो कहे जाते हैं, परन्तु भोग के लालची होने से आस्तिकता की दूसरी ओर जो वीर्य-उद्यम प्रयत्न का आत्मस्वातंत्र्य, वह न मानने के कारण आधे नास्तिक कहे जाते हैं। __ सुवर्णदेवी को कर्म का उदय तो था ही, परन्तु साथ ही साथ काम-वासना के विचार भी किये, राजकुमार तोशल को राग से देखा, घर में एकान्त में उसका स्वागत किया, उसके आगे दीनता बतायी, यह सब आत्मा के स्वतंत्र वीर्य-प्रयत्न का खतरनाक दुरुपयोग कहा जाता है, इसीसे वह पतित हुई। एक ही क्वॉलिटी के नंग :। देखिये, पति-पिता-माता का सहारा खो दिया, फिर भी सही राह नहीं सूझती । पुत्र भी इसी क्वॉलिटी का नंग है न? उसका सहारा भी खोने की संभावना है, फिर भी मोह की Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैसी विडंबना कि सुवर्णदेवी उसकी शरण लेती है; परन्तु प्रभु की शरण स्वीकारने का मन नहीं होता ! आपने भी अपने जीवन में कोई छोटा या बड़ा सहारा गंवाया होगा, कर्म की छोटी या बड़ी मार खायी होगी। फिर भी निरीक्षण कीजिये कि ऐसे समय में प्रभु का सहारा कभी लिया था ? यहाँ-वहाँ जाने की क्या आवश्यकता है ? एक ही क्वॉलिटी के नंग में एक-दो जगह ठगे गये, फिर क्या बार-बार उसीमें फंसना? सुवर्णदेवी ऐसे भयानक जंगल में है, जहां उल्लूओं की व बाघ-चीतों की आवाजें सनायी देती हैं। इसलिये वह मन में विचार करती है कि अब क्या करूं? फिर से विचार करती है कि 'चाहे जो हो, परन्तु बच्चों को तो बचाना ही है, उन्हीं से दुःखों का अन्त आयेगा। बच्चों को छोड़कर भागने की जरुरत नहीं है; नहीं तो मुझे बाल हत्या का दोष लगेगा। सुवर्णदेवी ने तोशल की अंगूठी बालक के गले में बांधी व अपने नाम की अंगूठी बालिका के गले में बांधी। बाद में एक कपड़े के एक छोर पर बालक को बांधा व दूसरे छोर पर बालिका को बांधकर गठरी बनायी । गठरी वहीं रखकर वह स्नान करने के लिये झरने के पास गयी। बाघनी बच्चों को उठाती है : हुआ यों कि एक सद्यप्रसूता बाघनी बाहर घूमने निकली थी। उसने दूर से वह गठरी देखी, तो वहां आयी। गठरी अपने दांतों से उठाकर वह चलने लगी। रास्ते में गठरी की गांठ छूट गयी व उसमें से बालिका नीचे गिर गयी, परन्तु बाघनी को इसका ध्यान न रहा और वह तो आगे चल पड़ी। कहिये, गठरी देखकर बाघनी उसके समीप आयी, तब उन दोनों बच्चों का कौन रखवाला था? फिर भी बाघनी को उन्हें खाने का मन न हुआ? खैर, उठाकर जाने के बाद भी कौन रखवाला था कि बालिका नीचे गिर पड़ी व बाघनी का उस ओर ध्यान भी न गया? आगे जाकर बालक भी बचने ही वाला है, तो उसका भी कौन रक्षक है ? इन्सान अभिमान करता है कि 'सब कुछ अच्छा-अच्छा मैं ही करता हूं'... यह अभिमान किस काम का? यह अहंकार गलत है, अनुचित है। जीव के शुभ कर्म ही उसे बचाते हैं। संसार में मदद करनेवाले का उपकार मानना, किन्तु उसके भरोसे न रहना : दूसरे की ओर से रक्षण मिलता हो, सहारा मिलता हो, मदद-आश्वासन-सहानुभूति मिलती हो, तो यह सब अपने पूर्व के शुभ कर्म के उदय के कारण ही है। तो क्या सहायक का उपकार न माना जाय ? नहीं, उपकार तो जरुर मानना चाहिये, परन्तु उसका इतना भरोसा करके भी न बैठना कि शुभोदय पलट जाने पर किसीकी ओर से मदद, सहानुभूति न मिले, तो भी शोक न हो; उसके प्रति द्वेष न हो। मन में ऐसा लगता है कि 'मेरे शुभ कर्मों का उदय चल रहा था, इसीलिये दूसरों को मदद करने का मन होता था। अब शुभोदय खत्म हो गया लगता है, इसीलिये किसीको मदद करने का मन नहीं होता। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हक कहाँ रखा जाय ? स्नेही-स्वजन द्रोह करें, तब क्या विचार करना? दुनिया मुझसे नहीं, मेरे शुभोदय से बंधी है। हमारा शुभोदय हो, तभी तक दुनिया हमारी, स्नेहीजन हमारे ! यह विचार रहे, तो दुनिया पर हक रखने या आशा रखने का सवाल ही नहीं उठता । हक शुभोपार्जन पर रखा जा सकता है, आशा शुभ की रखी जा सकती है। पुत्र द्रोह करें, तब क्या विचार किया जाय ? माता-पिता पुत्र को अच्छी तरह से पाल-पोसकर बड़ा करते हैं। बाद में वही पुत्र जब पत्नी के मोह में ऐब दिखाता है, तो आशा-भरे मां-बाप को दुःख होता है कि 'अरे! पाल-पोसकर इतना बड़ा किया, इसका यह नतीजा? क्या हमें अनुकूल रहना इसकी फर्ज नहीं ?' यह दुःख क्यों ? पाल-पोसकर बड़ा किया, इसलिये उस पर हक जताते हैं कि इसे हमको अनुकूल होकर रहना चाहिये, हमें सुख देना चाहिये । परन्तु वहाँ यदि सोचने का नजरिया बदल दें, हक व आशा शुभोपार्जन की रखी जाय, तो पुत्र के कारण न दुःख होगा, न ही उसके प्रति द्वेष होगा। मन में ऐसा महसूस होगा कि 'यह पुत्र टेढ़ा चल रहा है, यह तो थर्मामीटर है। इससे मेरे शुभ की तंगी व अशुभ का बुखार सूचित होता है। थर्मामीटर में बुखार चढ़ा हुआ आये तो उसके लिये दुःख या थर्मामीटर के प्रति द्वेष नहीं करना चाहिये, बुखार को भगाने का प्रयत्न करना चाहिये । मैं भी अब शुभोपार्जन में जुट जाऊं। जीवन में चित्त की शान्ति टिकाये रखने के लिये व सुकृत का उल्लास जगाने के लिये दो महान चाबी हैं - (१) दुनिया में जो भी अच्छा होता है, वह शुभोदय पर आधारित है, (२) असुविधा-आपत्ति तो थर्मामीटर है। (१) जो कुछ भी अच्छा होता है, वह शुभोदय के कारण है, मन के कारण ' नहीं, यह विचार जीवन में कितनी राहत देता है ? जमाना बहुत बुरा है ... यही शोर आप मचाते हो न? याद रखिये, जमाना खराब नहीं, हमारे कर्म खराब उदय में हैं । इसलिये शुभ में अभिवृद्धि करो। बुरे वक्त में तो शुभोपार्जन ज्यादा करना चाहिये, धर्म बढ़ाना चाहिये। जमाने का बहाना बनाकर रात्रिभोजन, अभक्ष्य कंदमूल भक्षण, प्राणिजन्य दवाओं का सेवन, अनीति, झूठ आदि पाप, व्याख्यान, सामायिक, प्रतिक्रमणादि पवित्र धर्मक्रियायें छोडकर रेडियो, अखबार, क्लब, पिक्चर आदि पाप धडल्ले से चल रहे हैं। कैसा गलत रास्ता है ? सुवर्णदेवी के दो बच्चे बाघनी की झपट में आये, परन्तु उनका शुभोदय जागृत था, इसलिये बाघनी ने उन्हें तुरन्त खाया नहीं। दोनों को बांधी हुई गठरी उठाकर चली। लेकिन शुभोदय जागता होने से एक तरफ की गांठ ढीली पड़ने से बालिका नीचे गिर गयी । बाघिन को इसका पता भी न चला। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म की विचित्रता बालिका वनदत्ता कहाँ ? जंगल में बालिका भूखी नहीं मर जायेगी ? जंगली प्राणियों से मारी नहीं जायेगी ? नहीं, शुभोदय जागृत है, इसलिये ऐसा कैसे हो सकता है ? अचानक वहाँ जयवर्मा राजा का दूत आया । इस सुन्दर, नवजात बालिका को देखकर उठा लिया व अपनी पत्नी को देकर कहा - 'ले, यह वनदेवी की भेंट ! अब संतान प्राप्ति के लिये यहाँ-वहाँ मत भटकना | गर्भ धारण करने की पीड़ा सहे बिना तुझे तो तैयार माल मिल गया।' बालिका को देकर दोनों पाटलिपुत्र आये और बालिका का नाम रखा 'वनदत्ता' । बाघनी के मुंह में से शुभोदय ने ही बचाया न ? बालिका का शुभोदय कैसा काम आया ? सामान्य तौर पर माता-पिता बच्चों के संरक्षक कहे जाते हैं, परन्तु यहाँ तो देखिये ! माता-पिता तो कहीं दूर हैं । अरे ! माता तो पास में ही थी, किन्तु कितना संरक्षण दे सकी ? बाघनी के मुंह तक पहुंचने के बाद भी संरक्षण करनेवाला कौन ? स्वयं के शुभ कर्म का उदय । ऐसी दीये जैसी स्पष्ट बात होने पर भी जीव को शुभ का विश्वास न हो, शुभ के संचय की परवाह न हो, और अशुभ के ढेर जमा कराये ऐसे वाणी, वर्तन व विचार में इसे रहना है, यह मूढ़ता है। संसार के सुखसन्मान की लालसा यह मूढ़ता कराती है। बालिका का तो रक्षण हुआ, परन्तु बालक का क्या हुआ ? उसका शुभोदय किस प्रकार काम करता है, यह देखें । बाघनी उसे लेकर आगे जा रही है, इतने में पाटलिपुत्र के राजा जयवर्मा का पुत्र शबरसिंह, जो शिकार के लिये निकला था, उसने दूर से बाघनी को जाते हुए देखा। उसने तुरंत उसकी ओर निशाना ताककर बन्दूक में से गोली छोड़ी । बाघनी का ध्यान नहीं था, वह तो सहज रुप से चली जा रही थी । वह गोली लगते ही घायल होकर भूमि पर गिर पड़ी। राजपुत्र को बालक की प्राप्ति : ... राजपुत्र ने पास में जाकर देखा, तो बाघनी के मुंह में से छूटी हुई गठरी में एक सुन्दर बालक दिखा। देखते ही वह तो खुश हो गया। उसने बालक को उठाया व घर लाकर पत्नी को सोंपते हुए कहा - 'ले प्रिया ! तू पुत्र चाहती थी न ? मैं तेरे लिये पुत्र लेकर आया हूं।' पत्नी तो अत्यन्त आनंदित हो गयी। बाहर यही बताया गया कि 'स्त्री को गुप्त गर्भ था और पुत्र का जन्म हुआ है।' पुत्र का जन्मोत्सव धाम- धूमपूर्वक मनाया। उसका नाम 'व्याघ्रदत्त' रखा । कर्म की विचित्रता तो देखिये ! राजकुमार को बालक कब मिला ? बालक जिंदा १९० Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैसे रहा ? बाघनी को मरणान्त कष्ट का पापोदय जगा तब न? कैसी अजीब बात है। संसार में लाभ पानेवाले का पुण्य तो है, परन्तु वह उदय में आने के लिये दूसरे जीव के पापोदय पर उसे आधार रखना पड़ा। दूसरे का पापोदय जगे, तब हमारा पुण्योदय हो यह कैसी विचित्रता ! ग्यारह बजे गरमागरम भोजन पुण्य के बिना नहीं मिलता। परन्तु यह मिलने का पुण्योदय कब जगता है ? असंख्य स्थावर जीवों को मृत्यु के महा दुःख का पाप उदय में आये तब ! कसाई को अमीरी का पुण्य कब उदय में आता है ? उसके हाथों कटकर मरनेवाले पशुओं को मरणान्त कष्ट का पाप उदय में आये तब।। सब प्रकार के पुण्योदय में ऐसा नहीं होता। ऐसे ही पुण्योदय होते हैं कि जो दूसरे के पापोदय पर ही आधारित हैं। कसाई की खून की लक्ष्मी की ही तरह वे खून के लड्डू जैसे हैं । संसार ऐसे अशुभ पुण्योदय पर खुशी-आनंद देता है, इसीलिये यह असार सुवर्णदेवी दो बच्चों को छोड़कर नहाने गयी, इतने में बाघनी बच्चों को उठाकर ले गयी। यह उसकी द्रष्टि से बुरा हुआ, ऐसा लगता है। परन्तु इसमें अच्छा तत्त्व यह था कि यदि स्वयं भी वहाँ उपस्थित होती तो स्वयं को भी बाघनी के फाड़ खाने की संभावना थी, लेकिन नहाने जाने के कारण स्वयं उसमें से बच गयी। __ परन्तु सुवर्णदेवी को यह पता नहीं, हित का विचार नहीं, इसलिये नहा-धोकर वह लौटी, तो उसने देखा कि बच्चों की गठरी वहाँ है ही नहीं। वह जोर-जोर से रोने लगी - 'हाय पुत्र ! तू कहाँ चला गया? क्या तुम दोनों को जंगली प्राणी खा गया? मैं कैसी मूर्ख कि तुम्हें अकेले छोड़कर चली गयी? हे दैव! तेरी कैसी क्रूरता? बच्चों को उठवाने से पहले मुझे क्यों नहीं खत्म कर दिया?' संसार-अरण्य में सदन करने का अवसर क्यों आता है ? देखिये महाकवि वीरविजयजी महाराज इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं - " 'माया-मोहिनीए मोह्यो, कोण राखे रणमां रोयो, आ नरभव एले खोयो, विवेकी ! विमलाचल वसीए' (माया-मोहिनी से भवारण्य-स्दन : 'माया' अर्थात् पैसे-टके, धनमाल, परिवार, सत्ता, सन्मान, आदि! 'मोहिनी' अर्थात् स्त्री व अन्य विषयसुख ! इन दो के मोह में फंसा हुआ जीव जब इसमें कहीं कुछ अनिच्छनीय परिस्थिति का सर्जन होता है, तब संसार रुपी जंगल में रोता है, तब कौन उसे शान्त करे? कोई नही । इस नरभव में इस माया-मोहिनी के पीछे दौड़े, परन्तु अन्त में हाथ क्या आया? अकेले ही रोने का अवसर आया । यह नरभव व्यर्थ ही गँवाया न ? संसार में अरण्य-सदन आने का कारण है, माया-मोहिनी में मुग्धता । यदि यह अरण्य-रुदन न आने देना हो, तो एक ही उपाय यह है कि यह मुग्धता टाली जाय । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह टालने के लिये कवि कहते हैं 'हे विवेकी ! विमलाचल वसीए' .. अनंत मुनियों को मोक्ष दिलानेवाले श्री सिद्धाचल का आश्रय लें। इससे इस गिरिराज की व अनंत वीतराग बने हुए मुनिवरों की मुग्धता लगती है; मन उनमें बस जाता है, खुश होता है, जिससे मायामोहिनी में मोहित होना टल जाता है। घर बैठकर भी उसका ध्यान धरने से यह हो सकता है। कवि ज्ञानविमलसूरिजी कहते हैं - 'घेर बेठा पण ए गिरि गावे रे, श्री ज्ञानविमल सुख पावे रे __नागर सज्जना रे कोई' कहने का तात्पर्य यह है कि संसार अरण्य-रुदन से बचना हो, तो माया-मोहिनी का मोह हटाओ, यही रुलानेवाला तत्त्व है। इसे हटाने के लिये वीतराग का आलंबन लो। इसलिये यह भी समझ में आयेगा कि संसार क्यों असार है ? क्यों बुरा है ? अरण्य-सदन कराता है, इसलिये। दो बच्चों को खोने से सुवर्णदेवी अरण्य-रुदन कर रही है। धीमे-धीमे आगे बढ़ी। क्रमशः पाटलिपुत्र पहुंची। अब सोचने लगी कि कहाँ जाऊं? भवितव्यतावश दूत के वहां नौकरी के लिये जा पहुंची, जिसने बाघनी के मुंह में से गिरी हुई उसीकी बालिका को लाकर अपनी पुत्री के रुप में रखा था। दूत ने बालिका को संभालने के लिये, लालनपालन करने के लिये उसे रख लिया।। ___ सुवर्णदेवी बालिका को अपनी पुत्री रुप में पहचान नहीं सकी । क्योंकि जंगल में उसे जन्म देकर तुरन्त एकान्त में छोड़कर नहाने चली गयी थी। वापिस लौटी, तब तक बालिका गायब हो गयी। वह बालिका इस नगर के इस घर में होने की कल्पना भी कहाँ ' से हो? जन्म देकर तुरंत ही छोड़ दी, अत: चेहरा भी एकदम बराबर लक्ष्य में न भी हो, और बालिका हो, तो बालक भी होना चाहिये न? अरे! जंगल में कोई हिंसक प्राणी भी बालकों को उठा ले जाने की काफी संभावना थी। इन सब कारणों से ही उसे यह कल्पना ही नहीं होती कि यह मेरी ही पुत्री है ! और यहाँ दूत व उसकी पत्नी उस बालिका को स्वयं की पुत्री की तरह ही रखती है, इसलिये भी ऐसी कोई कल्पना होने का सवाल ही नहीं उठता। फिर भी खून एक है व सुवर्णदेवी खूब दुःखियारी है, इसलिये इस बालिका पर बहुत प्रेम बरसाती है। यहाँ सवाल उठता है कि - प्र. -'सुवर्णदेवी को अपनी बच्ची लालन-पालन करने के लिये मिल गयी इसमें दोनों के पुण्योदय को कारण माना जाय न? उ. - नहीं ! अकेला पुण्योदय ही कारण नहीं, क्योंकि सुवर्णदेवी का अब पुण्य तो इतना ही है कि वात्सल्य बरसाने के लिये, खिलाने के लिये कोई बच्चा मिले ! बालिका का पुण्य भी इतना कि कोई अच्छी संभाल लेनेवाला मिल जाय । पुण्य के उपर किसी व्यक्ति की छाप नहीं होती कि यही व्यक्ति खिलाने, क्रीडा कराने के लिये मिले। या यही Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति संभालनेवाला मिले । पुण्य में तो इतना ही है कि मनपसंद व्यक्ति खिलानेवाला मिले या मनपसंद व्यक्ति संभालनेवाला मिले। उदाहरण के लिये :- इन्सान कपास बाजार व चांदी बाजार में व्यापार करता है और चांदी बाजार में ही कमाता है। इसका कारण क्या ? अकेला पुण्योदय नहीं, क्योंकि पुण्य में यह लिखा हुआ नहीं होता कि पैसे चांदी के बाजार से ही कमाये जायेंगे। पुण्य तो इतना ही है कि पैसे मिलेंगे व इससे आगे बढ़ें, तो यही कि कमाने के बाद बुद्धि बराबर चले । परन्तु चांदी बाजार के ही सौदे में बुद्धि बराबर चली व उसी बाजार में कमाई हुई, इसमें कारण क्या है? अच्छा होता है पुण्योदय से, परन्तु किसी विशेष प्रकार से अच्छा होता है, भवितव्यता से। यहाँ पर भवितव्यता नामक कारण सामने आता है। कमाई के योग्य बुद्धि व कमाई तो पुण्य के उदय से हुई, परन्तु कपास बाजार में न होकर चांदी बाजार में ही हुई, इसका कारण है - भवितव्यता ! सुवर्णदेवी को वही बालिका लालन-पालन करने हेतु मिली व बालिका को सुवर्णदेवी ही संभालनेवाली मिली, इसका कारण है - भवितव्यता ! 'भवितव्यता' अर्थात् नियति, भावी भाव ! कोई निश्चित संयोग या घटना घटती है नियति के कारण, भावी भाव के कारण, वैसी भवितव्यता के कारण ! सुख में समय का भान नहीं : सुवर्णदेवी व बालिका वनदत्ता को परस्पर बहुत प्रेम है। समय गुजरने में कहाँ देर लगती है ? इसमें भी प्रेम का वातावरण हो व सुख-सुविधा अच्छी मिली हो, तब तो महीने भी दिन जैसे लगते हैं। वनदत्ता उद्यान में : वनदत्ता बालिका क्रमशः कुमारी व युवती बनी। उसकी आंखें दूसरों को कामवासना से विह्वल कर दें, ऐसी मादक हैं। एक दिन की बात है। वसंत ऋतु का आगमन होने से नगर के बाहर के उद्यान में मदनोत्सव का आयोजन किया गया था। कई लोग वहाँ घूमने के लिये आये थे। सुवर्णदेवी के साथ वनदत्ता भी उद्यान में पहुंची। श्री धर्मनंदन आचार्य महाराज पुरंदरदत्त राजा को संसार में मोह कैसे अनर्थ मचाता है, यह बात करते हुए प्रस्तुत प्रसंग कह रहे हैं और यह बात कुवलयानंद राजकुमार आकाशगामी घोड़े से जंगल में किस प्रकार रखा गया, इसके स्पष्टीकरण में उसे महायोगी महर्षि के द्वारा जंगल में कही जा रही है। व्याघ्रदत्त (मोहदत्त ) उद्यान में : आचार्य महाराज कहते हैं - सुवर्णदेवी की बालिका तो जयवर्मा राजा के दूत के हाथ में आयी । वनदत्ता नामक वह बालिका बड़ी हुई, वही अब युवती के रुप में उद्यान में Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गयी है ! उस तरफ सुवर्णदेवी का बालक जयवर्मा राजा के पुत्र शबरसिंह को मिला, जिसने उसे पुत्र के रुप में अपनाकर व्याघ्रदत्त नाम रखा । युवावस्था में प्रवेश करने पर विलासी स्वभाव के कारण उसके मित्र राजपुत्र उसे 'मोहदत्त' नाम से पुकारते हैं । वह मोहदत्त भी मदनोत्सव में उद्यान में आ पहुंचा है। घूमते-फिरते मोहदत्त वनदत्ता के समीप पहुंचा। दोनों सगे भाई-बहन हैं, परन्तु एक-दूसरे को पहचानते नहीं ! जवानी तो दीवानी है। देखिये, मोह के कारण कैसा अनर्थ होता है ! वनदत्ता पर द्रष्टि पड़ते ही मोहदत्त कामातुर बन गया। वनदत्ता भी उसे सराग दृष्टि से देखने लगी, जिससे वह पुतले की तरह निश्चल बन गया ! (वासना-निग्रह के लिये क्या किया जाय ? युवावस्था में प्रवेश करने पर बिना सिखाये ही वासना आ जाती है। फिर उसकी तृप्ति के लिये क्या-क्या करना, यह सिखाना नहीं पड़ता । इसमें तो जीव अनन्त काल से एक्स्पर्ट है, निष्णात है। इसीलिये समझना चाहिये कि यदि इस वासना का पोषण अनन्त काल तक हुआ, और यहाँ सहज भाव से जगकर जीव को विह्वल कर देती है, तो इसके निग्रह के लिये, इसे दबाने के लिये कितना भगीरथ सत्त्व प्रकट करना पड़ता है ? कितना विवेक जागृत रखना पड़ता है ? असत् निमित्तों से दूर रहने व सत् निमित्तों का सेवन करने का कितना पुरुषार्थ करना पड़ता है ! तब, इस संयम का उद्यम न किया जाय और उल्टे वासना का पोषण करने के विचार, वाणी व वर्तन करते चले जायें, तो वासना थोड़े ही शान्त होनेवाली है ? जन्मो-जन्म से इसी तरह वासना का पोषण होता रहा है, वही वासना आज भी इसी तरह मजबूत बनकर जीव के पीछे पड़ी है। बासना के पीछे जीव का अमूल्य पुण्य-धन, व अमूल्य वाणी-विचार‘वर्तन की शक्तियाँ बर्बाद हो जाती हैं। जीवन भर इसी तरह करते हुए अन्त में हिसाब निकाला जाय, तो हाथ में क्या दिखता है ? 'सांप खाता है, परन्तु उसके मुंह में कुछ नहीं आता।' जिस आदमी को सांप ने खाया हो, तो उसे सांप ने खाया, ऐसा कहा जाता है, परन्तु सांप के मुंह में कुछ नहीं आता । इसी प्रकार जीवन भर वासना के गुलाम बनकर सुख माना, परन्तु जीव को यहां से जाने पर हाथ में कुछ सुख मिलता है? कोई पुण्य मिलता है ? तो क्या नहीं लगता कि दुनिया के पदार्थों को स्वयं ही देख-देखकर या स्वयं ही याद कर-करके वासना स्मी सोती हुई नागिन को जगाने जैसा नहीं । इसी प्रकार सहज में ही मिले हुए पदार्थों से जग पड़ी वासना को ऐसी द्रष्टि व विचारधारा का पोषण देने जैसा नहीं । क्या ऐसा आपको नहीं लगता? कितना ऊंचा व देवों को भी स्पृहणीय मानव भव क्या ऐसे ही व्यर्थ गंवा देंगे ? सारी होशियारी व बल वासना का पोषण करने में ही खर्च Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होगी? वासना का नियंत्रण करने में नहीं ? मोहदत्त की विह्वलता : वनदत्ता भी मोहदत्त को राग से देख रही है, जिससे मोहदत्त पुतले की तरह स्थिर बन गया है। उसके मन में ऐसा होता है कि 'अरे! यह स्वर्ग की अप्सरा किसी नसीबदार को ही मिलेगी। कैसा इसका लावण्य ! कैसी इसकी कान्ति ! क्या मुझे नहीं मिलेगी यह? थोड़ा प्रयत्न तो करूं।' ऐसा सोचकर स्वयं के मित्र को संबोधित करते हुए व्यंग्य में एक गाथा बोलता है। गाथा का रहस्य इस प्रकार है - व्यंग्य में भ्रमर की दशा का वर्णन : 'देख मित्र ! वह भ्रमर क्यों रटन कर रहा है ? उसने सुन्दर भ्रमरी को देखा, परन्तु भ्रमरी तो चली गयी । भ्रमरी को प्राप्त न करने से शायद उसका रटन करते-करते वह मर जायेगा।' इसमें गूढ रहस्य है। मित्र तो इसका अर्थ उपरी तौर से कवि की कल्पना जैसा करता है। वास्तव में तो मोहदत्त स्वयं भ्रमर है व वनदत्ता भ्रमरी है, यह लक्ष्य में रखकर यह गाथा बोला है, यह वनदत्ता सुनते ही समझ गयी। उसके मन में हुआ 'इसने अपना राग अभिव्यक्त किया है, तो मैं भी अपना राग अभिव्यक्त करूं।' वनदत्ता का व्यंग्य में उत्तर : वनदत्ता भी कहाँ कम है ? वह भी मोह में निष्णात है। वह भी इसके प्रत्युत्तर में एक गाथा बोलती है, जिसका भाव है .. 'आर्या ! वह भ्रमरी भ्रमर को देखकर मोहित बनी व उसकी विरह-अग्नि से तपकर रुदन जैसा गुंजारव कर रही है। दोनों की यह कल्पना स्वार्थ की बुनियाद पर है, जबकि कवियों की कल्पना होती है - भ्रमर की पुष्प के रसास्वादन की आसक्ति की ! इसीलिये कहा जाता है कि भ्रमर कमल के रस में ऐसा पागल बन जाता है कि शाम को कमल बंद होने लगे, तब भी वह उसी पर बैठा रहता है, उड़ता नहीं और उसीमें बन्द हो जाता है। मोहदत्त तो खुश हुआ ही, परन्तु माता सुवर्णदेवी भी खुश हुई कि चलो, वनदत्ता को इससे प्रेम हुआ है, कोई हर्ज नहीं ! क्योंकि यह भी राजपुत्र का बेटा है।' देखिये, मोह की विडंबना व कर्म की तथा भवितव्यता की विचित्रता ! वास्तव में सुवर्णदेवी माता है और मोहदत्त तथा वनदत्ता स्वयं ने ही जन्म दिये हुए जुडवा भाई-बहन हैं। परन्तु विचित्र कर्मों तथा भवितव्यता ने तीनों को ऐसी परिस्थिति में रख दिया है कि एक-दूसरे को स्व-पर की सच्ची पहचान नहीं व मोह की विडंबना में पड़े हैं। अरे! आगे चलकर तो दोनों का पिता तोशल राजकुमार भी इस विडंबना में फंसनेवाला है। यह देखने पर ज्ञात होता है कि जीव कर्म व भवितव्यता का कितना जोर है ! इसीलीये समझदार जीव की संसार पर से आस्था उठ जाती है, संसार के पदार्थों... बंगला Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाडी-स्त्री, धन-माल-जायदाद, खान-पान-सन्मान, सत्ता-समृद्धि-प्रतिष्ठा... आदि के प्रति हृदय की गहराई में अभाव जगता है, उनके खातिर वैर-विरोध, मद-माया, लालसालंपटता, ईर्ष्या-असूया, असहिष्णुता, देव-गुरु की उपेक्षा, संघ-सार्मिक के प्रति अरुचिअवगणना हिंसा-झूठ-अनीति... आदि बुराईयों को अपनाने का मन नहीं होता। वह देखता है कि, यदि मेरी आत्मा पर कर्म व भवितव्यता मन-चाहे ढंग से सत्ता चलाते हों, तो मुझे वैर-विरोध आदि बुराईयों के अपनाने का क्या प्रयोजन है ? मोह से विडंबित होने की क्या ज़रूत है ? मोह की विडंबना में फंसी हुई सुवर्णदेवी भी विचार करती है कि यहाँ जन-समूह के बीच वनदत्ता व मोहदत्त का मिलन नहीं होगा। इसीलिये ऐसी कुछ तरकीब आजमाऊँ कि जिससे दोनों का एकान्त में मिलन हो सके ! देखिये तो सही ! माँ स्वयं अपनी पुत्री का अपने पुत्र के साथ प्रेमी-प्रेमिका के रूप में एकान्त में मिलन कराने की योजना बना रही है। चाहे अनजान में ही सही, परन्तु बात तो गलत ही है न? इसका मतलब यह तो नहीं कि अनजान में अनुचित कार्य करने में कोई हर्ज नहीं । शास्त्र सम्यग् ज्ञान की महत्ता इसीलिये बताते हैं कि अनजान में अनुचित कार्य करने से हम विराम पायें। क्या आपकी आधुनिक शिक्षण-प्रणाली ऐसा भान कराती है ? नहीं, फिर भी अज्ञान-नादान लोग उसे 'ज्ञान' के रूप में पहचानते हैं। आज की भौतिक शिक्षा तो अनजान में अनुचित कृत्य व अनुचित विचार व बर्ताव करना ही सिखाती है। योजना ऐसी थी कि किसीके पता न चले व मोहदत्त संकेत समझ जाय । सुवर्णदेवा वनदत्ता से कहती है ... - 'पुत्री ! बहुत देर हुई, तेरे पिता तेरे बिना तडपेंगे । चलो, अब हम घर चलें। हाँ, यदि तेरी बहुत ही इच्छा हो, तो मदनोत्सव संपन्न होने के बाद उद्यान में लोगों की भीड न होने पर यहाँ आकर उद्यान की शोभा व कामदेव को देखना।' इतना कहकर सुवर्णदेवा वनदत्ता को लेकर चली गयी । मोहदत्त तो चालाक था। वह इसका अभिप्राय समझ गया। वह सोचने लगा, 'अरे! इसकी 'धाँयमाता को भी मुझ पर स्नेह लगता है। इसने मुझे संकेत दिया है कि उत्सव संपन्न होने के बाद तुझे मिलना हो, तो आना।' अतः मैं जरूर वापिस अकेला यहाँ आऊँगा।' पाप की सुविधा मिलने के बाद पाप से बचनेवाले विरले ही होते हैं। इसीलिये पाप की अनुकूलता से दूर ही भागना चाहिये । उदा. के लिये :- पिक्चर में मलिन विचारों का पाप करने की अनुकूलता बहुत है, इसीलिये पिक्चर से तो दो कोस Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूर ही रहना भला है ! ऐसे दूसरे भी परस्त्रीदर्शन आदि को पाप की अनुकूलता के साधन समझकर उनसे दूर रहो । 4 वनदत्ता घर तो गयी, परन्तु अब उसका जी बेचैन रहता है। विरह वेदना से उसका अंग संतप्त हो रहा है। दिल में एक ही विचार है वह कैसे मिले ?' यहाँ-वहाँ चक्कर लगाती है, उन्मत्त जैसी बन गयी है । यह देखकर सुवर्णदेवा समझ गयी कि 'इसे राजकुमार की लगन लगी है, इसीलिये विह्वल बनी है।' स्वयं की पूर्वस्थिति उसे याद है, इसीलिये उसे यह स्वाभाविक लगता है । वह पुत्री को आश्वासन देती है... 'बेटी, चिन्ता मत कर। हम दोनों उद्यान में जायेंगे। वह भी वहाँ पहुँचा ही समझो।' परन्तु काम की आग उसे धीरज कैसे धरने दे ? कामराग की कैसी विडंबना है ! इसीलिये कहा जाता है कि जिसने जवानी में कामरा को जीता, वह हजारों सेनानियों को जीतने वाले पुरुष से भी अधिक पराक्रमी है। सही बात है। हजारों सेनानियों को जीतनेवाला पुरुष भी स्त्री आगे मोह के कारण एकदम निःसत्व बन जाता है। 1 मोहदत्त अपनी बहन के प्रथम दर्शन में ही भटक गया, हालाँकि वह बहन को पहचान न पाया था । वनदत्ता भी भटक गयी । उसे तनिक भी चैन नहीं पड़ता । सचमुच काम की विडंबना बहुत बुरी है। सुवर्णदेवा उसकी यह हालत भाँप गयी। उद्यान खाली होने पर वह राजमार्ग पर राह देखते हुए खडी रही । परस्त्रीदर्शन खतरनाक अब पिता भूल करता है : : अब यहाँ देखिये ! भवितव्यतावश कैसी परिस्थिति का सर्जन होता है। सुवर्णदेवी का जिसके साथ संबन्ध होने से मोहदत्त व वनदत्ता का जन्म हुआ है, वह तोशल राजकुमार यहाँ पाटलिपुत्र के राजा जयवर्मा की सेवा में आकर रहा है। वह बाहर सैर करने के लिये निकला है। राजमार्ग से गुजरते हुए उसने वहाँ खडी हुई वनदत्ता को देखा। उसे देखते ही कामाग्नि भड़क उठी। मन में सोचने लगा ... 'वाह ! कैसी रमणीय सुन्दरी ! कैसा इसका लावण्य! कैसी इसकी कान्ति ! यह कैसे मेरे हाथ में आये ? साम-दाम-भेद... कोई भी उपाय करके आखिर बलात्कार से भी इसे अपने वश में करना ही है। तोशल व सुवर्णदेवा एक दूसरे को पहचान न पाये ! क्योंकि सुवर्णदेवा तो यही समझती थी कि तोशल को राजा ने मरवा डाला है और तोशल को तो सुवर्णदेवा यहाँ होने की कल्पना ही नहीं है । ' तोशल तो पिता है न ? परन्तु पितृत्व का अज्ञान उसे कैसे अधम विचारों तक ले Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता है ! वह भी कब? रास्ते में चलते हुए यहाँ-वहाँ देखने वह नजर आयी तब ! इससे सूचित होता है कि रास्ते में इधर-उधर देखकर चलने से कितने अनर्थ होते है ! थोडी भी मनपसंद चीज दिखी कि राग उछला ही समझो ! जीवन में मनपसंद वस्तुएँ कितनी? है कोई हिसाब ? मोटर अच्छी, मकान अच्छा... मकान में भी कोई एक ही चीज थोडे ही अच्छी लगती है ? झरोखा अच्छा, रंग अच्छा, दरवाजे अच्छे, शोभा अच्छी... और कितना? कपडे अच्छे... कपडों में भी कई प्रकार, कई क्वॉलिटी, कई रंग... बर्तन अच्छे, फर्नीचर अच्छा... इनमें भी यह अच्छा, यह बढिया... कितना लंबा लिस्ट? दुनिया की ऐसी ढेर सारी चीजों को अच्छा माना हो, फिर यहाँ-वहाँ, चारों ओर नजर करता हुआ चले, उसमें तो कितना कुछ दिखता है ! वहाँ भी 'यह अच्छा', यह अच्छा'... ऐसा किये बिना रहेंगे? आप पूछेगे, ___ प्रश्न :- चारों ओर नजर करते हुए चलें, उसमें कुछ दिखे, उसे अच्छा या बुरा न मानें, तो कोई हर्ज नहीं न ? उत्तर :- परन्तु इसमें तो पहला सवाल यही उठता है कि यदि कुछ अच्छा-बुरा मानने का इरादा न हो, तो यहाँ-वहाँ देखे ही क्यों? यहाँ-वहाँ देखता है, इसका मतलब ही यह है कि कुछ मनपसंद चीज देखने की आकांक्षा है। नापसंद या अनावश्यक चीज तो देखने का तो मन ही कहाँ से हो? उदा. के लिये :- रास्ते में पड़ी हुई धूल या गंदगी का ढेर देखने की इच्छा ही कौन करता है ? इच्छा कुछ अच्छा देखने की जगती है, इसीलिये यहाँ-वहाँ देखे, तो कुछ अच्छा दिखने पर क्या उसके मन में राग नहीं होगा? दुनिया की ढेर सारी चीजों को अच्छा मानने की तकलीफ यह है कि उन्हें देखने-सुनने या उनके बारे में सोचने से राग की आग सुलगे बिना नहीं रहती। यहाँ-वहाँ देखने की तकलीफ यह है कि कुछ न कुछ अच्छा दिखने पर राग का सन्निपात जगेगा। राग वैराग्य व निःस्पृहता को जलाकर रख देता है, इसलिये वह आग है । राग स्वयं के शुद्ध-स्वच्छ चेतन भाव को भुलाता है, इसलिये वह सन्निपात है। तोशल नीचे देखकर नहीं चल रहा था, परन्तु चारों ओर नजर दौडाते हुए चल रहा था, जिससे वनदत्ता पर द्रष्टि पडी व कामराग से आकर्षित हुआ। मन में निश्चय करता है कि चाहे जैसे भी उसे अपनी बनाकर ही रहुँगा । वह देखने लगा कि वह कन्या किस ओर जा रही है ! वनदत्ता वहाँ थोडी देर राह देखकर सोचती है कि शायद मोहदत्त उद्यान में जल्दी पहुँच गया हो, तो राह देखना व्यर्थ है । अतः वह सुवर्णदेवा के साथ उद्यान की ओर चली। 0000000000OOOOOK 0000000OOOOOOOOOOOK OcOOOOOOOOOOOO 00000000000OOOOOOO Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तोशल तलवार दिखाता है : उसे उद्यान की ओर मुडते देख तोशल खुश हुआ कि 'चलो, अच्छा हुआ ! उद्यान में अच्छा मौका मिलेगा।' वह भी उसके पीछे-पीछे चला। उद्यान में पहुँचकर वह वनदत्ता को उद्यान में एक ओर अकेली घूमती हुई देखकर प्रलोभन दिखाता है। परन्तु वह नहीं ललचाती । अत: कामराग के आवेश में तलवार निकालकर वह धमकी देने लगा-'मेरे साथ काम-क्रीडा कर, नहीं तो तुझे मार डालूंगा।' कहाँ तक पहुँच गया वह ? वासना के कारण इन्सान भान भूल जाता है। पहले परस्त्री की हवस लगी थी, फिर चाहे वध होने से बच गया, परन्तु एक बार भी दिल में हवस को स्थान दिया तो छूटे कहाँ से? काम व कषाय की एक बार की हवस भी एकदम बुरी है। यह तो बाघ को एक बार भी खून चखने मिले, ऐसी बात है ! सर्कस में एक बार रिंगमास्टर बाघ का मुँह खोलकर उसमें अपना सर डालकर, अपने सर से बाघ को उठाने का प्रयास कर रहा था। एक बार थोडी-सी भूल होने पर उसकी गर्दन पर बाघ का दाँत फँस गया, खून की धारा बहने लगी। बाघ को खून का स्वाद आते ही खून पीने की हवस जगी। उसने मुँह बन्द कर दिया। रिंगमास्टर का धड नीचे पड गया। बाद में तो पिंजरे के बाहर खडे सर्कस के कर्मचारियों ने बंदूक चलाकर बाघ को खत्म किया, परन्तु रिंगमास्टर तो जिंदा नहीं होनेवाला था न? बाघ ने एक बार थोडा-सा खून चखा, तो उसकी हवस कैसी जगी? परस्त्रीसंग की बात तो दूर परन्तु उसे एक बार यदि रागद्रष्टि से देखा जाय तो उसे बार-बार वह स्त्री ही नहीं, अन्य स्त्रियों को देखने की भी हवस जगती है। जीवन में झाँककर देखिये कि सामने आयी हुई एक भी स्त्री को देखे बिना रहते हैं ? परस्त्रीदर्शन के लालच को कैसे रोका जा सकता है ? .. बस, इस भयानकता का सर्जन न होने देना हो, तो पहले से ही पक्की सावधानी चाहिये कि 'मुझे परस्त्री का दर्शन बिल्कुल नहीं चाहिये । अरे! इसमें देखने जैसा है ही क्या ? विष्ठा की थैली पर रेशमी गुलाबी कपडे का अस्तर ही तो है यह ! इसमें ऐसी क्या देखने जैसी बात है ? जीव ! तू इसके पीछे पागल मत बन ! इसमें मन को मत डाल । मन को ले जा अरिहंत भगवान की मुद्रा व उनकी आंख में रही हुई सौम्यता व वीतरागता की ओर ! देख, सिद्धाचल गिरिराज पर आदीश्वर दादा के अंग-मुख व आँखो में कैसी वीतरागता जगमगा रही है!' हवस को कैसे दबाया जाय ? परस्त्री के दर्शन में लुभाने से पहले ऐसा कोई ठोस विचार चाहिये, जिससे हवस से बचा जा सके। यदि हवस पहले लग गयी है, परन्तु अब भान आ गया है कि यह गलत हो Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहा है, तो फिर गिनती करनी चाहिये कि आज मैं कितनी बार परस्त्री के दर्शन से बचा? सामने आयी हुई स्त्री आराम से देखी जा सकती है, परन्तु गिनती की बात आते ही उसके सामने नजर करने का मन ही नहीं होता । अरे! दूसरी बार बच गया... अब तीसरी बार बच गया। शाम होने पर मन को संतोष होता है कि इतनी बार परस्त्रीदर्शन से बचा। इस प्रकार रोज बल बढाते जाने से हवस मंदं पड़ जाती है। परस्त्री के संग से बचने के लिये नरक की भट्टी में जलने की भयंकर वेदना नजर के सामने लानी चाहिये । और यहाँ पर भी उसके पीछे रही हुई भयानक विह्वलता का भी भय लगना चाहिये । बाकी तो, परस्त्री के संग के प्रलोभन में एक बार भी नहीं फँसना चाहिये । नहीं तो, जिंदगी भर यह हवस लगी ही रहेगी। तोशल को मोहदत्त की चुनौती : तलवार देखकर बेचारी वनदत्ता भय के मारे चीख उठी । 'कोई आओ, मुझे बचाओ ।' सुवर्णदेवा भी शोर मचाने लगी । यहाँ कौन था बचानेवाला ! परन्तु इतने में मोहदत्त उद्यान में आ पहुँचा। चीख सुनकर वह दूर से दौडता हुआ आया। उसे तोशल पर बहुत गुस्सा आया । एक तो वनदत्ता को वह चाहता है और दूसरी बात यह कि तोशल ने एक स्त्री पर तलवार उठायी थी। इन दो बातों ने उसे उद्विग्न बनाया। उसने भी तलवार उठायी व तोशल को ललकारते हुए कहा___'अरे नराधम ! निर्लज्ज ! स्त्री जात पर प्रहार करने के लिये तैयार हुआ है ? मेरे सामने तो आ ! मैं तेरा बल तो देखें जरा !' तोशल भी उसकी ओर मुडा । तलवार तो उठायी हुई थी ही, उसने मोहदत्त को चुनौती देते हुए कहा 'अरे दीन पुरुष! तू तो शायद राह भूल गया लगता है। लगता है, तुझे यमराज ने भेजा है। यह ले' ऐसा कहते हुए उसने उस पर तलवार से वार किया। दोनों में से एक को भी भान है ? पिता व पुत्र हैं न? दोनों वापिस पुत्री व बहन पर मोहान्ध बने हैं, परन्तु आपसी संबन्ध मालुम न होने से एक-दूसरे के सामने तलवार उठा रहे हैं। अज्ञान व मोह कितने भयंकर हैं, यह समझ में आता है न? फिर भी अभी तक अज्ञान व मोह को निकालना नहीं है ? निकालने की इच्छा भी नहीं है ? देखिये, बात कहाँ तक पहुँचती है? तोशल मरता है : तोशल ने मोहदत्त के सर पर तलवार से प्रहार तो किया, परन्तु मोहदत्त यह समझकर ही खडा है कि वार होने ही वाला है। इसीलिये जैसे ही तोशल की तलवार उस पर उठी वह एक ओर खिसक गया व तुरन्त ही उसने तोशल के कंधे पर तलवार से प्रहार किया । तोशल की तलवार निशाना चुककर नीचे उतरी, इतने में मोहदत्त वार करता है। तोशल को इसकी सावधानी न रही, इससे कंधे से बहुत चोट लगी तथा वह जमीन पर गिर पड़ा। उसके Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर में से खून का प्रवाह छूटा, मानों पुत्र के अनुराग से खून उछलकर बाहर न आया हो ! तोशल खत्म हुआ। धन जमीन व औरत, तीनों झगडे की जड : पैसे, जमीन व स्त्री, तीनों झगडे के मूल हैं। आज न्यायालयों में ढेर सारे केस लडे जाते हैं। क्यों ? इन तीनों में से ही किसी न किसी कारण से ! सगे भाई या बाप के साथ... भागीदार के साथ या पडौसी के साथ भी केस लडे जाते हैं । स्त्री के कारण तो आज हत्यायें भी होने लगी हैं। स्त्री के खातिर झगडे करना व विभक्त हो जाना, तो आज मामुली बात बन गयी है। / यहाँ तो दोनों पहले से ही गलत राग में पडे थे, इसीलिये तो संकेत करके एकान्त में आये थे। इसमें भी मोहदत्त वनदत्ता को बचाता है। इससे परस्पर राग का उन्माद बढना कोई नयी बात नहीं । अब तो मोहदत्त हक जताते हुए वनदत्ता को कामुक द्रष्टि से देखने लगा। उसने कहा, ‘घबरा मत, अब तेरी आपत्ति गयी । आ, इस केलगृह में कुछ देर आराम कर।' ऐसा कहकर हाथ पकडकर वहाँ ले जाता है, वह भी खुश होकर जाती है । सुवर्णदेवा दोनों का अत्यन्त राग देखकर खुश होती है । क्या वह इतना नहीं समझती थी कि 'ये दोनों एकान्त में मिलकर क्या नहीं करेंगे ?' सब कुछ समझते हुए भी खुश होती है । स्वयं भी एक बार पतित हुई थी, तो अब वह अपनी पुत्री के पतन में भयानकता कहाँ से देखे ? पतित हो चुके हैं, उनके आश्रय में रहनेवालों को उनसे अपने रक्षण की क्या आशा ? वडिल के सच्चारित्र की दीर्घकाल तक असर : शिक्षक ही बीडी, पिक्चर, स्त्री शिक्षिकाओं के साथ परिचय आदि पापों में पडे हुए हों, वे विद्यार्थियों के सच्चारित्र की रक्षा कैसे कर सकतें है ? ऐसे बाप अपने बेटों का व मातायें पुत्रियों का रक्षण कहाँ से कर सकते है ? आश्रित के चारित्र की रक्षा व उन्नति के लिये पहले स्वयं उच्च चरित्रवान बनना चाहिये । इसके लिये स्वयं की सुकोमलता, आरामप्रियता, गलत आदतें, शिथिलता, क्रोधी-मानी स्वभाव आदि को तिलांजलि देनी पडती है । ऐसा समझना चाहिये कि यह छोहुँ, इसमें मुझे व्यक्तिगत लाभ तो बहुत है, साथ ही साथ आश्रित में सच्चारित्र के निर्माण का महान लाभ है और इससे भी बडा लाभ है... सच्चारित्र की परंपरा टिकाने का । नहीं तो, स्वयं बिगडने पर स्वयं के बाद सारी परंपरा fasa है। सुवर्णदेवा यह नहीं समझती । उसने कडवे फल चखे हैं, फिर भी वनदत्ता को मर्यादा लाँघते देखकर खुश होती है । वनदत्ता मोहदत्त की ओर आकर्षित होती है । वह 00 २०१ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके साथ केल-गृह में जाती है। कैसी बेहूदी बात ! भाई-बहन कामराग में फँसते हैं व माँ स्वयं खुश होती है। . वनदत्ता कौन है, यह मोहदत्त नहीं जानता । अज्ञानता के कारण मोहमूढ बनकर उसके साथ क्रीडा करने को तत्पर होता है, इतने में तो उसके कान में मधुर स्वर सुनाई देता 'मारेउण पियरं, पुरओ जणणीए तं सि रे मूढ ! इच्छसि सहो यरिं भइणियं रमिउण एत्ताहे ?' अर्थात् हे मूढ ! पिता को मारकर, माँ के आगे, अपने साथ जन्मी हुई बहन के साथ तू काम-क्रीडा करना चाहता है ? ___ यह सुनकर मोहदत्त चौंक उठा। आजु-बाजु नजर करता है कि कौन ऐसे असंबध्द वचन बोल रहा है ? परन्तु कोई नजर नहीं आता, अतः वह फिर से अनुचित प्रवृत्ति करने के लिये तत्पर हुआ। इतने में फिर से मधुर आवाज सुनायी दी 'मा मा कुणसु अकज्जं, जणणी पुरओ पिउं पि मारेउं । रमसि सहो यरि-भइणि मूढ ! महामोहयरेण ? ॥' 'माता के सामने ही पिता को मारकर अकार्य मत कर, मत कर । हे महा मोह रुपी मगरमच्छ से मूढ बने हुए मानव ! साथ में जन्मी हुई बहन को भोगना चाहता है?' फिर से यह सुनकर मोहदत्त चौंक उठा, 'अरे ! कौन ऐसी बात कर रहा है ?' मन को समझाता है कि 'संभव है कि कोई दूसरे किसीको संबोधित करके ये वचन बोल रहा होगा, मुझे नहीं।' काम के आवेश में कैसी दशा ! मोहदत्त तीसरी बार भी अपकृत्य करने के लिये तैयार होता है कि फिर से आवाज सुनायी देती है, - 'निग्घिणि ! तए एकं कयं अकज्जं ति मारिओ जणओ । एण्हि दुइयमक ज्जं सहोयरिं इच्छसि घेत्तुं ( भोत्तुं ) ॥' अर्थात् 'हे निर्लज्ज ! तूने एक अकार्य तो यह किया कि पिता को मारा । अब क्या बहन के साथ कामभोग करने का दूसरा अकार्य करना चाहता है ?' तीसरी बार यह आवाज सुनने पर विचार में पड़ा कि यहाँ मारने का काम तो किसीने किया नहीं है और दुराचार की तैयारी भी किसीकी दिख नहीं रही। दोनों बातें मुझमें ही दिख रही हैं। इससे मोहदत्त को शंका पड गयी कि 'यह आवाज मुझे संबोधित करते हुए ही आ रही है । परन्तु यह बाप व बहन की असंगत बात क्या है ? कुछ समझ में नहीं आ रहा ! जरा, देखें तो सही, हकीकत क्या है ?' ऐसी जिज्ञासा व थोडे रोष के साथ हाथ में तलवार लेकर वह केल-गृह से बाहर निकलकर चारों ओर ढूँढने लगा कि बोलनेवाला कौन है ? कहाँ है? Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (चेतावनी देनेवाले के तेज से स्तब्ध हो गया :-- वहाँ पर काउस्सग्ग-मुद्रा में खडे हुए एक मुनि को देखा। मुनि का मुख तप के तेज से जगमगा रहा था । मोहदत्त सोचने लगा कि 'अरे! यहाँ तो इनके सिवाय और कोई दिखता नहीं, इससे लगता है कि बोलनेवाले ये महात्मा ही होने चाहिये ।' क्या तलवार दिखाकर धमकी दूँ कि आप क्यों ऐसे अयोग्य शब्द बोल रहे हैं ? नहीं। वह तो मुनि के तप के ज्वलंत तेज को देखकर भौंचक्का रह गया, उसका गुस्सा ठंडा पड गया । वह सोचने लगा 'अरे! ये तो पूजनीय वीतराग जैसे दिखते हैं। इन्हें न कोई राग है, न कोई द्वेष । अतः ये असत्य क्यों बोलेंगे ? महर्षि तो दिव्यज्ञान के धनी लगते हैं 1 इनका वचन असत्य मानने का कोई कारण नहीं । चलो, पूछें तो सही कि उनके इन शब्दों के पीछे क्या रहस्य है ?' उपदेश की बात तो बाद में, परन्तु मुनियों के तप व संयम का असर पडे बिना नहीं रहता । नहीं तो भयंकर अपकृत्य करनेवाला मोहदत्त मुनि को देखकर एकदम ढीला कैसे पड़ता ? उसे 'मूढ' व 'निर्लज्ज' जैसे शब्दों से संबोधित करनेवाले मुनि के प्रति उसे आकर्षण कैसे होता ? परन्तु यह प्रभाव पड़ने के पीछे कारण था... मुनि के तप का तेज, संयम की प्रभा, उपशम का लावण्य ! इसीसे उसका गुस्सा शान्त हो गया। मुनिराज के चरणों में नमस्कार करके पूछता है 'पिता को मारकर, माता के सामने, बहन के साथ अपकृत्य करने के लिये तू तैयार हुआ है... ऐसा आप तीन बार बोले । इसका रहस्य क्या है ? कौन पिता, कौन माता व कौन बहन ?' इतने में तो सुवर्णदेवा व वनदत्ता भी वहाँ आ गये । मुनि द्वारा स्पष्टीकरण महर्षि कहने लगे, "सुनो भाई ! कोशला नगरी में नन्दन नामक सेठ, उसकी पुत्री सुवर्णदेवा । पति परदेश से नहीं लौटने पर वासना से विह्वल बनी सुवर्णदेवा ने राजा के पुत्र तोशल के साथ दुराचार का सेवन किया। गर्भ रहा। पिता को सदमा पहुँचा ! राजा से फरियाद की। राजा ने छानबीन करवायी तो रात में सेठ के घर से तोशल रंगे हाथों पकडा गया। राजा ने मंत्री को उसके वध की आज्ञा दी, परन्तु मंत्री ने दया करके उसे गुप्त रूप से परदेश रवाना किया। वह तोशल यहाँ आकर यहाँ के राजा की सेवा में रहा । " सुवर्णदेवा का सब तिरस्कार करने लगे । वह घर से भागी । उसने जंगल में जुडवा बच्चों को जन्म दिया। दोनों के हाथों में अंगूठियाँ पहनायीं, दोनों को कपडे के दो छोरों पर बांधकर नहाने गयी । एक भूखी बाघन वहाँ आयी । वह बच्चों की बांधी हुई कपड़ों की गठरी उठाकर चली । रास्ते में गठरी की एक गांठ छूट जाने से बालिका नीचे गिर गयी । बाघन तो मालुम न पडने से चली गयी। बालिका को वहाँ से गुजरते हुए जयवर्मा राजा के दूत ने उठाया। घर लाकर अपनी पुत्री की तरह पाल-पोसकर बडा किया ! वह है - यह २०३ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनदत्ता ! बाद में सुवर्णदेवा भी वहाँ आकर उसकी धाँयमाता के रूप में रही। जयवर्मा राजा के पुत्र शबरसिंह ने बाघन का शिकार किया। तब बाघन के मुँह में से छटी हई गठरी में से बालक निकला, जिसे उसने अपने पुत्र के रूप पाल-पोसकर बडा किया । वह है - तू व्याघ्रदत्त ! मित्रोने तेरा नाम मोहदत्त रखा । उसके बाद तो जो कुछ हुआ-वह तुम तीनों जानते ही हो । तूने जिसको मारा, वह तेरा पिता तोशल था। तुम चारों अज्ञानता से अकार्य करने के लिये तत्पर हुए । पिता को मारकर तू खुश हुआ व बहन वनदत्ता के साथ दुराचार करने के लिये तैयार हुआ, वह भी अपना माता सुवर्णदेवा के समक्ष । निशानी देखनी हो, तो दोनों की अंगुली की अंगुठी देखो । वनदत्ता के हाथ में माता सुवर्णदेवा के नाम की व तेरे हाथ में पिता तोशल के नाम की अंगुठी है या नहीं ? पिता को मारकर बहन के साथ दुराचार करने को तत्पर तू कैसा मोहमूढ ? इस मोह को धिक्कार हो । मोहदत्त व वनदत्ता ने अंगुलियाँ देखीं और बात सच निकली। सवर्णदेवा ने हाथ जोडकर महर्षि से कहा, 'भगवन! आपने जैसा कहा, वैसा ही अक्षरशः हमारे जीवन में हुआ है। धिक्कार हो मुझे कि मैंने कुल की मर्यादा का भंग किया ! मुझे तो पता नहीं था कि तोशल जीवित है। मेरी तो यही धारणा थी कि तोशल को उसके पिता ने मरवा डाला है। अरे! वह यहाँ आया था? यहाँ के राजा की सेवा में रहा व अपनी पुत्री से मोहित होकर यहाँ आया? भयंकर जुल्म है ! प्रभु ! जिसने मुझे आत्महत्या करने से बचाया व जिसने मेरे कारण देशनिकाला पाया, वह मेरे सामने आया, तो भी मैं उसे पहचान न पायी? और मेरे ही समक्ष मेरे पुत्र मोहदत्त ने उसकी हत्या की? और मैं नालायक इससे राजी हुई ? प्रभु ! यह हमारी कैसी भयंकर मूढ दशा!' सुवर्णदेवा को घोर पश्चाताप हुआ। वनदत्ता भी शर्मिंदा हो गयी कि ' अरे अरे! मैं मेरे साथ ही जन्मे हुए सगे भाई के साथ यह क्या करने के लिये तैयार हो गयी थी? कैसी मेरी अज्ञान व मोहमूढ दशा!' शर्म के मारे उसका सर झुक गया। MouncierasRecrugreeti | मोहदत्त को पश्चाताप व वैराग्य PROPORATORataranapramaARATIRAINMENTAYEIRasala MNAPARUNNIES मोहदत्तको इस जन्म के पिता को शत्रु के रूप में देखकर उसका घात करने व सगी बहन को प्रेमपात्र बनाकर भोग्य समझने की घोर पापप्रवृत्ति पर भारी शर्म व तीव्र पश्चाताप हो रहा है। इन पापमय दुष्कृत्यों के मूल कारणभूत अपनी कामभोग की लंपटता के प्रति उसे भारी नफरत हुई ; कामभोगों के प्रति निर्वेद-ग्लानि-उद्वेग जगा । साथ ही साथ अज्ञान ने यह अनर्थ मचाया, इसलिये अज्ञान के प्रति भी तिरस्कार जगा । उसके मन में हुआ... Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'धिक्कट्ठे अण्णाणं, अण्णाण चेव दुत्तरं लोए (अण्णाणं चेव भयं, अण्णाणं चेव दुक्खस्य मूलं ॥ ' धिक्कार है इस कष्टमय अज्ञान को ! जगत में अज्ञान को ही पार उतरना मुश्किल है, अज्ञान ही भयरूप है व अज्ञान ही सैकडों दुःखों का मूल है। अज्ञान को धिक्कार यानी स्वयं की अज्ञानमय दशा को धिक्कार । स्वयं की अज्ञानी आत्मा को धिक्कार है, जिसने ऐसे घोर कृत्य किये । अमृत मोह को घटाने की कोई बात ही जिसमें न हो, ऐसा शिक्षण ज्ञान नहीं, नहीं, परन्तु महा अज्ञान है, ज़हर है । ऐसा पढ़ा-लिखा आदमी जो पाप, जिस प्रकार करेगा; उस तरह से कोई अनपढ नहीं कर पायेगा । याद रखिये, शालायें मोह घटाने की बात बिल्कुल नहीं सीखाती, इसीलिये घर में यह सीखने का काम पहले रखो । अज्ञान कष्ट है, क्लेशरूप है, इसी तरह लोभ के कारण अज्ञान दुस्तर है : : वस्तुस्थिति ज्ञात होने पर मोहदत्त सोचता है कि जगत में अज्ञान को कठिनाई से पार उतरा जा सकता है। जगत मे संयोग ऐसे प्रलोभक हैं, इससे सही वस्तु का ज्ञान देना काफी कठिन हो जाता है । आज देखा जाता है कि देश की हितैषी मानी जानेवाली सरकार के पदाधिकारी व अन्य पुण्यवान भी अमीर बनना पसन्द करते हैं व विलासिता भरा जीवन जीते हैं । यह देखकर लोग भी किसकी चाह रखेंगे ? अमीरी की या सादगी की ? किसका महत्व होगा ? लोभ का या संतोष का ? बाध्य संपत्ति का लोभ हो, वहाँ ज्ञानदशा रहेगी या अज्ञान ? इस अज्ञान को हटाने की बात कितनी मुश्किल है ! त्यागी मुनियों के उपदेश का तुम पर असर कितना ? 'आत्मा की वास्तविक संपत्ति तो दया-दान-क्षमा आदि है, ज्ञान-ध्यान, त्याग तप, व्रत-नियम आदि हैं, धन आदि तो पर-पदार्थ हैं । ' ऐसी ज्ञानदशा कितनी पैदा हुई ? मोहदत्त के घोर पाप नाश के उपाय : अब मोहदत्त मुनिराज से पूछता है, ' भगवन् ! तो अब मुझे क्या करना चाहिये, जिससे मेरे घोर पाप नष्ट हों । मेरी आत्मा शुद्ध हो ?' आचार्य महाराज उसे मार्ग बताते हुए कहते हैं, चइऊणं घरवासं पुत्त-कलत्ताइं मित्तबंधुयणं । + वेरग्ग-मग्ग- लग्गो, पव्वज्जं कुणसु आउत्तो ॥ तू गृह-वास का त्याग करें, पत्नी पुत्र- मित्र- स्वजनादि का त्याग करके चारित्रमार्ग को स्वीकार कर उसका सम्यक् पालन कर । २०५ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि ने संसार छोडकर चारित्र लेने की बात क्यों बतायी ? इसीलिये कि (१) मोहदत्त ने जिन पापों का सेवन किया है, वह गृह-वास के कारण ही। स्वयं संसारी था, इसीलिये वासना से वनदत्ता की ओर आकर्षित हुआ। साधु होता, तो शायद ऐसे विचार नहीं करता कि 'यह स्त्री कितनी सुन्दर है, कैसी जवान है...' ये विचार ही नहीं, तो 'इसको चाहनेवाला और भी कोई है, उसे मार डालूँ ,' यह विचार भी कहाँ से आयेगा? आप कहेंगे. प्रश्न :- शायद प्रतिद्वंद्वी के रूप में विचार न हो, फिर भी स्त्री के शील की रक्षा के लिये तो दूसरे आदमी को मारने का विचार पैदा होता है न? उत्तर :- क्यों भला? स्त्री के शील की रक्षा के लिये उसे रोकने का विचार आ सकता है, परन्तु मारने का विचार क्यों ? रोकते हुए शायद मर जाय, तो उसमें आशय मारने का नहीं, परन्तु शील-रक्षा का पवित्र आशय होने से उसे पापी नहीं कहा जाता । परन्तु यहाँ तो स्वयं की कामवासना ही काम कर रही थी, इसीलिये वह पापात्मा बना । इसमें मूल कारण है गृहवास ! गृहवास के कारण ही ऐसी पाप-बुद्धि जगी। इसीलिये गृह-वास का त्याग चाहिये। (२) गृहवास में पाप बहुत हैं । गृहवास छोडे बिना पाप कहाँ से कटेंगे व घटेंगे? कहिये, गृहवास में बैठे हैं, तो क्या-क्या नहीं करना पडता? संसार बसाया, संसारसुख भोगे, यह भूल तो हो गयी, अब पुत्र का जन्म हुआ, तो बोलो, वहाँ भी इतनी हिम्मत तत्वबुद्धि व इच्छा है कि । - 'संसार-सुख भोगने की भूल में जन्मे हुए पुत्र को घर-संसार न बसाने के लिये समझाऊँ ?' क्या मन में ऐसा होता है कि 'गृहवास पाप-भरा है, ऐसा इसे समझाऊँ ? जन्म से इसके कान में यही बात किया करूँ कि 'संसार बुरा है' ! संसार-सुखों का सेवन करने के बाद भी ऐसी तत्वबुद्धि होती है? प्रश्न :- परन्तु वहाँ तो लडके में स्वार्थ होता है न? उत्तर :- तो इसका अर्थ यही है कि गृहवास चीज ही ऐसी है कि गंदी स्वार्थ-लीला के पाप कराता है। यह स्वार्थ-लीला गंदी क्यों ? पुत्र पूर्व में धर्म करके पुण्य लेकर आया है। उसे स्वयं के स्वार्थ में धर्म भुलाकर काम की होशियारी सिखायी जाती है। परलोक में उस लडके का क्या हाल होगा? बेहाल ही न ! क्या ऐसी स्वार्थ की लीला गंदी नहीं ? . गृहवास कौन-से याप नहीं करवाता? (३) पत्नी है, इसलिये वर्ष में आधा वर्ष भी ब्रह्मचर्य नहीं; पत्नी जीवित है, इसलिये घर में बच्चे बडे होने के बाद भी ब्रह्मचर्य नहीं ! Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) गृहवास के कारण ही जिस धर्म के प्रताप से सब कुछ मिला है, उस धर्म के लिये सब कुछ तो क्या आधा भी धर्म के लिये खर्च करने का मन नहीं होता। (५) ज्यादा वक्त भी धर्म के लिये नहीं, कर्म के लिये ही व्यतीत होता है। (६) अरे! काया से शायद कर्म में जुड़ना पडे, परन्तु विचार से, मन से तो धर्म में चित्त रखा जा सकता है न ? किन्तु नहीं, गृहवास ऐसे व्यामोहित कर देता है कि काया नहीं,-तो चित्त उसीमें भटका करता है। वह भी यहाँ तक कि धर्मसाधना में बैठने पर भी संसार के ही विचार ! काया तो नाम के लिये धर्मसाधना में रहती है, परन्तु चित्त तो रहता है संसार के विचारो में ! यह सब गृहवास के कारण ही होता है न? (७) गृहवास चीज ही ऐसी है कि यह विश्वासघात, स्वार्थरसिकता,जरूरत पड़ने पर झूठ, अनीति, रसलंपटता, रूपलंपटता, स्पर्शलंपटता आदि कई पाप करवाता है। (८) गृहवास के कारण संसार का पक्ष लिया जाता है, धर्म का नहीं ! सांसारिक स्वजनों, सांसारिक सुख-सुविधाओं का पक्ष लेने का मन रहा करता है, परन्तु प्रभु का, धर्मबंधु का, धर्म के अंगों का पक्ष लेने का मन नहीं होता । संसार बसाते ही जीव मानों उसका खरीदा हुआ गुलाम बन जाता है। यह कैसी दुर्दशा ! इतना ऊँचा मानव भव पाकर तो अब धर्म का ही पक्ष लेना चाहिये ; परन्तु यह गृहवास संसार का पक्षकार ही बना देता है। (९) गृहवास के कारण ही मुख्य आत्मस्वभाव... ज्ञान की वृद्धि के लिये प्रयास नहीं होता। ज्ञान-चैतन्य तो अपनी आत्मा का मूलभूत मुख्य स्वभाव है, परन्तु क्या रोज उसकी वृद्धिके लिये प्रयत्न किया जाता है ? होशियारी तो बहुत है, होशियारी का दावा भी करते है, परन्तु इसका उपयोग करके अधिकाधिक ज्ञानप्राप्ति करूँ,' ऐसी इच्छा कहाँ जगती है ? (१०) स्वयं में तो ज्ञानवृद्धि नहीं, परन्तु संतानो में भी नहीं ! आज तो दुनिया का पापमय ज्ञान दिलाने के लिये संतानों के पीछे कई सालों तक कितनी मेहनत करते हैं ! इसमें कितने पैसे खर्च करते हैं ? उन्हें पढने की अनुकूलता देने के लीए उनके काम भी स्वयं करके कितना योगदान देते हैं। (११) आज बच्चे विनय-बहुमान क्यों भूल गये हैं ? माता-पिताओं को बच्चों से कुछ सेवा-कार्य तो करवाने ही चाहिये। उनसे काम न करवाकर माता-पिता स्वयं ही वे कार्य कर लेते हैं। बच्चे अच्छे पढ़-लिखकर अच्छी तरह से अपना घर-संसार चला सकें, इसलिये माता-पिता उन्हें पूरी अनुकूलता देकर उन्हें सेठ बना देते हैं। आज की शिक्षण-प्रणाली में माता-पिता की सेवा, विनय तथा बहुमान का कोई स्थान नहीं, तो फिर शिक्षक अर्थात् विद्यागुरु की सेवा, विनय व बहुमान का तो स्थान ही कहाँ से हो? बालमंदिर से लेकर ऊपर कॉलेज तक बालक को कहीं इसके संस्कार Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिये जाते हैं ? नहीं । परिणामस्वरूप आज के अध्यापक विद्यार्थियों से कितने डरकर रहते हैं। ये विद्यार्थी उन्हें परेशान करने में कुछ बाकी नहीं रखते। ये बच्चे घर में माँ-बाप के लिये क्या करेंगे? माता-पिता के साथ कैसा उद्धत वर्तन करते हैं ? आगे चलकर वे ही लडके समाज में अविनय, उद्दण्डता भरा वर्तन नहीं करेंगे? ज्ञान के मूल में गुरुजन-पूजा व परार्थकरण :__ • गुरुजन-पूजा व परोपकार के बुनियादी ज्ञान के बिना का शिक्षण पापज्ञान ही बनता है न ? रोज 'जय वीयराय' सूत्र में प्रभु के पास आप यह मांगते हैं कि मुझे 'गुरुजन की पूजा व परार्थकंरण' मिले। क्यों? इसका कारण यही है कि ये लौकिक सौन्दर्य हैं। इनके बिना लोकोत्तर सौन्दर्य रूप जैन धर्म नहीं मिलता, उसकी योग्यता नहीं आती। साधु का योग भी कब सार्थक बनता है ? ये दोनों बातें हों तो! तो आप ही बताईये, यह गुरुजनपूजा व पर का भला करने का शिक्षण कितना आवश्यक है ? यह तो बुनियाद है, नींव है। इसके बिना का शिक्षण पापज्ञान है। फिर भी आपको अपनी संतान में पापज्ञान बढाने में दिलचस्पी है, परन्तु यह बुनियादी धर्म का ज्ञान दिलाने में दिलचस्पी नहीं । इसीलियें तो बच्चो को पाठशाला नहीं भेजते । अरे! स्वयं को ही सम्यग ज्ञान की प्राप्ति की कोई दिलचस्पी न हो, कोई प्रयत्न न हो, वहाँ आश्रितों के लिये भी इसका विचार कहाँ से आयेगा? मोहदत्त को पाप धोने कि लिये मुनि ने ऐसे अनेक कारणों से गृहवास छोडने की प्रेरणा दी। महात्मा कहते हैं कि 'यदि तू अपनी आत्मा को पापों से मुक्त करना चाहता है, तो गृहवास व स्वजनों को छोडकर वैराग्य को अपनाकर चारित्र की आराधना में लग जा।' चारित्र लेकर कैसा बनना चाहिये, यह बताते हुए महात्मा मोहदत्त से कहते हैं - 'जो चंदणेण बाहुं आलिंपइ वासिणा य तच्छेइ । संथुणइ जो य निंदइ, तस्स तुम होसु समभावो ॥' अर्थात् कोई चन्दन से बाहु पर विलेपन करे,-या कोई बांस से हाथ को छीले, कोई स्तुति करे या कोई निन्दा करे, सबके प्रति तू समभाव रखना । (समभाव के बिना चारित्र निरर्थक : चारित्र में समभाव रखने की नितान्त आवश्यकता है। समभाव न होने से कदमकदम पर होते हैं- राग व द्वेष, हर्ष व उद्वेग । इनसे चारित्र को क्षति पहुँचती है। समभाव के बिना इष्ट विषयों के राग व अनिष्ट विषयों के द्वेष से पांचों महाव्रतों में कहीं न कहीं, कोई न कोई दूषण लगता है। कहीं तो आरंभ-समारंभ करने-कराने-अनुमोदन करने का होता है, या कहीं अल्प मृषाभाषण-चिन्तन आ जाता है, अथवा स्वामी अदत्त, जीव अदत्त, तीर्थकर अदत्त या गुरु-अदत्त का सेवन हो जाता है अथवा शब्द-रूप-रस आदि के आकर्षण से चौथे महाव्रत में अतिक्रम होता है या इच्छा-मूर्छा-गृद्धि से पांचवें महाव्रत में Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोष लग जाता है । समभाव के बिना छट्टा गुणस्थानक नहीं टिकता : समभाव न रखे, तो राग-द्वेष आदि थोडे भी बढ जाने से तीसरे प्रत्याख्यानावरण कषाय की कोटि में चले जाने से चारित्र का सर्वविरति भाव उठ जाता है, चारित्र का छठा गुणस्थानक चला जाता है, प्रसन्नचंद्र राजर्षि समभाव खो बैठे, तो कषाय बढ़ते-बढ़ते पहले मिथ्यात्व गुणस्थानक पर पहुँचकर सातवीं नरक तक के पापों का उपार्जन करनेवाले बने । आगे वे कहते हैं : : 'समभाव में आगे बढते - बढते ऐसी स्थिति पैदा कर कि कोई चन्दन से विलेपन करे, तो तुझे राग न हो, हर्ष न हो और कोई बांस से तेरे शरीर को छीलने लगे, तो उसके प्रति तुझे द्वेष न हो, खेद न हो। दोनों पर समभाव रहे, ऐसी दशा में पहुँच जा।' तथा... कुणसु दयं जीवाणं, होसु य मा निद्दओ सहावेणं । मा होसु सढो, मेति (मुत्ति) चिंतेसु य ताव अणुदियहं ॥ कुणसु तवं जेण तुमं कम्मं तावेसि भवसय-निबद्धं हो सु य संजम - जमिओ, जेण ण कज्जेसि ते पाप ॥ अर्थात् " (१) जीवों पर दया कर व स्वभाव से ही किसी के प्रति निर्दय मत बनना । (२) शठ मत बनना। (३) हमेशा जीवों पर मैत्रीभाव रख । (४) इन्द्रियों के विषयों के प्रति निःस्पृह भाव रख । (५) तू तप कर, जिससे सैकडों भवों के बांधे हुए कर्म जल जायें। (६) संयम से नियंत्रित बना रह, जिससे फिर से नये पापों का उपार्जन न हो । पाप के गहरे गड्ढे में पडे हुए जीव के उद्धार के लिये, उत्थान के लिये महात्मा ने ये ६ सुन्दर उपाय बताये । 11 राग - ममता कैसे छूटे ? मोहदत्त को मुनिराज कह रहे हैं कि 'तुझे घोर पाप धोने हों, तो राग - ममता - स्पृहा छोड़ दे ।' चईऊण घरावासं पुत्त - कलत्ताइं मित्त-बंधुयणं वेरग्गग्ग - लग्गो, पवज्जं कुणसु आउत्तो गृहवास - पुत्र - स्त्री - मित्र- स्वजनों का त्याग करके वैराग्य मार्ग पर चल ष सावधान बनकर प्रव्रज्या का पालन कर । 'प्रव्रज्या' का अर्थ है... प्रकर्ष से व्रजन, गमन । अर्थात् गृहवास से उत्कृष्टता से निकल जाना । अर्थात् (१) इस तरह से निकल जाना कि फिर से इस जीवन में वापिस उस तरफ कदम ही नहीं रखना । (२) इस तरह से निकल जाना कि फिर उसका विचार तक मन में नहीं लाना, मानों जीवन पूर्ण करके दूसरे भव में चले गये, तो पूर्व जीवन का स्मरण ही न हो, उसके साथ कोई संबन्ध ही न हो। फिर राग - ममता-स्पृहा किस प्रकार टिक २०९ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकते है ? - पाप को साफ करने के लिये क्या-क्या करना चाहिये इसकी पूरी पद्धति व प्रक्रिया मुनिराज बताते हैं। वे कहते हैं , 'हे भाग्यशाली ! प्रव्रज्या लेने से दूसरा सब तो त्याग हुआ, किन्तु शरीर तो साथ में ही रहता है, इसलिये इस पर कोई उपकार या अपकार करने के लिये आये, तो उसके प्रति राग-द्वेष होने की संभावना है। यह न हो, इसके लिये यह निश्चित कर कि कोई तुझे चन्दन से विलेपन करने के लिये आये या कोई बांस से छीलने के लिये आये, तो भी 'वह मित्र, वह शत्रु' ऐसा भाव नहीं लाना, दोनों को समान मानना । इसी प्रकार कोई स्तुति-प्रशंसा करे या कोई निन्दा करे , दोनों पर समभाव ही रखना । आज तक जीव राग-द्वेष कर करके दुष्कृत्य व भवभ्रमण करता चला आ रहा है । यह रोकने के लिये विषमभाव छोडकर समभाव में ही रमण करना पड़ेगा। __ 'हे महानुभाव ! जीवों पर दया कर । स्वभाव ही दया-कोमलता-सहानुभूतिवाला बना दे, जिससे किसीके भी प्रति अन्तर में कठोरता का या निर्दयता-क्रूरता का भाव ही न जगे। दूसरों के प्रति दया का भाव उड जाने पर जीव में कठोरता का भाव जगता है, इसीलिये तो अपना स्वार्थ साधने के लिए हिंसा का सहारा लेते हुए भी वह नहीं हिचकिचाता । जीवों के प्रति दया का स्वभाव रखा हो, तो हिंसा-निर्दयता-कठोरता के द्वारा स्वार्थ नहीं साधा जाता।' 'हे भव्यात्मा ! शठता-दंभ-कपट-वक्रता का त्याग करना, क्योंकि इससे हृदय कलुषित बनता है और कलुषित हृदय में पवित्र भाव नहीं आ सकते । यह उच्च जीवन तो पवित्र भावों से भरने के लिये है, इसीलिये मूल में से ही शठता-वक्रता का त्याग कर देना चाहिये।' __ 'हे नरवीर ! हमेशा मैत्रीभाव का चिन्तन करना । जगत का प्रत्येक जीव अपना लगे, सबके प्रति दिल में स्नेह ही जगे। किसीके प्रति द्वेष नहीं शत्रुता नहीं । कयोंकि आत्महित की साधना करनी हो, तो वह निश्चित मन से होती है। दूसरों के प्रति वैरविरोध-दुश्मनी रखने पर चित्त उसीमें लगा रहता है, जिससे स्वात्महित का विचार करने का कोई अवकाश ही नहीं रहता । मैत्री भाव रखने पर चित्त ऐसे विचारों में नहीं पड़ता, चित्त स्वयं के ही दोष आदि का ध्यान रखकर उनको हटाने का विचार करता है । समरादित्य के जीव ने भवोभव के दुश्मन अग्निशर्मा के जीव पर शत्रुभाव न रखा, तो चित्त उसकी उधेडबुन में न पड़ा। मैत्रीभाव रखने से दिल शान्त रहा व स्वयं की आत्मा के हित की ओर द्रष्टि करने का ही लक्ष्य रहा ।' . हे गुणवान ! चित्त में हमेशा मुक्तिभाव अर्थात् सबके प्रति निर्लोभता का चिन्तन करता रह, जिससे कभी भी किसीके प्रति स्पृहा का भाव न जगे। 'मुझे यह नहीं चाहिये, Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह नहीं चाहिये ...' ऐसा वारंवार सोचते रहने से लोभ से मुक्ति मिलती है। चिन्तन के बिना संस्कार मजबूत नहीं होते। संस्कार मजबूत न होने पर अवसर आने पर पहले से चली आती हुई रीत-रसम से बचा नहीं जा सकता । इसीलिये रोज मुक्ति-निर्लोभता-निर्मलता का चिन्तन करने की अत्यन्त आवश्यकता है। मुक्ति के दो अनन्य उपाय :महामुनि आगे कहते हैं; 'कुणसु तवं, जेण तुमं तावेसि कम्ां भवसयनिबद्धं । हो सु य संजम-जमिओ, जेण ण अज्जेसि तं पावं ॥' अर्थात् तू तप कर, जिससे सैकडों भवों में बांधे हुए कर्मों को तू तपा देगा, जला देगा। तू संयम से नियंत्रित बन जा, जिससे तू नये पापों का उपार्जन न करे। महर्षि ने सिर्फ पाप ही नहीं, संसार से सर्वथा मुक्ति पाने के दो रामबाण उपाय बता दिये । संसार पापकर्मों के बन्धन के आधार पर चलता है और नये-नये पापों के उपार्जन से उन पापों के पोषण से उसका प्रवाह सतत-चालु ही रहता है। इसीलिये महर्षि कहते हैं कि तू तप कर, जिससे सैकड़ों भवों के कर्म जलकर खाक हो जायें तथा संयम से नियंत्रित बन, जिससे नये-नये कर्मों का बन्धन रुक जाय । इस तरह होते-होते एक ऐसा स्वर्णिम दिवस उदित होगा कि केवलज्ञान प्राप्त होगा व मोक्ष होगा। तत्व की समझ के बिना भी प्रभु के आलंबन से महा तप-संयम का बल : परमात्मा महावीर ने स्वयं ने इसी प्रकार से केवलज्ञान व मोक्ष पाया है, तो हमें भी उनका आदर्श नजरों के समक्ष रखकर तप व संयम में लगे रहना है, भगवान तो परम आलंबन हैं। बहुत शास्त्र न पढे हों, तप-संयम के तात्विक मर्म न समझे हों, फिर भी यह विचार यदि बार-बार करते रहें कि- 'मेरे वीर प्रभु ने क्या किया था? उन्होंने महातप व महा संयम की कैसी साधना की थी ? मुझे भी "महाजनो येन गतः स पन्थाः-महापुरुष जिस मार्ग पर चले, वही मेरा मार्ग... ऐसा विचार रखना चाहिये अर्थात् भगवान के आदर्श को याद करें, तो हमें भी तप-संयम की महान प्रेरणा-प्रोत्साहन मिले; महा बल मिले व हम भी तप-संयम की महान साधना में लगे रहें। दुनिया में हर क्षेत्र में जीव इसी तरह तो प्रेरणा व उत्साह पाकर आगे बढ़ता है। उस आदमी ने तो छोटे पैमाने पर धंधा शुरु किया था, आज वह कितना आगे बढ गया ! इस तरह करते हुए मैं भी आगे क्यों नहीं बहुँ ? उस आदमी ने एक छोटी-सी फेक्टरी शुरु की थी आज वह बडे कारखाने का मालिक बन गया है, मैं भी उसीकी तरह आगे बढुंगा । वह आदमी तो कैसा दुबला-पतला था, परन्तु कसरत करते-करते बलवान बन गया ! तो मैं क्यों नहीं हो सकता? इन सब आलंबनों को नजर के समक्ष रखकर पुरुषार्थ होता है. तो फिर धर्मसाधना में भगवान का व महापुरुषों का आलंबन लेकर क्यों पुरुषार्थ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं कर सकते? अति सुकोमल शालिभद्र, धन्नाजी, मेधकुमार आदि तप-संयम में किस प्रकार इतने आगे बढे होंगे ! वैराग्य से संसार छोडा जा सकता है, सामान्य तप-संयम की आराधना की जा सकती है, परन्तु इस प्रकार खून व मांस को सुखा डाले, ऐसी घोर तप व संयम की साधना किसके आधार पर की जाती हे ? उन्होंने ऐसी उत्कृष्ट तप-संयम की साधना कैसे की होगी? हाँ तत्व को समझे, व प्रभु महावीर के आलंबन से 'मेरे प्रभु ने कैसी जबरदस्त साधना की है, तो मुझे भी इसी मार्ग पर चलना चाहिये । अति सुकोमल, इन्द्रों के भी पूज्य... ऐसे प्रभु ने ऐसी घोर तपश्चर्या की, घोर परिषह-उपसर्ग सहन किये, तो मुझे भला दूसरा विचार करने की क्या आवश्यकता है'... ऐसा कोई आलंबन नजर के समक्ष रखा होगा, तभी तो शालिभद्र आदि ऐसा सत्व प्रगट कर सके होंगे। प्रभु मिलने पर हृदय भर आये : ऐसे स्नेही कहाँ मिलेंगे ? हमारे पास हृदय हो, तो वह हृदय बार-बार भर आता है कि 'अहो ! घोर पापों से भरी इस पृथ्वी पर मुझे कैसे अनुपम प्रभु मिले! आज दुनिया में देखें, तो कितने मानवों को ऐसे महा स्नेही, महातारक प्रभु मिले हैं ? आज की दुनिया में ४०० करोड मानवों को ये प्रभु नहीं मिले । मुझे ये प्रभु मिल गये?' ऐसा विचार करने पर भी हृदय भर आता है। इसी तरह गणधर गौतम स्वामीजी आदि... आचार्य भद्रबाहु स्वामी, हरिभद्र सूरि आदि... यावत् वर्तमान गुरु महाराज आदि... कैसे महा स्नेही, महा कल्याणमित्र, महा उपकारी मुझे मिले हैं । इस विचार से हृदय गद्गद् हो जाता है। इन्हें वन्दन आदि करते वक्त दिल भावविभोर बन जाता है। हृदय हो, तो तीर्थंकर परमात्मा आदि का आलंबन लेते हुए हृदय भर आता है, आराधना में उत्साह जगता है। सुलसा का हृदय इसी तरह भर आता था। अंबड श्रावक ने उसे प्रभु महावीर का संदेश कहते हुए उसमें अद्भुत संवेदन देखा और चकित रह गया 'वाह ! प्रभु के प्रति कैसा राग ! कैसा सम्यग्दर्शन !' कहिये, बार-बार हृदय भर आने के लिये हृदय है? प्रश्न :- सब कुछ समझ में आता है, परन्तु दुनिया के कार्यों में दूसरे का आलंबन लेकर आगे बढा जाता है, तो इसी तरह यहाँ क्यों ऐसा आलंबन नहीं लिया जाता? उत्तर :- पहले यह तो बताईये कि प्रभु को बार-बार याद करके इस प्रकार हृदय भर आता है ? 'मुझ जैसे नालायक, नराधम, लाखों दोषों से भरे हुए इन्सान को ये प्रभु मिले! ये नाथ मिले ! कितनी ऊँची व अति दुर्लभ उपलब्धि !' ऐसा विचार आता है ? इस विचार से हृदय भर आता है ? यदि ऐसा होता है, तो सब शक्ति बाहर निकालकर ऐसे प्रभु के आलंबन से उल्लास-पूर्वक सुन्दर साधनायें होने लगती हैं। प्रश्न :- इस प्रकार प्रभु पर हृदय कैसे भर आता है ? उत्तर :- तुलना करने से ! यह देखो कि औरों को जो रागादि से मलिन देव-देवी Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिले हैं, या नास्तिक जैसे हमे जो संसारी स्वजन मिले हैं, उनकी तुलना में हमें ये कैसे वीतराग सर्वज्ञ, परम दयालु ऊँचे देव, कैसे तारक, कैसे स्नेही मिले हैं ! इस प्रकार तुलना करें, तो प्रभु पर व उपकारी त्यागी गुरु पर हृदय फिदा हो जाता है, हृदय भर आता है। परन्तु संभव है कि इसके लिये हृदय को कोई धक्का लगने की जरुरत हो ! सहज रूप से चलते हुए जीवन में यह होना मुश्किल है। संसार में कोई स्वजन यकायक मर जाय, पुत्र दुर्घटना का शिकार हो जाय, लाखों रुपयों का घाटा हो जाय... ऐसा कुछ होने पर हृदय को धक्का पहुँचता है व हृदय भर आता है। इसी तरह आत्मा को कोई बडा घाटा दिखे, कोई अनुपम अवसर हाथ में से गया, ऐसा महसूस हो, कोई महापाप होने पर भान आये, तो हृदय को धक्का पहुँचता है और हृदय भर आता है। यहाँ देखिये के मोहदत्त से अनजान में पाप होने पर मुनि ने पहचान करायी कि 'तूने शत्रु समझकर तेरे पिता को मार डाला , परायी कन्या समझकर सगी बहन को प्रिया बनाने गया, कन्या की रक्षिका समझकर माँ के समक्ष ही काली करतूत करने के लिये तैयार हुआ'। यह सुनकर मोहदत्त को सदमा पहुँचा, हृदय भर आया कि 'मैं कैसा पापी ! कैसे हैं ये अनन्य उपकारी गुरु !' गद्गद् हृदय से वह गुरु से पूछता है, 'प्रभु ! मेरे ये जालिम पाप कैसे नष्ट होंगे?' बस हमें अपने किसी पाप, कोई महान भूल, कोई जालिम दोष के प्रति आघात पहुँचे अथवा किसीकी अकाल मृत्यु ; अकल्पित आपत्ति या बरबादी देखकर 'मेरे साथ भी ऐसा हो जाय तो?'... ऐसे विचार से हृदय को धक्का पहुँचे, तो हृदय भर आता है, देवगुरु पर हृदय फिदा हो जाता है, उनकी शरण ली जाती है। उनकी सच्ची पहचान होने पर हृदय भर आता है। हृदय भर आने पर उनका आलंबन सहज में ही लिया जाता है। 'मेरे प्रभु ने, मेरे गुरु ने इतनी साधना की, तो मैं भी क्यों न करूँ ?' इस प्रकार उल्लास. आता है, उत्साह पैदा होता है व साधना में आगे बढा जाता है। मुनि आगे कहते हैं, ' हे सुज्ञ ! संसार त्याग, प्रव्रज्या, समभाव व तप-संयम की तरह असत्य का त्याग कर। कदापि झूठ मत बोलना व अन्य का घात करनेवाला बने ऐसा सत्य भी मत बोलना। पापमात्र का त्याग करके हमेशा पवित्रता को धारण करना । अनीति, अन्याय, बेईमानी का अंश तक मन में पैदा न होने पाये। परिगृह का त्याग करना। नौ वाड का बराबर सावधानी रखकर विशुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करना।' मोहदत्त की धर्म में छलांग : मोहदत्त को मुनिराज कहते हैं कि ब्रह्मचर्य सहित दस प्रकार के क्षमादि यतिधर्म का पालन तू बराबर करेगा, तो अन्त में ऐसे स्थान को पायेगा, जहाँ न जन्म है, न मरण , न राग हैं, न दुःख, ऐसे शाश्वत शिवसुखमय मोक्ष को तू पायेगा। तब मोहदत्त कहता है, 'भगवंत ! यदि आपको मुझमें योग्यता दिखे, तो मुझे ऐसे धर्म-पालन की दीक्षा दीजिये।' । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 मोहदत्त इस प्रकार एकदम कैसे तैयार हो गया ? धर्म की बात आने पर आप कहते हैं न कि धर्म में धीरे-धीरे चढा जाता है। तो यह तो एकदम से छलांग मारने को तैयार हुआ है । इसीलिये कि उसने भयंकर कृत्य किये हैं । आपको लगेगा कि 'उसने ऐसे काम किये हैं, इसीलिये तैयार हो गया ! परन्तु हमने तो ऐसे कोई भयंकर कृत्य नहीं किये !' परन्तु ऐसा कहने से पहले आप यह तो सोचिये कि शायद इस जन्म में आपने ऐसे पाप न किए हों, परन्तु क्या आप अपने पूर्वजन्मों का इतिहास जानते हैं कि वहाँ कैसे-कैसे अधम कृत्य नहीं किए होंगे ! पूर्व भवों के अधम कृत्यों के भी हिसाब चुकाने हों, तो यहाँ दस प्रकार के यतिधर्म की छलांग की ही ज़खत है । मोहदत्त को लगा कि 'मैं घोर पापात्मा हूँ; परन्तु इन महात्मा का कहा मानकर दस प्रकार के क्षमा- ब्रह्मचर्यादि का पालन करूँ, तो मेरे घोर पाप भी नष्ट हो सकते हैं। तो फिर मैं विलंब क्यों करूँ ?' प्रश्न :- परन्तु ऐसे ऊँचे धर्म में एकदम कैसे छलांग लगायी जा सकती है ? थोडेथोडे धर्म के पालन के अभ्यास के बिना उच्च कोटि के धर्म का पालन कैसे संभव हो सकता है ? उत्तर :- यह तो बताईये कि यह संभव न होने का कारण क्या ? यही न कि बहुत कष्टमय मार्ग है, इसलिये अभ्यास के बिना एकदम ऐसे कष्ट कैसे उठाये जा सकते हैं ? परन्तु आप यह देखिये कि संसार में कोई ऐसी आजीविका आदि की भारी चिन्ती पैदा हुई हो या कोई धन आदि का लालच उपस्थित हुआ हो, अथवा लूटेरे, हत्यारे का भय उपस्थित हुआ हो अथवा बदनामी का डर हो, तो इस चिन्ता या भय का निवारण करने के लिए या बडे लालच का पोषण करने के लिए कैसे-कैसे भारी कष्ट एकदम नहीं उठाते ? वहाँ कहाँ धीरे-धीरे कष्ट का अभ्यास डालने के लिये रुकते हैं ? कुछ उदाहरण : (१) घर की तीसरी मंजिल पर सोये हुए थे इतने में शोर मचा कि घर को आग लगी है। आग दूसरे मंजले तक पहुँच गयी है। तो क्या पहले धीर-धीरे कूदने का अभ्यास करने के लिये बैठे रहा जाता है या एकदम से छलांग मारी जाती है ? (२) जंगल में शोर मचा कि पीछे मे लूटेरे आ रहे हैं, तो क्या धीरे-धीरे दौडने का अभ्यास किया जाता है या एकदम तेजी से दौडकर किसी सुरक्षित स्थान में पहुँच जाते हैं ? (३) दिवाला निकल गया। एकदम कंगाल बन गये। सारे परिवार के लिये दो जून की रोटी जुटाने का प्रश्न उपस्थित हुआ । नौकरी के कष्टों का अनुभव नहीं है, तो क्या धीरे-धीरे उसका अभ्यास हो, वहाँ तक बैठे रहते हैं या भारी से भारी कष्टप्रद नौकरी या मजूरी भी स्वीकार लेते हैं ? २१४ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) एक्सीडेण्ट हुआ या केंसर जैसा रोग हुआ, तो भारी कष्टदायक ओपरेशन, उपचार आदि करवाने के लिए भी तत्पर हो ही जाते हैं न ? वहाँ धीरे-धीरे अभ्यास के लिये रुकते हैं? (५) किसी कारण से आबरु गयी, तो विदेश जाकर वहाँ कई कष्ट सहन करने के लिए भी तैयार हो जाते हैं या उसी गाँव में रहकर कष्ट सहन करने का थोडा-थोडा अभ्यास किया जाता है? कहने का तात्पर्य यह है कि कोई बड़ा भय लगे, कोई भारी चिन्ता उपस्थित हो जाय, अथवा कोई प्रलोभन मिल जाय, तो उस भय-चिन्ता से छूटने के लिये या लालच को पूर्ण करने में भारी से भारी कष्ट सहन करने के लिए भी तैयार हो जाते हैं । यहाँ यदि मोहदत्त के घोर पाप ऐसे ही रह जायें और शायद जीवन पूर्ण हो जाय, तो उत्कृष्ट आराधना हाथ से गयी, ऐसा उसे लग गया है, इसीलिये भारी कष्ट हों तो कष्ट ही सही, परन्तु ऐसे घोर पापों का क्षय करनेवाली साधना मिलती हो, तो ले लेने की तमन्ना जगी है, इसीलिये वह एकदम दस प्रकार के क्षमादि यतिधर्म का स्वीकार करने के लिये तैयार हो जाता है व महात्मा को कहता है, "भगवंत ! मुझमें योग्यता दिखती हो, तो मुझे दीक्षा दीजिये।' महात्मा ने क्यों दीक्षा नहीं दी ? महात्मा कहते हैं, "तू अब योग्य है, परन्तु मैं तुझे दीक्षा नहीं दे सकता। क्योंकि मैं चारण श्रमण हूँ ; अर्थात् आकाशगामी विद्या से एक स्थान से दूसरे स्थान आकाश में उडकर जानेवाला हूँ। अत: मुझे गच्छ का संग्रह नहीं, शिष्यादि परिवार मैंने रखा नहीं है। जिन विद्याधरों को वैराग्य हो जाता है व जो श्रमणधर्म स्वीकारते है, वे पूर्वसिद्ध विद्या से गगनचारी होते हैं व उत्कृष्ट चारित्रधर्म को पालन करते हैं। ___मैं आकाशमार्ग से जा रहा था, तब मैंने देखा कि इस पुरुष का तू घात कर रहा है। अवधिज्ञान से मुझे ज्ञात हुआ कि यह पुरुष तेरा पिता ही है। तब मुझे बहुत दुःख हुआ कि यह कैसा पुत्र है! 'जणकमिणं मारेउं, पुरओ च्चिय एस माइ-भइणीणं । मोहमओ मत्तमणो, एम्हि भइणि पि गच्छिहिइ ? ॥' स्वयं की माता व बहन के समक्ष ही अपने पिता को मारकर यह मोहमूढ व उन्मत्त मनवाला बनकर बहन के साथ भी काम-क्रीडा करेगा? मैं सोचने लगा कि 'अरे! यह मोहनीय कर्म कैसा?' यह मोहनीय कर्म जीव पर कैसा जुल्म करता है ! नित्थिण्णि भवसमुद्दा चरमसरीरा य हों ति तित्थयरा । (कम्मेण तेण अवसा, गिहधम्मे होंति मूढमणा ॥ तीर्थंकर तो भवसमुद्र से पार उतरने के बहुत निकट होते हैं, व चरमशरीरी अर्थात् उसी भव में मोक्ष जानेवाले होते हैं। फिर भी (निकाचित भोगावलि ) मोहनीय कर्म के Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधीन होने से गृहस्थ धर्म में विषय संग में मूढ मनवाले बनते हैं, तो यह बिचारा क्यों न मोहमूढ न बनेगा ? फिर भी इसने पिता को मारने एक बडा अकार्य तो किया, परन्तु अब बहन के साथ अनाचार सेवन का दूसरा भयंकर अकार्य न करे, इसके लिये इसे प्रतिबोधित करूँ। ऐसा सोचकर मैं आकाश से नीचे उतर आया व तुझे बोध दिया। महात्मा इस जगत पर कैसा उपकार करते हैं ! महा पापी जीवों पर भी कैसी दया करते हैं ! मोहदत्त घोर पापात्मा बना था, परन्तु चारण मुनि आकाश में से जाते हुए उस पर दया करने के लिये नीचे उतर आये व प्रतिबोधित किया । मोहदत्त भी कैसा भाग्यशाली कि उसे ऐसे दयालु महात्मा मिल गये ! तो ऐसे योग को निष्फल क्यों किया जाय ? तीव्र भोगराग को भी छोडकर वह दूसरे घोर अकार्य से बच गया व पाप के भारी पश्चाताप के साथ संसार त्यागकर कष्टमय चारित्र लेने के लिये तैयार हुआ है 1 जीवन में महापाप देखने के बाद उससे संत्रस्त जीव सर्व पाप छोडने के लिए कटिबद्ध होता है । मुनि ने अपने एकाकी विचरण की बात बताकर दीक्षा देकर शिष्य बनाने का इन्कार किया । अब मोहदत्त पूछता है, 'भगवंत ! तो फिर मैं दीक्षा किस प्रकार प्राप्त करूँ ?" महर्षि ने कहा 'यहाँ से जाते हुए राजा पुरंदरदत्त की कोशांबी नगरी के दक्षिण भाग के उद्यान में धर्मनन्दन आचार्य महाराज मिलेंगे। वे स्वयं ज्ञान से ही तेरा वृत्तान्त जानकर तुझे दीक्षा देंगे। इतना कहकर चारण महर्षि आकाश में उड़ गये व मोहदत्त वहाँ से निकलकर यहाँ धर्मनंदन आचार्य महाराज के पास आकर बैठा ।' (मोहदत्त की दीक्षा : 'हे पुरंदरदत्त महाराजा ! मोहदत्त यह सुनकर वहाँ से निकला व मुझे खोजते हुए यहाँ आया है । देखो, वहाँ बैठा है । ' 1 मोहदत्त ने तो स्वयं की बात भी नहीं कही, परन्तु धर्मनंदन आचार्य महाराज ने ज्ञान से देखकर जो बताया, उस पर मुग्ध हो गया । खड़ा होकर हाथ जोडकर कहता है'भगवंत ! आपने मेरे बारे में जो कुछ फरमाया, वह अक्षरशः सत्य है । मैं मेरे पिता का घातक बना व माँ के सामने बहन के साथ अनाचार सेवन के लिए तत्पर हो गया था । परन्तु चारण - महर्षि ने मुझे बचा लिया। आपने जो कुछ बताया, उसमें तनिक भी असत्य नहीं। तो अब कृपा करके मुझे दीक्षा दीजिये।' इतना कहकर महर्षि के चरणों में गिरा । महर्षि धर्मनंदन आचार्य महाराज ने ज्ञान से देखा कि इस व्याघ्रदत्त यानी मोहदत्त का मोह व कषाय अब शान्त हो गया है, अतः उसे दीक्षा दी। मोह व कषाय शान्त हुए बिना दीक्षा नहीं दी जाती । दीक्षा देने के बाद महर्षि फरमाते है, 'हे वासव महामंत्री ! ये क्रोध- मान-माया २१६ I Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोभ-मोह, बडे मल्ल हैं । ये जीव को स्वयं के अधीन बनाकर दुर्गति के मार्ग पर चलाते हैं। अतः ऐसा प्रयत्न करना चाहिये कि ये क्रोधादि उदय में ही न आयें अथवा उदय में आये हों तो इनके उदय को निष्फल बनाना चाहिये।' समाप्त Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -: संक्षिप्त कथा सार : राजा पुरंदरदत्त को जैन धर्म की प्राप्ति कराने के लिये वासवमंत्री तरकीब आजमाकर उसे उद्यान में धर्मनन्दन आचार्य महाराज के पास ले जाता है 1 वासवमंत्री के प्रश्न पूछने पर आचार्य महाराज संसार के पांच कारण के रूप में क्रोध - मान-माया - लोभ-मोह को बताते हैं। क्रोध पर चंडसोम, मान पर मानभट्ट, माया पर मायादित्य, लोभ पर लोभदेव, व मोह पर मोहदत्त के जीवंत उदाहरण के साथ संसार की बेढंगी स्थिति का ऐसा अद्भुत वर्णन किया कि सहृदय श्रोता को संसार व उसके कारण क्रोधादि के प्रति खेद - ग्लानि पैदा हो जाय । वे पांचों दीक्षा ग्रहण करके परस्पर धर्मानुरागवाले एक ही देवलोक में देव के रूप में उत्पन्न हुए। चंडसोम पद्मचंद्र देव के रूप में पैदा होता है । वहाँ परस्पर धर्मबोध करने का संकेत करते हैं । 1 एक बार दक्षिणार्ध भरत खंड के मध्य भाग में श्री धर्मनाथ भगवान के समवसरण में ये पांचों देव आये थे । उन्होंने परमात्मा से अपने भावि कल्याण के बारे में पूछा। वहाँ से च्यवन पाकर पद्मचंद्र देव (चंडसोम) का जीव सिंह बनता है, पद्मसार देव (मानभट्ट) का जीव कुवलयचंद्र कुमार, पद्मप्रभ (लोभदेव ) का जीव सागरदत्त व्यापारी, पद्मवर देव (मायादित्य) का जीव दक्षिण देश की विजयानगरी के राजा विजयसेन व रानी भानुमती की कुक्षी से कुवलयमाला के रूप में जन्म लेता है। उसे प्रतिबोध देने के लिये कुवलयकुमार विजयानगरी जाकर, पादपूर्ति करके कुवलयमाला के साथ शादी करता है । पद्मकेसर देव (मोहदत्त) का जीव कुवलयमाला के पुत्र पृथ्वीसार के रूप में जन्म लेता है। कुवलयकुमार का अश्व के साथ दिव्य हरण होता है। कुमार अश्व के पेट में छुरा भोंकता है, इससे वह अश्व के साथ नीचे आता है, " कुमार कुवलयचंद्र ! दक्षिण दिशा में एक कोस दूर जा । वहाँ पहले कभी न देखा हो, ऐसा कुछ तुझे देखना है ।" कुमार वहाँ गया। वहाँ उसने एक मुनि को देखा। वे मुनि २१८ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे ही थे, जो लोभदेव का जीव सागरदत्त व्यापारी बना था, वे दीक्षित होकर सागरदत्त मुनि बने थे। कुवलयकुमार ने सागरदत्त मुनि से अपने अपहरण के बारे में पूछा । तब धर्मनन्दन आचार्य महाराज पुरंदरदत्त राजा व वासवमंत्री को उपदेश दे रहे हैं, जिसमें क्रोध-मान-माया-लोभ का वृत्तान्त कहते हैं। कुछ वक्त बीतने के बाद कुवलयकुमार-कुवलयमाला दीक्षा लेते हैं। बाद में पृथ्वीसार भी दीक्षा लेता है । वह कालधर्म पाकर फिर से देव बनता है। सागरदत्त मुनि व सिंह भी देव बनता है। इस प्रकार पांचों पुनः देवलोक में देव बनकर अपना समय सुख में बिताते हैं। उसके बाद चौबीसवें परमात्मा श्री महावीर स्वामी के काल में कुवलयचन्द्र देव का जीव काकंदी नगरी में कंचनरथ राजा का पुत्र मणिरथकुमार बनता है। राजा की विनंति से महावीर प्रभु उसके एक पूर्वभव की बात कहते हैं, जो सुनकर वैराग्यवासित बना हुआ मणिरथकुमार प्रभु के पास दीक्षा लेता है। मोहदत्त देव का जीव रणगजेन्द्र का पुत्र कामगजेन्द्र बनता है। स्वयं को हुए अनुभव की सत्यता प्रभु महावीर के मुख से सुनकर वह दीक्षा लेता लोभदेव का जीव देवलोक में से च्यवन पाकर ऋषभपुर नगर के राजा चन्द्रगुप्त का पुत्र वज्रगुप्त बनता है। प्राभातिक के शब्द से प्रतिबोध पाकर वह महावीर प्रभु के पास दीक्षा लेता है। - चंडसोम का जीव देवलोक से च्युत होकर यज्ञदेव नामक ब्राह्मण का स्वयंभू देव नामक पुत्र बनता है व गरुड पक्षी के वृत्तान्त से बोध पाकर महावीर प्रभु के पास दीक्षा लेता है। ___ मायादित्य देव का जीव राजगृही नगरी में श्रेणिक राजा का पुत्र महारथ बनता है। स्वयं के स्वप्न का स्पष्टीकरण प्रभु महावीर के मुख से सुनकर वैराग्य से दीक्षा लेता है। अन्त में ये पांचों सुन्दर साधना करके अंतकृत् केवली होकर मोक्ष में जाते हैं। opooOOOOOOOOOOOO 000000000000dododor DOOOOOOOOOK 00000000000000000 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jalin Educatjan International प्रभुना ध्यान प्रभता नवपद प्रकाश-रिहतपद 0-00 00000000000 nvale & Personal use on 0000000000000 000000000000 3000 पूज्य आचार्यदेवश्री विजय भवनभ श्वरजी महाराज आलेखित साहित्य 1. परमतेज भाग-१ आवृत्ति - 3000 रु. 70- 22. वाचना प्रसादी000000000१०-००७ 2. श्री भगवतीसूत्र विवचेन - भाग 1000 223. योगद्रष्टि समुच्चय भाग -10000035 23. वाचना वैभव 000008808 15-00 24. प्रभुना ध्याने प्रभुता पामे 8888824. योगद्रष्टि समुच्चय भाग - 2 25. संकल्प भळे सिद्धि मळे 8000 26. वाचनानो खजानो000000000 / 6. नवपद प्रकाश - सिद्धपद 00000 20- 27. दरिसन तरसीये 000000000 7. नवपद प्रकाश- आचार्यपद - उपाध्यायपद८ 28. मानव तुं मानव बन00000000 5008. सीताजीना पगले पगले - भाग - 100 29. मानव जीवन में ध्यान का महत्त्व 0000 सीताजीना पगले पगले - भाग -200007-50 30. भेदी आकाशवाणी (कुवलयमाला - 1) 24 0. मनना मिनारेथी मुक्तिना किनारे - भाग - 10 15- 31. जैन धर्मका परिचय- 5000 2011. मनना मिनारथी मुक्तिना किनारे - भाग -2 15- 32. चैत्यवंदन सूत्रप्रकाश (आराधना) | 12. जोजे डुबी जाय ना 6000000004 33. समरादित्य चरित्र - भव 1-2 | 13. यशोधर चरित्र - भाग - 10000003 | 34. उपदेशमाळा - मूळ तथा अनुवाद 00015| 14. यशोधर चरित्र - भाग - 2 0000001- | 35. सूरि पुरंदर 000000000005 15. प्रीतम केरो पंथ निराळो 000000010- | 36. महासती देवसिका 0000000 26. तिमिर गयुं अने ज्योति प्रकाशी 0000 37. परमात्मभक्तिना रहस्य | 17. ताप हरे तन - मननां 888888 | 38. तर्कना टांकणा, श्रद्धा शिल्प0000 30| 18. गणधरवाद - आवृत्ति 300000010- 39. मननां दरद मननी दवा 000000 45 19. कडवा फळ छे कोधना 000000020-00 - 40. तुं तारुं संभाळ 00000000020Deod 20. मानव जातिने जैन धर्मनी बक्षीस0000८-०० - 41. जीवन बने उपवन 000000016Doo 21. प्रारब्ध उपर पुरुषार्थनो विजय 00000 3-00 / 42. भेदी आकाशवाणी (कुवलयमाला भाग -2). Bo ooooप्राप्तिस्थान :-दिव्यदर्शन ट्रस्ट- कुमारपाल वि. शाह 36, कलिकुंड सोसायटी - धोलका- 387810 : 08 ww. .