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आज तो ऐसा जमाना आ गया है कि सुशील कन्याओं व स्त्रियों को बहलाफुसलाकर शीलभंग के मार्ग में खींचा जाता है।
राजकुमार जाने लगता है कि कन्या उसे पकड़कर कहती है, 'मेरे हृदय के चोर! मेरा दिल चुराकर कहां चले ? मेरी बात तो सुनो।' कन्या अपनी कथा सुनाने लगी।
'मैं इस नगर के नंद सेठ व रत्नवती की पुत्री सुवर्णदेवी हूं। एक श्रेष्ठिपुत्र हरिदत्त के साथ मेरी शादी हुई। मेरा पति व्यवसाय हेतु लंकापुरी गया। उसे जाकर आज १२ साल हो गये, परन्तु कोई समाचार नहीं। यह जवानी महासागर जैसी है, इसमें सैकड़ों कुविकल्पों की लहरें उछलती हैं,- विषय रुपी मछलियाँ कूदती हैं, इन्द्रिय रुपी बड़े मगरमच्छ हैं, कामवासना के आवर्गों से जिसे पार करना मुश्किल है, ऐसे जवानी के महासागर में मेरा ज्ञान नष्ट हो गया, वडिलों का विनय चला गया, विवेकरत्न चोरी हो गया, गुरुवचन विस्मरण हो गया, धर्म का आदेश भूल गयी। अधिक तो क्या कहुँ ? कुल का गौरव, लज्जा, दाक्षिण्य, शील... सब कुछ मैं खो बैठी। कामदेव अब राजा बन बैठा।
वासना के जोर में विवेक नष्ट :
कामवासना को निरंकुश रखने से कैसी दशा होती है, यह यहाँ देखा जा सकता है। सुवर्णदेवी स्वयं ही कहती है कि पति के विरह में बारह बरस बीतने पर वासना के जोर से ज्ञान नष्ट हो गया, विवेक चला गया, धर्म का आदेश विस्मृत हो गया।' स्त्री सुशील व सुसंस्कारी है, इसीलिये उसे स्वयं का इतना भान होता है कि
वासना के जोर में ज्ञान, विवेक, धर्म की मर्यादायें भुला दी जाती हैं।
अब सवाल यह उठता है कि इतना भान है, तो वह विवेक को क्यों खो बैठी? इसका जवाब यह है कि उसने स्वयं ही वासना को पुष्ट किया है, इसीलिये विवेक नहीं टिकता।
जीवन की कीमत वासनातृप्ति के मूल्य से करने पर जीवन में इसीका लक्ष्य प्रधान बन जाता है।
चाहे वासना को संतुष्ट करने की सुविधा हो, परन्तु यह आर्य मानवदेह इस काम में नष्ट करने के लिये नहीं है।
काम से विडंबना पाने की काया तो देवभव में, पशु अवतार में व अनार्य मानवजीवनों में भी बहुत मिली, वहाँ भी यही काम व यहाँ सुन्दर मानवभव में भी यही काम करना हो, तो इस विडंबना से रहित काया कहाँ मिलेगी?
इन्सान ऐसा सोचता है कि
प्र. - काया योग्य उम्र में आने के बाद उसे काम का भाव जगेगा ही न? यह तो सहज भाव है। इस भाव का पोषण करने में अनुचित क्या है ? सारी दुनिया यह करती ही है।
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