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________________ (मन का दोष : एक आगेवान कहता है - 'यह सब कुछ तूने जो किया, वह बिगड़े हुए मन का ही कार्य है। इसमें तेरा कोई दोष नहीं। अब तुझे पछतावा भी हो रहा है, अत: मन शुद्ध हो गया है। अब मन का दोष भी निकल गया है।' भाग्य का दोष : दूसरा कहता है - 'अरे भाई। मन भी इस तरह कब बिगड़ता है? भाग्य रुठ गया हो तो! इसीलिए दोष तो दुर्भाग्य का है। यह उसीका काम है। अतः तेरा कोई दोष नहीं । तू क्यों जलकर मरना चाहता है ? और अब तो द्रोहबुद्धि भी गयी। इससे सूचित होता है कि तेरा सद्भाग्य जगा है, जिससे दुर्भाग्य गया!' जीव का दोष :- गांव का विशेष वृद्ध आगेवान कहता है, 'देखो, इस तरह मन या दुर्भाग्य का ही दोष हो, तो कोई भी जीव पापी नहीं कहा जा सकता। फिर वह चाहे जितने पाप क्यों न करे? फिर तो हर किसीको चाहे जैसे पाप करने की छूट मिल जाती है। इसीलिये वास्तव में तो जीव ही पापी बनता है। यह जीव का ही दोष है, अत: उसे प्रायश्चित करना ही चाहिये। तभी उसके पाप धुल सकते हैं। मायादित्य ने मित्र-द्रोह का, मित्र को मारने के प्रयत्न करने तक का घोर पाप किया है, तो अब इसे सर्वस्व त्यागकर संन्यासी बनकर भिक्षा पर गुजारा करते हुए, सर्व तीर्थों में भटकना चाहिये और अन्त में गंगाजी पहुंचकर वहाँ आजीवन अनशन स्वीकार लेना चाहिये । सुवर्ण तपती हुई आग में शुद्ध होता है, इसी प्रकार पापी जीव भी अग्नि जैसे कठोर व्रत से निर्मल बनता है। मायादित्य सन्यासी बनता है : सबके दिल में यह बात बराबर जंच गयी। सबने यही मार्ग निश्चित किया, इसीलिये मायादित्य ने भी यही पसंद किया । स्थाणु की इज़ाजत मांगी। हमेशा से सज्जन दिलवाले स्थाणु को बहुत दुःख हुआ, परन्तु मित्र का भला होता हो, तो उसमें बाधा न पहुंचाना, इस आशय से रोते हुए उसे बिदा किया। मायादित्य कापालिक-संन्यासी का वेश धारण कर वहाँ से निकल पड़ा। वह घूमते-घूमते यहाँ आ पहुंचा, वह यहाँ बैठा है। अज्ञानदशा भयंकर है : धर्मनन्दन आचार्य महाराज पुरन्दर राजा को समझा रहे थे कि माया के साथ अज्ञानदशा किस प्रकार संसार-भ्रमण का कारण है ! उसीके अन्तर्गत मायादित्य का द्रष्टान्त बताकर कहा, 'देखो, अज्ञान दशा कैसी काम करती है कि माया को भयंकर पाप समझने के बाद भी अब पापों से आत्मा का किस प्रकार उद्धार किया जाय, इसका ज्ञान नहीं, इसीलिये अज्ञानियों के बताये हुए उपाय में अमूल्य जीवन नष्ट होता है और पापों का ढेर पडा रहता है। आचार्य महाराज समझाते हैं :'हे राजन् । क्या मन का दोष जीव का दोष नहीं ? मन जीव ने ही बनाया है या किसी और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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