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________________ इतना ही है, परन्तु बाद में बुरे काम, बुरे विचार, बुरे वर्तन व बुरे भाषण तो आत्मा के स्वतंत्र प्रयत्न के कारण ही होते हैं । आत्मा के चैतन्य में ज्ञान व वीर्य हैं । यह वीर्य कैसा प्रगट किया जाय, इस मामले में आत्मा स्वतंत्र है। यदि जीव कर्म के उदय का मूर्ख गुलाम बने, तो वीर्य उल्टे रास्ते मैं स्फुरित होगा। परन्तु ऐसी मूर्खता न करे, गुलामी मोल न ले, तो अन्य अच्छे विचार-वाणी-वर्तन में वीर्य स्फुरित करने में आत्मा स्वयं स्वतंत्र है, ऐसा समझकर यही करना चाहिये। आस्तिक भ्रमणा में गुलाम : आज कई आस्तिक गिने जाने वाले भी भूलते हैं । मादक, उत्तेजक खानपान, वारंवार खानपान, वासनोत्तेजक वांचन-दर्शन-चिन्तन, स्त्रियों का अति संसर्ग आदि करके भोंग की लालसा जीवंत रखता है व भोगों में लीन बना रहता है, फिर मानता है कि 'क्या करूं? मेरे भोगावलि कर्म ही ऐसे हैं, उनके कारण ही यह सब भुगतना पड़ता है; नहीं तो भोग की भावना व प्रवृत्ति कहां से हो ?' इस भ्रमणा में पड़े उसका उद्धार किस प्रकार हो ? ऐसे लोग यह नहीं देखते कि ऐसे कर्म के उदय भी तेरे खराब निमित्त-सेवन से मोल लिये गये हैं। नहीं तो, कर्म तो कई ऐसे हैं कि निमित्त अच्छे रखे हों, वीतराग की वारंवार भक्ति, स्मरण, जाप, स्तवना रखी हो, साधु सेवा - जिनवाणी श्रवण, सादे खान पान, अल्प बार खान-पान, आध्यात्मिक वांचन-चिंतन आदि किये जायें व बुरे निमित्तों से दूर रहना हो, तो वे कर्म तीव्र विपाकोदय बताने के बदले मंद उदय बताकर चले जाते हैं। इस प्रकार पहले कहा गया, इस तरह मोहनीय कर्म तो अन्तर में खराब भाव ही जगाता है, परन्तु बाद में बुरे विचार-वाणी-वर्तन चले, यह तो आत्मा के स्वतंत्र वीर्य के दुरुपयोग के कारण ही है। यह न समझने के कारण जीवन की पिछली अवस्था में भी वासना की गुलामी नहीं छूटती। कर्म के उदय को मानने से आधे नास्तिक तो कहे जाते हैं, परन्तु भोग के लालची होने से आस्तिकता की दूसरी ओर जो वीर्य-उद्यम प्रयत्न का आत्मस्वातंत्र्य, वह न मानने के कारण आधे नास्तिक कहे जाते हैं। __ सुवर्णदेवी को कर्म का उदय तो था ही, परन्तु साथ ही साथ काम-वासना के विचार भी किये, राजकुमार तोशल को राग से देखा, घर में एकान्त में उसका स्वागत किया, उसके आगे दीनता बतायी, यह सब आत्मा के स्वतंत्र वीर्य-प्रयत्न का खतरनाक दुरुपयोग कहा जाता है, इसीसे वह पतित हुई। एक ही क्वॉलिटी के नंग :। देखिये, पति-पिता-माता का सहारा खो दिया, फिर भी सही राह नहीं सूझती । पुत्र भी इसी क्वॉलिटी का नंग है न? उसका सहारा भी खोने की संभावना है, फिर भी मोह की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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