________________
इरादा नहीं है, परंतु उस पर दया कर के स्वंय के लिए सावधान बनना हैं कि हम अंधानुकरण करके ऐसी अज्ञान दशा में न पड़े और अधीरता आदि दोषों और दुष्कृत्य को स्थान न दें।'
ज्ञानदशा कैसी?
प्र०. लेकिन अधिकतर ऐसी अज्ञानदशा ही देखने मिले तो उसका असर तो होता ही है न ? इस असर में से किस तरह छूटा जाय ? .
उ०. किस तरह क्या ? ज्ञानदशा के द्वारा छूट सकते हैं । ज्ञानदशा यह है कि उदाहरणतया अधैर्य के विषय में यह विचार करें कि अधीरता करने से क्या मिलेगा? कोई वस्तु खो जाए ,बिगडे, या नष्ट हो, तो वह अब लौट आए; या सुधरे, यह संभव नहीं, भले ही लाख अधैर्य करें और लाख चीख-पुकार करें । तो फिर अधीर-बावरा व्याकुल क्यों होना?
(१) अब तो आगे नये नुकसान न आवें,-. (२) चीज बिगडने से आत्मा का कुछ न बिगड़े, (३) चीज-वस्तु खो जाने से आत्मा का कुछ न खो जाए।...
यही देखना रहा। यह करना तभी संभव है कि धैर्य रखें, धीरज-हिम्मत से काम लें।
बाह्य इष्ट जड़ या चेतन के खो जाने के पीछे अपने महामूल्यवान् जीवन को क्यों खो दें? इष्ट के वियोग का सच्चा शोक यह है कि जीवन को उच्च साधना में लगा दें।
यह ज्ञानदशा का विचार है। इसे अपनाने के बाद अज्ञान दुनिया की अधीरता, शोक, विलाप आदि में डूबना नहीं होगा, उसका अनुकरण नहीं होगा, अज्ञानमूढ दुनिया का हम पर प्रभाव ही नहीं पडेगा-यह ज्ञानदशा का परिणाम है।
बेचारे मानभट के पिता में यह ज्ञान दशा नहीं, फलतः दुनिया के प्रभाव में वह भी अधीर बन कर कुएँ में गिरता है!
दूसरा कारण, इसमें विवेक नहीं, कैसे भला? इसीलिए कि विवेक सामान्यतः सहजरुप से तो अति अल्प व्यक्तियों को ही उत्पन्न होता है।
अन्यथा, सत्समागम से ही विवेक आता है।
संत पुरुषों का बार बार समागम करे, और उनकी उपदेश -वाणी बार बार ग्रहण करे तब जीवन के अन्तश्चक्षु खुलते हैं, वह विचार करने लगता है और विवेकशक्ति प्रकट करता है । सार-असार, कर्तव्य-अकर्तव्य, वाच्य-अवाच्य, भक्ष्य-अभक्ष्य आदि को अलग कर, अन्तर समझे और असारादि को त्याज्य मान कर यथाशक्ति उनका त्याग भी कर के सार, कर्तव्य आदि को अपनाए -इसका नाम है विवेक शक्ति प्रकट होना । ऐसा विवेक अर्थात् पृथक्करण कि 'सार क्या है ? असार क्या है ? कर्तव्य क्या है ? अकर्तव्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org