________________
के तार टूटते हैं। इसका कारण यह है कि... . निर्मल दिल में मद-मायादि के मैल नहीं होते, जिससे वस्तुस्थिति को अहंत्व से या टेढ़ी रीति से देखना नहीं होता, परन्तु निरभिमान, सरल या विवेकी रीति से देखा जाता है। इसलिए ऐसा लगता है कि
निर्मल दिल की दृष्टि :
(१) मेरे प्रति सामनेवाले का जो भी वर्ताव दिखायी देता है, वह तो मेरे भाग्य के कारण ही है। इसमें सामनेवाले को दोषित गिनने की या उसके प्रति मन बिगाड़ने की जरुरत नहीं है। दोष कर्म का है और ये कर्म मेरी पूर्व की भूल के कारण ही आये हैं। दोष तो भूल से भरे मेरे स्वयं का है, और किसीका नहीं । ऐसा विचार करने पर सामनेवाले के प्रति स्नेह कभी सूखेगा नहीं। यह है - निर्मल द्रष्टि की चाबी ।
(१) आपत्ति में स्वयं के दुर्भाग्य को ही दोष देना।
(२) अन्दर की सफाई पर द्रष्टि रखकर स्नेह-भंग का कचरा कभी न डालना।
निर्मल दिल कभी भी अपने अन्दर कचरा या भूसा भरना पसंद नहीं करता । स्नेह तोड़कर दिल में वैमनस्य रखना, इसे वह कचरा मानता है और कचरा उसे पसंद है नहीं। फिर भला क्यों उसे अपने में भरे ? बाहर की भी सफाई का आग्रह रखनेवाला आदमी अपने घर या दुकान में भला थोड़ा भी कचरा रहे, यह पसन्द करेगा? गंदगी दिखते ही एक क्षण का भी विलंब किए बिना वह स्वयं ही सफाई करने लगता है या नौकर के पास भी करवाता है। इसी प्रकार अन्दर की सफाई के आग्रहवाले को अन्दर वैर-वैमनस्यविरोध आदि का कचरा सहन ही नहीं होता, तो भला अन्दर कैसे रहने दे? नया कचरा भी अन्दर क्यों घुसने दे ? अन्दर की सफाई की द्रष्टि ही न हो, अन्दर के कचरे की समझ ही न हो, या कचरे को ही सफाई समझता हो, अथवा समझ होने पर भी कचरा खटकता ही न हो, वह भला क्यों अन्दर का कचरा निकालेगा ? या कचरा अन्दर न घुसे, इसकी सावधानी रखेगा? जो इस कचरे से घबराता है, वह तो सामनेवाले को दोष देने के लिए तैयार नहीं होगा, इसीलिये वह उसके प्रति स्नेह नहीं तोड़े, यह स्वाभाविक है।
(३) सामनेवाले के चित्त की निर्मलता का विचार रखना।
(३) निर्मल द्रष्टि में एक विशेषता यह भी है कि वह स्वयं के चित्त की निर्मलता की तरह दूसरे के भी चित्त की निर्मलता चाहती है। इसलिए वह देखती है कि यदि मैं सामनेवाले के प्रति स्नेह तोड़कर दिल में अभाव-दुर्भाव-वैर-विरोध पैदा करूं, तो सहज में ही वह मेरे चेहरे पर, मेरी आंख में और मेरे वर्ताव या बोल में उतर पड़ेगा, वह देख-सुनकर सामनेवाले के दिल में खराब भाव जगेगा या बढ़ेगा। तो वह बेचारा चित्त-निर्मलता से बहुत दूर पड़ जाएगा। इसीलिए मुझे स्नेह रखना चाहिये, जिससे मेरा चित्त भी निर्मल रहे व
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org