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________________ कभी अंगारों की वर्षा नहीं करता। इसी तरह यह स्थाणु कभी दुर्जनता का व्यवहार नहीं करता । इसने सज्जनता रखने में कोइ हद न रखी, और मैंने दुर्जनता की कोई हद न रखी। अब मेरा क्या होगा? अब मैं जीने के लिए लायक नहीं। इसीलिये अब अग्निस्नान ही करूं।' अब मायादित्य का हृदय-परिवर्तन हो गया। स्थाणु की सतत सज्जनता से उसके हृदय पर बहुत असर पड़ा । सज्जनता, उदारता, गंभीरता, सहिष्णुता आदि गुणों को संभालने के लिए धीरज की आवश्यकता है। कई बार विघ्न या संकट आते दिखायी देते हैं, सामने से दुर्जन व्यवहार आता दिखता है, परन्तु हमें धीरज रखकर ये सज्जनता के गुण नहीं छोड़ने चाहिये । तो आप पूछेगे - प्र. - इससे क्या सामनेवाले का हृदय पलटता ही है? उ. - ऐसा कोई नियम नहीं कि हृदय-परिवर्तन हो ही। शायद न भी हो। फिर भी हम तो लाभ में ही हैं । तुच्छ हिसाब में मत पड़ना कि 'इस तरह करने से तो हम पैसे गंवा बैठेंगे या व्यवहार में दब जायेंगे।' बडा हिसाब तो यह है कि इस प्रकार (१)शायद गंवाना भी पड़े, तो इसका कारण सज्जनता नहीं, वास्तव में हमारे पूर्व कर्म ही हैं। श्रीपाल ने ऐसे कर्म के उदय के वक्त गंवाया, परन्तु कर्म का उदय सुधरने पर उससे भी अधिक प्राप्त किया। कर्म के हिसाब तो चलते ही रहते हैं, परन्तु हमें सज्जनतादि गुण नहीं गंवाने चाहिये, धीरज नहीं खोनी चाहिये। दूसरी बात यह है कि, (२) पैसे या सन्मान व सुविधा गंवाकर भी यदि सज्जनता-उदारतासहिष्णुता आदि गुण कमाये जायें, तो इसके जैसी धन्य घड़ी दूसरी कौन-सी ? यह सूत्र बहुत याद रखने जैसा है, (१) नाशवंत संपत्ति खोकर अविनाशी संपत्ति मिलती हो, (२) मिट्टी की माया जाने देकर आत्मा की समृद्धि आती हो, (३) पर का माल बिककर स्व का महामाल मिलता हो, तो वह अवश्य स्वीकारने जैसा है। शान्तिनाथ प्रभु के जीव मेघरथ या वज्रायुध राजा ने शरण में आये हुए कबूतर की बाज पक्षी से रक्षा की। वह दैवी परीक्षा थी। बाज पक्षी बोला - 'मुझे तो जीवित प्राणी का कटा हआ ताजा मांस चाहिये। राजा ने तराजु मंगवाकर कबूतर के वजन जितना मांस स्वयं के शरीर में से काटकर दिया । वैसे तो कबूतर का वजन कितना? परन्तु यह तो देवमाया है न ? राजा स्वयं के शरीर में से मांस के टुकड़े काट-काटकर दूसरी ओर के पलड़े में रखते ही जाता है, परन्तु कबूतर का पलड़ा नीचे ही रहता है। आखिर में राजा ने अपना सारा शरीर पलड़े में रख दिया और कहा - 'ले, इस पूरे शरीर से तेरा पेट भर, परन्तु कबुतर को मत मारना।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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