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________________ भाई ! हे सखी ! हे वृक्ष ! मेरा कौन आधार? मैं क्या करूं? कहाँ जाऊं?.....' रोते-रोते वह बेहोश हो गयी। प्रसूति का दुःख :- ठंडी हवा बहने से सुवर्णदेवी होश में आयी । घबराती हुई, धीरे-धीरे आगे बढ़ी। प्रसूति का समय निकट आने से पेट में दर्द होने लगा। परन्तु वह समझ नहीं पायी कि यह दर्द प्रसूति के कारण है, इसलिये मन में खेद करती है कि 'यह दर्द कहाँ से आया?' थोड़ी देर में तो कुख में से गर्भ बाहर आने लगा। वह तुरन्त सावधान हो गयी। वहाँ न कोई दायी माँ थी, न ही कोई अन्य स्त्री और गर्भ में एक नहीं, दो-दो जीव थे। प्रसूति की पीड़ा का कोई पार नहीं । स्त्री चाहे बड़ी राजा की रानी हो, तो भी उसे यह कैसा दुःख? शास्त्र कहते हैं - स्त्री को प्रसूति की वेदना इतनी भयंकर होती है कि उस वक्त तो उसे वैराग्य आ जाता है कि 'नहीं चाहिये यह विषय-सेवन का सुख ।' परन्तु यह अल्पकालीन दुःख से उत्पन्न वैराग्य लंबा थोड़े ही चलनेवाला है ? वेदना मिटने पर ही फिर से विषय की आसक्ति तैयार ही समझो। सोचने की बात तो यह है कि ऐसे भयंकर दुःख से मिश्रित सुख पर कायमी वैराग्य न आये, तो देवलोक में, जहाँ प्रसूति आदि की पीड़ा ही नहीं, वहाँ विषय-सुख पर वैराग्य आयेगा ही कहां से? फिर तो विषयासक्ति के पाप से कैसे दीर्घ दुर्गति के भवों में भटककर मरने का दुःख? युगल का जन्म : सुवर्णदेवी का स्दन : सुवर्णदेवी ने एक बालक व एक बालिका को जन्म दिया। देवकुमार-कुमारी जैसे इस युगल को देखकर उसे रोना आ गया। रोते-रोते वह बोलने लगी, . 'हे पुत्र ! तू कैसा नसीबदार है कि तूने मेरा रक्षण किया ! तू गर्भ में था, इसीलिये इस भयंकर जंगल में मेरी मृत्यु नहीं हुई। नहीं तो जहाँ बाघ-चीते आदि भयंकर जंगली जानवर घूमते हों, वहाँ बलवान भी नहीं बच सकते, तो मैं अबला बचूं ही कैसे? पुत्र ! मैं कैसी अभागिन कि तेरा जन्मोत्सव भी नहीं मना सकती। हे वत्स! पति, पिता आदि सबसे मैं त्यागी हुई हूं, तू ही मेरा नाथ है, तू ही मुझे शरण रुप है, तू ही मेरा आसरा है, सहारा है।' . इन्सान को भाग्य की पराधीनता सहनी पड़ती है, परन्तु बुरे काम की पराधीनता तो नहीं न? भाग्य जो कुछ भी बुरा दे, वह सहना पड़ता है, किन्तु बुरे काम करने का पुरुषार्थ भी करना ही पड़े, ऐसा तो नहीं है न ? या अपकृत्य भी भाग्य ने करवाया? नहीं! बुरे काम भाग्य से नहीं, परन्तु विपरीत पुरुषार्थ से : ऐसा मत समझियेगा कि बुरे काम भाग्य कराता है। यदि ऐसा हो, तो भाग्य तो साथ में ही रहनेवाला है। क्योंकि पूर्व के भाग्यवश यहाँ के बुरे कामों से ऐसे नये भाग्य पैदा होंगे, जिससे फिर से ऐसे बुरे काम होंगे ! इसका तो कभी अन्त ही नहीं आयेगा और कभी मोक्ष भी नहीं होगा ! वास्तव में तो भाग्य यानी मोहनीय कर्म तो अन्तर में रागादि भाव जगाता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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