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________________ कामों को तोड़ने में ही लगा होता है, तू किस कोटि का है ? सो विचार कर । तेरा यह अभिमान परलोक में तेरी रक्षा नहीं करेगा, और यहाँ भी सज्जनों की दुनिया में यश नहीं दिलाएगा । फिर भी ऐसा पवित्र मंदिर तोडने की प्रवृत्ति करता है जो नरक में घसीट ले. जाएगी। यहाँ जी कर आखिर तू कितना जियेगा? बाद का क्या? अजयपाल लौट जाता है : राजा अजयपाल यह सुनकर तिलमिला उठा । भवैये को चाहे जैसा नाटक दिखाने की छूट और उसमें चाहे कुछ भी आए उसकी आजादी दी हुई है यह उसके ध्यान में है। अतः यहाँ क्रुद्ध होने के बदले अपनी अधमता देखता है; और वही खड़ा हो कर भवैये से कहता है शाबाश! शाबाश है तुझे ! आज तूने मेरी आँखें खोल दीं। तूने मेरे अभिमान को,गला दिया है। मैं आज से प्रतिज्ञा करता हूँ कि राजा कुमारपाल का कोई भी मंदिर वगैरह नहीं तोडूंगा।" कषाय अविवेक आदि के अंधापे पर पिता-पुत्र : बस, यहाँ से राजा अधम कृत्य से अटक गया। परन्तु ऐसा कब हुआ? भवैये की चपत पड़ी और गर्व गला तब । गर्व कब गला? कुछ तात्त्विक वाणी सुनने मिली तब । तब तक तो अभिमान के अन्धपन में राजा कुमारपाल के सुन्दर कलामय, अति पवित्र जिन-मंदिरों को तोड़ने के पीछे पागल हो रहा था। इस तरह मानभट ने भी अभिमान के अन्धत्व में अपनी पत्नी और माता-पिता को कुएँ में गिरते देखा फिर भी नहीं रोका। जब कि उसके पिता वीरभट में अविवेक का अंधापन ऐसा था कि उसने अपने शेष बहुमूल्य जीवन का, उसमें साधी जा सके ऐसी प्रभुभजन, परोपकार आदि साधनाओं का मूल्य नहीं पहचाना, और जीवन भर के दुःख-संताप से घबरा कर कुएँ में छलाँग लगा दी। इसलिए - कहना रहा अविवेक, कषाय, तथा मिथ्या मान्यता आदि का अन्धापन बहुत बुरा कि जो इससे उत्पन्न होने वाले अनेक जन्मों के सत्यानाश को देखने नहीं देता। आभ्यंतर संयोगो में 'अनित्यता' की भावना : मानभट तब तक तो देखता रहा जब तक तीनों कुएँ में गिर पड़े; वह अभिमानरुपी महाराक्षस के बस में था। अतः रोकने की कोशिश नहीं की। परन्तु अब तीनों निर्दोष और प्रेमीजनों की दारुण मृत्यु हो गयी उस पर विचार करते हुए कायम नहीं रख सका। अनित्यता की भावना के चिन्तन में शास्त्र कहते हैं कि अनित्यता बाह्य एवं अभ्यन्तर दोनों प्रकार की परिस्थितियों की सोचनी चाहिए। जिस तरह बाहर के कंचन-कुटुम्ब-कीर्ति आदि के संयोग अनित्य हैं, नश्वर हैं, सदा के लिए टिकनेवाले नहीं है, उसी तरह, आभ्यन्तर मलिन भावनाओं के संयोग भी विनश्वर हैं।' मनुष्य एक बार कितने ही क्रोध में भर जाय परन्तु वह क्रोध ज्यों का त्यों कायम ही नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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