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________________ (२) जो अत्यन्त भारी गरीबी से पीडित हों, अर्थात् जिनका सब धन व वैभव नष्ट हो गया हो, उन्हें जिनाज्ञा के सिवाय कहाँ रक्षण-शरण मिले ? (३) दुर्दशा के कीचड़ की शंकावाले तथा किसी कलंकमल या पाप से दुःखी जीवों को..... (४) सर्व जन से निंदित व स्वजन-संबन्धी के तिरस्कार- दुःख से तप्त जीवों को....... (५) अनेकानेक बार जन्म - जरा - मृत्यु के सैकड़ों दुःखों से भयंकर जग में जो जीव पीड़ित हैं, उन्हें..... (६) दहन, दागना, ताडना आदि के महादुःख- समुद्र में जो पड़े हैं, ऐसे जीवों को...... (७) असार संसार में सैंकड़ों दुःख- दुष्कृत्य की पीडा से जो दुःखी हैं, उन्हें भगवान जिनेश्वर देव के वचन सिवाय दूसरा रक्षण-शरण कहां से मिले ? इसीलिये इस वचन की आराधना करके जहाँ जरा नहीं, किसी भी प्रकार का दुःख नहीं, ऐसे शाश्वत शिव - सुख की आत्मस्वस्थतावाले मोक्ष को तू शीघ्रता से प्राप्त कर सकेगा।" तब मायादित्य कहता है - 'प्रभु । तो महापापी हूं। मुझे तो ऐसा लगता है कि जिनवचन मुझ जैसे घोर पापी को किस प्रकार शरण देगा ? किस प्रकार बचायेगा ?' आचार्य महाराज कहते हैं, 'तेली के घर का तेलवाला चिकना, एकदम मैला कपड़ा भी क्षार व पानी से साफ होता है न ? इसी प्रकार जिनवचन चिकने पाप- मैल को धोने का असरकारक उपाय बताता है। जिन पापवृत्तियों व प्रवृत्तियों से जीव एकदम मैला बना, उनसे विपरीत धर्मवृत्ति प्रवृत्तियों से मैला मिटकर वह उजला क्यों नहीं होता ? घास का बडा गंज आग की एक चिनगारी से जलकर साफ हो जाता है, इसी प्रकार पापों का बड़ा ढेर भी जिनवचन के कहे हुए उपाय से जलकर साफ हो जाता है।' मायादित्य कहता है, 'भगवंत । मुझे भी वह उपाय बताईये। यदि मैं उसके लिए योग्य होऊँ, तो मुझे वह देकर कृतार्थ कीजिये, यही मेरी आपसे नम्र विनंती है।' इतना कहकर वह आचार्य महाराज के चरणों में गिरता है। Jain Education International आचार्य महाराज ने उपाय के रुप में सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र तप व क्षमादि धर्म बताये और देखा कि 'मायादित्य के कषाय शान्त पड़े हैं, अब वह उपशम भाव में आया है,' इसलिए उसे साधु दीक्षा दी। माया पर मायादित्य का अधिकार पूर्ण होता है । १२८ - For Private & Personal Use Only - - www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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