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________________ यहाँ यह देखना है कि अपने शरीर में से मांस के टुकड़े काट-काटकर डालने की कैसे हिम्मत हुई होगी ? कैसी विचारधारा पर खुशी-खुशी घोर पीड़ा स्वयं ने ही पैदा करके सहर्ष कैसे सही होगी? देखिये, सामने तो एक बाज पक्षी यानी पक्षी ही है न ? क्या उसे दुत्कारा नहीं जा सकता कि 'चल, चल, तू तो दूसरे निर्दोष जीवों की हिंसा करनेवाला पक्षी ठहरा ! क्या मैं तुझे मेरे पास आये हुए कबूतर की हिंसा करने दूं ? चल हट यहां से ।' ऐसा कहकर उसे क्यों न दुत्कारा ? अथवा आप कहेंगे कि “पक्षी होने पर भी मनुष्य की भाषा में बोलता है, इसलिए लगा हो कि 'वास्तव में यह कोई पक्षी न हो, परन्तु कोई देवमाया या योगि- माया हो,' इसीलिए भी न दुत्कारा हो ।" तो शायद दुत्कारे नहीं, परन्तु सीधा इन्कार तो कर सकता है न कि 'यहाँ शरण में आया हुआ कबूतर नहीं मिलेगा। यह थोड़े ही तेरा माल है ?' यहाँ देखने की बात तो यह है कि सिर्फ इन्कार न करके बाजपक्षी को अपने देह के मांस से संतुष्ट किया। दिल की कितनी उदारता ! कैसी न्यायप्रियता ! कबूतर की दया के लिए आत्म भोग देने के पीछे कैसी विचारधारा ? (१) असार को खोने से सार कमाया जा सकता है। यदि नाशवंत, पराये व असार देह से अविनाशी, स्वकीय और महासारभूत दयास्वरुप आत्मसंपत्ति कमाई जा सकती हो, तो उसके जैसी दूसरी धन्य घड़ी कौन-सी ? इसीलिये वह तो कमा ही लेने दो, चाहे इसके लिये शरीर का थोड़ा भाग भी क्यों न देना पड़े? शरीर जाने पर भी दया की आत्मसंपत्ति तो आती है न ? यह तो कोयले गंवाकर हीरे कमाने जैसा है। शरीर तो नाशवंत है, एक दिन अवश्य जाना है, चिता में जलकर राख होना है। जबकि जीव की की हुई दया का संस्कार चिरंजीवी बनकर साथ में आनेवाला है। वह तो बीजरूप बनकर अनन्त दया में परिणाम पायेगा, इससे अविनाशी समृद्धि की कमाई होगी। ( २ ) इसी प्रकार देह तो पर वस्तु है । आत्मा की स्वयं की चीज नहीं। क्योंकि देह तो जड पुद्गल है, जबकि आत्मा तो अरुपी चेतन वस्तु है। जड़ कभी चेतन की वस्तु नहीं बन सकता। जड़ व चेतन के माल-मालिकी भाव कहां से हो ? इसीलिए तो चेतन आत्मा को पाप से पिंड़ बड़े करने के बाद भी वे पिंड खोने पड़ते हैं और फिर से नये की तैयारी करनी पड़ती है। खुद की मालिकी का माल हो, तो खोने की बात कहां ? इसीलिए पिंड़-देह-कलेवर आत्मा की चीज नहीं है, वह तो पर माटी है। दया के लिए पर माटी को जाने देकर भी अपना माल यानी दयागुण पैदा होता हो, तो क्यों न ऐसा किया जाय ? दया तो ऐसा अपना गुण है कि जो आत्मा के साथ मजबूती से लग जाता है, और होशियारी व पुरुषार्थ हो, तो अनन्त दया तक विकसित होता है । (३) 'इसी प्रकार, देह असार है, वर्तमान में भी असार है, क्योंकि मलिन पदार्थों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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