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समझकर दिल में उतारा होता, तो मोह का उदय कहाँ से होता ? जीवन में झाँकने पर दिखेगा कि,
(१) कई प्रसंगों पर मोह व क्रोधादि कषाय का उदय होता है, वह असत् निमित्त का स्वागत करने से होता है ।
(१) राह चलती स्त्री के अंग पर नजर डाली तो मरे ही समझो, अन्तर में राग का विकार जागा ही समझो। (२) ऐसी कथा, उपन्यास या समाचार पढ़ने गये, तो राग मोहनीय उदय में आया ही समझो। (३) अखबार में कुछ ऐसा-वैसा पढ़ा, तो अपना अनचाहा करनेवाले के प्रति द्वेष जगा ही समझो। (४) किसीने हमारा अपमान किया, इसे यदि मन पर लिया, महत्त्व दिया, तो मन में अभिमान आया ही समझो। (५) दीवाली का बाजार या ऐसा ही कोई बाजार सिर्फ देखने गये, कुछ खरीदने की इच्छा न थी, फिर भी देखा न ? तो बस, किसी न किसी चीज का लोभ जगा ही समझो। पैसों को बहुत माना, तो धर्म को भूले ही समझो।
इसका अर्थ क्या ? जीने से देखना भला नहीं, परन्तु देखा व रोये ।
नहीं देखा, नहीं सुना, मन में विचार नहीं किया वहाँ तक सुखी ! बाकी ऐसे श्रवण, दर्शन या स्मरण के असत् निमित्त का सेवन किया, तो अन्तर में चोर जागेंगे ही, मोह व कषाय के उदय जागेंगे ही। इसलिये यह महान चाबी है कि,
यदि मोह व कषाय को जागने न देना हो, तो असत् दर्शन, श्रवण या स्मरण न करो । असत् निमित्तों का सेवन न करो। ऐसा निमित्त आने पर उसे तनिक भी महत्त्व न दो ।
उस कन्या ने खराब निमित्त का सेवन किया है, राजकुमार को खुशी से देखा है, फिर भला मोह का उदय क्यों नहीं जगेगा ? हाँ, कुलीनता के कारण शील की महत्ता समझती है, इसीलिये जब वह कहती है कि 'शील के बिना क्या जीना व तुम्हारे बिना भी क्या जीना ? इसी भ्रमणा में मन झोले खा रहा है,' तब राजकुमार क्या प्रत्युत्तर देता है, वह देखें
राजकुमार की उत्तमता :
राजकुमार कहता है, 'सुंदरी ! यदि ऐसा ही है, तू शीलवती है, तुझे शील भंग के प्रति नफरत है, तो तू आराम से रह ! तेरे शील की रक्षा कर, मैं जाता हूँ।'
इतना कहकर राजकुमार उठा ! राजकुमार भी कुलीन है, दूसरे के पवित्र विचारों की कद्र करनेवाला है, इसीलिये ऐसा नहीं करता कि 'चाहे इस कन्या को शील की इच्छा हो, परन्तु मेरे प्रति आकर्षण भी तो है न ? इसे कुछ और तडपने दुं, जिससे पिघल जायेगी ।' कुलकी व शील की कद्र है, इसलिये चाहे स्वयं बुरे इरादे से आया है, फिर भी कहता है, 'बैठ, तू आराम से शील का पालन कर । मैं जाता हूँ ।'
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