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ने? खराब मन भी स्वयं ही बनाता है, क्या इसमें जीव का दोष नहीं? यह कैसा अज्ञान?
यदि भाग्य ही सब कुछ करे, तो उद्यम की आवश्यकता ही न रहे :
'हे नरोत्तम । यदि भाग्य खराब कराने के लिए आता हो, इसलिये भाग्य का दोष मानें, तो जीव को कभी भी अच्छा बनने की स्वतंत्रता ही नहीं रहेगी। इसके लिये उसे कुछ भी उद्यम करने का अधिकार ही न रहेगा। सब कुछ भाग्याधीन ही हो, तो फिर जीव को इसके लिए कुछ उद्यम करने का अधिकार ही न रहे ! सब कुछ भाग्याधीन हो, तो फिर जीव को कुछ करने की जरुरत ही क्या ? जीव को अच्छा करने के लिये ज्ञानियों का उपदेश व मार्गदर्शन भी व्यर्थ व निरुपयोगी ठहरेगा । वास्तव में देखा जाय, तो भाग्य तो सिर्फ संयोग उपस्थित करता है, परन्तु बाद में अज्ञानदशा से बुद्धि बिगाड़कर असत् पुरुषार्थ करना या ज्ञानी के वचनानुसार सत् पुरुषार्थ करना, इसमें जीव स्वतंत्र है और यह करने पर ही अवनति या उन्नति निर्भर है। वहाँ भाग्य को ही दोष देते रहना, यह अज्ञानदशा
'तो हे नरपति ! ज्ञानियों के वचन की विशेषता है। उद्धार व उन्नति का मार्ग वे ही बताते हैं । इससे छोटे-से भी जीवहिंसादि पाप चालु रखकर स्वमति से भिक्षा के लिये भटकना, तीर्थ यात्रा करना व अन्त में भूखे मर जाना, यह भी अज्ञानदशां है।'
मायादित्य खड़ा होकर आचार्यदेव के चरणों में गिरकर कहता है - 'प्रभु । आपके सिवाय कौन मेरा जीवन अन्तर के भावों सहित जान सकता है ?
प्रभु ! दया करके अब मुझे प्रायश्चित्त दीजिये।'
आचार्यदेव कहते हैं - 'हे भाग्यवान ! पाप से उद्धार का सही उपाय सर्वज्ञ भगवान श्री जिनेश्वर देव की आज्ञा में है, आज्ञा का पालन करने से ही उद्धार होता है। सर्वज्ञ संपूर्ण ज्ञानी हैं, इसीलिये उद्धार का सच्चा उपाय वे जानते हैं व कहते हैं। इसीलिये, सर्व आपत्ति में जिनाज्ञा ही शरण:
जे पिययं-गुरु-विरह-जलण-पज्जलिय-ताव-तवियंगा। कत्तो ताणं ताणं , मोत्तुं आणं जिणिदाणं ॥ जे जम्म-जरा मरणोह-दुक्खसय-भीसणे जण जीवा । कत्तो ताणं ताणं, मोत्तुं आणं जिणिदाणं ॥ संसारम्मि असारे, दुहसय-संवाह-वाहिया जे य । (मोत्तुं ताणं ताणं, मोत्तुं वयणं जिणिदाणं ॥ अर्थात्
(१) अत्यन्त प्रियजन के वियोग-अग्नि के सुलगते हुए ताप से जो तपे हुए अंगवाले हों, उन्हें जिनेश्वर देव की आज्ञा छोड़कर दूसरा रक्षण-शरण कहाँ से हो?
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