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. (३) हिंसा वगैरह पापाचारों को रोकने के लिए, अहिंसा, सत्य आदि के प्रतिज्ञा बद्ध शील-महाव्रत का पालन करना । इस महाव्रत को पुष्ट करने वाले समिति गुप्तिस्वाध्याय ध्यान आदि के आचार-अनुष्ठान में लगे रहना चाहिए।
तप आदि से मन स्वच्छ किस तरह ?:
ऐसा करते करते मन मलिन भावों में रमण करने से हटेगा । मन क्यों मैले भाव धारण करता है ? खान पानादि के कारण, इन्द्रियों के विषयों के कारण और हिंसा-झूठ आदि पापाचारों के कारण । अब यदि तप-नियम-शील की ही प्रवृत्ति रहे, मन उसमें रत होने के कारण मन को अशुभ भावों में रमना रहता ही नहीं, फलतः इस तरह से मन स्वच्छ, निर्मल, विशुद्ध होता जाता है। अतः कहा है कि, 'तप, नियम, शील के योगों द्वारा मन को विशुद्ध करो।'
आचार्य महाराज धर्मनन्दन के यह कहने पर वहाँ आकर बैठे हुए मानभट को महसूस हुआ कि 'मैं अब तक ठगा गया, मन शुद्ध किये बिना पाप-नाश नहीं होता, और तप-नियमादि के बिना मन शुद्ध नहीं होता।'
महापापात्मा ऐसे मानभट के हृदय का परिवर्तन हुआ! और भ्रान्ति-अज्ञान, मूढ़दशा छूट गयी। जिन शासन की ठोस टॅकसाली सच्ची बातों का यह प्रभाव है कि जीव के मिथ्यात्व-अज्ञान-भ्रान्ति आदि का वमन करा दे।
मूल मल है राग द्वेष :
जिन शासन के सिवा और कौन यह मेल बैठा सकता है कि मलिन मन से पाप होता है और मन को भानेवाले खानपान से मन मलिन बनता है ? भूख लगना प्राकृतिक क्रिया है, शरीर को टिकाने के लिए खान-पान आदि जरुरी हैं। अब यदि शरीर टिके तो ही धर्म साधना हो सकती है। तब फिर मनचाहे खान-पान लेते गये तो इसमें क्या दोष? पाप काहे का? मन कैसे मैला होता है ? परन्तु जिनशासन समझाता है कि मनभावन खान पान खोजने - जाने में खूब खूब रागद्वेष का पोषण होता है। रागवश अमुक अमुक वस्तुएँ पसंद आती हैं, तो द्वेषवश अन्य वस्तुएँ नापसंद होती है। रागद्वेष जिसे नहीं, उसे पसंद-क्या ? और नापसंद क्या ? रागद्वेष से ही पसंद-नापसंद होती है। और रागद्वेष ही आत्मा का कहिये या मन का मूल बुनियादी दोष है, मन का मैल है। मन चाहे खानपानादि के माध्यम से यह मैल इकट्ठा करना जारी हो और ऐसा माने कि केवल प्रभु-भजनादि अन्य धार्मिक प्रवृत्तियों द्वारा मैं तर जाऊंगा तो वह भ्रम में पड़ता है - भूलता है। धार्मिक प्रवृत्ति से धर्म होता है, लेकिन उन खानपानादि के रागद्वेष का मैल और उससे उत्पन्न होनेवाले पाप कहाँ जाएँ ? तो जब तक मैल है तब तक तरना कैसे हो? तरने का अर्थ है आत्मा को सर्वथा शुद्ध करना, किन्तु मैल विद्यमान हैं तब तक सर्वथा शुद्ध कैसे होगा?
राग द्वेष का मूल मैल दूर करना तो इतना अधिक आवश्यक है कि पू. उपा. श्री
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