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________________ सामनेवाले का चित्त भी निर्मलता से दूर न रहेगा। संभव है कि सामनेवाले को अपना चित्त निर्मल बनाने का अवसर मिले। पार्श्वनाथ प्रभु के अखंड स्नेह को देखकर, उपसर्ग करनेवाले कमठजीव- मेघमाली देव का हृदयपरिवर्तन हुआ और उसमें स्नेह जागृत हुआ । ऐसे निर्मल चित्त के महान लाभ को समझनेवाला सज्जन स्नेह के तार तोड़कर क्यों चित्त बिगाड़ेगा ? इसीलिए कवि कहता है, 'कमल के डंठल को तोड़ने पर भी उसमें से स्निग्ध, सुकोमल तार निकलते ही रहते हैं, इसी प्रकार दुर्जन चाहे सज्जन के दिल को तोडता ही रहे, फिर भी सज्जन के दिल में से स्नेह के तार निकला ही करते हैं, स्नेहतंतु टूट नहीं जाते, स्नेह सूख नहीं जाता। स्थाणु की भी यही स्थिति है । माया को सजा, सज्जनता को सहायता : देखिये तो सही ! लूटेरे तो किसीका छीनते हैं या किसीको स्वेच्छा से राजी-खुशी माल वापिस लौटाते हैं। यहाँ लूटेरों ने मायादित्य से तो छीन लिया और स्थाणु को उसका माल वापिस लौटाया । क्या मायादित्य का मायावी कृत्य उसे लाभदायी सिद्ध हुआ या स्थाणु की सज्जनता उसे लाभदायी सिद्ध हुई ? न जाने कुदरत ने कैसे लूटेरे की दरवलबाजी कराके मायादित्य की माया को सजा देकर स्थाणु की सज्जनता को सहायता दी । यह तो समझ ही रखो कि कुदरत नजदीक या दूर जाकर मायावी को सजा देती है : कुदरत कहो या कर्म कहो, ये किसीको दूर जाकर या किसीको नजदीक में उसकी माया, द्रोह या विश्वासघात की सजा दिए बिना नहीं रहते । अकेली माया ही क्या ? ऐसे दूसरे भी मद, ईर्ष्या, निन्दा, गुणी की अवज्ञा आदि दोष- दुर्गुणों को अपनानेवाले भी सजा पाते ही हैं, फिर चाहे तुरन्त हो या जरा दूर जाकर हो ! महावीर प्रभु को तीसरे मरीचि के भव में किए गये मद की सजा मिली न ? वे ही नहीं बच पाये, तो दूसरों की तो बात ही क्या ? इसीलिये खूब सावधान बनने जैसा है और इस उच्च कक्षा के जीवन के ओहदे पर बैठने के बाद मद, माया, ईर्ष्या, निंदा, अवज्ञा आदि अधमता थोड़ी भी सेवन करने जैसी नहीं । स्थाणु की बेहद सज्जनता का प्रभाव देखिये कि इससे मायादित्य की बाहर की व्याधि तो गयी, परन्तु अब अन्दर की आत्मा की व्याधि भी जाती है । उसके मन में लगा कि मायादित्य को पछतावा : 'अरे! यह क्या ? मैं स्थाणु के साथ कपट कर-करके उसे कष्ट में डालता हूँ । यहाँ तक कि मैंने इसे कुँए में धकेलने जैसा अधम कृत्य किया, फिर भी यह मुझे हर बार बचाता है ! ऊपर से खुद की कमाई का आधा भाग मुझे देने के लिये तैयार है! सचमुच चन्द्र ११९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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