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बाजार में साख कम है, तो दिखावा अच्छा करने के लिये दूसरा बिगाडना भी पडता है। जीवन के दूसरे मामलों में भी यदि लोभ सताने लगता है, तो लोभ के अंधापे में इन्सान ऐसा कुछ कर बैठता है, जिससे कुछ उल्ट-सीधा होकर रहता है।
रावण को वाली राजा पर हुकूमत जमाने का लोभ जगा। वाली ने मित्रता रखने का मंजूर किया, फिर भी वर्चस्व जमाने के लोभ में रावण वाली के साथ लड़ने के लिये तैयार हो गया। इसमें उसे हार खानी पड़ी । अपनी विशाल सेना व कई सामंतों व राजाओं के देखते ही देखते रावण को वाली के हाथों पराजय झेलनी पड़ी।
भरत चक्रवर्ती को भी विशाल सेना के देखते हुए भाई बाहुबलि के हाथों परास्त होना पड़ा । यह क्या है ? स्वयं के सम्राटत्व को ही बट्टा लगा न?
लोभ कार्य का नाशक इस प्रकार बनता है कि लोभ में इन्सान का हृदय मनपसंद वस्तु पाने व संभालने के लिये इतना उतावला व विह्वल बन जाता है कि उसे दूसरा भान नहीं रहता । उतावल में अनुचित साहस करने पर कार्य को बिगाड़ देता है। मान पाने के लोभ में दौड़ता हुआ इन्सान ऐसा कर बैठता है, जिससे वह उल्टा हल्का बन जाता है। पैसों के लोभ में व्यापार में ऐसा उल्टा-सीधा रास्ता अपनाता है, जिससे कमाने के बदले गंवाता है।
(४) आगे बढ़कर लोभ सर्वस्व नाश करता है, सर्व गुणों का नाश करता है। शास्त्र कहते हैं कि (१) क्रोध से प्रीति का नाश होता है (२) अभिमान से विनय का नाश होता है, (३) माया से दूसरों के विश्वास का नाश होता है, परन्तु (४) सर्व गुणविनाशको लोभः'.... क्योंकि लोभवश बना जीव इच्छित वस्तु पाने व संभालने के लिये इतना अंध बनता है कि वहाँ प्रेम, विनय, विश्वास आदि गुणों को बचाने की कोई परवाह नहीं होती।
राग लोभ के कैसे अनर्थ ?
राग लोभ बुरा है। वह जिनवचन भुलवाता है, गुरु की शर्म छुड़वाता है, श्रावकत्व - साधुत्व भुलवाता है, स्नेहीजनों के स्नेह व विश्वासुओं के विश्वास का भंग कराता है। इस दनिया में चलने वाले पापों व दोषों का साम्राज्य किस कारण से? राग के कारण, लोभ के कारण । लोभ में पड़ा हुआ पिता अपना पितृत्व भूला बैठता है, भाई भाईचारा भूला बैठता है, गुरु अपना गुरुत्व खो बैठते हैं, पुत्र पुत्रत्व तथा शिष्य शिष्यत्व को भूला बैठता है। ..
धर्मनन्दन आचार्य महाराज राजा से कहते हैं - 'हे नरेन्द्र! लोभ एक महा ग्रह है। शनि आदि ग्रहों की पीड़ा की तरह लोभ की पीड़ा भी भारी है। जिस प्रकार अंध मनुष्य चलते वक्त ऊंची-नीची जमीन नहीं देख सकता, इसी प्रकार लोभी इन्सान जिस तरफ चलना चाहता है, जो कार्य करना चाहता है, उसमें ठीक से चला जायेगा या ठीक से काम किया जा सकेगा या ठोकर खानी पड़ेगी, यह नहीं समझ सकता । लोभ अंधापा है।
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