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________________ दिखने की इच्छा... इन सबसे अभी भी कहाँ पीछे हटे हैं ? फिर भी क्या ऐसा लगता है कि जिंदा हूं, तो पापों का नाश कर दूं? अभी तो जल्दी लगती है न? अभी तो बहुत जीना बाकी है, पहले पाप-भरा जीवन जी लं, बाद में पापों को खत्म कर दूंगा।' यही धारणा रखी है न? लगता है, आप भटक गये हैं ? पापनाश व सुकृत को मुलतवी रखनेवाले दो बातें भूलते हैं :- (१) एक तो यह कि आयुष्य का भरोसा नहीं और (२) दूसरी बात यह कि पापों का प्रमाण व कुसंस्कारों का प्रमाण इतना ज्यादा है कि उनको निकालने के लिए तथा सुकृतों के भारी संचय के लिये दीर्घकाल की साधना चाहिये। __ आज तक किए हुए क्रोध के पाप, अभिमान के पाप, माया के पाप, लोभ के पाप, ईर्ष्या के पाप, निंदा के पाप कितने सारे लगे हुए हैं ? क्या वे सब एक पल में धोये जा सकेंगे? इसी प्रकार आरंभ-समारंभ, खान-पान, विषय, संपत्ति-स्त्री-सत्ता के पाप कितने? क्या वे सब क्षण भर में धोये जा सकेंगे? या उन्हें धोने के लिये दीर्घकाल की साधना चाहिए? अथवा दीर्घ काल तक काया, इन्द्रियों व मन को कसना पड़ेगा? । क्रोधादि के एकदम जगे हुए संस्कारों के ढेर क्या जिंदगी के अन्त में अल्प काल में मिटाये जा सकेंगे? क्या सिर्फ यहाँ पर ही सेवन किये गये क्रोधादि के संस्कार पड़े हैं ? या अनंत-अनंत काल के भी संस्कार चले आ रहे हैं ? तो उन्हें मिटाने के लिये कितनी लंबी संयम-क्षमादि गुणों की साधना चाहिए? हमारा कौन-सा सुकृत जोरदार? क्या कोई एक भी सुकृत इतना जोरदार करने का हमारा सामर्थ्य है कि आखरी समय में थोड़े सुकृत करके भी भारी पुण्य कमा सकें ? थोड़े भी ऐसे ठोस सुकृत्य करने की शक्ति ही कहाँ है कि थोड़ा भी ठोस पुण्य उपार्जन किया जा सके व परभव में इसका ठोस परिणाम मिले? हमारी शक्ति के अनुसार दीर्घ काल के सुकृत इकट्ठे हों, उनसे ही परभव में कुछ अच्छा मिलने की आशा रखी जा सकती है। . . ___ 'इस प्रकार, पापनाश, कुसंस्कारनाश व पुण्यसंचय के लिए दीर्घ काल की साधना चाहिये, वह करने का मौका यहाँ जब तक जीवित है, तब तक है। इसीलिये इस मौके का फायदा उठा लुं।' भयंकर पाप होने से आत्महत्या करने के लिये तत्पर बने हुए को हितैषी की ऐसी सलाह लगती है, तो क्या हमें नहीं लगती? मायादित्य गांव के अग्रणियों की सलाह लेता है : स्थाणु ने यह सूझ दी, इसलिये मायादित्य गांव के आगेवानों को एकत्र करता है। उनसे कहता है, 'देखिये, मैंने इस प्रकार मित्र का भयंकर द्रोह किया है, इसीलिये मैं सुलगती हुई चिता में जलकर मरना चाहता हूँ। परन्तु यह मेरा चन्द्र जैसे उज्ज्वल दिलवाला मित्र मुझे रोक रहा है। मैं क्या करूं? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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