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सबका कारण यही है कि लोभ अर्थात् पैसों पर ज्यादा प्रेम, जिससे स्वजनों के प्रति प्रेम घटता है । पैसों का अधिक प्रेम दूसरे प्रेम तोड़ता है।
(२) लोभ मित्रता में भी हानि पहुंचाता है, इसीलिये कहा जाता है कि 'यदि मित्रता बनाये रखनी हो, तो बीच में पैसों का व्यवहार नहीं लाना चाहिये।' परन्तु मित्रता एक ऐसी चीज है, जिससे एक-दूसरे के दाक्षिण्य या शर्म के कारण भी पैसे मांगने पर दिये जाते हैं । बादमें लौटाने में विलंब होने पर देनेवाले के मन में उद्वेग होता है। यदि देनेवाला लोभ न रखे व भेंट दिया है, ऐसा मान ले, तो हर्ज नहीं। परन्तु लोभ किसका छूटता है? शायद एकाध बार भेंट मान भी ले, परन्त मित्र बार-बार पैसे मांगा ही करता हो और लौटाने का कोई ठिकाना न हो, तो मित्रता टूटकर ही रहती है। शायद ऊपरी तौर पर मित्रता हो, परन्तु पहले जैसे मधुर संबन्ध नहीं रहेंगे । इसी प्रकार साझेदारी में भी दिखता है कि एक का लोभ बढ़ते ही आपसी संबंध टूटते हैं।
लोभ में मित्रता टूटने के उदाहरण दुनिया में कई जगह देखने मिलेंगे। पूर्व के द्रष्टान्त में उदाहरण के तौर पर देखें, तो कोणिक को राज्य का लोभ लगने पर पिता श्रेणिक के प्रति प्रेम टूट गया और उसने उन्हें जेल में डाला।
राजा कनककेतु आजीवन स्वयं ही राजा बना रहे और स्वयं के जीते जी पुत्र को राज्य न देना पड़े, इसलिये जन्मते पुत्र के किसी अंगोपांग का छेदन कराता, जिससे वह राजा बनने के लायक न रहे। इसमें पुत्र पर प्रेम कहाँ रहा?
चुलणी विषयसुख के लोभ में पड़ी, तो उसने पुत्र ब्रह्मदत्त को जिंदा जला मारने का पेंतरा आजमाया।
__ अरे ! रामचन्द्रजी जैसे को भी स्वयं अच्छे, लोकप्रिय राजा कहलाने का लोभ जगा, तो मूर्ख लोगों के मुख से सीता की निदा सुनकर, सीता को निष्पाप व निष्कलंक जानते हुए भी उसे गर्भिणी अवस्था में जंगल में अकेली छोड़ दी । कहाँ रहा सीतां पर प्रेम? सीता को सती तो मानते ही हैं, परन्तु लोग यदि कहते हैं कि 'इतने बड़े राजा को रावण के घर रहकर आयी पत्नी को घर मे रखना उचित नहीं।' तो ऐसे मूर्ख लोक में बड़े राजा के रुप में ख्याति बनाये रखने के लोभ में सीता को छोड़ा।
लोभ बुरा है, इसीलिये तो आज विषयसुख आदि के लोभ में बाप-बेटे में पटती नहीं, भाई-भाई में झगड़े होते हैं, भागीदारों में धोखेबाजी चलती है। लोभ में शिष्य गुरु के प्रति वफादारी छोड़ देता है, लोभ के कारण स्वतंत्र विचरण करता है। लोभ भक्तों में पक्षपात कराता है। लोभ से अपना काम कर देनेवाले साधु अच्छे लगते हैं व त्यागी साधु इतने अच्छे नहीं लगते । इस प्रकार लोभ प्रेम का नाशक है।
(३) लोभ से कार्य भी बिगड़ता है :- व्यवसाय बराबर चलता हो, परन्तु लोभ बढ़े, तो ऐसा अघटित साहस करवाता है, जिससे लाभ के बदले नुकसान होता है, धंधा है,
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