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________________ लोभ कषाय (चरित्रनायक कुवलयचन्द्र राजकुमार जंगल में पहुंच गया। वहाँ महर्षि के पास 'स्वयं अश्व के द्वारा आकाश में क्यों ले जाया गया? वह अश्व कौन?'... आदि प्रश्नों का खुलासा पाया, इसमें यह बात आयी कि राजा पुरंदरदत्त को वासव मंत्री जैनधर्म की प्राप्ति कराने के लिये तरकीब आजमाकर उद्यान में धर्मनंदन आचार्य महाराज के पास ले गया और वासवमंत्री द्वारा प्रश्न पूछे जाने पर आचार्य महाराज ने संसार के पांच कारण बतायेक्रोधादि चार कषाय तथा मोह । क्रोध पर चंडरुद्र, मान पर मानभट्ट व माया पर मायादित्य के द्रष्टान्त बताये।) अब लोभ का अधिकार बताते हुए आचार्य महाराज फरमाते हैं कि - लोभ संसार का इतना जबरदस्त कारण है कि (१) ज्यों ही स्वजन-संबंधी में, किसीमें भी लोभ घुसा, त्यों ही वह लोभ अन्य स्नेहीजनों के साथ स्नेह का भेद कराता है, भंग कराता है। (२) लोभ प्रिय मित्र के प्रति मित्रता को तुडवाता है। (३) लोभ के कारण काम बिगड़ता है। (४) लोभ सर्वनाश करता है। आचार्य महाराज द्वारा करायी गयी लोभ की यह पहचान जगत में सर्वत्र अच्छी तरह से द्रष्टिगोचर होती है। (१) लोभ से स्वजनों के स्नेह का भंग पिता-पत्र, दोनों साथ में रहते हों व पुत्र स्वतंत्र व्यवसाय करता हो, उसे यदि लोभ जगे, तो वह मन में सोचता है कि 'मेरी कमाई में से घर-खर्च देकर शेष अलग जमा करूँ । नहीं तो, इसमें से भाईयों के हिस्से में जाएगा।' पिता यदि ज्यादा खर्च करे, तो अच्छा नहीं लगता। पिता के प्रति प्रेम घट जाता है। अथवा पिता को पता चलने पर स्वतंत्र जमावट न करने के लिए दो शब्द कहे, तो अच्छा नहीं लगता। इससे प्रेम कम • हो जाता है। इसी तरह पति-पत्नी में भी एक को लोभ जगने पर गुप्त रुप से जमावट करने पर प्रेम टूटने की नौबत आती है। फिर चाहे पत्नी कपड़े आदि में अधिक खर्च करती हो या खर्च के पैसे लेकर उसमें से बचाव करने के लिए आवश्यकताओं में कटौती करती हो, या पति नये-नये मेहमान लाता हो अथवा फिजूलखर्ची करता हो । यदि पत्नी को लोभ हो, तो पति चाहे जितना क्यों न कमाता हो, पति का खर्च उसे अखरेगा। इससे पंति पर प्रेम थोड़ा-बहुत तो कम होगा ही। इसी प्रकार भाई इकठे रहते हों, उनमें से यदि एक को लोभ जगे, तो दूसरे भाई पर प्रेमभंग हुए बिना नहीं रहेगा। इन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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