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जैसे पाप के मूल में मलिन मन होता है वैसे पापनाश के मूल में शुद्ध मन होना चाहिए।
आचार्य महाराज ने बराबर युक्तपूर्ण मार्ग दिखाया! पाप मलिन अर्थात् बिगड़े मन से हुए हैं, इनका निष्कासन करना हो तो सबसे पहले मन को ही स्वच्छ करना पड़े। जब तक मन मैला तब तक पाप का नाश कैसा? और पाप नाश के बिना प्रगति कैसे हो? अतः पहले यह देखना चाहिए कि मन किस तरह शुद्ध, पवित्र उज्ज्वल बने।
__आचार्य महाराज ने यह दर्शाया कि मन को भी निर्मल बनाना हो तो यह मनचाही खान पान की प्रवृत्तियाँ साथ ही मनचाही इन्द्रिय-विषयों की प्रवृत्तियाँ तथा चाहे जैसे हिंसा असत्य आदि पापाचारों के सेवन से संभव नहीं, क्योंकि ये प्रवृत्तियाँ ही ऐसी हैं कि मन मलिन हो तो ही इन में प्रवर्तमान रहे, तदुपरान्त इनके सेवन से चित्त और अधिक मलिन भी बने।
हिंसा झूठ वगैरह के विचार मलिन मन में से उठते हैं और हिंसादि करने से मन अधिक मलिन होता है।
'जड़ जड़ को खाता है' ऐसा दम्भ :
इस तरह खाते-पीते दीवाली मनानी है; और उसमें ऊपर से ढोंगी भाव रखना कि 'पुद्गल पुद्गल का भक्षण करता है, आत्मा को इससे क्या?' यदि सचमुच चित्त को ऐसा प्रतीत हुआ हो कि आत्मा को अच्छे रुप के साथ कोई सम्बन्ध नहीं तो फिर आत्मा क्यों इस में प्रवृत्त हो ? गर्म पानी या चिरायते का पानी आत्मा क्यों न पीए ? शरीर जड़ है और खान-पान जड़ है - यह सच है; किन्तु आत्मा की इच्छा वीर्य-स्फुरण और प्रयत्न के बिना शरीर थोडे ही अपने आप प्रवृत्त होता है ? ऐसे तो फिर शब भी प्रवृत्त होने लग जाए ? लेकिन नहीं, इच्छा, वीर्यस्फुरण और प्रयत्न तो आत्मा के धर्म हैं, और उनके बिना शरीर प्रवर्तमान हो ही नहीं सकता। अतः जड़ की ओर जड़ शरीर यों ही नहीं दौड़ता, दौड़ती तो आत्मा है, तभी उसके साथ शरीर दौड़ता है। आत्मा के प्रयत्न से शरीर प्रवृत्ति करता है। रेलगाड़ी के इंजिन जैसी बात है। ड्राइवर कोशिश करता है तभी इंजिन दौड़ता है और वह दौड़ता है तभी रेलगाडी दौडती है।
सारांश, जब आत्मा खान-पान, विषयों तथा हिंसादि के लिए प्रयत्न करे तभी शरीर अपनी प्रवृत्ति कर सकता है। इसलिए कहा जाता है कि आत्मा को ये मनभावन खान पान ग्रहण करने में मन मैला करना ही पड़ता है। इस पर से सिद्ध होता है कि -
मन को स्वच्छ करना हो तो - (१) मनभावन खान पानादि छोड़ कर त्याग-तपस्या में प्रवृत्त होना चाहिए।
(२) इन्द्रियों के विषयों की प्रवृत्ति जिनसे रुक जाए, ऐसे कठोर व्रत, नियम, अभिग्रह धारण करें।
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