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________________ क्या है ? वगैरह उस संत की वाणी से जानने मिलता है। मानभट क्यों भूला? मानभट ऐसा कर के ही ऊपर उठने वाला है, लेकिन अब तक तो अविवेक में डूबता रहा है, सो अभिमान रहे इसमें आश्चर्य क्या? अरे! ऐसा घातक-पापी-अभिमान के सगे माता-पिता-पत्नी को इस तरह मरने दे ? हाँ । क्रोध, मान आदि कषाय तो भयंकर कोटि का अंधापन है। कषाय को सिर चढाया सो अन्धापन ही चढाया । अब यह अंधा बनकर ही काम करेगा। अजयपाल का अभिमान : देखिये, राजा कुमारपाल ने तो जगह जगह सुन्दर जिनमंदिर निर्माण किये; किन्तु उनके अनुगामी राजा अजयपाल ने तो अभिमान में अंधा होकर उनसे भी सुन्दर नये बनाने के बदले उन्हें तोडने का ही धंधा शुरु किया, कितने ही मंदिर तुडवा दिये । भवैये का तमाचा पर, अब तारंगाजी का मंदिर तोडने जानेवाला था, उतने में नट ने उसे मार्मिक शब्दों का ऐसा थप्पड मारा कि इससे अब मंदिर तोडने से रुका। बात यों हुई कि पाटण के नगरसेठ ने भवैये को तैयार किया, और भवैये ने राजा अजयपाल से चालाकी से अपने लिए अभयदान लिखावा लिया और उसके बाद नाटक देखने बुलाया । नाटक में भवैया मृत्युशैया पर पड़ा और उसके बाद नाटक देखने बुलाया। नाटक में भवैया मृत्युशैया पर पड़ा हुआ चारों पुत्रो से कहता है, 'यह मेरे घर के अन्दर का देवमंदिर, इसका पूजा-पाठआरती-सब अच्छी तरह सम्हालना । तीनों ने ता मान्य कर लिया, लेकिन सबसे छोटा लड़का बूढ़े के बार बार कहने के बावजूद नहीं मानता, और ऊपर से सोटा लेकर छोटे से मंदिर को तोड़ डालता है। उसी समय बूढा बाप झुंझला कर उससे कहता है - भव्य उपदेश : 'हे नालायक! यह तूने क्या किया? मंदिर को पूजना-मानना या मंदिर बनवानां तो दूर रहा, बल्कि मेरी मौजूदगी में ही तू मंदिर तोड डालता है ? मूर्ख ! तुझ से तो राजा अजयपाल अच्छा जिसने कुमारपाल के जीते जी एक भी मंदिर नहीं तोडा, लेकिन उसके मरने के बाद तोड़ता है। जब कि तू बडा नालायक है कि मेरे जीते जी ही मेरा मंदिर तोड़ रहा है ? बेवकूफ ! तुझ में इतनी हिम्मत तो नहीं कि 'नया मंदिर खड़ा करूँ', और किसी के शुभ कार्य का ध्वंस करने की पिशाची लीला और कायरता ही तुझे आती है ? कौन सी नरक के मेहमान बनने की सोची है? संसार में मनुष्यों के चार प्रकार हैं : (१) एक उत्तम, . जो अच्छे काम करते हैं (२) दूसरा मध्यम, जो खुद करने में असमर्थ होते हुए भी अच्छे काम की भरपूर प्रशंसा करता है। (३) तीसरा अधम-जिसे न तो अच्छे काम करने हैं, न अच्छे कामों की कद्र करता है। (४) चौथा अधमाधम तो आगे बढ़ कर दूसरों के भले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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