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का मैल धुलता है, किन्तु आत्मा के जो पाप है वे किस तरह धुलें? वैसे ही पर्वत पर से छलांग लगाने से हड्डियों का चूरा हो जाय लेकिन पापों का चूरा कैसे हो? पाप तो जीव के साथ परलोक में जाते हैं, क्योंकि पाप तो आत्मा की वस्तु है, न कि शरीर की। अतः शरीर टूटने से पाप कैसे टूट सकता है । इसलिए प्रश्न यह है कि 'ऐसा कौनसा कारण है भला कि जिससे पहाड़ से गिरने के फलस्वरुप पाप का नाश हो जाय ?'
(१) कहिये कि 'ऐसा स्वभाव ही है; यही कारण है कि ऐसा होता है।' यदि ऐसा कहते हैं तो प्रश्न यह है कि ऐसा होना किसने देखा है ? क्योंकि प्रत्यक्षतः कुछ नहीं देखा जा सकता । आत्मा तो अमूर्त-अरुपी है। यह आत्मा ही यदि प्रत्यक्षतः दृश्यमान नहीं तो उस पर लगे हुए पाप रहे है, या नष्ट हुए, यह तो दिख ही कैसे सकता है ?
(२) तब यों कहिये कि 'शास्त्रों से ज्ञात होता है कि पर्वत पर से पतन द्वारा पाप नष्ट होते हैं।' तो शास्त्र भी किसके बनाये हुए ? रुपी, अरुपी सब कुछ जो प्रत्यक्ष देख और जान सकते हैं ऐसे सर्वज्ञ के रचे हुए या न देख सकनेवाले अल्पज्ञ के रचे हुए ? यदि अल्पज्ञ के कहे हुए हैं तो वे प्रमाणभूत किस तरह से माने जाएँ ? जिसने प्रत्यक्ष नहीं देखा कि पाप-नाश इस तरह होता है वह ऐसा कहे तो उस पर क्या विश्वास रखा जाय? तब यदि कहते हैं कि सर्वज्ञ रचित शास्त्र ऐसा कहते हैं तो वह झूठ है; सर्वज्ञ ऐसा कभी नहीं कहेंगे। शास्त्र तो सर्वज्ञ रचित ही प्रमाणभूत माने जा सकते हैं, और वे तो ऐसा कहते हैं
पडण पडियस्स धम्मो न होइ, अह मंगुलं हवइ चित्तं । सुद्धमणो उण पुरिसो घरे वि कम्मख्यं कुणइ ॥ | तम्हा कुणह विसुद्धं चित्तं तव-णियम-सील जोएहिं ।
आंतरभावेण विणा सव्वं भुसकुट्टियं एयं ॥ 'अर्थात किसी पहाड़ पर से गिरने में धर्म नहीं होता, वरन् चित्त उलटे मलिन, अशुभ विचारवाला बनता है क्योंकि एक तो चित्त ने यह नहीं देखा कि ऐसे शरीर फेंक देने से वह जहाँ गिरेगा वहाँ यह शरीर कोई सूक्ष्म जीव जन्तु मारेगा तो? अत: ऐसा चित्त शुद्ध नहीं । दूसरा यह कि, गिरने मे भीषण वेदना होने पर चित्त में 'हाय हाय' उठे वह अशुभ ही है। तब चित्त बिगड़ता हो उसमें पाप शुद्धि कैसी? और यदि चित्त शुद्ध हो तो वह मनुष्य घर में भी कर्मक्षय करता है।
अत: ऐसी पहाड से गिरने जैसी अज्ञानमूढ प्रवृत्ति करने के बदले तपस्या, नियम, शुभ ध्यान एवं शील के योगों से मन को शुद्ध करो; क्योंकि इससे अन्तःकरण के भाव शुद्ध होते है। अन्यथा जिससे अंतःकरण के भाव शुद्ध न बनें ऐसी चाहे जितनी प्रवृत्ति करना भी फूसा फटकने के समान है। धान के ऊपर का भुसा लाख मन कूटा जाय तो भी उससे क्या? पाव भर भी चावल थोडे ही निकलेंगे?
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