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________________ का संचय मात्र है और अन्त में भी असार है, क्योंकि जलकर राख ही होनेवाली है। पशु के मरने के बाद उसके शरीर की चमड़ी तो काम आती है, परन्तु मनुष्य की काया का तो कोई उपयोग नहीं। ऐसी असार काया का मोह क्यों ? इस मोह में ही आत्मा भूला दी जाती है, आत्मा का दीवाला निकलता है । इसीलिये असार काया से दया की कमाई करना महा सारभूत है । क्योंकि दया सामनेवाले जीव को समाधि देकर दुर्गति के पाप से बचाती है और आगे जाकर जीव को महाअहिंसा आदि सारभूत संपत्ति की कमाई करके देती है ।' 1 राजा ने यह सोचा इसीलिये नश्वर, पर व असार देह की परवाह न करके अविनाशी, स्वकीय व सारभूत दया कमाने का काम खुशी से किया। हमें भी नश्वर शरीर हो या लक्ष्मी, संसार - सुख हो या सुविधा... इन्हें खोकर भी अविनाशी सुकृत, सद्गुण कमाने का अवसर मिलता हो, तो इसे हाथों से जाने न देना चाहिये। वहाँ मन को क्यों दुःख लगना चाहिये कि 'अरे अरे ! यह मेरा सुख या मान जायेगा, तो क्या होगा ?" क्षमा के लिए विचार :- उदाहरण के लिये :- किसी प्रसंग में क्षमा करने जायें, क्रोध न करें, तो सामनेवाला हमें दबाता हो या दूसरे हमें कायर - नामर्द कहते हों, तब यही विचार करना चाहिये कि 'सामनेवाले से दबना और दूसरों की दृष्टि में कायर - नामर्द दिखना, यह तो एक नाशवंत वस्तु है । हमारा पुण्य जोरदार हो, तो हमेशा के लिए दबकर नहीं रहना पड़ेगा। शायद इस तरह पुण्य चमकता न हो, तो क्रोध करने पर भी दबकर तो रहना ही होगा । तो फिर क्षमा गंवाकर क्रोध किया, इससे क्या मिला ? वास्तव में देखा जाय, तो दिखता है कि, सहन करने का वर्तमान द्रष्टान्त: सुन्दर भावना : पू. गुरुदेव श्री आचार्य भगवंत विजय प्रेमसूरीश्वरजी महाराज को आप पहचानते हैं न ? उन्होंने अपने जीवन में सहने का मुद्रालेख रखा था। किस विचारधारा पर ? यही कि सहने से आभ्यन्तर में अच्छी कमाई होती है। दर्द सहे, कष्ट सहे, प्रतिकूलतायें सहीं । बहुत कुछ सहन किया, कभी कोई नादान जीव आवेश में आकर नादानी से उन पर गुस्सा करता, तो भी वे शान्ति से सब कुछ बर्दास्त कर लेते। किस विचारधारा पर सहन किया जाय ? सहन करते वक्त यह विचार रखना कि मेरे सर पर कर्मों का व कषायों का बहुत दबाव है, वह भी अनन्त काल से चला आ रहा है, तो अब उसे बढ़ाया क्यों जाय ? उसे ही दबाया जाय । सामने वाला जीव बेचारा कर्मवश है। 'सव्वे जीवा कम्मवस चउदह राज भमंत' ऐसी दया का विचार करूं । प्रभु का शासन मिलने से सुन्दर समझ व अवसर मिला है, तो क्षमा, साधु- वात्सल्य, सर्वजीव स्नेह रूपी मैत्रीभाव व करुणा रखकर इन कर्मों व कषायों का जोर कम करूं, जिससे क्रमशः उनके दबाव का हमेशा के लिये अन्त आ जाय । पूज्यश्री ने यही पद्धति अपनायी थी, इसीलिये आवेशवाले जीव को पीछे से १२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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