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________________ कैसी विडंबना कि सुवर्णदेवी उसकी शरण लेती है; परन्तु प्रभु की शरण स्वीकारने का मन नहीं होता ! आपने भी अपने जीवन में कोई छोटा या बड़ा सहारा गंवाया होगा, कर्म की छोटी या बड़ी मार खायी होगी। फिर भी निरीक्षण कीजिये कि ऐसे समय में प्रभु का सहारा कभी लिया था ? यहाँ-वहाँ जाने की क्या आवश्यकता है ? एक ही क्वॉलिटी के नंग में एक-दो जगह ठगे गये, फिर क्या बार-बार उसीमें फंसना? सुवर्णदेवी ऐसे भयानक जंगल में है, जहां उल्लूओं की व बाघ-चीतों की आवाजें सनायी देती हैं। इसलिये वह मन में विचार करती है कि अब क्या करूं? फिर से विचार करती है कि 'चाहे जो हो, परन्तु बच्चों को तो बचाना ही है, उन्हीं से दुःखों का अन्त आयेगा। बच्चों को छोड़कर भागने की जरुरत नहीं है; नहीं तो मुझे बाल हत्या का दोष लगेगा। सुवर्णदेवी ने तोशल की अंगूठी बालक के गले में बांधी व अपने नाम की अंगूठी बालिका के गले में बांधी। बाद में एक कपड़े के एक छोर पर बालक को बांधा व दूसरे छोर पर बालिका को बांधकर गठरी बनायी । गठरी वहीं रखकर वह स्नान करने के लिये झरने के पास गयी। बाघनी बच्चों को उठाती है : हुआ यों कि एक सद्यप्रसूता बाघनी बाहर घूमने निकली थी। उसने दूर से वह गठरी देखी, तो वहां आयी। गठरी अपने दांतों से उठाकर वह चलने लगी। रास्ते में गठरी की गांठ छूट गयी व उसमें से बालिका नीचे गिर गयी, परन्तु बाघनी को इसका ध्यान न रहा और वह तो आगे चल पड़ी। कहिये, गठरी देखकर बाघनी उसके समीप आयी, तब उन दोनों बच्चों का कौन रखवाला था? फिर भी बाघनी को उन्हें खाने का मन न हुआ? खैर, उठाकर जाने के बाद भी कौन रखवाला था कि बालिका नीचे गिर पड़ी व बाघनी का उस ओर ध्यान भी न गया? आगे जाकर बालक भी बचने ही वाला है, तो उसका भी कौन रक्षक है ? इन्सान अभिमान करता है कि 'सब कुछ अच्छा-अच्छा मैं ही करता हूं'... यह अभिमान किस काम का? यह अहंकार गलत है, अनुचित है। जीव के शुभ कर्म ही उसे बचाते हैं। संसार में मदद करनेवाले का उपकार मानना, किन्तु उसके भरोसे न रहना : दूसरे की ओर से रक्षण मिलता हो, सहारा मिलता हो, मदद-आश्वासन-सहानुभूति मिलती हो, तो यह सब अपने पूर्व के शुभ कर्म के उदय के कारण ही है। तो क्या सहायक का उपकार न माना जाय ? नहीं, उपकार तो जरुर मानना चाहिये, परन्तु उसका इतना भरोसा करके भी न बैठना कि शुभोदय पलट जाने पर किसीकी ओर से मदद, सहानुभूति न मिले, तो भी शोक न हो; उसके प्रति द्वेष न हो। मन में ऐसा लगता है कि 'मेरे शुभ कर्मों का उदय चल रहा था, इसीलिये दूसरों को मदद करने का मन होता था। अब शुभोदय खत्म हो गया लगता है, इसीलिये किसीको मदद करने का मन नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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