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________________ पछतावा होता व वह उनके पास जाकर माफी मांगता । तब वे इतना ही कहते, 'भाई ! कषाय न करो । कषाय से आत्मा का बिगडता है।' खुद के ३०० ही साधु उनके प्रति खूब सद्भाव रखते और उनके बिदा होने पर अश्रू बहाने लगे, वे आज भी उनके विरह में दुःख महसूस करते हैं कि 'हमारे तारणहार गये, हमने अपना महान आलंबन खो दिया।' हमारी तुच्छ बुद्धि से हम सामनेवाले हमें दबाये, यह सहन करने के लिए तैयार नहीं होते । परन्तु आज के काल की ऐसी महान विभूतियों के आलंबन लेने जैसे हैं। पूर्व के महापुरुषों के द्रष्टान्त आने पर हम तुरन्त कहने लगते हैं - 'ये तो चौथे आरे की बातें हैं। आज तो घोर कलियुग है। इसमें इस तरह दूसरों से दब जाने से काम नहीं चलता।' परन्तु ऐसे द्रष्टान्त इस विषम कलियुग में ही मिलते हैं, तो उनका आलंबन क्यों न लें 2 । स्थाणु की सलाह :- देख भाई मायादित्य ! यह तेरी उत्तमता है कि तुझे पाप का पश्चाताप होता है। तेरे जैसे उत्तम इन्सान को इस तरह क्यों मरना चाहिये ? देख भाई, जागे तबसे सबेरा । अभी भी जीवन की बाजी हाथ में है, तो सुकृत साधने का महान अवसर हाथ में है। जीवन खोने से तो इस अवसर का काम तमाम हुआ समझ। इसीलिये मेरे भाई! मरने की बात रहने दे और जीवन जीकर उसे महान सुकृतों से सुशोभित कर ले।' मायादित्य कहता है - 'अरे भाई । पाप से पत्थर जैसे मुझमें सुकृतों की योग्यता ही कहां है?' यों ही मर जाने पर अच्छा जन्म मिलता है ? 'अरे भाई । तू इतना तो सोच कि क्या यहाँ पर यों ही मरने के बाद फिर से जन्म नहीं लेना पड़ेगा? क्या वह जन्म इतना ऊंचा मिलेगा कि जिसमें कुछ अच्छा काम किया जा सके ? सुकृत करने के लिये श्रेष्ठ जन्म मनुष्य-जन्म है और यह जन्म वारंवार मिलना अति दुर्लभ है । यहां यह जन्म मिल गया है, तो इसे असमय नाश न करते हुए ऐसे ही जन्म में हो सके, उतने सुकृत कर ले।' क्या पापी सुकृतों के लिए लायक है? तब मायादित्य कहता है, "परन्तु अति भयंकर पापों से भरे हुए ऐसें मुझमें सकत कर सकने की योग्यता ही कहाँ है ? 'सौ चहे मारके बिल्ली हज करने चली' जैसी मेरी हालत होगी।" मायादित्य समझता है कि 'सुकृत करने के लिए एक विशेष प्रकार की योग्यता चाहिये, महापापी जीव तो नालायक बना होता है, उसके कौन-से सुकृत गिने जाते हैं? सौ चूहे मारकर बिल्ली यात्रा करने चली, तो क्या वह सचमुच यात्रिक बन गयी? इसी प्रकार पाप करते वक्त पीछे मुड़कर नहीं देखा और अब चले सुकृत करने ! इसका क्या महत्त्व?' परन्तु स्थाणु कहता है - 'देख भाई मायादित्य ! पहले पाप धो ले। ध्यान रखना कि पाप धोने के लिए भी मानव अवतार ही श्रेष्ठ है। इसीलिये असमय जीवन का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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