SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 129
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्त लाने का विचार त्यागकर जो सीधा जीवन चल रहा है, उसीमें पापों का अन्त करने लग।' तब मायादित्य पूछता है कि 'फिर भी पाप तो इतने भयंकर हैं। वे किस तरह धोये जाये?' स्थाणु ने कहा - 'इसमें कौन-सी बड़ी बात है। चल, हम गांव के किसी समझदार सज्जन अथवा कोई साधुसंत मिले, तो उन्हें पूछ लें कि ऐसे-ऐसे पाप धोने के लिए क्या करना चाहिये?' यह बात मायादित्य के गले उतर गयी । उसे लगा कि स्थाणु की दोनों बातें सही हैं। पापों का नाश करने के लिये और ऊंचे सुकृत करने के लिए उत्तम भव तो सिर्फ एक मनुष्य का ही है। इस भव में ये काम किए बिना जीवन का अन्त लाना तो मूर्खता है। जब यहाँ पाप की भयंकरता समझ में आ ही गयी है, उनके प्रति तिरस्कार जगा ही है, पाप से पीछे हटने का अवसर मिला ही है, तो अब पूर्व के पापों का नाश करने के लिये पुरुषार्थ ही करना चाहिये । पूर्व के पापों का नाश किए बिना जीवन का नाश करना मूर्खता है, इससे वास्तव में पापनाश का अवसर हम खो बैठते हैं। ऐसे अवसर को क्यों व्यर्थ जाने दिया जाय? आत्महत्या करने से तो सुन्दर अवसर का नाश होता है। आत्महत्या करने से दोनों अवसर हाथ में से जाते हैं - पापों का नाश करने का व सुन्दर सुकृत साधने का। हमें जीवन की कितनी कीमत है ? जिसके जीवन में कोई भयंकर पाप हो रहा हो, उसके मन को ही यह बात लगती है, हमें लगती है ? क्या कभी हमें जीवन की कीमत के बारे में यह विचार आता है कि 'यह उत्तम जीवन असंख्य जन्मों के पापों के नाश के लिये है ? और उत्तमोत्तम सुकृत करने के लिए है ?' यदि ऐसा लगे, तो उसका पुरुषार्थ जोरदार चले? और नये पाप कितने रुक जायें? प्रत्येक पल यह नजर के सामने रहना चाहिये कि 'मैं जी रहा हूं, यह पापक्षय व सुकृतों का अवसर चल रहा है।' जीवन में बाहर दिखनेवाला ऐसा कोई भयंकर पाप नहीं हुआ है ! न जाने क्यों एक त्रुटि रह गयी है, जो एक विचार ही नहीं आने देती कि 'पापों के नाश के लिए व सुकृतों के संचय के लिए ही यह भव है, इसीलिए यही श्रेष्ठ है ! इसमें कुछ साधना कर लुं। जीवन में पाप कितने ? जीवन में कितने पाप हुए हैं, गिनिये तो सही ! जीवन में कदम-कदम पर राग-द्वेष के पाप और उनके पीछे दूसरे पाप क्या कम हुए हैं ? पापों में धन की लालसा व ममता के पाप, व्यवसाय के लिए किए गए पाप, झूठ-कपट, विषयों की आसक्ति, पत्नी-पुत्र का मोह, षट्काय जीवों के संहारमय आरंभ-समारंभ, नाम की भूख, मान की भूख, अच्छे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy