SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रहता । क्रोध में से अभिमान में, अभिमान में से लोभ में या शोक में उतर जाता है । क्रोध-‍ -मान को रोकने के लिए क्या विचार करना ? : इसीलिए बुद्धिमान मनुष्य यह सोचता है कि 'यदि मैं क्रोध या अभिमान को कायम रख ही नहीं सकता तो ऐसे क्रोध या अभिमान करने की मुझे क्या आवश्यकता है ? प्र०. - क्षण भर के लिए ही करना है, ऐसा मानकर करे तो ? उ०- वह भी किस लिए ? जिस लाभ हेतु कषाय किया जाय वह लाभ भी अनित्य है । वह लाभ भी कोई कायम नहीं रहेगा।' तो क्षणिक लाभ के लिए कषाय करना ही क्यों ! क्षणभर के लिए भी आत्मा को काली करने की क्या आवश्यकता ? यह विचार इसलिए है कि आत्मा हमारी अविनाशी है; शाश्वत - सनातन काल रहनेवाली है । वह अनित्य संयोगों पर क्यों आस्था रख कर उनकी शरण ले ? रेलगाडी के सफर में एक डिब्बे में मिले हुए लोग अच्छा बोलने वाले, अच्छी बातें करनेवाले, और चाय भी पिलानेवाले हों, तो भी लंबे सफरवाला उस पर कोई आस्था नहीं रखता, या वह बीच के स्टेशन पर उतरे तो उसके साथ उतर नहीं जाता। यह तो समझा ही हुआ है कि इस प्रवासी का संयोग कामचलाऊ; अतः वह आए जाए उससे कोई खुश - नाखुश नहीं होना ।' बस, इसी तरह बाहरी एवं भीतरी संयोग भी कामचलाऊ हैं तो उनके गमनागमन पर कुछ भी नाखुश-या-खुश होने की जरुरत नहीं। 'अरे ! बाह्य संयोग कर्माधीन हैं, किन्तु आभ्यन्तर संयोग तो मैं पैदा करूँ तभी हो सकते हैं । तो मन को जहरीले साँप की तरह डँसनेवाले ऐसे कषायों के या मलिन भावनाओं के चंचल जहरीले सापोलियें पैदा ही क्यों करूँ ? क्षणभर भी इनसे हृदय को क्यों काला करूँ ? यह विचार सदा जाग्रत रहे तो बहुत सुरक्षा मिले, कितनी ही आन्तरिक मलिन भावनाओं - वृत्तियों की उत्पत्ति ही रुक जाए । धन की तरह धन का मोह अनित्य : धन के संयोग को तो अनित्यरुप देखना ही, बल्कि उसके प्रति मोह के आन्तरिक संयोग को भी अनित्य ही देखना, और यह देख कर ऐसे सोचना कि 'ऐसा अनित्य मोह करने की मुझे क्या आवश्यकता ? ठीक है इन्हें कामचलाऊ निभाना जरुरी है तो निभा लेता हूँ यह जान-समझ कर कि ये नाशवंत हैं, इनका मोह भी नाशवंत है । जरा-सी परिस्थिति बदलने पर, जैसे कि जिस धन पर मोह किया था उसी धन के कारण कोई गुप्त धमकीपत्र आया, अथवा परिवार में कोई भारी संघर्ष पैदा हुआ अथवा सरकारी परेशानी आ पड़ी, आदि आदि तो फिर उसी धन से मोह होने के बदले तिरस्कार होने लगता है अत: पहले से ही मोह नहीं करना । मानभट में यह विवेक ही कहाँ था कि 'अभी जिस अभिमान में अक्कड़ बन रहा ६१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy