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________________ यदि शील-भंग की इस पृथ्वी पर इस जन्म में भी इतनी बड़ी सजा हो, तो भवान्तर में कितनी बडी सजा होगी ! शील भंग करके ऐसे कौन-से अमर सुख के सागर मिल जाते हैं कि वह करके बड़ी सजा को निमंत्रण दिया जाय ? ऐसा परस्त्री के क्षणिक आनंद का लोभ छोड़ देना चाहिये । शीलधारी गृहस्थ को स्वस्त्री में संतोष रखना चाहिये। समझना चाहिये कि 'विभिन्न रंगों के गिलास में पानी तो वही का वही है, तो फिर गिलास पर मोह कैसा? भविष्य में दीर्घ काल तक वासना की आग भड़काये, ऐसे कुसंस्कार पैदा ही क्यों किये जायें ? ऐसे कुसंस्कार पोषक दर्शनवांचन या श्रवण-स्मरण किये ही क्यों जायें ? ब्रह्मचारी गृहस्थ या साधु को यह सोचना चाहिए कि 'यदि मैं स्वेच्छा से एकदम निर्मल ब्रह्मचर्य का पालन करूंगा, तो उसके अभ्यास में भोग की खुजली की ज्वाला न सुलगने देने से अन्तर में ऐसी तृप्ति व निर्विकारता का महान आनंद पैदा होगा, जिसके आगे विकार का कृत्रिम आनन्द असह्य दाह जैसा लगेगा। यह तो सीधी-सी बात है कि क्या विकार का पोषण करके कभी ऐसा हुआ है कि फिर से विकार ही न जगे व फिर से यह बला पीछे ही न पड़े ! यदि इसका अन्त ही न आये, तो विकारों का पोषण करके आनन्द क्यों माना जाय? इसके बजाय इसे दबाकर नित्य तृप्ति का आनन्द क्यों न माना जाय? राजकुमार तोशल पाटलिपुत्र पहुंच गया व वहां के राजा जयवर्मा की सेवा में लग गया। सुवर्णदेवी को उसके परिवारजन धिक्कारने लगे। इस बीच उसे पता चला कि 'राजा के हुकम से मंत्री ने राजकुमार तोशल का वध कर डाला' । इससे उसे बहुत संताप हुआ कि 'अरे अरे ! मेरे कारण बेचारे तोशल को ऐसी भयंकर मृत्युदंड की सजा हुई ! मैं कैसी अभागिन?' कुटुंब की ओर से धिक्कार, तोशल का वध.. इस दुःख से परेशान होकर एक रात वह घर से भागी व नगर के बाहर निकलकर उसने पाटलिपुत्र का रास्ता लिया। जंगल से होकर जाना था, इसमें उसे एक व्यक्ति का साथ मिल गया, इससे वह कुछ आश्वस्त हुई। परन्तु भाग्य उल्टा है, उसे शान्ति कहां से मिले? स्वयं गर्भवती है, प्रसूति के दिन निकट हैं, इसलिये वह तेजी से चल नहीं सकती और उसका साथी तो बहुत तेज गति से चल रहा है, वह पीछे अकेली रह गयी। जंगल के रास्ते में रात पड़ी। चारों ओर बाघ-चीतों व जंगली प्राणियों की भयंकर आवाजें सुनायी दे रही हैं, इससे भय व घबराहट का कोई पार नहीं । भय के मारे कांपती है व रोने लगती है - 'हे तात ! बाल्यावस्था में आपको अति प्रिय इस पुत्री को आज आपका वियोग क्यों हुआ? हे माता ! तू मुझे आज क्यों बचाने नहीं आती? हे नाथ ! आप कहाँ गये? हे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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