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________________ लोभ की व्यापक भयंकरता के लिये उपमायें :लोभ की चारों ओर से भयंकरता समझाने के लिये सुन्दर उपमायें दी गयी हैं। (१)अंध की तरह लोभग्रस्त इन्सान सम-विषम काल, स्थान या संयोग नहीं देख सकता। (२) बहरे की तरह लोभी इन्सान हित-अहित सुनने में अशक्त होता है। बहरे को चाहे जितना समझाया जाय कि "देख, इसमें तेरा हित है, इसमें तेरा अहित है। परन्तु वह सुनेगा भला? नहीं । बहरा है, क्या सुनेगा? लोभ में पड़े हुए को हित-अहित की बात चाहे जितनी सुनायी जाय, वह थोड़े ही सुननेवाला है ? चित्तमुनि का हितोपदेश संभूति मुनि ने सुना ही नहीं। आज कई पुत्र जमाने की बात या वस्तु के लोभ में मां-बाप का सुनते नहीं । इसी प्रकार बाह्य के लोभ में पड़ा हुआ शिष्य भी गुरु का अथवा शास्त्र का सुनने के लिये तैयार नहीं। रोहगुप्त मुनि को राजसभा में वाद में विजय मिली, मान मिला। इस मान के राग में वे फँस गये। बाद में गुरु ने बहुत कहा कि 'देख, मिथ्यात्वी को हराया और जिनशासन की वाहवाह करायी, यह तो अच्छा किया, परन्तु इसमें जीव-अजीव-नोजीव.. इन तीन राशियों की स्थापना की, यह तो सिद्धान्त विरुद्ध हुआ, उत्सूत्रभाषण हुआ । इसीलिये राजसभा में जाकर घोषणा कर दे कि 'राशि तो दो ही है - जीव व अजीव । नोजीव नामक कोई तीसरी चीज दुनिया में नहीं।' गुरु की यह हितवाणी रोहगुप्त ने न सुनी । क्यों ? मानसन्मान मिलने का लोभ है, जो बहरे की तरह हितवाणी नहीं सुनने देता।' राग को एक ओर रखा जाय, तभी जिनवाणी असर कर सकती है : आप व्याख्यान सुनते हैं न? परन्तु यदि उस वक्त आप किसी लोभ में, राग या आसक्ति में फंस गये, तो उपदेश आपको कोई असर नहीं करेगा। क्या शास्त्र नहीं कहते कि 'पैसे-परिवार आदि सब कुछ असार है।' परन्तु यह सुनते वक्त जिसके दिल में पैसों के प्रति जोरदार ममता है, वह कहता है तो क्या पैसों को या परिवार को फेंक दिया जाय?' इसमें क्या दिखता है ? राग में फंसे हुए होने से असारता की हितवाणी सुनाई नहीं दी। इसीलिये अनन्त कल्याणकारिणी जिनवाणी सुननी हो, सुनकर हृदय में बसानी हो, तो लोभ को-राग को एक बाजु रख दो, कहीं बीच में आने मत दो। (३) लोभ उन्माद है - उन्मत्तता है :- जिस प्रकार उन्मत्त इन्सान चाहे जैसी बकवास करता है, उसी प्रकार लोभी इन्सान भी मनचाहे शब्द बोलता है। लोभग्रस्त होने से उसे न शर्म है, न लाज ! व्यवसाय करते हुए इन्सान दो पैसे कमाने लगे, तो लोभ बढ़ने पर वह ऐसे मनोरथ करने लगता है व परिवार जनों तथा औरों के आगे कहने लगता है कि 'पैसे कमाना कौन-सी बड़ी बात है ? बस, अब तो इतने कमा ही लेने हैं। एक कारखाना शुरु कर दूं, तो फिर बस जिंदगी भर आराम ही आराम !' भाग्य न हो और कुछ हाथ में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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